23. मैं अपने कर्तव्य में कीमत क्यों नहीं चुकाना चाहती थी

मैं ग्राफिक डिजाइन का काम करती थी, समूह अगुआ ने मुझे एक नई किस्म की छवि बनाने का काम सौंपा। तब मैं ज्यादा अनुभवी नहीं थी, इसलिए मुझे काम के सिद्धांतों या जरूरी चीजों का पता नहीं था। मैंने कड़ी मेहनत की, लेकिन मैंने जो बनाया वह कुछ खास नहीं था। मैंने उसे कई बार संशोधित किया, मगर कोई ज्यादा सुधार नहीं हुआ। मुझे लगा कि इस नई शैली की डिजाइन बनाना सचमुच कठिन था। जब समूह अगुआ ने मुझे वैसी ही एक दूसरी छवि बनाने को कहा, तो मेरे मन ने बड़ा प्रतिरोध किया। मैं यह काम किसी और पर डाल देने के तरीके सोचने लगी, और समूह अगुआ के सामने जानबूझकर बोली कि मैं उस किस्म की डिजाइन बनाने में अच्छी नहीं थी। उसे मेरी सोच समझ में आ गई और उसने मुझे ऐसे काम देना बंद कर दिया। बाद में, कलीसिया अगुआ ने आखिरी पलों में मुझसे एक छवि में संशोधन करने को कहा, और समूह अगुआ से मुझे विस्तृत निर्देश दिलवाए। इसे शीघ्र पूरा करना था, और मुझे मूल संयोजन के आधार पर जल्दी-से-जल्दी इसके स्वरूप में संशोधन कर, ज्यादा विस्तृत हिस्सों को चमकाना था। मुझे यह बड़ा आसान लगा। इसका मौलिक स्वरूप तैयार था, तो कुछ मामूली फेरबदल कर देना काफी होगा। लेकिन समूह अगुआ को मेरा संशोधन पसंद नहीं आया, उन्होंने मुझे उसे ठीक करने के बारे में सुझाव दिए। यह मुझे एक झमेले जैसा लगा और मैं इसे नहीं करना चाहती थी। मुझे लगा कि छवि मूल रूप से ठीक थी—इस्तेमाल के लायक थी, तो काफी था। क्या उसे ठीक करने के लिए इतने ज्यादा विस्तार में जाना जरूरी था? इसमें बहुत ज्यादा समय और ऊर्जा नष्ट होती। इसलिए मैंने अपने विचार बताने का फैसला लिया। लेकिन मुझे हैरत हुई जब समूह अगुआ ने मुझे यह संदेश भेजा : “आप लगन से काम नहीं करतीं, कुछ भी हासिल करने की कोशिश नहीं करतीं। आप हमेशा मुश्किल से बचना चाहती हैं और बेपरवाही दिखाती हैं। ऐसा रवैया रखकर आप कोई कर्तव्य ठीक से कैसे निभा सकती हैं?” आलोचना की ऐसी धार देखकर मैं परेशान हो गई, मुझे लगा कि मेरे साथ गलत हो रहा है। क्या मैं उतनी बुरी थी? कुछ दिन बाद, कलीसिया अगुआ ने देह-सुख के पीछे भागने और किसी भी मुश्किल काम से बचने को लेकर मेरा निपटान किया। उन्होंने कहा कि मैं मुश्किल डिजाइनों के झमेले से बचना चाहती हूँ, और उन पर कड़ी मेहनत नहीं करती, मैं अपना कर्तव्य हमेशा बेपरवाही से निपटा देती हूँ, मुझ पर भरोसा नहीं किया जा सकता। उनकी यह बात सुनकर मेरे दिल को चोट पहुँची। मुझे अच्छी तरह जानने वाली एक बहन ने भी रूखेपन से कहा, “अगर तुम एक ऐसी डिजाइनर हो जो अच्छी डिजाइन बनाने पर ध्यान नहीं देती, तो यह तुम्हारा कर्तव्य निभाना कहाँ हुआ?” यह सुनना ऐसा था मानो मुझ पर ठंडा पानी उड़ेल दिया गया हो, मैं अंदर तक सिहर उठी। लगा कि कर्तव्य निभाने का मेरा वक्त शायद पूरा हो चुका है—सब जान गए थे कि मैं कैसी इंसान थी, तो अब से कोई मुझ पर भरोसा नहीं करेगा।

उस शाम, मैंने हाल में हुई हर घटना और मेरे बारे में दूसरों के आकलन के बारे में सोचा। मैं सचमुच परेशान थी, सबको निराश करने को लेकर खुद से घृणा हो गई। मैंने अपना कर्तव्य इस तरह क्यों निभाया था? मैं बहुत रोई। अपने दुख में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “कर्तव्य निभाते समय, लोग हमेशा हल्का काम चुनते हैं, जो उन्हें थकाए नहीं, जिसमें बाहरी तत्त्वों का सामना करना शामिल न हो। इसे आसान काम चुनना और कठिन कामों से भागना कहा जाता है, और यह दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्ति है। और क्या? (अगर कर्तव्य थोड़ा कठिन, थोड़ा थका देने वाला हो, अगर उसमें कीमत चुकानी पड़े, तो हमेशा शिकायत करना।) (भोजन और वस्त्रों की चिंता और देह के भोगों में लीन रहना।) ये सभी दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्तियाँ हैं। जब ऐसे लोग देखते हैं कि कोई कार्य श्रमसाध्य या जोखिम भरा है, तो वे उसे किसी और पर थोप देते हैं; खुद वे सिर्फ आसान काम करते हैं, और बहाने बनाते हैं कि वे उसे क्यों नहीं कर सकते, और कहते हैं कि उनकी क्षमता कम है और उनमें अपेक्षित कौशल नहीं हैं, कि वह उनके लिए बहुत भारी है—जबकि वास्तव में, इसका कारण यह होता है कि वे दैहिक सुखों का लालच करते हैं। ... ऐसा भी होता है कि लोग काम करते समय शिकायत करते हैं, वे मेहनत नहीं करना चाहते, जैसे ही उन्हें अवकाश मिलता है वे आराम करते हैं, बेपरवाही से बकबक करते हैं, और गप लड़ाते हैं। और जब काम बढ़ता है और वह उनके जीवन की लय और दिनचर्या भंग कर देता है, तो वे इससे नाखुश होते हैं। वे भुनभुनाते और शिकायत करते हैं, असंतुष्ट हो जाते हैं, और अपना कर्तव्य निभाने में लापरवाह और अनमने हो जाते हैं। यह दैहिक सुखों का लालच करना है, है न? ... क्या दैहिक सुखों का लालच करने वाले लोग कोई कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त होते हैं? उनसे कर्तव्य निभाने की बात करो, कीमत चुकाने और कष्ट सहने की बात करो, तो वे इनकार में सिर हिलाते रहते हैं : उन्हें बहुत सारी समस्याएँ होंगी, वे शिकायतों से भरे होते हैं, वे हर चीज को लेकर नकारात्मक रहते हैं। ऐसे लोग निकम्मे होते हैं, उन्हें अपना कर्तव्य निभाने का अधिकार नहीं है, और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों में मैंने देखा कि किसी कर्तव्य में सरल और आरामदेह काम चुनकर, ज्यादा जटिल और मुश्किल काम हमेशा दूसरों पर डाल देना विवेक और काबिलियत नहीं दिखाता। यह आराम का लालच करना और कीमत चुकाने को तैयार न होना है। पीछे मुड़कर देखें, तो जब समूह अगुआ ने मुझे एक नई किस्म की डिजाइन का काम सौंपा, तो मुझे यह मुश्किल लगा, क्योंकि मैं अभी बस सीख ही रही थी। मुझे कष्ट झेलकर कीमत चुकानी थी, सावधानी से सोच-विचार कर उसे बार-बार सुधारना था, ताकि काम अच्छा हो सके। मुसीबत मोल न लेना चाहकर मैं उस काम से पीछे हट गई और उसे किसी दूसरे पर डाल देने का बहाना ढूँढ लिया। मैं बस सरल और आरामदेह काम करना चाहती थी। जब कलीसिया अगुआ ने मुझे एक छवि में संशोधन करने को कहा, तो इस उम्मीद से कि मैं बेहतर काम कर सकूंगी, समूह अगुआ ने मुझे विस्तृत निर्देश दिए। मैं राजी तो हो गई, पर मुझे यह एक झमेला लगा, तो मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया, मेहनत नहीं की, बस आराम पाने की कोशिश की। इससे छवि अच्छी नहीं बन सकी और उसमें कई-कई बार सुधार करने पड़े। काम चाहे जो भी हो, मैं ज्यादा सोच-विचार या मेहनत वाले किसी भी काम से कतराती थी। मैं सरल और आसान तरीके से ही काम निपटाना चाहती थी, मुझे बस देह-सुख की चाह थी। मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा, “ऐसे लोग निकम्मे होते हैं, उन्हें अपना कर्तव्य निभाने का अधिकार नहीं है, और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए।” इसने मुझे थोड़ा डरा दिया। कर्तव्य निभाते समय मैं हमेशा देह की सुनती थी, आराम-पसंद थी, जरा भी कष्ट उठाना और कीमत चुकाना नहीं चाहती थी। मैं सिर्फ शारीरिक मेहनत से बचना चाहती थी, दिल और दिमाग पर बोझ नहीं डालना चाहती थी। कर्तव्य निभाने के मेरे तरीके में परमेश्वर के प्रति कोई ईमानदारी या श्रद्धा नहीं थी, मैं सोचती कि अगर मैं अपने काम यूं ही निपटा दूँ, तो काफी होगा। मैं कोई सकारात्मक भूमिका नहीं निभा रही थी। यही नहीं, मैंने काम की प्रगति को भी प्रभावित किया था। अगर मैं खुद में बदलाव लाए बिना यूँ ही काम करती रहती, तो देर-सवेर परमेश्वर मुझे छोड़ देता।

बाद में, मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े। “सतही तौर पर कुछ लोगों में अपने कर्तव्य-निष्पादन की पूरी अवधि के दौरान कोई गंभीर समस्या प्रतीत नहीं होती। वे खुले आम कोई बुराई नहीं करते; वे विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं करते, या मसीह-विरोधियों के मार्ग पर नहीं चलते। अपने कर्तव्य-निर्वहन में उनके सामने कोई बड़ी त्रुटि या सिद्धांत की समस्याएँ भी नहीं आतीं, फिर भी, उन्हें एहसास भी नहीं होता और कुछ ही वर्षों में वे सत्य को बिलकुल भी स्वीकार न करने वाले के रूप में, एक गैर-विश्वासी के रूप में उजागर हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? दूसरों को कोई समस्या नहीं दिखती, लेकिन परमेश्वर इन लोगों के अंतरतम हृदय की जाँच करके समस्या देख लेता है। वे अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में हमेशा लापरवाह रहते हैं और प्रायश्चित नहीं करते। जैसे-जैसे समय बीतता है, वे स्वाभाविक रूप से उजागर हो जाते हैं। प्रायश्चित न करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि हालाँकि उन्होंने पूरी अवधि में अपना कर्तव्य निभाया है, लेकिन उसके प्रति उनका रवैया हमेशा गलत रहा है, लापरवाही से भरा होता है, अनमना होता है, चीजों को हल्के में लेने वाला रवैया होता है, वे कर्तव्यनिष्ठ भी नहीं होते, समर्पित होने की तो बात ही छोड़ दो। वे शायद थोड़ा-बहुत प्रयास करते हों, लेकिन वे बेमन से काम करते हैं। वे पूरे दिल से काम नहीं करते और उनके अपराधों का कोई अंत नहीं होता। परमेश्वर की दृष्टि में, उन्होंने कभी प्रायश्चित नहीं किया; वे हमेशा लापरवाह रहे हैं, और उनमें कभी कोई बदलाव नहीं आया है—अर्थात, वे अपने हाथों की बुराई को छोड़कर परमेश्वर के आगे पश्चाताप नहीं करते। परमेश्वर उनमें पश्‍चाताप की मनोवृत्ति नहीं देखता और वह उनकी मनोवृत्ति में कोई बदलाव भी नहीं देखता। वे इसी मनोवृत्ति और पद्धति से अपने कर्तव्य और परमेश्वर के आदेश के संबंध में अड़ियल बने रहते हैं। उनके इस जिद्दी और दुराग्रही स्वभाव में कभी कोई बदलाव नहीं आता। इससे भी बढ़कर, वे कभी भी परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ महसूस नहीं करते, उन्हें कभी नहीं लगता कि उनकी लापरवाही और बेमन से किया गया काम अपराध और दुष्टता है। उनके मन में न तो कोई कृतज्ञता का भाव होता है, न वे खुद को दोषी महसूस करते हैं, न उनमें कोई खेद का भाव आता है, अपराध-बोध आने की तो बात ही छोड़ दो। जैसे-जैसे समय बीतता है, परमेश्वर देखता है कि यह व्यक्ति लाइलाज है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की बात की परवाह नहीं करता, वह चाहे जितने भी उपदेश सुन ले या उसे सत्य की कितनी भी समझ हो, उसका दिल प्रेरित नहीं होता और उसके रवैये में न कोई बदलाव आता है, न ही यह पूरी तरह परिवर्तित होता है। परमेश्वर इसे देखता है और कहता है : ‘इस व्यक्ति से अब कोई आशा नहीं है। मेरी कोई भी बात उसके दिल को छूती नहीं है, मेरी किसी भी बात से उसके अंदर बदलाव नहीं आता है। उसे बदलने का कोई उपाय नहीं है। यह व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाने के लिए अयोग्य है और मेरे घर में सेवा करने योग्य नहीं हैं।’ और परमेश्वर ऐसा क्यों कहता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि जब वे अपना कर्तव्य निभाते हैं और काम करते हैं, तो वे लगातार लापरवाह और अनमने रहते हैं। चाहे उनकी कितनी भी काँट-छाँट की जाए और उनसे कितना भी निपटा जाए, और चाहे उनके प्रति कितनी भी सहनशीलता और धैर्य दिखाया जाए, इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता और यह उन्हें वास्तव में पश्चात्ताप करने या बदलने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता। यह उन्हें अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने में सक्षम नहीं बना सकता, और न ही उन्हें सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने की शुरुआत करने दे सकता है। ऐसा व्यक्ति लाइलाज होता है। जब परमेश्वर यह निर्धारित कर लेता है कि कोई व्यक्ति लाइलाज है, तो क्या वह तब भी उस व्यक्ति को मजबूती से पकड़े रहेगा? नहीं, वह ऐसा नहीं करता। परमेश्वर उसे जाने देगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों का न्याय अच्छे या बुरे के रूप में किया जाता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें अपने विचारों, अभिव्यक्तियों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य की वास्तविकता को जीने की गवाही है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को किस नज़र से देखता है? तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हरा पाते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और ऐसे निशानों से भरे पड़े हैं जिनसे परमेश्वर शर्मिंदा होता है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुम परमेश्वर के लिये अपने आपको खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि तुम अपने फ़ायदे के लिये काम कर रहे हो। ‘अपने फ़ायदे के लिए’, इसका क्या मतलब है? इसका सही-सही मतलब है शैतान के लिये काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, ‘हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।’ परमेश्वर की नज़र में तुमने अच्छे कर्म नहीं किये हैं, बल्कि तुम्हारा व्यवहार दुष्टों वाला हो गया है। इसे न केवल परमेश्वर की स्वीकृति हासिल नहीं होगी—बल्कि इसकी निंदा भी की जाएगी। परमेश्वर में ऐसी आस्था रखने वाला इंसान क्या हासिल करने का प्रयास करता है? क्या इस तरह की आस्था अंततः व्यर्थ नहीं हो जाएगी?