29. परमेश्वर के वचनों ने मुझे अपनी गलतफहमियों को दूर करने का मार्ग दिखाया

बाई लू, चीन

2023 के नवंबर के मध्य में एक दिन मुझे ऊपरी अगुआई से एक पत्र मिला जिसमें लिखा था कि भाई-बहनों ने मुझे जिला अगुआ के रूप में चुना है और इसमें मुझ से पूछा गया कि क्या मैं इस कर्तव्य को निभाने के लिए तैयार हूँ। इस अप्रत्याशित कर्तव्य का सामना करते हुए मेरा दिल अचानक बेचैन हो गया और मैंने सोचा, “मेरी काबिलियत औसत सी है और मैं तो स्पष्ट रूप से बोल भी नहीं पाती। बेशक मैं पहले भी एक अगुआ और कार्यकर्ता रह चुकी हूँ लेकिन समस्याओं के समाधान के लिए सत्य पर संगति करने के संबंध में मुझमें कुछ कमी है और जब मैं प्रचारक थी तो मैंने समय पर नकली अगुआओं को नहीं हटाया जिससे कलीसिया में अराजकता फैल गई और मैं अपने पीछे कई अपराध छोड़ कर वहाँ से निकली। अब मुझे एक जिला अगुआ के रूप में चुना गया है। मुझे पता है कि इस कर्तव्य में मुझे समस्याओं को हल करने के लिए सत्य पर और भी अधिक संगति करनी होगी और मुझे विभिन्न कार्य संचालित करने होंगे और लोगों का भेद पहचानना होगा। क्या मैं यह सब संभाल पाऊँगी? अगर मैं सत्य सिद्धांतों को नहीं समझ पाई, मैंने कार्य में गड़बड़ की और बाधा डाली और अंत में बर्खास्त कर दी गई तो न केवल मेरी असली क्षमताएँ बेनकाब हो जाएँगी, बल्कि मैं अपने पीछे गंभीर अपराध भी छोड़ जाऊँगी और शायद मेरा कोई अच्छा परिणाम या मंजिल नहीं होगी।” मैं लगातार असमंजस में रही और सोचती रही, “क्या मुझे इसे स्वीकार करना चाहिए या नहीं?” उस रात मैं बिस्तर पर करवटें बदलती रही और मैं सो ही नहीं पा रही थी। इस कर्तव्य को स्वीकार करने का विचार मेरे ऊपर एक पहाड़ उठाने की तरह दबाव डाल रहा था और मैं लगातार डर रही थी कि अगर मैंने यह कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया तो मैं बेनकाब हो जाऊँगी और बर्खास्त कर दी जाऊँगी। मैं परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने आई, “हे परमेश्वर! मैं जानती हूँ कि यह कर्तव्य तेरी ओर से मेरा उन्नयन है और मुझे बिना शर्त समर्पण करना चाहिए लेकिन मैं अपने भविष्य और भविष्य की संभावनाओं और राहों को लेकर सोचती रहती हूँ और समर्पण नहीं कर पा रही हूँ। मुझे प्रबुद्ध कर ताकि मैं तेरा इरादा समझ सकूँ।”

अगले दिन मैंने भक्ति के दौरान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “आज तुम लोगों से जो कुछ हासिल करने की अपेक्षा की जाती है, वे अतिरिक्त माँगें नहीं, बल्कि मनुष्य का कर्तव्य है, जिसे सभी लोगों द्वारा किया जाना चाहिए। यदि तुम लोग अपना कर्तव्य तक निभाने में या उसे भली-भाँति करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम लोग अपने ऊपर मुसीबतें नहीं ला रहे हो? क्या तुम लोग मृत्यु को आमंत्रित नहीं कर रहे हो? कैसे तुम लोग अभी भी भविष्य और संभावनाओं की आशा कर सकते हो? परमेश्वर का कार्य मानवजाति के लिए किया जाता है, और मनुष्य का सहयोग परमेश्वर के प्रबंधन के लिए दिया जाता है। जब परमेश्वर वह सब कर लेता है जो उसे करना चाहिए, तो मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने अभ्यास में उदार हो और परमेश्वर के साथ सहयोग करे। परमेश्वर के कार्य में मनुष्य को कोई कसर बाकी नहीं रखनी चाहिए, उसे अपनी वफादारी प्रदान करनी चाहिए, और अनगिनत धारणाओं में सलंग्न नहीं होना चाहिए, या निष्क्रिय बैठकर मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर मनुष्य के लिए स्वयं को बलिदान कर सकता है, तो क्यों मनुष्य परमेश्वर को अपनी वफादारी प्रदान नहीं कर सकता? परमेश्वर मनुष्य के प्रति एक हृदय और मन वाला है, तो क्यों मनुष्य थोड़ा-सा सहयोग प्रदान नहीं कर सकता? परमेश्वर मानवजाति के लिए कार्य करता है, तो क्यों मनुष्य परमेश्वर के प्रबंधन के लिए अपना कुछ कर्तव्य पूरा नहीं कर सकता? परमेश्वर का कार्य इतनी दूर तक आ गया है, पर तुम लोग अभी भी देखते ही हो किंतु करते नहीं, सुनते ही हो किंतु हिलते नहीं। क्या ऐसे लोग तबाही के लक्ष्य नहीं हैं? परमेश्वर पहले ही अपना सर्वस्व मनुष्य को अर्पित कर चुका है, तो क्यों आज मनुष्य ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ है? परमेश्वर के लिए उसका कार्य उसकी पहली प्राथमिकता है, और उसके प्रबंधन का कार्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मनुष्य के लिए परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाना और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करना उसकी पहली प्राथमिकता है। इसे तुम सभी लोगों को समझ लेना चाहिए(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि यह कर्तव्य परमेश्वर की ओर से मेरा उन्नयन है और मेरी जिम्मेदारी है जिसे मैं टाल नहीं सकती। अगर मैं अपने भविष्य और मंजिल की रक्षा करने के लिए इस कर्तव्य को टालती या ठुकराती हूँ तब मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपने जीवित रहने का वास्तविक उद्देश्य ही खो दूँगी और अगर ऐसा होता है, तो अंत तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मुझे उसकी स्वीकृति नहीं मिलेगी। मैंने एक प्रचारक के रूप में अपने गुजरे दिनों के बारे में सोचा जब मैंने कार्य में गड़बड़ी की थी और बाधा डाली थी और अपराध किए थे, फिर भी परमेश्वर ने मेरे अपराधों के अनुसार मेरे साथ व्यवहार नहीं किया था। अब कलीसिया मुझे फिर से एक अगुआ के रूप में कर्तव्य निभाने का अवसर दे रही थी इसलिए मैं अब इसे और टाल नहीं सकती थी। मैंने सोचा, “समस्याओं के समाधान के लिए सत्य पर संगति करने के संबंध में मुझमें कुछ कमी है। अगुआई की भूमिका में मुझे तरह-तरह की कठिनाइयों और समस्याओं का सामना करना पड़ेगा और इस प्रकार मुझे समस्याओं को सत्य के साथ हल करने का अभ्यास करने के कई अवसर मिलेंगे। क्या यह मेरे लिए सीखने और अपनी कमियों की भरपाई करने का एक बेहतर तरीका नहीं है? इससे न केवल विभिन्न कार्यों में मेरे पेशेवर कौशल सुधरेंगे, बल्कि लोगों का भेद पहचानने में भी निखार आएगा। साथ ही, यह मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए अपने कर्तव्य में सत्य का अनुसरण करने के लिए भी प्रेरित करेगा। क्या इस तरह परमेश्वर मुझ पर कृपा नहीं कर रहा है?” मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर का प्रेम कितना महान है और मुझे यह भी समझ में आया कि अगर मैं स्वार्थी और घृणित बनी रही और मैंने अपने कर्तव्य को ठुकराकर खुद की रक्षा करने की कोशिश की तो मैं परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादों से विश्वासघात कर रही हूँगी। मेरा ऐसा करना वास्तव में मानवता से रहित होना होगा!

मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कर्तव्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचन हमें स्पष्ट रूप से बताते हैं कि किसी व्यक्ति का कर्तव्य चाहे जो भी हो, इसका कोई भी संबंध उसके आशीष या दुख पाने से नहीं है। एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है। यह मनुष्य के रूप में हमारी जिम्मेदारी है और लोगों को बिना शर्त के स्वीकार करना चाहिए और आज्ञा माननी चाहिए। मैंने गलती से सोचा था कि अगुआ जल्दी बेनकाब होते हैं और निकाल दिए जाते हैं लेकिन वास्तविकता में अगर मैं एक अगुआ न भी बनूँ, अगर मैं सत्य का अनुसरण न करूँ और गलत रास्ते पर चलूँ तो क्या मुझे भी बेनकाब नहीं कर दिया जाएगा और मुझे निकाल नहीं दिया जाएगा? परमेश्वर बहुत पहले ही कह चुका है कि अपना कर्तव्य निभाने का कोई भी संबंध आशीष या दुख पाने से नहीं है और मायने यह रखता है कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण और उससे प्रेम करता है या नहीं। अब जबकि भाई-बहनों ने मुझे जिला अगुआ चुन ही लिया तो मुझे सबसे पहले इसे स्वीकार करना चाहिए और अभ्यास करना चाहिए, जहाँ तक अपने कर्तव्य में समस्याओं और कमियों की बात है, मैं अपनी सहयोगी बहनों के साथ मिलकर इनका समाधान खोज सकती हूँ और फिर भी कुछ विषयों में स्पष्टता न हों तो मैं ऊपरी अगुआओं से मार्गदर्शन भी माँग सकती हूँ। इसलिए मैंने जवाब दिया कि मैं इस कर्तव्य को निभाने के लिए तैयार हूँ। जब मैंने इस तरह अभ्यास किया तो मैंने अपने दिल में दृढ़ता और शांति महसूस की।

एक सुबह मैंने एक अनुभवजन्य गवाही वाली वीडियो देखी जिसका शीर्षक था “अगुआ बनने से इनकार करने के पीछे क्या है?” और इस वीडियो में परमेश्वर के वचनों का एक अंश था जो मेरी स्थिति के साथ गहराई से मेल खाता था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब लोगों के कर्तव्य में कोई साधारण समायोजन किया जाता है, तो उन्हें आज्ञाकारिता भरे रवैये के साथ उत्तर देना चाहिए, जैसा परमेश्वर का घर उनसे कहे वैसा करना चाहिए, जो वे कर सकते हैं वह करना चाहिए, और वे चाहे जो भी करें, उसे जितना उनके सामर्थ्य में है, उतना अच्छा करना चाहिए और अपने पूरे दिल से और अपनी पूरी ताकत से करना चाहिए। परमेश्वर ने जो किया है, वह गलती से नहीं किया है। लोग इस तरह के सरल सत्य का अभ्यास थोड़ी अंतरात्मा और विवेक के साथ कर सकते हैं, लेकिन यह मसीह-विरोधियों की क्षमताओं से परे है। जब कर्तव्यों के समायोजन की बात आती है, तो मसीह-विरोधी तुरंत बहस, कुतर्क और अवज्ञा करेंगे, और दिल की गहराई में वे इसे स्वीकारने से मना कर देते हैं। उनके दिल में भला क्या होता है? संशय और संदेह, फिर वे तमाम तरीके इस्तेमाल करके दूसरों की जाँच करते हैं। ... वे एक साधारण-सी चीज को इतना जटिल क्यों बना देते हैं? इसका केवल एक ही कारण है : मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते, और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि, फायदे और रुतबे को अपने आशीषों को प्राप्त करने की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत खो गई, तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी, और यह उन्हें अपना जीवन खोने जैसा लगता है। वे सोचते हैं, ‘मुझे सावधान रहना है, मुझे लापरवाह नहीं होना चाहिए! परमेश्वर के घर, भाई-बहनों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। मैं उनमें से किसी पर भरोसा नहीं कर सकता। जिस व्यक्ति पर तुम सबसे ज्यादा भरोसा कर सकते हो और जो सबसे ज्यादा विश्वसनीय है, वह तुम खुद हो। अगर तुम अपने लिए योजनाएँ नहीं बना रहे, तो तुम्हारी परवाह कौन करेगा? तुम्हारे भविष्य पर कौन विचार करेगा? कौन इस पर विचार करेगा कि तुम्हें आशीष मिलेंगे या नहीं? इसलिए, मुझे अपने लिए सावधानीपूर्वक योजनाएँ बनानी होंगी और गणनाएँ करनी होंगी। मैं गलती नहीं कर सकता या थोड़ा भी लापरवाह नहीं हो सकता, वरना अगर कोई मेरा फायदा उठाने की कोशिश करेगा तो मैं क्या करूँगा?’ इसलिए, वे परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से सतर्क रहते हैं, और डरते हैं कि कोई उन्हें पहचान लेगा या उनकी असलियत जान लेगा, और फिर उन्हें बरखास्त कर दिया जाएगा और आशीष पाने का उनका सपना नष्ट हो जाएगा। वे सोचते हैं कि आशीष प्राप्त करने की आशा रखने के लिए उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बरकरार रखना चाहिए। मसीह-विरोधी आशीष प्राप्ति को स्वर्ग से भी अधिक बड़ा, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो मुश्किल से ही उल्लेखनीय हैं या टिप्पणी के योग्य हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे आशीष प्राप्ति होने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का मार्ग रखते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि जब किसी मसीह-विरोधी को उनके कर्तव्य में कोई दूसरा काम सौंपा जाता है तो वह यह नहीं सोचता कि परमेश्वर के प्रति कैसे समर्पण करना है और उसके इरादे को कैसे संतुष्ट करना है, बल्कि वह सबसे पहले यह सोचता है कि क्या यह कर्तव्य उसकी प्रतिष्ठा या रुतबे के लिए फायदेमंद है या क्या यह उसके परिणाम और मंजिल को प्रभावित करेगा। मैंने देखा कि मसीह-विरोधी आशीष और लाभ के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं और वे अपने कर्तव्य को अच्छी तरह निभाने से अधिक महत्वपूर्ण आशीष प्राप्त करने को मानते हैं। मैंने मन ही मन में सोचा, “क्या दूसरा कर्तव्य सौंपे जाने के मामले में मेरा प्रकाशन बिल्कुल एक मसीह-विरोधी के समान नहीं है?” मुझे इस बात का आभारी होना चाहिए था कि परमेश्वर मेरा उन्नयन कर मुझे जिला अगुआ के रूप में प्रशिक्षण लेने दे रहा है और मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहिए था। लेकिन मैं लगातार खुद से पूछती रही, “प्रचारक के रूप में मुझसे इसलिए अपराध हुए क्योंकि मैं नकली अगुआओं को समय पर बर्खास्त नहीं करती थी। अगर मैं जिला अगुआ बनती हूँ और मुझे पहले से अधिक जिम्मेदारियाँ मिलती हैं तो क्या मेरे अपराध करने और तुरंत बेनकाब होने की और भी संभावना नहीं है? अगर चीजें बिगड़ गईं तो अपनी आस्था में आशीष पाने की मेरी उम्मीद टूट जाएगी।” अपने भविष्य और मंजिल की रक्षा करने के लिए मैं इस कर्तव्य से बचना चाहती थी। मेरे कर्तव्य में यह एक सामान्य बदलाव था लेकिन मैंने गलती से यह मान लिया कि परमेश्वर इस कर्तव्य के माध्यम से मुझे बेनकाब करना और निकाल देना चाहता था। क्या मैं परमेश्वर को गलत नहीं समझ रही थी? पहले मैं सोचती थी कि मेरी आस्था में मेरा दिल शुद्ध है और चाहे कलीसिया ने मेरे लिए जो भी कर्तव्य तय किया हो, मैं उसमें समर्पण करने में सक्षम थी लेकिन ऐसा केवल इसलिए था क्योंकि यह मेरे हितों पर प्रभाव नहीं डालता था। अब जब मुझे ऐसा लग रहा था कि यह कर्तव्य मेरे भविष्य और मंजिल पर असर डाल रहा है तो मैं इसे ठुकराना चाहती थी। मैंने देखा कि मुझमें बिल्कुल भी मानवता नहीं थी और मैं बस एक घृणित और छोटे दिल वाली व्यक्ति थी जो केवल लाभ की तलाश में रहती थी! वास्तव में मुझे प्रचारक की भूमिका से अपने पद के कारण बर्खास्त नहीं किया गया था, बल्कि इसलिए किया गया था कि मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भाग रही थी और वास्तविक कार्य नहीं कर रही थी। लेकिन इस कारण परमेश्वर के घर ने मुझे निकाला नहीं, बल्कि मुझे आत्मचिंतन और पश्चात्ताप करने का अवसर दिया और मेरे लिए कर्तव्यों की व्यवस्था करना जारी रखा। मैंने उन मसीह-विरोधियों के बारे में भी सोचा जिन्हें कलीसिया से निष्कासित कर दिया गया था, उन्हें केवल उनके ऊँचे पदों पर होने के कारण बेनकाब नहीं किया गया था और निकाला नहीं गया था बल्कि इसलिए क्योंकि वे केवल प्रतिष्ठा और रुतबे का पीछा करते थे, गुट बनाते थे और जलन व कलह फैलाते थे और इससे कार्य में गड़बड़ी होती थी और बाधा आती थी। उन्होंने संगति किए जाने के बावजूद पश्चात्ताप करने से साफ इनकार कर दिया था और केवल तभी आखिरकार उन्हें निकाला गया। इससे मैंने देखा कि अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता तो चाहे वह कोई भी कर्तव्य निभा रहा हो, उसे बेनकाब किया जाएगा और निकाल दिया जाएगा।

फिर मैंने खुद से पूछा, “ऐसे और कौन-से गलत विचार हैं जो मुझे जिला अगुआ बनने से रोक रहे हैं?” बाद में मुझे एहसास हुआ कि मैं सोचती थी कि जिला अगुआ होना मतलब सभी कार्यों के लिए जिम्मेदार होना है और यह है कि मुझे विभिन्न कार्यों के पेशेवर कौशल का मार्गदर्शन करने में सक्षम होना चाहिए और मुझे लोगों का भेद पहचानना भी आना चाहिए, वरना मैं इस कर्तव्य को निभाने में सक्षम नहीं हूँगी। जबकि तकनीकी कौशल के मामले में मुझमें बहुत कमी थी। इसलिए मैं लगातार इस कर्तव्य से बचना चाहती थी। क्या यह दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप था? मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : “अगुआ होने के नाते कार्य को व्यवस्थित कर लेने के बाद तुम्हें कार्य की प्रगति की खोज-खबर लेनी चाहिए। अगर तुम उस कार्यक्षेत्र से परिचित नहीं हो—यदि तुम्हें इसके बारे में कोई भी जानकारी न हो—तब भी तुम अपना काम करने का तरीका खोज सकते हो। तुम जाँच करने और सुझाव देने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को खोज सकते हो, जो इसकी सच्ची पकड़ रखता हो, जो सबंधित पेशे को समझता हो। उसके सुझावों से तुम उपयुक्त सिद्धांत पता लगा सकते हो, और इस तरह तुम काम की खोज-खबर लेने में सक्षम हो सकते हो(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का एक मार्ग दिखाया। हालाँकि मुझे अभी भी एक जिला अगुआ के रूप में अपनी भूमिका में कई तकनीकी क्षेत्रों में महारत हासिल नहीं थी लेकिन परमेश्वर ने कभी भी यह तो नहीं कहा है कि इस कर्तव्य को निभाने के लिए हर कौशल को समझना आवश्यक है। परमेश्वर का इरादा यह था कि मैं वास्तविक प्रशिक्षण के दौरान सत्य सिद्धांत खोजने पर ध्यान केंद्रित करूँ, अपनी कमियों की भरपाई करूँ और धीरे-धीरे सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करूँ। मेरे तकनीकी कौशल में कमी थी, इसलिए मुझे उन भाई-बहनों से सहयोग लेना चाहिए जो इन कार्यों को समझते हैं और एक साथ मिलकर हम अपने कार्य में गलतियों और मसलों के समाधान के लिए सत्य सिद्धांत खोजने में सक्षम रहेंगे और अगर कोई ऐसी बात होती जिसे मैं सच में नहीं समझ पाती तो मैं ऊपरी अगुआओं से मदद ले सकती हूँ। अगर मैंने सच में पूरे मन से सहयोग किया और अंत में फिर भी मुझे लगता कि मेरा आध्यात्मिक कद और काबिलियत इस कर्तव्य के लिए वास्तव में अपर्याप्त है तो मैं इस्तीफा दे सकती हूँ और अगुआओं से कह सकती हूँ कि मुझे कोई अधिक उपयुक्त कर्तव्य सौंप दें। परमेश्वर के इरादे को समझकर मेरा दिल वास्तव में प्रफुल्लित हो गया और मैंने अपनी चिंताओं और शंकाओं को छोड़ दिया।

जनवरी 2024 में ऊपरी अगुआई को पता चला कि मेरे पर्यवेक्षण में चल रहे सिंचन कार्य के परिणाम अच्छे नहीं थे और सिंचनकर्ता कोई प्रगति नहीं कर रहे थे और नए लोगों को विकसित करने पर ध्यान नहीं दे रहे थे इसलिए उन्होंने पत्र लिखकर पूछा कि क्या हमें ये समस्याएँ हो रही हैं और हम सिंचन कार्य पर कैसे नजर रख रहे हैं। मैं चौंक गई और मैंने सोचा “मैं मुख्य रूप से सिंचन कार्य के लिए जिम्मेदार हूँ और रोज व्यस्त रहती हूँ। मुझे अपने कार्य में ये सारी समस्याएँ कैसे नजर नहीं आईं? ऐसा लगता है कि मेरे कार्य करने की क्षमता सच में कमजोर है।” मैं फिर से चिंतित हो गई और मैंने सोचा, “अगर सिंचनकर्ता नए लोगों की अच्छी तरह से सिंचाई नहीं करते और वे चले जाते हैं तो क्या मैं अपराध नहीं कर रही हूँगी? क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि मेरा परिणाम अच्छा नहीं होगा?” मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपने परिणाम और मंजिल पर विचार कर रही थी और मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए : “तुम लोगों में से प्रत्येक को अपना कर्तव्य खुले और ईमानदार दिलों के साथ निभाना चाहिए, और जो भी कीमत ज़रूरी हो, उसे चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए। जैसा कि तुम लोगों ने कहा है, जब दिन आएगा, तो परमेश्वर ऐसे किसी भी व्यक्ति के प्रति लापरवाह नहीं रहेगा, जिसने उसके लिए कष्ट उठाए होंगे या कीमत चुकाई होगी। इस प्रकार का दृढ़ विश्वास बनाए रखने लायक है, और यह सही है कि तुम लोगों को इसे कभी नहीं भूलना चाहिए। केवल इसी तरह से मैं तुम लोगों के बारे में निश्चिंत हो सकता हूँ। वरना तुम लोगों के बारे में मैं कभी निश्चिंत नहीं हो पाऊँगा, और तुम हमेशा मेरी घृणा के पात्र रहोगे। अगर तुम सभी अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुन सको और अपना सर्वस्व मुझे अर्पित कर सको, मेरे कार्य के लिए कोई कोर-कसर न छोड़ो, और मेरे सुसमाचार के कार्य के लिए अपनी जीवन भर की ऊर्जा अर्पित कर सको, तो क्या फिर मेरा हृदय तुम्हारे लिए अक्सर हर्ष से नहीं उछलेगा? इस तरह से मैं तुम लोगों के बारे में पूरी तरह से निश्चिंत हो सकूँगा, या नहीं?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, गंतव्य के बारे में)। परमेश्वर का इरादा हमें पूर्ण करना है ताकि हम अपने कर्तव्यों को निभाते हुए सत्य के सभी पहलुओं में प्रवेश कर सकें। मैंने इस बात पर चिंतन किया कि मैं वास्तविक कार्य क्यों नहीं कर पाई। मैंने सिंचन कार्य में होने वाली गड़बड़ियों और समस्याओं को समय पर हल नहीं किया जिसके कारण नए लोगों के सिंचन की प्रभावशीलता पर असर पड़ा। मुझे तुरंत इन गड़बड़ियों को सुधारना था और इन मामलों का समाधान करना था। केवल ऐसा करके ही मैं वास्तव में अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर सकती थी। इसलिए मैंने अपने कार्य में हुई गड़बड़ियों और समस्याओं को ईमानदारी से ऊपरी अगुआई को रिपोर्ट किया और सिंचनकर्ताओं की दशाओं और नए लोगों की समस्याओं को वास्तविक रूप से हल किया। सिंचनकर्ताओं को भी यह एहसास हो गया कि सत्य से सुसज्जित होना कितना महत्वपूर्ण है और अपने कर्तव्यों में अभ्यास का मार्ग मिल गया। मुझे यह महसूस हुआ कि अगर हम परमेश्वर के प्रति अपनी सतर्कता की भावनाओं को छोड़ दें, अपने भविष्य और मंजिल के बारे में न सोचें और पूरी तरह से अपने कर्तव्यों में लग जाएँ तो अपने कर्तव्य निभाते हुए हम परमेश्वर का मार्गदर्शन देख पाएँगे।

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