78. धूर्त बनने से मुझे कैसे नुकसान हुआ

एक बार जब हमने अपने काम का सार प्रस्तुत किया, तो एक कलीसिया अगुआ ने कहा कि उस महीने की शुरुआत में हमारा सुसमाचार कार्य बहुत अच्छा नहीं रहा, उसने मुझे कारण बताने को कहा। तब तक मुझे अंदाजा नहीं था कि हाल ही में हमारी उत्पादकता घट गई है। मैं बैठक के तुरंत बाद इसका पता लगाने गई, तो पता चला कि हमारी उत्पादकता पिछले महीने की तुलना में आधी रह गई है। मैं बेचैन हो गई। अगर हमारी उत्पादकता ऐसे ही गिरती रही तो मुझे, बर्खास्त तो नहीं कर दिया जाएगा? इसलिए, मैंने तुरंत कारण तलाशना शुरू दिया ताकि उत्पादकता वापस पटरी पर ला सकूं। मैंने एक-एक कर भाई-बहनों से बात की, पूछा उन्हें काम में कोई समस्या तो नहीं आ रही है। सभाओं में भी मैंने विशेष रूप से इन्हीं मुद्दों पर संगति की और जो अच्छा कर रहे थे उनसे अपने अनुभव बताने को कहा। अगले कुछ ही दिनों में हमने बेहतर करना शुरू कर दिया और मुझे थोड़ी तसल्ली हुई। अगर ऐसे ही काम होता रहा, तो हम पिछले महीने के मुकाबले और बेहतर कर पाएँगे। मुझे लगा अगर मैं यही गति बनाए रखूँ, कोई बुराई या गड़बड़ी न करूँ, तो कलीसिया में रह सकती हूँ, मुझे त्यागा नहीं जाएगा। इसके बाद मेरा तनाव कम होने लगा। महीने के अंत तक, मैंने देखा कि हमारे काम के परिणाम पिछले महीने जैसे ही थे। मैंने सोचा, अगर हमने उस महीने अच्छा किया, तो हमें अगले महीने बेहतर करना होगा ताकि लगे कि मैं प्रगति कर रही हूँ, यानी मुझे और भी अधिक मेहनत करनी होगी। लेकिन खुद पर इतना दबाव क्यों डालूँ? चूंकि हमने इस महीने अच्छा किया है, तो मुझे बर्खास्त कर त्यागा नहीं जाएगा। यह सोचकर मुझे सुकून मिला और लगा जैसे बोझ उतर गया है। मैं लापरवाही से काम करने लगी और आत्मसंतुष्ट हो गई, मैंने बारीकी से काम का जायजा लेना बंद कर दिया। जब भाई-बहन अपनी समस्याओं का जिक्र करते, तो मैं उनके समाधान के लिए संगति न करती। जब कभी पता चलता कि कुछ लोग अपने काम में सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं, तो मैं सोचती कि कुछ लोग ऐसी हरकतें करते हैं और इससे हमारी कुल प्रभावशीलता पर असर नहीं पड़ता, तो कोई बात नहीं। कभी-कभी लोग काम में आलस दिखाते, उनमें तत्परता का भाव न होता। मुझे लगता कि इस समस्या पर ध्यान देना चाहिए, लेकिन यह सोचकर कि इस महीने हमारे परिणाम अच्छे हैं, तो उस ढिलाई को मैं सामान्य मान लेती और अनदेखा कर देती। उस अवस्था में रहते हुए, मुझे आध्यात्मिक अंधकार का अनुभव हुआ। मुझे परमेश्वर के वचनों से न तो कोई प्रबोधन मिल रहा था, न मैं अपने काम में कोई समस्या ढूंढ पा रही थी और जब हम अपने काम का सार प्रस्तुत करते, तो मुझे नींद आने लगती। मुझे घबराहट तब हुई जब हमारी उत्पादकता घटने लगी, मैंने झटपट भाई-बहनों से पता किया कि गड़बड़ कहाँ हो रही है।

एक बार सभा के दौरान, एक बहन ने कहा कि कुछ लोग जब ठीक से काम नहीं करते, तो उन्हें बर्खास्तगी का डर सताने लगता है, तब वे ज्यादा मेहनत करने लगते हैं। फिर जब उन्हें अच्छे परिणाम मिलने लगते हैं, तो वे आराम के लालची हो जाते हैं और जिम्मेदारी नहीं उठाते। उसने कहा कि यह धूर्तता है, कपट की निशानी है। इस बात ने मेरे अंदर हलचल मचा दी। मैं आत्मचिंतन करने लगी : जब हमारी उत्पादकता में गिरावट आई, तो हटाए जाने या बर्खास्त होने के डर से मैं ज्यादा मेहनत करने लगी। तब मैं बेहतर परिणाम चाहती थी। जब मुझे बेहतर परिणाम मिलने लगे या वही औसत रहा, तो मुझे आराम की लालसा हुई और काम की तात्कालिकता महसूस नहीं हुई। मैंने सोचा बर्खास्तगी से बचने के लिए हर महीने परिणामों की एकरूपता काफी है। क्या यह धूर्त और गैर-भरोसेमंद होना नहीं था? मुझे लगा कि उस तरह के हालत में मैं वही हरकत तो कर रही थी। मैं उसी तरह पेश आ रही थी। उस वक्त मैं थोड़ा डर गई।

मैंने भक्ति के दौरान परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "वर्तमान में कर्तव्य निभाने के बहुत ज्यादा अवसर नहीं हैं, इसलिए जब भी संभव हो, तुम्हें उन्हें लपक लेना चाहिए। जब कोई कर्तव्य सामने होता है, तो यही समय होता है जब तुम्हें परिश्रम करना चाहिए; यही समय होता है जब तुम्हें खुद को अर्पित करना चाहिए और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहिए, और यही समय होता है जब तुमसे कीमत चुकाने की अपेक्षा की जाती है। कोई कमी मत छोड़ो, कोई षड्यंत्र मत करो, कोई कसर बाकी मत रखो, या अपने लिए बचने का कोई रास्ता मत छोड़ो। यदि तुमने कोई कसर छोड़ी, या तुम मतलबी, मक्कार या विश्वासघाती बनते हो, तो तुम निश्चित ही एक ख़राब काम करोगे। मान लो, तुम कहते हो, 'किसी ने मुझे चालाकी से काम करते हुए नहीं देखा। क्या बात है!' यह किस तरह की सोच है? क्या तुम्हें लगता है कि तुमने लोगों की आँखों में धूल झोंक दी, और परमेश्वर की आँखों में भी? हालांकि, वास्तविकता में, तुमने जो किया वो परमेश्वर जानता है या नहीं? वह जानता है। वास्तव में, जो कोई भी तुमसे कुछ समय तक बातचीत करेगा, वह तुम्हारी भ्रष्टता और नीचता के बारे में जान जाएगा, और भले ही वह ऐसा सीधे तौर पर न कहे, लेकिन तुम्हारी पीठ-पीछे वह अपने दिल में तुम्हारा आकलन करेगा। ऐसे कई लोग रहे हैं, जिन्हें इसलिए उजागर करके बाहर निकाल दिया गया, क्योंकि बहुत सारे दूसरे लोग उन्हें समझ गए थे। जब उन सबने उनका सार देख लिया, तो उन्होंने उनकी असलियत उजागर कर दी और उन्हें बाहर निकाल दिया गया। इसलिए, लोग चाहे सत्य का अनुसरण करें या न करें, उन्हें अपनी क्षमता के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए; उन्हें व्यावहारिक काम करने में अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। तुममें दोष हो सकते हैं, लेकिन अगर तुम अपना कर्तव्य निभा पाते हो, तो वे तुम्हारे निकाले जाने के स्तर तक नहीं बढ़ेंगे। अगर तुम हमेशा सोचते हो कि तुम ठीक हो, अपने बाहर न निकाले जाने के बारे में निश्चित रहते हो, और अभी भी आत्मचिंतन या खुद को जानने की कोशिश नहीं करते, और तुम अपने उचित कार्यों को अनदेखा करते हो, हमेशा लापरवाह और असावधान रहते हो, तो जब तुम्हें लेकर परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सहनशीलता खत्म हो जाएगी, तो वे तुम्हारी असलियत उजागर कर देंगे, और इस बात की पूरी संभावना है कि तुम्हें निकाल दिया जाएगा। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सभी ने तुम्हारी असलियत देख ली है और तुमने अपनी गरिमा और निष्ठा खो दी है। अगर कोई व्यक्ति तुम पर भरोसा नहीं करता, तो क्या परमेश्वर तुम पर भरोसा कर सकता है? परमेश्वर मनुष्य का अंतस्तल देखता है : वह ऐसे व्यक्ति पर बिलकुल भी भरोसा नहीं कर सकता" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन कहते हैं कि लोगों का रवैया ऐसा हो कि वे पूरे मन से अपना कर्तव्य निभाएँ, कीमत चुकाएँ और अपना सर्वस्व दें। अगर वे थोड़ी अधिक कीमत चुकाकर अच्छे परिणाम प्राप्त कर सकते हैं लेकिन सुस्ती दिखाते हैं, अपने काम में थोड़ा-सा हासिल करके ही संतुष्ट हो जाते हैं, तो यह परमेश्वर के साथ कपट और धूर्तता है। अपने कर्तव्य के प्रति मेरा भी यही रवैया था, मैं बस उतना ही काम करके संतुष्ट थी जिससे बर्खास्त होने की नौबत न आए। मैं भाई-बहनों की समस्याएँ और कठिनाइयाँ हल करने के तरीके नहीं तलाशती थी, बल्कि सारांश प्रस्तुत करते समय लापरवाही दिखाती थी, जब कभी मैं लोगों को काम में सिद्धांतों के विरुद्ध जाते और आलस करते देखती, तो