तुम इस बात की गवाही देते हो कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर जिन वचनों को "वचन देह में प्रकट होता है" में व्यक्त करता है, वे स्वयं परमेश्वर के ही वचन हैं, लेकिन हम मानते हैं कि वे किसी ऐसे व्यक्ति के शब्द हैं जो पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध हुआ है। इसलिए, जिसकी मुझे खोज करनी है वह यह है कि देहधारी परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए वचनों और पवित्र आत्मा के द्वारा प्रबुद्ध किये गये व्यक्ति के शब्दों के बीच यथार्थतः क्या अंतर है?
उत्तर: सर्वशक्तिमान परमेश्वर जो भी व्यक्त करते हैं, वह सत्य है, तथा वचन देह में प्रकट होता है, वस्तुत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर, जो प्रभु यीशु का दूसरा आगमन हैं, उनके कथन हैं। सभी हृदयवान व आत्मा-युक्त जन, उनके वचनों को देख कर, इस बात को हार्दिक रूप से स्वीकारेंगे, यह पहचान जाएँगे कि वह परमेश्वर की वाणी है एवं परमेश्वर के सामने नतमस्तक हो जाएँगे। तब भी, ऐसे कुछ लोग हैं जो यह विश्वास करते हैं कि अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए वचन पवित्रात्मा से प्रेरित एक मनुष्य द्वारा लिखे गये वचन मात्र हैं, और वे यह नहीं मानते कि ये परमेश्वर के वास्तविक वचन हैं। यह दिखाता है कि परमेश्वर में हमारे विश्वास का अर्थ अनिवार्य रूप से परमेश्वर को जानना नहीं होता, हम परमेश्वर के वचनों और मनुष्य के वचनों में भेद करने में असमर्थ हैं, और इसके अतिरिक्त यह भी दर्शाता है कि हम सत्य के अनुरूप वचनों का, वास्तविक सत्य से स्पष्ट: अंतर नहीं कर सकते। वस्तुत: सत्यानुरूप वचनों और वास्तविक सत्य के बीच एक विशिष्ट भिन्नता है। परमेश्वर के वचन सत्य हैं और कोई भी इसे नकार नहीं सकता, परंतु मनुष्य के शब्द, अच्छी से अच्छी स्थिति में भी ये बस सत्य के अनुरूप ही हैं। अगर कोई मनुष्य के सत्यानुरूप शब्दों का मिलान परमेश्वर के वचनों से करे, तो क्या उनमें कोई भी भिन्नता नहीं होगी? क्या वह वाकई उनके मध्य का अंतर नहीं देख पाएगा? अगर किसी ने परमेश्वर के वचनों का अनुभव किया हो और उनका ज्ञान रखता हो, तो क्या ऐसा कहा जा सकता है कि वो सत्य धारण करता है? यदि कोई सत्यानुरूप शब्द बोलता है, तो क्या उसका अर्थ यह है कि वह सत्य व्यक्त करता है? बीते युगों के संतों ने कई सत्यानुरूप बातें कही थीं, तो क्या उन शब्दों की परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य के समतुल्य चर्चा की जा सकती है? जो सही मायनों में सत्य को समझते एवं सत्य को पहचानते हैं, वे देख सकते हैं कि सत्यानुरूप शब्दों और स्वयं सत्य के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है। जो सत्य को नहीं समझते हैं, या जो उसे पहचानने में असफल होते हैं, सिर्फ़ ऐसे ही लोग दोनों का मिलान करते हैं। अगर हम सत्यानुरूप शब्दों का सत्य से भेद करना चाहें, तो हमें समझना चाहिए कि सत्य वास्तव में है क्या। प्रभु के हम आस्थावानों ने उनके कई वचन पढ़े हैं, हम उनके वचनों का अधिकार व सामर्थ्य जानते हैं, तथा हम यह भी महसूस कर पाते हैं कि केवल प्रभु के वचन ही सत्य हैं। हम कभी भी पूरी तरह सत्य का अनुभव नहीं करेंगे, और सत्य का चाहे कितना ही अनुभव या उसकी समझ हममें हो, हम कभी भी यह कहने का दुस्साहस नहीं कर सकेंगे कि हम सत्य को पूरी तरह धारण करते हैं अथवा हममें परमेश्वर की सच्ची समझ है। धार्मिक समुदाय में, कई पादरीगण और एल्डर्स हैं, जो बाइबल की व्याख्या करने का दुस्साहस करते हैं, परन्तु उनमें भी परमेश्वर के वचनों की मनमाने ढ़ंग से व्याख्या करने की हिम्मत नहीं है। मानवजाति में ऐसा कोई नहीं है जो यह कहने का हौसला करे कि उसे परमेश्वर के वचन की समझ है, तथा ऐसा भी कोई नहीं जो यह कहने की धृष्टता करे कि उसे सत्य की समझ है। यह दिखाता है कि सत्य का सार अविश्वसनीय रूप से गहन है, और केवल परमेश्वर द्वारा ही इसे व्यक्त किया जा सकता है। जब मनुष्य परमेश्वर के कार्य का अनुभव करता है, तो मनुष्य