अपना कर्तव्य सही तरह से कैसे निभाया जा सकता है

31 अक्टूबर, 2021

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :

"कर्तव्य का पर्याप्त निष्पादन," वाक्यांश में "पर्याप्त" शब्द पर ज़ोर दिया गया है। तो, "पर्याप्त" को कैसे परिभाषित किया जाना चाहिए? इसमें भी, तलाश करने के लिए सत्य है। क्या केवल काम चलाऊ कार्य करना ही पर्याप्त है? "पर्याप्त" शब्द को कैसे समझना और उस पर विचार करना है, इसके विशिष्ट विवरण के लिए, तुम्हें अनेक सत्य समझने होंगे और बहुत से सत्यों पर और अधिक संगति करनी चाहिए। अपने कर्तव्य को पूरा करने में, तुम्हें सत्य और उसके सिद्धांतों को समझना चाहिए; तभी तुम कर्तव्य का पर्याप्त निर्वहन कर सकते हो। लोगों को अपने कर्तव्यों का निर्वहन क्यों करना चाहिए? एक बार जब वे परमेश्वर में विश्वास करके उसके आदेश को स्वीकार कर लेते हैं, तो परमेश्वर के घर के काम में और परमेश्वर के कार्य-स्थल के प्रति ज़िम्मेदारी और दायित्व में लोगों की भी हिस्सेदारी होती है और बदले में, इस ज़िम्मेदारी और दायित्व के कारण, वे परमेश्वर के कार्य का एक प्रमुख हिस्सा बन जाते हैं—उसके कार्य के उद्देश्यों का एक प्रमुख हिस्सा और उसके उद्धार के उद्देश्यों का एक प्रमुख हिस्सा। इस प्रकार, लोगों के उद्धार और वे कैसे अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं, उन दोनों के बीच काफी गहरा संबंध है, क्या वे उनका निर्वहन अच्छी तरह से कर सकते हैं और क्या वे उनका निर्वहन पर्याप्त रूप से कर सकते हैं। चूँकि, तुम परमेश्वर के घर का एक हिस्सा बन गए हो और उसका आदेश स्वीकार कर लिया है, तुम्हारे पास अब कर्तव्य है। तुम्हें यह नहीं बताना है कि तुम्हें इस कर्तव्य को कैसे पूरा करना चाहिए; यह बताना परमेश्वर का कार्य है और यह सत्य के मानकों द्वारा निर्धारित किया जाता है। इसलिए, लोगों को यह समझना और इस बात पर स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर द्वारा चीजों का आकलन कैसे किया जाता है—यह तलाश करने के लिए एक उपयुक्त चीज़ है। परमेश्वर के कार्य में, अलग-अलग लोगों को अलग-अलग कर्तव्य मिलते हैं। अर्थात, लोगों को उनके गुणों, काबिलियत, उम्र, स्थितियों और युग के आधार पर कार्य सौंपे जाते हैं। तुम्हें चाहे कोई भी कार्य दिया जाए, उसे प्राप्त करने का युग या परिस्थितियां चाहे जो हों, कार्य केवल कार्य होता है; इसका प्रबंधन कोई इंसान नहीं करता है। अंतत: परमेश्वर का तुमसे अपेक्षा का मानक यह है कि तुम पर्याप्त रूप से अपने कर्तव्य का निर्वहन करो। "पर्याप्त रूप से" शब्द को कैसे समझाया जाए? इसका मतलब है तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करके उसे संतुष्ट करना चाहिए, और परमेश्वर तुम्हारे कार्य को पर्याप्त कहकर स्वीकृति प्रदान करे; तभी पर्याप्त रूप से तुम्हारे कर्तव्य का निर्वहन होगा। यदि परमेश्वर कहता है कि तुम्हारा काम अपर्याप्त है, तो फिर तुमने अपना कार्य अच्छी तरह से पूरा नहीं किया है। यद्यपि तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो और वह स्वीकार भी करता है कि तुमने ऐसा किया है, लेकिन यदि तुम इसे पर्याप्त रूप से नहीं करते हो, तो इसके परिणाम क्या होंगे? गंभीर मामलों में, लोगों की उद्धार की उम्मीदें मिट्टी में मिल सकती हैं; कम गंभीर मामलों में, उन्हें कर्तव्यों के निर्वहन के अधिकार से वंचित किया जा सकता है। ऐसे अधिकारों से वंचित करके, कुछ लोगों को दर-किनार कर दिया जाता है, जिसके बाद उनका अलग से ख्याल रखकर व्यवस्था की जाती है। क्या अलग से ख्याल रखने और व्यवस्था करने का मतलब है कि वे हटा दिए गए हैं? ऐसा ज़रूरी नहीं है; परमेश्वर प्रतीक्षा करेगा और देखेगा कि ये लोग कैसे कार्य करते हैं। इसलिए, कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे करता है, यह महत्वपूर्ण है। लोगों का व्यवहार विवेकपूर्ण होना चाहिए और उन्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए तथा इसे अपने जीवन में प्रवेश और उद्धार-प्राप्ति में अत्यधिक महत्व का विषय मानना चाहिए; उन्हें इसे लापरवाही से नहीं लेना चाहिए।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?' से उद्धृत

परमेश्वर में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति को परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिये। अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभाने वाले लोग ही परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं, परमेश्वर उन्हें जो काम सौंपता है, उसे पूरा करने से ही उनके कर्तव्यों का निर्वहन अपेक्षित मानक के बराबर होगा। परमेश्वर के आदेश की पूर्णता के मानक हैं। प्रभु यीशु ने कहा: "तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन से, और अपने सारे प्राण से, और अपनी सारी बुद्धि से, और अपनी सारी शक्ति से प्रेम रखना।" परमेश्वर से प्रेम करना उसका एक पहलू है जिसकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है। वास्तव में, जब परमेश्वर लोगों को एक आदेश देता है, जब वे अपने विश्वास से अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो जिन मानकों की वह उनसे अपेक्षा करता है वे हैं: अपने पूर्ण हृदय से, अपने पूर्ण प्राण से, अपने पूरे दिमाग से, और अपनी पूरी ताक़त के साथ। यदि तू मौज़ूद तो है, लेकिन तेरा हृदय मौज़ूद नहीं है, यदि तू कार्यों के बारे में अपने दिमाग से सोचता है और उन्हें स्मृति में रख देता है, लेकिन तू अपना हृदय उन में नहीं लगाता है, और यदि तू अपनी क्षमताओं का उपयोग करके चीज़ों को पूरा करता है, तो क्या यह परमेश्वर के आदेश को पूरा करना है? तो अपने कर्तव्य को सही तरीके से करने और परमेश्वर ने तुझे जो कुछ भी सौंपा है, उसे पूरा करने के लिए और अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक निभाने के लिए किस तरह का मानक प्राप्त करना ही चाहिए? यह अपने कर्तव्य को पूरे हृदय से, अपने पूरे प्राण से, अपने पूरे मन से, अपनी पूरी ताक़त से करना है। अगर तुम्हारे अंदर परमेश्वर से प्रेम करने वाला दिल नहीं है, तो फिर अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभाने की कोशिश करने से बात नहीं बनेगी। अगर परमेश्वर के लिये तुम्हारा प्रेम मज़बूत और अधिक सच्चा होता चला जाता है, तो स्वाभाविक रूप से तुम पूरे दिल से, पूरी आत्मा से, पूरे मन से, और पूरी शक्ति से अपने कर्तव्य का निर्वाह कर पाओगे।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'जीवन जीने के लिए लोग ठीक-ठीक किस पर भरोसा करते रहे हैं' से उद्धृत

