यदि मनुष्य के हृदय में परमेश्वर के प्रति शत्रुता हो, तो वह कैसे परमेश्वर का भय मान सकता और बुराई से दूर रह सकता है?

30 मई, 2020

चूँकि आज के लोगों में अय्यूब जैसी मानवता नहीं है, इसलिए उनकी प्रकृति का सार, और परमेश्वर के प्रति उनकी मनोवृत्ति क्या है? क्या वे परमेश्वर का भय मानते हैं? क्या वे बुराई से दूर रहते हैं? वे जो परमेश्वर का भय नहीं मानते और बुराई से दूर नहीं रहते हैं उनका सार केवल तीन शब्दों में प्रस्तुत किया जा सकता है : "परमेश्वर के शत्रु।" तुम लोग ये तीन शब्द अक़्सर कहते हो, किंतु उनका वास्तविक अर्थ तुम लोगों ने कभी नहीं जाना है। "परमेश्वर के शत्रु" शब्दों का सार है : वे यह नहीं कह रहे हैं कि परमेश्वर मनुष्य को शत्रु के रूप में देखता है, बल्कि यह कि मनुष्य परमेश्वर को शत्रु के रूप में देखता है। पहला, जब लोग परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करते हैं, तब उनमें से किसके पास स्वयं अपने लक्ष्य, कारण, और महत्वकांक्षाएँ नहीं होती हैं? उनका एक भाग भले ही परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता है और परमेश्वर के अस्तित्व को देख चुका होता है, फिर भी वे कारण परमेश्वर में उनके विश्वास में अब भी समाए होते हैं, और परमेश्वर में विश्वास करने में उनका अंतिम लक्ष्य उसके आशीष और अपनी मनचाही चीज़ें प्राप्त करना होता है। लोगों के जीवन अनुभवों में, वे प्रायः मन ही मन सोचते हैं, मैंने परमेश्वर के लिए अपने परिवार और जीविका का त्याग कर दिया है, और उसने मुझे क्या दिया है? मुझे इसमें अवश्य जोड़ना, और इसकी पुष्टि करनी चाहिए—क्या मैंने हाल ही में कोई आशीष प्राप्त किया है? मैंने इस दौरान बहुत कुछ दिया है, मैं बहुत दौड़ा-भागा हूँ, मैंने बहुत अधिक सहा है—क्या परमेश्वर ने बदले में मुझे कोई प्रतिज्ञाएँ दी हैं? क्या उसने मेरे अच्छे कर्म याद रखे हैं? मेरा अंत क्या होगा? क्या मैं परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर सकता हूँ? ... प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय में निरंतर ऐसा गुणा-भाग करता है, और वे परमेश्वर से माँगें करते हैं जिनमें उनके कारण, महत्वाकांक्षाएँ, तथा लेन-देन की मानसिकता होती है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने हृदय में लगातार परमेश्वर की परीक्षा लेता रहता है, परमेश्वर के बारे में लगातार मनसूबे बनाता रहता है, और स्वयं अपने व्यक्तिगत मनोरथ के पक्ष में परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क करता रहता है, और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहलवाने की कोशिश करता है, यह देखने के लिए कि परमेश्वर उसे वह दे सकता है या नहीं जो वह चाहता है। परमेश्वर का अनुसरण करने के साथ ही साथ, मनुष्य परमेश्वर से परमेश्वर के समान बर्ताव नहीं करता है। मनुष्य ने परमेश्वर के साथ हमेशा सौदेबाजी करने की कोशिश की है, उससे अनवरत माँगें की हैं, और यहाँ तक कि एक इंच देने के बाद एक मील लेने की कोशिश करते हुए, हर क़दम पर उस पर दबाव भी डाला है। परमेश्वर के साथ सौदबाजी करने की कोशिश करते हुए साथ ही साथ, मनुष्य उसके साथ तर्क-वितर्क भी करता है, और यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं जो, जब परीक्षाएँ उन पर पड़ती हैं या जब वे अपने आप को किन्हीं निश्चित स्थितियों में पाते हैं, तो प्रायः कमज़ोर, निष्क्रिय और अपने कार्य में सुस्त पड़ जाते हैं, और परमेश्वर के बारे में शिकायतों से भरे होते हैं। मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक स्विस आर्मी चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और कर्तव्य है, जबकि परमेश्वर का दायित्व मनुष्य की रक्षा और देखभाल करना, और उसे भरण-पोषण देना है। ऐसी है "परमेश्वर में विश्वास" की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ। मनुष्य की प्रकृति के सार से लेकर उसके व्यक्तिपरक अनुसरण तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के भय से संबंधित हो। परमेश्वर में विश्वास करने में मनुष्य के लक्ष्य का परमेश्वर की आराधना के साथ कोई लेना-देना संभवतः नहीं हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह, मनुष्य ने न कभी यह विचार किया और न समझा कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए परमेश्वर का भय मानने और आराधना करने की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थितियों