एक निश्चित मात्रा में ही, सत्य की समझ प्राप्त कर पाता है, सत्य की वास्तविकताओं में प्रवेश कर पाता है, एवं सत्यानुरूप कुछ बातों को कह पाता है; इससे बेहतर की अपेक्षा नहीं की जा सकती। तब भी वह कभी भी सत्य धारण नहीं कर सकता अथवा उसकी अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है। यह एक तथ्य है। बीते युगों में, संतों ने कई बातें सत्यानुरूप कही थीं, परन्तु किसी ने भी यह कहने का दुस्साहस नहीं किया कि वे शब्द सत्य थे। तो फ़िर सत्य आखिर में है क्या? सत्य परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया जाता है, और केवल मसीह ही सत्य, मार्ग, तथा जीवन है। जो भी परमेश्वर कहते हैं वह सत्य है, जो भी परमेश्वर कहते हैं वह उनके स्वभाव और अस्तित्व को दर्शाता है, तथा उनके वचन उनकी सर्वशक्तिमत्ता तथा बुद्धि से परिपूर्ण हैं। परमेश्वर ने अपने वचनों का उपयोग स्वर्ग, पृथ्वी तथा सभी चीजों के सृजन के लिए किया, तथा परमेश्वर अपने वचनों का उपयोग मानवजाति के उद्धार के अपने कार्य के लिए भी करते हैं; परमेश्वर के वचनों से समस्त कार्य सिद्ध होते हैं। जिन लोगों ने परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है, वे परमेश्वर के वचनों के महाबल और सर्वसमर्थता को देख सकते हैं, जो यह प्रमाणित करता है कि केवल परमेश्वर ही सत्य व्यक्त कर सकते हैं। सत्य का महाबल व उसकी शाश्वत गुणवत्ता मनुष्य के लिए अपरिमेय है, केवल सत्य ही सनातन है, तथा वह परमेश्वर के साथ सहअस्तित्व में रहता है। वह अक्षुण्ण और अविकारी है। यदि मानवजाति सत्य को जीवन के रूप में प्राप्त कर ले, तो वह अनन्त जीवन पा लेगी। परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सत्य प्रदान करने का महत्व, ताकि मनुष्य सत्य को जीवन के रूप में प्राप्त कर सके, बहुत गहन है। यह ठीक वैसा ही है जैसा सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मनुष्य की भाषा में, सत्य मानवजाति का वास्तविक सार है। सत्य का पूरी तरह अनुभव करने में मनुष्य कभी सक्षम नहीं होगा। मनुष्य को सत्य के साथ जीना चाहिए। एक सत्य पूरी मानवजाति के अस्तित्व को कई हज़ार वर्षों तक बनाए रख सकता है।
"सत्य स्वयं परमेश्वर का जीवन है; यह उसके स्वभाव, सार और उसमें निहित हर चीज़ का प्रतिनिधित्व करता है" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'क्या तुम जानते हो कि सत्य वास्तव में क्या है?')।
"सत्य जीवन की सर्वाधिक वास्तविक सूक्ति है, और मानवजाति के बीच इस तरह की सूक्तियों में सर्वोच्च है। क्योंकि यही वह अपेक्षा है, जो परमेश्वर मनुष्य से करता है, और यही परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया जाने वाला कार्य है, इसीलिए इसे 'जीवन की सूक्ति' कहा जाता है। यह कोई ऐसी सूक्ति नहीं है, जिसे किसी चीज में से संक्षिप्त किया गया है, न ही यह किसी महान हस्ती द्वारा कहा गया कोई प्रसिद्ध उद्धरण है। इसके बजाय, यह स्वर्ग और पृथ्वी तथा सभी चीजों के स्वामी का मानवजाति के लिए कथन है; यह मनुष्य द्वारा किया गया कुछ वचनों का सारांश नहीं है, बल्कि परमेश्वर का अंतर्निहित जीवन है। और इसीलिए इसे 'समस्त जीवन की सूक्तियों में उच्चतम' कहा जाता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो परमेश्वर को और उसके कार्य को जानते हैं, केवल वे ही परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं)।
"सत्य मनुष्य के संसार से आता है, किंतु मनुष्य के बीच सत्य मसीह द्वारा लाया जाता है। यह मसीह से, अर्थात् स्वयं परमेश्वर से उत्पन्न होता है, और यह कुछ ऐसा नहीं है जिसमें मनुष्य समर्थ हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)।
ऐसा क्यों नहीं कहा जा सकता कि मनुष्य के सत्यानुरूप शब्द सत्य ही हैं? क्योंकि मनुष्य के शब्द जो सत्यानुरूप हैं वे मात्र उसके अनुभव तथा सत्य के ज्ञान को ही दर्शाते हैं, और वे पवित्रात्मा के कार्य का परिणाम हैं। पवित्रात्मा लोगों को, उनकी तात्कालिक वास्तविक आध्यात्मिक स्थिति के अनुसार प्रबुद्ध करने एवं सत्य की उत्तरोत्तर समझ तथा उसकी वास्तविकता में प्रवेश करने हेतु राह दिखाता है। हर बार जब पवित्रात्मा लोगों को प्रबुद्ध करता है, वह उन्हें सत्य-ज्योति की आंशिक समझ और सत्य की वास्तविकता के ज्ञान का एक लघु अंश ही देता है। पवित्रात्मा कभी भी मनुष्य को सत्य के सम्पूर्ण सार को एक साथ एक ही चरण में नहीं प्रदान करेगा, क्योंकि मनुष्य उसे हासिल नहीं कर पाएगा और उसका अनुभव भी नहीं कर पाएगा। मनुष्य द्वारा सत्यानुरूप जो भी कहा जाता है वह सत्य की बहुत ही उथली और सीमित समझ तथा अनुभूति है, तथा सत्य के सार से बहुत दूर है। यह स्तर सत्य मानक से बहुत निचले स्तर पर है, तो इन कथनों को सत्य नहीं कहा जा सकता। भले ही जो मनुष्य कहता है वह पवित्रात्मा की प्रबुद्धता व रोशनी से प्रेरित होता है एवं सत्यानुरूप होता है, वह केवल मनुष्य की आध्यात्मिक शिक्षा तथा लाभ के लिए होता है, परन्तु वह मनुष्य का जीवन नहीं बन सकता, जबकि सत्य मनुष्य का अनन्त जीवन बन सकता है। यह इसलिए होता है क्योंकि मनुष्य कभी भी सत्य के सार का अनुभव नहीं कर सकता है, और न ही कभी सत्य की छवि को पूरी तरह से जी सकता है। मनुष्य केवल सत्य की छवि के एक लघु अंश को ही जी सकता है, जो कि वाकई काफी अच्छा है। सत्य सदा के लिए मनुष्य का जीवन हो सकता है एवं मनुष्य को अनन्त जीवन प्रदान कर सकता है, परन्तु जब मानवजाति सत्यानुरूप शब्दों को कहती है, तो वह उनकी आध्यात्मिक उन्नति में सहायता करने का एक अस्थायी मार्ग ही होता है, तथा उससे होने वाला प्रभाव एक कालावधि तक ही रहता है, इसलिए ऐसे शब्द मनुष्य का सनातन जीवन नहीं बन सकते। सत्यानुरूप शब्दों और स्वयं सत्य के बीच यह एक मूलभूत अंतर है। इससे हम यह देख सकते हैं कि भले ही मनुष्य के बोल पवित्रात्मा से प्रबुद्ध हों और भले ही वे सत्यानुरूप हों, तब भी उन्हें सत्य नहीं कहा जा सकता। यह तथ्यात्मक है, और जिन्हें जीवन अनुभव है, वे इसे सीखने एवं इसकी अनुभूति करने में सक्षम हैं।
— 'पटकथा-प्रश्नों के उत्तर' से उद्धृत
यदि हमें मनुष्य के सत्यानुरूप वक्तव्यों तथा देहधारी परमेश्वर द्वारा अभिव्यक्त वचनों के मध्य भेद करना हो तो, सबसे पहले हमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर में परमेश्वर का दिव्य सार होता है जबकि मनुष्य में मानवीय सार। परमेश्वर के वचन परमेश्वर के जीवन का प्रकाशन और परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति हैं, जबकि मनुष्य के शब्द मानवीय सार को प्रकट करते हैं। एकमात्र पवित्रात्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यंजनाएँ ही सत्य है, एवं केवल वे ही परमेश्वर के वचनों की अभिव्यक्ति है। यह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर का जीवन-सार अद्वितीय है एवं कोई भी मनुष्य उससे सम्पन्न नहीं। तथापि, परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त जन तथा ऐसे लोग जिनके पास पवित्रात्मा का कार्य है, वे ऐसे कथन कह सकते हैं जो सत्यानुरूप हों एवं दूसरों को आत्मिक शिक्षा दें। यह पवित्रात्मा की प्रबुद्धता व रोशनी से आता है और मनुष्य द्वारा परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुभवों तथा उनकी समझ से भी आता है। तब भी, यह पवित्रात्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यंजना नहीं है, इसलिए ये परमेश्वर के वचन नहीं हैं।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "सत्य जीवन की सर्वाधिक वास्तविक सूक्ति है, और मानवजाति के बीच इस तरह की सूक्तियों में सर्वोच्च है। क्योंकि यही वह अपेक्षा है, जो परमेश्वर मनुष्य से करता है, और यही परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया जाने वाला कार्य है, इसीलिए इसे 'जीवन की सूक्ति' कहा जाता है। यह कोई ऐसी सूक्ति नहीं है, जिसे किसी चीज में से संक्षिप्त किया गया है, न ही यह किसी महान हस्ती द्वारा कहा गया कोई प्रसिद्ध उद्धरण है। इसके बजाय, यह स्वर्ग और पृथ्वी तथा सभी चीजों के स्वामी का मानवजाति के लिए कथन है; यह मनुष्य द्वारा किया गया कुछ वचनों का सारांश नहीं है, बल्कि परमेश्वर का अंतर्निहित जीवन है। और इसीलिए इसे 'समस्त जीवन की सूक्तियों में उच्चतम' कहा जाता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो परमेश्वर को और उसके कार्य को जानते हैं, केवल वे ही परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं)।