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। मैं सोचती थी, भले ही मैंने ज्यादा मुश्किल और जटिल प्रोजेक्ट दूसरों पर डाल दिया करती थी, पर मैं कभी निठल्ली नहीं थी, कभी-कभी किसी डिजाइन पर देर रात तक काम करती रहती थी। मुझे लगा कि मेरा इस तरह कर्तव्य निभाना काफी था। लेकिन मैंने परमेश्वर के वचनों में देखा कि वह यह नहीं देखता कि हमने कितना काम किया है या हमने कितनी मेहनत खपाई है, बल्कि वह कर्तव्य के प्रति हमारा रवैया देखता है, क्या हम परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखते हैं, क्या हमारे पास सत्य पर अमल करने की गवाही है। इसी तरह वह फैसला लेता है कि क्या किसी व्यक्ति का कर्तव्य उसकी स्वीकृति पाएगा। हालाँकि ऐसा लगता था कि मैं पूरे समय अपना कर्तव्य निभाती थी, मगर उसके प्रति मेरा रवैया चलताऊ और लापरवाह था, मैं बस देह की सुनती थी और खुद के आराम की ही सोचती थी। मैं वही करती जो मेरे लिए आसान होता और जो भी मुश्किल होता उसे जरा भी श्रध्दा या समर्पण के टरका देती थी। इस तरह सेवा करना नाकाफी है, यह परमेश्वर को छलना है। मैंने सोचा कि मेरे काम की शुरुआत में ही किस तरह समूह अगुआ ने मुझे कुछ अहम काम सौंपे थे, लेकिन मेरे हमेशा काम को बेपरवाही से निपटा देने, आसान चीजों की ओर मेरे रुझान, और कलीसिया के कार्य का ख्याल रखे बिना सिर्फ खुद के बारे में सोचने के कारण, उन्होंने मुझे अहम प्रोजेक्ट देना बंद कर दिया। मैं ऐसी बन गई जिस पर न तो परमेश्वर और न ही दूसरे लोग भरोसा कर सकते थे, बस आसान काम ही करती रही। अपने कर्तव्य से इस तरह पेश आकर, मैं न सिर्फ अच्छे कर्म नहीं कर रही थी, बल्कि अपराध भी जमा कर रही थी। अगर मैंने यह बुराई नहीं छोड़ी, और परमेश्वर से प्रायश्चित्त नहीं किया, तो मेरे अपराध बढ़ते जाने से, वह मुझसे घृणा कर मुझे ठुकरा देगा, और फिर वह मुझे पूरी तरह उजागर कर निकाल देगा। तभी मेरे मन में कौंधा कि कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया कितना खतरनाक था, और इस बात से मुझे थोड़ा डर लगा। मुझे यह भी एहसास हुआ कि इस बार की काट-छाँट और निपटान मेरे लिए परमेश्वर की ताकीद और चेतावनी थी। मैं बहुत नासमझ थी, मेरी समझ बहुत धीमी थी, अगर दूसरे लोगों ने मुझे बार-बार चेताया न होता, तो मैं नहीं देख पाती कि कर्तव्य के प्रति मेरे रवैये से परमेश्वर को चिढ़ हो रही थी। मैं जानती थी कि मुझे अपनी इस दशा को फौरन बदलना होगा, परमेश्वर से प्रायश्चित्त करना होगा, दुराग्रही और विद्रोही बनना छोड़ना होगा।

मैंने देह-सुख और आराम की चाह रखने की अपनी दशा के बारे में परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “कुछ लोग चाहे जो भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे उसमें सफल नहीं हो पाते, यह उनके लिए बहुत अधिक होता है, वे किसी भी उस दायित्व या जिम्मेदारी को निभाने में असमर्थ होते हैं, जो लोगों को निभानी चाहिए। क्या वे कचरा नहीं हैं? क्या वे अभी भी इंसान कहलाने लायक हैं? कमअक्ल लोगों, मानसिक रूप से विकलांगों और जो शारीरिक अक्षमताओं से ग्रस्त हैं, उन्हें छोड़कर, क्या कोई ऐसा जीवित व्यक्ति है जिसे अपने कर्तव्यों का पालन और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करना चाहिए? लेकिन इस तरह के लोग धूर्त होते हैं और हमेशा बेईमानी करते हैं, और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करना चाहते; निहितार्थ यह है कि वे एक सही व्यक्ति की तरह आचरण नहीं करना चाहते। परमेश्वर ने उन्हें क्षमता और गुण दिए, उसने उन्हें इंसान बनने का अवसर दिया, लेकिन वे अपने कर्तव्य-पालन में इनका इस्तेमाल नहीं कर पाते। वे कुछ नहीं करते, लेकिन हर चीज का आनंद लेना चाहते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने लायक भी है? उन्हें कोई भी काम दे दिया जाए—चाहे वह महत्वपूर्ण हो या सामान्य, कठिन हो या सरल—वे हमेशा लापरवाह और अनमने, आलसी और धूर्त बने रहते हैं। समस्याएँ आने पर अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं; वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, अपना परजीवी जीवन जीते रहना चाहते हैं। क्या वे बेकार कचरा नहीं हैं?