26. जब मुझे कैंसर का पता चला
अप्रैल 2023 में कलीसिया ने कर्तव्य निभाने के लिए मुझे दूसरी जगह भेज दिया। मैं बहुत उत्साहित थी और मैंने जल्दी से अपना सामान बाँधा और जाने का इंतजार करने लगी। लेकिन फिर मुझे याद आया कि मुझे तो स्त्री-रोग संबंधी समस्या है और चूँकि अपरिचित स्थान पर चिकित्सा की व्यवस्था होना मुश्किल हो सकता है इसलिए जाने से पहले मैं जाँच कराने के लिए अस्पताल गई। मेरे लक्षणों के बारे में जानने के बाद डॉक्टर ने बायोप्सी के लिए गर्भाशय क्यूरेटेज की सिफारिश की, उसने चिंता जताई कि किसी भी प्रकार की देरी से बीमारी कैंसर में बदल सकती है। नतीजों का इंतजार करते हुए मुझे बेचैनी हो रही थी क्योंंकि यह नहीं पता था कि क्या रोग निकलेगा। कुछ दिनों बाद रिपोर्ट आ गई, रिपोर्ट “संभावित एंडोमेट्रियल कैंसर” दिखा रही थी। मैं दंग रह गई। अपने आप को स्थिर करने के बाद मैंने पूछा, “इसमें लिखा है ‘संभावित कैंसर’, तो क्या इसका मतलब यह है कि यह कैंसर नहीं भी हो सकता है?” डॉक्टर ने जवाब दिया, “डॉक्टर कभी भी सीधे तौर पर यह नहीं कहते कि यह कैंसर है; वे विवेचना के लिए गुंजाइश छोड़ देते हैं। यह तय करने के लिए कि कैंसर कौन-सा है, आगे और जाँच करनी होगी और फिर विशिष्ट रोग के आधार पर उपचार किया जाएगा।” यह सुनने के बाद मेरा दिमाग सुन्न हो गया और मैं डॉक्टर की कही गई किसी भी बात को समझ नहीं सकी। अचानक और अप्रत्याशित कैंसर का सामना करते हुए मैं बिल्कुल तैयार नहीं थी। मैंने सोचा, “यह कैंसर कैसे हो सकता है? मुझे कैंसर कैसे हो सकता है?” हालाँकि मैंने परमेश्वर के प्रति कोई नाराजगी व्यक्त नहीं की लेकिन अंदर से मैं इस वास्तविकता को स्वीकारने को तैयार नहीं थी। मैंने सोचा, “क्या यह कैंसर का निदान परमेश्वर द्वारा मुझे बेनकाब करने और हटाने का तरीका है या यह शोधन है? परमेश्वर का इरादा क्या है?”
जब मैं घर लौटी तो मुझे अंदर एक खालीपन महसूस हुआ और मेरा मन इन विचारों से भरा था कि मेरे पास जीने के लिए केवल कुछ ही दिन बचे हैं। उस दोपहर जब मैं एक बहन के साथ अपना कर्तव्य करने के लिए बाहर गई तो मेरी मनोदशा ठीक नहीं थी, मन विचलित और निरुत्साहित था। वापस आते समय मैंने नीले आसमान की ओर देखा और सोचा, “आसमान कितना सुंदर है! मेरे पास जीने के लिए कितने दिन बचे हैं? मैं इस खूबसूरत आसमान को और कितने दिन देख पाऊँगी? अगर मैं मर गई तो सुसमाचार के प्रसार की अभूतपूर्व भव्यता को कभी नहीं देख पाऊँगी।” इसके बाद मैंने अपने फोन पर गर्भाशय कैंसर के बारे में जानकारी देखी। मैंने ऑनलाइन देखा कि कुछ लोग जो पचास वर्ष की उम्र में एंडोमेट्रियल कैंसर से पीड़ित होते हैं, उनका इलाज संभव है, जबकि अन्य का नहीं। उसमें लिखा था कि अंतिम चरण के मरीज केवल तीन से पाँच वर्ष तक जीवित रहते हैं और अधिक गंभीर मामलों में वे केवल एक वर्ष तक ही जीवित रह पाते हैं। मैं जितना पढ़ती उतनी ही अधिक भयभीत होती जाती और सोचती कि मेरा कैंसर किस चरण में है और मेरे पास कितना समय और बचा होगा। उस रात जब मैं बिस्तर पर लेटी तो मेरा मन में बातें घूम रही थीं, “मुझे उम्मीद थी कि परमेश्वर में विश्वास करने से मैं बच जाऊँगी और कभी मौत का सामना नहीं करूँगी लेकिन क्या अब मैं कैंसर से मर नहीं जाऊँगी? क्या इतने वर्षों का विश्वास व्यर्थ चला गया? इससे अच्छा तो मैं परमेश्वर पर विश्वास ही न करती!” जब ये विचार मेरे मन में आए तो मुझे लगा कि ऐसा सोचना सही नहीं है, यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात है। मैंने सोचा कि जो लोग परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते वे भी तो बीमार पड़ते हैं और परमेश्वर के विश्वासी के रूप में मुझे भी तो बीमारी का सामना करना ही पड़ेगा। क्या इस दुनिया में ऐसा कोई है जो बीमार न पड़ता हो? इसके अलावा एक भ्रष्ट व्यक्ति के रूप में मेरा बीमार पड़ना क्या एक सामान्य बात नहीं है? चूँकि मैं बीमार हूँ इसलिए जरूरी है कि मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो जाऊँ। लेकिन मरने का विचार मुझे दुखी कर रहा था। “हे परमेश्वर, मैं मरना नहीं चाहती। मैंने अपने परिवार और करियर का त्याग किया, इन वर्षों में अपना कर्तव्य निभाया और फिर भी मुझे कैंसर हो गया। क्या इसका मतलब यह है कि तुम मुझे छोड़ रहे हो और हटा रहे हो?” परेशानी और चिंता में जीते हुए मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। मैंने मन ही मन परमेश्वर से कहा, “हे परमेश्वर, मैं क्या करूँ?” उस समय मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आये : “अगर बीमारी आ जाए तो तुम्हें इसका अनुभव कैसे करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के इरादे जानने और टटोलने चाहिए...। आम तौर पर जब तुम किसी गंभीर या अजीब बीमारी का सामना करते हो और बेहद पीड़ा झेलते हो तो ऐसा संयोगवश नहीं होता। चाहे तुम बीमार हो या खूब तंदुरुस्त हो, इसके पीछे परमेश्वर का इरादा होता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे याद दिलाया कि लोग संयोग से गंभीर बीमारियों से ग्रस्त नहीं होते; इनके पीछे हमेशा परमेश्वर का इरादा होता है। इसलिए मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि मुझे कैंसर होने में तुम्हारा इरादा है और इसमें कुछ सबक हैं जो मुझे सीखने चाहिए लेकिन मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि तुम्हारा इरादा क्या है। मुझे प्रबुद्ध और मेरा मार्गदर्शन करो।”
इसके बाद भाई-बहनों ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा : “जब बीमारी दस्तक दे, तो लोगों को किस पथ पर चलना चाहिए? उन्हें कैसे चुनना चाहिए? लोगों को संताप, व्याकुलता और चिंता में डूबकर अपने भविष्य की संभावनाओं और रास्तों के बारे में सोच-विचार नहीं करना चाहिए। इसके बजाय लोग खुद को जितना ज्यादा ऐसे वक्त और ऐसी खास स्थितियों और संदर्भों में, और ऐसी फौरी मुश्किलों में पाएँ, उतना ही ज्यादा उन्हें सत्य खोजकर उसका अनुसरण करना चाहिए। ऐसा करके ही पहले तुमने जो धर्मोपदेश सुने हैं और जो सत्य समझे हैं, वे बेकार नहीं होंगे, और उनका प्रभाव होगा। तुम खुद को जितना ज्यादा ऐसी मुश्किलों में पाते हो, तुम्हें उतना ही अपनी आकांक्षाओं को छोड़कर परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए। तुम्हारे लिए ऐसी स्थिति बनाने और इन हालात की व्यवस्था करने में परमेश्वर का प्रयोजन तुम्हें संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाओं में डुबोना नहीं है, यह इस बात के लिए भी नहीं है कि तुम परमेश्वर की परीक्षा ले सको कि क्या वह बीमार पड़ने पर तुम्हें ठीक करेगा, जिससे मामले की सच्चाई पता चल सके; परमेश्वर तुम्हारे लिए ये विशेष स्थितियाँ या हालात इसलिए बनाता है कि तुम ऐसी स्थितियों और हालात में सत्य में गहन प्रवेश पाने और परमेश्वर को समर्पण करने के लिए व्यावहारिक सबक सीख सको, ताकि तुम ज्यादा स्पष्ट और सही ढंग से जान सको कि परमेश्वर सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को कैसे आयोजित करता है। मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों में होता है, और लोग इसे भाँप सकें या नहीं, वे इस बारे में सचमुच अवगत हों या न हों, उन्हें समर्पण करना चाहिए, प्रतिरोध नहीं करना चाहिए, ठुकराना नहीं चाहिए और निश्चित रूप से परमेश्वर की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए। किसी भी हालत में तुम्हारी मृत्यु हो सकती है, और अगर तुम प्रतिरोध करते हो, ठुकराते हो और परमेश्वर की परीक्षा लेते हो, तो यह कहने की जरूरत नहीं कि तुम्हारा परिणाम कैसा होगा। इसके विपरीत अगर उन्हीं स्थितियों और हालात में तुम यह खोज पाओ कि किसी सृजित प्राणी को सृष्टिकर्ता के आयोजनों के प्रति कैसे समर्पण करना चाहिए, यह खोज पाओ कि तुम्हें कौन-से सबक सीखने हैं, परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए पैदा की गई स्थितियों में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें जानने हैं, ऐसी स्थितियों में परमेश्वर के इरादों को समझना है, और परमेश्वर की माँगें पूरी करने के लिए अपनी गवाही अच्छी तरह देनी है, तो तुम्हें बस यही करना चाहिए। जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, बीमारी से तुम्हें होने वाली असुविधाओं और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर बीमारी को समझो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर के इरादों को कैसे पकड़ें, अपने द्वारा प्रदर्शित भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो, और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त कर सको, और अपनी गवाही में डटे रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारे अलग-अलग हिसाबों, फैसलों और योजनाओं को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं। इसीलिए जब बीमारी दस्तक देती है, तो तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि उससे कैसे बच निकलें, दूर भाग जाएँ या उसे ठुकरा दें” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि मुझे बीमारी देने के पीछे परमेश्वर का इरादा यह नहीं है कि मैं परेशानी और चिंता में रहूँ, न ही यह कि इस अनुभव के जरिए मैं अपनी बीमारी के सभी पहलुओं को समझूँ। बल्कि इस बीमारी से मुझे सबक सीखना है, अपनी आस्था में अशुद्धियों और परमेश्वर के प्रति अपनी अनावश्यक इच्छाओं को जानना है। परमेश्वर इस बीमारी के जरिए मुझे शुद्ध करना, बदलना और बचाना चाहता है। लेकिन मैं परमेश्वर का इरादा नहीं समझ पाई थी। जब मुझे पता चला कि मुझे कैंसर है तो मैं परेशानी और चिंता में रहने लगी और लगातार घबराती रही कि मेरी बीमारी लाइलाज है और डरती रही कि अगर मैं मर गई तो मैं न तो कभी परमेश्वर के वचन पढ़ पाऊँगी और न ही अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर पाऊँगी और इस प्रकार उद्धार प्राप्त करने में असमर्थ हो जाऊँगी। मैंने परमेश्वर से तर्क करने की भी कोशिश की, सोचती थी कि मैंने इतने वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करते हुए अपने कर्तव्य को निभाने के लिए अपने परिवार और करियर को त्याग दिया था और जब मुझे अपने परिवार से उत्पीड़न का सामना करना पड़ा तो मैंने परमेश्वर को धोखा नहीं दिया था, परमेश्वर को मुझे कैंसर नहीं होने देना चाहिए था। मैं मौत के डर में जी रही थी, परमेश्वर में मेरी आस्था नहीं थी और अपने कर्तव्यों में कोई प्रेरणा नहीं थी। तथ्यों के खुलासे से मैंने देखा कि मुझमें जमीर, विवेक और मानवता की कमी है और मेरे हृदय में परमेश्वर का वास तो है ही नहीं। एक बार जब मुझे ये बातें समझ में आ गईं तो मैं अपनी बीमारी का सही ढंग से सामना कर सकती थी।
दो दिन बाद मुझे डॉक्टर का फोन आया कि मेरी जाँच रिपोर्ट आ गई है और कैंसर अभी शुरुआती चरण में ही है। उसने कहा कि यह अच्छी बात है कि इसका पता जल्दी ही चल गया और अब मुझे जल्द से जल्द सर्जरी के लिए अस्पताल आ जाना चाहिए। सर्जरी से एक रात पहले मैं बिस्तर पर करवटें बदल रही थी और सो नहीं पा रही थी और कुछ असहज और भयभीत महसूस कर रही थी। समझ नहीं आ रहा था कि सर्जरी सफल होगी या ठीक से होगी भी या नहीं या फिर मैं ऑपरेशन टेबल पर ही मर जाऊँगी। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, कल मेरी सर्जरी है। भले ही यह सफल हो या न हो या मैं ऑपरेशन टेबल पर ही दम तोड़ दूँ, मैं यह सब तुम्हारे हाथों में सौंपती हूँ और तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हूँ।” फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “तुम्हें कोई बड़ी बीमारी हो या छोटी, जब तुम्हारी बीमारी गंभीर हो जाए या तुम मौत के करीब पहुँच जाओ, बस एक चीज याद रखो : मृत्यु से डरो मत। चाहे तुम कैंसर की अंतिम अवस्था में हो, तुम्हारी खास बीमारी की मृत्यु दर बहुत ज्यादा हो, फिर भी मृत्यु से डरो मत। तुम्हारा कष्ट चाहे जितना बड़ा हो, अगर तुम मृत्यु से डरोगे, तो समर्पण नहीं करोगे। कुछ लोग कहते हैं, ‘आपकी यह बात सुनकर मुझे प्रेरणा मिली है, और मेरे पास इससे भी बेहतर विचार है। न सिर्फ मैं मृत्यु से नहीं डरूँगा, मैं उसकी याचना करूँगा। क्या इससे गुजरना तब आसान नहीं हो जाएगा?’ मृत्यु की याचना क्यों? मृत्यु की याचना करना एक अतिवादी विचार है, जबकि मृत्यु से न डरना उसे अपनाने का एक वाजिब रवैया है। सही है न? (सही है।) मृत्यु से न डरने का सही रवैया क्या है जो तुम्हें अपनाना चाहिए? अगर तुम्हारी बीमारी इतनी गंभीर हो जाए कि शायद तुम मर सकते हो, और इस बीमारी की मृत्यु दर ज्यादा हो, भले ही व्यक्ति की उम्र जितनी भी हो जिसे भी यह बीमारी हुई हो, और लोगों के बीमार होने से लेकर मरने तक का अंतराल बहुत कम हो, तब तुम्हें अपने दिल में क्या सोचना चाहिए? ‘मुझे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए, अंत में सबकी मृत्यु होती है। लेकिन परमेश्वर के प्रति समर्पण एक ऐसी चीज है जो ज्यादातर लोग नहीं कर पाते, और मैं इस बीमारी का उपयोग परमेश्वर के प्रति समर्पण को अमल में लाने के लिए कर सकता हूँ। मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने की सोच और रवैया अपनाना चाहिए, और मुझे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए।’ मरना आसान है, जीने से ज्यादा आसान। तुम अत्यधिक पीड़ा में हो सकते हो, और तुम्हें इसका पता भी नहीं होगा, और जैसे ही तुम्हारी आँखें बंद होती हैं, तुम्हारी साँस थम जाती है, तुम्हारी आत्मा शरीर छोड़ देती है, और तुम्हारा जीवन खत्म हो जाता है। मृत्यु इसी तरह होती है; यह इतनी ही सरल है। मृत्यु से न डरना वह रवैया है जिसे अपनाना चाहिए। इसके अलावा तुम्हें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि क्या बीमारी बदतर हो जाएगी, या इलाज नहीं हो सका तो क्या तुम मर जाओगे, या तुम्हारे मरने में कितना वक्त लगेगा, या मृत्यु का समय आने पर तुम्हें कैसी पीड़ा होगी। तुम्हें इन चीजों के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए; ये वो चीजें नहीं हैं जिनकी तुम्हें चिंता करनी चाहिए। ऐसा इसलिए कि वह दिन तो आना ही है, किसी वर्ष, किसी महीने, या किसी निश्चित दिन आना ही है। तुम इससे छुप नहीं सकते, इससे बचकर नहीं निकल सकते—यह तुम्हारा भाग्य है। तुम्हारा तथाकथित भाग्य परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित है, और पहले ही उसके द्वारा व्यवस्थित है। तुम्हारा जीवनकाल और मृत्यु के समय तुम्हारी उम्र और समय परमेश्वर ने पहले ही तय कर रखा है। तो फिर तुम किसकी चिंता कर रहे हो? तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर इससे कुछ भी नहीं बदलेगा; तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर तुम इसे होने से नहीं रोक सकते; तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर तुम उस दिन को आने से नहीं रोक सकते। इसलिए, तुम्हारी चिंता बेकार है, और इससे बस तुम्हारी बीमारी का बोझ और भी भारी हो जाता है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। “मृत्यु के विषय की प्रकृति वही है जो दूसरे विषयों की होती है। इसका चयन लोग खुद नहीं कर सकते, और इसे मनुष्य की इच्छा से बदलना तो दूर की बात है। मृत्यु भी जीवन की किसी दूसरी महत्वपूर्ण घटना जैसी ही है : यह पूरी तरह से सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण और संप्रभुता के अधीन है। अगर कोई मृत्यु की भीख माँगे, तो जरूरी नहीं कि वह मर जाए; अगर कोई जीने की भीख माँगे, तो जरूरी नहीं कि वह जीवित रहे। ये सब परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनिर्धारण के अधीन हैं, और परमेश्वर के अधिकार, उसके धार्मिक स्वभाव और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं से ही इसे बदला जा सकता है। इसलिए, मान