"परमेश्वर द्वारा जो प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त किया जाता है वह सत्य है। पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता से निकलने वाली कोई भी चीज़ केवल सत्य के अनुरूप होती है, क्योंकि पवित्र आत्मा लोगों को उनके आध्यात्मिक कद के आधार पर प्रबुद्ध करता है और मनुष्य को प्रत्यक्ष रूप से सत्य नहीं बता सकता। इस चीज़ को तुम्हें समझना चाहिए। और जब सत्य के वचनों के आधार पर, लोगों को अंतर्दृष्टि और अनुभव से ज्ञान प्राप्त होता है, तो क्या ऐसी अंतर्दृष्टि और ज्ञान को सत्य में गिना जाएगा? अधिक से अधिक, यह सत्य का एक छोट-सा ज्ञान होता है। पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता वाले वचन परमेश्वर के वचनों को निरूपित नहीं करते, वे सत्य को निरूपित नहीं करते, उनका सत्य से संबंध नहीं होता; वे केवल सत्य का थोड़ा-सा ज्ञान, पवित्र आत्मा की थोड़ी-सी प्रबुद्धता होते हैं। ... प्रत्येक व्यक्ति सत्य का अनुभव करता है, लेकिन हर कोई विभिन्न परिस्थितियों में ऐसा करता है और हर व्यक्ति को कुछ अलग प्राप्त होता है। यदि उनके ज्ञान को एक साथ मिला दिया जाए, तब भी वे एक सत्य को व्यक्त करने में असमर्थ रहेंगे। सत्य इतना गहरा होता है! ऐसा क्यों कहा जाता है कि तुमने जो चीज़ें प्राप्त की हैं वे और तुम्हारा ज्ञान सत्य के प्रतीक नहीं हो सकते? तुम दूसरों के साथ अपने ज्ञान की संगति करते हो, और इसका पूरी तरह अनुभव करने से पहले उन्हें चिंतन करने में केवल दो या तीन दिन लगते हैं। लेकिन लोगों को पूरा जीवनकाल बिताने के बाद भी सत्य का पूरी तरह अनुभव नहीं हो पाता; प्रत्येक व्यक्ति ने जो कुछ अनुभव किया है, यदि उसे एक साथ मिला दिया जाए, तब भी सत्य का अनुभव पूरी तरह नहीं होगा। इसीलिए यह देखा जा सकता है कि सत्य असाधारण रूप से गहरा होता है। सत्य को पूरी तरह से शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। मनुष्य की भाषा में, सत्य मानवजाति का वास्तविक सार है। सत्य का पूरी तरह अनुभव करने में मनुष्य कभी सक्षम नहीं होगा। मनुष्य को सत्य के साथ जीना चाहिए। एक सत्य पूरी मानवजाति के अस्तित्व को कई हज़ार वर्षों तक बनाए रख सकता है।
"सत्य स्वयं परमेश्वर का जीवन है; यह उसके स्वभाव, सार और उसमें निहित हर चीज़ का प्रतिनिधित्व करता है। यदि तुम कहते हो कि थोड़े-से अनुभवों के होने का मतलब सत्य का होना है, तो क्या तुम परमेश्वर के स्वभाव का प्रतिनिधित्व कर सकते हो? तुम्हारे पास कुछ अनुभव हो सकता है, सत्य के किसी निश्चित पहलू या उसके किसी एक पक्ष से संबंधित प्रकाश हो सकता है, लेकिन तुम दूसरों को हमेशा के लिए इसकी आपूर्ति नहीं कर सकते, इसलिए यह जो प्रकाश तुमने प्राप्त किया है, सत्य नहीं है; यह केवल एक मुकाम है जिस तक लोग पहुँच सकते हैं। यह महज़ उचित अनुभव और उचित समझ है, कुछ वास्तविक अनुभव और सत्य का ज्ञान है, जो इंसान में होना चाहिए। यह रोशनी, प्रबोधन और अनुभवजन्य समझ सत्य का स्थान कभी नहीं ले सकते; अगर सभी लोग इस सत्य का अनुभव कर भी लेते और अपनी समस्त अनुभवजन्य समझ को एक साथ जोड़ लेते, तो भी वे उस एक सत्य के बराबर नहीं हो सकते थे। ... इससे मेरा क्या आशय है? दूसरे शब्दों में, मनुष्य का जीवन हमेशा मनुष्य का जीवन होगा, भले ही तुम्हारी समझ सत्य, परमेश्वर के इरादों, उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप हो, लेकिन यह कभी भी सत्य का एक विकल्प नहीं बन पाएगी। यह कहने का अर्थ कि लोगों ने सत्य हासिल कर लिया है, यह है कि उनके पास कुछ वास्तविकता है, और उन्होंने सत्य की कुछ समझ हासिल कर ली है, परमेश्वर के वचनों में कुछ वास्तविक प्रवेश पा लिया है, उन्हें परमेश्वर के वचनों का कुछ वास्तविक अनुभव हो गया है, और परमेश्वर पर अपने विश्वास में वे सही मार्ग पर हैं। किसी व्यक्ति के जीवन भर के अनुभव के लिए परमेश्वर से केवल एक ही बयान पर्याप्त है; लोग कई जीवनकाल या कई हज़ार वर्षों तक का अनुभव करने के बाद भी पूरी तरह और अच्छी तरह से मात्र एक सत्य का अनुभव भी नहीं कर पाएंगे" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'क्या तुम जानते हो कि सत्य वास्तव में क्या है?')।
