तुम यह प्रमाण देते हो कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर देहधारी परमेश्वर है, जो अभी अंतिम दिनों में अपने न्याय के कार्य को कर रहा है। लेकिन धार्मिक पादरियों और प्राचीन लोगों का कहना है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य वास्तव में मनुष्य का काम है, और बहुत से लोग जो प्रभु यीशु पर विश्वास नहीं करते, वे कहते हैं कि ईसाई धर्म एक मनुष्य में विश्वास है। हम अभी भी यह नहीं समझ पाए हैं कि परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के काम के बीच में क्या अंतर है, इसलिए कृपया हमारे लिए यह सहभागिता करो।
उत्तर: परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य निश्चित रूप से अलग हैं। अगर हम सावधानी से जाँच करें तो हम लोग इसे देख पाएँगे। मिसाल के तौर पर, अगर हम प्रभु यीशु के कथनों और कार्य को देखें और फिर प्रेरितों के कथनों और कार्य पर नज़र डालें, तो हम कह सकते हैं कि अंतर एकदम स्पष्ट है। प्रभु यीशु द्वारा कहा गया हर वचन सत्य है और उसमें अधिकार है, और बहुत से रहस्यों को प्रकट कर सकता है। ये सभी ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें मनुष्यजाति कभी नहीं कर सकती है। यही वजह है कि बहुत से लोग हैं जो प्रभु यीशु का अनुसरण करते हैं। हालाँकि, प्रेरित सिर्फ सुसमाचार को प्रसारित सकते हैं, परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं और कलीसिया को आपूर्ति कर सकते हैं। परिणाम सभी बहुत सीमित होते हैं। परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य के बीच अंतर एकदम साफ है। फिर लोग इसकी सच्ची प्रकृति का पता क्यों नहीं लगा पाते हैं? क्या कारण है? ऐसा इसलिए है क्योंकि भ्रष्ट मनुष्यजाति परमेश्वर को नहीं जानती है और उसमें किसी तरह का कोई सत्य नहीं है। इसलिए, हममें इसका परिणाम यह होता है कि हम परमेश्वर के कार्य और इंसान के कार्य के बीच अंतर नहीं कर पाते हैं, और इससे देहधारी परमेश्वर के कार्य को आसानी से इंसान के कार्य, और हमारे पसंदीदा व्यक्ति के कार्य को और दुष्ट आत्माओं के कार्य को, झूठे मसीहों और झूठे नबियों के कार्य को स्वीकार और अनुसरण करने लायक परमेश्वर का कार्य मान लेना आसान बन जाता है। ये सच्चे मार्ग से डिगना और परमेश्वर का विरोध करना है, और इसे मनुष्य को अत्यधिक स्नेह करना, शैतान का अनुसरण और शैतान की आराधना करना माना जाता है। यह परमेश्वर के स्वभाव के खिलाफ एक गंभीर अपराध है और परमेश्वर द्वारा शापित किया जाएगा। इस तरह के लोग बचाए जाए का मौका गँवा देंगे। यही कारण है कि यह प्रश्न हमारे सच्चे मार्ग की जाँच करने और अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को जानने के लिये बहुत महत्वपूर्ण है। बाहर से देखने पर, देहधारी परमेश्वर का कार्य और परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने वाले लोगों का कार्य, दोनों ही ऐसे लगते हैं जैसे कि इंसान ही कार्य कर रहा हो और बोल रहा हो। लेकिन उनके सार और उनके कार्य की प्रकृति में ज़मीन-आसमान का अंतर है। आज सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने आकर सारे सत्य और रहस्य प्रकट कर दिए हैं और परमेश्वर के कार्य और इंसान के कार्य में अंतर को प्रकट कर दिया है। अब जाकर हमें परमेश्वर के कार्य और इंसान के कार्य का ज्ञान हुआ है और उसको समझ पाए हैं। आइए सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों पर नज़र डालें।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "स्वयं परमेश्वर के कार्य में संपूर्ण मनुष्यजाति का कार्य समाविष्ट है, और यह संपूर्ण युग के कार्य का भी प्रतिनिधित्व करता है, कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर का अपना कार्य पवित्र आत्मा के सभी कार्य की गतिक और रुझान का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि प्रेरितों का कार्य परमेश्वर के अपने कार्य के बाद आता है और वहाँ से उसका अनुसरण करता है, वह न तो युग की अगुवाई करता है, न ही वह पूरे युग में पवित्र आत्मा के कार्य के रुझान का प्रतिनिधित्व करता है। वे केवल वही कार्य करते हैं जो मनुष्य को करना चाहिए, जिसका प्रबंधन कार्य से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर का अपना कार्य प्रबंधन कार्य के भीतर ही एक परियोजना है। मनुष्य का कार्य केवल वही कर्तव्य है जिसका निर्वहन प्रयुक्त लोग करते हैं, और उसका प्रबंधन कार्य से कोई संबंध नहीं है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य)।
"देहधारी परमेश्वर का कार्य एक नये विशेष युग का आरम्भ करता है, और उसके कार्य को जारी रखने वाले वे लोग हैं जिनका उपयोग परमेश्वर करता है। मनुष्य के द्वारा किया गया समस्त कार्य देहधारी परमेश्वर की सेवकाई के भीतर होता है, वह इस दायरे के परे नहीं जा सकता। यदि देहधारी परमेश्वर अपना कार्य करने के लिए न आता, तो मनुष्य पुराने युग को समाप्त कर, नए युग की शुरुआत नहीं कर पाता। मनुष्य द्वारा किया गया कार्य मात्र उसके कर्तव्य के दायरे के भीतर होता है जो मानवीय रूप से करना संभव है, वह परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता। केवल देहधारी परमेश्वर ही आकर उस कार्य को पूरा कर सकता है जो उसे करना चाहिए, उसके अलावा, इस कार्य को उसकी ओर से और कोई नहीं कर सकता। निस्संदेह, मैं देहधारण के कार्य के सम्बन्ध के बारे में बात कर रहा हूँ" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है)।
"जो देहधारी परमेश्वर है, उसके पास परमेश्वर का सार होगा और जो देहधारी परमेश्वर है, उसके पास परमेश्वर की अभिव्यक्ति होगी। चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया है, इसलिए वह उस कार्य को सामने लाएगा, जो वह करना चाहता है, और चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया है, इसलिए वह उसे अभिव्यक्त करेगा जो वह है और वह मनुष्य के लिए सत्य को लाने, उसे जीवन प्रदान करने और उसे मार्ग दिखाने में सक्षम होगा। जिस देह में परमेश्वर का सार नहीं है, वह निश्चित रूप से देहधारी परमेश्वर नहीं है; इसमें कोई संदेह नहीं। ...
