परमेश्वर के अंत के दिनों का न्याय कार्य मनुष्य को कैसे शुद्ध करके बचाता है?
लोगों को यह एहसास हो गया है कि बड़ी आपदाएँ हम तक आ गयी हैं, और प्रभु के बादल पर आने की आस लगाए हुए लोग सांस रोक कर प्रतीक्षा करते रहे हैं। वर्षों की प्रतीक्षा के बाद भी वे अब तक उसे आते हुए नहीं देख पाए। इसके बजाय, वे चमकती पूर्वी बिजली को, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के न्याय-कार्य की गवाही देते हुए देख रहे हैं। यह उनके लिए घोर निराशा है। उनकी आस थी कि वे सीधे स्वर्गारोहित होकर वहाँ प्रभु से मिलेंगे, उन्हें यह आशा बिल्कुल नहीं थी कि वापस लौटने पर वह न्याय-कार्य करेगा। वे इसे स्वीकार नहीं करना चाहते। बहुत-से लोग धार्मिक संसार की मसीह-विरोधी ताकतों का अनुसरण कर रहे हैं, और परमेश्वर के प्रकटन और कार्य की आलोचना कर उसकी निंदा कर रहे हैं। वे सोचते हैं, “हमारे पापों को माफ कर दिया गया है और परमेश्वर ने हमें धार्मिक मान लिया है, इसलिए हमें परमेश्वर के न्याय की जरूरत नहीं है। हम प्रतीक्षा कर रहे हैं कि प्रभु हमें अपने राज्य में ले जाएगा जहां हम उसके आशीषों का आनंद लेंगे।” वे अपनी धारणाओं से चिपके हुए हैं और सच्चे मार्ग को खोजने और जांचने को तैयार नहीं हैं, इसी कारण से उन्होंने अभी तक प्रभु का स्वागत नहीं किया है, और आपदाओं में पड़ गए हैं। यह प्रभु यीशु के वचनों को पूरी तरह से साकार करता है : “क्योंकि जिस किसी के पास है, उसे और दिया जाएगा; और उसके पास बहुत हो जाएगा : परन्तु जिसके पास नहीं है, उससे वह भी जो उसके पास है, ले लिया जाएगा। और इस निकम्मे दास को बाहर के अंधेरे में डाल दो, जहाँ रोना और दाँत पीसना होगा” (मत्ती 25:29-30)। लेकिन कई लोग सत्य से प्रेम करते हैं और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़कर, उन्होंने उन वचनों की सामर्थ्य और अधिकार को देखा और समझा कि वे सभी सत्य हैं। उन्होंने परमेश्वर की वाणी को पहचाना और वे अपनी धारणाओं से बंधे नहीं रहे, बल्कि वे सच्चे मार्ग की जांच-पड़ताल करते रहे। उनके शुरुआती सवाल थे, परमेश्वर को अब भी न्याय कार्य क्यों करना है, जबकि उनके पापों को माफ कर दिया गया है और उन्हें परमेश्वर ने धार्मिक मान लिया है, और परमेश्वर अंत के दिनों के उस कार्य के जरिये मनुष्य को कैसे शुद्ध करके बचाता है। ये दो प्रश्न सबसे अहम और उलझाने वाले हैं, जो सच्चे मार्ग की जांच-पड़ताल करने वाले सभी लोगों ने समझ लिए होंगे।
आइए, इस प्रश्न से शुरू करें कि परमेश्वर को अंत के दिनों में न्याय-कार्य करने की जरूरत क्यों है। बहुत-से धार्मिक लोगों के लिए बड़ी उलझन का विषय है। वे सोचते हैं, “परमेश्वर हमारे पापों को माफ कर चुका है, और परमेश्वर हमें पापी नहीं समझता, तो फिर हमें सीधे उसके राज्य में ले जाया जा सकता है, और हमें परमेश्वर के न्याय की जरूरत नहीं है।” यह एक बहुत बड़ी गलती है। यह सच है कि प्रभु ने मनुष्य के पापों को माफ कर दिया है, लेकिन क्या उस माफी का अर्थ है कि हमें शुद्ध कर दिया गया है? क्या इसका अर्थ यह है कि हमने परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण हासिल कर लिया है? नहीं। हम सबने ये देखा है कि हमारे पापों के माफ हो जाने के बावजूद, बिना किसी अपवाद के सारे विश्वासी पाप करने और फिर उन्हें स्वीकारने के कुचक्र में जी रहे हैं, दिन में पाप करके रात में उन्हें स्वीकार करते हैं, प्रभु यीशु के आदेशों का पालन करने की कोशिश करते और असफल होते हैं, प्रभु से प्रेम करने और उसके प्रति समर्पण करने की कोशिश में असफल होते हैं, नेक काम करने की ठानते हैं, मगर न चाहकर भी झूठ बोलते और पाप करते रहते हैं, खुद को संभालने की पुरजोर कोशिश करके भी विफल हो जाते हैं। बहुत-से लोगों को लगता है कि शरीर बहुत भ्रष्ट है, और पाप का जीवन जीना सच में दुखदायी है। तो फिर लोग खुद को पाप के बंधनों से छुड़ाकर बाहर क्यों नहीं निकल पाते? हम न चाहते हुए भी क्यों लगातार पाप करते रहते हैं? यह इंसान की पापी प्रकृति और शैतानी स्वभावों के कारण है। यही है पाप का मूल। पाप के मूल का समाधान किए बिना, हम उससे कभी आजाद नहीं हो सकते, बल्कि हम परमेश्वर का प्रतिरोध करते रहेंगे, उसकी निंदा करेंगे, और उसके विरुद्ध रहेंगे। फरीसियों के बारे में सोचिए, जिनकी आस्था पीढी-दर-पीढी चली आ रही थी, और जो लगातार पाप-बलि देते रहते थे। ऐसा क्यों है कि जब यहोवा परमेश्वर ने प्रभु यीशु के रूप में देहधारण किया, और बहुत-से सत्य व्यक्त किए, तो उन्होंने प्रभु यीशु को यहोवा