सोचती अगर इससे हमारी कुल उपलब्धियाँ प्रभावित नहीं होतीं, तो क्या फर्क पड़ता है। मैं आंखें मूंदे रहती। जाहिर है, पूरी लगन से काम करने और थोड़ी अधिक कीमत चुकाने से हमारे परिणाम सुधर सकते थे, लेकिन मैं थकना या तनावग्रस्त होना नहीं चाहती थी, इसलिए मैं चालबाजी करती थी। काम करते समय, मेरे मन में परमेश्वर को धोखा देने के लिए तुच्छ कपट और षडयंत्र चलता रहता था। वह वाकई कपट था! जब लोगों को काम सौंपने की बात आती है, तो हर किसी को ईमानदार और भरोसेमंद व्यक्ति की तलाश होती है। भरोसेमंद व्यक्ति को काम सौंपकर लोग निश्चिंत हो जाते हैं। लेकिन अगर तुम ऐसे व्यक्ति को काम सौंप दो जो कपटी हो और चालें चलता हो, तो वह काम पूरा करने के बजाय, बुरा काम करके उसे बर्बाद कर सकता है। ऐसे व्यक्ति में न अंतरात्मा होती है, न विवेक और न ही वह आचरण के बुनियादी मानक पूरे करता है। ऐसे लोग विश्वास योग्य नहीं होते, उन्हें कोई काम नहीं सौंपा जा सकता। मैं भी वैसी ही थी। मैंने कार्य तो स्वीकार कर लिया लेकिन उसे पूरी लगन से नहीं किया। मैं परमेश्वर के साथ चालाकी और धूर्तता कर रही थी। ऐसा लगा मुझे अपने काम में कुछ परिणाम मिल रहे हैं और लोगों को कोई समस्या दिखाई नहीं दी, लेकिन परमेश्वर सब देखता है, अगर मैं लंबे समय तक ढिलाई करती रही, तो आखिर में मुझे उजागर कर त्याग दिया जाएगा। इससे मैं परमेश्वर के वचनों पर विचार करने लगी : "प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, 'क्योंकि जिसके पास है, उसे दिया जाएगा, और उसके पास बहुत हो जाएगा; पर जिसके पास कुछ नहीं है, उससे जो कुछ उसके पास है, वह भी ले लिया जाएगा' (मत्ती 13:12)। इन वचनों का क्या अर्थ है? इनका अर्थ है कि यदि तुम अपना कर्तव्य या कार्य तक पूरा नहीं करते या उनके प्रति समर्पित नहीं होते, तो परमेश्वर वह सब तुमसे ले लेगा जो कभी तुम्हारा था। 'ले लेने' का क्या अर्थ है? एक इंसान के रूप में यह कैसा महसूस होता है? हो सकता है कि तुम उतना प्राप्त करने में भी नाकाम रहो जो तुम अपनी क्षमता और हुनर से कर सकते थे, और तुम कुछ महसूस नहीं करते, और बस एक अविश्वासी जैसे हो। यही है परमेश्वर द्वारा सब ले लिया जाना। यदि तुम अपने कर्तव्य में चूक जाते हो, कोई कीमत नहीं चुकाते, और ईमानदार नहीं हो, तो परमेश्वर वह सब छीन लेगा जो कभी तुम्हारा था, वह तुमसे अपना कर्तव्य करने का अधिकार वापस ले लेगा, वह तुम्हें यह अधिकार नहीं देगा" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, ईमानदार होकर ही व्यक्ति सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर धार्मिक है। मैं अपने कर्तव्य में धूर्तता और ढिलाई बरत रही थी, मुझे जो करना चाहिए था, जो कर सकती थी, वो मैं नहीं कर रही थी, तो परमेश्वर ने मुझसे पहले की हर चीज छीन ली—मुझे वो समस्याएं नहीं मिलीं जिन्हें मैं देख सकती थी, काम के वक्त मैं हमेशा ऊंघती रहती, मेरी उत्पादकता में भी गिरावट आई। परमेश्वर मेरे सामने अपना स्वभाव प्रकट कर रहा था। मैंने प्रार्थना कर परमेश्वर से कहा कि मैं पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ, मुझे मार्गदर्शन दे ताकि खुद को जान सकूँ।