"... देहधारी परमेश्वर के वचन एक नया युग आरंभ करते हैं, समस्त मानवजाति का मार्गदर्शन करते हैं, रहस्य प्रकट करते हैं, और मनुष्य को वह दिशा दिखाते हैं, जो उसे नए युग में ग्रहण करनी है। मनुष्य द्वारा प्राप्त की गई प्रबुद्धता अभ्यास या ज्ञान के लिए सरल निर्देश मात्र हैं। वह एक नए युग में समस्त मानवजाति को मार्गदर्शन नहीं दे सकती या स्वयं परमेश्वर के रहस्य प्रकट नहीं कर सकती। अंतत: परमेश्वर, परमेश्वर है और मनुष्य, मनुष्य। परमेश्वर में परमेश्वर का सार है और मनुष्य में मनुष्य का सार" ("वचन देह में प्रकट होता है" की 'प्रस्तावना')।
"देहधारी परमेश्वर सारभूत रूप से परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए लोगों से भिन्न है। देहधारी परमेश्वर दिव्यता का कार्य करने में समर्थ है, जबकि परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए लोग इसमें समर्थ नहीं हैं। प्रत्येक युग के आरंभ में, परमेश्वर का आत्मा मनुष्य को एक नए आरंभ में ले जाने के लिए व्यक्तिगत रूप से बोलता है और एक नए युग का सूत्रपात करता है। जब परमेश्वर बोलना समाप्त कर देता है, तो इसका अर्थ होता है कि दिव्यता के भीतर उसका कार्य पूरा हो गया है। तत्पश्चात, सभी लोग अपने जीवन अनुभव में प्रवेश करने के लिए परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए लोगों की अगुआई का अनुसरण करते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर और परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने वाले लोगों के बीच अनिवार्य अंतर)।
"परमेश्वर वही सब प्रकट करता है जो वह स्वयं है, और यह मनुष्य की पहुँच से परे है, अर्थात्, मनुष्य की सोच से परे है। वह संपूर्ण मानवजाति की अगुवाई करने के अपने कार्य को व्यक्त करता है, इसका मानवीय अनुभव के विवरणों से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि यह उसके अपने प्रबंधन से संबंधित है। मनुष्य जो व्यक्त करता है वह उसका अपना अनुभव है, जबकि परमेश्वर अपने स्वरूप को व्यक्त करता है, जो कि उसका अंतर्निहित स्वभाव है और मनुष्य की पहुँच से परे है। मनुष्य का अनुभव उसकी अंतर्दृष्टि और वह ज्ञान है जो उसने परमेश्वर द्वारा अपने स्वरूप की अभिव्यक्ति के आधार पर प्राप्त किया है। ऐसी अंतर्दृष्टि और ज्ञान मनुष्य का स्वरूप कहलाता है, और उनकी अभिव्यक्ति का आधार मनुष्य का अंतर्निहित स्वभाव और उसकी क्षमता होते हैं—इसलिए इन्हें मनुष्य का अस्तित्व भी कहा जाता है। ... देहधारी परमेश्वर द्वारा कहे गए वचन पवित्रात्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति हैं और वे उस कार्य को अभिव्यक्त करते हैं जो पवित्रात्मा द्वारा किया गया है, जिसे देह ने अनुभव नहीं किया है या देखा नहीं है, लेकिन फिर भी अपने अस्तित्व को व्यक्त करता है, क्योंकि देह का सार पवित्रात्मा है, और वह पवित्रात्मा के कार्य को व्यक्त करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य)।
"जिस कार्य को परमेश्वर करता है वह उसके देह के अनुभव का प्रतिनिधित्व नहीं करता; जिस कार्य को मनुष्य करता है वह मनुष्य के अनुभव का प्रतिनिधित्व करता है। हर कोई अपने व्यक्तिगत अनुभव की बात करता है। परमेश्वर सीधे तौर पर सत्य व्यक्त कर सकता है, जबकि मनुष्य केवल सत्य का अनुभव करने के पश्चात् तदनुरूप अनुभव को व्यक्त कर सकता है। परमेश्वर के कार्य में कोई नियम नहीं होते और वह समय या भौगोलिक सीमाओं से मुक्त है। वह जो है उसे वह किसी भी समय, कहीं पर भी प्रकट कर सकता है। उसे जैसा अच्छा लगता है वह वैसा ही करता है। मनुष्य के कार्य में परिस्थितियाँ और सन्दर्भ होते हैं; उनके बिना, वह कार्य करने में असमर्थ होता है और वह परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान को व्यक्त करने या सत्य के बारे में अपने अनुभव को व्यक्त करने में भी असमर्थ होता है। यह बताने के लिए कि यह परमेश्वर का कार्य है या मनुष्य का, तुम्हें बस उनके बीच अन्तर की तुलना करनी है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य)।
"यदि मनुष्य को यह कार्य करना पड़ता, तो यह बहुत ही सीमित होता : यह मनुष्य को एक निश्चित बिंदु तक ले जा सकता था, किंतु यह मनुष्य को शाश्वत मंज़िल पर ले जाने में सक्षम न होता। मनुष्य की नियति निर्धारित करने में मनुष्य सक्षम नहीं है, इसके अलावा, वह मनुष्य की भविष्य की संभावनाओं और भविष्य की मंज़िल सुनिश्चित करने में भी सक्षम नहीं है। किंतु परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला कार्य भिन्न है। चूँकि उसने मनुष्य को सृजा है, इसलिए वह उसकी अगुआई करता है; चूँकि वह मनुष्य को बचाता है, इसलिए वह उसे पूरी तरह से बचाएगा और उसे पूरी तरह से प्राप्त करेगा; चूँकि वह मनुष्य की अगुआई करता है, इसलिए वह उसे उस उपयुक्त मंज़िल पर ले जाएगा, और चूँकि उसने मनुष्य का सृजन किया है और उसका प्रबंध करता है, इसलिए उसे मनुष्य के भाग्य और उसकी भविष्य की संभावनाओं की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। यही वह कार्य है, जिसे सृजनकर्ता द्वारा किया जाता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना)।