परमेश्वर के प्रकटन के रूप में नहीं पहचाना, बल्कि उसकी निंदा और आलोचना की, यहाँ तक कि उसे सूली पर चढ़वा दिया? समस्या क्या थी? अब अंत के दिनों में, जब सर्वशक्तिमान परमेश्वर आकर सत्य व्यक्त कर रहा है, तो इतने सारे धार्मिक लोग उस पर गौर करने से भी इनकार क्यों करते हैं, पागलों की तरह उसका तिरस्कार और ईशनिंदा करते हैं, फिर एक बार परमेश्वर को सूली पर चढ़ाने पर अड़े हुए हैं। आखिर इन सबका अर्थ क्या है? यह साफ तौर पर दिखाता है कि हालांकि लोगों के पापों को माफ कर दिया गया है, मगर वे अभी भी शैतानी प्रकृति के काबू में हैं, वे किसी भी पल परमेश्वर की निंदा कर उसका प्रतिरोध कर सकते हैं। मनुष्य की पापी प्रकृति सिर्फ पापमय कर्मों की बात नहीं है, बल्कि यह इतनी गंभीर है कि वे सत्य व्यक्त करने वाले मसीह को सूली पर चढ़ाना चाहते हैं, परमेश्वर के खिलाफ, सत्य के विरुद्ध खड़े होकर परमेश्वर के विरुद्ध कार्य करके उसके दुश्मन बन जाते हैं। परमेश्वर के विरुद्ध काम करने वाले ऐसे गंदे और भ्रष्ट लोग उसके राज्य के लायक कैसे हो सकते हैं? परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, और उसके स्वभाव का अपमान नहीं किया जा सकता। जिन लोगों के पाप क्षमा हो गए हैं, अगर उन्हें न्याय-कार्य से शुद्ध नहीं किया गया, बल्कि वे पाप करते रहे और परमेश्वर का प्रतिरोध करते रहे, तो वे कभी भी परमेश्वर के राज्य के लायक नहीं होंगे—इसमें कोई शक नहीं है। यह प्रभु यीशु के वचनों को साकार करता है : “जो मुझ से, ‘हे प्रभु! हे प्रभु!’ कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है” (मत्ती 7:21)। “मैं तुम से सच सच कहता हूँ कि जो कोई पाप करता है वह पाप का दास है। दास सदा घर में नहीं रहता; पुत्र सदा रहता है” (यूहन्ना 8:34-35)। इसके अलावा इब्रानियों 12:14 में कहा गया है : “पवित्रता के बिना कोई प्रभु को कदापि न देखेगा।” इसीलिए प्रभु यीशु ने अपने छुटकारे के कार्य के दौरान कई बार कहा था कि वह दोबारा आएगा। तो वह यहाँ क्या करने आया है? वह मनुष्य को पाप और शैतान की ताकतों से पूरी तरह से बचाने, सत्य व्यक्त करने और अपना न्याय-कार्य करने आया है, ताकि हम पूरी तरह से परमेश्वर की और मुड़कर ऐसे लोग बन सकें जो परमेश्वर को समर्पित होकर उसकी आराधना करते हैं। तब वह हमें एक सुंदर गंतव्य तक ले जाएगा। जैसा कि प्रभु यीशु ने भविष्यवाणी की थी : “मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा” (यूहन्ना 16:12-13)। “यदि कोई मेरी बातें सुनकर न माने, तो मैं उसे दोषी नहीं ठहराता; क्योंकि मैं जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं, परन्तु जगत का उद्धार करने के लिये आया हूँ। जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहरानेवाला तो एक है: अर्थात् जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा” (यूहन्ना 12:47-48)। और, “क्योंकि वह समय आ पहुँचा है कि पहले परमेश्वर के लोगों का न्याय किया जाए” (1 पतरस 4:17)। हम देख सकते हैं कि परमेश्वर ने बहुत पहले अंत के दिनों में न्याय-कार्य करने की योजना बना ली थी, और भ्रष्ट मनुष्य को पूरी तरह से बचाए जाने के लिए इसी की जरूरत है। अंत के दिनों में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर सत्य व्यक्त कर रहा है, और परमेश्वर के घर से शुरू होने वाला न्याय-कार्य कर रहा है। वह इंसान के बीच आया सत्य का आत्मा है, जो परमेश्वर के चुने हुए लोगों को समस्त सत्य में प्रवेश करा रहा है। यह प्रभु यीशु की भविष्यवाणियों को पूरी तरह से साकार करता है। परमेश्वर को अंत के दिनों में न्याय-कार्य करने की जरूरत क्यों है इस बारे में अधिक स्पष्टता के लिए अब आइए सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कुछ वचन पढ़ें।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया, फिर भी उसने केवल समस्त मानवजाति की मुक्ति का कार्य पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना; उसने मनुष्य को उसके समस्त भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, अब जबकि मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिया गया है, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए वापस देह में लौट आया है, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया है। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना)।