एक बार मैंने सभा में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसका मुझ पर बहुत असर हुआ। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है, लेकिन धोखेबाज और चालाक लोगों से घृणा करता है। अगर तुम एक विश्वासघाती व्यक्ति की तरह कार्य करते हो और छल करने का प्रयास करते हो, तो क्या परमेश्वर तुमसे घृणा नहीं करेगा? क्या परमेश्वर का घर तुम्हें बिना सजा दिए छोड़ देगा? देर-सवेर तुम्हें जवाबदेह ठहराया जाएगा। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और विश्वासघाती लोगों को नापसंद करता है। सभी को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए, और भ्रमित होना और मूर्खतापूर्ण कार्य करना बंद कर देना चाहिए। क्षणिक अज्ञान समझ में आता है, लेकिन सत्य को स्वीकार करने से एकदम इनकार कर देना, बदलने से हठपूर्वक इनकार करना है। ईमानदार लोग जिम्मेदारी ले सकते हैं। वे अपनी लाभ-हानि पर विचार नहीं करते, बल्कि परमेश्वर के घर के काम और हितों की रक्षा करते हैं। उनके दिल दयालु और ईमानदार होते हैं, साफ पानी के उस कटोरे की तरह, जिसका तल एक नजर में देखा जा सकता है। उनके कार्यों में भी पारदर्शिता होती है। धोखेबाज व्यक्ति हमेशा छल करता है, हमेशा चीजें छिपाता है, लीपापोती करता है, और खुद को ऐसा ढक लेता है कि कोई भी उसकी असलियत नहीं देख सकता। लोग तुम्हारे आंतरिक विचार नहीं देख सकते, लेकिन परमेश्वर तुम्हारे दिल में मौजूद गहनतम चीजें देख सकता है। अगर परमेश्वर देखता है कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, कि तुम धूर्त हो, कि तुम कभी सत्य को नहीं स्वीकारते, कि तुम हमेशा उसे धोखा देने की कोशिश करते हो, और तुम अपना दिल उसके हवाले नहीं करते, तो परमेश्वर तुमसे प्रेम नहीं करेगा, वह तुमसे नफरत करेगा और तुम्हें त्याग देगा। जो लोग अविश्वासियों के बीच लोकप्रिय होते हैं—जो वाक्पटु और हाजिरजवाब होते हैं—वे किस तरह के लोग होते हैं? क्या यह तुम लोगों को स्पष्ट है? उनका सार कैसा होता है? कहा जा सकता है कि वे सभी असाधारण रूप से शातिर होते हैं, वे सब अत्यंत धूर्त और कपटी होते हैं, वे असली दुष्ट शैतान होते हैं। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को बचा सकता है? परमेश्वर शैतानों से सबसे ज्यादा नफरत करता है—वे लोग जो चालबाज और कपटी होते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को कभी नहीं बचाएगा, इसलिए तुम कुछ भी करो, पर तुम्हें इस तरह का व्यक्ति नहीं होना चाहिए। ... चालबाज और कपटी लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया क्या होता है? वह उन्हें तिरस्कृत कर देता है। वह उन्हें दरकिनार करके उनकी तरफ ध्यान तक नहीं देता। वह उन्हें पशुओं की श्रेणी का मानता है। परमेश्वर की नजरों में ऐसे सभी लोग सिर्फ मनुष्य की खाल पहने होते हैं, और सार में, वे दुष्ट शैतान की श्रेणी के होते हैं, वे चलती-फिरती लाशों की तरह हैं, और परमेश्वर उन्हें कभी भी नहीं बचाएगा। तो आज इन लोगों की क्या स्थिति है? उनके दिलों में अँधेरा है, उनमें सच्ची आस्था का अभाव है, और जब उन्हें कुछ होता है तो वे कभी प्रबुद्ध या रोशन नहीं किए जाते; आपदा और क्लेशों का सामना करते हुए वे परमेश्वर से प्रार्थना तो करते हैं, लेकिन परमेश्वर अनुपस्थित रहता है, उनके दिलों में सच्ची निर्भरता नहीं होती। आशीष पाने के लिए वे अच्छा प्रदर्शन करने की कोशिश करते हैं, लेकिन कर नहीं पाते, क्योंकि उनमें विवेक या समझ नहीं होती; वे चाहकर भी अच्छे नहीं हो पाते, वे बुरे काम करना बंद कर देना चाहते हैं, पर करने से रुक नहीं पाते, उन्हें ये काम करने पड़ते हैं। क्या वे दूर भेजे जाने और निकाले जाने के बाद खुद को जानने में सक्षम हो पाते हैं? हालाँकि वे जानते हैं कि वे इसी लायक हैं, लेकिन अपने मुँह से इसे स्वीकार नहीं करते, और भले ही वे कोई कर्तव्य निभाने में सक्षम प्रतीत होते हों, लेकिन वे फिर भी चालें चलने का प्रयास करते हैं, और मुश्किल से ही उत्पादक होते हैं। तो तुम लोग क्या कहते हो : क्या ये लोग वास्तव में पश्चात्ताप करने में सक्षम होते हैं? बिलकुल नहीं। क्योंकि उनमें विवेक या समझ नहीं होती, वे सत्य से प्रेम नहीं करते। ऐसे कपटी और दुष्ट लोगों को