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों ने परमेश्वर के कार्य और इंसान के कार्य के बीच के अंतर को एकदम साफ कर दिया है। चूँकि देहधारी परमेश्वर का सार और परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने वाले इंसान का सार अलग-अलग होता है, इसलिए वे जो काम करते हैं वह भी बहुत अलग होता है। परमेश्वर बाहर से एक साधारण, सामान्य व्यक्ति दिखाई देता है, लेकिन वह देह में साकार हुआ परमेश्वर का आत्मा है। इसलिए उसमें एक दिव्य सार है, उसमें परमेश्वर का अधिकार, सामर्थ्य, सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि है। इसलिए देहधारी परमेश्वर अपने कार्य में सीधे सत्य को व्यक्त कर सकता है और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को और अपने स्वरूप को व्यक्त कर सकता है, और एक नए युग का आरंभ और पुराने युग का अंत कर सकता है, परमेश्वर के इरादों और मनुष्यजाति से परमेश्वर की अपेक्षाओं को व्यक्त करते हुए, परमेश्वर की प्रबंधन योजना के सभी रहस्यों को प्रकट कर सकता है। देहधारी परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी वचन सत्य हैं और इंसान का जीवन बन सकते हैं और इंसान के जीवन स्वभाव को बदल सकते हैं। परमेश्वर का कार्य मनुष्य को जीत सकता है, उसे शुद्ध कर सकता है इंसान को शैतान के प्रभाव से बचा सकता है, और मनुष्यजाति को एक ख़ूबसूरत मंज़िल तक ले जा सकता है। ऐसे कार्य का प्रभाव कुछ ऐसा है जिसे कोई इंसान नहीं कर सकता है। देहधारी परमेश्वर का कार्य स्वयं परमेश्वर का कार्य है, और उनकी जगह कोई नहीं ले सकता है। दूसरी तरफ, परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने वाले मनुष्य का सार मनुष्य है। उनमें केवल मानवता होती है और उनमें मसीह का दिव्य सार नहीं होता है, इसलिए वे सत्य या परमेश्वर के स्वभाव को और उसके स्वरूप को व्यक्त नहीं कर सकते हैं। वे परमेश्वर के कथनों और कार्य की बुनियाद पर परमेश्वर के वचनों के अपने निजी ज्ञान का ही संवाद कर सकते हैं, या अपने अनुभवों और गवाही के बारे में बात कर सकते हैं। उनका सारा ज्ञान और गवाही परमेश्वर के वचनों की उनकी व्यक्तिगत समझ को दर्शाती है। उनका ज्ञान कितना भी ऊँचा या उनके वचन कितने भी सटीक क्यों न हों, वे जो कुछ भी कहते हैं उसे सत्य नहीं कहा जा सकता है, और इसके अलावा उन्हें परमेश्वर के वचन तो नहीं कहा जा सकता है, इसलिये ये बातें इंसान का जीवन नहीं हो सकती हैं इंसान को सिर्फ़ सहायता, आपूर्ति, समर्थन और नसीहत दे सकती हैं, इंसान को शुद्ध करने, बचाने और सिद्ध बनाने के परिणाम हासिल नहीं कर सकती हैं। इसलिए परमेश्वर द्वारा उपयोग किया जाने वाला इंसान स्वयं परमेश्वर का कार्य नहीं कर सकता है और मनुष्य के कर्तव्यों को पूरा करने के लिए केवल परमेश्वर के साथ समन्वय कर सकता है।
जब परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य में अंतर की बात आती है, तो हम इस बात को हर किसी के लिए और ज़्यादा स्पष्ट करने के लिए एक वास्तविक उदाहरण दे सकते हैं। अनुग्रह के युग में, प्रभु यीशु ने स्वर्ग के राज्य के रहस्यों को प्रकट करते हुए, प्रायश्चित के मार्ग का उपदेश दिया, "मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है," और इंसान से उसके पापों को स्वीकार करवाते हुए, प्रायश्चित करवाते हुए और मनुष्यों के पापों को क्षमा करते हुए, लोगों को अपराध और कानून के अभिशाप से मुक्त करवाते हुए, उसे मनुष्य के लिए पापबलि के रूप में सूली पर चढ़ा दिया गया ताकि हम परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसके साथ संगति करने के लिए उनके सामने आने की योग्यता हासिल कर सकें, परमेश्वर का समृद्ध अनुग्रह और सत्य पा सकें, हमें परमेश्वर के प्रेममय और दयालु स्वभाव को देखने दिया। प्रभु यीशु के कार्य ने अनुग्रह के युग का आरंभ और व्यवस्था के युग का अंत किया। यह अनुग्रह के युग में परमेश्वर के कार्य का हिस्सा है। जब प्रभु यीशु ने अपना कार्य पूरा कर लिया उसके बाद, उसके प्रेरितों ने परमेश्वर के कथनों और कार्य की बुनियाद पर, उसके चुने हुए लोगों की प्रभु यीशु के वचनों का अनुभव करने और अभ्यास करने में अगुवाई की, उसके उद्धार की गवाही को फैलाया और पूरी धरती पर मनुष्यजाति को छुटकारा दिलाने वाले उसके सुसमाचार का प्रचार किया। यह अनुग्रह के युग में प्रेरितों का कार्य है और साथ ही परमेश्वर के द्वारा उपयोग किये गए लोगों का कार्य है। इससे हम यह देख पाते हैं कि प्रभु यीशु के कार्य और प्रेरितों के कार्य के सार में अंतर है। अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मनुष्यजाति को शुद्ध करने और बचाने के लिए, मनुष्य को परमेश्वर के धार्मिक, प्रतापी, कोपपूर्ण, अपमान न किये जा सकने योग्य स्वभाव के दर्शन कराते हुए मनुष्यजाति को शैतान की भ्रष्टता और असर से पूरी तरह से बचाने के लिए, सभी सत्य व्यक्त किये, परमेश्वर की 6,000 साल की प्रबंधन योजना के सभी रहस्यों को प्रकट किया, परमेश्वर के घर से आरंभ होने वाला न्याय का कार्य किया, ताकि भ्रष्ट मनुष्यजाति पाप-मुक्त हो सके, शुद्धता प्राप्त कर सके, और परमेश्वर द्वारा प्राप्त की जा सके। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य ने राज्य के युग का आरंभ और अनुग्रह के युग का अंत किया। यह राज्य के युग के लिए परमेश्वर का कार्य है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य और वचनों की बुनियाद पर, परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए इंसान का कार्य परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सींचना है और उनकी चरवाही करना है, उन्हें परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर में विश्वास करने के लिए सही मार्ग में प्रवेश करने की ओर उनकी अगुवाई करना है, और राज्य के उतरने के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के सुसमाचार को फैलाना और उसकी गवाही देना है। यह राज्य के युग में परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने वाले व्यक्ति का कार्य है। इससे हम यह देख पाते हैं कि दोनों बार जब परमेश्वर ने देहधारण किया तो परमेश्वर का कार्य एक युग का आरंभ करना और एक युग का अंत करना है। उसका कार्य समस्त मानवजाति की ओर प्रवृत्त है और यह सब परमेश्वर की प्रबंधन योजना को पूरा करने के लिए कार्य का एक चरण है। यह ठीक मनुष्यजाति को छुड़ाने और बचाने का कार्य है। दोनों बार परमेश्वर के देहधारण करने के कार्य से यह सत्यापित होता है कि मनुष्यजाति को शुद्ध करने और बचाने के अपने कार्य में सिर्फ़ परमेश्वर ही सत्य को व्यक्त कर सकता है। कोई भी इंसान परमेश्वर का कार्य नहीं कर सकता। केवल देहधारी परमेश्वर ही परमेश्वर का कार्य कर सकते हैं। इसलिए दोनों बार जब परमेश्वर देहधारी बना, तो उसने गवाही दी कि मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन हैं। देहधारी परमेश्वर के अलावा, और कोई स्वयं परमेश्वर का कार्य नहीं कर सकता। वे न तो नए युग का आरंभ कर सकते हैं, न पुराने युग का अंत कर सकते हैं और इसके अलावा न ही मनुष्यजाति को बचा सकते हैं। परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने वाले इंसान का कार्य परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुवाई और चरवाही करने के लिए और इंसान का कर्तव्य पूरा करने के लिये, केवल परमेश्वर के कार्य के साथ समन्वय कर सकता है। चाहे इंसान ने कितने भी साल काम क्यों न किया हो या कितने ही वचन क्यों न बोले हों, या बाहर से उसके कार्य कितने ही विशाल क्यों न प्रतीत होते हों, इसका सार है कि समस्त इंसान का कार्य है। यह एक सच्चाई है। देहधारी परमेश्वर के कार्य में और परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए इंसानों के काम में यही मुख्य अंतर है।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों ने हमें परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य में मूलभूत अंतर का एहसास कराया है। हमें अब जाकर समझ में आया है कि जब देहधारी परमेश्वर कार्य करता है तो वह सत्य को व्यक्त कर सकता है, परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के स्वरूप को व्यक्त कर सकता है। अगर हम परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर लें और अनुभव कर लें तो हम सत्य को समझ पाएँगे, और परमेश्वर के पवित्र और धार्मिक स्वभाव को, परमेश्वर के सार को, मनुष्यजाति को बचाने के परमेश्वर के इरादों को, मनुष्यजाति को बचाने के परमेश्वर के तरीकों को, और मनुष्यजाति के लिए परमेश्वर के प्यार को ज़्यादा से ज़्यादा समझ पाएँगे। साथ ही हम शैतान द्वारा हमें भ्रष्ट किए जाने के सार, प्रकृति और सत्य की समझ को भी पा लेंगे। इस तरह, हमारा भ्रष्ट स्वभाव शुद्धिकरण और परिवर्तन हासिल कर सकता है, हम परमेश्वर के प्रति सच्ची आज्ञाकारिता और भय मानना पैदा कर सकते हैं, और परमेश्वर द्वारा उद्धार को पा सकते हैं। हालाँकि मनुष्य का कार्य और परमेश्वर का कार्य पूरी तरह से अलग हैं। क्योंकि इंसान सत्य को व्यक्त नहीं कर सकता है और परमेश्वर के वचनों के बारे में केवल अपने निजी अनुभव और ज्ञान की चर्चा ही कर सकता है, भले ही ये सत्य के अनुरूप हों, इसलिए ये केवल परमेश्वर के चुने हुए लोगों का मार्गदर्शन, चरवाही, समर्थन और सहायता ही कर सकते हैं। इससे पता चलता है कि अगर यह परमेश्वर द्वारा अनुमोदित व्यक्ति है, तो उसका काम सिर्फ परमेश्वर के कार्य के साथ समन्वय करना और इंसान का कर्तव्य पूरा करना है। अगर यह व्यक्ति परमेश्वर द्वारा उपयोग नहीं किया गया है, पवित्र आत्मा के कार्य से रहित व्यक्ति है, तो वह ऐसा इंसान है जो मनुष्य की योग्यता, प्रतिभा और प्रसिद्धि का उत्कर्ष करने वाला व्यक्ति है। अगर ऐसे लोग बाइबल की व्याख्या भी करते हैं, तो वे बाइबल में मनुष्य के वचनों का ही उत्कर्ष करते हैं, परमेश्वर के वचनों को अप्रासंगिक बना देते हैं और परमेश्वर के वचनों को बदलने के लिए मनुष्य के वचनों का उपयोग करते हैं। ऐसे लोगों का काम फरीसियों का कार्य है और परमेश्वर का विरोध करने का कार्य है। इंसानों का काम ख़ास तौर से इन दो अलग-अलग स्थितियों में आता है। चाहे कुछ भी हो, इंसान के कार्य और परमेश्वर के कार्य के बीच सबसे बड़ा अंतर यह है: अगर यह सिर्फ़ इंसान का कार्य है, तो ये इंसानों को शुद्ध करने और बचाने के परिणाम हासिल नहीं कर सकता है। केवल परमेश्वर ही अपने कार्य में सत्य को व्यक्त करने में सक्षम है और केवल उसका कार्य की इंसान को शुद्ध करने और बचाने के परिणाम हासिल कर सकता है। यह एक सच्चाई है। हम जिस मुख्य बात की यहाँ चर्चा कर रहे हैं, वह है परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए लोगों के कार्य के बीच अंतर। परमेश्वर द्वारा उपयोग नहीं किए गए उन धार्मिक अगुवों का कार्य एक अन्य मामला है।
जब परमेश्वर के कार्य और इंसान के काम में इतना साफ़ अंतर है, तो फिर भी हम परमेश्वर पर विश्वास करने के साथ-साथ इंसान की पूजा और उसका अनुसरण क्यों करते हैं? अभी भी इतने सारे ऐसे लोग क्यों हैं जो उन प्रसिद्ध आध्यात्मिक हस्तियों और धार्मिक अगुवाओं के कार्यो को परमेश्वर के कार्यों की तरह मानते हैं जिनकी वे आराधना करते हैं? ऐसे लोग क्यों हैं जो झूठे मसीहों और दुष्ट आत्माओं के धोखे तक को परमेश्वर का कार्य मानते हैं? उसकी वजह यह है कि हमारे पास सत्य नहीं है और हम परमेश्वर के कार्य और इंसान के काम में अंतर नहीं कर सकते। हम देहधारी परमेश्वर और इंसान के सार को नहीं जानते हैं, हम नहीं जानते कि कैसे पहचाने कि सत्य क्या है और कौनसी बात सत्य के अनुरूप है। हम परमेश्वर की वाणी और इंसान के कथनों में अंतर नहीं कर सकते हैं, इसके साथ ही, हमें शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है और हम सब ज्ञान और योग्यता की आराधना करते हैं, इसलिए बाइबल के उस ज्ञान को, धार्मिक सिद्धांतों को और आध्यात्मिक मतों को सत्य मान लेना बड़ा आसान होता है जो इंसान से आता है। इन बातों को स्वीकार करना जो सत्य नहीं हैं और जो इंसान से आती हैं, वे बातें हमारे ज्ञान को बढ़ाने का काम तो कर सकता है, किन्तु ये हमारे जीवन को किसी भी तरह की आपूर्ति प्रदान नहीं करती हैं, और इसके अलावा, परमेश्वर को जानने और परमेश्वर का आदर करने का प्रभाव हासिल नहीं कर सकती हैं। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है। इसलिए, इंसान चाहे कितना भी काम क्यों न कर ले, कितने भी वचन क्यों न बोल ले, कितने भी समय तक काम क्यों न कर ले, या कितना भी बड़ा काम क्यों न कर ले, यह इंसान को शुद्ध करने और बचाने का परिणाम हासिल नहीं कर सकता है। इंसान का जीवन नहीं बदलेगा। इससे ये ज़ाहिर होता है कि इंसान का काम परमेश्वर के कार्य की जगह नहीं ले सकता है। सिर्फ़ परमेश्वर का कार्य ही इंसान को बचा सकता है। परमेश्वर के कार्य की अवधि कितनी भी छोटी क्यों न हो, उसके द्वारा बोले गए वचन चाहे कितने ही कम क्यों न हों, ये किसी युग का आरंभ और अंत कर सकते हैं, और मानवजाति को छुड़ाने और बचाने के परिणामों को हासिल कर सकते हैं। परमेश्वर और इंसान के कार्य के बीच यह एकदम साफ़ अंतर है। परमेश्वर और इंसान के कार्य के बीच अंतर को समझने के बाद ही हम आँख बंद करके इंसान की आराधना और उसका अनुसरण नहीं करेंगे, और झूठे मसीहों और मसीह–विरोधियों के धोखों में और नियंत्रण को समझ और अस्वीकार कर पाएँगे। इस तरह, हम अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार और उसका पालन कर पाएँगे, और परमेश्वर से उद्धार पाने के लिए परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण को हासिल कर पाएँगे। अगर इन्सान परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के काम में अंतर न कर सकते हैं, तो हम झूठे मसीहों और मसीह–विरोधियों के धोखों और नियंत्रण से नहीं निकल पाएँगे। इस तरह के लोग परमेश्वर में नाममात्र को विश्वास करते हैं, बल्कि वास्तव में इन्सान में विश्वास करते हैं, इन्सान का अनुसरण करते हैं और इन्सान की आराधना करते हैं; वे मूर्तियों की पूजा कर रहे हैं। यह परमेश्वर का विरोध करना और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना है। अगर हम अभी भी अपने मार्ग की त्रुटि का एहसास करने से इनकार करते हैं, तो आख़िरकार परमेश्वर के स्वभाव को नाराज़ करने के कारण परमेश्वर द्वारा हमें शाप दिया जाएगा और हटा दिया जाएगा।
— 'राज्य के सुसमाचार पर विशिष्ट प्रश्नोत्तर' से उद्धृत
अगर हम परमेश्वर के कार्य और इंसान के कार्य में अंतर न कर सकते हैं, या उन लोगों के कार्य में जिनका उपयोग परमेश्वर करते हैं और उन पाखंडी फरीसियों के कार्य में अंतर न कर सकते हैं, तो हम इंसानों की पूजा करने और उनका अनुसरण करने की ओर प्रवृत्त होंगे, और आसानी से सच्चे मार्ग से भटक जाएँगे! यह ठीक वैसा ही होगा जैसा जब प्रभु यीशु अपना कार्य करने आए थे, और यहूदी धर्म में परमेश्वर के चुने हुए लोग उन्हें त्यागकर पाखंडी फरीसियों का अनुसरण करते थे, और उसका परित्याग करते थे। अंत के दिनों में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर न्याय का कार्य करता है। धार्मिक जगत में, पादरी और अगुवा और आधुनिक-दिनों-के फरीसी, बहुत से लोगों को धोखा देते हैं, काबू में कर लेते हैं, उन्हें कैद कर लेते हैं, अंत के दिनों के मसीह का परित्याग करने के लिए प्रेरित करते हैं। यह एक गंभीर सबक है जो हमें अवश्य सीखना चाहिए। परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए, हमें धार्मिक अगुवाओं और पाखंडी फरीसियों के सार को समझने में अवश्य समर्थ होना चाहिए। वे अपनी योग्यताओं और प्रतिभा के माध्यम से कार्य करते हैं, बाइबल की अपनी स्वयं की आवधारणा, कल्पना और तर्क के अनुसार व्याख्या करते हैं। दरअसल वे धर्मशास्त्र और बाइबल के सिद्धांतों के उपदेश देते हैं। वे बाइबल में दिए गए परमेश्वर के वचनों का उत्कर्ष करने और उनकी गवाही देने की बजाय, बाइबल में दिये इंसान के वचनों की व्याख्या करते हैं। वे प्रभु यीशु के वचनों की जगह इंसान के वचनों का उपयोग करके प्रभु को मात्र कठपुलती बना देते हैं। ऐसा कार्य परमेश्वर की इच्छा के बिल्कुल उलट है। फरीसियों के परमेश्वर के विरोध का मूल यहीं निहित है। तमाम धार्मिक लोग फरीसियों की अगुवाई और चरवाही में पड़ते हैं और वे आँख बंद करके अनुसरण करते हैं। वे बरसों तक परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, लेकिन उन्हें सत्य या जीवन का कोई पोषण कभी नहीं मिलता है। ज़्यादा से ज़्यादा, वे केवल बाइबल और धार्मिक सिद्धांतों का ज्ञान हासिल करने की ही उम्मीद कर सकते हैं। वे अधिक से अधिक घमंडी, आत्म-तुष्ट और घृणित स्वभाव के होते जाते हैं, और उनमें परमेश्वर के लिये ज़रा भी श्रद्धा नहीं होती है। धीरे-धीरे, उनके हृदय से परमेश्वर का स्वभाव दूर हो जाता है, और उनके अनजाने में, वे परमेश्वर से ठीक विपरीत फरीसियों के मार्ग पर चल पड़ते हैं। विशेष रूप से, ऐसे बहुत से धार्मिक अगुवा और हस्तियाँ हैं जो संदर्भ से परे जाकर बाइबल की ग़लत व्याख्या करते हैं, लोगों को धोखा देने, क़ैद करने और फँसाने के लिये ऐसे पाखंड और भ्रांतियाँ फैलाते हैं जो मनुष्य की अवधारणाओं और कल्पनाओं से मेल खाती हैं और उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा करती हैं। बहुत से लोग इस पाखंडों और भ्रांतियों को परमेश्वर का वचन और सत्य मान लेते हैं। वे ग़लत रास्ते पर ले जाए जाते हैं। ये धार्मिक अगुवा और तथाकथित प्रसिद्ध हस्तियाँ वास्तव में ऐसे मसीह-विरोधी हैं जिन्हें परमेश्वर ने अंत के दिनों में अपने न्याय के कार्य के माध्यम से उजागर किया है। ये तथ्य इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि इन तथाकथित धार्मिक अगुवाओं और आध्यात्मिक लोगों का कार्य पवित्र आत्मा के कार्य से नहीं आता है। बल्कि ये मात्र फरीसी और मसीह-विरोधी हैं जो हमें धोखा दे और नुकसान पहुँचा रहे हैं। ये सब परमेश्वर के विरोध में खड़े होकर उसके साथ विश्वासघात करते हैं। यही लोग हैं जो परमेश्वर को एक बार और सूली पर चढ़ाते हैं, और परमेश्वर ने इन्हें शाप दिया है!
