आप लोग इस तथ्य के गवाह हैं कि प्रभु यीशु लौट आये हैं और उन्होंने अपना कार्य करने के लिए देहधारण किया है। यह बात मैं समझ नहीं पाया। हम सब जानते हैं कि प्रभु यीशु परमेश्वर का देहधारण थे। अपना कार्य पूरा करने के बाद, उन्हें सूली पर लटका दिया गया और तब वे फिर से जीवित हो उठे और अपने सभी शिष्यों के समक्ष प्रकट हुए और वे अपने तेजस्वी आध्यात्मिक शरीर के साथ स्वर्ग में पहुँच गए। जैसा कि बाइबल में कहा गया है: "हे गलीली पुरुषो, तुम क्यों खड़े आकाश की ओर देख रहे हो? यही यीशु, जो तुम्हारे पास से स्वर्ग पर उठा लिया गया है, जिस रीति से तुम ने उसे स्वर्ग को जाते देखा है उसी रीति से वह फिर आएगा" (प्रेरितों 1:11)। इस प्रकार, बाइबल-संबंधी शास्त्र इस बात की पुष्टि करते हैं कि जब प्रभु फिर से आएंगे, तो उनका पुनर्जीवित आध्यात्मिक शरीर हमारे सामने दिखाई देगा। अंत के दिनों में, परमेश्वर ने न्याय का कार्य करने के लिए मनुष्य के पुत्र के रूप में देहधारण क्यों किया है? प्रभु यीशु के पुनर्जीवित आध्यात्मिक शरीर और मनुष्य के पुत्र के रूप में उनके देहधारण के बीच क्या अंतर है?
उत्तर: ज्यादातर विश्वासी यह मानते हैं कि वापस लौटे प्रभु अपने आध्यात्मिक शरीर में उनके सामने प्रकट होंगे, यानी प्रभु यीशु का आध्यात्मिक शरीर जिसमें वे अपने पुनर्जीवन के बाद चालीस दिनों तक मनुष्य के सामने रहे थे। हम विश्वासियों को यह बात बिलकुल स्पष्ट है। बाहरी तौर पर, प्रभु यीशु के पुनर्जीवन के बाद उनका आध्यात्मिक शरीर उनके देहधारी शरीर की छवि में दिखाई देता है, लेकिन आध्यात्मिक शरीर भौतिक विश्व, अंतरिक्ष और स्थान के द्वारा सीमित नहीं है। वह अपनी इच्छा से प्रकट और गायब होकर मनुष्य को चकित और हैरान कर सकता है। इसके उदाहरण बाइबल में दर्ज हैं। प्रभु यीशु को सूली पर लटकाए जाने से पहले, वे सामान्य मनुष्य के शरीर में वचन बोल रहे थे और कार्य कर रहे थे। चाहे वे सत्य व्यक्त करते, लोगों के साथ बातचीत करते या चमत्कार दिखाते, लोगों को लगता था कि वे हर तरह से सामान्य हैं। लोगों ने इस शरीर को सचमुच और सही मायनों में कार्य करते हुए तथा वाकई और सही अर्थों में कष्ट सहन करते और कीमत चुकाते देखा। अंत में, इसी शरीर को मनुष्य के पापों के लिए सूली पर टांग दिया गया, इससे परमेश्वर का छुटकारे का कार्य पूरा हुआ। यह काफी जाना-माना तथ्य है। ज़रा एक पल विचार कीजिए: अगर प्रभु यीशु का आध्यात्मिक शरीर कार्य कर रहा होता, तो क्या वह लोगों से जुड़ पाता और क्या वह लोगों के साथ सामान्य बातचीत कर पाता? क्या वे सचमुच और सही मायनों में कष्ट सहन कर पाते और कीमत चुका पाते? क्या उन्हें सूली पर लटकाया जा सकता था? वे इनमें से कुछ भी नहीं कर सकते थे। अगर उनका आध्यात्मिक शरीर कार्य कर रहा होता, तो क्या हम मनुष्य उनके साथ आसानी से बात कर पाते? क्या हम हमारे भ्रष्ट स्वभावों को प्रकट करते? क्या हम उनके बारे में अवधारणाएं बनाते? क्या हम परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध विद्रोह करने और परखने की हिम्मत कर पाते? ऐसा होना असंभव था! सारे मनुष्यों में सामान्य मानवता व्याप्त है, वे सभी भौतिक संसार, अंतरिक्ष और स्थान की बाधाओं के अधीन हैं। मनुष्यों के सोचने की प्रक्रिया भी सामान्य है। अगर वे आध्यात्मिक शरीर के कार्य के संपर्क में आयें, तो वे