भले ही तू किसी भी कर्तव्य को पूरा करे, तुझे हमेशा परमेश्वर की इच्छा को समझने की और यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि तेरे कर्तव्य को लेकर उसकी क्या अपेक्षा है; केवल तभी तू सैद्धान्तिक तरीके से मामलों को सँभाल पाएगा। अपने कर्तव्य को निभाने में, तू अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार बिल्कुल नहीं जा सकता है या तू जो चाहे मात्र वह नहीं कर सकता है, जिसे भी करने में तू खुश और सहज हो, वह नहीं कर सकता है, या ऐसा काम नहीं कर सकता जो तुझे अच्छे व्यक्ति के रूप में दिखाये। यदि तू परमेश्वर पर अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को बलपूर्वक लागू करता है या उन का अभ्यास ऐसे करता है मानो कि वे सत्य हों, उनका ऐसे पालन करता है मानो कि वे सत्य के सिद्धांत हों, तो यह कर्तव्य पूरा करना नहीं है, और इस तरह से तेरा कर्तव्य निभाना परमेश्वर के द्वारा याद नहीं रखा जाएगा। कुछ लोग सत्य को नहीं समझते हैं, और वे नहीं जानते कि अपने कर्तव्यों को ठीक से पूरा करने का क्या अर्थ है। उन्हें लगता है कि चूँकि उन्होंने अपना दिल और अपना प्रयास इसमें लगाया है, और देहासक्ति का त्याग किया है और कष्ट उठाया है, इसलिए उनके कर्तव्य की पूर्ति मानकों पर खरी उतरेगी—पर फिर क्यों परमेश्वर हमेशा असंतुष्ट रहता है? इन लोगों ने कहाँ भूल की है? उनकी भूल यह थी कि उन्होंने परमेश्वर की अपेक्षाओं की तलाश नहीं की थी, बल्कि अपने ही विचारों के अनुसार काम किया था; उन्होंने अपनी ही इच्छाओं, पसंदों और स्वार्थी उद्देश्यों को सत्य मान लिया था और उन्होंने इनको वो मान लिया जिससे परमेश्वर प्रेम करता है, मानो कि वे परमेश्वर के मानक और अपेक्षाएँ प हों। जिन बातों को वे सही, अच्छी और सुन्दर मानते थे, उन्हें सत्य के रूप में देखते थे; यह गलत है। वास्तव में, भले ही लोगों को कभी कोई बात सही लगे, लगे कि यह सत्य के अनुरूप है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि यह आवश्यक रूप से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। लोग जितना अधिक यह सोचते हैं कि कोई बात सही है, उन्हें उतना ही अधिक सावधान होना चाहिए और उतना ही अधिक सत्य को खोजना चाहिए और यह देखना चाहिए कि उनकी सोच परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप है या नहीं। यदि यह उसकी अपेक्षाओं के विरुद्ध है और उसके वचनों के विरुद्ध है, तो तुम्हारा यह सोचना गलत है कि यह बात सही है, क्योंकि यह बस एक मानवीय विचार है और यह आवश्यक रूप से सत्य के अनुरूप नहीं होगा भले ही तुम्हें यह कितना भी सही लगे। सही और गलत का तुम्हारा निर्णय सिर्फ़ परमेश्वर के वचनों पर आधारित होना चाहिए, और तुम्हें कोई बात चाहे जितनी भी सही लगे, जबतक इसका आधार परमेश्वर के वचन न हों, तुम्हें इसे हटा देना चाहिए। कर्तव्य क्या है? यह परमेश्वर द्वारा लोगों को सौंपा गया एक आदेश है। तो तुम्हें अपना कर्तव्य कैसे पूरा करना चाहिए? व्यक्तिपरक मानवीय इच्छाओं के आधार पर नहीं बल्कि परमेश्वर की अपेक्षाओं और मानकों के अनुसार काम कर तथा सत्य के सिद्धांतों पर अपना व्यवहार आधारित कर। इस तरह तुम्हारा अपने कर्तव्य को करना मानकों के स्तर का होगा।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्य के सिद्धांतों की खोज करके ही अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाया जा सकता है' से उद्धृत

अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हें हमेशा खुद को जांच कर देखना चाहिए कि क्या तुम सिद्धांत के अनुसार काम कर रहे हो, तुम्हारा कर्तव्य निर्वाह सही स्तर का है या नहीं, कहीं तुम इसे सतही तौर पर तो नहीं कर रहे हो, कहीं तुमने अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने से जी चुराने की कोशिश तो नहीं की है, कहीं तुम्हारे रवैये और तुम्हारे सोचने के तरीके में कोई खोट तो नहीं। एक बार तुम्हारे आत्मचिंतन कर लेने और तुम्हारे सामने इन चीज़ों के स्पष्ट हो जाने से, अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हें आसानी होगी। अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारा किसी भी चीज़ से सामना हो—नकारात्मकता और कमज़ोरी, या निपटान के बाद बुरी मन:स्थिति में होना—तुम्हें कर्तव्य के साथ ठीक से पेश आना चाहिए, और तुम्हें साथ ही सत्य को खोजना और परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए। ये काम करने से तुम्हारे पास अभ्यास करने का मार्ग होगा। अगर तुम अपना कर्तव्य निर्वाह बहुत अच्छे ढंग से करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी मन:स्थिति से बिल्कुल प्रभावित नहीं होना चाहिए। तुम्हें चाहे जितनी निराशा या कमज़ोरी महसूस हो रही हो, तुम्हें अपने हर काम में पूरी सख्ती के साथ सत्य का अभ्यास करना चाहिए, और सिद्धांतों पर अडिग रहना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो न सिर्फ दूसरे लोग तुम्हें स्वीकार करेंगे, बल्कि परमेश्वर भी तुम्हें पसंद करेगा। इस तरह, तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे, जो ज़िम्मेदार है और दायित्व का निर्वहन करता है; तुम सचमुच में एक अच्छे व्यक्ति होगे, जो अपने कर्तव्य को सही स्तर पर निभाता है और जो पूरी तरह से एक सच्चे इंसान की तरह जीता है। ऐसे लोगों का शुद्धिकरण किया जाता है और वे अपना कर्तव्य निभाते समय वास्तविक बदलाव हासिल करते हैं, उन्हें परमेश्वर की दृष्टि में ईमानदार कहा जा सकता है। केवल ईमानदार लोग ही सत्य का अभ्यास करने में डटे रह सकते हैं और सिद्धांत के साथ कर्म करने में सफल हो सकते हैं, और मानक स्तर के अनुसार कर्तव्य निभा सकते हैं। सिद्धांत पर चलकर कर्म करने वाले लोग अच्छी मन:स्थिति में होने पर अपना कर्तव्य ध्यान से निभाते हैं; वे सतही ढंग से कार्य नहीं करते, वे अहंकारी नहीं होते और दूसरे उनके बारे में ऊंचा सोचें इसके लिए दिखावा नहीं करते। बुरी मन:स्थिति में होने पर भी वे अपने रोज़मर्रा के काम को उतनी ही ईमानदारी और ज़िम्मेदारी से पूरा करते हैं और उनके कर्तव्य निर्वाह के लिए नुकसानदेह या उन पर दबाव डालने वाली या उनके काम में बाधा पहुँचाने वाली किसी चीज़ से सामना होने पर भी वे परमेश्वर के सामने अपने दिल को शांत रख पाते हैं और यह कहते हुए प्रार्थना करते हैं, "मेरे सामने चाहे जितनी बड़ी समस्या खड़ी हो जाए—भले ही आसमान फट कर गिर पड़े—जब तक परमेश्वर मुझे जीने देगा, अपना कर्तव्य निभाने की भरसक कोशिश करने का मैं दृढ़ संकल्प लेता हूँ। मेरे जीवन का प्रत्येक दिन वह दिन होगा जब मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए कड़ी मेहनत करूंगा ताकि मैं परमेश्वर द्वारा मुझे दिये गये इस कर्तव्य, और उसके द्वारा मेरे शरीर में प्रवाहित इस सांस के योग्य बना रहूँ। चाहे जितनी भी मुश्किलों में रहूँ, मैं उन सबको परे रख दूंगा क्योंकि कर्तव्य निर्वाह करना मेरे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है!" जो लोग किसी व्यक्ति, घटना, चीज़ या माहौल से प्रभावित नहीं होते, जो किसी मन:स्थिति या बाहरी हालात से नियंत्रित नहीं होते, और जो परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गये कर्तव्यों और आदेशों को सबसे आगे रखते हैं—वही परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होते हैं और सच्चाई के साथ उसके सामने समर्पण करते हैं। ऐसे लोगों ने जीवन-प्रवेश हासिल किया है और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश किया है। यह सत्य को जीने की सबसे व्यावहारिक और सच्ची अभिव्यक्तियों में से एक है।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'जीवन में प्रवेश अपने कर्तव्य को निभाने का अनुभव करने से प्रारंभ होना चाहिए' से उद्धृत

