11. मैंने बीमारी से सबक सीखा
मार्च 2023 में मैंने पाया कि मुझे अक्सर प्यास लगती है, मुँह सूखता है और मेरी नजर कमजोर होती जा रही है। कभी-कभी सभा तक पहुँचने में सिर्फ दस मिनट लगते थे, लेकिन जब मैं मेजबान के घर पहुँचती थी तो मुझे पीने के लिए जल्दी से पानी ढूँढ़ना पड़ता था। एक बहन ने मुझे अपने ब्लड शुगर की जाँच कराने की सलाह दी। जब उसने इसका जिक्र किया, मुझे याद आया कि जब मैं गर्भवती थी, तब मुझे गर्भावस्था का मधुमेह हो गया था और बच्चे को जन्म देने के बाद भी मेरा ब्लड शुगर ज्यादा था, इसलिए डॉक्टर ने मुझे कुछ दवाएँ दी थीं। उस समय मैंने सोचा था कि यह छोटी-मोटी बीमारी कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि मैं जवान हूँ और सिर्फ चीनी से परहेज करके इसे नियंत्रित कर सकती हूँ और इसलिए उस घटना के बाद मैंने फिर कभी जाँच नहीं करवाई। बहन से सुझाव मिलने के बाद मैंने घर जाकर अपना ब्लड शुगर मापा और लगातार दो दिनों तक मेरा ब्लड शुगर 15 mmol/L से ज्यादा था। मेरा दिल बैठ गया और मुझे यकीन हो गया कि मुझे मधुमेह है। मैंने सोचा कि कैसे मेरी माँ बयालीस साल की उम्र में चल बसी थी और उसे भी अक्सर प्यास लगती थी, जिससे मुझे शक हुआ कि मुझे वंशानुगत मधुमेह है और न चाहते हुए भी मुझे डर लगने लगा कि मैं भी अपनी माँ की तरह जल्दी मर जाऊँगी। मुझे इस बीमारी से घुटन हो गई, मैं सोच रही थी, “मधुमेह सर्दी-जुकाम जैसा नहीं है, एक बार हो जाए तो यह जिंदगी भर साथ रहता है!” उस दौरान जब मैं अपने कार्य से घर लौटती थी तो सबसे पहले इंटरनेट पर घरेलू उपचार खोजती थी और सोचती थी कि अपना ब्लड शुगर कैसे कम किया जाए। एक बार एक वेबसाइट ब्राउज करते समय मैंने एक डॉक्टर को यह कहते हुए देखा कि मधुमेह की जटिलताएँ बहुत गंभीर होती हैं और वे अंधेपन और गंभीर मामलों में तो अंग-विच्छेदन का कारण बन सकती हैं। मैं बहुत परेशान हो गई, सोचने लगी, “मैं सिर्फ तीस पार की हूँ, मुझे यह बीमारी कैसे हो सकती है? अगर यह गंभीर होती रही और मैं अंधी हो गई और मेरा अंग काटना पड़ा तो मैं बिल्कुल बेकार हो जाऊँगी। क्या यह मौत से भी बदतर नहीं होगा? मैं अभी भी बहुत युवा हूँ, मैं भविष्य में क्या करूँगी? मैंने लंबे समय तक ब्लड शुगर को ठीक से नियंत्रण में न रखा तो मेरा जीवन खतरे में पड़ सकता है!” मैं घबराहट और चिंता की अवस्था में जी रही थी, अक्सर सोचती रहती थी कि अगर मेरी बीमारी बढ़ गई तो क्या होगा और मैं कब तक जीवित रह पाऊँगी। मुझे लगता था कि मेरी बीमारी वाकई गंभीर है और अपने कर्तव्य करते हुए और अधिक कष्ट सहना मेरे शरीर को ही नुकसान पहुँचाएगा। अच्छी सेहत के बिना अपने कर्तव्य करते हुए कष्ट सहने और कीमत चुकाने से क्या लाभ होगा? अंत में मुझे अभी भी मौत का सामना करना पड़ेगा और फिर मेरे सारे अनुसरण धरे रह जाएँगे!
कुछ दिनों बाद इन्फ्लूएंजा ए का प्रकोप फैला और मेरे तीन बच्चों को सर्दी लग गई और बुखार हो गया। मुझे अपने बच्चों को हर दिन टीके लगवाने ले जाना पड़ता था और फिर अपने कर्तव्य करने के लिए निकलना पड़ता था। मेरे दिन भागदौड़ में बीतते थे और मैं बहुत थक जाती थी। मैं मन ही मन सोचती थी, “क्या इसकी वजह मेरी बीमारी हो सकती है? मैं खुद को थका नहीं सकती, वरना मेरा शरीर टिक नहीं पाएगा!” मैंने यह भी सोचा, “परमेश्वर को पाने के कुछ समय बाद से ही मैं ही खुद को खपा रही हूँ और कीमत चुका रही हूँ। परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की और इस बीमारी को ठीक क्यों नहीं किया?” मैंने अपने दिल में शिकायत की और अपने कर्तव्य करने की प्रेरणा खो दी। उस समय मैं कलीसिया में एक