110 ईश्वर के कार्य के तीन चरणों की अंदरूनी कहानी
ईश्वर के कार्य के तीन चरणों में से, पहला चरण पवित्रात्मा ने किया देह ने नहीं,
और तीनों चरणों का अंतिम कार्य देहधारी ईश्वर करे, पवित्रात्मा नहीं।
1
छुटकारे के कार्य का मध्य चरण भी ईश्वर ने देह में किया।
प्रबंधन कार्य में सबसे ज़रूरी है शैतान के प्रभाव से इंसान का उद्धार।
मुख्य कार्य है भ्रष्ट इंसान पर पूरी विजय,
और इस तरह ईश्वर के प्रति इंसान की श्रद्धा की बहाली,
जो उसे सामान्य जीवन की ओर ले जाए।
ये मुख्य कार्य है, प्रबंधन कार्य का मूल।
ईश्वर के कार्य के हर चरण का एक अर्थ और आधार होता है।
वे निराधार कल्पनाएँ नहीं होतीं, न ही वे किए जाते मनमाने ढंग से।
उनमें एक विशेष बुद्धि होती है। ईश्वर के समस्त कार्य के पीछे यही सच्चाई है।
2
अपने कार्य के दो चरण ईश्वर देह में करता,
क्योंकि वे उसके प्रबंधन कार्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।
इन चरणों के बिना सारा कार्य रुक जाता।
इंसान को बचाने का काम खोखली बात बन जाता।
ये कार्य महत्वपूर्ण है या नहीं, ये है इंसान की ज़रूरतों और भ्रष्टता पर आधारित,
और इस पर कि शैतान कितना अवज्ञाकारी है,
और कार्य में कितना है विघ्नकारी।
कार्य के लिए सही, सक्षम व्यक्ति
कार्य की प्रकृति और महत्व के आधार पर चुना जाता है l
ईश्वर के कार्य के हर चरण का एक अर्थ और आधार होता है।
वे निराधार कल्पनाएँ नहीं होतीं, न ही वे किए जाते मनमाने ढंग से।
उनमें एक विशेष बुद्धि होती है। ईश्वर के समस्त कार्य के पीछे यही सच्चाई है।
3
पवित्रात्मा का कार्य हो या हो देहधारी ईश्वर का कार्य,
सबमें निहित है उसके कार्य की योजना।
वो कभी निराधार कार्य नहीं करता। वो कभी निरर्थक कार्य नहीं करता।
जब पवित्रात्मा सीधे कार्य करे, वो उसके लक्ष्य के अनुसार ही होता।
जब वो इंसान होता है, तो इसमें उसका प्रयोजन और भी ज्यादा होता है।
वरना वो इतनी तत्परता से अपनी पहचान क्यों बदलेगा?
क्यों बनना चाहेगा तुच्छ और सताया हुआ?
ईश्वर के कार्य के हर चरण का एक अर्थ और आधार होता है।
वे निराधार कल्पनाएँ नहीं होतीं, न ही वे किए जाते मनमाने ढंग से।
उनमें एक विशेष बुद्धि होती है। ईश्वर के समस्त कार्य के पीछे यही सच्चाई है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है से रूपांतरित