“मनुष्य को छुटकारा दिए जाने से पहले शैतान के बहुत-से ज़हर उसमें पहले ही डाल दिए गए थे, और हज़ारों वर्षों तक शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद मनुष्य के भीतर ऐसा स्थापित स्वभाव है, जो परमेश्वर का विरोध करता है। इसलिए, जब मनुष्य को छुटकारा दिलाया गया है, तो यह छुटकारे के उस मामले से बढ़कर कुछ नहीं है, जिसमें मनुष्य को एक ऊँची कीमत पर खरीदा गया है, किंतु उसके भीतर की विषैली प्रकृति समाप्त नहीं की गई है। मनुष्य को, जो कि इतना अशुद्ध है, परमेश्वर की सेवा करने के योग्य होने से पहले एक परिवर्तन से होकर गुज़रना चाहिए। न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से मनुष्य अपने भीतर के गंदे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने के योग्य हो सकता है। ... क्योंकि मनुष्य को छुटकारा दिए जाने और उसके पाप क्षमा किए जाने को केवल इतना ही माना जा सकता है कि परमेश्वर मनुष्य के अपराधों का स्मरण नहीं करता और उसके साथ अपराधों के अनुसार व्यवहार नहीं करता। किंतु जब मनुष्य को, जो कि देह में रहता है, पाप से मुक्त नहीं किया गया है, तो वह निरंतर अपना भ्रष्ट शैतानी स्वभाव प्रकट करते हुए केवल पाप करता रह सकता है। यही वह जीवन है, जो मनुष्य जीता है—पाप करने और क्षमा किए जाने का एक अंतहीन चक्र। अधिकतर मनुष्य दिन में सिर्फ इसलिए पाप करते हैं, ताकि शाम को उन्हें स्वीकार कर सकें। इस प्रकार, भले ही पापबलि मनुष्य के लिए हमेशा के लिए प्रभावी हो, फिर भी वह मनुष्य को पाप से बचाने में सक्षम नहीं होगी। उद्धार का केवल आधा कार्य ही पूरा किया गया है, क्योंकि मनुष्य में अभी भी भ्रष्ट स्वभाव है। ... मनुष्य के लिए अपने पापों से अवगत होना आसान नहीं है; उसके पास अपनी गहरी जमी हुई प्रकृति को पहचानने का कोई उपाय नहीं है, और उसे यह परिणाम प्राप्त करने के लिए वचन के न्याय पर भरोसा करना चाहिए। केवल इसी प्रकार से मनुष्य इस बिंदु से आगे धीरे-धीरे बदल सकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))।
अनुग्रह के युग में, प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ा दिया गया था, मनुष्य की पाप-बलि बनकर उसने मनुष्य को पापों से छुटकारा दिलाया था। तब से, मनुष्य के पापों को माफ कर दिया गया है और परमेश्वर हमें पापी नहीं समझता, इसलिए हम परमेश्वर से सीधे प्रार्थना कर सकते हैं और उसके सामने आ सकते हैं। लेकिन परमेश्वर का मनुष्य को पापी न समझने का अर्थ सिर्फ ये है कि उसने हमारे पाप क्षमा किए हैं, यह नहीं कि हम पाप से मुक्त हो गए हैं, कि हम पूरी तरह से पवित्र हैं। हम अभी भी पापी प्रकृति और शैतानी स्वभाव के हैं। हमें अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय-कार्य से गुजरना होगा ताकि हमारी भ्रष्टता शुद्ध की जा सके और हम पूरी तरह से बचाए जा सकें। अनुग्रह के युग में परमेश्वर के छुटकारे के कार्य ने अंत के दिनों में उसके न्याय-कार्य का मार्ग प्रशस्त किया। यानी, उसका न्याय-कार्य प्रभु यीशु के छुटकारे के कार्य की बुनियाद पर किया जाता है। परमेश्वर का छुटकारे के कार्य से उसके उद्धार के पूर्ण कार्य का आधा काम ही पूरा हुआ था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का न्याय-कार्य ही मनुष्य को पूरी तरह से शुद्ध करके बचा सकता है, यह परमेश्वर के उद्धार कार्य का सबसे अहम चरण है। उसके राज्य के लायक बनने के लिए हमें अंत के दिनों में उसके न्याय और शुद्धिकरण का अनुभव करना होगा, पाप से पूरी तरह मुक्त होकर शुद्ध होना होगा, और सच्चे दिल से उसके प्रति समर्पण कर उसकी इच्छा पूरी करनी होगी।
मुझे लगता है, अब हमें इस बात की बेहतर समझ है कि परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय-कार्य क्यों कर रहा है। कुछ लोग सोच रहे होंगे कि यह कार्य मनुष्य को शुद्ध करके कैसे बचाता है। आइए देखें, सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने इस बारे में क्या कहा है। “अंत के दिनों का मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन तमाम विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)।
“लोग अपना स्वभाव स्वयं परिवर्तित नहीं कर सकते; उन्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, पीड़ा और शोधन से गुजरना होगा, या उसके वचनों द्वारा निपटाया, अनुशासित किया जाना और काँटा-छाँटा जाना होगा। इन सब के बाद ही वे परमेश्वर के प्रति विश्वसनीयता और आज्ञाकारिता प्राप्त कर सकते हैं और उसके प्रति बेपरवाह होना बंद कर सकते हैं। परमेश्वर के वचनों के शोधन के द्वारा ही मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन आ सकता है। केवल उसके वचनों के संपर्क में आने से, उनके न्याय, अनुशासन और निपटारे से, वे कभी लापरवाह नहीं होंगे, बल्कि शांत और संयमित बनेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर के मौजूदा वचनों और उसके कार्यों का पालन करने में सक्षम होते हैं, भले ही यह मनुष्य की धारणाओं से परे हो, वे इन धारणाओं को नज़रअंदाज करके अपनी इच्छा से पालन कर सकते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हैं, वे वही लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हैं)।
