50. अपने माता-पिता द्वारा पालन-पोषण किए जाने की दयालुता से कैसे पेश आएं
मेरा जन्म एक ग्रामीण परिवार में हुआ था और मेरे माता-पिता खेती करके अपना जीवन यापन करते थे। जब से मुझे याद है, मेरे माता-पिता की सेहत हमेशा खराब रहती थी, खासकर मेरे पिता की, उनकी दोनों टाँगों में दिक्कत थी, जिससे उनकी हालत बिगड़ने पर उनके लिए चलना मुश्किल हो जाता था। हालाँकि, परिवार का खर्च चलाने की खातिर मेरे पिता अक्सर बीमार होने पर भी काम करते थे। उस समय मेरे माता-पिता अक्सर मुझे और मेरी बहन को चिढ़ाते हुए कहते थे, “जब तुम बड़े हो जाओगे तो तुम्हें संतानोचित होना होगा! हम ज्यादा कुछ नहीं माँगते, बस इतना कि तुम हमारे साथ वैसे ही पेश आना जैसे हम तुम्हारे दादा-दादी के साथ पेश आते थे। अगर तुम बड़े होकर ऐसा कर पाआगे तो हमें खुशी होगी।” उस समय मैं छोटा था और मुझे संतानोचित निष्ठा का पता नहीं था, लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, मेरे मन में धीरे-धीरे संतानोचित निष्ठा और बुढ़ापे की लाठी बनने के लिए बच्चों का पालन-पोषण करने जैसे विचार आकार लेने लगे। अपने माता-पिता को हमारे परिवार के लिए इतना कष्ट सहते देखकर मैं उम्मीद करता था कि जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो उनका कर्ज चुकाने के लिए पैसे कमाऊँगा और उन्हें एक अच्छा जीवन दे पाऊँगा। बाद में जब मैं काम करने और पैसे कमाने लगा तो मैं अपने माता-पिता के लिए कपड़े और उनकी बीमारियों के लिए उपचार उपकरण भी खरीदता था।
साल 2009 में हमारे पूरे परिवार ने अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकार लिया और उसके तुरंत बाद मैं कलीसिया में कर्तव्य करने लगा। एक बार जब मेरे माता-पिता एक सभा में गए थे तो उन्हें सीसीपी ने गिरफ्तार कर लिया और पूछताछ के दौरान पुलिस मेरे पिता से मेरे ठिकाने के बारे में कड़ी पूछताछ करती रही। सीसीपी द्वारा गिरफ्तार किए जाने और सताए जाने से बचने के लिए मुझे अपना घर छोड़कर कहीं और जाकर अपने कर्तव्य करने पड़े। शुरुआती कुछ सालों में मुझे अपने माता-पिता के बारे में ज्यादा चिंता नहीं होती थी क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास रखते थे और अपने कर्तव्य के लिए जो कुछ भी कर सकते थे वो करते थे, जिससे मुझे सहजता महसूस होती थी। 2017 मेरे लिए बहुत ही असामान्य वर्ष था। एक सहकर्मी बैठक में मुझे एक बहन से पता चला कि मेरे पिता को फिर से पुरानी बीमारी हो गई है और वे लकवाग्रस्त हो गए हैं, बिस्तर पर पड़े रहते हैं और बोल नहीं पाते हैं। अचानक यह खबर सुनना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। मैंने सोचा, “जब मैं गया था तब तो वे ठीक थे? यह कैसे हुआ? मेरे पिता के लकवाग्रस्त होने के कारण क्या मेरी माँ अकेले ही सब कुछ सँभाल सकती है?” काश मैं अपने लकवाग्रस्त पिता से मिलने फौरन घर जाकर उनकी देखभाल कर पाता। लेकिन सीसीपी द्वारा गिरफ्तारी और उत्पीड़न के खतरे के कारण मैं अभी भी वापस नहीं जा सकता था। मुझे बहुत अफसोस हो रहा था, इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! यह जानकर कि मेरे पिता लकवाग्रस्त हैं, मैं बहुत कमजोर पड़ गया हूँ, यह सब सहने के लिए मुझे आस्था और शक्ति दो। सीसीपी द्वारा गिरफ्तारी के खतरे के कारण मैं वापस नहीं जा सकता, लेकिन घर पर जो कुछ हो रहा है, वह सब मैं तुम्हारे हाथों में सौंपने को तैयार हूँ। मेरे दिल पर नजर रखो ताकि मैं इस स्थिति में अडिग रह सकूँ।” प्रार्थना करने के बाद मुझे बहुत शांति महसूस हुई। जब मैं रात को बिस्तर पर लेटा, तो मेरे मन में बिस्तर पर पड़े लकवाग्रस्त पिता की तस्वीर घूम गई जो हिलने-डुलने में भी असमर्थ थे। मुझे वो साल याद आ गया जब मैं जूनियर हाई स्कूल में सर्दियों की छुट्टियों के लिए घर गया था। उस दिन काफी बर्फ पड़ी थी, मैं अपना बैग लेकर कुछ सहपाठियों के साथ घर जा रहा था। हम एक पहाड़ी सड़क पर कई घंटों से चल रहे थे। हम घर से कुछ ही मील दूर थे, लेकिन मुझे इतनी ठंड और भूख लग रही थी कि मैं और नहीं चल सकता था और पीछे छूट गया था। गाँव के मेरे सहपाठी पहले मेरे घर पहुँचे और मेरे माता-पिता को बताया, मेरे पिता किसी तरह मुझे उठाकर घर ले गए। यह वाकया याद करके मैं अपने आँसू नहीं रोक सका। अब मेरे पिता अपनी देखभाल नहीं कर सकते थे और मरने के कगार पर थे। अगर मेरे पिता एक दिन वाकई मर गए तो मेरी माँ अकेली उनका अंतिम संस्कार कैसे करेगी? हमारे रिश्तेदार और पड़ोसी हम पर हँसेंगे और अगर मैं अपने लकवाग्रस्त पिता के पास वापस नहीं लौट पाया तो वे जरूर कहेंगे कि मैं संतानोचित नहीं हूँ। यह कलंक मुझे हमेशा के लिए झेलना पडे़गा। इन बातों को ध्यान में रखते हुए मैं सच में अपने पिता की देखभाल करने के लिए वापस जाने का जोखिम उठाना चाहता था। लेकिन मुझे डर था कि अगर मैं वापस गया तो मुझे गिरफ्तार कर लिया जाएगा और न केवल मैं अपने पिता की देखभाल करने में सक्षम नहीं हो पाऊँगा, बल्कि मैं अपनी माँ पर भी बोझ बन जाऊँगा। इसलिए मैंने यह विचार छोड़ दिया। बाद में मैंने पत्र लिखकर पूछा कि घर पर चीजें कैसी चल रही हैं। कुछ महीने बाद मुझे अपनी माँ का एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि मेरे पिता को गुजरे छह महीने बीत चुके हैं। यह खबर सुनना बेहद दर्दनाक और परेशान करने वाला था और मैं सोच रहा था, “मेरे पिता ने मुझे पालने में अपना खून, पसीना और आँसू बहाए, लेकिन जब वे बूढ़े और लकवाग्रस्त हो गए तो मैंने कोई संतानोचित कर्तव्य नहीं निभाया। मैं उन्हें आखिरी बार भी नहीं देख पाया था। ऐसा कहा जाता है कि तुम बच्चों को बुढ़ापे का सहारा बनने के लिए पालते हो, लेकिन मैंने बेटे के रूप में अपनी कोई भी जिम्मेदारी नहीं निभाई थी। मैं वाकई संतानोचित बेटा नहीं हूँ!” मैं सोच रहा था कि कैसे मेरे पिता सालों तक बिस्तर पर पड़े रहे और अपनी देखभाल करने में असमर्थ थे और कैसे मेरी माँ को हर दिन अपने खेत के काम और घर के काम के साथ-साथ उनकी देखभाल भी करनी पड़ती थी। उन्होंने बहुत कुछ सहा था। अब मेरी माँ बिल्कुल अकेली थी और मैं उन्हें और कष्ट नहीं सहने दे सकता था। लेकिन मैं उनकी देखभाल करने के लिए वापस नहीं जा सकता था। मेरा दिल द्वंद्व और दर्द से भरा हुआ था और मैं अपने कर्तव्यों पर भी ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा था।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “क्या अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित प्रेम दिखाना सत्य है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना एक सही और सकारात्मक बात है, लेकिन हम यह क्यों कहते हैं कि यह सत्य नहीं है? (क्योंकि लोग अपने माता-पिता के साथ संतानोचित व्यवहार करने में किसी सिद्धांत का पालन नहीं करते और वे यह भेद नहीं कर पाते कि उनके माता-पिता वास्तव में किस प्रकार के लोग हैं।) एक व्यक्ति को अपने माता-पिता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसका संबंध सत्य से है। यदि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास करते हैं और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करते हैं, तो क्या तुम्हें उनके प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए? (हाँ।) तुम संतानोचित कैसे होते हो? तुम उनके साथ अपने भाई-बहनों से अलग व्यवहार करते हो। तुम उनके द्वारा बताए गए हर काम को करते हो, और यदि वे बूढ़े हों, तो तुम्हें हर हाल में उनकी देखभाल के लिए उनके पास रहना होता है, जो तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वाह के लिए बाहर जाने से रोकता है। क्या ऐसा करना सही है? (नहीं।) ऐसे समय में तुम्हें क्या करना चाहिए? यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यदि तुम अपने घर के आस-पास ही कहीं अपना कर्तव्य निभाते हुए भी उनकी देखभाल कर पा रहे हो, और तुम्हारे माता-पिता को परमेश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था पर आपत्ति नहीं है, तो तुम्हें एक पुत्र या पुत्री के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए और अपने माता-पिता के कुछ काम करते हुए उनकी मदद करनी चाहिए। यदि वे बीमार हों, तो उनकी देखभाल करो; अगर उन्हें कोई परेशानी हो, तो उनकी परेशानी दूर करो; अपने बजट के अनुरूप उनके लिए पोषक आहार खरीदो। परंतु, यदि तुम अपने कर्तव्य में व्यस्त रहते हो, जबकि तुम्हारे माता-पिता की देखभाल करने वाला और कोई न हो, और वे भी परमेश्वर में विश्वास करते हों, तो तुम्हें क्या करने का फैसला करना चाहिए? तुम्हें कौन-से सत्य का अभ्यास करना चाहिए? चूँकि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना सत्य नहीं, बल्कि केवल एक मानवीय जिम्मेदारी और दायित्व है, तो तुम्हें तब क्या करना चाहिए जब तुम्हारा दायित्व तुम्हारे कर्तव्य से टकराता हो? (अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए; कर्तव्य को पहले रखना चाहिए।) दायित्व अनिवार्य रूप से व्यक्ति का कर्तव्य नहीं है। अपना कर्तव्य निभाने का चुनाव करना सत्य का अभ्यास करना है, जबकि दायित्व पूरा करना सत्य का अभ्यास करना नहीं है। अगर तुम्हारी स्थिति ऐसी हो, तो तुम यह जिम्मेदारी या दायित्व पूरा कर सकते हो, लेकिन अगर वर्तमान परिवेश इसकी अनुमति न दे, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, ‘मुझे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए—यही सत्य का अभ्यास करना है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना अपने जमीर से जीना है, और यह सत्य का अभ्यास करने से कम बात है।’ इसलिए, तुम्हें अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए और उस पर कायम रहना चाहिए। अगर अभी तुम्हारे पास कोई कर्तव्य नहीं है और तुम घर से दूर रहकर काम नहीं करते, और अपने माता-पिता के पास रहते हो, तो उनकी देखभाल करने के तरीके खोजो। उन्हें थोड़ा बेहतर जीने और उनके कष्ट कम करने में मदद करने की पूरी कोशिश करो। लेकिन यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि तुम्हारे माता-पिता किस तरह के लोग हैं। अगर तुम्हारे माता-पिता खराब मानवता के हैं, यदि वे तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने से लगातार रोकते हैं, और अगर वे तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने से दूर खींचते रहते हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें किस सत्य का अभ्यास करना चाहिए? (अस्वीकार का।) उस समय तुम्हें उन्हें अस्वीकार कर देना चाहिए। तुमने अपना दायित्व पूरा किया है। तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, इसलिए उनके प्रति संतानोचित आदर प्रदर्शित करने का तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है। अगर वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परिवार हैं, तुम्हारे माता-पिता हैं। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तो तुम लोग अलग-अलग मार्ग पर चल रहे हो : वे शैतान में विश्वास करते हैं और बुरे कर्मों के बादशाह की पूजा करते हैं, और वे शैतान के मार्ग पर चलते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास करने वालों से भिन्न मार्गों पर चल रहे हैं। अब तुम एक परिवार नहीं हो। वे परमेश्वर में विश्वास करने वालों को अपना विरोधी और शत्रु मानते हैं, इसलिए उनकी देखभाल करने का तुम्हारा दायित्व नहीं रह गया है और तुम्हें उनसे पूरी तरह से संबंध तोड़ लेना चाहिए। सत्य क्या है : अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना या अपना कर्तव्य निभाना? बेशक, अपना कर्तव्य निभाना सत्य है। परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाना केवल अपना दायित्व पूरा करना और वह करना नहीं है जो व्यक्ति को करना चाहिए। यह सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना है। यहाँ परमेश्वर का आदेश है; यह तुम्हारा दायित्व है, तुम्हारी जिम्मेदारी है। यह सच्ची जिम्मेदारी है, जो सृष्टिकर्ता के समक्ष अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना है। यह सृष्टिकर्ता की लोगों से अपेक्षा है और यह जीवन का बड़ा मामला है। लेकिन अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित सम्मान दिखाना किसी व्यक्ति की जिम्मेदारी और दायित्व मात्र है। यह निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा आदेशित नहीं है और यह परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप तो यह उससे भी कम है। इसलिए, अपने माता-पिता का संतानोचित सम्मान करने और अपना कर्तव्य निभाने में से अपना कर्तव्य निभाना ही सत्य का अभ्यास करना है। एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना सत्य और एक अनिवार्य कर्तव्य है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित सम्मान प्रदर्शित करने का संबंध लोगों के प्रति संतानोचित व्यवहार करने से है। इसका मतलब यह नहीं कि व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा है, न ही इसका मतलब यह है कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो, क्या सोचते हो, या क्या योजना बनाते हो, वे सब महत्वपूर्ण बातें नहीं हैं। महत्वपूर्ण यह है कि क्या तुम यह समझ सकते हो और सचमुच विश्वास कर सकते हो कि सभी सृजित प्राणियों का नियंत्रण परमेश्वर के हाथों में हैं। कुछ माता-पिताओं को ऐसा आशीष मिला होता है और ऐसी नियति होती है कि वे घर-परिवार का आनंद लेते हुए एक बड़े और समृद्ध परिवार की खुशियां भोगें। यह परमेश्वर का अधिकार क्षेत्र है, और परमेश्वर से मिला आशीष है। कुछ माता-पिताओं की नियति ऐसी नहीं होती; परमेश्वर ने उनके लिए ऐसी व्यवस्था नहीं की होती। उन्हें एक खुशहाल परिवार का आनंद लेने, या अपने बच्चों को अपने साथ रखने का आनंद लेने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। यह परमेश्वर की व्यवस्था है और लोग इसे जबरदस्ती हासिल नहीं कर सकते। चाहे कुछ भी हो, अंततः जब संतानोचित शील की बात आती है, तो लोगों को कम से कम समर्पण की मानसिकता रखनी चाहिए। यदि वातावरण अनुमति दे और तुम्हारे पास ऐसा करने के साधन हों, तो तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित दायित्व निर्वाह का शील दिखाना चाहिए। अगर वातावरण उपयुक्त न हो और तुम्हारे पास साधन न हों, तो तुम्हें जबरन ऐसा करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए—इसे क्या कहते हैं? (समर्पण।) इसे समर्पण कहा जाता है। यह समर्पण कैसे आता है? समर्पण का आधार क्या है? यह परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और परमेश्वर द्वारा शासित इन सभी चीजों पर आधारित है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गया कि संतानोचित निष्ठा सिर्फ मानवीय जिम्मेदारी और दायित्व है और यह सकारात्मक बात है, लेकिन यह सत्य नहीं है। एक सृजित प्राणी का कर्तव्य करना सत्य है और परमेश्वर लोगों से यही अपेक्षा करता है। यह परमेश्वर की स्वीकृति से मेल खाता है। जब संतानोचित निष्ठा तुम्हारे कर्तव्यों के साथ टकराती है तो तुम्हें अपनी परिस्थितियों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। अगर परिस्थितियाँ अनुमति देती हैं और तुम्हारे कर्तव्य पर असर नहीं डालती हैं तो तुम्हें अपने माता-पिता की देखभाल करनी चाहिए और अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने चाहिए। अगर परिस्थितियाँ अनुमति नहीं देती हैं और तुम अपने कर्तव्यों में व्यस्त हो तो तुम्हें सृजित प्राणी के कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए और परमेश्वर की व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए। जहाँ तक माता-पिता की बात है, कुछ अभिभावकों के कई बच्चे और पोते-पोतियाँ होती हैं और वे खुशहाल परिवार के आशीष का आनंद लेते हैं, लेकिन कुछ अभिभावकों के लिए परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित स्थिति ऐसी नहीं होती है और वे ऐसे आशीष का आनंद नहीं ले पाते हैं। ये सभी चीजें परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से मुझे बहुत राहत मिली। पिछले समय को याद करने पर देखता हूँ कि मैं घर पर अपने कर्तव्य करते हुए माता-पिता की यथासंभव देखभाल किया करता था, लेकिन सीसीपी द्वारा सताने और गिरफ्तारी के खतरे के कारण मैं घर वापस नहीं जा सकता था। साथ ही मेरे पास करने के लिए मेरे कर्तव्य थे, इसलिए मुझे सृजित प्राणी का कर्तव्य करना चुनना था, क्योंकि यह सत्य के अनुरूप है। मैं अपने स्वार्थी कारणों से अपने कर्तव्य नहीं छोड़ सकता था।
बाद में मुझे माँ का एक पत्र मिला और मुझे पता चला कि उन्हें और तीन बहनों को एक सभा के दौरान गिरफ्तार किया गया था। पुलिस की पूछताछ के दौरान वह शैतान की चालों में बहक गई थीं और उन्होंने दो बहनों के नाम का खुलासा कर दिया था। अपनी रिहाई के बाद उन्हें बहुत पछतावा हो रहा था और हताश अवस्था में जी रही थीं। बाद में वह गलती से सीढ़ियों से गिर गई थीं और उनकी कमर में चोट लग गई थी। मन से तो मैं ही घर पर था। मेरा दिमाग मेरी माँ के गिरने और तकलीफ में होने की छवियों से भरा हुआ था। मैं वाकई परेशान था। तीन महीने बाद मुझे माँ का एक और पत्र मिला, जिसमें कहा गया था कि उनका कमर दर्द ठीक हो गया है और गिरने से वह जाग गई हैं और आखिरकार सत्य की तलाश और आत्म-चिंतन करने लगी हैं। उन्होंने लिखा था कि वह अपनी गलत अवस्था से बाहर आ गई हैं और अगर यह घटना नहीं घटती तो वह परमेश्वर को गलत समझकर ही जीवन जीती रहतीं। जब मैंने उनका पत्र पढ़ा तो मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। मैंने देखा कि परमेश्वर की व्यवस्थाओं में हमेशा उसके दिल से किए गए इरादे शामिल होते हैं, उसका कार्य बहुत व्यावहारिक होता है और वह हमारी जरूरतों और कमियों के अनुसार हममें से प्रत्येक का मार्गदर्शन करता है। अक्टूबर 2022 के उत्तरार्द्ध में मुझे पता चला कि मेरी माँ को भाई-बहनों के लिए एक सभा की मेजबानी करते समय अचानक पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। पुलिस को सुसमाचार उपयाजक का फोन और मेमोरी कार्ड मिला था जिसमें परमेश्वर के वचन थे और मेरी माँ ने खड़े होकर पहल करते हुए कहा था कि यह उसका है, जिससे सुसमाचार उपयाजक बच गया था। मैं अपनी माँ के लिए बहुत खुश था। जुलाई 2023 के मध्य में मुझे अपनी बड़ी बहन का एक पत्र मिला, जिसमें कहा गया था कि मेरी माँ को पित्ताशय की थैली में अल्सर है। ऐसा लग रहा था कि उन्हें सर्जरी की जरूरत पड़ेगी, लेकिन उनकी हालत स्थिर हो गई थी, इसलिए उन्हें सर्जरी नहीं करानी पड़ी थी। इस खबर ने मुझे बहुत बेचैन कर दिया और मैंने सोचा, “अगर मेरी माँ को वाकई सर्जरी की जरूरत पड़ी तो घर पर उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। मेरी बड़ी बहन शादीशुदा है और बहुत दूर रहती है और उसके अपने कर्तव्य हैं, इसलिए वह उनके साथ रहने के लिए आ नहीं सकती थी। वह अब बहुत बूढ़ी हो गई हैं। अगर उन्हें कुछ हो गया तो? उनका अंतिम संस्कार कौन करेगा? मैं और मेरी बहन उनके साथ नहीं हैं और उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। जब मेरे पिता की मौत हुई थी तब मैं वहाँ नहीं था, अगर माँ को कुछ हो गया और मैं उस समय वहाँ नहीं हुआ तो मैं वाकई नालायक बेटा बनकर रह जाऊँगा।” इन विचारों ने मुझे एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया था जिसे मैं पार नहीं कर पा रहा था और इसका मेरी अवस्था पर असर पड़ रहा था।
अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “आओ, चर्चा करें कि ‘तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं’ की व्याख्या कैसे की जाए। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं—क्या यह तथ्य नहीं है? (जरूर है।) चूँकि यह एक तथ्य है, इसलिए हमारे लिए इसमें निहित मुद्दों को स्पष्ट समझना उचित है। आओ तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें जन्म देने के मामले पर गौर करें। यह किसने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें : तुमने या तुम्हारे माता-पिता ने? किसने किसे चुना? अगर इस पर तुम परमेश्वर के दृष्टिकोण से गौर करो, तो जवाब है : तुममें से किसी ने भी नहीं। न तुमने और न ही तुम्हारे माता-पिता ने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें। अगर तुम इस मामले की जड़ पर गौर करो, तो यह परमेश्वर द्वारा नियत था। इस विषय को फिलहाल हम अलग रख देंगे, क्योंकि लोगों के लिए यह मामला समझना आसान है। अपने नजरिये से, तुम निश्चेष्टा से, इस मामले में बिना किसी विकल्प के, अपने माता-पिता के यहाँ पैदा हुए। माता-पिता के नजरिये से, उन्होंने तुम्हें अपनी स्वतंत्र इच्छा से जन्म दिया, है ना? दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के विधान को अलग रखकर तुम्हें जन्म देने के मामले को देखें, तो ये तुम्हारे माता-पिता ही थे जिनके पास संपूर्ण शक्ति थी। उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है और उन्होंने ही तमाम फैसले लिए। उनके लिए तुमने नहीं चुना कि वे तुम्हें जन्म दें, तुमने निश्चेष्टा से उनके यहाँ जन्म लिया, और इस मामले में तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। तो चूँकि तुम्हारे माता-पिता के पास संपूर्ण शक्ति थी और उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है, तो यह उनका दायित्व और जिम्मेदारी है कि वे तुम्हें पालें-पोसें, बड़ा करें, शिक्षा दें, खाना, कपड़े और पैसे दें—यह उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है, और यह उन्हें करना ही चाहिए। वे जब तुम्हें बड़ा कर रहे थे, तब तुम हमेशा निश्चेष्ट थे, तुम्हारे पास चुनने का हक नहीं था—तुम्हें उनके हाथों ही बड़ा होना था। चूँकि तुम छोटे थे, तुम्हारे पास खुद को पाल-पोस कर बड़ा करने की क्षमता नहीं थी, तुम्हारे पास निश्चेष्टा से अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किए जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। तुम उसी तरह बड़े हुए जैसे तुम्हारे माता-पिता ने चुना, अगर उन्होंने तुम्हें बढ़िया चीजें खाने-पीने को दीं, तो तुमने बढ़िया खाना खाया-पिया। अगर तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जीने का ऐसा माहौल दिया जहाँ तुम्हें भूसा और जंगली पौधे खाकर जिंदा रहना पड़ता, तो तुम भूसे और जंगली पौधों पर जिंदा रहते। किसी भी स्थिति में, अपने पालन-पोषण के समय तुम निश्चेष्ट थे, और तुम्हारे माता-पिता अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे। ... किसी भी स्थिति में, तुम्हें पाल-पोसकर तुम्हारे माता-पिता एक जिम्मेदारी और एक दायित्व निभा रहे हैं। तुम्हें पाल-पोस कर वयस्क बनाना उनका दायित्व और जिम्मेदारी है, और इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता। अगर इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता, तो क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसका तुम्हें मजा लेना चाहिए? (जरूर है।) यह एक प्रकार का अधिकार है जिसका तुम्हें आनंद लेना चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किया जाना चाहिए, क्योंकि वयस्क होने से पहले तुम्हारी भूमिका एक पाले-पोसे जा रहे बच्चे की होती है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे प्रति सिर्फ एक जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं, और तुम बस इसे प्राप्त कर रहे हो, लेकिन निश्चित रूप से तुम उनसे अनुग्रह या दया प्राप्त नहीं कर रहे हो। किसी भी जीवित प्राणी के लिए बच्चों को जन्म देकर उनकी देखभाल करना, प्रजनन करना और अगली पीढ़ी को बड़ा करना एक किस्म की जिम्मेदारी है। मिसाल के तौर पर पक्षी, गायें, भेड़ें और यहाँ तक कि बाघिनें भी बच्चे जनने के बाद अपनी संतान की देखभाल करती हैं। ऐसा कोई भी जीवित प्राणी नहीं है जो अपनी संतान को पाल-पोस कर बड़ा न करता हो। कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन ये ज्यादा नहीं हैं। जीवित प्राणियों के अस्तित्व में यह एक कुदरती घटना है, जीवित प्राणियों का यह सहज ज्ञान है, और इसे दयालुता का लक्षण नहीं माना जा सकता। वे बस उस विधि का पालन कर रहे हैं जो सृष्टिकर्ता ने जानवरों और मानवजाति के लिए स्थापित की है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता का तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना किसी प्रकार की दयालुता नहीं है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। वे तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं। वे तुम पर चाहे जितनी भी मेहनत करें, जितना भी पैसा लगाएँ, उन्हें तुमसे इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए, क्योंकि माता-पिता के रूप में यह उनकी जिम्मेदारी है। चूँकि यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है, इसलिए इसे मुफ्त होना चाहिए, और उन्हें इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए। तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके तुम्हारे माता-पिता बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे, और यह निःशुल्क होना चाहिए, इसमें लेनदेन नहीं होना चाहिए। इसलिए तुम्हें भरपाई करने के विचार के अनुसार न तो अपने माता-पिता से पेश आना चाहिए, न उनके साथ अपने रिश्ते को ऐसे संभालना चाहिए। अगर तुम इस विचार के अनुसार अपने माता-पिता से पेश आते हो, उनका कर्ज चुकाते हो और उनके साथ अपने रिश्ते को संभालते हो, तो यह अमानुषी है। साथ ही, हो सकता है इसके कारण तुम आसानी से अपनी दैहिक भावनाओं से नियंत्रित होकर उनसे बँध जाओ और फिर तुम्हारे लिए इन उलझनों से उबरना इस हद तक मुश्किल हो जाएगा कि शायद तुम अपनी राह से भटक जाओ। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं, इसलिए उनकी तमाम अपेक्षाएँ साकार करना तुम्हारा दायित्व नहीं है। उनकी अपेक्षाओं की कीमत चुकाना तुम्हारा दायित्व नहीं है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों में माता-पिता और बच्चों के बीच के रिश्ते को कैसे सँभालना है, इस बारे में बहुत साफ बताया गया है। माता-पिता के रूप में बच्चों को जन्म देना और उनका पालन-पोषण करना सृष्टिकर्ता द्वारा मानवता के लिए निर्धारित नियमों का पालन करना है। जैसे प्रजनन करना किसी भी जीव की सहज प्रवृत्ति है। माता-पिता द्वारा अपने बच्चों का पालन-पोषण करना उनकी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करना है; यह कोई दयालुता नहीं है और उनके बच्चों को इसका कर्ज चुकाने की जरूरत नहीं है। मैं सोचता था कि चूँकि मेरे माता-पिता के लिए मुझे जन्म देना और मेरा पालन-पोषण करना इतना कठिन था और चूँकि उन्होंने बहुत तकलीफ सही थी, इसलिए उनके बच्चे के रूप में, मुझे उनका उचित कर्ज चुकाना चाहिए ताकि मैं पालन-पोषण की उनकी दयालुता का कर्ज चुका सकूँ। जब मुझे पता चला था कि मेरे पिता लकवाग्रस्त हैं और मैं उनकी देखभाल करने के लिए उनके पास नहीं रह सकता और उनके बुढ़ापे में उनकी देखभाल नहीं कर सकता या उन्हें उचित विदाई नहीं दे सकता, तो मैंने खुद को अपने पिता का ऋणी महसूस किया। इस बारे में सोचकर मुझे लगता था कि मेरे सिर पर बहुत बड़ा बोझ है, जिससे साँस लेना मुश्किल हो रहा है। पिता की मृत्यु के बाद मैं माँ को लेकर चिंतित रहता था, लगता था चूँकि मैं अपने पिता के प्रति संतानोचित नहीं था, मैं अपनी माँ का भी ऋण सिर पर लेकर नहीं जी सकता था, मुझे यह सुनिश्चित करना था कि वह अपने जीवन के अंतिम वर्ष सुख से निकाले। यह जानते हुए कि मेरी माँ घायल हो गई थी और मैं उनकी देखभाल करने के लिए वापस नहीं जा सकता था, मुझे लग रहा था कि मैं माँ का कर्जदार हूँ और उनके प्रति संतानोचित नहीं हूँ। अब परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ आया कि मेरे माता-पिता ने मुझे पाल-पोस कर अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे किए थे और यह कोई ऐसी दयालुता नहीं थी जिसका मुझे कर्ज चुकाना था। वे मेरे लेनदार नहीं थे। मेरे माता-पिता द्वारा मेरी परवरिश को कर्ज चुकाने के लिए दयालुता के रूप में देखना पूरी तरह से गलत था और सत्य के अनुरूप नहीं था। इस नजरिए ने मुझे बहुत पीड़ा पहुँचाई थी। अगर परमेश्वर ने इस पर सत्य उजागर नहीं किया होता तो मैं इसके बारे में पूरी तरह से अनजान रहता और मैं इस गलत नजरिए से बंधा और नियंत्रित रहता। मेरा जीवन परमेश्वर से आया है और परमेश्वर मेरी हर जरूरत पूरी करता है। मुझे परमेश्वर का आभारी होना चाहिए। मुझे याद है कि 2007 में मुझे प्रभु में विश्वास रखते हुए कुछ ही महीने हुए थे, मैं कार में था और कार के ब्रेक फेल हो गए, गाड़ी पहाड़ी से लुढ़ककर नीचे चली गई। उस हादसे में मौतें हुई थीं और चोटें आई थीं, लेकिन मैं अपने दिल में परमेश्वर को पुकारता रहा था और मैं सिर्फ मांसपेशी में खिंचाव के साथ बहुत ही हल्की चोट के साथ बच गया था। चमत्कार यह हुआ कि हादसे के दौरान मैं बिल्कुल भी डरा या घबराया नहीं, जिससे मुझे परमेश्वर के चमत्कारी कर्म का पता चला। अगर परमेश्वर की सुरक्षा न होती तो मैं उस दुर्घटना में मर सकता था। इतने वर्षों में मैंने गहराई से अनुभव किया है कि केवल परमेश्वर ही मेरा एकमात्र उद्धार है। परमेश्वर में मेरे विश्वास के बिना मैं लौकिक लोगों की तरह होता, जो लगातार धन और प्रसिद्धि के पीछे भागते रहते हैं, इस बात से अनजान रहते हैं कि हमारी नियति किसके हाथों में है और यह जानना तो दूर की बात है कि सार्थक जीवन कैसे जिएँ, न उन्हें शैतान द्वारा दिए जा रहे कष्टों का एहसास होता है। आज राज्य का सुसमाचार फैलाने के लिए लोगों के सहयोग की जरूरत है। मैं परमेश्वर के प्रेम का कर्ज चुकाने के बारे में नहीं सोच रहा था और मैं अपने कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं करने के लिए परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस नहीं कर रहा था। मैं सिर्फ अपने माता-पिता का कर्ज चुकाने पर ध्यान केंद्रित कर रहा था। यह वाकई मेरे लिए अविवेकपूर्ण, बेशर्म और कृतघ्न होना था!
मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “चीनी परंपरागत संस्कृति के अनुकूलन के कारण चीनी लोगों की परंपरागत धारणाओं में यह माना जाता है कि लोगों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए। जो कोई भी संतानोचित निष्ठा नहीं रख्त है, वह गैर-संतानोचित बच्चा है। ये विचार बचपन से ही लोगों के मन में बिठाए गए हैं, और ये लगभग हर घर में, साथ ही हर स्कूल में और बड़े पैमाने पर पूरे समाज में सिखाए जाते हैं। जब किसी व्यक्ति का दिमाग इस तरह की चीजों से भर जाता है, तो वह सोचता है, ‘संतानोचित निष्ठा किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर मैं इसका पालन नहीं करता, तो मैं एक अच्छा इंसान नहीं हूँ—मैं कपूत हूँ और समाज मेरी निंदा करेगा। मैं ऐसा व्यक्ति हूँगा, जिसमें जमीर नहीं है।’ क्या यह नजरिया सही है? लोगों ने परमेश्वर द्वारा व्यक्त इतने अधिक सत्य देखे हैं—क्या परमेश्वर ने अपेक्षा की है कि व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाए? क्या यह कोई ऐसा सत्य है, जिसे परमेश्वर के विश्वासियों को समझना ही चाहिए? नहीं, यह ऐसा सत्य नहीं है। परमेश्वर ने केवल कुछ सिद्धांतों पर संगति की है। परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। ... शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का इस्तेमाल तुम्हारे दिल, दिमाग और विचारों को बाँधने के लिए करता है, और तुम्हें परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं छोड़ता; तुम शैतान की इन चीजों के वश में आ चुके हो और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं रहे। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो तो ये चीजें तुम्हारे मन में खलल पैदा करती हैं, इनके कारण तुम सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध करने लगते हो, और तुममें इतनी शक्ति नहीं रहती कि अपने कंधे से परंपरागत संस्कृति का जुआ उतारकर फेंक सको। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता कर लेते हो : तुम यह विश्वास करना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही हैं और सत्य के अनुरूप भी हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचन ठुकरा या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और तुम बचाए जाने को महत्वपूर्ण नहीं समझते, तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी इस संसार में जी रहे हो और इन्हीं लोगों पर निर्भर रहकर जीवित रह सकते हो। समाज के आरोप-प्रत्यारोप झेलने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचन तज देना पसंद करते हो, खुद को नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के हवाले छोड़ देते हो, और परमेश्वर को नाराज करना और सत्य का अभ्यास न करना बेहतर समझते हो। मुझे बताओ, क्या इंसान दीन-हीन नहीं है? क्या उन्हें परमेश्वर से उद्धार पाने की जरूरत नहीं है? कुछ लोगों ने बरसों से परमेश्वर पर विश्वास किया है, फिर भी उनके पास संतानोचित निष्ठा के मामले में कोई अंतर्दृष्टि नहीं है। वे वास्तव में सत्य को नहीं समझते। वे कभी भी सांसारिक संबंधों की बाधा नहीं तोड़ सकते; उनमें न साहस होता है न ही आत्मविश्वास, संकल्प होना तो दूरी की बात है, इसलिए वे परमेश्वर से प्रेम नहीं कर सकते, उसकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकते” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचन पारंपरिक संस्कृति का सार उजागर करते हैं। मैंने इस बात पर विचार किया कि कैसे मैं बचपन से ही शैतान की शिक्षाओं से प्रभावित था, “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” और “अपने बच्चों को इस तरह पालो कि वे बुढ़ापे में तुम्हारा सहारा बनें।” मैं संतानोचित निष्ठा को इस बात का पैमाना मानता था कि किसी व्यक्ति में अंतरात्मा है या नहीं, इसलिए मेरा मानना था कि चूँकि मेरे माता-पिता ने मुझे पाला-पोसा है, मुझे उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना चाहिए और जब वे बूढ़े हो जाएँ तो मुझे उनका सम्मान करना चाहिए और उनके बुढ़ापे में उनकी देखभाल करनी चाहिए और उन्हें उचित तरीके से संसार से विदा करना चाहिए। मेरा मानना था कि इन जिम्मेदारियों को पूरा करने का मतलब है कि व्यक्ति में मानवता और अंतरात्मा है और अगर कोई इन चीजों को करने में नाकाम रहता है तो वह संतानोचित नहीं है और इंसान कहलाने के लायक नहीं है और समाज द्वारा उसे बदनाम और अस्वीकार किया जाएगा। ये विचार मेरे दिल में गहराई से जड़ जमा चुके थे। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद सीसीपी के उत्पीड़न और गिरफ्तारी के खतरे के कारण मैं घर वापस नहीं लौट सका था और मैं अपने पिता को आखिरी बार भी नहीं देख पाया था। मुझे बहुत आत्म-ग्लानि होती थी, एक गैर-संतानोचित बच्चे की तरह, अपने माता-पिता के प्रति ऋणी, जिन्होंने मुझे पालने में दयालुता दिखाई थी और यह कि दूसरे लोग मुझे तुच्छ समझते हैं और गैर-संतानोचित बेटे के रूप में मुझपर उँगलियाँ उठाते हैं। बाद में अपनी माँ की बीमारी का पता लगने से मुझे चिंता होती थी और मुझे डर लगता था कि अगर मेरी माँ वाकई मर गई तो मैं कभी भी “गैर-संतानोचित बच्चा” होने का ठप्पा नहीं हटा पाऊँगा। ये विचार अदृश्य बेड़ियों की तरह थे, जो मुझे कसकर बाँध रहे थे और मुझे आजाद होने से रोक रहे थे। मैं अच्छी तरह से जानता था कि परमेश्वर में विश्वास करके सृजित प्राणी का कर्तव्य करना जीवन में सही मार्ग है, लेकिन मैं अपना कर्तव्य शांतिपूर्वक नहीं निभा पाता था। मुझे एहसास हुआ कि इन भ्रामक पारंपरिक विचारों से मुझे बहुत नुकसान हो रहा है। मैंने अनुग्रह के युग के बारे में सोचा, जब कई लोगों ने दुनिया भर में प्रभु का सुसमाचार फैलाने के लिए अपने माता-पिता और रिश्तेदारों को छोड़ दिया था और कुछ ने तो अपना जीवन भी बलिदान कर दिया था। उनके विकल्प पूरी तरह से प्रभु के इरादे से मेल खाते थे और अच्छे कर्म और न्यायपूर्ण कार्य थे। मैंने प्रभु की वापसी का स्वागत किया है और अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य स्वीकारा है, जो जीवन में एक बार मिलने वाला अवसर है और इस समय सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य करना परमेश्वर की स्वीकृति से मेल खाता है, जबकि संतानोचित निष्ठा सिर्फ मानवीय दायित्व है। अगर परिस्थितियाँ अनुमति देती हैं तो यह किया जा सकता है, लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है तो कर्तव्य को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़कर नहीं गए होते और अपने माता-पिता के साथ ही रह रहे होते, तो क्या तुम उन्हें बीमार पड़ने से रोक सकते थे? (नहीं।) क्या यह तुम्हारे वश में है कि तुम्हारे माता-पिता जीवित रहें या मर जाएँ? क्या उनका अमीर या गरीब होना तुम्हारे वश में है? (नहीं।) तुम्हारे माता-पिता को जो भी रोग हो, वह इस वजह से नहीं है कि वे तुम्हें बड़ा करने में बहुत थक गए, या उन्हें तुम्हारी याद आई; वे खास तौर से कोई भी बड़ा, गंभीर और संभवतः जानलेवा रोग तुम्हारे कारण नहीं पकड़ेंगे। यह उनका भाग्य है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम चाहे जितने भी संतानोचित क्यों न हो, ज्यादा-से-ज्यादा तुम उनकी दैहिक पीड़ा और बोझों को कुछ हद तक कम कर सकते हो, लेकिन वे कब बीमार पड़ेंगे, उन्हें कौन-सी बीमारी होगी, उनकी मृत्यु कब और कहाँ होगी—क्या इन चीजों का तुमसे कोई लेना-देना है? नहीं, नहीं है। अगर तुम संतानोचित हो, अगर तुम लापरवाह अकृतज्ञ नहीं हो, पूरा दिन उनके साथ बिताते हो, उनकी देखभाल करते हो, तो क्या वे बीमार नहीं पड़ेंगे? क्या वे नहीं मरेंगे? अगर उन्हें बीमार पड़ना ही है, तो क्या वे कैसे भी बीमार नहीं पड़ेंगे? अगर उन्हें मरना ही है, तो क्या वे कैसे भी नहीं मर जाएँगे? क्या यह सही नहीं है?” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। “अपने माता-पिता को परमेश्वर के हाथों में सौंप देना उनके प्रति संतानोचित आदर दिखाने का सर्वोत्तम तरीका है। तुम उम्मीद नहीं करते कि वे जीवन में तरह-तरह की मुश्किलें झेलें, तुम उम्मीद नहीं करते कि वे बुरा जीवन जिएँ, पोषणरहित खाना खाएँ, या बुरा स्वास्थ्य झेलें। अपने हृदय की गहराई से तुम निश्चित रूप से यही उम्मीद करते हो कि परमेश्वर उनकी रक्षा करेगा, उन्हें सुरक्षित रखेगा। अगर वे परमेश्वर के विश्वासी हैं, तो तुम उम्मीद करते हो कि वे अपने खुद के कर्तव्य निभा सकेंगे और तुम यह भी उम्मीद करते हो कि वे अपनी गवाही में दृढ़ रह सकेंगे। यह अपनी मानवीय जिम्मेदारियाँ निभाना है; लोग अपनी मानवता से केवल इतना ही हासिल कर सकते हैं। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने और अनेक सत्य सुनने के बाद, लोगों में कम-से-कम इतनी समझ-बूझ तो है : मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है, मनुष्य परमेश्वर के हाथों में जीता है, और परमेश्वर द्वारा मिलने वाली देखभाल और रक्षा, अपने बच्चों की चिंता, संतानोचित धर्मनिष्ठा या साथ से कहीं ज्यादा अहम है। क्या तुम इस बात से राहत महसूस नहीं करते हो कि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर की देखभाल और रक्षा के अधीन हैं? तुम्हें उनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। अगर तुम चिंता करते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते; उसमें तुम्हारी आस्था बहुत थोड़ी है। अगर तुम अपने माता-पिता के बारे में सचमुच चिंतित और विचारशील हो, तो तुम्हें अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, उन्हें परमेश्वर के हाथों में सौंप देना चाहिए, और परमेश्वर को हर चीज का आयोजन और व्यवस्था करने देनी चाहिए। परमेश्वर मानवजाति के भाग्य पर राज्य करता है और वह उनके हर दिन और उनके साथ होने वाली हर चीज पर शासन करता है, तो तुम अभी भी किस बात को लेकर चिंतित हो? तुम अपना जीवन भी नियंत्रित नहीं कर पाते, तुम्हारी अपनी ढेरों मुश्किलें हैं; तुम क्या कर सकते हो कि तुम्हारे माता-पिता हर दिन खुश रहें? तुम बस इतना ही कर सकते हो कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में सौंप दो। अगर वे विश्वासी हैं, तो परमेश्वर से आग्रह करो कि वह सही पथ पर उनकी अगुआई करे ताकि वे आखिरकार बचाए जा सकें। अगर वे विश्वासी नहीं हैं, तो वे जो भी पथ चाहें उस पर चलने दो। जो माता-पिता ज्यादा दयालु हैं और जिनमें थोड़ी मानवता है, उन्हें आशीष देने के लिए तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हो, ताकि वे अपना बचा हुआ जीवन खुशी-खुशी बिता सकें। जहाँ तक परमेश्वर के कार्य करने के तरीके का प्रश्न है, उसकी अपनी व्यवस्थाएँ हैं और लोगों को उनके प्रति समर्पित हो जाना चाहिए। तो कुल मिला कर लोगों के जमीर में अपने माता-पिता के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों की जागरूकता है। इस जागरूकता से आने वाला रवैया चाहे जैसा हो, चाहे यह चिंता करने का हो या उनके साथ मौजूद रहने को चुनने का हो, किसी भी स्थिति में, लोगों को अपराध भावना नहीं पालनी चाहिए और उनकी अंतरात्मा को दोषी महसूस नहीं करना चाहिए क्योंकि वे वस्तुपरक हालात से प्रभावित होने के कारण अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर सके। ये और इन जैसे दूसरे मसले लोगों के परमेश्वर में विश्वास के जीवन में मुसीबतें नहीं बननी चाहिए; उन्हें त्याग देना चाहिए। जब माता-पिता के प्रति जिम्मेदारियाँ पूरी करने के विषय उभरते हैं, तो लोगों को ये सही समझ रखनी चाहिए और उन्हें अब बेबस महसूस नहीं करना चाहिए। एक बात तो यह है कि, तुम अपने दिल की गहराई से जानते हो कि तुम असंतानोचित नहीं हो, और तुम अपनी जिम्मेदारियों से जी नहीं चुरा रहे हो या बच नहीं रहे हो। दूसरी बात, तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर के हाथों में हैं, तो फिर अभी भी चिंता करने के लिए क्या रह गया है? किसी को जो भी चिंताएँ हों, बेकार हैं। प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के अनुसार अंत तक सुगम जीवन जिएगा, बिना किसी भटकाव के अपने पथ के अंत तक पहुँचेगा” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि माता-पिता को उनके जीवनकाल में कब और किस तरह की बीमारी या दुर्भाग्य का सामना करना पड़ेगा, ये सब परमेश्वर की संप्रभुता द्वारा शासित होता है और इन चीजों का इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि बच्चे उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ हैं या नहीं। भले ही बच्चे हर दिन अपने माता-पिता के साथ रहें, लेकिन इससे वाकई कुछ नहीं बदल सकता, ज्यादा से ज्यादा इससे उनका दैनिक बोझ थोड़ा कम हो जाएगा, लेकिन अगर यह उनका भाग्य है तो वे फिर भी बीमार पड़ेंगे और जब उनका समय आएगा तो उन्हें इस दुनिया से जाना ही होगा। यह सृष्टिकर्ता द्वारा निर्धारित नियति है। मेरी माँ को कौन सी बीमारी होगी या वह मरेगी या नहीं, यह सब परमेश्वर के आदेश के अंतर्गत है। भले ही मैं लौट जाऊँ और हर दिन उनके साथ रहूँ, लेकिन इससे कुछ नहीं बदलेगा। उनका जीवन और मृत्यु बहुत पहले से ही परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है। वह किस उम्र तक पहुँचेंगी, कौन-कौन से कष्ट सहेंगी और किन परिस्थितियों का सामना करेंगी, ये सभी चीजें परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनियति के अधीन हैं और मेरे चिंता करने से कोई मदद नहीं मिलेगी। मेरी माँ भी परमेश्वर में विश्वास करती हैं और परमेश्वर उनकी परिस्थिति के अनुसार उनके लिए उपयुक्त स्थितियों की व्यवस्था करेगा। जैसे जब मेरी माँ घायल हुई थीं, मैं परमेश्वर के हृदयस्पर्शी इरादे नहीं समझ पाया था और लगातार उनके लिए चिंता कर रहा था, लेकिन अंत में वह ठीक हो गई थीं। मुझे एहसास हुआ कि मेरी आस्था में वाकई कमी थी और मैं सिर्फ मानवीय धारणाओं के साथ चीजों का आकलन कर रहा था और मुझमें परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता की सच्ची समझ की कमी थी। मैं ग्यारह सालों से घर से दूर हूँ और मेरी माँ घर पर अकेली हैं और अपना कर्तव्य यथासंभव अच्छे से कर रही हैं और वह बढ़िया तरीके से जी रही हैं। अब मैं देखता हूँ कि मेरी चिंताएँ और परवाह वाकई अनावश्यक थीं। मैं यह भी समझता हूँ कि मेरे माता-पिता मेरे लेनदार नहीं हैं और उन्होंने मुझे अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों के हिस्से के रूप में पाला है और मैं इसे चुकाए जाने वाली दयालुता के रूप में नहीं देख सकता। इस जीवन में मुझे एक मिशन पूरा करना है जो सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना है। जब मैं इस तरह सोचता हूँ तो मेरा अपराध बोध दूर हो जाता है, और मैं अपनी आत्मा में बहुत अधिक मुक्त महसूस करता हूँ और अपने कर्तव्य के प्रति खुद को अर्पित करने में सक्षम होता हूँ। परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए उसका धन्यवाद!