के आलोक में, मनुष्य का सार स्पष्ट है। यह सार क्या है? यह सार यह है कि मनुष्य का हृदय द्वेषपूर्ण है, छल और कपट रखता है, निष्पक्षता और धार्मिकता और उससे जो सकारात्मक है प्रेम नहीं करता है, और यह तिरस्करणीय और लोभी है। मनुष्य का हृदय परमेश्वर के लिए और अधिक बंद नहीं हो सकता है; उसने इसे परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं दिया है। परमेश्वर ने मनुष्य का सच्चा हृदय कभी नहीं देखा है, न ही उसकी मनुष्य द्वारा कभी आराधना की गई है। परमेश्वर चाहे जितनी बड़ी कीमत चुकाए, या वह चाहे जितना अधिक कार्य करे, या वह मनुष्य का चाहे जितना भरण-पोषण करे, मनुष्य इस सबके प्रति अंधा, और सर्वथा उदासीन ही बना रहता है। मनुष्य ने कभी परमेश्वर को अपना हृदय नहीं दिया है, वह केवल स्वयं ही अपने हृदय का ध्यान रखना, स्वयं अपने निर्णय लेना चाहता है—जिसका निहितार्थ यह है कि मनुष्य परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करना, या परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का पालन करना नहीं चाहता है, न ही वह परमेश्वर के रूप में परमेश्वर की आराधना करना चाहता है। ऐसी है आज मनुष्य की दशा। अब आओ हम फिर अय्यूब को देखें। सबसे पहले, क्या उसने परमेश्वर के साथ कोई सौदा किया? क्या परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को दृढ़ता से थामे रहने में उसकी कोई छिपी हुई मंशा थी? उस समय, क्या परमेश्वर ने आने वाले अंत के बारे में किसी से बात की थी? उस समय, परमेश्वर ने किसी से भी अंत के बारे में प्रतिज्ञाएँ नहीं की थीं, और यही वह पृष्ठभूमि थी जिसमें अय्यूब परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में समर्थ था। क्या आज के लोग अय्यूब के साथ तुलना में कहीं टिकते हैं? उनमें बहुत ही अधिक असमानता है, वे अलग-अलग स्तरों पर हैं। यद्यपि अय्यूब को परमेश्वर का अधिक ज्ञान नहीं था, फिर भी उसने अपना हृदय परमेश्वर को दे दिया था और यह परमेश्वर का था। उसने परमेश्वर के साथ कभी सौदा नहीं किया, और उसकी परमेश्वर के प्रति कोई अनावश्यक इच्छाएँ या माँगें नहीं थीं; इसके बजाय, वह विश्वास करता था कि "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया।" यही वह था जो उसने जीवन के अनेक वर्षों के दौरान परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को सच्चाई से थामे रहने से देखा और प्राप्त किया था। इसी प्रकार, उसने वह परिणाम भी प्राप्त किया जो इन वचनों में दर्शाया गया है : "क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?" ये दो वाक्य वह थे जो उसने अपने जीवन के अनुभवों के दौरान परमेश्वर के प्रति अपनी आज्ञाकारिता की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप देखे और जानना आरंभ किए थे, और वे उसके सबसे ताक़तवर हथियार भी थे जिनसे उसने शैतान के प्रलोभनों के दौरान विजय प्राप्त की थी, और वे परमेश्वर की गवाही पर उसके दृढ़ता से डटे रहने की नींव थे। इस बिंदु पर, क्या तुम लोग अय्यूब की एक प्यारे व्यक्ति के रूप में परिकल्पना करते हो? क्या तुम लोग ऐसा व्यक्ति बनने की आशा करते हो? क्या तुम लोग शैतान के प्रलोभनों से गुज़ारे जाने से डरते हो? क्या तुम लोग परमेश्वर से तुम लोगों को अय्यूब के समान ही परीक्षाओं से गुज़ारने की प्रार्थना करने का संकल्प लेते हो? बिना संदेह, अधिकांश लोग ऐसी चीज़ों के लिए प्रार्थना करने का साहस नहीं करेंगे। तो यह स्पष्ट है कि तुम लोगों की आस्था दयनीय रूप से तुच्छ है; अय्यूब की तुलना में, तुम लोगों की आस्था उल्लेख के योग्य भी नहीं है। तुम लोग परमेश्वर के शत्रु हो, तुम लोग परमेश्वर का भय नहीं मानते हो, तुम लोग परमेश्वर के लिए अपनी गवाही पर डटे रह पाने में असमर्थ हो, और तुम शैतान के हमलों, आरोपों और प्रलोभनों पर विजय पाने में असमर्थ हो। वह क्या है जो तुम लोगों को परमेश्वर की प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने के योग्य बनाता है? अय्यूब की कहानी सुनने और मनुष्य को बचाने में परमेश्वर का अभिप्राय और मनुष्य के उद्धार का अर्थ समझने के बाद, क्या अब तुम लोगों में अय्यूब के समान परीक्षण स्वीकार करने का विश्वास है? क्या तुममें स्वयं को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करने देने का थोड़ा-सा संकल्प नहीं होना चाहिए?

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

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