“परमेश्वर के पास मनुष्य को पूर्ण बनाने के अनेक साधन हैं। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से निपटने के लिए वह समस्त प्रकार के परिवेशों का उपयोग करता है, और मनुष्य को अनावृत करने के लिए विभिन्न चीजों का प्रयोग करता है; एक ओर वह मनुष्य के साथ निपटता है, दूसरी ओर मनुष्य को अनावृत करता है, और तीसरी ओर वह मनुष्य को उजागर करता है, उसके हृदय की गहराइयों में स्थित ‘रहस्यों’ को खोदकर और उजागर करते हुए, और मनुष्य की अनेक अवस्थाएँ प्रकट करके वह उसे उसकी प्रकृति दिखाता है। परमेश्वर मनुष्य को अनेक विधियों से पूर्ण बनाता है—प्रकाशन द्वारा, मनुष्य के साथ व्यवहार करके, मनुष्य के शुद्धिकरण द्वारा, और ताड़ना द्वारा—जिससे मनुष्य जान सके कि परमेश्वर व्यावहारिक है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल उन्हें ही पूर्ण बनाया जा सकता है जो अभ्यास पर ध्यान देते हैं)।
यह इस बात पर थोड़ी रोशनी डालता है कि परमेश्वर अपना न्याय-कार्य कैसे करता है, है न? परमेश्वर के अंत के दिनों के न्याय-कार्य में, वह मुख्य रूप से मनुष्य के भ्रष्ट सार और हमारे शैतानी स्वभावों का न्याय करने के लिए सत्य व्यक्त करता है, ताकि हम अपनी भ्रष्टता का सत्य समझ सकें, और हमें दिल से पछतावा हो, हम खुद से नफरत और घृणा करें, हम देह-सुख का त्याग और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करें और सच्चा प्रायश्चित कर खुद को बदलें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों के विभिन्न रूपों जैसे कि घमंड, कपट, और दुष्टता, और साथ ही हमारी आस्था में निहित मंशाओं और मिलावटों, और हमारे गहरे छिपे विचारों और भावनाओं को पूरी तरह उजागर करता है। ये सभी सटीकता से उजागर किए जाते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़कर लगता है परमेश्वर ठीक हमारे सामने हमारा न्याय कर रहा है। हम परमेश्वर द्वारा पूरी तरह उजागर होकर अपने गंदे, भ्रष्ट, बदसूरत रूप को देखते हैं, जिससे हमें शर्मिंदगी महसूस होती है, छिपाने की कोई जगह नहीं बचती और हम परमेश्वर के सामने जीने लायक नहीं रह जाते। अपने वचनों से मनुष्य का न्याय करते समय, परमेश्वर हमें उजागर करने के लिए वास्तविक हालात बनाता है, फिर हमारी काट-छाँट और निपटान होता है, तथ्यों से हमारी परीक्षा होती है, ताकि हम आत्मचिंतन कर खुद को जान सकें। वास्तविकता द्वारा उजागर होने के बाद परमेश्वर के वचनों द्वारा और ज्यादा उजागर होकर और न्याय पाकर हम शैतानी प्रकृति के साथ जीते रहने की कुरूपता को साफ़ देखते हैं। हम पछतावे से भर जाते हैं और खुद से घृणा करते हैं, हममें धीरे-धीरे सच्चा प्रायश्चित पैदा होता है। फिर हमारे भ्रष्ट स्वभाव का शुद्धिकरण कर उसे बदला जाता है। परमेश्वर अपना न्याय-कार्य कैसे करता है इसे साफ़ तौर पर समझने के लिए आइए सुनें, मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करने वाले परमेश्वर के कुछ वचन।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “मेरे कर्मों की संख्या समुद्र-तटों की रेत के कणों से भी ज़्यादा है, और मेरी बुद्धि सुलेमान के सभी पुत्रों से बढ़कर है, फिर भी लोग मुझे मामूली हैसियत का मात्र एक चिकित्सक और मनुष्यों का कोई अज्ञात शिक्षक समझते हैं। बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुज़ारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैंने अपना क्रोध नीचे मनुष्यों पर उतारा और उसका सारा आनंद और शांति छीन ली, तो मनुष्य संदिग्ध हो गया। जब मैंने मनुष्य को नरक का कष्ट दिया और स्वर्ग के आशीष वापस ले लिए, तो मनुष्य की लज्जा क्रोध में बदल गई। जब मनुष्य ने मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहा, तो मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया और उसके प्रति घृणा महसूस की; तो मनुष्य मुझे छोड़कर चला गया और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगा। जब मैंने मनुष्य द्वारा मुझसे माँगा गया सब-कुछ वापस ले लिया, तो हर कोई बिना कोई निशान छोड़े गायब हो गया। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य मुझ पर इसलिए विश्वास करता है, क्योंकि मैं बहुत अनुग्रह देता हूँ, और प्राप्त करने के लिए और भी बहुत-कुछ है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)।