जहाँ तक मनुष्य के सत्यानुरूप शब्दों व परमेश्वर के वचनों के मध्य अंतर की बात है, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन बहुत ही स्पष्ट विवरण देते हैं: सत्य परमेश्वर से आता है, वह मसीह के माध्यम से व्यक्त किया जाता है, और वह पवित्रात्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यंजना भी है, तथा जो कुछ भी परमेश्वर कहते हैं वह सत्य है। सत्य स्वयं परमेश्वर का संपूर्ण जीवन है, वह परमेश्वर के धर्मी स्वभाव की अभिव्यक्ति है, वह परमेश्वर के अस्तित्व का प्रकाशन है, वह सकारात्मक बातों की वास्तविकता है, तथा वह परमेश्वर के अपने जीवन-सार का द्योतक है। तब भी, परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त लोग तथा ऐसे जन जिनके पास पवित्रात्मा का कार्य होता है, वे ऐसे शब्द कह सकते हैं जो सत्यानुरूप हों। यह पवित्रात्मा की प्रबुद्धता तथा रोशनी से, और साथ ही यह मनुष्य द्वारा परमेश्वर के वचनों में निहित सत्य के अनुभव व उसकी समझ से आता है। वे वचन जो सत्यानुरूप होते हैं, वे मनुष्य के अनुभव व समझ को दर्शाते हैं। वे सत्य की वास्तविकता हैं जिसमें मनुष्य ने प्रवेश पा लिया है, तथा वे परमेश्वर के कार्य का परिणाम हैं। चाहे मनुष्यगण को सत्य की कितनी ही गहरी या उथली समझ क्यों न हो, अथवा चाहे कितना ही भली-भाँति वे परमेश्वर को क्यों न जानते हों, मानवजाति का कहा हुआ सब कुछ उनके मानवीय जीवन के सार को प्रकट करता है। क्योंकि मनुष्य द्वारा बोले गए सत्यानुरूप कथन, सत्य के सार की गहराई से इतने दूर हैं कि, मनुष्य जो कहता है उसे सत्य का नाम नहीं दिया जा सकता। सत्यानुरूप शब्दों तथा वास्तविक सत्य के मध्य अंतर्निहित और सारभूत भेद हैं। परमेश्वर के वचन सत्य हैं, वे परमेश्वर के जीवन का सार हैं, इसलिए परमेश्वर के वचन अक्षुण्ण व अपरिवर्ती हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसा प्रभु यीशु ने कहा था: "आकाश और पृथ्वी टल जाएँगे, परन्तु मेरी बातें कभी न टलेंगी" (लूका 21:33)। सर्वशक्तिमान परमेश्वर भी कहते हैं, "मेरे वचन सदा-सर्वदा अपरिवर्तनीय सत्य हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम लोगों को अपने कर्मों पर विचार करना चाहिए)। यह बहुत कुछ व्यवस्था के युग में घोषित की गई दस आज्ञाओं के समान ही है: हालाँकि सहस्त्रों वर्षों बीत चुके हैं, उसके बाद भी वर्तमान काल में मानवजाति उनका पालन करती है। यह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, वे सकारात्मक बातों की वास्तविकता हैं, वे समय के परीक्षणों का सामना कर सकते हैं, तथा वे शाश्वतता में आद्योपान्त स्थिर रहेंगे। परन्तु, मनुष्य के कथन चूंकि सत्य नहीं हैं, इस कारणवश वे चिरकाल के लिए बने नहीं रहेंगे। मानव इतिहास के प्रवाह से हम यह देख सकते हैं कि, चाहे वह वैज्ञानिक शोध व व्यवस्था-विधान का क्षेत्र हो, अथवा समाजशास्त्रीय मतों का, कुछ ही समय में मनुष्य के कथन या तो नष्ट हो जाते हैं अथवा उनका त्याग कर दिया जाता है, या वे पलक झपकते ही पुराने पड़ जाते हैं। मनुष्य जो कथन कहता है वे भले ही सत्यानुरूप हों, वे हमारे लिए सहायक मात्र हो सकते हैं, वे हमें प्रावधान, और अस्थायी रूप से सहारा प्रदान कर सकते हैं। वे हमारा जीवन बनने में समर्थ नहीं। मनुष्य के कथन मानव का जीवन नहीं बन सकते हैं, हम ऐसा क्यों कहते हैं? क्योंकि भले ही मनुष्य के कथन सत्यानुरूप हों, लेकिन वे केवल मनुष्य द्वारा परमेश्वर के वचनों का अनुभव व उनकी समझ मात्र हैं, तथा वे सत्य के सार से बहुत दूर हैं एवं किसी भी तरह सत्य को नहीं दर्शा सकते, ना ही वे मनुष्य का जीवन बनने का वैसा परिणाम ला सकते हैं जैसा सत्य लाता है; वे हमें केवल कुछ समय के लिए सहायता दे सकते एवं आत्मिक शिक्षा तथा सहारा प्रदान कर सकते हैं, इसीलिए मनुष्य के सत्यानुरूप कथन सत्य नहीं हैं, और वे मनुष्य का जीवन बनने योग्य नहीं। तो ऐसा कैसे है कि केवल परमेश्वर के वचन ही मनुष्य का जीवन बनने योग्य हैं? क्योंकि परमेश्वर के वचन सत्य हैं एवं सकारात्मक बातों की वास्तविकता हैं, हम मनुष्य कभी भी उसे पूरी तरह अनुभव नहीं कर सकते, और हर सत्य मनुष्य के लिए अक्षय है। भले ही हम नित्यता का भी अनुभव कर लें, तब भी हम यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकते कि हम सत्य धारण करते हैं या हमने सत्य को पूरी तरह प्राप्त कर लिया है। यह एक तथ्य है। इसके अतिरिक्त, सत्य मानवजाति को शुद्ध कर सकता है, बचा सकता है, और पूर्ण कर सकता है। जीवन जीने के लिए सत्य पर निर्भर रहने से, हम सच्चे मनुष्य की सदृशता में जीवन व्यतीत सकते हैं, सत्य की छवि को जी सकते हैं, इसके फलस्वरूप परमेश्वर को जान सकते हैं, उनकी अधीनता स्वीकार कर सकते हैं, उनकी आराधना कर सकते हैंव उनके अनुकूल हो सकते हैं, जो कि मानवजाति के सृजन के समय परमेश्वर का मूल-अभिप्राय था। ठीक वैसा ही जैसा बाइबल कहती है, "हम मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार अपनी समानता में बनाएँ" (उत्पत्ति 1:26)। मनुष्य के सृजन का परमेश्वर का प्रयोजन मनुष्य को केवल एक स्थूल-काया प्रदान करना नहीं था, वरन् प्रधानत: मानवजाति को एक नया जीवन प्रदान करना था। यह नया जीवन ही परमेश्वर का वचन है, जो कि सत्य है। जब सत्य हमारा जीवन बन जाता है, जब वह हमारे जीवन की वास्तविकता बन जाता है, अर्थात् जब हम सत्य की छवि को जीते हैं, तथा एक सच्चे मनुष्य की सदृशता में जीते हैं, तो हम मानवजाति के सृजन हेतु परमेश्वर के आशय को पूरा कर देंगे। इसलिए, हम कहते हैं कि केवल परमेश्वर के वचन और एकमात्र सत्य ही मनुष्य का अनन्त जीवन बन सकता है। हालाँकि परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त लोगों के पास परमेश्वर के वचनों का कुछ अनुभव व समझ हो सकती है, तथा वे ऐसी कुछ बातें कह सकते हैं जो सत्यानुरूप हों, तब भी यह पवित्रात्मा के कार्य का परिणाम है। यह परमेश्वर द्वारा मनुष्य को पूर्ण बनाना और परमेश्वर का उद्धार है। परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त लोगों के सत्यानुरूप कथन अथवा परमेश्वर की उनकी सही समझ का अर्थ यह नहीं होता कि वे सत्य केसार को धारण करते हैं, न ही यह परमेश्वर के जीवन से युक्त होने का द्योतक है। उसके बजाय, यह मात्र ऐसा दिखलाता है कि उन्होंने सत्य पा लिया है और सत्य उनके जीवन की वास्तविकता बन गया है। यह इसलिए है क्योंकि मनुष्य सत्य नहीं है, और यह कहने की धृष्टता नहीं करेगा कि वह सत्य को धारण करता है। अतएव, चाहे मनुष्य के शब्द कितने ही सत्यानुरूप हों, या वे हमें कितनी ही आध्यात्मिक शिक्षा देने में समर्थ हों, वे सत्य नहीं कहे जा सकते, और इसके अतिरिक्त, वे परमेश्वर के वचन नहीं हैं।
— 'राज्य के सुसमाचार पर विशिष्ट प्रश्नोत्तर' से उद्धृत
अगर हम ये जानना चाहते हैं कि परमेश्वर जिन लोगों का उपयोग करते हैं, उन लोगों के सत्य के अनुरूप शब्द आखिर सत्य क्यों नहीं है, तो सबसे पहले हमें ये समझना होगा कि दरअसल "सत्य" क्या है। इतिहास गवाह है कि सही मायने में सत्य को कोई नहीं समझ पाया। जब प्रभु यीशु अनुग्रह के युग में आए तो उन्होंने कहा, "मार्ग और सत्य और जीवन मैं ही हूँ" (यूहन्ना 14:6)। आज भी "सत्य" का वास्तविक अर्थ कोई नहीं समझ पाया। जब अंत के दिनों के मसीह-सर्वशक्तिमान परमेश्वर आते हैं केवल तभी इंसान के सामने "सत्य" के सारे रहस्य प्रकट होते हैं।
आइये देखें सर्वशक्तिमान परमेश्वर इस बारे में क्या कहते हैं: "सत्य मनुष्य के संसार से आता है, किंतु मनुष्य के बीच सत्य मसीह द्वारा लाया जाता है। यह मसीह से, अर्थात् स्वयं परमेश्वर से उत्पन्न होता है, और यह कुछ ऐसा नहीं है जिसमें मनुष्य समर्थ हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)।
"सत्य जीवन की सर्वाधिक वास्तविक सूक्ति है, और मानवजाति के बीच इस तरह की सूक्तियों में सर्वोच्च है। क्योंकि यही वह अपेक्षा है, जो परमेश्वर मनुष्य से करता है, और यही परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया जाने वाला कार्य है, इसीलिए इसे 'जीवन की सूक्ति' कहा जाता है। यह कोई ऐसी सूक्ति नहीं है, जिसे किसी चीज में से संक्षिप्त किया गया है, न ही यह किसी महान हस्ती द्वारा कहा गया कोई प्रसिद्ध उद्धरण है। इसके बजाय, यह स्वर्ग और पृथ्वी तथा सभी चीजों के स्वामी का मानवजाति के लिए कथन है; यह मनुष्य द्वारा किया गया कुछ वचनों का सारांश नहीं है, बल्कि परमेश्वर का अंतर्निहित जीवन है। और इसीलिए इसे 'समस्त जीवन की सूक्तियों में उच्चतम' कहा जाता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो परमेश्वर को और उसके कार्य को जानते हैं, केवल वे ही परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं)।
"मनुष्य की भाषा में, सत्य मानवजाति का वास्तविक सार है। सत्य का पूरी तरह अनुभव करने में मनुष्य कभी सक्षम नहीं होगा। मनुष्य को सत्य के साथ जीना चाहिए। एक सत्य पूरी मानवजाति के अस्तित्व को कई हज़ार वर्षों तक बनाए रख सकता है।
"सत्य स्वयं परमेश्वर का जीवन है; यह उसके स्वभाव, सार और उसमें निहित हर चीज़ का प्रतिनिधित्व करता है" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'क्या तुम जानते हो कि सत्य वास्तव में क्या है?')।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से हम समझ सकते हैं: सत्य परमेश्वर से और मसीह की अभिव्यक्ति से आता है। यानी, परमेश्वर जो वचन बोलते हैं वे सभी सत्य हैं। क्योंकि सत्य परमेश्वर के जीवन का सार है, परमेश्वर का स्वभाव है, और जो वे हैं, वो है और सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। सत्य अनन्त है और कभी न बदलने वाला है। परमेश्वर के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है। वे इंसान को शुद्ध और पूर्ण कर सकते हैं, बचा सकते हैं, इंसान का अनंत जीवन हो सकते हैं। तो, परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी वचन सत्य हैं। परमेश्वर का कार्य, प्रकटन और वे जो हुक्म देते हैं, सब सत्य है। परमेश्वर इंसान के लिये जो विधि-आदेश बनाते हैं, जिसका हुक्म देते हैं और सब कुछ जिसकी वे उससे उम्मीद करते हैं और उसे जीने के लिए जो आदेश देते हैं वो सब सत्य है, सभी सकारात्मक बातों की वास्तविकता। और इसलिए, परमेश्वर के बोले एक-एक वचन में सत्य होता है। अपने कार्य के हर चरण में, परमेश्वर ने बहुत से सत्य व्यक्त किये हैं। इन्हीं सत्य में वो अनमोल जीवन छिपा है जो परमेश्वर हमें देते हैं।
परमेश्वर अपने दोनों देहधारण के कार्य के दौरान जो कुछ व्यक्त करते हैं वो सत्य है। ये अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु के वचनों की तरह है: उनके वचनों के ज़रिये इंसान परमेश्वर के स्वभाव, उनके प्यार और पवित्र सार को देखता था। ये सभी अनमोल सत्य हैं जिनसे मानवजाति परमेश्वर को जान सकती है। मनुष्य के लिए प्रभु यीशु का प्यार, दया, सहनशीलता, और क्षमा, साथ ही मनुष्य से उनकी ये अपेक्षा कि वो अपने पूरे दिल, आत्मा और मन से परमेश्वर से प्यार करे, अपने पड़ोसियों से उसी तरह प्यार करे जैसे वो खुद से करता है, दुनिया की रोशनी और धरती का नमक बने, तो ये सभी सकारात्मक चीजें हैं। वे सत्य हैं। ये जीवन की वास्तविकता भी हैं जो मनुष्य में होनी चाहिए। अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर आ गए हैं और वे इंसान का न्याय करने, उसे शुद्ध और पूर्ण करने के सारे सत्य व्यक्त करते हैं। जीवन की वास्तविकता के ये सत्य राज्य के युग में इंसान के अंदर होने ही चाहिये। अंत