लो कि तुम्हें कोई गंभीर रोग, संभावित घातक गंभीर रोग हो जाता है, तो जरूरी नहीं कि तुम्हारी मृत्यु हो जाए—तुम मरोगे या नहीं इसका फैसला कौन करता है? (परमेश्वर।) परमेश्वर फैसला लेता है। और चूँकि परमेश्वर निर्णय लेता है, और लोग ऐसी चीज का फैसला नहीं कर सकते, तो लोग किस बात को लेकर व्याकुल और संतप्त हैं? यह ऐसा ही है, जैसे तुम्हारे माता-पिता कौन हैं, तुम कब और कहाँ पैदा होते हो—ये चीजें भी तुम नहीं चुन सकते। इन मामलों में सबसे बुद्धिमान यह चुनाव है कि चीजों को कुदरती ढंग से होने दिया जाए, समर्पण किया जाए, चुना न जाए, इस विषय पर कोई विचार न किया जाए या ऊर्जा न खपाई जाए, और इसे लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित न हुआ जाए। चूँकि लोग खुद नहीं चुन सकते, इसलिए इस विषय पर इतनी ऊर्जा और विचार खपाना बेवकूफी और अविवेकपूर्ण है। मृत्यु के अत्यंत महत्वपूर्ण विषय का सामना करते समय लोगों को संतप्त नहीं होना चाहिए, फिक्र नहीं करनी चाहिए और डरना नहीं चाहिए, फिर क्या करना चाहिए? लोगों को प्रतीक्षा करनी चाहिए, है ना? (हाँ।) सही? क्या प्रतीक्षा का अर्थ मृत्यु की प्रतीक्षा करना है? मृत्यु सामने होने पर मृत्यु की प्रतीक्षा करना? क्या यह सही है? (नहीं, लोगों को सकारात्मक होकर इसका सामना करना चाहिए, समर्पण करना चाहिए।) यह सही है, इसका अर्थ मृत्यु की प्रतीक्षा करना नहीं है। मृत्यु से बुरी तरह भयभीत मत हो, अपनी पूरी ऊर्जा मृत्यु के बारे में सोचने में मत लगाओ। सारा दिन यह मत सोचते रहो, ‘क्या मैं मर जाऊँगा? मेरी मृत्यु कब होगी? मरने के बाद क्या करूँगा?’ बस, इस बारे में मत सोचो। कुछ लोग कहते हैं, ‘इस बारे में क्यों न सोचूँ? जब मरने ही वाला हूँ, तो क्यों न सोचूँ?’ चूँकि यह नहीं मालूम कि तुम्हारी मृत्यु होगी या नहीं, और यह भी नहीं मालूम कि परमेश्वर तुम्हें मरने देगा या नहीं—ये चीजें अज्ञात हैं। खास तौर से यह मालूम नहीं है कि तुम कब मरोगे, कहाँ मरोगे, किस वक्त मरोगे और मरते समय तुम्हारे शरीर को क्या अनुभव होगा। जो चीजें तुम नहीं जानते, उनके बारे में सोचकर और चिंतन कर अपने दिमाग को झकझोरने और उनके बारे में व्याकुल और चिंतित होना क्या मूर्खता नहीं है? चूँकि ऐसा करके तुम मूर्ख बन जाते हो, इसलिए तुम्हें इन चीजों पर अत्यधिक नहीं सोचना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझ आया कि इंसान का जीवन और मृत्यु सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित होता है। अगर किसी को कैंसर हो भी जाए तो भी अगर उसे नहीं मरना है तो वह नहीं मरेगा और जब किसी व्यक्ति का समय पूरा हो जाता है तो वह बीमार न होने पर भी मर जाएगा। कोई भी व्यक्ति सिर्फ इसलिए नहीं मर सकता या जीवित रह सकता क्योंकि वह ऐसा चाहता है; सब-कुछ परमेश्वर द्वारा तय किया जाता है और परमेश्वर हर चीज पर संप्रभुता रखता है और हर चीज व्यवस्थित करता है। मैंने विचार किया कि जब मुझे पता चला कि मुझे कैंसर है तो मैं इस बात को लेकर चिंतित थी कि क्या मेरी बीमारी ठीक हो सकेगी, क्या मैं मर जाऊँगी और क्या मैं ऑपरेशन टेबल पर ही दम तोड़ दूँगी। मेरा हर दिन लगातार परेशानी और चिंता में गुजरता था। आमतौर पर मैंने हमेशा कहती थी कि परमेश्वर हर चीज पर संप्रभुता रखता है और इंसान का जीवन और मृत्यु उसी के हाथों में है, लेकिन जब मैं सचमुच बीमार पड़ गई तो पता चला कि मुझे तो परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता के बारे में बिल्कुल समझ नहीं है, परमेश्वर में सच्ची आस्था ही नहीं है और समर्पण की तो बात ही दूर है। इस बात को समझने पर मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। मुझे एहसास हुआ कि मुझे सर्जरी का सकारात्मक रूप से सामना करना चाहिए। इसका सफल या असफल होना परमेश्वर के हाथों में है और उस दिन अगर मैं मर भी जाऊँ तो भी उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर दूँगी। परमेश्वर के