भयभीत होकर घबराहट से भर जायेंगे। उनके विचार उन्मादी और पागलपन से भर जायेंगे। इस प्रकार की स्थिति का सामना होने पर, परमेश्वर मनुष्य के उद्धार के अपने कार्य में सफलता प्राप्त करने के काफी दबाव में आ जायेंगे। इसलिए, सामान्य मानवता की सीमाओं के भीतर कार्य करते हुए प्राप्त किया गया प्रभाव आध्यात्मिक शरीर में किए गए कार्य को काफी पीछे छोड़ देता है। सभी युगों में, परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने कभी परमेश्वर के आध्यात्मिक शरीर के कार्य को अनुभव नहीं किया है। आध्यात्मिक शरीर के लिए सीधे-सीधे सत्य को व्यक्त करना, लोगों के साथ बातचीत करना और कलीसियाओं की अगुवाई करना निश्चित रूप से अनुपयुक्त होगा। परमेश्वर के दूसरे आगमन के जरिए अंत के दिनों में किए जा रहे न्याय के कार्य में मनुष्य के शुद्धिकरण, बचाव और उसे पूर्ण करने की अभिव्यक्तियों का प्रयोग होता है, इसका लक्ष्य भी मनुष्य को उजागर करना और निकालना, हर मनुष्य को व्याख्या करके श्रेणीबद्ध करना और फिर अच्छे लोगों को इनाम देकर दुष्टों को दंडित करना है। अगर परमेश्वर अपने आध्यात्मिक शरीर के रूप में लोगों के सामने प्रकट होते हैं, तो अच्छे या बुरे, सभी मनुष्य अपने आप उनके समक्ष दंडवत करने लगेंगे, ऐसे में वे अच्छे लोगों को बुरे लोगों से कैसे अलग कर पायेंगे? इसके अलावा, अगर परमेश्वर अपने आध्यात्मिक शरीर में प्रकट होते, तो मनुष्य घबराहट से भर जाता, और पूरी दुनिया में उथल-पुथल पैदा हो जाती। अगर ऐसा मामला होता, तो परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय का अपना कार्य सामान्य रूप से कैसे पूरा कर पाते? इसके अलावा, परमेश्वर ऐसे लोगों का एक समूह बनाने की अपनी योजना पूरी करने में कैसे सक्षम होते, जो आपदाओं से पहले परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप काम करेंगे? अंत के दिनों में, परमेश्वर को अभी भी सामान्य मानवता वाले मनुष्य के पुत्र के रूप में देहधारण करना होगा। केवल इसी तरीके से वे काम कर सकते हैं और मानव संसार के भीतर रह सकते हैं, और इसी तरीके से वे सत्य को व्यक्त कर सकते हैं, और एक व्यावहारिक तरीके से मनुष्य का न्याय और शुद्धिकरण कर सकते हैं ताकि मनुष्य को शैतान के प्रभावों से छिना जा सके, परमेश्वर द्वारा बचाया जा सके और वे परमेश्वर के लोग बन सकें। देहधारी प्रभु यीशु ने मानवता के छुटकारे का लक्ष्य हासिल करने के लिए सामान्य मानवता के दायरे में काम किया। प्रभु यीशु का पुनर्जीवित आध्यात्मिक शरीर सिर्फ यह साबित करने के लिए लोगों के सामने प्रकट हुआ कि प्रभु यीशु परमेश्वर का देहधारण थे। ऐसा मनुष्य के विश्वास को मजबूत करने के लिए किया गया था। इसलिए, परमेश्वर का अध्यात्मिक शरीर सिर्फ लोगों के बीच प्रकट होने के लिए आया था, कार्य करने के लिए नहीं। देहधारी परमेश्वर के शरीर में सामान्य मानवता होनी चाहिए ताकि वह लोगों के बीच कार्य कर सके और मानवजाति के छुटकारे तथा उद्धार के लक्ष्य को हासिल कर सके। इसलिए, अगर परमेश्वर अंत के दिनों में अपना न्याय का कार्य करने में मानवजाति को पूरी तरह से बचाना चाहते हैं, तो उनको सबसे अच्छा प्रभाव हासिल करने के लिए देहधारण कर सामान्य मानवता में अपना कार्य करना होगा। वे निश्चित रूप से अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने के लिए प्रभु यीशु के आध्यात्मिक शरीर के रूप में मनुष्य के सामने प्रकट नहीं होंगे। यह कुछ ऐसी बात है जिसके बारे में हम सभी विश्वासियों को स्पष्ट होना चाहिए।