के दिनों के मसीह इंसान के सामने परमेश्वर के धार्मिक, प्रतापी, क्रोधी और अपराध को न सहने वाले स्वभाव को प्रकट करते हैं। वे इंसान को बचाने के लिए परमेश्वर की प्रबंधन योजना के रहस्यों को, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के रहस्य को, उनके सार और कार्य के हर चरण के अंदरूनी सत्य को, और उनके देहधारण के रहस्य को, अंत के दिनों में परमेश्वर कैसे न्याय का कार्य करते हैं उसको, और मसीह का राज्य क्या है, इसे प्रकट करते हैं। वे बताते हैं कि कैसे परमेश्वर हर तरह के इंसान के अंत का खुलासा करते हैं, और कैसे अच्छे को इनाम और बुरे को सज़ा देते हैं। वे परमेश्वर की धार्मिकता के मायने, उनकी पवित्रता के मायने और परमेश्वर के स्वभाव के प्रतीकात्मक मायने, उनकी खुशी, क्रोध, दुख और आनंद के मायने बताते हैं। वे बताते हैं कि धार्मिकता क्या है और दुष्टता क्या है, सकारात्मक क्या है और नकारात्मक क्या है, और शैतान द्वारा इंसान के भ्रष्टाचार का सार और सच क्या है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर दिखाते हैं कि कैसे परमेश्वर का भय मानें और बुराई से कैसे दूर रहें, सच्चा जीवन क्या है और सार्थक जीवन कैसे जियें वगैरह-वगैरह। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने इंसान के सामने ये सारे सत्य और रहस्य उजागर किये हैं ताकि वे इन्हें जानकर समझ सकें, वे परमेश्वर का भय मान सकें और बुराई से दूर रहें, परमेश्वर की आज्ञा मानें और उनकी आराधना करें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का सत्य अनंत जीवन का मार्ग है जो इन्सान के अंदर होना चाहिए। जो लोग परमेश्वर के सभी सत्यों को अंगीकार कर उनके अनुसार जीते हैं, वे अनंत जीवन पाएंगे। और जो लोग किसी भी सत्य को स्वीकार नहीं करते, वे अवश्य नष्ट हो जाएंगे। तो, अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर जो सत्य व्यक्त करते हैं वे एक युग को समाप्त कर अंत के दिनों में नये युग का आरंभ करते हैं। परमेश्वर उन लोगों का उपयोग करते हैं जिन्हें वे बचाते और पूर्ण करते हैं। परमेश्वर के कार्य में उनका दायित्व परमेश्वर के कार्य में सहयोग करना और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुवाई करना है। और इसलिए, वे जो भी शब्द बोलते हैं अगर वे सत्य के अनुरूप हैं तो ये पवित्र आत्मा के कार्य का फल है। हालाँकि ये शब्द लोगों के लिए फायदेमंद हैं, लेकिन हम इन्हें सत्य नहीं कह सकते, इन्हें परमेश्वर के वचन नहीं मान सकते क्योंकि इंसान के शब्द केवल उसके ज्ञान और सत्य के अनुभव से आते हैं, और सिर्फ़ इंसानी नज़रिया, विचार और समझ दिखाता है, उसमें इंसानी अशुद्धियों की मिलावट होती है। इसके अलावा, सत्य के बारे में इंसान का ज्ञान और अनुभव भी सीमित है। वो सत्य की वास्तविकता में कितना भी प्रवेश कर ले, फिर भी ये नहीं कहा जा सकता कि उसने सत्य के सार को अपना लिया है, न ही ये कहा जा सकता है कि वो सत्य को जी रहा है। तो अगर उसने स्वयं द्वारा जिए जा चुके सत्य की सीमित वास्तविकता व्यक्त कर भी दी, तो भी उसके शब्द केवल सत्य के अनुरूप ही होंगे। उन्हें सत्य के बराबर नहीं रखा जाना चाहिए। केवल देहधारी परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। कहने का अर्थ है केवल परमेश्वर में ही सत्य का सार होता है, और वे ही सत्य हैं। हमने परमेश्वर में कितने ही बरस विश्वास किया हो, हम उनके सामने हमेशा शिशु जैसे ही रहेंगे। हम कभी भी परमेश्वर के रूप को नहीं जी सकते। और इसलिए, उन लोगों के शब्द जिनका उपयोग परमेश्वर करते हैं या जिन लोगों में पवित्र आत्मा का कार्य है, उन्हें केवल ऐसे शब्दों के रूप में लिया जा सकता है जो सत्य के अनुरूप हैं। हम उन्हें सत्य नहीं मान सकते। इस सच को नकारा नहीं जा सकता। जब हम इंसान के शब्दों को सत्य कहते हैं, तो हम परमेश्वर का विरोध और ईश-निंदा करते हैं!
— 'राज्य के सुसमाचार पर विशिष्ट प्रश्नोत्तर' से उद्धृत
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?