(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। “किस तरह के लोग बेकार लोग होते हैं? बेकार लोग भ्रमित होते हैं, लोग जो जीवन में निरुद्देश्य भटकते हैं। इस तरह के लोग अपने किसी भी कार्य में जिम्मेदार नहीं होते, न ही वे कर्तव्यनिष्ठ होते हैं; वे सब-कुछ गड़बड़ कर देते हैं। वे तुम्हारी बातों पर ध्यान नहीं देते, चाहे तुम उनके साथ जैसे भी सत्य की सहभागिता कर लो। वे सोचते हैं, ‘अगर मैं जीवन में निरुद्देश्य भटकना चाहता हूँ, तो भटकूँगा। इससे क्या फर्क पड़ता है? मैं अपना कर्तव्य निभाता हूँ और मेरे पास खाने के लिए भोजन है, इतना काफी है। कम से कम मुझे भीख तो नहीं माँगनी पड़ती। अगर किसी दिन मेरे पास खाने के लिए कुछ न हुआ, तो मैं इसके बारे में सोचूँगा। स्वर्ग मनुष्य के लिए हमेशा एक रास्ता निकालेगा। तो क्या हुआ, जो तुम कहते हो कि मुझमें जमीर या समझ नहीं है या मैं भ्रमित हूँ? मैंने कानून नहीं तोड़ा है, मैंने किसी की हत्या नहीं की है या किसी चीज को आग नहीं लगाई है। ज्यादा से ज्यादा, मेरा चरित्र सर्वोत्तम नहीं है, लेकिन यह मेरे लिए कोई बड़ी क्षति नहीं है। जब तक मेरे पास खाने के लिए भोजन है, सब ठीक है।’ तुम इस दृष्टिकोण के बारे में क्या सोचते हो? मैं तुमसे कहता हूँ, जीवन में भटकने वाले इस तरह के सभी भ्रमित लोगों का बाहर निकाला जाना तय है। उनके उद्धार प्राप्त कर सकने का कोई उपाय नहीं है। जिन लोगों ने कई वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास किया है, लेकिन सत्य को बमुश्किल स्वीकार किया है, उन्हें बाहर कर दिया जाएगा। कोई नहीं बचेगा। कचरे जैसे और निकम्मे सभी लोग मुफ्तखोर हैं और उनका बाहर निकाला जाना तय है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता सिर्फ अपना भरण-पोषण चाहते हैं, तो उन्हें तो और भी ज्यादा बर्खास्त कर बाहर निकाला जाना चाहिए। इस तरह के भ्रमित लोग अभी भी अगुआ और कार्यकर्ता बनना चाहते हैं, लेकिन वे अयोग्य हैं। वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते, फिर भी वे अगुआई करना चाहते हैं। उन्हें सच में कोई शर्म नहीं है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के कठोर खुलासे से मुझे एहसास हुआ कि कर्तव्य में हमेशा लापरवाह होने और जिम्मेदारी न उठाने का अर्थ है कि आप कूड़ा-करकट जैसे ही हैं। अगर आप कोई भी काम लगन से नहीं करते, हमेशा पीछे रहते हैं, अपना उचित कर्तव्य नहीं निभाते या नए कौशल नहीं सीखते, तो आप कचरे जैसे हैं। आत्म-चिंतन कर समझ गई कि मैं अपने कर्तव्य में ऐसी ही थी। मुझे जो भी काम दिया जाता, मैं उस पर गहराई से नहीं सोचना चाहती थी, कुछ हासिल करने के लिए कष्ट झेलकर प्रयास नहीं करना चाहती थी। मैं निठल्ली न रहकर सिर्फ व्यस्त दिखने में खुश थी। क्या अपना कर्तव्य यूँ निभाकर मैं बेवकूफों जैसा बर्ताव नहीं कर रही थी? मेरे मन में यह भी कौंधा कि बचपन से ही मुझे संपन्न परिवारों के लोगों से हमेशा ईर्ष्या थी, जिन्हें दुनिया में कोई फिक्र नहीं थी, जो सैर-सपाटे कर आरामदेह जीवन जी सकते थे। मैं ऐसे ही जीवन के लिए मरी जा रही थी। मुझे लगता कि हम इंसान सिर्फ कुछ दशक ही जीते हैं, अगर हम इसका मजा न लें, तो क्या ऐसी जिंदगी जीना बेकार नहीं है? बड़ी होने के बाद मैंने देखा कि बाकी सब लोग पैसे कमाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं, तो मैंने भी एक व्यापार शुरू किया। फिर भी मैं बहुत ऊर्जा नहीं खपाना चाहती थी, हमेशा टीवी कार्यक्रमों और उपन्यासों में खोई रहती थी। मैंने अपने व्यापार पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और लाभ-हानि की परवाह नहीं की। साल के अंत तक, न सिर्फ मैं कुछ भी कमाने में नाकाम रही, बल्कि मैंने अपना पैसा भी खो दिया। लेकिन इससे भी मैं ज्यादा परेशान नहीं हुई, मैंने बस खुद को दिलासा दी, सोचा कि जब तक भोजन मिलता रहे, थोड़े नुकसान से कोई फर्क नहीं पड़ता। जीवन के बारे में मेरा नजरिया यह था, “आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना,” और “चार दिन की ज़िंदगी है, मौज कर लो।” इन शैतानी विचारों से प्रभावित होने के कारण, मैंने कभी अपने उचित कर्तव्य नहीं निभाए, प्रगति की कोशिश नहीं की; मेरे जीवन का कोई लक्ष्य नहीं था। मैं विश्वासी बनने के बाद भी इन्हीं विचारों के साथ जी रही थी। मैं हमेशा अपने कर्तव्य में आराम ही करना चाहती थी, मेरे लिए ज्यादा न सोचना, तनाव में न रहना, खुद को परेशान न करना, जीने का बढ़िया तरीका था। लेकिन मैं किसी भी तरह के काम का बोझ नहीं उठाना चाहती थी। मैं किसी काम