देहधारण के अर्थ को और भी गहराई से समझने के लिए, आइये हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "उसके द्वारा धारित देह के द्वारा लाया गया कार्य ही उसका अधिकार है। उसके देह धारण करने का कारण यह है कि देह के पास भी अधिकार हो सकता है, और वह एक व्यावहारिक तरीके से मनुष्यों के बीच इस प्रकार कार्य करने में सक्षम है, जो मनुष्यों के लिए दृष्टिगोचर और मूर्त है। यह कार्य परमेश्वर के आत्मा द्वारा सीधे तौर पर किए जाने वाले कार्य से कहीं अधिक वास्तविक है, जिसमें समस्त अधिकार है, और इसके परिणाम भी स्पष्ट हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर द्वारा धारित देह एक व्यावहारिक तरीके से बोल और कार्य कर सकता है। उसके देह का बाहरी रूप कोई अधिकार नहीं रखता, और मनुष्य के द्वारा उस तक पहुँचा जा सकता है, जबकि उसका सार अधिकार वहन करता है, किंतु उसका अधिकार किसी के लिए भी दृष्टिगोचर नहीं है। जब वह बोलता और कार्य करता है, तो मनुष्य उसके अधिकार के अस्तित्व का पता लगाने में असमर्थ होता है; इससे उसे एक व्यावहारिक प्रकृति का कार्य करने में आसानी होती है। ... यदि परमेश्वर देह न बना होता, तो वह पवित्रात्मा बना रहता जो मनुष्यों के लिए अदृश्य और अमूर्त दोनों है। चूँकि मनुष्य देह वाला प्राणी है, इसलिए वह और परमेश्वर दो अलग-अलग दुनिया के हैं और अलग-अलग प्रकृति के हैं। परमेश्वर का आत्मा देह वाले मनुष्य से बेमेल है, और उनके बीच संबंध स्थापित किए जाने का कोई उपाय ही नहीं है, और इसका तो जिक्र ही क्या करना कि मनुष्य आत्मा नहीं बन सकता। ऐसा होने के कारण, अपना मूल काम करने के लिए परमेश्वर के आत्मा को एक सृजित प्राणी बनना आवश्यक है। परमेश्वर दोनों काम कर सकता है, वह सबसे ऊँचे स्थान पर भी चढ़ सकता है और मनुष्यों के बीच कार्य करने और उनके बीच रहने के लिए अपने आपको विनम्र भी कर सकता है, किंतु मनुष्य सबसे ऊँचे स्थान पर नहीं चढ़ सकता और पवित्रात्मा नहीं बन सकता, और वह निम्नतम स्थान में तो बिलकुल भी नहीं उतर सकता। इसीलिए अपना कार्य करने हेतु परमेश्वर का देह बनना आवश्यक है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))।
"देहधारी परमेश्वर सामान्य और व्यवहारिक है। उसके विषय में कुछ बातें मनुष्य की सोच से भिन्न हैं; वे सोचते हैं कि ये बातें अदृश्य, अस्पर्शनीय, रहस्यमयी हैं, और वह आकाश और भूगोल के द्वारा सीमित हुए बिना सब कुछ जानने के योग्य है। यदि ऐसा है, तो यह देह नहीं, अपितु आत्मिक शरीर है। यीशु के क्रूस पर चढ़ने के और फिर पुनर्जीवित होने के पश्चात, वह दरवाज़े में से पार जा सका, परन्तु वह पुनर्जीवित यीशु था। पुनरुत्थान से पहले यीशु दीवार के पार नहीं जा सकता था। वह आकाश, भूगोल और समय के द्वारा बंधा था। यही देह का सामान्य पहलू है" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्वर की देह और आत्मा के एकत्व को कैसे समझें')।