लापरवाही और अनमनेपन से कर्तव्य निर्वहन करना एक स्पष्ट, सामान्य किंतु जटिल और कठिनाई से हल होने वाली समस्या है। सबसे पहले अपने कार्यों में गंभीर, दृढ़, जिम्मेदार, ईमानदार और व्यावहारिक होना सीखो, धीरे-धीरे और निरंतर प्रयास से तुम दौड़ जीत लोगे। या तो कोई काम करो मत, अगर करो तो उसे अच्छी तरह से करो, ऐसे कि तुम उससे संतुष्ट हो और वह आदर्श के अनुरूप हो। और भी अच्छा होगा कि काम के सिद्धांतों की तलाश करने और उसे उन सिद्धांतों के अनुसार करने में सक्षम हो। हालाँकि इसमें अधिक प्रयास करना पड़ सकता है और तुम्हारा भोजन या कुछ मनोरंजन छूट सकता है, लेकिन फिर भी काम अच्छी तरह से करो, लापरवाही या अनमनेपन से नहीं—और अगर बात तुम्हें समझ में न आए, तो समझने का दिखावा मत करो, बल्कि उसे यथासंभव अपनी समझ के अनुसार करो। क्या लापरवाही और अनमनेपन का हल आसान है? हर दिन अपना काम शुरू करने से पहले परमेश्वर से प्रार्थना करो। कहो : "परमेश्वर, मैं अपना काम शुरू कर रहा हूँ। यदि मैं लापरवाह और अनमना होऊँ, तो मैं निवेदन करता हूँ कि तुम मुझे अनुशासित करो और मेरे दिल में मुझे फटकारो। मैं यह भी निवेदन करता हूँ कि तुम मुझे मेरा काम अच्छी तरह से करने और मुझे लापरवाह और अनमना न होने देने में मेरी अगुआई करो।" हर दिन इस तरह से अभ्यास करो और देखो कि लापरवाही और अनमनेपन से काम करने की समस्या हल करने, अपना काम करने में कम से कम लापरवाह और अनमना होने में, उसे बहुत कम मिलावट के साथ, और निरंतर बेहतर व्यावहारिक परिणामों और निरंतर अधिक दक्षता के साथ करने में कितना समय लगता है। अपना कर्तव्य बिना लापरवाह या अनमना हुए करना—क्या तुम इसे अपने आप कर सकते हो? क्या यह ऐसी चीज है, जिसे तुम स्वयं नियंत्रित कर सको? (इसे नियंत्रित करना आसान नहीं है।) यह कष्टप्रद है। यदि इसे नियंत्रित करना वास्तव में कठिन है, तो तुम लोगों की कठिनाइयाँ वास्तव में बहुत बड़ी हैं! तो फिर, तुम लोग बिना लापरवाह या अनमने हुए क्या कर सकते हो? खा सकते हो? खेल सकते हो? कपड़े पहन सकते हो और शृंगार कर सकते हो? जब कुछ महिलाएँ अपना शृंगार करती हैं, तो वे अपनी भौंहों या सिर पर एक भी बाल सँवारे बिना नहीं छोड़ती। अगर तुम लोग ऐसे ही सजग रवैये के साथ कार्य करो, तो उसी तरह तुम भी लापरवाह या अनमने नहीं हो पाओगे। पहले लापरवाही और अनमनेपन की समस्या हल करो और फिर अपनी मर्जी से कार्य करने की समस्या हल करो। अपनी मर्जी से काम करना भी आम बात है, और अपने में उसे पहचानना भी आसान है। कभी-कभी, बस अपने मन और विचारों की त्वरित जाँच करके ही तुम इसे पहचानने में सक्षम हो जाओगे और कहोगे : "मैं जो कर रहा हूँ, वह अपनी इच्छा के अनुसार कर रहा हूँ। मुझे पता है कि मुझे सिद्धांतों के अनुसार क्या करना चाहिए, लेकिन मैं वह नहीं कर रहा हूँ।" क्या यह पहचानना आसान बात नहीं है? (है।) तो इसका हल संभव होना चाहिए। पहले खुद को इन दो मुद्दों पर लगाओ, एक तो लापरवाही और अनमनेपन की समस्या हल करना और दूसरे, अपनी मर्जी के अनुसार कार्य करना। प्रयास करो कि एक-दो साल के बाद अपने किसी भी काम में न तो लापरवाह रहो, न ही अनमने, और न ही अपनी मर्जी से कार्य करो—जो भी करो उसमें—अपनी व्यक्तिगत इच्छा की मिलावट न करो। इन दोनों समस्याओं का समाधान हो जाने पर तुम अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभा पाओगे। और अगर तुम लोग इनका समाधान नहीं कर सकते, तो तुम लोग अभी भी परमेश्वर की आज्ञा मानने या उसकी इच्छा के प्रति विचारशील होने से दूर हो। तुमने समस्या के समाधान की शुरुआत तक नहीं की है।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नकली अगुआओं की पहचान करना (5)' से उद्धृत