परमेश्वर नहीं बचाता। ऐसे लोगों के लिए परमेश्वर में विश्वास करने से क्या आशा है? उसका विश्वास महत्वहीन है, ऐसे व्यक्ति को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। अगर परमेश्वर में अपनी आस्था के दौरान लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कितने वर्षों से विश्वासी रहे हैं; अंत में, उन्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। यह देखकर कि परमेश्वर ने कहा है "धोखेबाज और धूर्त लोग," "असाधारण रूप से शातिर," "पशुओं की श्रेणी के," "परमेश्वर उन्हें कभी नहीं बचाएगा," और "ऐसे व्यक्ति को कुछ भी प्राप्त नहीं होता," मेरे दिल को चीर गया। मुझे लगा जैसे परमेश्वर ने कर्तव्य के प्रति मेरे ढुलमुल, चालाक रवैये को परिभाषित किया है। मैंने हमेशा सोचती कि तुम्हें इतना स्पष्टवादी नहीं होना चाहिए, तुममें थोड़ी शातिर और चालाक होनी चाहिए। मैं उस शैतानी फलसफे के सहारे जीती थी कि दूसरे का फायदा उठाओ, पर अपना फायदा मत उठाने दो, मैं कुछ भी करने से पहले यह देख लेती थी कि इसमें मेरा कोई फायदा है या नहीं, और थोड़ी-सी मेहनत की भी बड़ी कीमत चाहती थी। इन्हीं बातों से इंसान चालाक बनता है। आस्था रखने के बाद से मैं जीवन के इसी फलसफे पर चल रही थी। मुझे लगता कि अपने काम में बहुत साफदिल नहीं होना है या अपनी सारी ऊर्जा नहीं लगानी है, ऐसा करना मूर्खता है। अगर बाद में पता चला कि मुझे आशीष नहीं मिली, तो मेरा भयंकर नुकसान हो जाएगा और इतना नुकसान मैं सह नहीं पाऊँगी। खुद को थोड़ा-सा खपाकर मैं ज़्यादा आशीष पाना चाहती थी और इसी को होशियारी समझती थी। तो मैं कभी-कभी ही अपने काम को जी लगाकर करती, लोगों की राय पर नजर रखती और जोड़-तोड़ करती। जब उत्पादकता अधिक होती तो मैं कुछ दिनों तक आराम करती। जब कभी मुझे काम में कोई दिक्कत दिखाई देती, लेकिन अगर लगता कि इससे हमारी प्रभावशीलता पर असर नहीं पड़ेगा और मुझे बर्खास्त कर त्यागा नहीं जाएगा, तो मुझे उसे हल करने की कोई जल्दी न होती और मैं लापरवाही बरतती। अगर हमारा प्रदर्शन खराब होता और उसका परिणाम मुझे भुगतना पड़ता, तो मैं मेहनत करती, उसके कारण तलाश कर समस्या का समाधान करती। एक बार अच्छे परिणाम मिल जाते तो मेरी चिंता दूर हो जाती और मैं फिर से सुख-साधनों में लिप्त होकर आराम करने लगती। मैं बहुत धूर्त थी! यह कर्तव्य निभाना या परमेश्वर के प्रति समर्पित होना कहाँ हुआ? मैं खुद को चालाक समझकर परमेश्वर के साथ कपट कर रही थी, लेकिन परमेश्वर सब देखता है। परमेश्वर उन लोगों को कतई नहीं बचाता जो अपने काम में चालाकी करते हैं। परमेश्वर को ईमानदार लोग पसंद हैं—ईमानदार लोग परमेश्वर के आगे अपना दिल खोल देते हैं। वे पूरे मन से काम करते हैं। वे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करते हैं और अपना सर्वस्व दे देते हैं, अपने लिए कोई रास्ता खुला नहीं छोड़ते या आशीष पाने की कामना नहीं करते। परमेश्वर ऐसे लोगों को ही आशीष देता है। सुसमाचार कार्य का प्रभारी होने के नाते, मेरे धूर्त और आलसी होने, प्रगति करने की परवाह न करने के कारण लोगों की नकारात्मक हालत का समय पर समाधान नहीं हो पा रहा था और काम में उनकी उत्पादकता में भी गिरावट आई थी। इससे भाई-बहन भी आहत हुए और सुसमाचार कार्य भी बाधित हुआ। इस बारे में सोचकर मुझे बहुत दुख हुआ और मैंने खुद को धिक्कारा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर पश्चात्ताप किया और शपथ ली कि अब से मैं अपनी सारी ऊर्जा अपने काम में लगाऊँगी, धूर्तता और ढिलाई नहीं करूँगी।