की नहीं थी, बस कूड़े जैसी थी। मैंने अपने बर्ताव पर जितना सोच-विचार किया, उतना ही मुझे अचंभा हुआ। क्या मैं ठीक वैसी ही परजीवी नहीं थी, जिसे परमेश्वर उजागर कर रहा था? मानवता को बचाने के लिए परमेश्वर ने न सिर्फ वचन व्यक्त किए हैं, हमें सत्य और जीवन दिया है, उसने हमें जीवित रहने के लिए हर चीज दी है और इसका भरपूर आनंद लेने दिया है। वह हमारी देखरेख कर हमारी रक्षा करता है, हमें शैतान के फंदों में फँसने नहीं देता। लेकिन मैं हृदयहीन थी। मैं नहीं जानती थी कि कर्तव्य में परमेश्वर के प्रेम की कीमत चुकानी चाहिए, और मैं एक आलसी परजीवी बन गई। यह शैतानी सोच जहर बनकर मेरे भीतर समा गई। मैं बस देह-सुख और आराम ही जानती थी। मैंने कभी गंभीरता से नहीं सोचा कि मेरे कर्तव्य क्या हैं, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कर्तव्य ठीक से कैसे निभाना है। आत्म-चिंतन करने पर, मुझे उबकाई आने लगी, और खुद से घृणा होने लगी। लगा कि शैतान ने मुझे बहुत गहराई तक भ्रष्ट कर दिया था। मैंने अपना सारा जमीर और समझ खो दी थी, सुन्न हो चुकी थी। मैंने यह भी देखा कि शैतान लोगों को सुन्न और पथभ्रष्ट करने के लिए इन विचारों का इस्तेमाल कैसे करता है। आखिरकार, हम कूड़ा बन जाते हैं, ठीक आत्मा-विहीन चलती-फिरती लाशों की तरह। मुझे बेहद पछतावा हुआ कि मैंने कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया था, परमेश्वर को सुकून देने का एक भी काम नहीं किया था। मैंने सच में परमेश्वर की ऋणी महसूस किया, और उससे प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मुझे शैतान ने बड़ी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है। तुम्हारे खुलासे के बिना, मैं कभी नहीं समझ पाती कि मेरी समस्या कितनी गंभीर है। मैं अपने कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार थी, मुझमें मानवता नहीं थी, मैंने तुम्हारे अनुग्रह का इतना आनंद उठाया, मगर तुम्हारे प्रेम की कीमत चुकाने के बारे में नहीं जाना। मैं एक परजीवी थी। मैं समझती हूँ कि सत्य पर अमल करने की राह में मेरा देह-सुख सबसे बड़ा रोड़ा है। मैं इसे त्याग कर तुमसे प्रायश्चित्त करना चाहती हूँ, सचेतन होकर सत्य खोजना चाहती हूँ, और तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुसार कर्तव्य निभाना चाहती हूँ।”

बाद में मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “चूँकि तुम एक व्यक्ति हो, इसलिए तुम्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि व्यक्ति की क्या जिम्मेदारियाँ होती हैं। जिन जिम्मेदारियों को अविश्वासी सर्वोच्च सम्मान देते हैं, जैसे कि संतानोचित व्यवहार करना, अपने माता-पिता का भरण-पोषण करना और अपने परिवार का नाम करना, उनका उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है। ये सभी खोखली हैं और इनका कोई वास्तविक अर्थ नहीं है। वह न्यूनतम जिम्मेदारी क्या है जो एक व्यक्ति को निभानी चाहिए? सबसे व्यावहारिक यह है कि आज तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह कैसे निभाते हो। हमेशा केवल बेमन से काम करके संतुष्ट हो जाना अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना नहीं है, और केवल सिद्धांतों के शब्दों की तोता-रटंत करना अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना नहीं है। केवल सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना ही अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना है, और जब तुम्हारा सत्य का अभ्यास प्रभावी और लोगों के लिए लाभकारी रहता है, तभी तुमने वास्तव में अपनी जिम्मेदारी पूरी की होती है। तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभा रहे हो, अगर तुम सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते रहते हो, केवल तभी माना जाएगा कि तुमने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है। मानवीय तरीके के अनुसार बेमन से कार्य करना लापरवाह और जल्दबाज होना है; केवल सत्य के सिद्धांतों का पालन करना ही अपने कर्तव्य का ठीक से पालन करना और अपनी जिम्मेदारी पूरी करना है। और जब तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हो, तो क्या यह निष्ठा की अभिव्यक्ति नहीं है? यह अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा की अभिव्यक्ति है। जब तुममें जिम्मेदारी का यह भाव होगा, यह इच्छा और अभिलाषा होगी, जब तुममें अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा की अभिव्यक्ति पाई जाएगी, तो ही परमेश्वर तुम पर अनुग्रह करेगा, और स्वीकृति के साथ तुम्हें देखेगा। अगर तुममें जिम्मेदारी का यह भाव भी नहीं है, तो परमेश्वर तुम्हें आलसी और मूर्ख समझेगा और तुमसे घृणा करेगा। ... उस व्यक्ति से परमेश्वर की क्या अपेक्षा होती है, जिसे वह कलीसिया में कोई विशेष कार्य आवंटित करता है? पहली बात, परमेश्वर आशा करता है कि वह जिम्मेदार और मेहनती होगा, कार्य को बहुत महत्व देगा, और उसे अच्छी तरह से करेगा। दूसरे, परमेश्वर आशा करता है कि वह ऐसा व्यक्ति होगा जो भरोसे के काबिल है, कि चाहे उसे कितना भी समय लगे, और चाहे उसका परिवेश कैसे भी बदले, उसकी जिम्मेदारी की भावना डगमगाएगी नहीं, और उसका चरित्र परीक्षा में खरा उतरेगा। अगर वह भरोसेमंद व्यक्ति हो, तो परमेश्वर आश्वस्त होता है। वह फिर इस मामले की निगरानी या जाँच-पड़ताल नहीं करता, क्योंकि अंदर ही अंदर परमेश्वर उस पर भरोसा करता है। जब परमेश्वर उसे यह कार्य देता है, तो उसका इसे बिना किसी चूक के पूरा करना निश्चित है। जब परमेश्वर लोगों को कोई कार्य सौंपता है, तो क्या यह उसकी इच्छा नहीं होती? (होती है।) तो जब तुम परमेश्वर की इच्छा समझ जाते हो, तो तुम्हें क्या करना चाहिए कि परमेश्वर तुम पर भरोसा करे और तुम्हें अनुमोदित करे? कई बार ऐसा होता है जब लोगों का प्रदर्शन और व्यवहार, और वह रवैया जिसके साथ वे अपना कर्तव्य निभाते हैं, उन्हें खुद से घृणा करने पर मजबूर कर देता है। तो तुम कैसे अपेक्षा कर सकते हो कि परमेश्वर तुम्हें अनुमोदित कर तुम पर अनुग्रह करे, या तुम पर विशेष ध्यान दे? क्या यह अनुचित नहीं है? (हाँ, है।) यहाँ तक कि तुम भी खुद को नीची निगाह से देखते हो, तुम भी खुद से घृणा करते हो, इसलिए तुम्हारे यह अपेक्षा करने का कोई मतलब नहीं है कि परमेश्वर तुम्हें अनुमोदित करे। इसलिए, अगर तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हें अनुमोदित करे, तो कम से कम अन्य लोगों को तुम पर भरोसा करने में सक्षम होना चाहिए। अगर तुम चाहते हो कि दूसरे तुम पर भरोसा करें, तुम्हें पसंद करें, तुम्हारे बारे में अच्छी राय रखें, तो कम से कम तुम्हें सम्माननीय, जिम्मेदार, अपने वचन का पक्का और भरोसेमंद होना चाहिए। फिर परमेश्वर के सामने कैसा होना चाहिए? अगर तुम अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में जिम्मेदार, मेहनती और समर्पित भी हो, तो तुम खुद से परमेश्वर की अपेक्षाएँ ज्यादातर पूरी करते हो। तब तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त होने की आशा है, है न?(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि हर इंसान की अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य होते हैं, उसे गरिमा और मूल्यों के साथ जीना होता है, अहम यह है कि क्या हम अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर पाते हैं, अपने कर्तव्य को गंभीरता और ध्यान से लेते हैं। हमें लगातार चेताने के लिए दूसरों की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए, हममें जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए। हालात चाहे जैसे भी हों, अहम यह है कि क्या इंसान अपना काम लगन से करता है। ऐसे रवैये वाले लोगों में ही चरित्र और गरिमा होती है, उन पर भरोसा किया जा सकता है, और उन्हीं के कर्म परमेश्वर को याद रहते हैं। परमेश्वर की इच्छा को समझना मुझे प्रबुद्ध करने वाला था, इससे मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। इसके बाद अपने कर्तव्य में, मैं खुद को निरंतर याद दिलाती रही कि ज्यादा सचेत रहूँ, सत्य के सिद्धांत खोजूँ, और भरसक बढ़िया करने का प्रयास करूँ।

बाद में जब मैं और एक बहन किसी छवि की डिजाइन के बारे में बातें कर रहीं थीं, तो उसने जिक्र किया कि हमें संदर्भ के रूप में पश्चिमी शैलियों का इस्तेमाल कर उसे प्रभावी बनाना था। जब उसने “प्रभावी” कहा, तो मुझे लगा कि यह मुश्किल होगा, और यह जानकर भी कि पश्चिमी शैलियाँ अच्छी दिखती हैं, लगा कि हर किस्म के अलंकारिक प्रभाव डालना जटिल होगा। दूसरी बहनों ने ऐसी किस्म की डिजाइनें हमेशा बनाई थीं, और मैं ऐसी चीजों में कुशल नहीं थी। इसे अच्छी तरह बनाना मेरे लिए बहुत मुश्किल होगा, इसमें बहुत सारा समय और ऊर्जा लगेगी। मुझे झिझक हुई और मैंने उसे ठुकरा देना चाहा, किसी दूसरी बहन से करवाना चाहा, लेकिन तब मुझे पहले पढ़ा हुआ परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “मान लो, कलीसिया तुम्हें कोई काम करने के लिए देता है, और तुम कहते हो, ‘... कलीसिया मुझे जो भी काम सौंपेगी, मैं उसे पूरे दिल और ताकत से करूँगा। अगर कुछ ऐसा हुआ जो मुझे समझ न आए, या अगर कोई समस्या सामने आई, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करूँगा, सत्य की तलाश करूँगा, सत्य के सिद्धांत समझूँगा, और काम अच्छे से करूँगा। मेरा जो भी कर्तव्य हो, मैं उसे अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना सब-कुछ इस्तेमाल करूँगा। मैं जो कुछ भी हासिल कर सकता हूँ, उसके लिए मैं अपनी जिम्मेदारी निभाने की पूरी कोशिश करूँगा, और कम से कम, मैं अपने जमीर और विवेक के खिलाफ नहीं जाऊँगा, न लापरवाह और अनमना बनूँगा, न कपटी और कामचोर बनूँगा, न ही दूसरों के श्रम-फल का आनंद उठाऊँगा। मैं जो कुछ भी करूँगा, वह अंतःकरण के मानकों से नीचे नहीं होगा।’ यह मानवीय व्यवहार का न्यूनतम मानक है, और जो अपना कर्तव्य इस तरह निभाता है, वह एक कर्तव्यनिष्ठ, समझदार व्यक्ति कहलाने योग्य हो सकता है। अपना कर्तव्य निभाने में कम से कम तुम्हारा अंतःकरण साफ होना चाहिए, और तुम्हें कम से कम यह महसूस करना चाहिए कि तुम रोजाना अपना तीन वक्त का भोजन कमाकर खाते हो, मांगकर नहीं। इसे दायित्व-बोध कहते हैं। चाहे तुम्हारी क्षमता ज्यादा हो या कम, और चाहे तुम सत्य समझते हो या नहीं, तुम्हारा यह रवैया होना चाहिए : ‘चूँकि यह काम मुझे करने के लिए दिया गया था, इसलिए मुझे इसे गंभीरता से लेना चाहिए; मुझे इससे सरोकार रखकर अपने पूरे दिल और ताकत से इसे अच्छी तरह से करना चाहिए। रही यह बात कि मैं इसे पूर्णतया अच्छी तरह से कर सकता हूँ या नहीं, तो मैं कोई गारंटी देने की कल्पना तो नहीं कर सकता, लेकिन मेरा रवैया यह है कि मैं यह सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश करूँगा कि यह अच्छी तरह से हो, और मैं निश्चित रूप से इसके बारे में लापरवाह और अनमना नहीं रहूँगा। अगर कोई समस्या आती है, तो मुझे जिम्मेदारी लेनी चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि मैं इससे सबक सीखूँ और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाऊँ।’ यह सही रवैया है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। मैंने सोचा कि मैं पहले अपने कर्तव्य में कितनी ज्यादा गैर-जिम्मेदार थी। हमेशा बेपरवाही से कर्तव्य निभाती थी और ऐसे बहुत-से काम करती थी जिनसे परमेश्वर को चिढ़ थी। इस बार मैं देह-सुख और आराम नहीं चाह सकती थी, मुझे परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखकर कर्तव्य की जिम्मेदारी उठानी थी। मैंने मन-ही-मन संकल्प लिया कि चाहे जितना भी हासिल कर पाऊँ, पहले मुझे समर्पण कर कड़ी मेहनत करनी चाहिए। भरसक बढ़िया करना बहुत अहम था। इन विचारों से लगा कि मुझे दिशा मिल गई थी। मैंने हमारे काम के सिद्धांतों के बारे में सोचा और कुछ संदर्भ सामग्री जुटाई, फिर बहुत-से नमूने बनाकर दूसरी बहनों को सुझावों के लिए भेजे। कुछ फेर-बदल के बाद उसे अंतिम रूप दिया जा सका। इस तरह काम करके मेरे दिल को ज्यादा सुकून मिला, लगा मानो मैं पहले से ज्यादा व्यावहारिक थी।

इसके बाद, मैंने आत्म-चिंतन करने और कर्तव्य में देह-सुख को त्याग देने पर ध्यान दिया। मैंने पक्का किया कि अपने रोजमर्रा के जीवन में छोटी-छोटी बातों और कलीसिया द्वारा सौंपे गए कामों पर ज्यादा ध्यान दूँ, और सोचूँ कि कर्तव्य बेहतर कैसे निभाया जाये। इससे मुझे थकान नहीं हुई, बल्कि मुझे तृप्ति मिली। इस प्रकार का इंसान होना सचमुच बहुत बढ़िया है। हालांकि अभी भी मैं कभी-कभार देह-सुख और आराम की चाह रखती हूँ, फिर भी अब अपनी भ्रष्टता को लेकर पहले से ज्यादा जागरूक हूँ। मैं जानती हूँ कि मुझे फौरन परमेश्वर से प्रार्थना कर देह-सुख त्यागने और बेपरवाह, कपटी और गैर-जिम्मेदार होने पर मुझे अनुशासित करने की विनती करनी होगी। समय के साथ, मैं अपने कर्तव्य का बोझ उठा पा रही हूँ, और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर अपना कर्तव्य निभाने को तैयार हूँ। ईमानदारी, गरिमा और आंतरिक शांति के साथ जीने का यही एकमात्र मार्ग है!

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