चाहे तुम किसी भी तरह का कर्तव्य निभा रहे हो या किसी भी व्यावसायिक कौशल का अध्ययन कर रहे हो, समय के साथ तुम उसमें बेहतर होते जाओगे। यदि तुम सुधार की कोशिश करते रहो, तो तुम उसमें निरंतर बेहतर होते जाओगे। यदि तुम किसी भी चीज़ को गंभीरता से नहीं लेते हो, तो यहाँ तक कि तुम्हारे द्वारा सीखी गई चीज़ों का भी कोई लाभ नहीं होगा। यदि तुम उन चीज़ों को भी गंभीरता से नहीं लेते हो जिनका तुम उपयोग कर सकते हो, और तुम्हें पता नहीं है कि उनका अंतिम स्वरूप क्या होगा, और ऐसा भी कोई व्यक्ति नहीं है जिसे इसकी समझ हो और जो तुम्हारा मार्गदर्शन कर सके, तो तुम कभी भी कोई प्रगति नहीं करोगे, और तुम्हारे द्वारा सीखे गए कौशल बेकार हो जाएँगे। कुछ सीखने में, सिद्धांत को सीखना तो आसान होता है, लेकिन उसे अभ्यास में लाना उतना आसान नहीं होता। यदि तुम सिद्धान्त से आगे बढ़कर अभ्यास तक जाना चाहते हो, और फिर अभ्यास के आधार पर कुछ हासिल करके, अपनी शक्तियों का और भी अधिक लाभ उठाते हुए, या तुमने अभ्यास में जो सीखा है उसे अमल में लाकर परिणाम हासिल करते हुए और भी ऊपर उठना चाहते हो, तो तुम्हें क्या करना होगा? तुम्हें पेशेवर कौशल का अध्ययन करने में और उससे संबंधित सभी तरह की सामग्री जुटाने में अधिक समय बिताना होगा; तुम्हें उसके सभी पहलुओं का लगातार अध्ययन करना चाहिए, लगातार खोज करनी चाहिए, अपनी कमज़ोरियों को लगातार दूसरों की ताक़तों की मदद से दूर करना चाहिए, ताकि तुम वो सीख लो जो तुम्हें दूसरों से सीखना ही चाहिए। इस तरह, तुम्हारे पेशेवर कौशल में लगातार सुधार होगा। जब दूसरे तुम्हें यह बताते हैं कि किसी चीज़ को कैसे करो, तो तुम्हें समझने की कोशिश ज़रूर करनी चाहिए और तुम्हें इस पर सोचना चाहिए। यदि, जब कोई तुम्हें कुछ बताता है, और तुम जानते हो कि वह किस बारे में बोल रहा है और स्वीकार करते हो कि यह काम करने का एक अच्छा तरीका है, लेकिन बाद में तुम इस पर कुछ विचार करते हो और अपने तरीके के बारे में खुद से कहते हो, "ये भी चलेगा", तो तुम्हारा रवैया कैसा होता है? चाहे यह पेशेवर कौशल और विशिष्टताओं के प्रति हो, या तुम्हारे विश्वास में सत्य की तलाश के प्रति, तुम्हारा रवैया बुरा है—यह बेपरवाही का है। यह किस तरह का स्वभाव है? यह अहंकार है, यह सकारात्मक चीज़ों से प्रेम नहीं करना है, यह कठोरता है। क्या ऐसी बातें तुम लोगों में दिखाई देती हैं? (हाँ)। क्या वे अक्सर, कभी-कभी, या केवल कुछ मामलों में ही प्रकट होती हैं? (अक्सर)। इस तरह के स्वभाव को स्वीकार करने का तुम लोगों का रवैया काफ़ी नेक और ईमानदार है, लेकिन केवल इसे स्वीकार कर लेना ही पर्याप्त नहीं है; यदि तुम इसे स्वीकार करने से ज़्यादा कुछ भी नहीं करते हो, तो परिवर्तन असंभव है। तो, तुम कैसे बदल सकते हो? जब लोगों में अभिमानी स्वभाव उजागर होता है, और उनका रवैया बेपरवाही, उपेक्षा और फूहड़पन का होता है, तो उन्हें सुनिश्चित करना चाहिए कि वे परमेश्वर के सामने आएँ और तुरंत प्रार्थना करें ताकि परमेश्वर उनसे निपट सके और उन्हें अनुशासित कर सके, साथ ही वे परमेश्वर की पड़ताल और उसके अनुशासन को भी स्वीकार कर सकें। इसके अलावा, उन्हें पहचानना होगा कि उनके स्वभाव का यह पहलू कैसे उत्पन्न होता है और इसे कैसे बदला जा सकता है। जानने का उद्देश्य परिवर्तन है। तो, ऐसे परिवर्तन को कैसे प्राप्त किया जा सकता है? पहला कदम क्या होना चाहिए? लोगों को पहले प्रार्थना करनी चाहिए, पहले परमेश्वर के सामने आना चाहिए, परमेश्वर की पड़ताल को, और उसके अनुशासन को स्वीकार करना चाहिए, जिसके बाद उन्हें सक्रिय रूप से सहयोग करना चाहिए। उन्हें कैसे सहयोग करना चाहिए? जब वे अपना कर्तव्य निभा रहे हों, तो जैसे ही वे स्वयं को "ये भी चलेगा" सोचते हुए पाते हैं, उन्हें स्वयं को सही करना चाहिए और इस तरह नहीं सोचना चाहिए। जब घमंडी स्वभाव उत्पन्न होने लगे, तो तुम्हें अपने दिल में फटकार—परमेश्वर की फटकार और ताड़ना—महसूस करनी चाहिए; तुम्हें जल्दी से वापस मुड़ जाना चाहिए: "अभी-अभी मैं ग़लत था। एक बार फिर, मैं एक भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव को प्रकट करने वाला था; शैतानी स्वभाव द्वारा निर्देशित होने वाला था; शैतान को सत्ता संभालने देने वाला था; बेपरवाह होने वाला था। मुझे अनुशासित किया जाना चाहिए!" यदि तुम फटकार को महसूस करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के सामने अपने पापों को स्वीकार करना चाहिए और अपने आप को वापस मोड़ लेना चाहिए। तुम्हें अपने पापों को कैसे स्वीकार करना चाहिए? एक गंभीर रवैया अपनाने और घुटने टेकने, दंडवत करने और परमेश्वर से प्रार्थना करने की कोई ज़रूरत नहीं है। ऐसा करना अनावश्यक है। तुम अपने दिल में परमेश्वर के साथ संवाद करो, कहो, "हे परमेश्वर, मैं ग़लत था, मैं फिर से असावधान और बेपरवाह होने वाला था। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि तुम मुझ पर नज़र रखो; मैं नहीं चाहता कि मेरा भ्रष्ट स्वभाव मेरे भीतर हावी हो या पूरी तरह मुझ पर शासन करे। मैं परमेश्वर की आज्ञा से चलना चाहता हूँ, और सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहता हूँ। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि तुम मुझ पर नज़र रखो।" इस तरह से प्रार्थना करने पर तुम्हारे भीतर की स्थिति बदल जाएगी। अपनी स्थिति को बदलने का लक्ष्य क्या होता है? यह तुम्हारे सफलतापूर्वक वापस मुड़ जाने, वफ़ादार और आज्ञाकारी होने, और कोई समझौता किए बिना परमेश्वर की फटकार और उसके अनुशासन को स्वीकार करने के लिए होता है। इसी तरह से तुम अपने आप को वापस मोड़ लोगे। जब तुम फिर से बेपरवाह होने लगते हो, जब तुम एक बार फिर अपने कर्तव्य को ढीलेपन से लेना चाहते हो, तब तुम परमेश्वर के अनुशासन और फटकार के कारण खुद को तुरंत ही वापस मोड़ लोगे—और क्या तुम इस प्रकार अपनी लापरवाही से बच नहीं जाओगे? क्या तुम्हें अपराध से छुटकारा नहीं मिल जाएगा? यह अच्छा है, या बुरा? यह एक अच्छी बात है।

कभी-कभी, किसी काम को खत्म करने के बाद, तुम अपने दिल में कुछ असहज महसूस करते हो। करीब से निरीक्षण करने पर, तुम पाते हो कि वास्तव में कोई समस्या है। इसे हल करना होगा, जिसके बाद तुम चैन महसूस करोगे। तुम्हारी बेचैनी साबित करती है कि कोई समस्या है जिस पर तुम्हें अतिरिक्त समय देने की ज़रूरत है और जिस पर तुम्हें अधिक ध्यान देना चाहिए। यह अपने कर्तव्य निभाने के प्रति एक गंभीर, ज़िम्मेदार रवैया है। जब कोई व्यक्ति गंभीर, जिम्मेदार, समर्पित, और कड़ी मेहनत करने वाला होता है, तो काम सही तरीके से पूरा किया जाएगा। कभी-कभी तुम्हारा मन ऐसा नहीं होता और तुम साफ-साफ नज़र आने वाली गलती को भी ढूँढ या पकड़ नहीं पाते। अगर किसी का ऐसा मन हो तो पवित्र आत्मा की प्रेरणा और मार्गदर्शन से वह समस्या को पहचानने में सक्षम हो जाएगा। किंतु अगर पवित्र आत्मा तुम्हारा मार्गदर्शन करे और तुम्हें ऐसी जागरूकता दे, तुम्हें यह बोध कराए कि कुछ गलत है, पर फिर भी तुम्हारा मन ऐसा न हो, तो भी तुम समस्या को पहचान नहीं हो पाओगे। तो इससे क्या पता चलता है? यह दिखाता है कि बहुत महत्वपूर्ण है कि लोग सहयोग करें; उनके दिल बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, और वे अपनी सोच और इरादों को किस दिशा में ले जाते हैं, वह भी बहुत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर इसकी जाँच करता है और यह देख सकता है कि अपने कर्तव्य का निर्वहन करते समय, लोगों के मन में क्या होता है। यह महत्वपूर्ण है कि अपने कार्य करते समय लोग उसमें अपने पूरे दिल और पूरी शक्ति का प्रयोग करें। सहयोग भी काफी महत्वपूर्ण घटक होता है। यदि लोग अपने जिन कर्तव्यों का निर्वहन कर चुके हैं और कार्य पूरा कर चुके हैं उन पर कोई प्रायश्चित न करें, परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ न रहें, तो क्या वे पूरे दिल और पूरी शक्ति से कार्य करेंगे? अगर आज तुम अपना पूरा दिल और पूरी शक्ति नहीं लगाते हो, तो, जब कुछ गलत हो जाएगा और उसके परिणाम सामने आएंगे, क्या तब पछतावा करने के लिए बहुत देर नहीं हो जाएगी? तुम हमेशा के लिए ऋणी बन जाओगे, और यह तुम्हारे ऊपर एक धब्बा लग जाएगा! किसी के कर्तव्य के निर्वहन में धब्बा लगना अपराध होता है। इसलिए तुम्हें अपने हिस्से का कार्य सही ढंग से करना चाहिये, पूरे दिल और पूरी शक्ति से करना चाहिए। वे चीजें लापरवाही और बेमन से नहीं की जानी चाहिए; तुम्हें कोई पछतावा नहीं होना चाहिए। इस तरह, इस दौरान किये गये तुम्हारे कार्यों को परमेश्वर द्वारा याद रखा जाएगा। जिन कार्यों को परमेश्वर द्वारा याद रखा जाता है वे अच्छे कर्म होते हैं। फिर ऐसे कौन-से कार्य हैं जिन्हें याद नहीं रखा जाता? अपराधों को याद नहीं रखा जाता। ऐसा हो सकता है कि इस समय उन कार्यों का जिक्र करने पर लोग यह स्वीकार न करें कि वे बुरे कर्म हैं, लेकिन अगर ऐसा दिन आता है जब इन चीजों के गंभीर परिणाम सामने आते हैं, और वे नकारात्मक प्रभाव बन जाएँ, तब तुम्हें समझ में आएगा कि ये चीजें मात्र व्यवहार संबंधी अपराध नहीं हैं, बल्कि बुरा कर्म हैं। जब तुम्हें इसका एहसास होगा, तुम पछताओगे और सोचोगे : मुझे थोड़ी-बहुत रोकथाम करनी चाहिए थी! अगर मैंने इस पर थोड़ा और विचार कर लिया होता और प्रयास कर लिया होता, तो यह समस्या नहीं होती। कोई भी चीज़ तुम्हारे हृदय पर हमेशा के लिए लगे इस धब्बे को मिटा नहीं सकेगी और तुम परेशानी में पड़ जाओगे, अगर यह तुम पर एक स्थायी ऋण बन गयी। इसलिए, आज, हर बार जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, या किसी आज्ञा को स्वीकार करते हो, तो तुम सभी को इसे अपनी पूरी ताक़त और पूरे दिल से करने का प्रयास करना चाहिए। तुम लोगों को इसे इस तरह से करना चाहिए कि तुम अपराध-बोध और पछतावे से मुक्त रहो, ताकि इसे परमेश्वर द्वारा याद किया जाए, और यह एक अच्छा काम हो। असावधानी और लापरवाही से, एक आँख खुली और दूसरी बंद रखकर, काम न करो; तुम पछताओगे, और इसे सुधार नहीं पाओगे। यह अपराध होगा, और अंततः, तुम्हारे दिल में हमेशा अपराधबोध, ऋणग्रस्तता और आरोप बने रहेंगे। इन दोनों रास्तों में से कौन-सा सबसे अच्छा है? कौन-सा रास्ता सही मार्ग है? बिना किसी पछतावे के, अपने पूरे दिल और ताक़त के साथ अपना कर्तव्य निभाना और अच्छे कामों को तैयार और संचित करना। अपने अपराधों को जमा न होने दो, जिससे तुम्हें पछतावा करना और ऋणी होना पड़े। क्या होता है जब एक व्यक्ति ने बहुत सारे अपराध किए हों? वह परमेश्वर के सामने ही अपने प्रति उसके क्रोध को जगा रहा है! यदि तुम और भी अपराध करते जाते हो, और तुम्हारे प्रति परमेश्वर का क्रोध और भी बढ़ता है, तो, अंततः, तुम्हें दंडित किया जाएगा।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना कर्तव्‍य करते हुए गैरज़िम्‍मेदार और असावधान होने की समस्‍या का समाधान कैसे करें' से उद्धृत

जब लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं तो वे दरअसल वही करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। पर अगर तुम इसे परमेश्वर के सामने करते हो, अगर तुम अपना कर्तव्य दिल से और ईमानदारी की भावना से निभाते हो, तो क्या यह रवैया कहीं ज्यादा सही नहीं होगा? तो तुम इस रवैये को अपने दैनिक जीवन में कैसे व्यवहार में ला सकते हो? तुम्हें "दिल से और ईमानदारी से परमेश्वर की आराधना" को अपनी वास्तविकता बनाना होगा। जब कभी भी तुम शिथिल पड़ना चाहते हो औरबिना रुचि के काम करना चाहते हो, जब कभी भी तुम अस्थिर बुद्धि से काम करना और आलसी बनना चाहते हो, और जब कभी भी तुम अपना ध्यान बँटने देते हो, तो तुम्हें इन बातों पर अच्छी तरह विचार करना चाहिए: इस तरह व्यवहार करने में, क्या मैं अविश्वास के लायक बन रहा हूँ? क्या यह कर्तव्य के निर्वहन में अपना मन लगाना है? क्या मैं ऐसा करके विश्वासघाती बन रहा हूँ? ऐसा करने में, क्या मैं उस आदेश के अनुरूप रहने में विफल हो रहा हूँ, जो परमेश्वर ने मुझे सौंपाहै? तुम्हें इसी तरह आत्म-मंथन करना चाहिए। चूँकि इस तरह से काम करना निष्ठा नहीं है, इससे परमेश्वर आहत होता है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिये, "मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। उस समय, मैंने महसूस किया कि कुछ समस्या थी, लेकिन मैंने उस समस्या को गंभीर नहीं समझा; मैंने बस लापरवाही से उस पर लीपा-पोती कर दी। मुझे जब भी लगा कि कोई समस्या है, तो मैंने उसे नकार दिया। इस समस्या का अब तक कोई समाधान नहीं हुआ है। मैं अच्छा इंसान नहीं हूँ!" अब तुमने समस्या को पहचान लिया होगा और खुद को कुछ हद तक जान लिया होगा। क्या थोड़ा ज्ञान पर्याप्त है? क्या अपने पापों को स्वीकार कर लेना काफी है? तुम्हें पश्चाताप करके खुद में बदलाव लाना चाहिए! और तुम अपने-आपमें बदलाव कैसे ला सकते हो? पहले अपने कर्तव्य को लेकर तुम्हारा रवैया और मानसिकता गलत थी, तुम्हारा दिल इसमें नहीं रहता था, और तुम कभी भी सही चीजों पर ध्यान नहीं देते थे। आज, तुम्हें अपने कर्तव्य को लेकर अपना रवैया ठीक करना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के आगे प्रार्थना करनी चाहिए, और जब भी तुम्हारे पिछले विचार और रवैये फिर से उभरें तो तुम्हें परमेश्वर से विनती करनी चाहिए कि वह तुम्हें अनुशासित करे और तुम्हें ताड़ना दे। जल्दी से उन क्षेत्रों की पहचान करो जहां तुम ढीलेपन और बेमन से अपने कर्तव्य निभाते थे। यह सोचो कि तुम इन्हें कैसे ठीक कर सकते हो, और उन्हें ठीक करने के बाद, फिर से खोजो और प्रार्थना करो, और फिर अपने भाई-बहनों से पूछो कि क्या उनके कुछ सुझाव और सिफारिशें हैं, जब तक कि हर कोई यह न कहे कि तुमने सही किया है। तभी तुम्हें वैधता मिलेगी। तुम ऐसा महसूस करोगे कि इस बार तुमने मापदंडों के अनुरूप अपना कर्तव्य निभाया है, और अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया है, पूरे दिल से किया है, और अपना सब-कुछ अर्पित किया है; तुम महसूस करोगे कि तुमने अपना सर्वस्व झोंक दिया है, और तुम्हारे दिल में कोई पछतावा नहीं है। परमेश्वर के सामने अपना हिसाब देते समय तुम्हारी चेतना निर्मल और शुद्ध होगी, और तुम कहोगे, "भले ही परमेश्वर मुझे अपना कर्तव्य निभाने के 60% अंक दे, पर मैंने अपने शरीर की शक्ति का हर कतरा इसमें झोंक दिया है, मैंने इसे पूरे दिल से किया है, मैंने न कोई सुस्ती दिखाई न ढीलापन बरता, और मैंने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी है।" क्या यह पूरे दिल, पूरे दिमाग और पूरी ताकत को अपने कर्तव्य में लगाने की वास्तविकताओं को व्यवहार में लाना और उन्हें अपने दैनिक जीवन में लागू करना नहीं हुआ? क्या यह सत्य की इन वास्तविकताओं को जीना नहीं है? और जब तुम सत्य की इन वास्तविकताओं को जीते हो तो अपने दिल में तुम कैसा महसूस करते हो? क्या तुम्हें ऐसा महसूस नहीं होता कि तुम एक मनुष्य के समान जी रहे हो, न कि किसी चलते-फिरते शव के समान?

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्‍य के बारम्‍बार चिन्‍तन से ही तुम्हें आगे का मार्ग मिल सकता है' से उद्धृत

जो लोग सत्य को व्यवहार में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की जाँच को स्वीकार कर सकते हैं। जब तुम परमेश्वर की जाँच को स्वीकार करते हो, तो तुम्हें गलती का एहसास होता है। यदि तुम हमेशा दूसरों को दिखाने के लिए ही काम करते हो और परमेश्वर की जाँच को स्वीकार नहीं करते, तो क्या तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है? इस तरह के लोगों के हृदय में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं होती। हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, और अपनी स्वयं की हैसियत, प्रतिष्ठा और साख पर विचार मत कर। इंसान के हितों पर गौर मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा के बारे में मननशील होना चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, क्या तूने वफादार होने के लिए अपना अधिकतम किया है, क्या अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास किया है और अपना सर्वस्व दिया है, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन चीज़ों पर बार-बार विचार कर, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा। जब तेरी क्षमता कमज़ोर होती है, तेरा अनुभव उथला होता है, या जब तू अपने पेशे में दक्ष नहीं होता है, तब सारी ताकत लगा देने के बावजूद तेरे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, और परिणाम बहुत अच्छे नहीं हो सकते हैं। जब तू कार्यों को करते हुए अपनी स्वयं की स्वार्थी इच्छाओं या अपने स्वयं के हितों के बारे में विचार नहीं करता है, और इसके बजाय हर समय परमेश्वर के घर के कार्य पर विचार करता है, परमेश्वर के घर के हितों के बारे में लगातार सोचता रहता है, और अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाता है, तब तू परमेश्वर के समक्ष अच्छे कर्मों का संचय करेगा। जो लोग ये अच्छे कर्म करते हैं, ये वे लोग हैं जिनमें सत्य-वास्तविकता होती है; इन्होंने गवाही दी है।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो' से उद्धृत

कर्तव्य के निर्वहन में पर्याप्तता लाने के लिए, सबसे पहले इसके निर्वहन में सामंजस्यपूर्ण सहयोग आवश्यक है। कुछ लोग ऐसे हैं जो वर्तमान में इस दिशा में अभ्यास कर रहे हैं, जिसका अर्थ है कि सत्य सुनकर, उन्होंने इस सिद्धांत के अनुसार काम करना शुरू कर दिया है, हालाँकि वे सत्य को पूरी तरह से, सौ प्रतिशत व्यवहार में लाने में असमर्थ हैं। इस प्रक्रिया में, वे असफल हो सकते हैं या कमज़ोर पड़ सकते हैं, भटक सकते हैं और बार-बार गलतियां कर सकते हैं, फिर भी वे जिस रास्ते पर चलते हैं, वह इस सिद्धांत के अनुसार कार्य करने में सक्षम होने के लिए एक प्रयास है। उदाहरण के लिए, यद्यपि, तुम कभी-कभी महसूस कर सकते हो कि कुछ करने का तुम्हारा तरीका सही है, यदि तुम ऐसी स्थिति में हो, जिससे जो काम तुम अब कर रहे हो, उसमें देरी नहीं होगी, तो तुम्हें इस पर चर्चा करने के लिए सहकर्मी या टोली के सदस्य भी मिल सकते हैं। तब तक सहभागिता करो, जब तक तुम इस मामले पर स्पष्ट नहीं हो जाते, जब तक तुम यह सोचकर आम सहमति तक नहीं पहुँच जाते कि इसे एक निश्चित तरीके से करने से सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त हो सकते हैं, जब तक यह सिद्धांत के दायरे से आगे नहीं बढ़ जाता, परमेश्वर के घर के फायदे के लिए न हो, परमेश्वर के घर के हितों की अधिकतम सुरक्षा न करे। हालाँकि, हो सकता है कि अंतिम परिणाम कभी-कभी इच्छानुसार न हो, लेकिन तुम्हारे काम का तरीका, दिशा और लक्ष्य सही हैं। फिर परमेश्वर इसे किस ढंग से देखेगा? वह इस मामले को कैसे परिभाषित करेगा? वह कहेगा कि तुम इस कर्तव्य को पर्याप्त रूप से पूरा कर रहे हो।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?' से उद्धृत

अपने कर्तव्य को पर्याप्त रूप से निभाने के लिए, चाहे तुमने कितने ही वर्ष परमेश्वर पर विश्वास किया हो, तुमने अपने कर्तव्य के निर्वहन में कितना ही काम किया हो और चाहे तुमने परमेश्वर के घर में कितना ही योगदान दिया हो, तुम अपने कार्य में कितने अनुभवी हो। परमेश्वर मुख्यत: यह देखता है उस व्यक्ति ने किस मार्ग का अनुसरण किया है। दूसरे शब्दों में, वह किसी भी व्यक्ति के कार्यों के पीछे सत्य, सिद्धांतों, दिशा और मूल के प्रति उसका रवैया देखता है। परमेश्वर इन बातों पर ध्यान देता है; यही बातें तुम्हारे मार्ग का निर्धारण करती हैं। तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन की प्रक्रिया में, यदि तुम्हारे अंदर ये बातें बिल्कुल न दिखायी दें और तुम्हारे कार्य के मूल में तुम्हारे अपने ही विचार हों, तुम्हारा सारा ध्यान अपने ही हितों की रक्षा करना, अपनी प्रतिष्ठा और ओहदे की रक्षा करना हो, तुम्हारी कार्य-प्रणाली निर्णय लेना, अकेले काम करना और अपनी बात को ही सर्वोपरि मानना हो, कभी दूसरों के साथ किसी चीज़ पर विचार-विमर्श करना या सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करना न हो, अकेले सत्य की तलाश करने की तो बात ही छोड़ दो, तो परमेश्वर तुम्हें कैसे देखेगा? अगर तुम अपना कर्तव्य इस ढंग से निभाते हो तो तुम अभी तक उस मानक तक नहीं पहुँचे हो; तुमने सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर कदम नहीं रखा है, क्योंकि काम करते समय, तुम सत्य-सिद्धांत की तलाश नहीं करते, हमेशा अपनी इच्छानुसार ही कार्य करते हो। यही कारण है कि ज़्यादातर लोग अपने कर्तव्यों का संतोषजनक ढंग से पालन क्यों नहीं कर पाते। अब इसे देखते हुए, क्या किसी के लिए अपने कर्तव्य को पर्याप्त रूप से पूरा करना मुश्किल होता है? वास्तव में, ऐसा नहीं है; लोगों को केवल विनम्रता का एक भाव रखने में सक्षम होना होगा, थोड़ी समझ रखनी होगी और एक उपयुक्त स्थिति अपनानी होगी। चाहे तुम अपने आप को कितना भी शिक्षित मानो, चाहे तुमने कोई भी पुरस्कार जीते हों, या तुम्हारी कितनी भी उपलब्धियाँ हों, और चाहे तुम अपनी योग्यता और दर्जे को कितना भी ऊँचा मानते हो, तुम्हें इन सभी चीज़ों को छोड़ने से शुरुआत करनी होगी, क्योंकि उनका कोई मोल नहीं है। चाहे वे चीज़ें कितनी भी महान और अच्छी हों, परमेश्वर के घर में वे सत्य से अधिक नहीं हो सकती हैं; वे चीज़ें सत्य नहीं हैं, और उसकी जगह नहीं ले सकती हैं। यही कारण है कि मैं कहता हूँ कि तुम्हारे पास समझ नाम की चीज़ होनी चाहिए। यदि तुम कहते हो, "मैं बहुत प्रतिभाशाली हूँ, मेरे पास एक बहुत तेज़ दिमाग है, मेरे पास त्वरित सजगता है, मैं शीघ्रता से सीखता हूँ, और मेरे पास एक बहुत अच्छी स्मरण-शक्ति है," और तुम हमेशा इन चीज़ों का पूंजी की तरह उपयोग करते रहते हो, तो यह परेशानी खड़ी करेगा। यदि तुम इन चीज़ों को सत्य के रूप में, या सत्य से अधिक मानते हो, तो तुम्हारे लिए सत्य को स्वीकार करना और इसे व्यवहार में लाना कठिन होगा। दम्भी, घमंडी लोगों के लिए जो हमेशा श्रेष्ठतर होने का अभिनय करते हैं, सत्य को स्वीकार करना सबसे कठिन होता है और उनके गिर पड़ने का खतरा सबसे अधिक होता है। यदि कोई अपने अहंकार के मुद्दे को हल कर सकता है, तो सत्य को व्यवहार में लाना आसान हो जाता है। इस प्रकार, तुम्हें सबसे पहले उन चीज़ों को नकारना और उनसे इनकार करना होगा जो सतह पर अच्छी और बुलंद लगती हैं और जो दूसरों की ईर्ष्या को उकसाती हैं। वे बातें सत्य नहीं हैं; बल्कि, वे तुम्हें सत्य में प्रवेश करने से रोक सकती हैं। अब सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सत्य की तलाश करो, सत्य के अनुसार अभ्यास करो और पर्याप्त रूप से अपने कर्तव्य का निर्वहन करो, क्योंकि कर्तव्य का पर्याप्त निर्वहन ही जीवन प्रवेश के मार्ग पर एकमात्र पहला कदम है, जिसका अर्थ है कि यह एक शुरुआत है। हर मामले में, एक सबसे आधारभूत, बुनियादी चीज होती है, एक ऐसी चीज होती है जो तुम्हें किसी लक्ष्य की ओर पहला कदम रखने को प्रेरित करती है, और अपने कर्तव्य को पर्याप्त रूप से निभाना एक ऐसा मार्ग है जो तुम्हें जीवन प्रवेश के द्वार से ले जाता है। यदि तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन में यह "पर्याप्तता" शामिल नहीं है, तो तुम्हें मेहनत करने की आवश्यकता है। तुम्हें कैसे मेहनत करनी चाहिए? ऐसा नहीं है कि तुम्हें चरित्र में बदलाव लाना है या अपने हुनर और पेशेवर क्षमताओं को त्यागना है; अपने कर्तव्य-निर्वहन के दौरान, सत्य की तलाश करते हुए और सत्य-सिद्धांत के अनुसार काम करते हुए, तुम इन क्षमताओं को और सीखी हुई चीज़ों को अपने साथ ले जा सकते हो। यदि तुम कर्तव्य-निर्वहनके साथ जीवन प्रवेश कर लेते हो, तो तुम पर्याप्त रूप से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकते हो।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?' से उद्धृत

तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन की प्रक्रिया में, सकारात्मक पक्ष यह है कि तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन सही ढंग से कर सकते हो, भले ही कैसी भी परिस्थिति क्यों न आए, हार मत मानो। भले ही बाकी सब लोग विश्वास करना और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना बंद कर दें, तुम तब भी हार न मानते हुए, इसका निर्वहन करना जारी रख सकते हो। अर्थात, तुम शुरू से लेकर संपन्न होने तक, अपने कर्तव्य का त्याग नहीं करोगे और अंत तक दृढ़ और समर्पित बने रहोगे; इस तरह, तुमने वास्तव में अपने कर्तव्य को कर्तव्य के रूप में ले पाओगे। यदि तुम ऐसा कर सकते हो, तो तुमने मूल रूप से अपने कर्तव्य के निर्वहन में पर्याप्तता हासिल कर ली है। यह चीज़ों का सकारात्मक पक्ष है। लेकिन, इसे प्राप्त करने से पहले, चीज़ों के नकारात्मक पक्ष को देखें तो, लोगों को सभी तरह के प्रलोभनों को रोकना होगा। यदि, अपने कर्तव्य के निर्वहन की प्रक्रिया में, कोई व्यक्ति प्रलोभननहीं रोक पाए और अपने कर्तव्य का त्याग करके उससे विमुख हो जाए, तो क्या अभी भी वह उद्धार पा सकेगा? उस व्यक्ति के लिए सारी उम्मीद खत्म हो जाएँगी, और उसके लिए पर्याप्त या अपर्याप्त होना पूरी तरह से अप्रासांगिक हो जाएगा; उसके लिए उद्धार का कोई अवसर न होगा। इसलिए, व्यक्ति को अपने कर्तव्य पर अडिग रहना चाहिए। ऐसा करने के लिए, सबसे पहले, हर किसी को जो सबसे बड़ी कठिनाई झेलनी पड़ती है, वह है कि प्रलोभनों का सामना करते समय कोई व्यक्ति दृढ़ रह सकता है या नहीं। उसके सामने किस प्रकार के प्रलोभन हैं? धन, प्रतिष्ठा, विपरीत लिंग के साथ संबंध, भावनाएं। और क्या? यदि किसी कर्तव्य–निर्वहन में थोड़ा जोखिम है, या जीवन को खतरा है और यदि कर्तव्य–निर्वहन के कारण जेल जाने की या मृत्यु हो जाने की संभावना है, तो क्या तुम तब भी कर्तव्यों का निर्वहन करोगे? तुम उनका निर्वहन कैसे करोगे? ऐसी सभी चीज़ें प्रलोभन हैं। इन प्रलोभनों को जीत पाना आसान है या नहीं? इन्हें तुमसे सत्य की खोज करने की अपेक्षा है। सत्य की तलाश करने की प्रक्रिया में, इन सभी प्रलोभनों से तुम्हारा सामना होता है, तुम्हें धीरे-धीरे विवेक का इस्तेमाल करने और ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होना चाहिए। उनके सार को पहचानो, उनके असली रंगों को समझो, अपने सार और भ्रष्ट स्वभाव को जानो; अपनी कमजोरियों को जानो; अपनी रक्षा करने और इन प्रलोभनों का सामना करने में सक्षम बनाने के लिए, बार-बार परमेश्वर से प्रार्थना करो। यदि तुम उनका सामना कर सको और चाहे तुम किसी भी स्थिति में हो, अपने कर्तव्य पर अडिग रह सको, न तो उनसे विमुख हो, न ही उनसे भागो, तो तुम उद्धार के आधे रास्ते तक पहुँच जाओगे। क्या आधे रास्ते तक पहुँचना पहुँचना आसान है? तुम्हारे हर कदम पर एक संभावित खतरा है; मार्ग खतरों से भरा है। यह आसान नहीं है! तो, क्या ऐसा कोई इंसान है जिसे यह लगे कि यह तो बहुत मुश्किल है और महसूस करे कि जीवन बहुत ही थकाऊ है, ज्ना देना ही बेहतर होगा? वे आशीष तो चाहते हैं, लेकिन कष्ट नहीं उठाना चाहते। वे किस तरह के लोग हैं? वे कमज़ोर और निकम्मे लोग हैं। जहाँ तक बात यह है कि पर्याप्त रूप से अपने कर्तव्यों का निर्वहन कैसे किया जाए, पर्याप्तता की परिभाषा क्या है, पर्याप्तता की पात्रता क्या है, परमेश्वर ने इस पर्याप्तता के मानक के लिए क्या कारण दिए हैं, और पर्याप्त रूप से अपने कर्तव्य को पूरा करने और जीवन प्रवेश के बीच क्या संबंध है, लोगों को ये बातें समझ में आ गई हैं। यदि तुम उस स्थिति तक पहुँच सको, जहां समय या स्थान की परवाह किए बिना तुम अपने कर्तव्य पर अडिग रह सको, उससे हार न मानो, सभी तरह के प्रलोभनों का सामना कर सको और फिर उन विभिन्न सत्यों को समझ सको, उनका ज्ञान प्राप्त कर सको, जिनकी अपेक्षा परमेश्वर उन तमाम स्थितियों में करता है और जिनकी रचना वह तुम्हारे लिए करता है, तब परमेश्वर की नज़र में, तुमने मूलत: पर्याप्तता हासिल कर ली है। तुम्हारे कर्तव्य के निर्वहन में पर्याप्तता प्राप्त करने के लिए तीन मूलभूत तत्व हैं: एक तो यह कि तुम अपने कर्तव्य को किस ढंग से लेते हो, दूसरा यह कि इसे पूरा करने की प्रक्रिया में तुम सभी तरह के प्रलोभनों का सामना कैसे करते हो और अन्य है अपने कर्तव्य के निर्वहन में, प्रत्येक सत्य को समझने में सक्षम होना।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?' से उद्धृत

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