— 'राज्य के सुसमाचार पर विशिष्ट प्रश्नोत्तर' से उद्धृत
परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य के बीच तीन मुख्य अंतर हैं। पहला अंतर यह है कि परमेश्वर के कार्य में युग शुरू करना और समाप्त करना शामिल है। इस प्रकार, उसका कार्य पूरी मानवजाति पर निर्देशित है। यह सिर्फ एक ही देश, एक ही जाति के लोगों या एक निश्चित समूह के लोगों पर लक्षित नहीं है। यह पूरी मानवजाति पर लक्षित है। परमेश्वर के सभी कार्य अनिवार्य रूप से पूरी मानवजाति को प्रभावित करते हैं। यह परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य के बीच सबसे बड़ा अंतर है। अनुग्रह के युग के दौरान, परमेश्वर प्रभु यीशु के रूप में देहधारी हुआ और उस चरण विशेष में छुटकारे का कार्य किया। जब प्रभु यीशु को क्रूस पर ठोंका गया, तो उसने छुटकारे के कार्य को पूरा किया। इसके बाद, पवित्र आत्मा ने प्रभु यीशु की गवाही देने के लिए परमेश्वर के चुने हुए लोगों का नेतृत्व करना शुरू कर दिया। अंत में, यह साक्ष्य पूरी मानवजाति तक पहुंच गया। इस प्रकार प्रभु यीशु द्वारा किये गये छुटकारे के कार्य का सुसमाचार पृथ्वी के सभी कोनों में फैल गया, यह दर्शाता है कि यह परमेश्वर का कार्य है। यदि यह मनुष्य का कार्य होता, तो यह निश्चित रूप से पृथ्वी के सभी कोनों में फैला नहीं होता। दो हज़ार साल का अंतर अनुग्रह के युग और राज्य के युग को अलग करता है। इन दो हज़ार वर्षों में, हमने ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं देखा है जो एक नये युग को शुरू करने के कार्य को करने में सक्षम था। इसके अलावा, ऐसा कोई भी नहीं था जो कुछ ऐसा करने में सक्षम था जो दुनिया के सभी देशों में फैल जाये। जब अंत के दिनों में परमेश्वर देह बन गया और न्याय और ताड़ना का कार्य करना शुरू किया तब तक इसका कोई उदाहरण नहीं था। परमेश्वर के कार्य के इस चरण के लिए जाँच-परियोजना पहले ही चीन में सफल रही है। परमेश्वर की महान परियोजना पहले से ही पूरी हो चुकी है। अब, परमेश्वर का कार्य दुनिया के सभी कोनों में विस्तारित होना शुरू हो गया है। इस तरह, हम और अधिक निश्चित हो सकते हैं कि परमेश्वर के सभी कार्य मानवजाति की ओर निर्देशित हैं। शुरुआत में, परमेश्वर एक देश में एक परीक्षण के रूप में अपना कार्य करता है। इसे सफलतापूर्वक पूरा करने के बाद, परमेश्वर का कार्य फैलने और पूरी मानवजाति तक पहुंचने लगेगा। परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य के बीच यह सबसे बड़ा अंतर है। ...
परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य के बीच दूसरा अंतर यह है कि परमेश्वर का कार्य उस हर चीज को व्यक्त करता है जो परमेश्वर है। यह परमेश्वर के स्वभाव का पूरी तरह से प्रतिनिधि है। जो कुछ भी परमेश्वर व्यक्त करता है वह पूरी तरह से सत्य, मार्ग और जीवन है। जो लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, वे परमेश्वर की धार्मिकता, पवित्रता, सर्वशक्तिमत्ता, बुद्धि, अद्भुतता और अथाह गहराई को समझते हैं। मनुष्य का कार्य मनुष्य के अनुभव और समझ को व्यक्त करता है। यह मनुष्यों की मानवता का प्रतिनिधि है। चाहे मनुष्य कितना भी कार्य करे या यह कितना भी महान हो, यह अभी भी मनुष्य का अनुभव और समझ है। यह निश्चित रूप से सत्य नहीं है। मनुष्य को केवल सत्य की समझ या अनुभव हो सकता है। वह सत्य का कथन नहीं कर सकता और न ही वह सत्य का प्रतिनिधित्व कर सकता है। ...
आओ हम परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य के बीच अंतर के तीसरे पहलू की जांच करें। परमेश्वर के कार्य में लोगों को जीतने, लोगों को बदलने, लोगों के स्वभाव को बदलने और शैतान के प्रभाव से लोगों को मुक्त करने की शक्ति है। चाहे मनुष्य के पास परमेश्वर के वचन का कितना भी अनुभव और समझ हो, उसका कार्य लोगों को बचा नहीं सकता है। इसके अलावा, यह लोगों के स्वभाव को बदलने में असमर्थ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर का वचन सत्य है। केवल सत्य एक व्यक्ति का जीवन हो सकता है। मनुष्य का वचन बहुत अच्छा होने पर वह वो हो सकता है जो सत्य के अनुरूप है। यह केवल अस्थायी रूप से अन्य लोगों की सहायता और उन्नयन कर सकता है। यह किसी का जीवन नहीं हो सकता है। यही कारण है कि परमेश्वर का कार्य मनुष्य को बचाने में सक्षम है। मनुष्य का कार्य किसी और को उद्धार प्रदान करने में असमर्थ है। परमेश्वर का कार्य लोगों के स्वभाव को बदल सकता है। मनुष्य का कार्य किसी के स्वभाव को बदलने में असमर्थ है। जिनके पास अनुभव है वे सभी इसे स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। असल में, एक व्यक्ति में चाहे पवित्र आत्मा का कितना भी कार्य हो, भले ही वह कुछ सालों से लोगों के बीच कार्य कर रहा हो, फिर भी उसका कार्य उनके स्वभाव को बदलने में असमर्थ है। यह उन्हें वास्तविक उद्धार प्राप्त करने में मदद करने में असमर्थ है। यह एक पूर्ण सत्य है। केवल परमेश्वर का कार्य ही कर सकता है। यदि मनुष्य सचमुच सत्य का अनुभव करता है और उसे खोजता है, तो वह पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर पाएगा और वह अपना जीवन स्वभाव बदल पायेगा। वह अपने भ्रष्ट सार की वास्तविक समझ प्राप्त करेगा। अंत में, वह खुद को शैतान के प्रभाव से मुक्त करने और परमेश्वर के माध्यम से उद्धार पाने में सक्षम हो जाएगा। यह मनुष्य के कार्य और परमेश्वर के कार्य के बीच सबसे बड़ा अंतर है।
— 'जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति' से उद्धृत
परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के काम के बीच सबसे बड़ा अंतर यह है कि परमेश्वर युगों को शुरू और समाप्त कर सकता है। केवल परमेश्वर ही युगों को शुरू और समाप्त करने का कार्य कर सकता है; मनुष्य यह नहीं कर सकते। मनुष्य यह कार्य क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि मनुष्यों में सत्य नहीं है, वे सत्य नहीं हैं; केवल परमेश्वर ही सत्य है। चाहे मनुष्य की बातें सत्य के कितने भी करीब आ जाएँ, चाहे प्रचार कितना भी उत्कृष्ट हो, या चाहे वे कितना भी समझते हों, वह केवल थोड़े-से अनुभव और परमेश्वर के वचनों या सत्य के थोड़े-से ज्ञान से बढ़कर नहीं है, और यह केवल एक सीमित चीज़ है जिसे परमेश्वर के कार्य के अनुभव के माध्यम से हासिल किया गया है। यह सटीक सत्य नहीं है। इसलिए, चाहे कोई व्यक्ति सत्य को कितना भी समझता हो, वह युगों को शुरू और समाप्त करने का कार्य नहीं कर सकता। यह मनुष्यों के वास्तविक सार से निर्धारित होता है। ...
और दूसरा मुद्दा क्या है? मनुष्य के पास सत्य नहीं है, मनुष्य सत्य नहीं है; जो मनुष्य के पास है और जो कुछ वह है, चाहे उसकी मानवता कितनी भी ऊंची या अच्छी हो, वह सब अभी भी वो सीमित चीज़ है जो सामान्य मानवता में समाहित होनी चाहिए और जिसकी परमेश्वर के स्वरूप के साथ तुलना नहीं की जा सकती है और न ही जिसकी परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्य के साथ तुलना की जा सकती है। यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का अंतर है; इसलिए मनुष्य वह कार्य नहीं कर सकता जो परमेश्वर करता है। ... चाहे तुम्हारा काम कितना भी बड़ा हो, चाहे तुम कितने ही सालों के लिए काम करो, चाहे तुम देहधारी परमेश्वर की तुलना में कितने ही अधिक वर्षों के लिए काम करो, या तुम उसकी तुलना में कितने भी अधिक शब्द बोलते हो, फिर भी वे वास्तविक चीज़ें, जिनके बारे में तुम्हारे शब्द बताते हैं, केवल वो चीज़ें हैं जो इंसान की हैं और जो मानवीय हैं; वे केवल इंसान के थोड़े-से अनुभव और सत्य के थोड़े ज्ञान से अधिक कुछ और नहीं हैं। वे किसी व्यक्ति का जीवन नहीं हो सकते। इसलिए यदि कोई व्यक्ति कई ऐसे उपदेश देता है जो लोगों को उत्कृष्ट लगते हैं, और चाहे वह कितना भी काम करे, वह जो प्रस्तुत करता है वह सत्य नहीं है, और वह सत्य की सबसे सटीक अभिव्यक्ति नहीं है; समग्र मानव जाति को आगे ले जाने में तो यह उससे भी कम सक्षम होगा। हालांकि किसी व्यक्ति के भाषण में पवित्र आत्मा का प्रबोधन और प्रकाश हो सकता है, यह लोगों को केवल थोड़ा शिक्षित करेगा, और उनके लिए थोड़ा पोषण प्रदान करेगा। यह केवल एक निश्चित समयावधि के लोगों के लिए कुछ मदद ला सकता है और उससे अधिक कुछ नहीं कर सकता। यह वो परिणाम है जो मनुष्यों के काम से प्राप्त किया जा सकता है। तो ऐसा क्यों है कि मनुष्यों का काम उस परिणाम को नहीं पा सकता है, जो कि परमेश्वर का कार्य पाता है? ऐसा इसलिए है कि मनुष्यों का सार सत्य नहीं है; इसमें कुछ ऐसी बात है जो सामान्य मानवता का स्वरूप है, वह परमेश्वर के स्वरूप से, और परमेश्वर के अस्तित्व से, काफ़ी दूर है, वह परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्य से भी काफ़ी दूर है। दूसरे शब्दों में, यदि मनुष्य परमेश्वर के कार्य से हट जाता है और पवित्र आत्मा कार्य करना बंद कर देता है, तो मनुष्य का काम खुद मनुष्य के लिए उत्तरोत्तर कम लाभकारी होता जाता है और मनुष्य के पास कोई रास्ता नहीं रह जाता है। कुछ स्पष्ट परिणाम हैं जिन्हें केवल परमेश्वर का कार्य हासिल कर सकता है और मनुष्य का काम कभी नहीं हासिल कर सकता: मनुष्य चाहे जो कुछ भी कर ले, मनुष्य का जीवन-स्वभाव नहीं बदल सकता। मनुष्य जो भी करे, मनुष्य को परमेश्वर को सचमुच जानने के योग्य नहीं बनाया जा सकता। मनुष्य चाहे जो भी कर ले, वह मनुष्य