8. मैं अब अपने बेटे से ज्यादा अपेक्षाएँ नहीं रखती
मैं ग्रामीण क्षेत्र में पली बढ़ी थी और घर पर जीवन बहुत कठिन था। मैं शहर के लोगों के जीवन से ईर्ष्या करती थी और मुझे लगता था कि केवल मेहनत से पढ़ाई करके, विश्वविद्यालय में दाखिला लेकर और एक स्थिर नौकरी हासिल करके ही मैं सुबह से शाम तक खेतों में काम करने के जीवन से बच सकती हूँ। जब मैं स्कूल में थी तो मैंने खुद को पढ़ाई के लिए समर्पित कर दिया। यहाँ तक कि जब बाकी लोग आराम कर रहे होते थे, तब भी मैं पढ़ाई जारी रखती थी। हफ्ते के आखिर में घर नहीं जाती थी क्योंकि मुझे डर था कि घर लौटने से मेरी पढ़ाई पर असर पड़ेगा। लेकिन चीजें वैसी नहीं हुईं जैसी मैं चाहती थी। मैंने चाहे जितनी मेहनत से पढ़ाई की, फिर भी मेरी ग्रेड में कोई बड़ा सुधार नहीं हुआ। मैंने स्कूल का साल भी दोहराया लेकिन फिर भी विश्वविद्यालय में दाखिला नहीं ले पाई। नतीजतन मुझे गंभीर अनिद्रा की बीमारी हो गई। कॉलेज की प्रवेश परीक्षा में असफल होने के बाद मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई और छह महीने से ज्यादा समय तक मैं घर से बाहर नहीं निकली। शादी के बाद, मैंने और मेरे पति ने घर पर ही एक व्यवसाय शुरू किया। भले ही हम हर रोज सुबह से शाम तक काम करते थे, लेकिन फिर भी हम ज्यादा पैसे नहीं कमा पाते थे। हमारे बेटे के जन्म के बाद, यह देखकर कि वह कितना होशियार और प्यारा है, मैंने सोचा, “क्योंकि मेरी अपनी इच्छाएँ पूरी नहीं हुई हैं, मुझे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मेरा बच्चा कड़ी मेहनत से पढ़ाई कर सके और भविष्य में विश्वविद्यालय में दाखिला ले सके, एक सम्मानजनक नौकरी ढूँढे और भीड़ से अलग दिखे। इस तरह हम गरीबी के जीवन से बाहर निकल सकते हैं और इससे मैं भी अच्छी दिखूंगी। जब मैं बच्ची थी, तो मेरी कई बहनें होने की वजह से मेरे माता-पिता के पास हमारी पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए समय नहीं था, जिसके कारण मेरी शैक्षणिक नींव कमजोर बनी। मुझे कम उम्र से ही अपने बच्चे की शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि उसकी नींव ठोस बने।” इसलिए, जब भी मुझे कोई ऐसी किताब दिखती जो उसकी ग्रेड में सुधार ला सकती थी, तो मैं वह उसके लिए खरीद लेती। कभी-कभी जब मेरा बच्चा स्कूल से घर आता और थोड़ा खेलना चाहता, तो मैं उससे कहती, “अगर तुम अभी मेहनत से पढ़ाई नहीं करोगे, तो तुम्हें भविष्य में कड़ी मजदूरी करनी पड़ेगी और दूसरे लोग हमारी तरह ही तुम्हें भी नीची नजरों से देखेंगे। वो कितना थकाऊ होगा! मैं किसके लिए हर रोज इतनी मेहनत कर रही हूँ? क्या यह सब तुम्हारे लिए नहीं है? और फिर भी तुम कोई प्रयास नहीं करते हो!” कोई विकल्प न होने पर, मेरा बच्चा मन मार कर अपना होमवर्क करने लगता था। उसके होमवर्क खत्म कर लेने के बाद भी मैं उसे खेलने के लिए बाहर नहीं जाने देती थी; इसके बजाय, मैं उसे और ज्यादा होमवर्क दे देती थी। मेरा मानना था, “अगर आप किसी किताब को सौ बार पढ़ेंगे तो उसका मतलब अपने आप स्पष्ट हो जाएगा।” इसलिए हर सुबह, मैं उसे अपने पाठ याद करने के लिए आधा घंटा पहले उठा देती थी। जब वह पढ़ना नहीं चाहता और नखरे दिखाता, तो मैं उस पर चिल्लाती और उसे भाषण सुना देती थी। हर रोज मैं एक कसी हुई स्प्रिंग की तरह रहती थी, कभी भी आराम करने की हिम्मत नहीं करती थी। जब भी मेरा बच्चा थोड़ा भी कहना नहीं मानता, तो मैं उसे डांट देती, “तुम सुनते क्यों नहीं हो! मैं हर रोज कड़ी मेहनत करती हूँ, तुम्हारी पढ़ाई पर नजर रखती हूँ, जब तुम स्कूल जाते हो तो तुम्हारे कपड़े धोती हूँ और तुम्हारे लिए खाना बनाती हूँ, इन सब के बाद तुम्हारे लिए अच्छा खाना खरीदने के लिए काम भी करती हूँ। मैं ये सब किसके लिए कर रही हूँ? क्या यह सब तुम्हारे उज्ज्वल भविष्य के लिए नहीं है? अगर तुम मेरी बात नहीं सुनोगे और मन लगाकर पढ़ाई नहीं करोगे, तो बाद में पछताओगे!” मुझे डर था कि अगर उसने खेलना शुरू किया तो वह अपना मन वापस पढ़ाई में नहीं लगा पाएगा, इसलिए मैं उसे खेलने के लिए बाहर नहीं जाने देती थी। कभी-कभी, जब मैं उसे बाहर ले भी जाती थी, तो सिर्फ किताबों की दुकान तक जाने के लिए। मैं उसके पीछे लगी रही, कभी उसका साथ नहीं छोड़ा, उससे पढ़ाई करने का आग्रह करती रही, उसके मिडिल स्कूल में दाखिले के बाद भी यह सिलसिला उसी तरह जारी रहा।
जब मेरा बच्चा मिडिल स्कूल में था, उसके अंग्रेजी के ग्रेड खराब आते थे, इसलिए मैंने सोचा कि पहले मुझे इसे सीखना होगा—मैं उसे और कैसे सिखा सकती थी? मेरा मानना था कि विश्वविद्यालय में दाखिला पाने की उसकी संभावना ज्यादा तभी होगी जब सभी विषयों में उसके ग्रेड अच्छे होंगे। और केवल विश्वविद्यालय में दाखिला लेकर ही उसे अपनी किस्मत बदलने का मौका मिल सकता था। अगर वह आगे बढ़ सका, तो इससे माता-पिता के रूप में हमारे लिए भी सम्मान बढ़ेगा। भले ही मुझे कई चीजों पर ध्यान देना होता था, जिससे सीखना कठिन हो गया था, फिर भी मैंने प्रयास किया और इसमें महारत हासिल करने के बाद, मैं उसे तब तक पढ़ाती जब तक वह समझ नहीं जाता। यह देखकर कि वह हर रोज कितना परेशान दिखता था, बात नहीं करना चाहता था, मुस्कुराता नहीं था, इतनी कम उम्र में उसकी पीठ झुकने लगी थी, ऊर्जा की कमी थी, मुझे बहुत दुख होता था। लेकिन उसके उज्ज्वल भविष्य की खातिर, मुझे लगा कि मेरे पास उसे ऐसे ही प्रोत्साहित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। अंत में, मेरे बच्चे को केवल एक दूसरे दर्जे के विश्वविद्यालय में ही दाखिला मिल पाया। मुझे लगा कि दूसरे दर्जे के विश्वविद्यालय में दाखिला लेने से भविष्य में कुछ खास हासिल नहीं होगा, इसलिए मैंने उससे शहर के एक प्रमुख हाई स्कूल में अपनी पढ़ाई दोहराने को कहा। आखिरकार, मेरी सारी मेहनत के बाद उसे एक आदर्श विश्वविद्यालय में दाखिला मिल गया। मैं बहुत खुश और गौरवान्वित थी, मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी चाल ही बदल गई। मैंने सोचा कि जब मेरा बच्चा विश्वविद्यालय से स्नातक होकर एक स्थिर नौकरी हासिल कर लेगा, तब वह एक सुखी और आरामदायक जीवन जीने में सक्षम होगा, फिर बुढ़ापे में मुझे भी इसका लाभ मिलेगा। लेकिन मैंने यह उम्मीद नहीं की थी कि मेरा बच्चा स्नातक प्रमाणपत्र प्राप्त नहीं कर पाएगा क्योंकि वह सीईटी-4 (कॉलेज इंग्लिश टेस्ट बैंड 4) परीक्षा में असफल हो गया था। हमने हर संभव कोशिश की, पहुँच लगाना और जान-पहचान का फायदा उठाना चाहा, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। मैंने मन ही मन सोचा, “अब सब खत्म हो गया है; मेरे लिए बाकियों से ऊपर खड़े होने की अब कोई उम्मीद नहीं है। मेरी सालों की मेहनत का कोई फायदा नहीं हुआ और मेरी सारी उम्मीदें पूरी तरह से टूट गई हैं!” ऐसा लगा जैसे मेरी दुनिया ही उजड़ गई है। उसके बाद, मैंने बस अपने बच्चे की आलोचना और शिकायत ही की, पर्याप्त मेहनत से पढ़ाई न करने और मेरी अपेक्षाओं पर खरा न उतरने के कारण उससे निराशा होती रही। वह मेरी डांट-फटकार से इतना तंग आ चुका था कि वह घर भी नहीं आना चाहता था। विश्वविद्यालय का डिप्लोमा न होने की वजह से मेरे बेटे को नौकरी नहीं मिल पाई। जब मैं बाहर जाती थी, तो मुझे ऐसे परिचितों से मिलने का डर होता था जो पूछ सकते थे, “तुम्हारा बच्चा कहाँ काम कर रहा है? वह कैसे प्रगति कर रहा है?” अगर दूसरों को पता चला कि मेरा बच्चा विश्वविद्यालय गया था लेकिन उसके पास डिप्लोमा नहीं है, तो क्या वे यह नहीं सोचेंगे कि यह विश्वविद्यालय न जाने जैसा ही था? क्या वे मुझ पर हँसेंगे नहीं? नतीजतन, मैं हर दिन परेशान रहती थी।
दिसंबर 2021 में, मैंने अंत के दिनों का सर्वशक्तिमान परमेश्वर का उद्धार स्वीकार किया। मैंने अपनी पीड़ा एक बहन के साथ साझा की और उसने मेरे लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश ढूंढ निकाला : “कोई व्यक्ति अपने जन्म, परिपक्व होने, या अपने विवाह से चाहे कितना ही असंतुष्ट क्यों न हो, हर एक व्यक्ति जो इनसे होकर गुज़र चुका है, जानता है कि वह यह चुनाव नहीं कर सकता कि उसे कहाँ और कब जन्म लेना है, उसका रूप-रंग कैसा होगा, उसके माता-पिता कौन हैं, और कौन उसका जीवनसाथी है, वरन उसे केवल परमेश्वर की इच्छा को स्वीकार करना होगा। फिर भी जब लोगों द्वारा अगली पीढ़ी का पालन-पोषण करने का समय आता है, तो वे अपने जीवन के प्रथम हिस्से की समस्त इच्छाओं को जिन्हें वे पूरा करने में असफल रहे थे, अपने वंशजों पर थोप देते हैं। ऐसा वे इस उम्मीद में करते हैं कि उनकी संतान उनके जीवन के प्रथम हिस्से की समस्त निराशाओं की भरपाई कर देगी। इसलिए, लोग अपने बच्चों को लेकर सभी प्रकार की कल्पनाओं में डूबे रहते हैं : उनकी बेटियाँ बड़ी होकर बहुत ही खूबसूरत युवतियाँ बन जाएँगी, उनके बेटे बहुत ही आकर्षक पुरुष बन जाएँगे; उनकी बेटियाँ सुसंस्कृत और प्रतिभाशाली होंगी और उनके बेटे प्रतिभावान छात्र और सुप्रसिद्ध खिलाड़ी होंगे; उनकी बेटियाँ सभ्य, गुणी, और समझदार होंगी, और उनके बेटे बुद्धिमान, सक्षम और संवेदनशील होंगे। वे उम्मीद करते हैं कि उनकी संतान, चाहे बेटे हों या बेटियाँ, अपने बुज़ुर्गों का आदर करेगी, अपने माता-पिता का ध्यान रखेगी, और हर कोई उनसे प्यार और उनकी प्रशंसा करेगा...। इस मोड़ पर जीवन के लिए आशा नए सिरे से अंकुरित होती है, और लोगों के दिल में नई उमंगें पैदा होने लगती हैं। लोग जानते हैं कि वे इस जीवन में शक्तिहीन और आशाहीन हैं, और उनके पास औरों से अलग दिखने का न तो दूसरा अवसर होगा, न फिर ऐसी कोई आशा होगी, और यह भी कि उनके पास अपने भाग्य को स्वीकार करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है। और इसलिए, वे अगली पीढ़ी पर, इस उम्मीद से अपनी समस्त आशाओं, अपनी अतृप्त इच्छाओं, और आदर्शों को थोप देते हैं, कि उनकी संतान उनके सपनों को पूरा करने और उनकी इच्छाओं को साकार करने में उनकी सहायता कर सकती है; कि उनके बेटे-बेटियाँ परिवार के नाम को गौरवान्वित करेंगे, महत्वपूर्ण, समृद्ध, या प्रसिद्ध बनेंगे। संक्षेप में, वे अपने बच्चों के भाग्य को बहुत ऊँचाई पर देखना चाहते हैं। लोगों की योजनाएँ और कल्पनाएँ उत्तम होती हैं; क्या वे नहीं जानते कि यह तय करना उनका काम नहीं है कि उनके कितने बच्चे हैं, उनके बच्चों का रंग-रूप, योग्यताएँ कैसी हैं, इत्यादि बच्चों का थोड़ा-सा भी भाग्य उनके हाथ में नहीं है? मनुष्य अपने भाग्य के स्वामी नहीं हैं, फिर भी वे युवा पीढ़ी के भाग्य को बदलने की आशा करते हैं; वे अपने भाग्य से बचकर नहीं निकल सकते, फिर भी वे अपने बेटे-बेटियों के भाग्य को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। क्या वे अपने आप को अपनी क्षमता से बढ़कर नहीं आंक रहे हैं? क्या यह मनुष्य की मूर्खता और अज्ञानता नहीं है?” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मैं गहराई से प्रभावित हुई। परमेश्वर लोगों के भाग्य को नियंत्रित करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग कौन से तरीके अपनाते हैं या कितनी कीमत चुकाते हैं, वे अपने भाग्य के लिए परमेश्वर की व्यवस्थाओं से बच नहीं सकते। अपने बचपन के बारे में सोचते हुए मुझे याद आता है कि मैं अपने पारिवारिक जीवन से असंतुष्ट थी। मैं ज्ञान के माध्यम से अपना भाग्य बदलना चाहती थी। जब मेरी खुद की आकांक्षाएँ टूट गईं, तो मैंने अपनी उम्मीदें अपने बेटे पर लगा दीं, यह कामना करते हुए कि वह मेरी सफलता की इच्छाएँ पूरी कर सकेगा। अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, मैंने अपने बेटे पर सख्ती से नियंत्रण रखा, यह योजना बनाते हुए कि उसे हर एक टाइम स्लॉट के दौरान कैसे अध्ययन करना चाहिए। यहाँ तक कि हफ्ते के आखिर में भी मैं उसे खेलने के लिए बाहर नहीं जाने देती थी; अगर वह बाहर जाता भी, तो केवल किताबों की दुकान पर ही जा सकता था। मैंने उस पर करीब से नजर रखी थी और जब वह मन लगाकर पढ़ाई नहीं करता था तो मैं या तो उसे मारती या डांटती थी, इस डर से कि अगर उसने अच्छा नहीं किया, तो उसे अच्छे विश्वविद्यालय में दाखिला नहीं मिलेगा और मैं अच्छी नहीं दिखूंगी। मैंने अपनी सारी उम्मीदें उस पर थोप दी थीं, जिसकी वजह से उसे बेहद दबाव में जीवन जीना पड़ा, जिससे उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को काफी नुकसान पहुँचा, मैंने भी बहुत पीड़ा और थकावट भरा जीवन जिया। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ में आया कि परमेश्वर मानव के भाग्य पर शासन करता है और लोग चाहे कितनी भी कोशिश कर लें, वे इसे बदल नहीं सकते। फिर भी मैं हमेशा परमेश्वर की संप्रभुता से मुक्त होना चाहती थी, ताकि ज्ञान के माध्यम से मैं अपना और अपने बच्चे का भाग्य बदल सकूँ और बाकियों से ऊपर उठने का लक्ष्य हासिल कर पाऊँ। भले ही मैंने बड़ी कीमत चुकाई थी, अंततः चीजें मेरी इच्छाओं के विपरीत हो गईं। मैं अपने खुद के भाग्य को भी नियंत्रित नहीं कर पाई थी, फिर भी मैं अपने बच्चे के भाग्य को बदलना चाहती थी—मैं कितनी अहंकारी, दंभी, खुद को ज्यादा आंकने वाली, मूर्ख और अज्ञानी थी! मुझे याद आया कि किसी समय मेरा एक पड़ोसी था, जो कम पढ़ा-लिखा होने के बावजूद, बॉस बन गया था और उसने खूब पैसा कमाया। मेरे भतीजे की भी शिक्षा सीमित थी, लेकिन वह अपना खुद का इलेक्ट्रॉनिक्स व्यवसाय चलाकर बहुत सारा पैसा कमाने में कामयाब रहा था, वह ऐसे बहुत से लोगों की तुलना में ज्यादा समृद्ध जीवन जी रहा था जिनके पास डिप्लोमा और ज्ञान था। मेरे होमटाउन से एक छोटा भाई भी था, जिसने भले ही विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया था, पर ग्रेजुएशन के बाद वह अवसाद का शिकार हो गया था। उसकी दूसरों से बात करने की इच्छा खत्म हो गई थी और उसके पास कोई नौकरी भी नहीं थी। पहले, मुझे परमेश्वर की संप्रभुता समझ नहीं आई थी और मैं हमेशा उससे मुक्त होने का प्रयास करते हुए, खुद को और अपने बेटे दोनों को नुकसान पहुँचा रही थी। अब मुझे एहसास हुआ कि मैं गलत थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं अपने बेटे को तेरे हाथों में सौंपने के लिए तैयार हूँ। भविष्य में चाहे कुछ भी हो, मैं तेरी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार हूँ।” उस समय से, मैंने अपने बेटे को दोबारा नहीं डांटा या उसे अपना उदास चेहरा नहीं दिखाया। उसने भी पहले की तरह मुझे टालना बंद कर दिया। बाद में, जब रास्ते में मुझे एक दोस्त मिली और उसने मेरे बेटे की नौकरी के बारे में पूछा, तो मुझे फिर से बुरा लगा। मुझमें सच बोलने की हिम्मत नहीं हुई, मुझे इस बात की चिंता थी कि वह मुझे कैसे देखेगी और मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हो रही थी।
बाद में, मैंने सोचा, “मुझे लगा था कि मैं अपने बेटे की स्थिति के बारे में सोचना छोड़ सकती हूँ, लेकिन जब दूसरे लोग इस बारे में बात करते हैं तो मैं परेशान क्यों महसूस करती हूँ?” मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मनुष्य के ज्ञान अर्जित करने की प्रक्रिया के दौरान शैतान सभी प्रकार के तरीके इस्तेमाल कर सकता है, चाहे वह कहानियाँ सुनाना हो, अलग से कोई ज्ञान देना हो या उन्हें अपनी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने देना हो। शैतान तुम्हें किस मार्ग पर ले जाना चाहता है? लोगों को लगता है कि ज्ञान अर्जित करने में कुछ भी गलत नहीं है, यह पूरी तरह स्वाभाविक है। इसे आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करना, ऊँचे आदर्श पालना या महत्वाकांक्षाएँ होना प्रेरणा प्राप्त करना है, और यही जीवन में सही मार्ग होना चाहिए। अगर लोग अपने आदर्श साकार कर सकें, या सफलतापूर्वक करियर बना सकें, तो क्या यह जीने का और भी अधिक गौरवशाली तरीका नहीं है? ये चीजें करने से व्यक्ति न केवल अपने पूर्वजों का सम्मान कर सकता है, बल्कि इतिहास पर अपनी छाप छोड़ने का मौका भी पा सकता है—क्या यह अच्छी बात नहीं है? सांसारिक लोगों की दृष्टि में यह एक अच्छी बात है, और उनकी निगाह में यह उचित और सकारात्मक होनी चाहिए। लेकिन क्या शैतान, अपने भयानक इरादों के साथ, लोगों को इस प्रकार के मार्ग पर ले जाता है, और बस इतना ही होता है? बिल्कुल नहीं। वास्तव में, मनुष्य के आदर्श चाहे कितने भी ऊँचे क्यों न हों, उसकी इच्छाएँ चाहे कितनी भी यथार्थपरक क्यों न हों या वे कितनी भी उचित क्यों न हों, वह सब जो मनुष्य हासिल करना चाहता है और खोजता है, वह अटूट रूप से दो शब्दों से जुड़ा है। ये दो शब्द हर व्यक्ति के जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, और ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें शैतान मनुष्य के भीतर बैठाना चाहता है। वे दो शब्द कौन-से हैं? वे हैं ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ।’ शैतान एक बहुत ही सौम्य किस्म का तरीका चुनता है, ऐसा तरीका जो मनुष्य की धारणाओं से बहुत अधिक मेल खाता है; जो बिल्कुल भी क्रांतिकारी नहीं है, जिसके जरिये वह लोगों से अनजाने ही जीने का अपना मार्ग, जीने के अपने नियम स्वीकार करवाता है, और जीवन के लक्ष्य और जीवन में उनकी दिशा स्थापित करवाता है, और वे अनजाने ही जीवन में महत्वाकांक्षाएँ भी पालने लगते हैं। जीवन की ये महत्वाकांक्षाएँ चाहे जितनी भी ऊँची क्यों न प्रतीत होती हों, वे ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ’ से अटूट रूप से जुड़ी होती हैं। कोई भी महान या प्रसिद्ध व्यक्ति—वास्तव में सभी लोग—जीवन में जिस भी चीज का अनुसरण करते हैं, वह केवल इन दो शब्दों : ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ’ से जुड़ी होती है। लोग सोचते हैं कि एक बार उनके पास प्रसिद्धि और लाभ आ जाए, तो वे ऊँचे रुतबे और अपार धन-संपत्ति का आनंद लेने के लिए, और जीवन का आनंद लेने के लिए इन चीजों का लाभ उठा सकते हैं। उन्हें लगता है कि प्रसिद्धि और लाभ एक प्रकार की पूँजी है, जिसका उपयोग वे भोग-विलास का जीवन और देह का प्रचंड आनंद प्राप्त करने के लिए कर सकते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ की खातिर, जिसके लिए मनुष्य इतना ललचाता है, लोग स्वेच्छा से, यद्यपि अनजाने में, अपने शरीर, मन, वह सब जो उनके पास है, अपना भविष्य और अपनी नियति शैतान को सौंप देते हैं। वे ईमानदारी से और एक पल की भी हिचकिचाहट के बगैर ऐसा करते हैं, और सौंपा गया अपना सब-कुछ वापस प्राप्त करने की आवश्यकता के प्रति सदैव अनजान रहते हैं। लोग जब इस प्रकार शैतान की शरण ले लेते हैं और उसके प्रति वफादार हो जाते हैं, तो क्या वे खुद पर कोई नियंत्रण बनाए रख सकते हैं? कदापि नहीं। वे पूरी तरह से शैतान द्वारा नियंत्रित होते हैं, सर्वथा दलदल में धँस जाते हैं और अपने आप को मुक्त कराने में असमर्थ रहते हैं। जब कोई प्रसिद्धि और लाभ के दलदल में फँस जाता है, तो फिर वह उसकी खोज नहीं करता जो उजला है, जो न्यायोचित है, या वे चीजें नहीं खोजता जो खूबसूरत और अच्छी हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि प्रसिद्धि और लाभ की जो मोहक शक्ति लोगों के ऊपर हावी है, वह बहुत बड़ी है, वे लोगों के लिए जीवन भर, यहाँ तक कि अनंतकाल तक सतत अनुसरण की चीजें बन जाती हैं। क्या यह सत्य नहीं है?” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। “शैतान मनुष्य के विचारों को नियंत्रित करने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का तब तक उपयोग करता है, जब तक कि सभी लोग प्रसिद्धि और लाभ के बारे में ही न सोचने लगें। वे प्रसिद्धि और लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए कष्ट उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं, और प्रसिद्धि और लाभ के लिए कोई भी फैसला या निर्णय ले लेते हैं। इस तरह शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनमें उन्हें उतार फेंकने का न तो सामर्थ्य होता है, न साहस। वे अनजाने ही ये बेड़ियाँ ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पैर घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ के लिए मानवजाति परमेश्वर से दूर हो जाती है, उसके साथ विश्वासघात करती है और अधिकाधिक दुष्ट होती जाती है। इसलिए, इस प्रकार एक के बाद एक पीढ़ी शैतान की प्रसिद्धि और लाभ के बीच नष्ट होती जाती है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों से, मुझे समझ आया कि शैतान प्रसिद्धि और लाभ के माध्यम से लोगों को भ्रष्ट करता है, उन्हें केवल इन चीजों के पीछे भागने और यह विश्वास दिलाने के लिए उनकी अगुआई करता है कि जब तक उनके पास प्रसिद्धि और लाभ है, उनके पास सब कुछ है और उनका जीवन खुशहाल होगा। मेरा यह दृष्टिकोण था, जो जीवित रहने के शैतान के इन नियमों के अनुसार जीते हुए बना था, जैसे कि, “ज्ञान तुम्हारा भाग्य बदल सकता है,” “मनुष्य अपने हाथों से एक सुखद मातृभूमि बना सकता है,” और “अन्य अनुसरण छोटे हैं, किताबें उन सबसे श्रेष्ठ हैं।” अपने बचपन के बारे में सोचते हुए याद करती हूँ कि मेरा परिवार गरीब था और लोग हमें नीची नजरों से देखते थे। जब मैं अपनी बड़ी चचेरी बहन को शहर से वापस कार चलाते हुए आते देखती थी और गाँव के सभी लोग उसकी प्रशंसा करते थे, तब खास तौर से मुझे बहुत ईर्ष्या महसूस होती थी। मैं मन में सोचती थी कि मुझे भविष्य में अपनी चचेरी बहन की तरह जीवन जीना चाहिए और लोगों की प्रशंसा हासिल करनी चाहिए। प्रसिद्धि और लाभ पाने के लिए, मैंने अपना सारा समय पढाई को समर्पित कर दिया था, यहाँ तक कि आराम भी त्याग दिया था, जिससे अंत में मुझे गंभीर अनिद्रा का रोग हो गया था। मैं रात-रात भर जागती रहती थी और केवल नींद की गोलियों पर निर्भर रहती थी। मैं मुश्किल से एक-एक दिन काट रही थी, यह महसूस करते हुए कि जीवन मृत्यु से भी बदतर है। फिर भी, अंत में मैं विश्वविद्यालय में दाखिला नहीं ले पाई या वह जीवन हासिल नहीं कर पाई जो मैं चाहती थी। इन सब के बावजूद, मैं वास्तविकता में जागने में असफल रही और प्रसिद्धि और लाभ प्राप्त करने के लिए, मैंने अपनी अधूरी आकांक्षाओं को अपने बच्चे पर थोप दिया था। जब मेरा बच्चा छोटा था तो उसके लिए कुछ देर खेलने की चाह रखना बहुत सामान्य बात थी, लेकिन अपनी खुद की ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए मैं उसके जीवन को नियंत्रित कर रही थी, उसे हर दिन पढ़ाई के अलावा कुछ नहीं करने देती थी और जब वह अच्छी तरह से पढ़ाई नहीं करता तो उसे पीटती या डांटती थी। किसी समय जीवंत और हँसमुख रहने वाला मेरा बच्चा हर समय उदास रहने लगा, उसके बचपन की खुशी खो गई थी, कम उम्र में ही उसकी पीठ काफी झुक गई थी और गंभीर रूप से बाल झड़ने की समस्या हो गई थी। मेरे नियंत्रण के कारण मेरा बच्चा मुझसे दूर हो गया था। जब मेरे बच्चे को विश्वविद्यालय का डिप्लोमा नहीं मिल सका और मैं प्रसिद्धि और लाभ पाने का अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर पाई, तो मुझे लगा जैसे मेरी दुनिया उजड़ गई हो। मैं किसी से मिलने को तैयार नहीं थी, अपना सिर उठाने में भी शर्म महसूस हो रही थी और मेरी अपेक्षाओं पर खरा न उतरने के लिए अपने बच्चे पर अफसोस करते हुए उसकी आलोचना कर रही थी। मैं बड़ी पीड़ा में जी रही थी। ये मेरे प्रसिद्धि और लाभ के पीछे भागने की वजह से मिले कड़वे फल थे। मुझे अपनी बहन के गाँव का एक लड़का याद आया, जिसका परिवार भी बहुत गरीब था। ज्ञान के जरिए अपना भाग्य बदलने के लिए, उसने कई सालों तक अपनी पढ़ाई दोहराई, लेकिन फिर भी विश्वविद्यालय में दाखिला पाने में असफल रहा। अंत में वह अवसाद से ग्रस्त हो गया। यह शैतान द्वारा लोगों को भ्रष्ट करने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का उपयोग करने का नतीजा है। मैंने इस बात पर विचार किया कि कैसे मैं अपना जीवन शैतान के सिद्धांत के अनुसार जीते हुए, प्रसिद्धि और लाभ को अपने जीवन का लक्ष्य मानती रही। इन लक्ष्यों के लिए खुद को बेतहाशा खपाते हुए, मैंने खुद को और अपने बच्चे को नुकसान पहुँचाया। मैं अब शैतान के नुकसान से और पीड़ित नहीं होना चाहती थी और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार थी।
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “पहली बात, माँ-बाप अपने बच्चों के संबंध में जो शर्तें रखते हैं और जिस तरह का रुख अपनाते हैं, वे सही हैं या गलत? (वे गलत हैं।) आखिर जब बात माँ-बाप के अपने बच्चों के प्रति ऐसे रुख अपनाने की आती है, तो इसमें समस्या की जड़ कहाँ है? क्या यह माँ-बाप की अपने बच्चों से की गई अपेक्षाएँ नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) माँ-बाप की व्यक्तिपरक चेतना के भीतर, वे अपने बच्चों के भविष्य के लिए कई चीजों की परिकल्पना करते हैं, उनके लिए योजना बनाते हैं और उन्हें निर्धारित करते हैं, और इसलिए, उनकी ऐसी अपेक्षाएँ होती हैं। इन अपेक्षाओं के दबाव में, माँ-बाप अपने बच्चों से उम्मीद करते हैं कि वे विभिन्न प्रकार के कौशल सीखें, थिएटर और डांस या आर्ट वगैरह की पढ़ाई करें। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे प्रतिभाशाली व्यक्ति बनें, और वे दूसरों से वरिष्ठ बनें, न कि मातहत। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे ऊँचे पदाधिकारी बनें, कोई मामूली सैनिक नहीं; उनकी उम्मीद है कि उनके बच्चे प्रबंधक, सीईओ और अधिकारी बनें, दुनिया की सबसे बड़ी 500 कंपनियों में से किसी के लिए काम करें। ये सभी माँ-बाप के व्यक्तिपरक विचार हैं। अब क्या बच्चों को बालिग होने से पहले अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं के बारे में थोड़ा भी अंदाजा होता है? (नहीं।) उन्हें इन चीजों का बिल्कुल भी कोई अंदाजा नहीं होता, वे उन्हें नहीं समझते हैं। फिर छोटे बच्चे क्या समझते हैं? उन्हें बस पढ़ना सीखने के लिए स्कूल जाना, कड़ी मेहनत से पढ़ाई करना और अच्छे, शिष्ट व्यवहार वाले बच्चे बनना समझ आता है। ये अपने आप में बहुत अच्छी बात है। निर्धारित टाइम-टेबल के हिसाब से क्लास लेने के लिए स्कूल जाना और अपना होमवर्क पूरा करने के लिए घर आना—बच्चे बस यही चीजें समझते हैं, बाकी सिर्फ खेलना, खाना, कल्पनाएँ करना, सपने देखना वगैरह हैं। बालिग होने से पहले, बच्चों को अपने जीवन के मार्ग में आने वाली अज्ञात चीजों के बारे में कोई अंदाजा नहीं होता, और वे उनके बारे में कुछ सोचते भी नहीं हैं। इन बच्चों के बालिग होने के बाद के समय के लिए जिन चीजों की कल्पना की जाती या जिन्हें निर्धारित किया जाता है वे सब उनके माँ-बाप से आते हैं। इसलिए, माँ-बाप की अपने बच्चों से जो गलत अपेक्षाएँ होती हैं, उनका उनके बच्चों से कोई लेना-देना नहीं होता है। बच्चों को बस अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं का सार समझने की आवश्यकता है। माँ-बाप की ये अपेक्षाएँ किस चीज पर आधारित हैं? वे कहाँ से आती हैं? वे समाज और संसार से आती हैं। माँ-बाप की इन सभी अपेक्षाओं का उद्देश्य बच्चों को इस संसार और समाज के अनुकूल होने में सक्षम बनाना है, ताकि वे संसार या समाज द्वारा निकाले जाने से बच सकें और समाज में अपना पैर जमाते हुए एक सुरक्षित नौकरी, एक स्थिर परिवार और एक स्थिर भविष्य पा सकें; इसलिए, माँ-बाप अपने बच्चों से विभिन्न व्यक्तिपरक अपेक्षाएँ रखते हैं। उदाहरण के लिए, अभी कंप्यूटर इंजीनियर बनना काफी फैशन में है। कुछ लोग कहते हैं : ‘मेरा बच्चा भविष्य में कंप्यूटर इंजीनियर बनेगा। कंप्यूटर इंजीनियरिंग करके और पूरे दिन कंप्यूटर लेकर घूमते हुए, इस क्षेत्र में वे बहुत सारे पैसे कमा सकते हैं। इससे मेरा भी नाम रौशन होगा!’ इन परिस्थितियों में, जहाँ बच्चों को किसी भी चीज का कोई अंदाजा नहीं होता, उनके माँ-बाप उनका भविष्य तय कर देते हैं। क्या यह गलत नहीं है? (गलत है।) उनके माँ-बाप अपने बच्चों पर पूरी तरह से एक बड़े और समझदार व्यक्ति के नजरिये से चीजों को देखने के साथ-साथ संसार के मामलों में किसी बालिग व्यक्ति के विचारों, परिप्रेक्ष्यों और प्राथमिकताओं के आधार पर उम्मीदें लगा रहे हैं। क्या यह व्यक्तिपरक सोच नहीं है? (बिल्कुल है।) शिष्ट शब्दों में कहें, तो इसे व्यक्तिपरक कहना सही होगा, पर यह वाकई में क्या है? इस व्यक्तिपरकता की दूसरी व्याख्या क्या है? क्या यह स्वार्थ नहीं है? क्या यह जबरदस्ती नहीं है? (बिल्कुल है।) तुम्हें अमुक-अमुक नौकरी और अमुक-अमुक करियर पसंद है, तुम्हें अपनी पहचान बनाना, आलीशान जीवन जीना, एक अधिकारी के रूप में काम करना या समाज में अमीर आदमी बनना पसंद है, तो तुम अपने बच्चों से भी ये चीजें कराते हो, उन्हें भी ऐसे व्यक्ति बनाते हो, और इसी मार्ग पर चलाते हो—पर क्या वे भविष्य में उस माहौल में रहना और उस काम में शामिल होना पसंद करेंगे? क्या वे इसके लिए उपयुक्त हैं? उनकी नियति क्या हैं? उनको लेकर परमेश्वर की व्यवस्थाएँ और फैसले क्या हैं? क्या तुम्हें ये बातें पता हैं? कुछ लोग कहते हैं : ‘मुझे उन चीजों की परवाह नहीं है, मायने रखती हैं वे चीजें जो मुझे, उनके माँ-बाप होने के नाते पसंद हैं। मैं अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर उनसे उम्मीदें लगाऊँगा।’ क्या यह बहुत स्वार्थी बनना नहीं है? (बिल्कुल है।) यह बहुत स्वार्थी बनना है! शिष्ट भाषा में कहें, तो यह बहुत ही व्यक्तिपरक है, इसे सभी फैसले खुद लेना कहेंगे, पर वास्तव में यह है क्या? यह बहुत स्वार्थी होना है! ये माँ-बाप अपने बच्चों की काबिलियत या प्रतिभाओं पर विचार नहीं करते, वे उन व्यवस्थाओं की परवाह नहीं करते जो परमेश्वर ने हरेक व्यक्ति के भाग्य और जीवन के लिए बनाई हैं। वे इन चीजों पर विचार नहीं करते हैं, वे बस अपनी मनमर्जी से अपनी प्राथमिकताओं, इरादों और योजनाओं को अपने बच्चों पर थोपते हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (18))। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि मेरे बच्चे को तो किसी भी चीज़ का कोई अंदाज़ा ही नहीं था, मैंने ही अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जानबूझकर उस पर विभिन्न माँगें थोपी थीं। मैंने उससे बड़ी आशाएं रखीं, इस उम्मीद में कि वह समाज में खुद को स्थापित कर सके, भविष्य में एक स्थिर नौकरी हासिल कर सके और इस समाज द्वारा खत्म न कर दिया जाए, जिससे मेरी अपनी इच्छाएं भी पूरी हो जातीं। मैं लोगों की प्रशंसा पाने के लिए विश्वविद्यालय जाना चाहती थी और ग्रेजुएशन के बाद एक अच्छी नौकरी पाना चाहती थी, लेकिन क्योंकि मेरी अपनी इच्छाएँ पूरी नहीं हो पाईं, इसलिए मैंने कोशिश की कि मेरा बेटा मेरे लिए उन्हें हासिल करे। जब मेरा बेटा विश्वविद्यालय के लिए एक प्रमुख विषय चुन रहा था, तो मैंने उसकी राय नहीं पूछी। इसके बजाय, अपने विचार के आधार पर मैंने उसके लिए एक ऐसा विषय चुना जिससे ग्रेजुएशन के बाद ज्यादा कमाई हो सके। लेकिन मुझे यह अंदाजा नहीं था कि इस प्रमुख विषय के लिए अंग्रेजी में कम से कम लेवल 4 की आवश्यकता होगी। मेरा बेटा अंग्रेजी भाषा में कमजोर था और वह लेवल 4 की अंग्रेजी परीक्षा में लगातार असफल रहा था, जिससे अंत में वह अपना डिप्लोमा प्राप्त करने में असफल रहा। क्योंकि मेरा बेटा मेरी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा, मैंने उसके बारे में शिकायत की और उसकी आलोचना की, जिससे उसे बहुत दुख हुआ। मैंने कभी इस बात पर विचार नहीं किया कि मेरी माँगें उसके लिए प्राप्त करने योग्य थीं या नहीं, क्या वह उन्हें संभाल सकता था या उसे वास्तव में क्या पसंद था या वह किसमें अच्छा था। मैं हमेशा इच्छापूर्वक अपनी प्राथमिकताएँ, योजनाएँ और इच्छाएँ उस पर थोपती रहती थी। मैंने जो कुछ भी किया वह उसके लाभ के लिए प्रतीत हुआ, ताकि वह ग्रेजुएशन के बाद एक अच्छी नौकरी पा सके और समाज में खुद को स्थापित कर सके, लेकिन सार रूप में, यह दूसरों से अधिक सम्मान पाने की मेरी अपनी अत्यधिक इच्छा को संतुष्ट करने के लिए था। यह स्पष्ट था कि मैं बहुत स्वार्थी थी!
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और मुझे अभ्यास करने का एक तरीका मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “माँ-बाप की अपने बच्चों से की जाने वाली अपेक्षाओं के सार का विश्लेषण करके हम देख सकते हैं कि ये अपेक्षाएँ स्वार्थी हैं, ये मानवता के विरुद्ध हैं, और इसके अलावा इनका माँ-बाप की जिम्मेदारियों से कोई लेना-देना नहीं है। जब माँ-बाप अपने बच्चों पर अपनी विभिन्न अपेक्षाएँ और आवश्यकताएँ थोपते हैं, तो वे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर रहे होते। तो फिर, उनकी ‘जिम्मेदारियाँ’ क्या हैं? सबसे बुनियादी जिम्मेदारियाँ जो माँ-बाप को निभानी चाहिए, वे हैं अपने बच्चों को बोलना सिखाना, उन्हें दयालु बनने और बुरे इंसान न बनने की सीख देना, और सकारात्मक दिशा में उनका मार्गदर्शन करना। ये उनकी सबसे बुनियादी जिम्मेदारियाँ हैं। इसके अलावा, उन्हें किसी भी प्रकार का ज्ञान, प्रतिभाएँ वगैरह सीखने में अपने बच्चों की मदद करनी चाहिए, जो उनकी उम्र के हिसाब से, वे कितना संभाल सकते हैं, और उनकी काबिलियत और रुचियों के आधार पर उनके लिए उपयुक्त हों। थोड़े बेहतर माँ-बाप अपने बच्चों को यह समझने में मदद करेंगे कि लोग परमेश्वर द्वारा बनाए गए हैं और परमेश्वर इस ब्रह्मांड में मौजूद है; वे अपने बच्चों को प्रार्थना करने और परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए प्रेरित करेंगे, उन्हें बाइबल की कुछ कहानियाँ सुनाएँगे, और आशा करेंगे कि बड़े होने के बाद वे सांसारिक रुझानों के पीछे भागने, विभिन्न जटिल पारस्परिक संबंधों में फँसने और इस संसार और समाज के विभिन्न चलनों के पीछे चलकर तबाह होने के बजाय परमेश्वर का अनुसरण करेंगे और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाएँगे। माँ-बाप को जो जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए उनका उनकी अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। माँ-बाप होने के नाते उन्हें जो जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, वे हैं अपने बच्चों के बालिग होने से पहले सकारात्मक मार्गदर्शन और उचित सहायता प्रदान करना, साथ ही इस सांसारिक जीवन में भोजन, कपड़े, मकान के संबंध में या जब भी वे बीमार पड़ें तब उनकी देखभाल करना। अगर उनके बच्चे बीमार पड़ जाते हैं, तो माँ-बाप को उनकी हर बीमारी का इलाज कराना चाहिए; उन्हें अपने बच्चों को नजरंदाज नहीं करना चाहिए या उनसे यह नहीं कहना चाहिए, ‘स्कूल जाते रहो, पढ़ते रहो—तुम अपनी क्लास में पिछड़ नहीं सकते। अगर तुम बहुत पीछे रह गए तो कभी दूसरों के बराबर नहीं हो पाओगे।’ जब बच्चों को आराम की जरूरत हो, तो माँ-बाप को उन्हें आराम करने देना चाहिए; जब बच्चे बीमार हों, तो माँ-बाप को स्वस्थ होने में उनकी मदद करनी चाहिए। ये माँ-बाप की जिम्मेदारियाँ हैं। एक ओर, उन्हें अपने बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए; तो दूसरी ओर, उन्हें अपने बच्चों को उनके मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में सहायता और शिक्षा देनी चाहिए। ये वो जिम्मेदारियाँ हैं जो माँ-बाप को अपने बच्चों पर कोई अवास्तविक अपेक्षाएँ या आवश्यकताएँ थोपने के बजाय पूरी करनी चाहिए। जब बात अपने बच्चों की मानसिक जरूरतों और उन चीजों की आए जिनकी उनके बच्चों को भौतिक जीवन में जरूरत होती है, तो माँ-बाप को अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी ही चाहिए। माँ-बाप को अपने बच्चों को सर्दियों में ठिठुरने नहीं देना चाहिए, उन्हें अपने बच्चों को जीवन का कुछ सामान्य ज्ञान सिखाना चाहिए, जैसे कि किन परिस्थितियों में उन्हें सर्दी लग जाएगी, उन्हें गर्म भोजन खाना चाहिए, ठंडा भोजन खाने से उनके पेट में दर्द होगा, और ठंडे मौसम में उन्हें लापरवाही से खुद को हवा नहीं लगने देना चाहिए या शुष्क स्थानों पर कपड़े नहीं उतारने चाहिए, इससे उन्हें अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखना सीखने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, जब उनके बच्चों के युवा मन में उनके भविष्य के बारे में कुछ बचकाने, अपरिपक्व विचार या कुछ अतिवादी विचार उठते हैं, तो माँ-बाप को इसका पता चलते ही उन्हें जबरन दबाने के बजाय तुरंत सही मार्गदर्शन देना चाहिए; उन्हें अपने बच्चों को अपने विचार व्यक्त करने के लिए प्रेरित करना चाहिए, ताकि समस्या का वास्तविक समाधान हो सके। इसे कहते हैं अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना। एक तरह से, माँ-बाप की जिम्मेदारियों को पूरा करने का मतलब है अपने बच्चों की देखभाल करना, वहीं दूसरी तरह से, इसका मतलब है अपने बच्चों को परामर्श देना और सुधारना, और उन्हें सही विचारों और दृष्टिकोणों के बारे में मार्गदर्शन देना। माँ-बाप को जो जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, उनका वास्तव में अपने बच्चों से की गई अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (18))। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मैंने सीखा कि हमें अपने बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। माता-पिता के रूप में, हमें अपने बच्चों पर अपनी खुद की अपेक्षाएँ और माँगें नहीं थोपनी चाहिए। माता-पिता की जिम्मेदारी बच्चों की क्षमता, जरूरतों और उम्र के हर एक चरण में वास्तविक स्थितियों के आधार पर सकारात्मक मार्गदर्शन और सहायता प्रदान करना है। जब बच्चे छोटे होते हैं तो हमें उन्हें बोलना सिखाना होता है और उनके स्वास्थ्य का भी ध्यान रखना होता है। जैसे-जैसे वे बड़े होते हैं, हमें उनका मार्गदर्शन करना चाहिए कि वे बुरा व्यवहार न करें, दुनिया की बुरी प्रवृत्तियों का अनुसरण न करें और अतिवादी विचार न रखें। हमें उन्हें सही ढंग से सलाह देनी चाहिए ताकि वे खुशी से बड़े हो सकें। हमें उन्हें परमेश्वर की रचना और संप्रभुता को समझने देना चाहिए, उन्हें परमेश्वर से प्रार्थना करने और कुछ घटित होने पर उस पर भरोसा करने के लिए उनका मार्गदर्शन करना चाहिए और उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इन बातों को समझने के बाद, मैंने फिर कभी अपने बेटे की आलोचना या शिकायत नहीं की, अब वह मेरे साथ अपने दिल की बातें करने को तैयार था। हालाँकि वह इस समय धन-दौलत में नहीं जी रहा है, पर उसके चेहरे पर वह मुस्कान है जो पहले नहीं थी। मैं भी परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने से अपने हृदय में मुक्ति की भावना महसूस करती हूँ। इस तरह की खुशी पैसों से नहीं खरीदी जा सकती।