फिर मैंने भक्ति के दौरान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे कर्तव्य-निर्वहन का अर्थ समझ आया। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "और चाहे इंसान का कर्तव्य जो भी हो, क्या इससे अधिक उचित कुछ और होता है? यह इंसानों के बीच सबसे सुंदर और धार्मिक चीज़ होती है। परमेश्वर के सृजित प्राणियों को सृष्टिकर्ता का अनुमोदन प्राप्त करने के लिए अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में जीते हैं और वे वह सब, जो परमेश्वर द्वारा प्रदान किया जाता है और हर वह चीज जो परमेश्वर से आती है, स्वीकार करते हैं, इसलिए उन्हें अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने चाहिए। यह स्वर्ग द्वारा नियत और पृथ्वी द्वारा स्वीकृत है; यह परमेश्वर का आदेश है। इससे यह देखा जा सकता है कि लोगों के लिए सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना इंसान की दुनिया में रहते हुए किए गए किसी भी अन्य काम से कहीं अधिक धार्मिक, सुंदर और भद्र होता है; मानवजाति के बीच कुछ भी इससे अधिक सार्थक या योग्य नहीं होता, और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की तुलना में अन्य कुछ भी किसी सृजित प्राणी के जीवन के लिए अधिक अर्थपूर्ण और मूल्यवान नहीं है। पृथ्वी पर, वास्तव में और ईमानदारी से सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने वाले लोगों का समूह ही सृष्टिकर्ता की आज्ञा का पालन करने वाला होता है। यह समूह बाहरी दुनिया की प्रवृत्तियों का अनुसरण नहीं करता; वे परमेश्वर की अगुआई और मार्गदर्शन का पालन करते हैं, वे केवल सृष्टिकर्ता के वचन सुनते हैं, वे सृष्टिकर्ता द्वारा व्यक्त किए गए सत्य स्वीकारते हैं, वे सृष्टिकर्ता के वचनों के अनुसार जीते हैं। यह सबसे सच्ची, सबसे शानदार गवाही है, और यह परमेश्वर में आस्था की सबसे अच्छी गवाही है। सृजित प्राणी के लिए एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने में सक्षम होना, सृष्टिकर्ता को संतुष्ट करने में सक्षम होना, मानवजाति के बीच सबसे अद्भुत चीज़ होती है, और यह कुछ ऐसा है जिसे मानव जाति के बीच प्रशंसित होना चाहिए। सृजित प्राणियों को सृष्टिकर्ता द्वारा सौंपी गई कोई भी वस्तु बिना शर्त स्वीकार करनी चाहिए; मानवजाति के लिए, यह एक धन्य और शानदार बात होती है, और उन सबके लिए, जो एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाते हैं, कुछ भी इससे अधिक अद्भुत या स्मरणीय नहीं होता—यह एक सकारात्मक चीज़ है। ... ऐसी खूबसूरत और बड़ी चीज को मसीह-विरोधियों का किस्म एक लेन-देन के रूप में विकृत कर देता है, जिसमें वह सृष्टिकर्ता से मुकुटों और पुरस्कारों की माँग करता है। इस प्रकार का लेन-देन सबसे सुंदर और धार्मिक चीज को सबसे बदसूरत और दुष्ट चीज में बदल देता है। क्या मसीह-विरोधी ऐसा ही नहीं करते? इससे आकलन करते हुए, क्या मसीह-विरोधी दुष्ट हैं? वे वास्तव में काफी दुष्ट हैं! यह केवल उनकी बुराई के एक पहलू का प्रकटीकरण है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग सात))। परमेश्वर के प्रकाशित करने वाले वचन पढ़कर मैं बहुत प्रभावित हुई। भ्रष्ट मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर चुपचाप अपना सर्वस्व दे देता है, हमें आवश्यक पोषण और कर्तव्य-निर्वहन का अवसर देता है ताकि इस दौरान, हम सत्य खोजकर अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कर सकें, परमेश्वर को समर्पित होकर उसकी भक्ति करें और उसका उद्धार प्राप्त करें। परमेश्वर के घर में काम करना हमारी जिम्मेदारी और कर्तव्य है, इसके जरिए परमेश्वर हमें सत्य को प्राप्त करने और बचाए जाने का अवसर दे रहा है। किसी भी व्यक्ति के लिए यह बेहद शानदार और सच्चा कार्य है। लेकिन मसीह-विरोधी इस सुन्दर और धार्मिक चीज को तोड़-मरोड़कर सौदेबाजी बना देते हैं। वे अपनी