के शुद्ध होने का कारण नहीं हो सकता। यह सब निश्चित है। कुछ लोग कहते हैं: "कार्य की कम अवधि के कारण ऐसा होता है।" यह गलत है! एक लंबी अवधि तो क्या, एक सौ साल भी कुछ काम नहीं आयेंगे। क्या मनुष्य का काम, मनुष्य को परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने देता है? (नहीं।) चाहे कितने ही साल तुम अन्य लोगों का नेतृत्व कर लो, तुम उन्हें परमेश्वर को जानने के योग्य नहीं बना सकते। चलो, हम एक उदाहरण पर विचार करते हैं। क्या पौलुस का काम लोगों को परमेश्वर को जानने में सक्षम बना सकता है? (नहीं।) क्या नए नियम के प्रेरितों के इतने सारे धर्म-पत्र लोगों को परमेश्वर को जानने में सक्षम बना सकते हैं? (नहीं।) क्या पुराने नियम के बहुत-से नबी और परमेश्वर के सेवकगण लोगों को परमेश्वर को जानने में सक्षम बना सकते हैं? (नहीं।) उनमें से कोई भी ऐसा नहीं कर सकता। जो नतीजे मनुष्य के काम हासिल कर सकते हैं, वे बेहद सीमित होते हैं। वे परमेश्वर के कार्य की एक अवधि को बनाए रखने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकते हैं। ... यह क्या दर्शाता है? मनुष्य का काम परमेश्वर को जानने में मनुष्य की मदद नहीं कर सकता, मनुष्य का काम मनुष्य के स्वभाव को नहीं बदल सकता, और मनुष्य का काम मनुष्य को शुद्धता प्राप्त नहीं करा सकता। यह प्रमाणित है। जहाँ तक अंत के दिनों के दौरान परमेश्वर के कार्य का सवाल है, इसके अधिक से अधिक प्रमाण मौजूद हैं: इतने सारे लोगों पर विजय प्राप्त की गई है, इतने सारे लोगों ने शानदार गवाही दी है, इतने सारे लोगों ने अपने जीवन के अनुभवों को लिखा है, इतने सारे लोगों पर इसलिए विजय प्राप्त हुई है कि वे परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए बाक़ी सब कुछ छोड़ दें; इस तरह सभी पहलुओं के लिए गवाही मौजूद है। कुछ लोग जिनके पास आठ या दस वर्ष का अनुभव है, वे बहुत अच्छी गवाही देते हैं, और दूसरों के पास तीन से पांच साल का ही अनुभव है और वे भी बहुत अच्छी गवाही देते हैं। फिर, यदि इन लोगों को जिन्होंने कुछ गवाही दी है, दस या बीस साल का और अनुभव हो, तो उनकी गवाही कैसी होगी? क्या यह एक अधिक शानदार और अधिक गौरवशाली गवाही होगी? (हाँ।) क्या यह परिणाम परमेश्वर के कार्य से हासिल किया गया है? (हाँ।) क्या यह सच नहीं कि परमेश्वर के कार्य के दस वर्षों से प्राप्त परिणाम, सौ या हज़ारों वर्षों के मनुष्य के काम के परिणाम से बेहतर होता है? ... यह क्या दर्शाता है? केवल परमेश्वर का कार्य मनुष्य को बचाने, मनुष्य को बदलने, और मनुष्य को पूर्ण करने के लक्ष्य और परिणाम को प्राप्त कर सकता है, जबकि मनुष्य के काम से, चाहे वह कितने ही वर्षों का हो, इस तरह का परिणाम हासिल नहीं होगा। किसी मनुष्य का काम अंततः क्या हासिल कर सकता है? केवल यही कि लोग उस व्यक्ति की प्रशंसा, उसका समर्थन और उसका अनुकरण करें। अधिक से अधिक, लोगों में कुछ अच्छा व्यवहार होता है, और कुछ नहीं; जीवन-स्वभाव में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है, परमेश्वर के प्रति समर्पित होना और परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं हो सकता है, परमेश्वर के प्रति सम्मान रखना और बुराई से दूर रहना संभव नहीं हो सकता है, सच्ची शुद्धता और परमेश्वर को देख पाना संभव नहीं हो सकता है। इन कई महत्वपूर्ण पहलुओं के सभी परिणाम हासिल नहीं किए जा सकते हैं। क्या तुम समझे? (हाँ, हम समझ गए।)
एक तरफ़, परमेश्वर के कार्य में, हम यह पता लगा सकते हैं कि परमेश्वर क्या है और उसके पास क्या है, हम परमेश्वर के स्वभाव को देख सकते हैं, और हम परमेश्वर के ज्ञान और उसकी सर्वशक्तिमत्ता को जान सकते हैं। यह वो परिणाम है जो सीधे परमेश्वर के वचनों से प्राप्त किया जा सकता है। इसके अलावा, परमेश्वर का वचन मनुष्य का जीवन बन सकता है। जब हमारे पास सच्चा अनुभव होता है और परमेश्वर के वचन की समझ होती है, तो हमारे भीतर परमेश्वर का सम्मान करने वाला एक दिल विकसित होगा, फिर हम परमेश्वर के वचन से, जीवन जल की अपनी आपूर्ति को निरंतर पा सकते हैं, और जैसे-जैसे परमेश्वर का वचन हमारे भीतर जड़ें जमाता है, हम हमेशा उस गवाही को जीने में सक्षम हो जाते हैं जिसकी परमेश्वर को हमसे अपेक्षा रहती है, अर्थात उसका वचन हमारा जीवन बन जाता है। परमेश्वर का वचन हमारे जीवन का अनंत और असीम झरना बन जाता है। और मनुष्य के काम के बारे में क्या कहें? चाहे मनुष्य के शब्द कितने भी सही या सत्य के अनुरूप हों, वे मनुष्य के जीवन के रूप में काम नहीं कर सकते; वे केवल व्यक्ति को अस्थायी सहायता और सुधार प्रदान कर सकते हैं। तुम इसे समझते हो, हाँ? (हाँ, हम समझते हैं।) ... परमेश्वर के वचन की बात करें तो, यदि तुम एक दिन इसका अनुभव करते हो और इसमें प्रवेश कर लेते हो, और इसकी समझ प्राप्त कर लेते हो, तो तुम देखोगे कि एक समूचा जीवनकाल भी वचनों का अनुभव करने के लिए पर्याप्त समय नहीं होगा। यह असीम है, अनंत है, और यह जीवन का झरना बन जाता है। क्या यही मनुष्य के काम और परमेश्वर के कार्य के बीच का भेद है? (हाँ।) इसका मतलब यह है कि मनुष्य वो व्यक्त करता है जो वह है, और परमेश्वर वो व्यक्त करता है जो कि वह है। मनुष्य केवल मनुष्य के लिए कुछ लाभ और कुछ सुधार लाता है; परमेश्वर मनुष्य के लिए जीवन की एक अनंत आपूर्ति है; यह भेद बहुत बड़ा है। अगर हम मनुष्य को छोड़ दें, तो हम फिर भी चल सकते हैं; परमेश्वर के वचन के बिना, हम जीवन का मूल स्रोत ही खो देंगे। इसलिए, परमेश्वर ने कहा, "मसीह सत्य, मार्ग और जीवन है"। ये वचन हमारा खजाना है, हमारा जीवन-रक्त है, जो किसी के लिए भी अनावश्यक नहीं है। इन वचनों के साथ हमारे जीवन को दिशा मिलती है, हमारे जीवन का एक लक्ष्य होता है, और हमारे जीवन का एक अत्यावश्यक स्रोत होता है; ये (वचन) हमारे जीवन के सिद्धांत हैं।
— ऊपर से संगति से उद्धृत
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?