वचनों ने मुझे असीम आस्था और साहस दिया। जब वे मुझे ऑपरेशन कक्ष में ले गए तो मेरे मन में कोई डर नहीं था। सर्जरी छह घंटे तक चली। जब मुझे होश आया तो एहसास हुआ कि मैं अभी भी जीवित हूँ तो मुझे बहुत खुशी हुई। अगले दिन डॉक्टर ने आकर मेरी जाँच की और कहा, “सर्जरी बहुत सफल रही। अगर बाद में कोई असाधारण परिस्थिति पैदा नहीं होती है तो आगे उपचार की आवश्यकता नहीं होगी। हम अगले कुछ दिनों में इसकी जाँच करेंगे और देखेंगे कि जाँच के नतीजे क्या कहते हैं। अगर रेडियोथेरेपी की आवश्यकता होगी तो हम वह भी करेंगे, लेकिन तुम्हारी हालत गंभीर नहीं है।” यह सुनकर मैं अपने दिल में जान गई कि यह डॉक्टर के कौशल के कारण नहीं बल्कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के कारण हुआ है।
बाद में मैंने अस्पताल के अपने कमरे में चुपचाप परमेश्वर के वचन पढ़े और मुझे दो अंश मिले : “परमेश्वर पर विश्वास करते हुए लोग भविष्य के लिए आशीष पाने में लगे रहते हैं; यही उनकी आस्था का लक्ष्य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन उनकी प्रकृति की भ्रष्टता परीक्षणों और शोधन के माध्यम से दूर की जानी चाहिए। तुम जिन-जिन पहलुओं में शुद्ध नहीं हो और भ्रष्टता दिखाते हो, उन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाकर उसमें परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपनी भ्रष्टता को जान जाओ। अंततः तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करने के लिए मर जाना पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों का कई वर्षों तक शोधन न हो, अगर वे एक हद तक पीड़ा न सहें, तो वे अपनी सोच और हृदय में देह की भ्रष्टता की बाध्यताएँ तोड़ने में सक्षम नहीं होंगे। जिन किन्हीं पहलुओं में लोग अभी भी अपनी शैतानी प्रकृति की बाध्यताओं में जकड़े हैं और जिन भी पहलुओं में उनकी अपनी इच्छाएँ और मांगें बची हैं, उन्हीं पहलुओं में उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। केवल दुख भोगकर ही सबक सीखे जा सकते हैं, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्य कष्ट और परीक्षणों से गुजरकर समझ में आते हैं। कोई भी व्यक्ति आरामदायक और सहज परिवेश या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुज़ारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैं अपना क्रोध लोगों पर उतारता हूँ और कभी उनके पास रही सारी सुख-शांति छीन लेता हूँ, तो मनुष्य शंकालु हो जाता है। जब मैं मनुष्य को नरक का कष्ट देता हूँ और स्वर्ग के आशीष वापस ले लेता हूँ, वे क्रोध से भर जाते हैं। जब लोग मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहते हैं, और मैं उस पर ध्यान नहीं देता और उनके प्रति गहरी घृणा महसूस करता हूँ; तो लोग मुझे छोड़कर चले जाते हैं और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगा। जब मैं मनुष्य द्वारा मुझसे माँगी गई सारी चीजें वापस ले लेता हूँ, तो वे बिना कोई निशान छोड़े गायब हो गया। इसलिए मैं कहता हूँ कि लोग मुझ पर इसलिए विश्वास करते हैं, क्योंकि मेरा अनुग्रह अत्यंत विपुल है, और क्योंकि बहुत अधिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे उन तमाम बरसों की आस्था की मंशा और लक्ष्य को स्पष्ट कर दिया। मैंने अपने कर्तव्यों में कष्ट सहे, कीमत चुकाई, चीजों को त्यागा और खुद को खपा दिया और यह सब मैंने आशीष पाने और मृत्यु-मुक्त परिणाम हासिल करने के लिए किया था। मुझे उस समय का ख्याल आया जब मैंने पहली बार परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू किया था। मैंने जान लिया था कि विश्वासी लोग उद्धार और अनंत जीवन प्राप्त कर सकते हैं, इसलिए मैंने सक्रियता से परमेश्वर के वचनों को पढ़ा और अपने कर्तव्यों का पालन किया। यहाँ तक कि जब मेरे परिवार ने मुझे सताने और बाधा डालने की कोशिश की और मेरे पति ने मुझे तलाक दे दिया, तब भी मैंने परमेश्वर को धोखा नहीं दिया था। कलीसिया ने मेरे लिए जो भी कर्तव्य निर्धारित किया मैंने उसमें सक्रिय रूप से सहयोग किया और कभी भी उससे बचने की कोशिश नहीं की। लेकिन जब मुझे कैंसर का पता चला और सोचा कि मैं उन सभी चीजों को त्यागने और परमेश्वर में अपने विश्वास के लिए इतने बरसों तक खुद को खपाने के बाद भी मर जाऊँगी तो मैं परमेश्वर से तर्क करने लगी। मैंने सोचा कि कैंसर जैसी बीमारी तो मुझे होनी ही नहीं चाहिए और मुझे अपनी आस्था पर भी पछतावा हुआ, मेरा विद्रोह और विश्वासघात पूरी तरह से प्रकट हो गया! मैंने देखा कि अपने कर्तव्य को निभाने के लिए अपने परिवार और करियर को त्याग कर मैं वास्तव में परमेश्वर के लिए खुद को खपा नहीं रही थी बल्कि यह सब आशीष पाने के मेरे घृणित मकसद से प्रेरित था। मैं अपने परिश्रम और खुद को खपाने के बदले राज्य में प्रवेश का आशीष चाहती थी, मैं परमेश्वर से सौदा करने की कोशिश कर रही थी। किसी भी सृजित प्राणी के लिए कर्तव्य निभाना पूरी तरह से स्वाभाविक एवं न्यायोचित है; यह इंसान का उत्तरदायित्व है और इंसान को परमेश्वर से कोई माँग नहीं करनी चाहिए। फिर भी जब मैं बीमार पड़ी तो मैंने न केवल परमेश्वर से तर्क किया और उसके बारे में शिकायत की बल्कि मैंने परमेश्वर से यह माँग भी की कि वह मेरी बीमारी दूर कर दे। मैंने देखा कि मेरे हृदय में परमेश्वर का भय बिलकुल भी नहीं था। मैंने सोचा कि कैसे अय्यूब ने अपना सारा पशुधन और बच्चे खो दिए थे और कैसे उसका शरीर घावों से भर गया था। उसने बहुत पीड़ा सहन की थी लेकिन उसने न केवल परमेश्वर के बारे में कोई शिकायत नहीं की बल्कि वह यह भी नहीं चाहता था कि परमेश्वर उसका दर्द देखे और न ही वह परमेश्वर को दुख पहुँचाना चाहता था। अय्यूब ने परमेश्वर को त्यागने के बजाय खुद को कोसना पसंद किया, फिर भी वह परमेश्वर के नाम की स्तुति करने में सक्षम था और अंत में उसने परमेश्वर के लिए एक सुंदर गवाही दी। मैंने देखा कि अय्यूब में ईमानदार और दयालु मानवता थी, वह परमेश्वर के प्रति समर्पित था और उसका भय मानता था। पतरस भी तो था। उसे परमेश्वर का सच्चा ज्ञान था, उसने शोधन और क्लेश दोनों को स्वीकार किया, उसने परमेश्वर को गलत नहीं समझा, उसके बारे में शिकायत नहीं की, उससे कुछ नहीं माँगा और परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहा और आखिरकार उसे परमेश्वर के लिए सूली पर उल्टा लटका दिया गया। इसके विपरीत मेरा अपना व्यवहार सचमुच शर्मनाक था। मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करती थी और उसे जानने के लिए अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर रही थी या अपने जीवन स्वभाव को बदलने के लिए सत्य का अनुसरण नहीं कर रही थी बल्कि आशीष और बिना मृत्यु के परिणाम प्राप्त करना चाहती थी। मैं पौलुस की तरह थी जो मानता था कि उसने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, अच्छी लड़ाई लड़ी है और उसके लिये धार्मिकता का मुकुट रखा है। उसने परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के लिए परिश्रम किया और खुद को खपाया ताकि वह इसके बदले पुरस्कार और मुकुट प्राप्त कर सके, उसने परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित किया और परमेश्वर का दंड भुगता। परमेश्वर पर विश्वास को लेकर मेरा दृष्टिकोण भी पौलुस के समान ही था। अगर परमेश्वर ने मुझे इस बीमारी के जरिए प्रकट न किया होता तो मैं कभी भी इसका एहसास न कर पाती। बल्कि मैं इस गलत रास्ते पर ही चलती रहती और अंततः परमेश्वर द्वारा नष्ट कर दी जाती। उस समय मुझे एहसास हुआ कि इस बीमारी के द्वारा वास्तव में परमेश्वर मुझे बचा रहा था।
बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “बताओ भला, पूरी दुनिया में खरबों लोगों के बीच कौन इतना धन्य है कि परमेश्वर के इतने सारे वचन सुन पाए, जीवन के इतने सत्य और इतने सारे रहस्य समझ पाए? उन सबमें कौन निजी तौर पर परमेश्वर का मार्गदर्शन, उसका पोषण, देखभाल और रक्षा प्राप्त कर सकता है? कौन इतना धन्य है? बहुत कम लोग। इसलिए तुम थोड़े-से लोगों का आज परमेश्वर के घर में जीवनयापन करने, उसका उद्धार पाना, और उसका पोषण पाने में समर्थ होना, ये सब तुम तुरंत मर जाओ तो भी सार्थक है। तुम अत्यंत धन्य हो, क्या यह सही नहीं है? (हाँ।) इस नजरिये से देखें, तो लोगों को मृत्यु के विषय से इतना अधिक भयभीत नहीं होना चाहिए, न ही इससे बेबस होना चाहिए। भले ही तुमने दुनिया की किसी महिमा या धन-दौलत के मजे न लिए हों, फिर भी तुम्हें सृष्टिकर्ता की दया मिली है, और तुमने परमेश्वर के इतने सारे वचन सुने हैं—क्या यह आनंददायक नहीं है? (जरूर है।) इस जीवन में तुम चाहे जितने साल जियो, ये सब इस योग्य है और तुम्हें कोई खेद नहीं, क्योंकि तुम परमेश्वर के कार्य में निरंतर अपना कर्तव्य निभाते रहे हो, तुमने सत्य समझा है, जीवन के रहस्यों को समझा है, और जीवन में जिस पथ और लक्ष्यों का तुम्हें अनुसरण करना चाहिए उन्हें समझा है—तुमने बहुत कुछ हासिल किया है! तुमने सार्थक जीवन जिया है! भले ही तुम इसे साफ तौर पर समझा न पाओ, तुम कुछ सत्यों पर अमल करने और कुछ वास्तविकता रखने में समर्थ हो, और इससे साबित होता है कि तुमने जीवन का थोड़ा पोषण प्राप्त किया है, और परमेश्वर के कार्य से कुछ सत्यों को समझा है। तुमने बहुत कुछ हासिल किया है—सच्ची प्रचुरता हासिल की है—और यह कितना महान आशीष है! मानव इतिहास के आरंभ से ही, सभी युगों के दौरान, कभी किसी ने इस आशीष का आनंद नहीं लिया, मगर तुम इसका आनंद ले रहे हो। क्या अब तुम मरने के लिए तैयार हो? ऐसी तत्परता के साथ मृत्यु के प्रति तुम्हारा रवैया सचमुच समर्पण करने वाला होगा, है ना? (हाँ।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरी आँखों में आँसू आ गए। इस दुष्ट युग में अरबों लोगों के बीच मुझे परमेश्वर के घर में प्रवेश करने का सौभाग्य मिला था जहाँ मुझे उसका सिंचन और प्रावधान प्राप्त हुआ जिससे मैं कई सत्यों और रहस्यों को समझने में सक्षम हुई। मैंने जाना कि मनुष्य परमेश्वर से आता है, हर व्यक्ति को उसका जीवन परमेश्वर द्वारा दिया जाता है। मैंने जाना कि परमेश्वर की आराधना कैसे करनी चाहिए और कैसे जीवन जीना चाहिए, एक ईमानदार व्यक्ति कैसे बनना चाहिए, अच्छाई क्या है और बुराई क्या है, वगैरह। इससे मुझे अपने अनुसरण के लिए एक लक्ष्य मिल गया और मैं सही जीवन मार्ग पर आ गई। इतने वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण करके मुझे बहुत कुछ प्राप्त हुआ; मैं सचमुच बहुत धन्य थी इसलिए अगर मुझे उस समय मरना भी पड़ता तो भी यह सब सार्थक होता। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मैं इतनी खुश हुई कि रो पड़ी। बाद में मेरी एक और जाँच हुई और डॉक्टर ने कहा कि कैंसर फैलने का कोई संकेत नहीं है इसलिए रेडियोथेरेपी आवश्यक नहीं है। मुझे बस हर तीन महीने में एक बार जाँच करानी होगी, मुझे छुट्टी मिल सकती है और मैं घर जा सकती हूँ। यह समाचार सुनकर मुझे इतनी खुशी हुई कि मैं परमेश्वर को धन्यवाद देती रही। बाद में मैंने जाँच कराई और रिपोर्ट के नतीजों से पता चला कि सब कुछ सामान्य है।
बीमारी के इस अनुभव से मुझे अपनी आस्था में किसका अनुसरण करना है इसे लेकर अपने गलत दृष्टिकोण के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ और मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता के बारे में भी थोड़ी-बहुत समझ हासिल हुई। एक व्यक्ति अपने जीवन में जिन चीजों का अनुभव करता है, उसका जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु, उनका चुनाव वह नहीं कर सकता, ये तमाम चीजें परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत होती हैं। भविष्य में चाहे मैं जीवित रहूँ या मर जाऊँ, मैं बस परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहती हूँ, सत्य का अनुसरण कर अपने कर्तव्यों को पूरा करना चाहती हूँ।