आस्था और कार्य में आशीष पाने की उम्मीद में रहते हैं। वे सच्ची आस्था नहीं रख सकते, न ही कष्ट सहकर कीमत चुका सकते हैं। वे लोग कट्टर गैर-विश्वासी और अवसरवादी होते हैं। मैं जिस ढंग से काम कर रही थी, क्या मैं भी उन जैसी ही नहीं थी? अपने काम में मैं परमेश्वर की इच्छा की नहीं सोचती थी बल्कि किसी और ही षड्यंत्र में लगी रहती थी। मैं थोड़े से के बदले बहुत ज्यादा पाना चाहती थी, परमेश्वर के खिलाफ साजिश और जोड़-तोड़ करती थी। क्या मैंने अपने कर्तव्य को सौदेबाजी नहीं बना दिया था? मैं विश्वासी नहीं थी। मैं हमेशा सोचती कि अगर मैं अपने काम में सफल हूँ, कलीसिया में रहती हूँ और बर्खास्त नहीं की जाती हूँ, तो मुझे बचाया जा सकता है। लेकिन अंतत: मैंने देखा कि मेरी धारणाएँ और कल्पनाएँ परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं हैं। परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि काम में थोड़ा-सा हासिल करने, बुराई नहीं करने, बर्खास्त या त्यागे न जाने का अर्थ है कि तुम बचा लिए जाओगे। लोगों को बचाया जा सकता है या नहीं, परमेश्वर इस बात से तय करता है कि क्या वे अपने कर्तव्य में सत्य का अनुसरण करते हैं, सत्य में प्रवेश करते हैं, और क्या वे अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करते हैं। दूसरा कोई शॉर्टकट नहीं है। परमेश्वर चाहता है कि लोग सच्चे बनें। अगर लोग अपने काम में चालाकी और ढिलाई बरतेंगे, फिर चाहे वे कुछ भी हासिल कर लें, परमेश्वर वैसा स्वभाव पसंद नहीं करता। अंतत: परमेश्वर उन्हें उजागर कर त्याग देगा। मैंने प्रभु यीशु के इन वचनों पर विचार किया : "इसलिये कि तू गुनगुना है, और न ठंडा है और न गर्म, मैं तुझे अपने मुँह में से उगलने पर हूँ" (प्रकाशितवाक्य 3:16)। मैं अपने काम में प्रगति करने की सोचने के बजाय यंत्रवत काम कर रही थी। क्या जोश और उत्साह का न होना उदासीन होना नहीं था? क्या परमेश्वर मुझे अपने मन से नहीं निकाल देगा? परमेश्वर का स्वभाव कोई अपमान बर्दाश्त नहीं करता, इस बात ने मुझे डरा दिया। मैंने प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। अब से मैं पूरी लगन से अपना काम करूँगी और अगर कोई गड़बड़ी करूँ तो मुझे अनुशासित करना।"

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। "जब लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं तो वे दरअसल वही करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। अगर तुम उसे परमेश्वर के सामने करते हो, अगर तुम अपना कर्तव्य दिल से और ईमानदारी की भावना से निभाते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हो, तो क्या यह रवैया कहीं ज्यादा सही नहीं होगा? तो तुम इस रवैये को अपने दैनिक जीवन में कैसे व्यवहार में ला सकते हो? तुम्हें 'दिल से और ईमानदारी से परमेश्वर की आराधना' को अपनी वास्तविकता बनाना होगा। जब कभी भी तुम शिथिल पड़ना चाहते हो औरबिना रुचि के काम करना चाहते हो, जब कभी भी तुम अस्थिर बुद्धि से काम करना और आलसी बनना चाहते हो, और जब कभी तुम्हारा ध्यान बँट जाता है या तुम आनंद लेना चाहते हो, तो तुम्हें इन बातों पर अच्छी तरह विचार करना चाहिए: इस तरह व्यवहार करने में, क्या मैं अविश्वास के लायक बन रहा हूँ? क्या यह कर्तव्य के निर्वहन में अपना मन लगाना है? क्या मैं ऐसा करके विश्वासघाती बन रहा हूँ? ऐसा करने में, क्या मैं उस आदेश के अनुरूप रहने में विफल हो रहा हूँ, जो परमेश्वर ने मुझे सौंपाहै? तुम्हें इसी तरह आत्म-मंथन करना चाहिए। अगर तुम जान जाते हो कि तुम अपने कर्तव्य में हमेशा लापरवाह और असावधान रहते हो और विश्वासघाती हो, और तुमने परमेश्वर को चोट पहुँचाई है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, 