"क्योंकि जिसका न्याय किया जाता है वह मनुष्य है, मनुष्य जो कि हाड़-माँस का है और भ्रष्ट किया जा चुका है, और यह शैतान की आत्मा नहीं है जिसका सीधे तौर पर न्याय किया जाता है, इसलिए न्याय का कार्य आध्यात्मिक संसार में कार्यान्वित नहीं किया जाता, बल्कि मनुष्यों के बीच किया जाता है। मनुष्य की देह की भ्रष्टता का न्याय करने के लिए देह में प्रकट परमेश्वर से अधिक उपयुक्त और कोई योग्य नहीं है। यदि न्याय सीधे तौर पर परमेश्वर के आत्मा के द्वारा किया जाए, तो यह सर्वव्यापी नहीं होता। इसके अतिरिक्त, ऐसे कार्य को स्वीकार करना मनुष्य के लिए कठिन होता है, क्योंकि पवित्रात्मा मनुष्य के रूबरू आने में असमर्थ है, और इस वजह से, प्रभाव तत्काल नहीं होते, और मनुष्य परमेश्वर के अपमान न किए जाने योग्य स्वभाव को साफ-साफ देखने में बिलकुल भी सक्षम नहीं होता। यदि देह में प्रकट परमेश्वर मनुष्यजाति की भ्रष्टता का न्याय करे तभी शैतान को पूरी तरह से हराया जा सकता है। ... यदि इस कार्य को परमेश्वर के आत्मा द्वारा किया जाता, तो इसका अर्थ शैतान पर विजय नहीं होता। पवित्रात्मा अंतर्निहित रूप से ही नश्वर प्राणियों की तुलना में अधिक उत्कृष्ट है, और परमेश्वर का आत्मा अंतर्निहित रूप से पवित्र है, और देह पर विजय प्राप्त किए हुए है। यदि पवित्रात्मा ने इस कार्य को सीधे तौर पर किया होता, तो वह मनुष्य की समस्त अवज्ञा का न्याय नहीं कर पाता, और उसकी सारी अधार्मिकता को प्रकट नहीं कर पाता। क्योंकि न्याय के कार्य को परमेश्वर के बारे में मनुष्य की धारणाओं के माध्यम से भी कार्यान्वित किया जाता है, और मनुष्य के अंदर कभी भी पवित्रात्मा के बारे में कोई धारणाएँ नहीं रही हैं, इसलिए पवित्रात्मा मनुष्य की अधार्मिकता को बेहतर तरीके से प्रकट करने में असमर्थ है, वह ऐसी अधार्मिकता को पूरी तरह से उजागर करने में तो बिल्कुल भी समर्थ नहीं है। देहधारी परमेश्वर उन सब लोगों का शत्रु है जो उसे नहीं जानते। अपने प्रति मनुष्य की धारणाओं और विरोध का न्याय करके, वह मनुष्यजाति की सारी अवज्ञा का खुलासा करता है। देह में उसके कार्य के प्रभाव पवित्रात्मा के कार्य की तुलना में अधिक स्पष्ट होते हैं। इसलिए, संपूर्ण मनुष्यजाति के न्याय को पवित्रात्मा के द्वारा सीधे तौर पर सम्पन्न नहीं किया जाता, बल्कि यह देहधारी परमेश्वर का कार्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है)।
"केवल देह बनकर ही परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से अपने वचनों को हर मनुष्य के कानों तक पहुँचा सकता है, ताकि वे सभी, जिनके पास कान हैं, उसके वचनों को सुन सकें और वचन के द्वारा उसके न्याय के कार्य को प्राप्त कर सकें। मनुष्य को समर्पण हेतु डराने के लिए पवित्रात्मा के प्रकटन के बजाय यह केवल उसके वचन के द्वारा प्राप्त किया गया परिणाम है। केवल इस व्यावहारिक और असाधारण कार्य के माध्यम से ही मनुष्य के पुराने स्वभाव को, जो अनेक वर्षों से उसके भीतर गहराई में छिपा हुआ है, पूरी तरह से उजागर किया जा सकता है, ताकि मनुष्य उसे पहचान सके और बदलवा सके। ये सब चीज़ें देहधारी परमेश्वर का व्यावहारिक कार्य हैं, जिसमें वह एक व्यावहारिक तरीके से बोलकर और न्याय करके वचन के द्वारा मनुष्य पर न्याय के परिणाम प्राप्त करता है। यह देहधारी परमेश्वर का अधिकार है और परमेश्वर के देहधारण का महत्व है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन आध्यात्मिक शरीर में परमेश्वर के कार्य और देहधारी परमेश्वर के कार्य के बीच अंतर को स्पष्ट रूप से बताते हैं। ये परमेश्वर के देहधारण में उनके कार्य के अर्थ को भी पूरी तरह से स्पष्ट करते हैं। इस तथ्य के बावजूद कि प्रभु यीशु का आध्यात्मिक शरीर मनुष्य के सामने प्रकट हो सकता है और उनके आमने-सामने आ सकता है, आध्यात्मिक शरीर के रहस्यों की थाह लेना और उन तक पहुँच पाना मनुष्य के लिए फिर भी मुश्किल प्रतीत होता है, वह लोगों के दिलों में भय और शंका पैदा करता है तथा उनको एक सम्मानजनक दूरी बनाए रखने को बाध्य करता है। क्योंकि प्रभु यीशु का आध्यात्मिक शरीर सामान्य तरीके से लोगों के साथ बातचीत नहीं कर सकता है और लोगों के बीच सामान्य तरीके से कार्य नहीं कर सकता है बोल नहीं सकता है, इसलिए वह मानवजाति को बचा पाने में असमर्थ है। परन्तु, देहधारी परमेश्वर अलग हैं। वे एक व्यावहारिक और वास्तविक तरीके से लोगों के साथ बातचीत कर सकते हैं। वे मनुष्य को सींचने और आपूर्ति करने का काम कर सकते हैं, ठीक प्रभु यीशु की तरह वे लोगों के साथ रहकर सत्य को व्यक्त करने में सक्षम थे, जिससे कि किसी भी समय और कहीं भी मनुष्य को आपूर्ति की जा सके। उनके शिष्य अक्सर उनके साथ बैठा करते थे, उनके उपदेशों को सुनते थे और उनके साथ दिल की बातें किया करते थे। उनको सीधे तौर पर उनकी सिंचाई और देखरेख का लाभ मिला। उनके सामने जो भी समस्याएं या परेशानियां आती थी, प्रभु यीशु उनका समाधान करने में मदद करते थे। वे काफी मात्रा में जीवन की आपूर्ति से संपन्न थे। उन्होंने परमेश्वर को स्नेही और प्रिय पाया। इसी कारण से, वे सही मायनों में परमेश्वर को प्रेम करने और उनका आज्ञापालन करने में सक्षम थे। देहधारी परमेश्वर के मनुष्य के क्षेत्र में आने के बाद ही हमें परमेश्वर के साथ बातचीत करने, उन्हें अनुभव करने और उनको जानने का अवसर मिलता है। तभी हम अपनी आँखों से परमेश्वर की अद्भुतता और बुद्धिमत्ता तथा मानवजाति के व्यावहारिक उद्धार को देख पायेंगे। यह देहधारी परमेश्वर के कार्य के महत्व और व्यवहारिक मूल्य का एक पहलू है। आध्यात्मिक शरीर इस प्रभाव को ऐसे ही हासिल नहीं कर सकता।
इस सहभागिता ने एक तथ्य के बारे में हमें स्पष्ट रूप से समझा दिया है। सिर्फ़ मनुष्य के पुत्र के रूप में देह धारण करके और सामान्य मानवता के अंदर कार्य करते हुए ही परमेश्वर व्यवहारिक तौर पर मनुष्य का न्याय करने, उसे जीतने और शुद्ध करने का कार्य कर सकते हैं। प्रभु यीशु का आध्यात्मिक शरीर अपने कार्य में लगभग यही प्रभाव हासिल नहीं कर सका। सबसे पहले, जब परमेश्वर लोगों के बीच रहकर न्याय और शुद्धिकरण का कार्य करने के लिए मनुष्य के पुत्र के रूप में देहधारी होते हैं, तो हम मनुष्य परमेश्वर को एक साधारण मनुष्य की तरह समझेंगे क्योंकि हम अभी भी परमेश्वर के देह धारण और उसके पीछे की उनकी वास्तविक सच्चाई को समझ नहीं पाते। यहाँ तक कि हम परमेश्वर के वचन और कार्य के संबंध में धारणाएं बनाएंगे, मसीह का अनादर करेंगे और उनकी आज्ञापालन करने से इनकार कर देंगे। हम उनको मूर्ख बनाने के लिए झूठ बोलेंगे, उनको परखेंगे और यहाँ तक कि उनका विरोध और निंदा भी करेंगे। हम मनुष्यों का अहंकार, विद्रोहीपन और प्रतिरोध मसीह के सामने पूरी तरह से स्पष्ट होगा। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "जब मनुष्य मसीह को देखता है तो मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव, उसका विद्रोह और प्रतिरोध उजागर हो जाता है। किसी अन्य अवसर की तुलना में इस अवसर पर उसका विद्रोही स्वभाव और प्रतिरोध कहीं ज्यादा पूर्ण और निश्चित रूप से उजागर होता है। मसीह मनुष्य का पुत्र है—मनुष्य का ऐसा पुत्र जिसमें सामान्य मानवता है—इसलिए मनुष्य न तो उसका सम्मान करता है और न ही उसका आदर करता है। चूँकि परमेश्वर देह में रहता है, इसलिए मनुष्य का विद्रोह पूरी तरह से और स्पष्ट विवरण के साथ प्रकाश में आ जाता है। अतः मैं कहता हूँ कि मसीह के आगमन ने मानवजाति के सारे विद्रोह को खोद निकाला है और मानवजाति के स्वभाव को बहुत ही स्पष्ट रूप से प्रकाश में ला दिया है। इसे कहते हैं 'लालच देकर एक बाघ को पहाड़ के नीचे ले आना' और 'लालच देकर एक भेड़िए को उसकी गुफा से बाहर ले आना।'" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। परमेश्वर मानवजाति के विद्रोह और प्रतिरोध की तथ्यात्मक वास्तविकता के अनुसार उसे उजागर कर उसका न्याय और काट-छांट करते हुए उसका निपटारा करते हैं। परमेश्वर का कार्य सही मायनों में व्यावहारिक है और वे मनुष्य की सच्चाई प्रकट करते हैं। इस तरह के तथ्यात्मक साक्ष्य के सामने, जो लोग सत्य को स्वीकार कर पाते हैं, वे पूरी तरह से मान जाएंगे और अपने खुद के विद्रोह और प्रतिरोध को स्वीकार कर लेंगे। वे परमेश्वर के पवित्र, धार्मिक और अहानिकर स्वभाव से भी परिचित होंगे और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को समर्पित रूप से स्वीकार करने में सक्षम होंगे, ताकि परमेश्वर के व्यावहारिक कार्य के द्वारा उनको जीता और बचाया जा सके। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "देहधारी परमेश्वर उन सब लोगों का शत्रु है जो उसे नहीं जानते। अपने प्रति मनुष्य की धारणाओं और विरोध का न्याय करके, वह मनुष्यजाति की सारी अवज्ञा का खुलासा करता है। देह में उसके कार्य के प्रभाव पवित्रात्मा के कार्य की तुलना में अधिक स्पष्ट होते हैं। इसलिए, संपूर्ण मनुष्यजाति के न्याय को पवित्रात्मा के द्वारा सीधे तौर पर सम्पन्न नहीं किया जाता, बल्कि यह देहधारी परमेश्वर का कार्य है। देहधारी परमेश्वर को मनुष्य देख और छू सकता है, और देहधारी परमेश्वर मनुष्य पर पूरी तरह से विजय पा सकता है। देहधारी परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते में, मनुष्य विरोध से आज्ञाकारिता की ओर, उत्पीड़न से स्वीकृति की ओर, धारणा से ज्ञान की ओर, और तिरस्कार से प्रेम की ओर प्रगति करता है—ये हैं देहधारी परमेश्वर के कार्य के प्रभाव। मनुष्य को परमेश्वर के न्याय की स्वीकृति से ही बचाया जाता है, वह परमेश्वर के बोले गए वचनों से ही धीरे-धीरे उसे जानने लगता है, परमेश्वर के प्रति उसके विरोध के दौरान परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर विजय पायी जाती है, और परमेश्वर की ताड़ना की स्वीकृति के दौरान वह उससे जीवन की आपूर्ति प्राप्त करता है। यह समस्त कार्य देहधारी परमेश्वर के कार्य हैं, यह पवित्रात्मा के रूप में परमेश्वर के कार्य नहीं हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है)। इस प्रकार, मनुष्य को सिर्फ़ तभी पूरी तरह से शुद्ध किया और बचाया जाएगा जब देहधारी परमेश्वर स्वयं अंत के दिनों में न्याय का कार्य करेंगे।
"भक्ति का भेद—भाग 2" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?