“परमेश्वर का अनुसरण करने वाले बहुत सारे लोग केवल इस बात से मतलब रखते हैं कि आशीष कैसे प्राप्त किए जाएँ या आपदा से कैसे बचा जाए। जैसे ही परमेश्वर के कार्य और प्रबंधन का उल्लेख किया जाता है, वे चुप हो जाते हैं और उनकी सारी रुचि समाप्त हो जाती है। उन्हें लगता है कि इस प्रकार के उबाऊ मुद्दों को समझने से उनके जीवन के विकास में मदद नहीं मिलेगी या कोई लाभ प्राप्त नहीं होगा। परिणामस्वरूप, हालाँकि उन्होंने परमेश्वर के प्रबंधन के बारे में सुना होता है, वे उसपर बहुत कम ध्यान देते हैं। उन्हें वह इतना मूल्यवान नहीं लगता कि उसे स्वीकारा जाए, और उसे अपने जीवन का अंग तो वे बिलकुल नहीं समझते। ऐसे लोगों का परमेश्वर का अनुसरण करने का केवल एक सरल उद्देश्य होता है, और वह उद्देश्य है आशीष प्राप्त करना। ऐसे लोग ऐसी किसी भी दूसरी चीज़ पर ध्यान देने की परवाह नहीं कर सकते जो इस उद्देश्य से सीधे संबंध नहीं रखती। उनके लिए, आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने से ज्यादा वैध उद्देश्य और कोई नहीं है—यह उनके विश्वास का असली मूल्य है। यदि कोई चीज़ इस उद्देश्य को प्राप्त करने में योगदान नहीं करती, तो वे उससे पूरी तरह से अप्रभावित रहते हैं। आज परमेश्वर में विश्वास करने वाले अधिकांश लोगों का यही हाल है। उनके उद्देश्य और इरादे न्यायोचित प्रतीत होते हैं, क्योंकि जब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते भी हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं और अपना कर्तव्य भी निभाते हैं। वे अपनी जवानी न्योछावर कर देते हैं, परिवार और आजीविका त्याग देते हैं, यहाँ तक कि वर्षों अपने घर से दूर व्यस्त रहते हैं। अपने परम उद्देश्य के लिए वे अपनी रुचियाँ बदल डालते हैं, अपने जीवन का दृष्टिकोण बदल देते हैं, यहाँ तक कि अपनी खोज की दिशा तक बदल देते हैं, किंतु परमेश्वर पर अपने विश्वास के उद्देश्य को नहीं बदल सकते। वे अपने आदर्शों के प्रबंधन के लिए भाग-दौड़ करते हैं; चाहे मार्ग कितना भी दूर क्यों न हो, और मार्ग में कितनी भी कठिनाइयाँ और अवरोध क्यों न आएँ, वे दृढ़ रहते हैं और मृत्यु से नहीं डरते। इस तरह से अपने आप को समर्पित रखने के लिए उन्हें कौन-सी ताकत बाध्य करती है? क्या यह उनका विवेक है? क्या यह उनका महान और कुलीन चरित्र है? क्या यह बुराई से बिलकुल अंत तक लड़ने का उनका दृढ़ संकल्प है? क्या यह बिना प्रतिफल की आकांक्षा के परमेश्वर की गवाही देने का उनका विश्वास है? क्या यह परमेश्वर की इच्छा प्राप्त करने के लिए सब-कुछ त्याग देने की तत्परता के प्रति उनकी निष्ठा है? या यह अनावश्यक व्यक्तिगत माँगें हमेशा त्याग देने की उनकी भक्ति-भावना है? ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए, जिसने कभी परमेश्वर के प्रबंधन को नहीं समझा, फिर भी इतना कुछ देना एक चमत्कार ही है! फिलहाल, आओ इसकी चर्चा न करें कि इन लोगों ने कितना कुछ दिया है। किंतु उनका व्यवहार हमारे विश्लेषण के बहुत योग्य है। उनके साथ इतनी निकटता से जुड़े उन लाभों के अतिरिक्त, परमेश्वर को कभी नहीं समझने वाले लोगों द्वारा उसके लिए इतना कुछ दिए जाने का क्या कोई अन्य कारण हो सकता है? इसमें हमें पूर्व की एक अज्ञात समस्या का पता चलता है : मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य के संबंध के समान है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कार्य करता है। इस प्रकार के संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेनदेन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझदारी नहीं होती, केवल दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है। अब जबकि चीज़ें इस बिंदु तक आ गई हैं, तो कौन इस क्रम को उलट सकता है? और कितने लोग इस बात को वास्तव में समझने में सक्षम हैं कि यह संबंध कितना भयानक बन चुका है? मैं मानता हूँ कि जब लोग आशीष प्राप्त होने के आनंद में निमग्न हो जाते हैं, तो कोई यह कल्पना नहीं कर सकता कि परमेश्वर के साथ इस प्रकार का संबंध कितना शर्मनाक और भद्दा है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)।
“तुम लोगों के लिए सबसे अच्छा यह होगा कि तुम लोग स्वयं को जानने के सत्य पर ज्यादा मेहनत करो। तुम लोगों को परमेश्वर का अनुग्रह क्यों नहीं मिला? तुम्हारा स्वभाव उसके लिए घिनौना क्यों है? तुम्हारा बोलना उसके अंदर जुगुप्सा क्यों उत्पन्न करता है? जैसे ही तुम लोग थोड़ी-सी निष्ठा दिखा देते हो, तुम अपनी तारीफ के गीत गाने लगते हो और अपने छोटे-से योगदान के लिए पुरस्कार माँगने लगते हो; जब तुम थोड़ी-सी आज्ञाकारिता दिखा देते हो, तो दूसरों को नीची निगाह से देखने लगते हो; और कुछ छोटे-मोटे काम संपन्न करते ही तुम परमेश्वर की अवहेलना करने लगते हो। परमेश्वर का स्वागत करने के बदले में तुम लोग धन, उपहार और प्रशंसा माँगते हो। एक-दो सिक्के देते हुए भी तुम्हारा दिल दुखता है; जब तुम दस सिक्के देते हो तो तुम आशीष दिए जाने और दूसरों से विशिष्ट माने जाने की अभिलाषा करते हो। तुम लोगों जैसी मानवता के बारे में तो बात करना या सुनना भी अपमानजनक है। क्या तुम्हारे शब्दों और कार्यों में कुछ भी प्रशंसा-योग्य है? जो अपना कर्तव्य निभाते हैं और जो नहीं निभाते; जो अगुआई करते हैं और जो अनुसरण करते हैं; जो परमेश्वर का स्वागत करते और जो नहीं करते; जो दान देते हैं और जो नहीं देते; जो उपदेश देते हैं और जो वचन ग्रहण करते हैं, इत्यादि : ऐसे सभी लोग अपनी तारीफ करते हैं। क्या तुम लोगों को यह हास्यास्पद नहीं लगता? यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तुम परमेश्वर के साथ संगत नहीं हो सकते हो। यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि तुम लोग बिलकुल अयोग्य हो, तुम डींगें मारते रहते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि तुम्हारी समझ इस हद तक खराब हो गई है कि अब तुममें आत्म-नियंत्रण नहीं रहा? इस तरह की समझ के साथ तुम परमेश्वर से जुड़ने के योग्य कैसे हो? क्या तुम लोगों को इस मुकाम पर अपने बारे में डर नहीं लगता? तुम्हारा स्वभाव पहले ही इस हद तक खराब हो चुका है कि तुम परमेश्वर के साथ संगत होने में असमर्थ हो। इस बात को देखते हुए, क्या तुम लोगों की आस्था हास्यास्पद नहीं है? क्या तुम्हारी आस्था बेतुकी नहीं है? तुम अपने भविष्य से कैसे निपटोगे? तुम कैसे चुनोगे कि कौन-सा मार्ग लेना है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)।
“कई हजार सालों की भ्रष्टता के बाद, मनुष्य संवेदनहीन और मंदबुद्धि हो गया है; वह एक दानव बन गया है जो परमेश्वर का इस हद तक विरोध करता है कि परमेश्वर के प्रति मनुष्य की विद्रोहशीलता इतिहास की पुस्तकों में दर्ज की गई है, यहाँ तक कि मनुष्य खुद भी अपने विद्रोही आचरण का पूरा लेखा-जोखा देने में असमर्थ है—क्योंकि मनुष्य शैतान द्वारा पूरी तरह से भ्रष्ट किया जा चुका है, और उसके द्वारा रास्ते से इतना भटका दिया गया है कि वह नहीं जानता कि कहाँ जाना है। आज भी मनुष्य परमेश्वर को धोखा देता है : मनुष्य जब परमेश्वर को देखता है तब उसे धोखा देता है, और जब वह परमेश्वर को नहीं देख पाता, तब भी उसे धोखा देता है। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो परमेश्वर के शापों और कोप का अनुभव करने के बाद भी उसे धोखा देते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य की समझ ने अपना मूल कार्य खो दिया है, और मनुष्य की अंतरात्मा ने भी अपना मूल कार्य खो दिया है। जिस मनुष्य को मैं देखता हूँ, वह मनुष्य के भेस में एक जानवर है, वह एक जहरीला साँप है, मेरी आँखों के सामने वह कितना भी दयनीय बनने की कोशिश करे, मैं उसके प्रति कभी दयावान नहीं बनूँगा, क्योंकि मनुष्य को काले और सफेद के बीच, सत्य और असत्य के बीच अंतर की समझ नहीं है। मनुष्य की समझ बहुत ही सुन्न हो गई है, फिर भी वह आशीष पाना चाहता है; उसकी मानवता बहुत नीच है, फिर भी वह एक राजा का प्रभुत्व पाने की कामना करता है। ऐसी समझ के साथ वह किसका राजा बन सकता है? ऐसी मानवता के साथ वह सिंहासन पर कैसे बैठ सकता है? सच में मनुष्य को कोई शर्म नहीं है! वह दंभी अभागा है! तुम लोगों में से जो आशीष पाने की कामना करते हैं, उनके लिए मेरा सुझाव है कि पहले शीशे में अपना बदसूरत प्रतिबिंब देखो—क्या तुम एक राजा बनने लायक हो? क्या तुम्हारे पास आशीष पा सकने लायक मुँह है? तुम्हारे स्वभाव में जरा-सा भी बदलाव नहीं आया है और तुमने किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया है, फिर भी तुम एक बेहतरीन कल की कामना करते हो। तुम अपने आप को धोखा दे रहे हो!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन बहुत व्यावहारिक हैं, और प्रत्येक वचन बहुत वास्तविक है, जो हमारी आस्था की मिलावटों और घिनौनी मंशाओं के साथ ही हमारी परमेश्वर-विरोधी प्रकृति को सामने लाता है। हम हमेशा सोचाते थे कि हम परमेश्वर के लिए त्याग कर रहे हैं, कष्ट झेल रहे और मूल्य चुका रहे हैं, यानी हम निष्ठावान और आज्ञाकारी हैं, और परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं। लेकिन परमेश्वर के वचनों के न्याय के जरिए हम आत्मचिंतन कर खुद को जान पाते हैं, समझ पाते हैं कि हमारे सारे त्याग कलंकित और सिर्फ आशीष पाने के लिए थे। जब परमेश्वर हमें शांत जीवन का आशीष देता है, तो हम उसके प्रति समर्पण कर उसके लिए कार्य करते हैं, लेकिन जब दुख आता है, आपदाएँ टूट पड़ती हैं, तो हम परमेश्वर को गलत समझते हुए हमारी रक्षा न करने का दोष लगाते हैं, उसके लिए काम करना भी बंद कर सकते हैं। फिर हम समझ पाते हैं कि हमारी आस्था और त्याग परमेश्वर से अनुग्रह और आशीष वसूलने के लिए पूरी तरह से सौदेबाजी थे। यह परमेश्वर को धोखा देना, उसका इस्तेमाल करना है। यह बहुत स्वार्थी और कपटपूर्ण है! हममें जमीर और समझ बिल्कुल भी नहीं है, हम इंसान कहलाने के लायक भी नहीं हैं। इतने गंदे और भ्रष्ट होकर भी हमें लगता है कि हमें आशीष पाने और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने का अधिकार है। यह बड़ी बेशर्मी है, विवेक से रहित है। परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन के वचन हमें उसकी धार्मिकता, उसका पवित्र स्वभाव दिखाते हैं जिसे अपमानित नहीं किया जा सकता, परमेश्वर हमसे जो चाहता है वह है हमारी ईमानदारी और निष्ठा। ऐसी मंशाओं और अशुद्धियों के साथ आस्था रखना और कोई काम करना परमेश्वर को धोखा देना और उसका प्रतिरोध करना है, यह उसके लिए घिनौना और अप्रिय है। परमेश्वर इस प्रकार की आस्था को स्वीकार नहीं करता। परमेश्वर के वचनों के न्याय के जरिए कई बार निपटान और परीक्षाओं से गुजरने के बाद हम आखिरकार अपनी भ्रष्टता के सत्य को समझ पाते हैं, खुद से सच में घृणा करते हैं, पछताते हैं, और हम परमेश्वर के सामने प्रायश्चित करने के लिए दंडवत हो जाते हैं। हम परमेश्वर की धार्मिकता को भी समझ सकते हैं, और यह भी कि वह सच में हमारे दिल और मन में झाँकता है और हमारी रग-रग पहचानता है। हम पूरी तरह से आश्वस्त हो जाते हैं और परमेश्वर के प्रति श्रद्धा से भर जाते हैं। आस्था के बारे में हमारा नजरिया बदल जाता है, असंयमी आकांक्षाओं के बिना, अपने काम को और ज्यादा शुद्धता से करते हैं, परमेश्वर हमें आशीष दे या न दे, हमें राज्य के आशीष मिलें या न मिलें, हम खुशी से परमेश्वर की व्यवस्थाओं के सामने समर्पण करते और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाते हैं। यह समझ लेने के बाद कि हम सच में किससे बने हैं, हम पहले जैसे घमंडी नहीं रहते। हम कथनी और करनी में विवेकी हो जाते हैं, सत्य खोज कर उसके प्रति समर्पण करते हैं। यह है परमेश्वर का न्याय और ताड़ना, जो धीरे-धीरे हमारी भ्रष्टता को शुद्ध करके बदल देता है। हममें से जो लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते रहे हैं, वे सच में जानते हैं कि उसका अंत के दिनों का न्याय-कार्य कितना व्यावहारिक है, कैसे यह मनुष्य को शुद्ध करके पूरी तरह बचाता है। इस न्याय और काट-छाँट के बिना, हम कभी भी सच में अपनी भ्रष्टता नहीं देख पाएंगे, बल्कि लगातार पाप करने और उसे स्वीकारते हुए जीते रहने की स्थिति में फंसे रहेंगे, सोचेंगे कि हमारे पाप क्षमा होने और परमेश्वर की स्वीकृति मिल जाने के कारण हम परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। यह सच में बेवकूफी और निराश करने वाली बात है! परमेश्वर के न्याय के कारण हम खुद को सही मायनों में समझ सकते हैं, हम अनेक सत्य जान लेते हैं और हमारे भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध करके बदल दिए जाते हैं। यह अविश्वसनीय रूप से मुक्ति देने वाला है। परमेश्वर का न्याय और ताड़ना हमें बहुत कुछ देते हैं। ये हमारे लिए परमेश्वर का सच्चा प्रेम हैं, उसका महानतम उद्धार हैं। 30 वर्ष पहले सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने सत्य व्यक्त करना और अपना न्याय-कार्य करना शुरू किया था, और उसने आपदाओं से पहले विजेताओं का एक समूह पूर्ण कर लिया है—वे पहले फल हैं। यह बाइबल की भविष्यवाणी को साकार करता है : “ये वे ही हैं कि जहाँ कहीं मेम्ना जाता है, वे उसके पीछे हो लेते हैं; ये तो परमेश्वर के निमित्त पहले फल होने के लिये मनुष्यों में से मोल लिए गए हैं” (प्रकाशितवाक्य 14:4)। परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने उसके न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शुद्धिकरण का अनुभव किया है, उनके भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध किए गए हैं, और आखिरकार वे शैतान की ताकतों से मुक्त हो गए हैं। वे परमेश्वर के सामने समर्पण और उसकी आराधना करते हैं, और महान उद्धार पाते हैं। उनके अनुभवों और गवाहियों पर फ़िल्में और वीडियो बनाए गए हैं, जो ऑनलाइन उपलब्ध हैं, वे सभी को परमेश्वर के अंत के दिनों के न्याय-कार्य की गवाही देते हैं, और दर्शकों के मन में कोई शंका नहीं रह जाती। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का राज्य का सुसमाचार दुनिया के कोने-कोने में फ़ैल गया है, और सभी जगह परमेश्वर के चुने हुए लोग सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को फैला रहे हैं। राज्य के सुसमाचार का भव्य, अभूतपूर्व फैलाव हम तक पहुँच गया है। साफ तौर पर परमेश्वर के घर से शुरू होने वाला न्याय-कार्य महान सफलता हासिल कर चुका है। परमेश्वर ने शैतान को हरा दिया है और समस्त महिमा पा ली है। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है, “परमेश्वर न्याय और ताड़ना का कार्य करता है ताकि मनुष्य परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त कर सके और उसकी गवाही दे सके। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव का परमेश्वर द्वारा न्याय के बिना, संभवतः मनुष्य अपने धार्मिक स्वभाव को नहीं जान सकता था, जो कोई अपराध नहीं करता और न वह परमेश्वर के अपने पुराने ज्ञान को एक नए रूप में बदल पाता। अपनी गवाही और अपने प्रबंधन के वास्ते, परमेश्वर अपनी संपूर्णता को सार्वजनिक करता है, इस प्रकार, अपने सार्वजनिक प्रकटन के ज़रिए, मनुष्य को परमेश्वर के ज्ञान तक पहुँचने, उसको स्वभाव में रूपांतरित होने और परमेश्वर की ज़बर्दस्त गवाही देने लायक बनाता है। मनुष्य के स्वभाव का रूपांतरण परमेश्वर के कई विभिन्न प्रकार के कार्यों के ज़रिए प्राप्त किया जाता है; अपने स्वभाव में ऐसे बदलावों के बिना, मनुष्य परमेश्वर की गवाही देने और उसके पास जाने लायक नहीं हो पाएगा। मनुष्य के स्वभाव में रूपांतरण दर्शाता है कि मनुष्य ने स्वयं को शैतान के बंधन और अंधकार के प्रभाव से मुक्त कर लिया है और वह वास्तव में परमेश्वर के कार्य का एक आदर्श, एक नमूना, परमेश्वर का गवाह और ऐसा व्यक्ति बन गया है, जो परमेश्वर के दिल के क़रीब है। आज देहधारी परमेश्वर पृथ्वी पर अपना कार्य करने के लिए आया है और वह अपेक्षा रखता है कि मनुष्य उसके बारे में ज्ञान प्राप्त करे, उसके प्रति आज्ञाकारी हो, उसके लिए उसकी गवाही दे—उसके व्यावहारिक और सामान्य कार्य को जाने, उसके उन सभी वचनों और कार्य का पालन करे, जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं और उस समस्त कार्य की गवाही दे, जो वह मनुष्य को बचाने के लिए करता है और साथ ही सभी कर्मों की जिन्हें वह मनुष्य को जीतने के लिए कार्यान्वित करता है। जो परमेश्वर की गवाही देते हैं, उन्हें परमेश्वर का ज्ञान अवश्य होना चाहिए; केवल इस तरह की गवाही ही अचूक और वास्तविक होती है और केवल इस तरह की गवाही ही शैतान को शर्मिंदा कर सकती है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर को जानने वाले ही परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं)। “जो अंत के दिनों के दौरान परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के कार्य के दौरान अडिग रहने में समर्थ हैं—यानी, शुद्धिकरण के अंतिम कार्य के दौरान—वे लोग होंगे, जो परमेश्वर के साथ अंतिम विश्राम में प्रवेश करेंगे; वैसे, वे सभी जो विश्राम में प्रवेश करेंगे, शैतान के प्रभाव से मुक्त हो चुके होंगे और परमेश्वर के शुद्धिकरण के अंतिम कार्य से गुज़रने के बाद उसके द्वारा प्राप्त किए जा चुके होंगे। ये लोग, जो अंततः परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जा चुके होंगे, अंतिम विश्राम में प्रवेश करेंगे। परमेश्वर के ताड़ना और न्याय के कार्य का उद्देश्य सार रूप में अंतिम विश्राम की खातिर मानवता को शुद्ध करना है; इस शुद्धिकरण के बिना संपूर्ण मानवता अपने प्रकार के मुताबिक़ विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत नहीं की जा सकेगी, या विश्राम में प्रवेश करने में असमर्थ होगी। यह कार्य ही मानवता के लिए विश्राम में प्रवेश करने का एकमात्र मार्ग है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?