प्रश्न 6: हम सब-कुछ त्याग दें, प्रभु के सुसमाचार का प्रचार करें और कलीसिया की देखभाल करें। इस तरह के कामों से हम स्वर्ग के पिता की इच्छा को पूरा कर पाएंगे। इस तरह से अभ्यास करना क्या कोई गलत है?
उत्तर: प्रभु के सुसमाचार को फैलाना और उनके लिये कार्य करना ही स्वर्ग के पिता की इच्छा को पूरा करना नहीं होता। स्वर्ग के पिता की इच्छा को पूरा करने के लिये ज़रूरी है कि प्रभु के रास्ते पर चला जाए और उनके आदेशों का पालन किया जाए। इंसान अपना फ़र्ज़ उसी तरह निभाये जैसा प्रभु चाहते हैं। जैसा कि प्रभु यीशु ने कहा है, "तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख" (मत्ती 22:37-39)। जहां तक स्वर्ग के पिता की इच्छा को पूरा करने की बात है, तो उसके लिये सबसे ज़रूरी है कि प्रभु यीशु के आज के वचनों का पालन किया जाए। ये सबसे बुनियादी बात है। अगर इंसान प्रभु यीशु के वचनों का पालन न करे और बाइबल में दिये इंसान के वचनों का पालन करे, तो ये स्वर्ग के पिता की इच्छा को पूरा करना नहीं हुआ। स्वर्ग के पिता की इच्छा को पूरा करने का मतलब है परमेश्वर के वचनों का पालन करना। लोग स्वयं प्रभु यीशु की स्तुति करने और उनकी गवाही देने की बजाय, बाइबल में प्रेरितों के दिये वचनों की स्तुति करते हैं। ऐसा करके वो परमेश्वर की इच्छा को पूरा नहीं कर रहे, बल्कि उनका विरोध कर रहे हैं। जो लोग परमेश्वर की इच्छा को पूरा कर रहे हैं, चाहे परमेश्वर कुछ भी कहें या करें, वो उनका पालन कर सकते हैं, उनके वचनों पर अमल कर सकते हैं और उनके कार्य को स्वीकार कर सकते हैं और उनकी गवाही दे सकते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के खिलाफ न तो विद्रोह करते हैं, न विरोध करते हैं। परमेश्वर ऐसे ही लोगों का गुणगान करते हैं। मिसाल के तौर पर अब्राहम को ही लो, उसने परमेश्वर के वचनों का पालन किया। उसने अपनी इच्छा से अपना प्रिय पुत्र परमेश्वर को अर्पित कर दिया। उसकी परम निष्ठा के लिये परमेश्वर ने उसे इनाम दिया। उनकी आने वाली पीढ़ियों को महान राष्ट्र बनने का आशीर्वाद दिया। दूसरा उदाहरण अय्यूब का है। वह परमेश्वर की आराधना करता था और बुराई से दूर रहता था। इम्तहान की घड़ी में, जब उसकी दौलत और संतानें छिन गईं तो, इसके लिये उसने परमेश्वर की बजाय ख़ुद को दोषी ठहराया। वह परमेश्वर यहोवा का पवित्र नाम जपता रहा। तो परमेश्वर की नज़र में वह आदर्श इंसान था। पतरस इसकी एक और मिसाल है। वह जीवनभर प्रभु यीशु का अनुसरण करता रहा, सत्य के लिये तड़पता रहा और उसे पाने के लिये लगा रहा। प्रभु का आदेश मिलने के बाद, उनकी ज़रूरतों के अनुसार, उसने कलीसिया की देखभाल की। और फिर आखिरी दम तक परमेश्वर को मानता रहा, उन्हें सबसे ज़्यादा प्यार करता रहा। वे सब परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते थे और उन्हें पूजते थे। ऐसे ही लोग स्वर्ग के पिता की इच्छा को सही मायनों में पूरा करते हैं। अगर तुम कहते हो कि प्रभु के लिये मेहनत करना स्वर्ग के पिता की इच्छा को पूरा करना है, तो जब फरीसियों ने दूर-दूर तक, समंदर पार तक सुसमाचार को फैलाया और कड़ी मेहनत की, तो फिर प्रभु यीशु ने उनका तिरस्कार क्यों किया, उन्हें शाप क्यों दिया? क्योंकि उन्होंने परमेश्वर को माना ज़रूर, लेकिन उनके मार्ग का अनुसरण नहीं किया। जब प्रभु यीशु नया कार्य करने आए, तो फरीसियों ने उसे स्वीकार नहीं किया, बल्कि सारे यहूदियों के साथ मिलकर प्रभु यीशु की निंदा की और उनका विरोध किया। बल्कि उन्होंने उनकी झूठी गवाही भी दी। उनका हर कार्य प्रभु के मार्ग में धोखा था; उन्होंने प्रभु यीशु को दुश्मन मान लिया। हालाँकि ये लोग ऊपरी तौर पर बहुत कष्ट सह रहे थे, मेहनत कर रहे थे, लेकिन वे इसे परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना कैसे कह सकते हैं?
"मर्मभेदी यादें" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश