33. मैं अब खराब काबिलियत से बेबस नहीं होती
अप्रैल 2023 में चूँकि वीडियो बनाने में मेरी कुछ खूबियाँ थीं, अगुआ ने मुझे हर किसी के बनाए वीडियो की समीक्षा करने में लगा दिया। यह कर्तव्य करने में सक्षम होने के लिए मैं वाकई खुश थी और मैं इस अवसर को संजोना चाहती थी और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहती थी। पहले मैं सिद्धांतों का सक्रियता अध्ययन करती थी और वीडियो की समीक्षा करते समय कुछ समस्याएँ पहचानने में सक्षम थी। लेकिन कुछ समय बाद मैंने पाया कि जिस बहन के साथ मैं काम करती थी, उसके पास अच्छी काबिलियत और अंतर्दृष्टि थी और वह वीडियो में समस्याएँ जल्दी से पहचान लेती थी, जबकि मुझे कुछ समस्याएँ खोजने में बहुत समय लगता था और मैं उससे कहीं ज्यादा खराब थी। मुझे थोड़ी शर्मिंदगी होती थी। बाद में मैंने प्रासंगिक सिद्धांतों की समीक्षा की, लेकिन कुछ समय बाद भी थोड़ा सा ही सुधार हुआ। मैं बहुत हताश हो गई और सोचने लगी, “ऐसा लगता है कि मुझमें वाकई इस कर्तव्य को करने की काबिलियत की कमी है, परमेश्वर ने मुझे अच्छी काबिलियत क्यों नहीं दी है? अच्छी काबिलियत के बिना मैं यह कर्तव्य ठीक से कैसे कर सकती हूँ? अगर मुझे बर्खास्त कर दिया जाता है या दूसरे काम में लगा दिया जाता है तो क्या यह वाकई शर्मनाक नहीं होगा?” मुझे पता था कि मुझे परमेश्वर से कोई माँग या शिकायत नहीं करनी चाहिए, लेकिन फिर भी मैं बहुत हताश थी, मुझमें अपना कर्तव्य करने की प्रेरणा नहीं थी और न ही सुधार करने की आकाँक्षा थी। खासकर जब कुछ जटिल वीडियो से निपटना होता था तो मुझे चिंता होती थी कि मैं मुद्दों को सही ढंग से नहीं पहचान पाऊँगी, इसलिए मैं उनकी समीक्षा का काम दूसरों को दे देती थी। कभी-कभी मेरी साथी बहन को मेरे द्वारा जाँचे गए वीडियो की समीक्षा करते समय अभी भी कुछ समस्याएँ मिल जाती थीं और उसे मेरे साथ संगति करनी पड़ती थी, जिससे मुझे और भी ज्यादा महसूस होता था कि मुझमें काबिलियत की कमी है, जिससे काम की प्रगति में बाधा आ रही है और लगता था कि देर-सवेर मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा या दूसरे काम में लगा दिया जाएगा। मुझे लगता था कि विवेकशील दिखने के लिए स्वेच्छा से इस्तीफा देना बेहतर होगा। जब ये ख्याल आते तो मैं बहुत उलझन में पड़ जाती थी और मैं जानती थी कि ऐसा सोचना अपने कर्तव्य से भागना है, लेकिन मुझे नहीं पता था कि उचित तरीके से अभ्यास कैसे करना है, इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे लगता है कि मेरी काबिलियत कम है और मैं इस कर्तव्य को अच्छी तरह से नहीं कर सकती और इससे भागना चाहती हूँ। मैं यह भी जानती हूँ कि यह तुम्हारे इरादों के अनुरूप नहीं है, मैं प्रार्थना करती हूँ कि तुम मुझे प्रबुद्ध करो, अपनी समस्याएँ पहचानने और अभ्यास का मार्ग खोजने में मेरा मार्गदर्शन करो।”
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कुछ लोगों को लगता है कि उनमें बहुत कम काबिलियत है और उनमें समझने की क्षमता नहीं है, इसलिए वे खुद को सीमित कर लेते हैं, उन्हें लगता है कि वे चाहे कितना भी सत्य का अनुसरण कर लें, परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते। वे सोचते हैं कि चाहे वे कितनी भी कोशिश कर लें, सब बेकार है, और इसमें बस इतना ही है, इसलिए वे हमेशा नकारात्मक होते हैं, परिणामस्वरूप, बरसों परमेश्वर में विश्वास रखकर भी, उन्हें सत्य प्राप्त नहीं होता। सत्य का अनुसरण करने के लिए कड़ी मेहनत किए बिना, तुम कहते हो कि तुम्हारी क्षमता बहुत खराब है, तुम हार मान लेते हो और हमेशा एक नकारात्मक स्थिति में रहते हो। नतीजतन उस सत्य को नहीं समझते जिसे तुम्हें समझना चाहिए या जिस सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो, उसका अभ्यास नहीं करते—क्या तुम अपने लिए बाधा नहीं बन रहे हो? यदि तुम हमेशा यही कहते रहो कि तुममें पर्याप्त क्षमता नहीं है, क्या यह अपनी जिम्मेदारी से बचना और जी चुराना नहीं है? यदि तुम कष्ट उठा सकते हो, कीमत चुका सकते हो और पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हो, तो तुम निश्चित ही कुछ सत्य समझकर कुछ वास्तविकताओं में प्रवेश कर पाओगे। यदि तुम परमेश्वर से उम्मीद न करो, उस पर निर्भर न रहो और बिना कोई प्रयास किए या कीमत चुकाए, बस हार मान लेते हो और समर्पण कर देते हो, तो तुम किसी काम के नहीं हो, तुममें अंतरात्मा और विवेक का एक कण भी नहीं है। चाहे तुम्हारी क्षमता खराब हो या अत्युत्तम हो, यदि तुम्हारे पास थोड़ा-सा भी जमीर और विवेक है, तो तुम्हें वह ठीक से पूरा करना चाहिए, जो तुम्हें करना है और जो तुम्हारा ध्येय है; पलायनवादी होना एक भयानक बात है और परमेश्वर के साथ विश्वासघात है। इसे सही नहीं किया जा सकता। सत्य का अनुसरण करने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है, और जो लोग बहुत अधिक नकारात्मक या कमज़ोर होते हैं, वे कुछ भी संपन्न नहीं करेंगे। वे अंत तक परमेश्वर में विश्वास नहीं कर पाएँगे, और, यदि वे सत्य को प्राप्त करना चाहते हैं और स्वभावगत बदलाव हासिल करना चाहते हैं, तो उनके लिए अभी भी उम्मीद कम है। केवल वे, जो दृढ़-संकल्प हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, ही उसे प्राप्त कर सकते हैं और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जा सकते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मुझे अपराध बोध हुआ और मैं व्यथित हो गई। अपनी खराब काबिलियत के कारण मैंने तय कर लिया था कि चाहे मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ, मैं अपना कर्तव्य ठीक से नहीं कर सकती और अच्छी काबिलियत वाली बहनों के मुकाबले मैं हमेशा सबसे खराब रहूँगी, इसलिए मैं नकारात्मक अवस्था में जी रही थी और मुझमें अपना कर्तव्य करने की कोई प्रेरणा नहीं थी, सुधार करने की कोई इच्छा नहीं थी और मैं इस्तीफा देने के बारे में भी सोचती थी। ऐसा करने से मुझे लगता था कि मुझे बर्खास्त नहीं किया जाएगा या मेरी प्रतिष्ठा नहीं गिरेगी। मैंने सोचा कि कैसे मैं ज्यादा कोशिश नहीं करती थी और ज्यादा प्रगति नहीं दिखने के बाद मैं आगे नहीं बढ़ना चाहती थी। मैं कितनी बेकार थी! जिस व्यक्ति के पास वाकई अंतरात्मा और विवेक होता है, वह अपना कर्तव्य स्वीकारने के बाद नकारात्मक नहीं होता, भले ही उसे लगे कि उसकी काबिलियत परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है। इसके बजाय वह प्रार्थना करता है, परमेश्वर पर भरोसा करता है और अपने पूरे दम-खम से प्रयास करता है और वह अपना कर्तव्य इतनी आसानी से नहीं छोड़ता है। लेकिन खुद को देखूँ तो जब मेरी काबिलियत अपने साथ काम करने वाली बहन से कम थी और जब मेरे कर्तव्य में कुछ मुद्दे बताए गए थे तो मैं नकारात्मक हो गई थी और ढिलाई बरतने लगी थी, जटिल वीडियो की समीक्षा का काम दूसरों को देने लगी थी और दूसरों द्वारा बताई गई समस्याओं से सही ढंग से नहीं निपट पाती थी और खराब काबिलियत वाली इंसान मानकर खुद को सीमित कर लेती थी और अपने कर्तव्य में नकारात्मक और निष्क्रिय हो गई थी, यहाँ तक कि अपना मूल काम भी करने में असमर्थ हो गई थी। इन मुश्किलों और समस्याओं का सामना होने पर मैं यह नहीं सोचती थी कि उन्हें सुलझाने के लिए सत्य की खोज कैसे की जाए, बल्कि मैं अपनी खराब काबिलियत का इस्तेमाल अपने कर्तव्य से बचने और ऐसा करके अपनी प्रतिष्ठा बचाने के बहाने के रूप में करती थी। मैं बहुत स्वार्थी थी! मैंने परमेश्वर द्वारा दी गई सभी चीजों का आनंद लिया था, लेकिन अपना कर्तव्य नहीं कर सकी, मुझमें वाकई अंतरात्मा और विवेक की कमी थी! मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीके से विश्वासघात कर रहे हो। इसमें, तुम यहूदा से भी अधिक शोचनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। कर्तव्य परमेश्वर का दिया गया आदेश है। परमेश्वर ने जो मुझे कर्तव्य करने का अवसर दिया है वह मुझे और अधिक अभ्यास करने और सत्य के विभिन्न पहलुओं में आगे बढ़ने की अनुमति देता है। यह परमेश्वर का अनुग्रह है, लेकिन मैं इस अच्छी बात की सराहना करने में नाकाम रही और अपनी खराब काबिलियत के कारण मैं अपना कर्तव्य छोड़ना चाहती थी। ऐसा व्यवहार परमेश्वर के साथ विश्वासघात था! इसका एहसास होने पर मैं व्यथित हो गई और मुझे अपराध-बोध हुआ और मैं अब अपने कर्तव्य के प्रति इस तरह का रवैया नहीं अपनाना चाहती थी। मैं अपने पूरे दम-खम के साथ प्रयास करना चाहती थी और अब भगोड़ा नहीं बनना चाहती थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “परमेश्वर तुम्हारी अच्छी काबिलियत के कारण तुम्हारा सम्मान नहीं करेगा और न ही वह तुम्हारी खराब काबिलियत के कारण तुम्हारा तिरस्कार करेगा या तुमसे नफरत करेगा। परमेश्वर किस चीज से नफरत करता है? परमेश्वर जिस चीज से नफरत करता है वह है लोगों का सत्य से प्रेम न करनाया इसे स्वीकार न करना, लोगों का सत्य समझना लेकिन उसका अभ्यास न करना, वह कार्य न करना जिसे करने में वे सक्षम हैं, अपने कर्तव्यों में अपना सर्वस्व न दे पाना, फिर भी हमेशा असंयत इच्छाएँ रखना, हमेशा रुतबे की चाहत रखना, पद के लिए होड़ करना और हमेशा परमेश्वर से माँगें करते रहना। यही बात परमेश्वर को खराब और घिनौनी लगती है। तुममें शुरू से ही खराब काबिलियत है या कोई काबिलियत ही नहीं है, तुम कोई भी कार्य करने में असमर्थ हो और फिर भी तुम हमेशा अगुआ बनना चाहते हो; तुम हमेशा पद और सत्ता के लिए होड़ करते हो और हमेशा चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हें एक निश्चित उत्तर दे, तुम्हें बताए कि भविष्य में तुम राज्य में प्रवेश कर सकते हो, आशीषें प्राप्त कर सकते हो और एक अच्छा गंतव्य पा सकते हो। परमेश्वर द्वारा तुम्हारा चुना जाना पहले से ही एक बहुत बड़ा उत्थान है, फिर भी तुम उँगली पकड़ाए जाने पर बाँह पकड़ना चाहते हो। परमेश्वर ने तुम्हें वह दिया है जो तुम्हें मिलना चाहिए और तुम पहले से ही परमेश्वर से बहुत कुछ प्राप्त कर चुके हो, फिर भी तुम अनुचित माँगें करते हो। परमेश्वर इसी से नफरत करता है। तुम्हारी काबिलियत बहुत खराब है या तुम मानव बुद्धि के स्तर तक भी नहीं पहुँचते हो, फिर भी परमेश्वर ने तुम्हारे साथ एक जानवर जैसा व्यवहार नहीं किया है, बल्कि वह अब भी तुम्हें एक मनुष्य मानता है। इसलिए तुम्हें वही करना चाहिए जो एक मनुष्य को करना चाहिए, वही कहना चाहिए जो एक मनुष्य को कहना चाहिए और जो कुछ भी परमेश्वर ने तुम्हें दिया है उसे परमेश्वर से आ रहा मानकर स्वीकार करना चाहिए। तुम जो भी कर्तव्य कर सकते हो, उसे करो। परमेश्वर को निराश मत करो। उँगली पकड़ाए जाने पर बाँह पकड़ने की इच्छा मत रखो क्योंकि परमेश्वर तुम्हारे साथ एक मनुष्य जैसा व्यवहार करता है, यह मत कहो, ‘चूँकि परमेश्वर मुझे एक मनुष्य मानता है, उसे मुझे बेहतर काबिलियत देनी चाहिए, मुझे एक टीम अगुआ, पर्यवेक्षक या कलीसियाई अगुआ बनने देना चाहिए। यह सबसे अच्छा होता अगर वह ऐसी व्यवस्था करता कि मुझे कोई थकाऊ कार्य नहीं करना पड़ता, परमेश्वर का घर मुफ्त में मेरा भरण-पोषण करता और मुझे प्रयास करने या कष्ट सहने की जरूरत नहीं पड़ती, मुझे वह करने की अनुमति देता जो मैं करना चाहता हूँ।’ ये सभी अनुचित माँगें हैं। ये वे अभिव्यक्तियाँ या अनुरोध नहीं हैं जो किसी सृजित प्राणी के पास होने चाहिए या उसे प्रस्तुत करने चाहिए। परमेश्वर ने तुम्हारे साथ तुम्हारी कमजोर काबिलियत के अनुसार व्यवहार नहीं किया है, बल्कि तुम्हें चुना है और तुम्हें अपना कर्तव्य करने का अवसर दिया है। यह परमेश्वर का उत्थान है। तुम्हें उँगली पकड़ाए जाने पर बाँह पकड़ने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए और परमेश्वर से अनुचित माँगें नहीं करनी चाहिए। बल्कि तुम्हें परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए, अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए और परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाना चाहिए। परमेश्वर की तुमसे यही अपेक्षा है। तुम्हारी काबिलियत खराब है, लेकिन परमेश्वर ने अच्छी काबिलियत वाले लोगों के मानकों के अनुसार तुमसे अपेक्षाएँ नहीं रखी हैं। तुममें काबिलियत और बुद्धि की कमी है, लेकिन परमेश्वर ने यह अपेक्षा नहीं की है कि तुम उन मानकों को प्राप्त करो जिन तक अच्छी काबिलियत वाले लोग पहुँच सकते हैं। तुम जो कुछ भी करने में समर्थ हो, बस वही करो। परमेश्वर मछलियों को जमीन पर रहने के लिए मजबूर नहीं करता है। बात बस इतनी है कि तुममें हमेशा असंयत इच्छाएँ होती हैं और तुम हमेशा एक साधारण व्यक्ति, कम काबिलियत वाला औसत व्यक्ति बनने के अनिच्छुक रहते हो; बात यह है कि तुम ऐसे श्रमसाध्य कार्य नहीं करना चाहते हो जो तुम्हें सुर्खियों में नहीं लाता है और अपना कर्तव्य करने में तुम हमेशा कष्ट को नापसंद करते हो और थकान से कतराते हो, इस बारे में नखरेबाजी करते हो और चुनते हो कि क्या करना है; तुम हमेशा उद्दंड होते हो और तुम्हारे पास हमेशा अपनी योजनाएँ और प्राथमिकताएँ होती हैं—ऐसा नहीं है कि परमेश्वर ने तुम्हारे साथ अन्याय किया है। तो लोगों को अपनी काबिलियत सही तरीके से कैसे देखनी चाहिए? एक बात यह है कि परमेश्वर तुम्हें जो भी काबिलियत देता है, तुम्हें उसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। यह सबसे बुनियादी विचार और नजरिया है जो लोगों के पास होना चाहिए। यह नजरिया सही है और यह किसी भी परिस्थिति में बना रहता है। यह सत्य सिद्धांत ही है जो अटल रहता है, चाहे चीजें कैसे भी क्यों न बदलें” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे शर्मिंदगी और अपराध बोध हुआ। परमेश्वर लोगों पर अत्यधिक बोझ नहीं डालता और परमेश्वर की अपेक्षाएँ हमेशा मनुष्य की पहुँच के दायरे में होती हैं। परमेश्वर आशा करता है कि हम उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकें और अपने कर्तव्यों को दृढ़ता और कर्तव्यनिष्ठा से कर सकें। लेकिन मैं परमेश्वर के इरादे नहीं समझ पाई थी और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार नहीं थी। जब मैंने देखा कि मेरी काबिलियत दूसरों की तुलना में अच्छी नहीं है तो मैं नकारात्मक हो गई और ढिलाई बरतने लगी, यह शिकायत करने लगी कि परमेश्वर ने मुझे अच्छी काबिलियत नहीं दी है। बाद में मैं अपनी तकनीकी क्षमताएँ बेहतर बनाने के लिए कड़ी मेहनत करना चाहती थी, लेकिन जब मैं ऐसा नहीं कर पाई तो मैं नकारात्मक हो गई, गलतफहमी पाल ली और अपने कर्तव्य से विमुख हो गई। यह वाकई विद्रोहीपन था! मेरी काबिलियत कुछ हद तक कमतर थी और मेरी दक्षता अन्य भाई-बहनों की तरह उच्च नहीं थी, लेकिन फिर भी कलीसिया ने मुझे अभ्यास करने के अवसर दिए और भाई-बहन मुझे नीचा नहीं दिखाते थे बल्कि वे मुझे प्रोत्साहित करते थे और मेरी मदद करते थे। लेकिन मैं इसे अच्छी बात के रूप में पहचानने में पूरी तरह से असमर्थ थी और अपने अभिमान की खातिर मैं अपना कर्तव्य भी छोड़ना चाहती थी। यह वाकई स्वार्थी और घृणित था! सच्चाई यह है कि परमेश्वर व्यक्ति के हृदय को महत्व देता है और भले ही उसकी काबिलियत में कुछ कमी हो, जब तक उसका हृदय परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने का प्रयास करता है, परमेश्वर उसका प्रबोधन और मार्गदर्शन करेगा और वह अभी भी अपने कर्तव्यों में कुछ नतीजे पा सकता है। ठीक वैसे ही जैसे जब मैंने पहली बार वीडियो की समीक्षा करने की शुरुआत की थी, प्रार्थना करके और परमेश्वर पर भरोसा करके और जितना संभव हो सके सहयोग करके, मैं कुछ काम पूरा करने में सक्षम रही थी। बाद में, क्योंकि मुझे अपने अभिमान की बहुत फिक्र रहती थी, मेरा हृदय मेरे कर्तव्य पर केंद्रित नहीं था और मैं पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त नहीं कर सकी, इसलिए जो कुछ भी मैं करती थी वह मुश्किल और दुष्कर हो जाता था। इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप किया, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने और अपनी सर्वोत्तम क्षमता से जितना हो सके उतना करने की इच्छा जताई और अब अपने कर्तव्य से भागने के बारे में नहीं सोचा।
बाद में मैंने यह भी सोचा, “जब मैंने देखा कि मेरी काबिलियत मेरी साथी बहन की तुलना में कमतर है तो मैं नकारात्मक क्यों हो गई थी और पीछे क्यों हट गई थी? इस समस्या की जड़ क्या है?” अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “सत्य की खोज करने के बजाय, अधिकतर लोगों के अपने तुच्छ एजेंडे होते हैं। अपने हित, इज्जत और दूसरे लोगों के मन में जो स्थान या प्रतिष्ठा वे रखते हैं, उनके लिए बहुत महत्व रखते हैं। वे केवल इन्हीं चीजों को सँजोते हैं। वे इन चीजों पर मजबूत पकड़ बनाए रखते हैं और इन्हें ही बस अपना जीवन मानते हैं। और परमेश्वर उन्हें कैसे देखता या उनसे कैसे पेश आता है, इसका महत्व उनके लिए गौण होता है; फिलहाल वे उसे नजरअंदाज कर देते हैं; फिलहाल वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे समूह के मुखिया हैं, क्या दूसरे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं और क्या उनकी बात में वजन है। उनकी पहली चिंता उस पद पर कब्जा जमाना है। जब वे किसी समूह में होते हैं, तो प्रायः सभी लोग इसी प्रकार की प्रतिष्ठा, इसी प्रकार के अवसर तलाशते हैं। अगर वे अत्यधिक प्रतिभाशाली होते हैं, तब तो शीर्षस्थ होना चाहते ही हैं, लेकिन अगर वे औसत क्षमता के भी होते हैं, तो भी वे समूह में उच्च पद पर कब्जा रखना चाहते हैं; और अगर वे औसत क्षमता और योग्यताओं के होने के कारण समूह में निम्न पद धारण करते हैं, तो भी वे यह चाहते हैं कि दूसरे उनका आदर करें, वे नहीं चाहते कि दूसरे उन्हें नीची निगाह से देखें। इन लोगों की इज्जत और गरिमा ही होती है, जहाँ वे सीमा-रेखा खींचते हैं : उन्हें इन चीजों को कसकर पकड़ना होता है। भले ही उनमें कोई सत्यनिष्ठा न हो, और न ही परमेश्वर की स्वीकृति या अनुमोदन हो, मगर वे उस आदर, हैसियत और सम्मान को बिल्कुल नहीं खो सकते जिसके लिए उन्होंने दूसरों के बीच कोशिश की है—जो शैतान का स्वभाव है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ में आया कि जब मैंने देखा था कि मेरी काबिलियत मेरी साथी बहन से कमतर है तो मैं नकारात्मक हो गई थी और समस्या की जड़ यह थी कि मैं अपने अभिमान और रुतबे को बहुत अधिक महत्व देती थी। जब मैं देखती थी कि अन्य भाई-बहनों में अच्छी काबिलियत है और वे अपने कर्तव्यों में कुशल हैं तो मुझे ईर्ष्या होती थी और मैं अपनी कार्य कुशलता में सुधार करना चाहती थी। लेकिन मेरे प्रयासों के बावजूद मैं अभी भी दूसरों से कमतर थी और जब मेरा अभिमान और रुतबा संतुष्ट नहीं हुआ तो मैं नकारात्मक और निष्क्रिय हो गई थी और यहाँ तक कि मैं परमेश्वर को छोड़ने और धोखा देने के बारे में भी सोच रही थी। मैं अपने कर्तव्य से ज्यादा अभिमान और रुतबे को महत्व देती थी। मैंने देखा कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” का शैतानी जहर मुझमें गहराई तक समा चुका था, परमेश्वर के इरादों या अपेक्षाओं पर बिल्कुल भी विचार किए बिना और कलीसिया के काम की बिल्कुल भी रक्षा किए बिना मुझे लगातार इस बात का जुनून सवार रहता था कि दूसरे मुझे कैसे देखते हैं। मुझे एहसास हुआ कि मुझे यह कर्तव्य करने की अनुमति देने में परमेश्वर का श्रमसाध्य इरादा था। अपने अभिमान और रुतबे पर ध्यान केंद्रित करने की मेरी कमियों को परमेश्वर जानता है और जानता है कि मुझे शुद्ध करने और बदलने के लिए ऐसे परिवेश की जरूरत है। जब परमेश्वर ने मुझे अच्छी काबिलियत वाली बहनों के साथ सहयोग करने के लिए लगाया तो मैं दिखावा नहीं कर सकी थी और इसलिए मेरा अभिमान और रुतबा संतुष्ट नहीं हुए जिससे मुझे आंतरिक पीड़ा और यातना मिली और मुझे परमेश्वर के सामने आने और आत्म-चिंतन करने, प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने के नुकसान और परिणाम समझने और इस प्रकार अपने गलत प्रयास छोड़ने और अपने कर्तव्य के प्रति अपना रवैया सुधारने के लिए मजबूर होना पड़ा। साथ ही, अच्छी काबिलियत वाली बहनों के साथ सहयोग करने और अपने कर्तव्य में सभी की मदद पाने से, मुझे सिद्धांतों की बेहतर समझ भी मिली, जिसने संयोग से मेरी कमियों की भरपाई कर दी। यह परमेश्वर का प्रेम था! इस पर विचार करते हुए मुझे बहुत पछतावा हुआ और अब मैं अभिमान की बेकार खोज के लिए जीना नहीं चाहती थी।
फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मिला, जिसने मुझे परमेश्वर के इरादों की गहरी समझ दी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर लोगों को बेहद अच्छी काबिलियत नहीं देता है। एक तो ऐसा इसलिए है ताकि लोग इस बुनियादी शर्त के होते हुए थोड़ा-सा व्यावहारिक बने रह सकें और खुद को साधारण, औसत और भ्रष्ट स्वभावों वाले लोग महसूस करने के आधार पर खुशी से परमेश्वर का कार्य और परमेश्वर का उद्धार स्वीकार कर सकें। सिर्फ इसी तरह से लोगों के पास परमेश्वर के वचन स्वीकार करने की बुनियादी शर्त होती है। दूसरी बात यह है कि अगर लोगों में बहुत अच्छी काबिलियत या असाधारण रूप से तेज दिमाग हों, सभी पहलुओं में बहुत मजबूत क्षमताएँ हों, सभी असाधारण हों, दुनिया में उनके लिए सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा हो—वे व्यापार में बहुत पैसा कमा रहे हों, उनके विशेष रूप से सुचारु राजनीतिक करियर हों, वे सभी परिस्थितियों में सहजता से कार्य कर रहे हों, खुद को पानी में मछली की तरह महसूस कर रहे हों—तो ऐसे लोग आसानी से परमेश्वर के सामने आने और परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने में समर्थ नहीं होते हैं, है ना? (सही कहा।) परमेश्वर द्वारा बचाए जाने वालों में से ज्यादातर लोग दुनिया में या समाज के लोगों के बीच ऊँचे पदों पर नहीं होते हैं। चूँकि उनकी काबिलियत और क्षमताएँ औसत या यहाँ तक कि कमहोती हैं और वे दुनिया में लोकप्रियता या सफलता पाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, उन्हें हमेशा लगता है कि दुनिया बेरंग और अन्यायी है, इसलिए उन्हें आस्था की जरूरत होती है और अंत में वे परमेश्वर के सामने आते हैं और परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं। लोगों को चुनते समय परमेश्वर की यह एक बुनियादी शर्त है। तुममें सिर्फ इसी जरूरत के साथ परमेश्वर का उद्धार स्वीकारने की इच्छा हो सकती है। अगर हर दृष्टि से तुम्हारी स्थितियाँ बहुत अच्छी हैं और दुनिया में उद्यम करने के लिए उपयुक्त हैं और तुम हमेशा अपने लिए नाम कमाना चाहते हो तो तुममें परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने की इच्छा नहीं होगी और न ही तुम्हारे पास परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने का अवसर होगा” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मेरा हृदय रोशन हो गया। यह तथ्य कि परमेश्वर ने मुझे अच्छी काबिलियत नहीं दी, उसकी सद्भावना का हिस्सा था और इसमें उसके चौकस श्रमसाध्य इरादे निहित थे। कलीसिया द्वारा निष्कासित मसीह-विरोधियों पर विचार करने पर मैंने देखा कि उनमें से कुछ के पास अच्छी काबिलियत और बुद्धिमत्ता थी, लेकिन उनके दिल अपने कर्तव्य करने पर केंद्रित नहीं थे, बल्कि प्रतिष्ठा और रुतबे की खोज में थे। क्योंकि वे सही मार्ग का अनुसरण नहीं करते थे, उनके क्रियाकलाप परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा और गड़बड़ी डालते थे और बार-बार संगति के बावजूद वे पश्चात्ताप करने से इनकार करते रहे और आखिरकार निष्कासित कर दिए गए। मैंने प्रतिष्ठा और रुतबे पर केंद्रित अपने ध्यान के बारे में सोचा और यह कि अच्छी काबिलियत के बिना भी मैं कितनी सतही थी, अगर मुझमें अच्छी काबिलियत होती तो मैं बेहद घमंडी हो सकती थी और निश्चित रूप से पहले ही मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही होती। अब इसके बारे में सोचती हूँ तो परमेश्वर द्वारा मुझे अच्छी काबिलियत न देना वाकई मेरे लिए सुरक्षा का एक रूप था!
खोज के माध्यम से मुझे पता चला कि मेरा दृष्टिकोण भ्रामक था, मेरा मानना था कि अपने कर्तव्य में नतीजे पाने के लिए मुझमें अच्छी काबिलियत होनी चाहिए और अगर मेरे पास इसकी कमी है तो मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं कर पाऊँगी। मैंने इस मुद्दे के बारे में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “लोग यह नहीं समझते हैं कि परमेश्वर उन्हें इतनी नितांत औसत काबिलियत क्यों देता है। अच्छी काबिलियत वाले अगुआ ढूँढ़ना कठिन है और कलीसिया का कार्य अच्छी तरह से करना बेहद कठिन है। लोग सोचते हैं, ‘अगर परमेश्वर ने लोगों को अच्छी काबिलियत दी होती तो क्या अगुआओं को ढूँढ़ना आसान नहीं होता? क्या कलीसियाई कार्य करना आसान नहीं होता? परमेश्वर लोगों को अच्छी काबिलियत क्यों नहीं देता है?’ परमेश्वर के घर के पूरे कार्य के परिप्रेक्ष्य से इसे देखा जाए तो यकीनन अगर अच्छी काबिलियत वाले लोग और ज्यादा होते तो कलीसियाई कार्य सचमुच आसान होता। लेकिन एक आधार है : परमेश्वर के घर में परमेश्वर अपना कार्य कर रहा है और लोग निर्णायक भूमिका नहीं निभाते हैं। इसलिए चाहे लोगों की काबिलियत अच्छी हो, औसत हो या खराब हो, इससे परमेश्वर के कार्य के नतीजे तय नहीं होते हैं। जो अंतिम नतीजे प्राप्त किए जाने हैं, वे परमेश्वर द्वारा पूरे किए जाते हैं। हर चीज की अगुआई परमेश्वर करता है, हर चीज पवित्र आत्मा का कार्य है” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि हमारे कर्तव्यों में अच्छे नतीजे पाने की कुंजी पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन और कार्य पाना है। यहाँ तक कि अच्छी काबिलियत वाले लोगों के लिए भी, अगर उनके इरादे गलत हैं और वे केवल प्रसिद्धि, लाभ या रुतबे के लिए काम करते हैं और वे परमेश्वर के मार्गदर्शन और प्रबोधन के बिना सिर्फ अपनी काबिलियत और खूबियों पर भरोसा करते हैं तो वे अच्छे नतीजे हासिल नहीं कर सकते। जिन लोगों की काबिलियत औसत होती है, लेकिन जो अपने कर्तव्य में अपना दिल लगाते हैं और जो प्रार्थना करते हैं, परमेश्वर पर भरोसा करते हैं और मुश्किलों का सामना करते समय सत्य सिद्धांतों की तलाश करते हैं, उन्हें पवित्र आत्मा का कार्य पाने और अपने कर्तव्य में अच्छे नतीजे पाने की अधिक संभावना है। मेरा दृष्टिकोण वाकई बेतुका था। मैं सोचती थी कि किसी कर्तव्य को अच्छी तरह से करना और नतीजे पाना केवल मनुष्य की काबिलियत पर निर्भर करता है और इस बात को नकारती थी कि पवित्र आत्मा का कार्य सब कुछ निर्धारित करता है। यह छद्म-विश्वासियों का दृष्टिकोण है। अविश्वासियों की दुनिया में किसी नौकरी में अच्छे नतीजे पाने के लिए व्यक्ति को अपनी बुद्धि, काबिलियत और खूबियों पर भरोसा करना होता है। लेकिन परमेश्वर का घर लौकिक दुनिया से पूरी तरह अलग है। परमेश्वर के घर कार्य पवित्र आत्मा के कार्य के जरिए पूरा होता है और भले ही कार्य के दौरान मानवीय सहयोग की जरूरत होती है, लेकिन यह निर्णायक भूमिका नहीं निभाता। दुनिया भर के विभिन्न देशों में परमेश्वर के सुसमाचार का प्रसार पूरी तरह से परमेश्वर की अगुआई में होता है, यह एक-एक कदम आगे बढ़ता है, जिसमें परमेश्वर अपना कार्य करता है और लोग सिर्फ सहयोग करते हैं। परमेश्वर अच्छी तरह जानता है कि मैं क्या कर सकती हूँ, अपनी काबिलियत के अनुसार मैं कौन-सा कर्तव्य निभा सकती हूँ और मैं अपने कर्तव्य में क्या नतीजे पा सकती हूँ और जब तक मैं ईमानदार और मेहनती हूँ, परमेश्वर मेरा प्रबोधन और मार्गदर्शन करेगा। इसके अलावा, मेरे आस-पास अच्छी काबिलियत वाली बहनें हैं जिनके साथ मैं सहयोग कर सकती हूँ और हम एक-दूसरे की सराहना और एक-दूसरे की कमजोरियों की भरपाई कर सकती हैं और इस तरह मैं अपने कर्तव्य में कुछ नतीजे पा सकती हूँ।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश भी पढ़ा, जिसने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “बहुत से लोगों को लगता है कि उनमें कम योग्यता है और वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से या मानक के अनुरूप नहीं निभाते हैं। वे जो करते हैं उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ देते हैं, लेकिन वे सिद्धांतों को कभी भी समझ नहीं पाते हैं, और अभी बहुत अच्छे परिणाम नहीं दे पाते हैं। अंततः वे केवल यह शिकायत कर पाते हैं कि उनकी योग्यता बहुत कम है, और वे नकारात्मक हो जाते हैं। तो, क्या जब किसी व्यक्ति की योग्यता कम हो तो आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं है? कम योग्यता होना कोई घातक बीमारी नहीं है, और परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि वह कम योग्यता वाले लोगों को नहीं बचाता। जैसा कि परमेश्वर ने पहले कहा था, वह उन लोगों से दुखी होता है जो ईमानदार लेकिन अज्ञानी हैं। अज्ञानी होने का क्या मतलब है? कई मामलों में अज्ञानता कम योग्यता के कारण आती है। जब लोगों में योग्यता कम होती है तो उन्हें सत्य की सतही समझ होती है। यह विशिष्ट या पर्याप्त व्यावहारिक नहीं होती, और अक्सर सतही स्तर या शाब्दिक समझ तक ही सीमित होती है—यह धर्म-सिद्धांतों और विनियमों तक ही सीमित होती है। इसीलिए वे कई समस्याओं को समझ नहीं पाते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय कभी भी सिद्धांतों को नहीं समझ पाते हैं, या अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पाते हैं। तो क्या परमेश्वर कम योग्यता वाले लोगों को नहीं चाहता? (वह चाहता है।) परमेश्वर लोगों को कैसा मार्ग और दिशा दिखाता है? (एक ईमानदार व्यक्ति बनने का।) ... तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति निष्ठावान होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है : एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिए साजिश न करना। ये ईमानदारी की अभिव्यंजनाएँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने खुद को रोशन महसूस किया। मेरी काबिलियत परमेश्वर द्वारा निर्धारित की गई है और यह एक तथ्य है कि मेरी काबिलियत कम है। लेकिन परमेश्वर मेरी कम काबिलियत के लिए मेरा तिरस्कार नहीं करता। परमेश्वर आशा करता है कि मैं अपने कर्तव्य को सच्चे दिल से निभाऊँ, अपने अभिमान को अलग रखूँ और वह सब करूँ जो मैं अपने पूरे दिल और ताकत से कर सकती हूँ, सभी मामलों में सत्य की खोज और अभ्यास करूँ। मुझे यही करना चाहिए। बहनों की काबिलियत मुझसे बेहतर थी और वे मुद्दों को अधिक व्यापक रूप से देखती थीं, इसलिए यह अच्छी बात थी कि वे मेरे कर्तव्य में भटकावों और समस्याओं के बारे में बताती थीं, यह मुझे आत्म-चिंतन करने और अपने भटकावों को दूर करने के लिए प्रेरित कर सकता था, जिससे मेरी कमियों की भी भरपाई होती। इसके बाद मैंने अपनी कमियों के आधार पर प्रासंगिक सिद्धांतों की समीक्षा की और इन सिद्धांतों की बेहतर समझ हासिल की। परमेश्वर वाकई मुझ पर विशेष कृपा कर रहा था! मुझे एहसास हुआ कि भले ही मेरी काबिलियत कम है, फिर भी परमेश्वर मुझ पर ऐसा अनुग्रह करता है, जिससे मुझे अच्छी काबिलियत वाली बहनों के साथ सहयोग करने और अधिक पूरक होने की अनुमति मिलती है। मुझे अपना कर्तव्य कृतज्ञता के साथ निभाना था, सत्य सिद्धांत समझने में अधिक प्रयास लगाने थे, दूसरों के सुझाव अधिक सुनने थे, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना था। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, तुम्हारे प्रबोधन और मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद, जिसने मुझे तुम्हारे इरादे समझने में मदद की। मुझे अपनी खराब काबिलियत के कारण और भी अधिक मेहनत करनी चाहिए और एक ईमानदार व्यक्ति बनने की कोशिश करनी चाहिए, अपने कर्तव्य को पूरे दिल और क्षमता से अच्छी तरह से करना चाहिए!”
इसके बाद मैंने इस मामले पर सचेत होकर प्रार्थना की और अपने कर्तव्य में मैंने दूसरों से अपनी तुलना करने से परहेज किया और इसके बजाय परमेश्वर के सामने काम करने और उसकी जाँच-पड़ताल स्वीकारने पर ध्यान केंद्रित किया। वीडियो की जाँच करते हुए और ऐसी चीजों का सामना करते हुए जिनकी असलियत मैं नहीं समझ पा रही थी, जब मैंने सक्रियता से बहनों से मदद माँगी और ईमानदारी से अपने कर्तव्य में अपना दिल लगाया। जब मैंने इस तरह से अभ्यास किया तो मुझे अपने दिल में सहजता और मुक्ति का एहसास हुआ। एक बार टीम अगुआ ने मुझे अपने साथ एक वीडियो की जाँच करने के लिए कहा तो मैंने सोचा, “इस बहन के पास अच्छी काबिलियत है और मेरे पास नहीं है। अगर मैं किसी भी समस्या की पहचान नहीं कर पाई तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगी?” मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपने अभिमान से बेबस हो रही थी, इसलिए मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरे दिल को शांत करो ताकि मैं अपनी खराब काबिलियत से बेबस न रहूँ और जो कुछ भी मैं हासिल कर सकती हूँ उसमें सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकूँ। बहन में बेहतर काबिलियत है और वह अधिक समस्याओं की पहचान कर सकती है, जिससे मेरी कमियों की भरपाई होगी।” प्रार्थना करने के बाद मैंने अपने दिल को शांत किया और वीडियो को ध्यान से देखा। वीडियो देखने के बाद मैंने उन समस्याओं के बारे में बात की जिन्हें मैंने देखा था और जिन क्षेत्रों में मैं उलझन में थी, बहन ने भी अपने विचार और राय साझा की, उन क्षेत्रों पर अपने परिप्रेक्ष्यों को साझा किया जिनके बारे में मैं उलझन में थी। बहन की संगति के माध्यम से मैंने देखा कि मैं समस्याओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य से देख रही थी, जबकि बहन ने विस्तृत मुद्दों पर ध्यान दिया, जो संयोग से मेरी कमियों को भरपाई करते थे। हमारे विचारों के आदान-प्रदान से मेरी उलझन दूर हो गई और मुझे वीडियो की समस्याओं की साफ समझ हो गई। जब मैं अभिमान में लाभ और हानि के बारे में चिंतित नहीं थी और अपने कर्तव्य के लिए पूरे दिल से समर्पित थी, मुझे बहुत सहज महसूस हुआ और इस तरह से अपना कर्तव्य करना वाकई अच्छा लगा!
इस अनुभव के माध्यम से मुझे यह गहन अनुभूति हुई कि कर्तव्यों को अच्छी तरह से करने की कुंजी एक ईमानदार दिल रखना है, व्यक्तिगत हितों और अभिमान को अलग रखना है, खराब काबिलियत से बेबस नहीं होना है और अपने कर्तव्यों में अपना दिल लगाना है और उन्हें अच्छी तरह से करने के तरीके पर विचार करना है। इस तरह, परमेश्वर का मार्गदर्शन और प्रबोधन पाना और अपने कर्तव्य में कुछ नतीजे पाना आसान है।