'मुझे उस क्षण लगा था कि यहाँ कुछ गड़बड़ है, लेकिन मैंने इसे समस्या नहीं माना; मैंने इसे बस लापरवाही से नजरअंदाज कर दिया। मुझे अब तक इस बात का एहसास नहीं हुआ था कि मैं वास्तव में लापरवाह और असावधान था, कि मैं अपनी जिम्मेदारी पर खरा नहीं उतरा। मुझमें सचमुच जमीर और विवेक की कमी है!' तुमने समस्या का पता लगा लिया है और अपने बारे में थोड़ा जान लिया है—तो अब तुम्हें खुद को बदलना होगा! अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया गलत था। तुम उसके प्रति लापरवाह थे, मानो यह कोई अतिरिक्त नौकरी हो, और तुमने उसमें अपना दिल नहीं लगाया। अगर तुम फिर इस तरह लापरवाह और असावधान होते हो, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे तुम्हें अनुशासित करने देना चाहिए और ताड़ना देने देनी चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति व्यक्ति की ऐसी ही इच्छा होनी चाहिए। तभी वह वास्तव में पश्चात्ताप कर सकता है। जब व्यक्ति का विवेक साफ होता है और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति उसका रवैया बदल जाता है, तभी वह खुद को बदलता है। और पश्चात्ताप करते हुए व्यक्ति को अक्सर इस पर भी चिंतन करना चाहिए कि क्या उसने वास्तव में अपना पूरा दिल, पूरा दिमाग और पूरी ताकत अपना कर्तव्य निभाने में लगाई है; फिर, परमेश्वर के वचनों का पैमाने के रूप में उपयोग करते हुए उन्हें खुद पर लागू करने से उसे पता चलेगा कि उसके कर्तव्य के प्रदर्शन में अभी भी क्या समस्याएँ हैं। परमेश्वर के वचनों के अनुसार, इस तरह लगातार समस्याएँ हल करके, क्या व्यक्ति अपने कर्तव्य के प्रदर्शन को अपने पूरे दिल, पूरे दिमाग और पूरी ताकत से वास्तविकता से नहीं जोड़ता? अपना कर्तव्य इस तरह निभाने वाला व्यक्ति क्या उसे अपने पूरे दिल, पूरे दिमाग और पूरी ताकत से नहीं निभाता?" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन करने में ही आगे का मार्ग है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का एक स्पष्ट मार्ग दिया। मुझे दिल से काम करने, ईमानदार होने, कीमत चुकाने, चौकस रहने, जिम्मेदार बनने और पूरी ऊर्जा लगाने की जरूरत है ताकि अच्छे से कर्तव्य निभाकर परमेश्वर को संतुष्ट कर सकूं। इसके अलावा, अगर मैं ढुलमुल और आलसी होना चाहूँ, तो मुझे प्रार्थना कर देह-सुख त्यागना चाहिए, परमेश्वर से अनुशासन और ताड़ना की गुजारिश करनी चाहिए। इस तरह, मैं देह-सुख के पीछे भागने से बच सकूँगी।

उसके बाद मैं परमेश्वर के वचनों का अनुसरण करने लगी। मैंने सोचा कि अपना कर्तव्य अच्छे से निभाकर अधिक उपयोगी कैसे बनूँ। मुझे पता था कि टीम के सभी भाई-बहनों की अपनी खूबियाँ और कमजोरियां हैं। मैंने सोचा कि सबका काम कैसे व्यवस्थित करूँ ताकि उनकी खूबियाँ उभरकर आ सकें, और जहाँ-जहाँ उनमें कमियाँ हैं वहाँ उनकी मदद कर सकूँ। इसके अलावा, पहले मुझे लगता था कि मैं सुपरवाइजर हूँ, अगर काम पर मेरी अच्छी पकड़ है और दूसरे लोग भी अपना काम अच्छे से कर रहे हैं, तो समझो मैं अच्छा कर रही हूँ, और मैं थोड़े आराम का सुख ले सकती हूँ। अब मैंने अपना काम बेहतरीन ढंग से करने के लिए एक लक्ष्य बना लिया है। हर दिन का मेरा कार्यक्रम बना रहता है और मैं पहले से अधिक व्यस्त हो गई हूँ, कभी-कभी तो मैं बहुत थक जाती हूँ, फिर भी शांति और सुकून महसूस होता है। मुझे हैरानी हुई, अगले ही महीने हमारी उत्पादकता काफी बढ़ गई। मैं रोमांचित थी। दरअसल, परमेश्वर चाहता है कि हम सच्चे बनें। जब मैंने अपना दृष्टिकोण बदला और परमेश्वर के साथ सच्चा सहयोग किया, तो मुझे उसकी आशीष मिली। परमेश्वर का धन्यवाद!

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