अगुआ थी और भले ही ऐसा लगता था कि मैं अपने कर्तव्य निभा रही हूँ, लेकिन सभाओं के दौरान हमेशा मेरा मन उचाट रहता था और मैं यही सोचती रहती थी कि अपनी बीमारी का इलाज कैसे किया जाए। कलीसिया के कार्य के मसलों से निपटना तो दूर रहा, मैं उन पर ध्यान तक नहीं देती थी। मैं अपने कर्तव्यों में बस काम चला रही थी और मुझे कुछ हद तक अपराध बोध भी हुआ, लेकिन मैंने खुद को दिलासा दिया, “कुछ लोग मेरे जितना व्यस्त हुए बिना अपने कर्तव्य करते हैं और क्या वे अच्छा नहीं कर रहे हैं? मैं अपनी बीमारी को सिर्फ इसलिए नहीं बढ़ने दे सकती क्योंकि मैं बहुत व्यस्त हूँ। अच्छी सेहत के बिना सब कुछ खो जाता है और अगर मैं मर गई तो मुझे बचाया नहीं जा सकेगा। मुझे अपनी सेहत का ध्यान रखने की जरूरत है।” कुछ दिनों बाद मेरे बच्चों की बीमारियाँ धीरे-धीरे ठीक हो गईं। लेकिन मुझे बुखार रहने लगा और दवा से कोई फायदा होता नहीं दिखा। मुझे इतनी खाँसी आ रही थी कि मेरी छाती में दर्द और जकड़न हो रही थी और मुझमें सभाओं में जाने की ऊर्जा नहीं बची थी, इसलिए मैं घर पर ही आराम करने लगी। अचानक मुझे लगा कि अपने कर्तव्य करना और परिवार की देखभाल करना दोनों ही बहुत थका देने वाले काम हैं, इसलिए मेरे मन में अपने कर्तव्य न करने का विचार आया। मैंने खुद से भी शिकायत की, “मुझे इतनी कम उम्र में इस बीमारी से क्यों जूझना पड़ रहा है? मैं अपनी आस्था और कर्तव्यों में बहुत सक्रिय हूँ। परमेश्वर ने मुझे इस बीमारी से क्यों नहीं बचाया?” कुछ दिनों बाद मेरी सर्दी ठीक हो गई, लेकिन मैं अभी भी अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर नहीं निकली। मैंने सोचा, “अगर मैं अपने कर्तव्य नहीं करूँगी तो दूसरे लोग कर देंगे। मुझे अभी अपनी सेहत का ध्यान रखना चाहिए। अब जब मुझे यह बीमारी हो गई है तो मुझे थकावट होने और बीमारी गंभीर होने का डर है। मैं इतनी मेहनत नहीं कर सकती।” उस समय मैं परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ना चाहती थी और मैं बस अपने दिन इस बारे में सोचने में बिताती थी कि अपनी बीमारी का इलाज कैसे करूँ। मैं अपने दिन ख्यालों में खो कर, अंधेरे में घिर कर, पीड़ा और संत्रास झेल कर बिताती थी।
एक दिन बहन झाओ जिंग मुझे खोजने आई। उसने कहा कि ऊपरी अगुआओं ने कार्य लागू करने पर चर्चा के लिए एक सभा आयोजित करने के लिए पत्र भेजे थे और उन्होंने दो बार मुझे खोजने की कोशिश की थी, लेकिन मुझसे संपर्क नहीं कर पाए। कुछ काम पूरे नहीं हुए थे और कुछ मामलों में देरी हो गई थी। मुझे थोड़ा अपराध बोध हुआ। मैंने सोचा कि कैसे मैं इन दिनों घर पर रह रही थी, सभाओं में शामिल नहीं हो रही थी और अपने कर्तव्य नहीं कर रही थी और मैं खुद से पूछे बिना नहीं रह सकी, “मैं ऐसी कैसे बन गई? मुझमें अंतरात्मा और विवेक की इतनी कमी कैसे हो गई?” मैंने अपनी अवस्था के बारे में झाओ जिंग से बात की और उसने मुझे इस मामले में परमेश्वर के इरादे और अधिक खोजने की याद दिलाई। इसलिए मैंने मन ही मन सोचना और खोजना शुरू किया, “मुझे इस बीमारी से क्या सबक सीखना चाहिए?” मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अगर तुम्हें बीमारी हो जाए, और तुम सिद्धांत को चाहे जितना समझ लो, फिर भी इस पर विजय न पा सको, तुम्हारा दिल अभी भी संतप्त, व्याकुल और चिंतित होगा, और न सिर्फ तुम इस मामले का शांति से सामना नहीं कर पाओगे, बल्कि तुम्हारा दिल भी शिकायतों से भर जाएगा। तुम निरंतर सोचते रहोगे, ‘किसी दूसरे व्यक्ति को यह बीमारी क्यों नहीं हुई? मुझे ही यह बीमारी क्यों पकड़ा दी गई? मेरे साथ ऐसा कैसे हो गया? यह इसलिए हुआ कि मैं दुर्भाग्यशाली हूँ, मेरा भाग्य खराब है। मैंने कभी किसी का दिल नहीं दुखाया, न ही मैंने कोई पाप किया, तो फिर मुझे यह क्यों हुआ? परमेश्वर मुझसे बहुत अनुचित बर्ताव कर रहा है!’ देखा, संताप, व्याकुलता और चिंता के अलावा तुम अवसाद में भी डूब जाते हो, एक नकारात्मक भावना के बाद दूसरी, और तुम जितना भी चाहो, इनसे बच निकलने का कोई रास्ता नहीं होता। चूँकि यह एक असली बीमारी है, इसलिए इसे आसानी से तुमसे दूर नहीं किया जा सकता या ठीक नहीं किया जा सकता, तो फिर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम समर्पण करना चाहते हो, मगर नहीं कर सकते, और अगर किसी दिन तुम समर्पण कर भी दो और अगले ही दिन तुम्हारी हालत बिगड़ जाए, बहुत तकलीफ हो, तब तुम और समर्पण नहीं करना चाहते हो, और फिर से शिकायत करना शुरू कर देते हो। तुम इसी तरह हमेशा आगे-पीछे होते रहते हो, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? आओ, मैं तुम्हें सफलता का रहस्य बताता हूँ। तुम्हें कोई बड़ी बीमारी हो या छोटी, जब तुम्हारी बीमारी गंभीर हो जाए या तुम मौत के करीब पहुँच जाओ, बस एक चीज याद रखो : मृत्यु से डरो मत। चाहे तुम कैंसर की अंतिम अवस्था में हो, तुम्हारी खास बीमारी की मृत्यु दर बहुत ज्यादा हो, फिर भी मृत्यु से डरो मत। तुम्हारा कष्ट चाहे जितना बड़ा हो, अगर तुम मृत्यु से डरोगे, तो समर्पण नहीं करोगे। कुछ लोग कहते हैं, ‘आपकी यह बात सुनकर मुझे प्रेरणा मिली है, और मेरे पास इससे भी बेहतर विचार है। न सिर्फ मैं मृत्यु से नहीं डरूँगा, मैं उसकी याचना करूँगा। क्या इससे गुजरना तब आसान नहीं हो जाएगा?’ मृत्यु की याचना क्यों? मृत्यु की याचना करना एक अतिवादी विचार है, जबकि मृत्यु से न डरना उसे अपनाने का एक वाजिब रवैया है। सही है न? (सही है।) मृत्यु से न डरने का सही रवैया क्या है जो तुम्हें अपनाना चाहिए? अगर तुम्हारी बीमारी इतनी गंभीर हो जाए कि शायद तुम मर सकते हो, और इस बीमारी की मृत्यु दर ज्यादा हो, भले ही व्यक्ति की उम्र जितनी भी हो जिसे भी यह बीमारी हुई हो, और लोगों के बीमार होने से लेकर मरने तक का अंतराल बहुत कम हो, तब तुम्हें अपने दिल में क्या सोचना चाहिए? ‘मुझे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए, अंत में सबकी मृत्यु होती है। लेकिन परमेश्वर के प्रति समर्पण एक ऐसी चीज है जो ज्यादातर लोग नहीं कर पाते, और मैं इस बीमारी का उपयोग परमेश्वर के प्रति समर्पण को अमल में लाने के लिए कर सकता हूँ। मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने की सोच और रवैया अपनाना चाहिए, और मुझे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए।’ मरना आसान है, जीने से ज्यादा आसान। तुम अत्यधिक पीड़ा में हो सकते हो, और तुम्हें इसका पता भी नहीं होगा, और जैसे ही तुम्हारी आँखें बंद होती हैं, तुम्हारी साँस थम जाती है, तुम्हारी आत्मा शरीर छोड़ देती है, और तुम्हारा जीवन खत्म हो जाता है। मृत्यु इसी तरह होती है; यह इतनी ही सरल है। मृत्यु से न डरना वह रवैया है जिसे अपनाना चाहिए। इसके अलावा तुम्हें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि क्या बीमारी बदतर हो जाएगी, या इलाज नहीं हो सका तो क्या तुम मर जाओगे, या तुम्हारे मरने में कितना वक्त लगेगा, या मृत्यु का समय आने पर तुम्हें कैसी पीड़ा होगी। तुम्हें इन चीजों के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए; ये वो चीजें नहीं हैं जिनकी तुम्हें चिंता करनी चाहिए। ऐसा इसलिए कि वह दिन तो आना ही है, किसी वर्ष, किसी महीने, या किसी निश्चित दिन आना ही है। तुम इससे छुप नहीं सकते, इससे बचकर नहीं निकल सकते—यह तुम्हारा भाग्य है। तुम्हारा तथाकथित भाग्य परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित है, और पहले ही उसके द्वारा व्यवस्थित है। तुम्हारा जीवनकाल और मृत्यु के समय तुम्हारी उम्र और समय परमेश्वर ने पहले ही तय कर रखा है। तो फिर तुम किसकी चिंता कर रहे हो? तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर इससे कुछ भी नहीं बदलेगा; तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर तुम इसे होने से नहीं रोक सकते; तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर तुम उस दिन को आने से नहीं रोक सकते। इसलिए, तुम्हारी चिंता बेकार है, और इससे बस तुम्हारी बीमारी का बोझ और भी भारी हो जाता है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि बीमारी का सामना करते समय मृत्यु से डरना और चिंता करना व्यर्थ है। मुझे इस मामले में परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पण करना सीखना था। परमेश्वर तय कर चुका है कि लोगों की मृत्यु कब होगी और कोई भी इससे बच नहीं सकता। चिंता करने से कुछ नहीं बदल सकता और इससे सिर्फ अपना बोझ ही भारी होगा। अपनी बीमारी पर चिंतन करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैंने परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास नहीं किया था। मुझमें परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने की मानसिकता या रवैया नहीं था और मुझे चिंता थी कि अगर मेरे मधुमेह को नियंत्रित नहीं किया जा सका तो यह कई जटिलताओं को जन्म दे सकता है और अगर यह गंभीर हो गया तो मैं अंधी हो सकती हूँ, अंगों को काटना पड़ सकता है या यहाँ तक कि मर भी सकती हूँ। मुझे बहुत डर लगा। मैंने यह भी सोचा कि कैसे मेरी माँ बयालीस साल की उम्र में चल बसी थी। क्या मैं भी अपनी माँ की तरह कम उम्र में मर जाऊँगी? मेरे दिल में बहुत दर्द और तकलीफ हुई। मैं अपनी बीमारी में पूरी तरह से डूब चुकी थी, अपने कर्तव्यों के बारे में जरा भी नहीं सोचती थी। मैं अपने दिन अपनी बीमारी के घरेलू उपचार खोजने में बिता देती थी और यह नहीं मानती थी कि इस बीमारी की गंभीरता और मेरी मृत्यु होगी कि नहीं होगी, यह परमेश्वर निर्धारित करता है। किसी व्यक्ति का जीवन और मरण बहुत पहले ही परमेश्वर निर्धारित कर चुका होता है। मेरी मृत्यु का सवाल ऐसी चीज नहीं है जिससे मैं बच सकती हूँ और इस बारे में चिंता करना या डरना व्यर्थ है। मुझे इस बीमारी से परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना सीखना था। मुझे इसी मानसिकता और रवैये की जरूरत थी। मुझे मरने से नहीं डरना चाहिए, न ही मुझे अपनी बीमारी के कारण अपने कर्तव्य छोड़ने चाहिए।
एक दिन मैंने एक अनुभवात्मक गवाही वीडियो देखा, जिसका शीर्षक था “कोविड होने से मैं बेनकाब हुई।” वीडियो में परमेश्वर के वचनों का एक अंश था, जिसने मुझे वाकई प्रेरित किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अपना कर्तव्य निभाने का फैसला लेने से पहले, अपने दिलों की गहराई में, मसीह-विरोधी अपनी संभावनाओं की उम्मीदों, आशीष पाने, अच्छी मंजिल पाने और यहाँ तक कि मुकुट पाने की उम्मीदों से भरे होते हैं, और उन्हें इन चीजों को पाने का पूरा भरोसा होता है। वे ऐसे इरादों और आकांक्षाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। तो, क्या उनके कर्तव्य निर्वहन में वह ईमानदारी, सच्ची आस्था और निष्ठा है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है? इस मुकाम पर, अभी कोई भी उनकी सच्ची निष्ठा, आस्था या ईमानदारी को नहीं देख सकता, क्योंकि हर कोई अपना कर्तव्य करने से पहले पूरी तरह से लेन-देन की मानसिकता रखता है; हर कोई अपना कर्तव्य निभाने का फैसला अपने हितों से प्रेरित होकर और अपनी अतिशय महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति की पूर्व-शर्त पर करता है। अपना कर्तव्य निभाने के पीछे मसीह-विरोधियों का इरादा क्या है? यह सौदा और लेन-देन करने का इरादा है। यह कहा जा सकता है कि यही वे शर्तें हैं जो वे कर्तव्य करने के लिए निर्धारित करते हैं : ‘अगर मैं अपना कर्तव्य करता हूँ, तो मुझे आशीष मिलने चाहिए और एक अच्छी मंजिल मिलनी चाहिए। मुझे वे सभी आशीष और लाभ मिलने चाहिए जो परमेश्वर ने कहा है कि वे मानवजाति के लिए बनाए गए हैं। अगर मैं उन्हें नहीं पा सकता, तो मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा।’ वे ऐसे इरादों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। ऐसा लगता है कि उनमें थोड़ी ईमानदारी है, और बेशक जो नए विश्वासी हैं और अभी अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर रहे हैं, उनके लिए इसे उत्साह भी कहा जा सकता है। मगर इसमें कोई सच्ची आस्था या निष्ठा नहीं है; केवल उस स्तर का उत्साह है। इसे ईमानदारी नहीं कहा जा सकता। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति मसीह-विरोधियों के इस रवैये को देखें तो यह पूरी तरह से लेन-देन वाला है और आशीष पाने, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने, मुकुट पाने और इनाम पाने जैसे लाभों की उनकी इच्छाओं से भरा हुआ है। इसलिए, बाहर से ऐसा लगता है कि निष्कासित किए जाने से पहले कई मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और उन्होंने एक औसत व्यक्ति की तुलना में अधिक त्याग किया है और अधिक कष्ट झेला है। वे जो खुद को खपाते हैं और जो कीमत चुकाते हैं वह पौलुस के बराबर है, और वे पौलुस जितनी ही भागदौड़ भी करते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे हर कोई देख सकता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी अपने भविष्य और अपने लिए सुंदर गंतव्य के लिए असंयमित इच्छाओं से भरे हुए हैं। वे ऐसे इरादे लेकर अपने कर्तव्य निभाने आते हैं, सिर्फ आशीष पाना चाहते हैं, उनमें कोई निष्ठा या वफादारी नहीं होती है। जब मैंने इसे अपने ऊपर लागू किया तो मुझे एहसास हुआ कि मेरे अनुसरण का मार्ग भी मसीह-विरोधियों जैसा ही था। जब मैंने परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य पहली बार स्वीकारा था तो मैंने राज्य में प्रवेश करने और आशीष पाने के लिए उत्साहपूर्वक खुद को खपाया था। मैं अपने बच्चों और परिवार को अलग रखकर सिर्फ अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए तैयार थी। लेकिन यह देखकर कि मेरा ब्लड शुगर कितना अधिक है और यह जानकर कि इससे गंभीर जटिलताएँ हो सकती हैं, अपने कर्तव्यों के प्रति मेरा रवैया पूरी तरह बदल गया और मैंने इन्हें सिरे से दरकिनार कर दिया। मैंने देखा कि अपने कर्तव्य करने में मेरा इरादा परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने का था और जब आशीष पाने की मेरी इच्छा चूर-चूर हो गई तो मैंने अपने कर्तव्य छोड़ दिए और परमेश्वर को धोखा दिया। परमेश्वर विश्वासघात से सबसे अधिक घृणा करता है, फिर भी मैंने बिल्कुल यही किया। मुझे बहुत पछतावा हुआ। मुझे पौलुस के इन बातों पर अड़े होने का ख्याल आया : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। उसका खपना, कठिनाइयाँ और बलिदान सभी आशीष और मुकुट पाने के लिए थे, न कि एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के उद्देश्य से। चूँकि उसका मार्ग गलत था, उसने हर मोड़ पर परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश की और अंत में उसने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया और उसके द्वारा दंडित हुआ। मैंने भी आशीष के बदले में खुद को खपाया था, जो परमेश्वर को बरगलाना था। क्या अनुसरण के बारे में मेरे विचार पौलुस के समान नहीं थे? अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय और ताड़ना का कार्य लोगों को उसके वचनों के माध्यम से शुद्ध और पूर्ण करना है, लेकिन मैंने केवल अनुग्रह और आशीष पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास किया, सोचती रही कि जब तक मैं सक्रियता से अपने कर्तव्य करती हूँ, परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और मुझे बीमारी या आपदा का सामना नहीं करने देगा। यह विश्वास मेरी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित था। अनुसरण के बारे में ऐसा नजरिया गलत है, यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं है और उसके लिए घृणित है। मैंने सोचा था कि मैं काफी अच्छी तरह से अनुसरण कर रही हूँ, लेकिन इस बीमारी के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि मैं सिर्फ अपने भविष्य और भाग्य के लिए परमेश्वर में विश्वास करती थी और व्यक्तिगत लाभ के लिए परमेश्वर का इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही थी। अगर मुझे आशीष न मिले तो मैं अपने कर्तव्य निभाने को तैयार नहीं थी, न ही मैं अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिए सत्य खोजती थी। मुझमें परमेश्वर के प्रति जरा भी निष्ठा या वफादारी नहीं थी। परमेश्वर पवित्र है, इसलिए वह अनुसरण के ऐसे घृणित तरीके से घृणा कैसे न करता? अब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो अगर मैंने इस बीमारी के प्रकाशन का अनुभव नहीं किया होता तो मैं आत्म-चिंतन नहीं करती, न ही मुझे यह एहसास होता कि मेरा अनुसरण गलत है।
बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला, जिससे वाकई मुझे लाभ हुआ। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब लोग परमेश्वर द्वारा आयोजित माहौल और उसकी संप्रभुता को स्पष्ट रूप से देख, समझ और स्वीकार कर उसके आगे समर्पण नहीं कर पाते, और जब लोग अपने दैनिक जीवन में तरह-तरह की मुश्किलों का सामना करते हैं, या जब ये मुश्किलें सामान्य लोगों के बरदाश्त के बाहर हो जाती हैं, तो अवचेतन रूप में उन्हें हर तरह की चिंता और व्याकुलता होती है, और यहाँ तक कि संताप भी हो जाता है। वे नहीं जानते कि कल या परसों कैसा होगा, या कुछ साल बाद चीजें कैसी होंगी, या उनका भविष्य कैसा होगा, और इसलिए वे हर चीज के बारे में संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। ऐसा कौन-सा संदर्भ होता है जिसमें लोग हर चीज को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित होते हैं? होता यह है कि वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास नहीं रखते—यानी वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास कर उसे समझ नहीं पाते। अपनी आँखों से देखने पर भी वे उसे नहीं समझ सकते, या उस पर यकीन नहीं कर सकते। वे नहीं मानते कि उनके भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता है, वे नहीं मानते कि उनके जीवन परमेश्वर के हाथों में हैं, और इसलिए उनके दिलों में परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति अविश्वास पैदा हो जाता है, और फिर दोषारोपण होता है, और वे समर्पण नहीं कर पाते। दोष मढ़ने और समर्पित न हो पाने के अलावा वे अपने भाग्य का मालिक बनना चाहते हैं, और अपनी ही पहल पर कार्य करना चाहते हैं। जब वे अपनी पहल पर कार्य शुरू कर देते हैं तो फिर असली स्थिति क्या होती है? बस वे अपनी काबिलियत और योग्यता पर भरोसा कर जीने लगते हैं, लेकिन ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो वे हासिल नहीं कर पाते, या वहाँ पहुँच नहीं पाते, या अपनी काबिलियत और योग्यताओं से पूरी नहीं कर पाते” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं आखिरकार समझ गई कि मुझे परमेश्वर की संप्रभुता की कोई समझ नहीं है। मैं अपनी बीमारी को लेकर हमेशा विचलित, परेशान और चिंतित रहती थी, प्रार्थना किए बिना या परमेश्वर के इरादे खोजे बिना लगातार अपने दम पर सोचती और योजना बनाती रहती थी। मुझे विश्वास नहीं था कि परमेश्वर सब पर संप्रभु है और हमेशा खुद ही कोई रास्ता निकालना चाहती थी। मैंने देखा कि मैं वाकई ईसाई कहलाने के लायक नहीं थी! मैंने सोचा कि जब अविश्वासी बीमार पड़ते हैं तो वे कैसे निराश, असहाय और बेसहारा हो जाते हैं और कैसे वे खुद को ठीक करने के उपाय खोजने के लिए निपट अकेले पड़ जाते हैं। मैं परमेश्वर में विश्वास करती हूँ और परमेश्वर सबका संप्रभु है, इसलिए मुझे उस पर भरोसा करना चाहिए। मुझे अपने इलाज में सहयोग करना था और साथ ही अपने कर्तव्य भी अच्छी तरह से करने थे। मैंने उन लगभग दो वर्षों पर विचार किया, जब से मैं परमेश्वर में विश्वास करती थी और मुझे एहसास हुआ कि मैंने जो कुछ भी आनंद लिया था, वह परमेश्वर का अनुग्रह था और मैं हर दिन परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में रहती थी। यह बीमारी परमेश्वर की अनुमति से हुई थी और उसने मेरे लिए इन परिस्थितियों को सावधानी से व्यवस्थित किया था ताकि मैं खुद को जान सकूँ और समझ सकूँ कि मानव जीवन परमेश्वर के हाथों में है, जिससे आशीष के लिए मेरी इच्छा शुद्ध हो सके। फिर भी मैंने परमेश्वर को गलत समझा और उसके खिलाफ शिकायत की, उस पर शक किया और लगातार अपनी देह के लिए रास्ता खोजती रही। मैंने देखा कि मेरे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं थी। मैं वाकई अंधी और मूर्ख थी! मैंने कलीसिया की एक बुजुर्ग बहन के बारे में भी सोचा, जिसे दिल की गंभीर बीमारी थी। डॉक्टरों ने कहा कि वह बच नहीं पाएगी और उसके परिवार ने उसके अंतिम संस्कार की तैयारी कर ली थी लेकिन भले ही बहन तकलीफ में थी, उसने परमेश्वर के खिलाफ शिकायत नहीं की और बाद में चमत्कारिक रूप से उसकी हालत सुधर गई। कुछ समय बाद वह अपने कर्तव्य भी करने लगी और उसकी दवा भी बंद हो गई और उसके स्वास्थ्य में ठीक-ठाक सुधार हो गया। मैंने देखा कि कैसे मेरी बुजुर्ग बहन ने अपनी बीमारी के दौरान परमेश्वर पर भरोसा किया और अपनी गवाही में अडिग रही और फिर भी मेरी बीमारी मुझे डराती थी, जो उसकी बीमारी जितनी गंभीर भी नहीं थी। सचमुच मुझमें उसकी तरह सच्ची आस्था नहीं थी। मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई! मुझे चिंता या डर नहीं होना चाहिए और मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए और उस स्थिति का सक्रियता से अनुभव करना चाहिए जो परमेश्वर ने मेरे लिए आयोजित की थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “तो तुम कैसे चुनोगे, और बीमार पड़ने की बात को तुम्हें किस नजरिए से देखना चाहिए? यह बहुत सरल है, और चलने का एक पथ है : सत्य का अनुसरण करो। सत्य का अनुसरण करो, और इस बात को परमेश्वर के वचनों और सत्य-सिद्धांतों के अनुसार देखो—यही समझ लोगों में होनी चाहिए। तुम्हें अभ्यास कैसे करना चाहिए? ये सभी अनुभव लेकर तुम अपने द्वारा हासिल समझ, और सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार प्राप्त सत्य-सिद्धांतों का अभ्यास करो, और तुम उन्हें अपनी वास्तविकता और अपना जीवन बनाओ—यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि तुम्हें अपने कर्तव्य का परित्याग करना ही नहीं चाहिए। चाहे तुम बीमार हो या पीड़ा में, जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, जब तक तुम जिंदा हो, जब तक तुम चल-फिर और बोल सकते हो, तब तक तुममें अपना कर्तव्य निभाने की ऊर्जा है, और तुम्हें विवेकशील होकर अपने कर्तव्य-निर्वाह में सुव्यवहार दिखाना चाहिए। तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्य, या सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें दी गई जिम्मेदारी का परित्याग नहीं करना चाहिए। जब तक तुम अभी मरे नहीं हो, तुम्हें अपना कर्तव्य पूर्ण करना चाहिए, और इसे अच्छे से निभाना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर ने कहा है कि जब तक व्यक्ति की साँस चलती है, उसे अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करने चाहिए और अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं छोड़नी चाहिए, क्योंकि किसी व्यक्ति के कर्तव्य सृजित प्राणी के लिए स्वर्ग से भेजा हुआ व्यवसाय और परमेश्वर की ओर से आदेश है। मेरी परिस्थितियों के बावजूद मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना था, क्योंकि ऐसा करना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है। मैं यह भी समझ गई कि आशीष पाने या दुर्भाग्य सहने से मेरे कर्तव्यों का कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करने के बाद व्यक्ति के स्वभाव बदलने से आशीषें प्राप्त होती हैं। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने, एक सृजित प्राणी के कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह या प्रतिरोध न करते रहने में सक्षम होता है, तभी वह परमेश्वर की स्वीकृति और अनुमोदन पा सकता है। परमेश्वर किसी व्यक्ति का परिणाम इस आधार पर निर्धारित करता है कि उसका स्वभाव बदला है या नहीं, फिर भी मैं हमेशा अपने कर्तव्यों को परमेश्वर से आशीष पाने के लिए सौदेबाजी का तरीका मानती थी। सत्य का अनुसरण किए बिना मुझे ठोकर लगना और नाकामी मिलना पूर्वनिधारित था। भले ही मुझे कोई बीमारी न भी हो, अगर मैं अपने कर्तव्य ठीक से करने में नाकाम रही और सत्य नहीं पाया तो क्या अंततः परमेश्वर अब भी मुझे निकाल नहीं देगा और नष्ट नहीं कर देगा? मैं बीमार हूँ या नहीं, यह वाकई महत्वपूर्ण नहीं है, जो बात मायने रखती है वह यह है कि मैं सत्य पा सकती हूँ या नहीं। अब मैं अपनी बीमारी से बेबस नहीं होती, मैं जरूरत के अनुसार अपनी दवाएँ लेती हूँ और अपनी खुराक पर ध्यान देती हूँ और मुझे अब इस बात की चिंता नहीं होती कि मैं मर सकती हूँ। इसके बजाय मैं सब कुछ परमेश्वर को सौंपने और उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने का अभ्यास करती हूँ।
इस बीमारी का मेरा अनुभव मेरे लिए बेहद फायदेमंद रहा है, क्योंकि इसने परमेश्वर में विश्वास में मेरे पथभ्रष्ट अनुसरण को सुधारा है। अगर यह बीमारी न होती तो मैं आशीष पाने के इरादे से अपने कर्तव्य करती रहती और इस तरह से विश्वास करते हुए अपना जीवन बिताने से मुझे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिल पाती। मुझे समझ आ गया कि परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित यह स्थिति वाकई अच्छी और लाभदायक थी और मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ!