67. दौलत, शोहरत और लाभ के पीछे भागने से क्या मिलता है?
जब मैं छोटी थी तो मेरे परिवार को अक्सर नीची नजर से देखा जाता था क्योंकि मेरे ज्यादा भाई-बहन नहीं थे। उस समय मेरे माता-पिता अक्सर मुझसे कहते थे, “सबसे अच्छी और सबसे स्थायी नौकरी डॉक्टर के रूप में काम करना है। न केवल उन्हें ऊँचा वेतन मिलता है, बल्कि उनका बहुत सम्मान भी होता है।” जब भी कोई डॉक्टर हमारे गाँव आता तो उसका हमेशा गर्मजोशी से स्वागत होता था और उसे बहुत सम्मान दिया जाता था। मुझमें उन डॉक्टरों के लिए गहरी प्रशंसा और ईर्ष्या रहती थी और मैं अपने मन में कहती थी कि मुझे कड़ी मेहनत करनी होगी ताकि मैं भी एक दिन डॉक्टर बन सकूँ, अपने गाँव में गर्व के साथ रह पाऊँ और सम्मानित हो सकूँ। इसके बाद मैं किताबी कीड़ा बन गई और खुद को पढ़ाई में झोंक दिया। मेरी कड़ी मेहनत का फल मुझे मिला जब बाद में मैंने प्रांतीय चीनी चिकित्सा अकादमी में परीक्षा दी। स्नातक होने के बाद मुझे क्षेत्रीय अस्पताल में डॉक्टर के रूप में नौकरी मिल गई, ठीक वैसे ही जैसे मैंने चाहा था। तब से ऐसा लगने लगा मानो मेरा जीवन स्तर ऊँचा हो गया है। न केवल मुझे अच्छा वेतन मिलता था बल्कि मेरे सभी साथी मुझसे ईर्ष्या और मेरी प्रशंसा करते थे, मेरे सभी मित्र, रिश्तेदार और परिचित बीमार होने पर मुझे ही खोजते थे और जब भी मैं अपने गाँव वापस जाती थी तो मेरा गर्मजोशी और सम्मान के साथ स्वागत होता था। मेरे माता-पिता को भी गर्व की अनुभूति होती थी। मुझे इस तरह से सम्मानित होना वाकई अच्छा लगता था और इससे मेरे अहंकार को बढ़ावा मिलता था। ऐसा लगता था मानो मेरे सभी त्याग आखिरकार सफल हुए। अधिक अनुभव प्राप्त करने के साथ मैं कई अमीर और प्रभावशाली लोगों से मिलने लगी जो सभी प्रकार की बीमारियों से पीड़ित थे, जिसके कारण उन्हें बेहद पीड़ा होती थी। उनमें से कुछ गंभीर, विकट बीमारियों से जूझ रहे थे, मगर डॉक्टर उन्हें केवल असहाय होकर मरते हुए ही देख सकते थे। मैं यह सोचने को मजबूर हो जाती कि मृत्यु के सामने हमारा जीवन बेहद नाजुक और असहाय है। इससे मुझे एक अजीब-सी आध्यात्मिक शून्यता का एहसास होने लगा। मैं सोचने लगी कि जीवन का उद्देश्य क्या है और मैं किसलिए जी रही हूँ। 1998 के अंत में कई डॉक्टरों ने सरकारी अस्पताल छोड़कर निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी। मैंने सोचा कि अगर मैं अस्पताल में काम करती रही तो मैं अपने मौजूदा वेतन पर ही अटकी रहूँगी, इसलिए अगर मुझे आगे बढ़ना है और अधिक पैसे कमाने हैं तो मुझे अपना खुद का मालिक बनना होगा। तो मैंने अस्पताल की नौकरी छोड़ दी और अपना खुद का क्लिनिक शुरू किया।
फिर सन 2000 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का सुसमाचार सुना। मैंने देखा कि परमेश्वर ने कहा है : “मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों से नियंत्रित होता है। तुम स्वयं को नियंत्रित करने में असमर्थ हो : हमेशा अपनी ओर से भाग-दौड़ करते रहने और व्यस्त रहने के बावजूद मनुष्य स्वयं को नियंत्रित करने में अक्षम रहता है। यदि तुम अपने भविष्य की संभावनाओं को जान सकते, यदि तुम अपने भाग्य को नियंत्रित कर सकते, तो क्या तुम तब भी एक सृजित प्राणी होते?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंजिल पर ले जाना)। परमेश्वर के वचनों के जरिए मुझे एहसास हुआ कि मनुष्य का जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथों में है और कोई भी अपनी किस्मत को काबू में नहीं कर सकता। जब परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए निर्धारित वर्ष पूरे हो जाते हैं, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे पास कितना पैसा, शक्ति या प्रभाव है। परमेश्वर के वचन खाने-पीने और कलीसियाई जीवन जीने के माध्यम से मुझे यह भी एहसास हुआ कि मैं केवल भौतिक चीजों, ऊँचे रुतबे और दैहिक सुखों के पीछे नहीं भाग सकती। सबसे अहम बात एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करना, सत्य का अनुसरण करना, अच्छे कर्मों का संचय करना और उद्धार प्राप्त करना है। इसलिए मैंने कलीसिया में वह कर्तव्य निभाया जो मैं निभा सकती थी। मैं भाई-बहनों के साथ इकट्ठे होकर परमेश्वर के वचनों पर संगति करती, इससे मुझे संतुष्टि और खुशी मिलती थी। पहले तो मैं सिर्फ एक छोटे समूह की सभाओं की अगुआई करती थी और इतनी व्यस्त नहीं थी। बाद में मुझे कलीसिया अगुआ के रूप में सेवा देने के लिए चुन लिया गया। मैं जानती थी कि यह परमेश्वर का उत्कर्ष था और उसने मुझे प्रशिक्षण पाने और सत्य प्राप्त करने का यह अवसर दिया था। मैंने परमेश्वर के वचनों की आपूर्ति का बहुत आनंद लिया था, इसलिए मुझमें अंतरात्मा होनी चाहिए और मुझे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। लेकिन मुझे यह भी पता था कि अगुआ बनना बड़ा काम है और बड़ी जिम्मेदारी है और मुझे पूरे समय खपना होगा। इसका मतलब यह कि मैं अपने क्लिनिक में काम नहीं कर पाऊँगी। मैंने अपना आधा जीवन उस काम में लगाया था, इसलिए मैं इसे छोड़ने की संभावना पर ही ठिठक जाती थी। मेरे मन में विचारों की उथल-पुथल मच गई और मैंने बहुत उलझन और गहरी पीड़ा महसूस की। अपनी पीड़ा के बीच मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं इस हालात में बहुत बुरे समय से गुजर रही हूँ। मैं यह कर्तव्य नहीं गँवाना चाहती, लेकिन मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है और मैं अपनी देह की कमजोरी पर काबू नहीं पा सकती। मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे आस्था और शक्ति दो।”
अपनी खोज के दौरान मैंने सोचा कि परमेश्वर क्या कहता है : “यदि तुम अपने हाथ से इस अवसर को निकल जाने दोगे, तो तुम जीवन भर पछताओगे,” मैंने जल्दी से यह अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग परमेश्वर की सेवा में दूसरों के साथ समन्वय करने के इच्छुक नहीं होते, तब भी नहीं जबकि वे बुलाए जाते हैं; ये आलसी लोग केवल आराम का सुख उठाने के इच्छुक होते हैं। तुमसे जितना अधिक दूसरों के साथ समन्वय करने का आग्रह किया जाएगा, तुम उतना ही अधिक अनुभव प्राप्त करोगे। तुम्हारे पास अधिक बोझ होने के कारण, तुम अधिक अनुभव करोगे, तुम्हारे पास पूर्ण बनाए जाने का अधिक मौका होगा। इसलिए, यदि तुम सच्चे मन से परमेश्वर की सेवा कर सको, तो तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहोगे; और इस तरह तुम्हारे पास परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाये जाने का अधिक अवसर होगा। ऐसे ही मनुष्यों के एक समूह को इस समय पूर्ण बनाया जा रहा है। पवित्र आत्मा जितना अधिक तुम्हें स्पर्श करेगा, तुम उतने ही अधिक परमेश्वर के बोझ के लिए विचारशील रहने के प्रति समर्पित होओगे, तुम्हें परमेश्वर द्वारा उतना अधिक पूर्ण बनाया जाएगा, तुम्हें उसके द्वारा उतना अधिक प्राप्त किया जाएगा, और अंत में, तुम ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जिसे परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त किया जाता है। वर्तमान में, कुछ ऐसे लोग हैं जो कलीसिया के लिए कोई बोझ नहीं उठाते। ये लोग सुस्त और ढीले-ढाले हैं, और वे केवल अपने शरीर की चिंता करते हैं। ऐसे लोग बहुत स्वार्थी होते हैं और अंधे भी होते हैं। यदि तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम नहीं होते हो, तो तुम कोई बोझ नहीं उठा पाओगे। तुम जितना अधिक परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहोगे, तुम्हें परमेश्वर उतना ही अधिक बोझ सौंपेगा। स्वार्थी लोग ऐसी चीज़ें सहना नहीं चाहते; वे कीमत नहीं चुकाना चाहते, परिणामस्वरूप, वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के अवसर से चूक जाते हैं। क्या वे अपना नुकसान नहीं कर रहे हैं? ... इसलिए, तुम्हें परमेश्वर के बोझ के लिए अभी तुरंत विचारशील हो जाना चाहिए; परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील होने से पहले तुम्हें इंतजार नहीं करना चाहिए कि परमेश्वर सभी लोगों के सामने अपना धार्मिक स्वभाव प्रकट करे। क्या तब तक बहुत देर नहीं हो जाएगी? परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के लिए अभी अच्छा अवसर है। यदि तुम अपने हाथ से इस अवसर को निकल जाने दोगे, तो तुम जीवन भर पछताओगे, जैसे मूसा कनान की अच्छी भूमि में प्रवेश नहीं कर पाया और जीवन भर पछताता रहा, पछतावे के साथ ही मरा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहो)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि केवल वे लोग जो परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील हैं और परमेश्वर का आदेश स्वीकारते हैं, उनके पास ही परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के अधिक अवसर होंगे। जो परमेश्वर के इरादों पर विचार करने के लिए तैयार नहीं हैं, वे स्वार्थी हैं और परमेश्वर द्वारा पूर्ण नहीं बनाए जाएँगे। सुसमाचार कार्य बड़े विस्तार के अहम दौर में प्रवेश कर चुका है और यह तथ्य कि कलीसिया ने मुझे इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य दिया, वह परमेश्वर के अनुग्रह और उत्कर्ष का असाधारण उपहार था। फिर भी मैं परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील नहीं थी और इसके बजाय केवल अपने देह सुख और दूसरों का उच्च सम्मान पाने के लिए धन कमाने में लगी थी। मैं कितनी अविवेकी थी! क्या मैंने सत्य और उद्धार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण नहीं किया था, उसके वचनों को खाया-पिया नहीं था और अपना कर्तव्य नहीं निभाया था? परमेश्वर ने मुझे इस कर्तव्य के माध्यम से प्रशिक्षण पाने और सत्य प्राप्त करने का एक महान अवसर दिया था। क्या मैं इसे न लेकर मूर्ख नहीं बन जाती? यदि इसे लेने को लेकर मेरे सहमत होने तक परमेश्वर का कार्य पहले ही समाप्त हो गया तो मैं अपना अवसर गँवा चुकी होऊँगी। तब मुझे बहुत पछतावा होगा। मैं मूसा की तरह हो जाऊँगी जो दूर से कनान को देख तो पाया लेकिन प्रवेश नहीं कर पाया और पूरी जिंदगी पछताता रहा। मुझे परमेश्वर के सामने समर्पण करना था और पहले कर्तव्य को स्वीकारना था। मैं क्लिनिक में कुछ समय के लिए अपनी जगह किसी को काम करने के लिए रख सकती थी। फैसला लेने के बाद मैंने अगुआई का कर्तव्य स्वीकार लिया।
उसके बाद मैंने अपना अधिकांश समय अपने कर्तव्य में लगा दिया और अगर मेरे पास खाली समय बचता तो मैं जल्दी से क्लिनिक चली जाती। पहले तो हम मरीजों को रोके रखने में सक्षम थे लेकिन जैसे-जैसे समय बीता और मैं अक्सर क्लिनिक में नहीं रह पाती थी तो लोग कहीं और जाने लगे क्योंकि वे मुझे वहाँ नहीं देख पाते थे। हमारे क्लिनिक में कम से कम मरीज आने लगे और हम मुश्किल से अपना काम चला रहे थे। मेरा जीवन स्तर ऊँचा था, दूसरे लोग मेरा सम्मान और मेरी प्रशंसा करते थे और जब दोस्तों और रिश्तेदारों को कोई समस्या होती तो वे मुझसे संपर्क करते थे, लेकिन अब मेरे दोस्त और रिश्तेदार सभी मेरी आलोचना करने लगे, कहने लगे कि मैं क्लिनिक के प्रबंधन में लापरवाह हूँ और उन्हें नहीं पता कि मैं पूरे दिन क्या करती हूँ। उसके बाद से मेरे प्रति उनका रवैया बहुत अलग हो गया। यह सोचकर कि कैसे एक समय मेरा सम्मान और प्रशंसा होती थी और अब मैं सभी के उपहास की पात्र बन गई हूँ, मेरे मन में भावनाओं की ऐसी उथल-पुथल मची—जिसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है। मैंने सोचा, “ऐसा नहीं है कि मेरे पास पैसे कमाने की क्षमता नहीं है, मेरे पास हुनर है, अगर मैं चीजों को अच्छी तरह से प्रबंधित करूँ तो मेरे पास निश्चित रूप से बहुत सारे मरीज होंगे। मैं एक बार फिर बेहतर भौतिक सुख-सुविधाओं वाली जीवन-शैली जी सकती हूँ, दूसरों का सम्मान और प्रशंसा फिर से हासिल कर सकती हूँ और प्रतिष्ठित जीवन जी सकती हूँ।” मैंने यह भी सोचा कि मैंने इतने लंबे समय तक परमेश्वर में विश्वास नहीं किया है, मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है और मैं अधिक सत्य नहीं समझती, शायद इसलिए मुझे बस अपनी क्षमताओं से मेल खाने वाला कर्तव्य निभाना चाहिए। मैं कम अपेक्षाओं वाला कर्तव्य करना चाहती थी। तब मेरे पास अपने काम के लिए अधिक समय होता, फिर न तो मेरा कर्तव्य प्रभावित होता और न ही क्लिनिक। हालाँकि उसके बाद मैंने अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी उठाना बंद कर दिया। मैं अपने कर्तव्य में लापरवाह हो गई और सभाओं में औपचारिकताएँ पूरी करने लगी। मुझे याद है कि एक सभा के दौरान मैं बस अपने क्लिनिक के बारे में ही सोच रही थी। उस दिन हमारे पास कितने मरीज आए? जिन लोगों ने मिलने का समय लिया था, क्या वे आए? क्लिनिक के बारे में खुद को ज्यादा समय देने के चलते मैंने अपनी रिपोर्ट लिखने से पहले हालात को गहराई से नहीं समझा और अपने ऊपरी अगुआ को बस एक संक्षिप्त रिपोर्ट सौंप दी। विवरण की कमी के चलते मुझे इसे दोबारा करना पड़ा। मैं सिंचन कार्य की जिम्मेदारी भी नहीं उठाती थी। कुछ नए लोग तो इसलिए चले गए क्योंकि उनका सिंचन नहीं हो रहा था। ऊपरी अगुआ ने कई बार इस मुद्दे पर संगति कर मेरी मदद करने की कोशिश की और मुझे काफी अपराध-बोध हुआ, मैंने कई बार परमेश्वर से प्रार्थना की और अपनी दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने और अपना कर्तव्य उचित ढंग से निभाने का संकल्प लिया, लेकिन अपने क्लिनिक को लेकर हमेशा ही मेरा ध्यान बँट जाता था। मैं परमेश्वर के समक्ष संकल्प लेती और तोड़ती रहती थी और मैं उससे दूर, बहुत दूर होती चली गई। मैं अक्सर बेवजह खालीपन और डर महसूस करती थी। कई मौकों पर मैं क्लिनिक को छोड़ देना चाहती थी लेकिन फिर मैं सोचती कि कैसे लोग मुझे फिर से नीची नजरों से देखेंगे और मैं बस ऐसा करने के लिए खुद को मजबूर नहीं कर पाती थी। यह देखकर कि मैं अपनी स्थिति को सुधार नहीं पा रही थी और इससे काम में देरी हो रही थी, ऊपरी अगुआ ने मुझे बरखास्त कर दिया।
बरखास्त होने के बाद मैं वाकई परेशान थी। मैंने परमेश्वर के बहुत सारे वचन खाए और पिए थे और मैं स्पष्ट रूप से जानती थी कि सत्य का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना जीवन का सही मार्ग है, लेकिन मैं अपने क्लिनिक को नहीं छोड़ पाई थी और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा सकी थी। मुझे वाकई अपराध-बोध हुआ और लगा कि मैं परमेश्वर की बहुत ऋणी हूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा, “हे परमेश्वर, मैं बहुत विद्रोही हूँ और तुम्हारी बहुत ऋणी हूँ। हे परमेश्वर, मैं तुमसे विनती करती हूँ कि तुम मुझे धन की बेड़ियों से मुक्त करो ताकि मैं अपना कर्तव्य पूरा कर तुम्हारे प्रेम का मूल्य चुका सकूँ।” प्रार्थना के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों के एक अध्याय का शीर्षक याद आया, “तुम किसके प्रति वफादार हो?” मैंने खुद से पूछा, “मैं किसके प्रति वफादार हूँ? क्या मैं परमेश्वर के प्रति वफादार हूँ?” फिर मैंने इस अध्याय से एक अंश पढ़ा : “अगर मैं तुम लोगों के सामने कुछ पैसे रखूँ और तुम्हें चुनने की आजादी दूँ—और अगर मैं तुम्हारी पसंद के लिए तुम्हारी निंदा न करूँ—तो तुममें से ज्यादातर लोग पैसे का चुनाव करेंगे और सत्य को छोड़ देंगे। तुममें से जो बेहतर होंगे, वे पैसे को छोड़ देंगे और अनिच्छा से सत्य को चुन लेंगे, जबकि इन दोनों के बीच वाले एक हाथ से पैसे को पकड़ लेंगे और दूसरे हाथ से सत्य को। इस तरह तुम्हारा असली रंग क्या स्वतः प्रकट नहीं हो जाता? सत्य और किसी ऐसी अन्य चीज के बीच, जिसके प्रति तुम वफादार हो, चुनाव करते समय तुम सभी ऐसा ही निर्णय लोगे, और तुम्हारा रवैया ऐसा ही रहेगा। क्या ऐसा नहीं है? क्या तुम लोगों में बहुतेरे ऐसे नहीं हैं, जो सही और ग़लत के बीच में झूलते रहे हैं? सकारात्मक और नकारात्मक, काले और सफेद के बीच प्रतियोगिता में, तुम लोग निश्चित तौर पर अपने उन चुनावों से परिचित हो, जो तुमने परिवार और परमेश्वर, संतान और परमेश्वर, शांति और विघटन, अमीरी और ग़रीबी, हैसियत और मामूलीपन, समर्थन दिए जाने और दरकिनार किए जाने इत्यादि के बीच किए हैं। शांतिपूर्ण परिवार और टूटे हुए परिवार के बीच, तुमने पहले को चुना, और ऐसा तुमने बिना किसी संकोच के किया; धन-संपत्ति और कर्तव्य के बीच, तुमने फिर से पहले को चुना, यहाँ तक कि तुममें किनारे पर वापस लौटने की इच्छा[क] भी नहीं रही; विलासिता और निर्धनता के बीच, तुमने पहले को चुना; अपने बेटों, बेटियों, पत्नियों और पतियों तथा मेरे बीच, तुमने पहले को चुना; और धारणा और सत्य के बीच, तुमने एक बार फिर पहले को चुना। तुम लोगों के दुष्कर्मों को देखते हुए मेरा विश्वास ही तुम पर से उठ गया है। मुझे बहुत आश्चर्य होता है कि तुम्हारा हृदय कोमल बनने का इतना प्रतिरोध करता है। सालों की लगन और प्रयास से मुझे स्पष्टतः केवल तुम्हारे परित्याग और निवृत्ति से अधिक कुछ नहीं मिला, लेकिन तुम लोगों के प्रति मेरी आशाएँ हर गुजरते दिन के साथ बढ़ती ही जाती हैं, क्योंकि मेरा दिन सबके सामने पूरी तरह से खुला पड़ा रहा है। फिर भी तुम लोग लगातार अँधेरी और बुरी चीजों की तलाश में रहते हो, और उन पर अपनी पकड़ ढीली करने से इनकार करते हो। तो फिर तुम्हारा परिणाम क्या होगा? क्या तुम लोगों ने कभी इस पर सावधानी से विचार किया है? अगर तुम लोगों को फिर से चुनाव करने को कहा जाए, तो तुम्हारा क्या रुख रहेगा? क्या अब भी तुम लोग पहले को ही चुनोगे? क्या अब भी तुम मुझे निराशा और भयंकर कष्ट ही पहुँचाओगे? क्या अब भी तुम्हारे हृदयों में थोड़ा-सा भी सौहार्द होगा? क्या तुम अब भी इस बात से अनभिज्ञ रहोगे कि मेरे हृदय को सुकून पहुँचाने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? इस क्षण तुम्हारा चुनाव क्या है? ... मैं भी तुम्हारे अतीत की हर बात भूल जाने की उम्मीद करता हूँ, हालाँकि ऐसा करना बहुत मुश्किल है। फिर भी मेरे पास ऐसा करने का एक अच्छा तरीका है : भविष्य को अतीत का स्थान लेने दो और अपने अतीत की छाया मिटाकर अपने आज के सच्चे व्यक्तित्व को उसकी जगह लेने दो। इस तरह मैं एक बार फिर तुम लोगों को चुनाव करने का कष्ट दूँगा : तुम वास्तव में किसके प्रति वफादार हो?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम किसके प्रति वफादार हो?)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे गहराई से छुआ। क्या इन वचनों ने मेरी वर्तमान दशा, मेरी मौजूदा स्थिति को उजागर नहीं कर दिया था? मुझे स्पष्ट रूप से पता था कि एक विश्वासी के बतौर मुझे सत्य का अनुसरण करना चाहिए और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। लेकिन जब भी मुझे अपने कर्तव्य और क्लिनिक, अच्छा जीवन जीने, सम्मान पाने और दूसरी दैहिक चिंताओं के बीच चुनाव करना होता, मैं हमेशा अनिवार्य रूप से दूसरे विकल्पों को ही चुनती थी। मुझे डर था कि अगर मैं अपना क्लिनिक न चला पाई तो लोग मुझे नीची नजर से देखेंगे। इन वर्षों में सतही तौर पर मैं हमेशा अपना कर्तव्य करती दिखती थी लेकिन मैंने कभी भी शोहरत और लाभ की अपनी इच्छा नहीं छोड़ी और लगातार बड़ा पैसा कमाने के बारे में सोचती रही। इस तरह मैंने अपने कर्तव्य को हल्के में लिया, औपचारिकताएँ पूरी करती रही; मैंने दोनों में अच्छा नहीं किया, जिससे मैं काफी थक गई और भावनात्मक रूप से कमजोर पड़ गई। इसका कलीसिया के कार्य पर काफी नकारात्मक असर पड़ा और मेरे जीवन को भी नुकसान हुआ। मैंने देखा कि मैं परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं थी बल्कि अपनी देह और महत्वाकांक्षा जैसी शैतानी चीजों के प्रति वफादार थी। उस दौरान मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, “हे परमेश्वर! मैं अब सत्य का उचित ढंग से अनुसरण करने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए अपना क्लिनिक छोड़ने को तैयार हूँ। मुझे जल्द ही अपना क्लिनिक बेचने की आस्था दो!” प्रार्थना करने के अलावा मैंने क्लिनिक बेचने की तैयारी के लिए अपने पति को यह सब समझाना भी शुरू कर दिया।
2011 में परमेश्वर के उत्कर्ष से मुझे एक बार फिर कलीसिया अगुआ चुन लिया गया। मुझे पता था कि परमेश्वर मुझे एक और मौका दे रहा है। मैंने सोचा कि मैं पहले कितना पछताती थी और क्लिनिक का काम करने के लिए परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस करती थी, इस बार मैंने अधिक सहयोगी होने का संकल्प लिया। मैंने जल्दी से खुद को अपने कर्तव्य में झोंक दिया और चाहे मेरा क्लिनिक जैसे भी चला हो, मेरा ध्यान नहीं बँटा और न ही अपना क्लिनिक सँभालने के लिए किसी को खोजने की कोशिश की। लेकिन जब उन्होंने अनुबंध तैयार किया और हस्ताक्षर करने की तैयारी में थे तो मेरे मन में कुछ शंकाएँ आ गईं। मैंने अपना आधा जीवन इस क्लिनिक में लगाया था। मैंने सोचा कि मैंने छोटी उम्र से कितनी मेहनत की थी, डॉक्टर बनने का सपना साकार करने के लिए मैंने कैसे विपरीत परिस्थितियों पर काबू पाया था। अगर मैंने क्लिनिक बेच दिया तो मैं उस जीवन से अलग हो जाऊँगी जिसे मैं कभी पाना चाहती थी। मैंने जितना ज्यादा सोचा, उतना ही कम मैं इसे छोड़ने के लिए तैयार हो पाई। मैं अंदर से बेहद खाली महसूस कर रही थी। फिर मुझे परमेश्वर के वचनों के ये अंश मिले : “तुम लोगों को अपना दिमाग स्पष्ट करना चाहिए! क्या छोड़ देना चाहिए, तुम्हारे ख़जाने क्या हैं? तुम्हारी घातक कमज़ोरियाँ क्या हैं, तुम्हारी बाधाएँ क्या हैं, इन प्रश्नों पर अपनी आत्मा में विचार करो और मेरे साथ सहभागिता करो। मैं चाहता हूँ कि तुम सब अपने दिलों में ख़ामोशी से मेरी ओर देखो; मैं नहीं चाहता कि तुम अपने शब्दों से मेरी सेवा करो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 8)। “एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो सामान्य है और जो परमेश्वर के लिए प्रेम का अनुसरण करता है, परमेश्वर के जन बनने के लिए राज्य में प्रवेश करना ही तुम सबका असली भविष्य है और यह ऐसा जीवन है, जो अत्यंत मूल्यवान और सार्थक है; कोई भी तुम लोगों से अधिक धन्य नहीं है। मैं यह क्यों कहता हूँ? क्योंकि जो लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, वो देह के लिए जीते हैं और वो शैतान के लिए जीते हैं, लेकिन आज तुम लोग परमेश्वर के लिए जीते हो और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलने के लिए जीवित हो। यही कारण है कि मैं कहता हूँ कि तुम्हारे जीवन अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। केवल इसी समूह के लोग, जिन्हें परमेश्वर द्वारा चुना गया है, अत्यंत महत्वपूर्ण जीवन जीने में सक्षम हैं : पृथ्वी पर और कोई इतना मूल्यवान और सार्थक जीवन नहीं जी सकता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करो)। “तुम्हारे अंदर पतरस के समान ही आकांक्षाएँ और चेतना होनी चाहिए; तुम्हारा जीवन अर्थपूर्ण होना चाहिए, और तुम्हें अपने साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए! एक मनुष्य के रूप में, और परमेश्वर का अनुसरण करने वाले एक व्यक्ति के रूप में, तुम्हें इस योग्य होना होगा कि तुम बहुत ध्यान से यह विचार कर सको कि तुम्हें अपने जीवन के साथ कैसे पेश आना चाहिए, तुम्हें अपने-आपको परमेश्वर के सम्मुख कैसे अर्पित करना चाहिए, तुममें परमेश्वर के प्रति और अधिक अर्थपूर्ण विश्वास कैसे होना चाहिए और चूँकि तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो, तुम्हें उससे कैसे प्रेम करना चाहिए कि वह ज्यादा पवित्र, ज्यादा सुंदर और बेहतर हो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मुझे एहसास हुआ कि सांसारिक रुतबा, धन और देह सुख, जिनका मनुष्य पीछा करता है, वे कारगर लक्ष्य नहीं हैं। केवल सृष्टिकर्ता के सामने आना, सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य पूरे करना, सत्य का अनुसरण करना, शैतानी भ्रष्ट स्वभावों का त्याग करना और अंततः परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करना और उसके राज्य के लोग बनना ही सच्चा भविष्य है और इसी में सबसे सार्थक और मूल्यवान जीवन निहित है। भले ही मेरे क्लिनिक पर बहुत से मरीज आएँ और मैं बहुत सारा पैसा कमा लूँ, ज्यादा सम्मान हासिल कर लूँ और आखिरकार मेरी देह संतुष्ट हो जाए, अगर मैंने सत्य और जीवन और परमेश्वर के उद्धार को खो दिया और परमेश्वर की स्वीकृति और मान्यता प्राप्त न कर पाई तो सब कुछ व्यर्थ हो जाएगा। जब आपदाएँ आएँगी तो कितना भी धन और सम्मान हमें नहीं बचा पाएगा। इस तरह के अनुसरण का कोई अर्थ या मूल्य नहीं है। जैसा कि प्रभु यीशु ने कहा : “यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे, और अपने प्राण की हानि उठाए, तो उसे क्या लाभ होगा? या मनुष्य अपने प्राण के बदले क्या देगा?” (मत्ती 16:26)। फिर भी मैंने अपना सारा प्रयास दौलत, शोहरत और लाभ के पीछे भागने में लगा दिया और जुनूनी होकर उनको खोजा। मुझे लगता था कि केवल इन चीजों को पाकर ही मैं एक मूल्यवान जीवन जी सकती हूँ। चाहे मुझे कितना भी त्याग करना पड़ा हो या कितनी भी ऊर्जा खपानी पड़ी हो, मैंने कभी शिकायत नहीं की। मैं कितनी अंधी, मूर्ख और अदूरदर्शी थी! मैंने पतरस के बारे में सोचा। उसके माता-पिता चाहते थे कि वह राजनीति में जाए, लेकिन पतरस ने अपना जीवन परमेश्वर का अनुसरण करने में समर्पित करने को चुना। उसने परमेश्वर को जानने और उससे प्रेम करने की कोशिश की और अंततः परमेश्वर द्वारा पूर्ण किया गया और उसने सृष्टिकर्ता की प्रशंसा प्राप्त की। पतरस ने सबसे मूल्यवान और सार्थक जीवन जिया। मुझे पता था कि मुझे पतरस का अनुकरण करना चाहिए, मुझे इन सांसारिक चीजों के पीछे भागना छोड़कर सत्य का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य पूरा करना था। उसके बाद मुझे अब और हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई। जब मैंने उस अनुबंध पर हस्ताक्षर किए तो मुझे लगा जैसे मेरे कंधों से एक भारी बोझ उतर गया हो और मैंने हल्का और तनावमुक्त महसूस किया। उसके बाद मैंने अपना सब कुछ अपने कर्तव्य में लगा दिया।
2015 में एक दिन, जिस अस्पताल में मैं काम करती थी वहाँ से एक सहकर्मी ने मुझे फोन किया। उसने कहा कि एक निजी अस्पताल का निदेशक एक नर्सिंग होम खोल रहा है जिसकी क्षेत्र में सबसे अधिक रेटिंग होगी और उसने पूछा कि क्या मैं वहाँ काम करना चाहूँगी। उस समय मैंने तुरंत इसे ठुकरा दिया। लेकिन फिर कुछ दिन बाद निदेशक ने मुझे व्यक्तिगत रूप से फोन किया और कहा कि अगर मैं उनके लिए काम करती हूँ तो वे मुझे रहने के लिए कमरा देंगे, 3,000 युआन प्रतिमाह वेतन देंगे और मेरे पति वहाँ मुफ्त में अपने स्ट्रोक का इलाज करवा सकेंगे। वास्तव में हमारे रहने का कोई खर्च नहीं होगा और हम बिना किसी खर्च के 3,000 युआन कमा सकेंगे। मैं अपने पिछले उत्तर पर डगमगाने लगी और मैंने कहा कि मैं इस पर विचार करूँगी। उस रात मैं बिस्तर पर करवटें बदलती रही और सो नहीं पाई। अगर मैंने प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो मैं एक शानदार अवसर गँवा दूँगी, लेकिन अगर मैंने इसे स्वीकार कर लिया तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी। मैंने सोचा कि वह समय कितना मुश्किल भरा और कष्टदायक था जब मुझे क्लिनिक और अपने कर्तव्य के बीच समय देना पड़ता था। परमेश्वर ने मेरे लिए इतना बड़ा त्याग किया था, मुझे झिझकना और पीछे की ओर देखना बंद कर देना चाहिए। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा, जो कहते हैं : “परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर किए जाने वाले कार्य के प्रत्येक चरण में, बाहर से यह लोगों के मध्य अंतःक्रिया प्रतीत होता है, मानो यह मानव-व्यवस्थाओं द्वारा या मानवीय विघ्न से उत्पन्न हुआ हो। किंतु पर्दे के पीछे, कार्य का प्रत्येक चरण, और घटित होने वाली हर चीज, शैतान द्वारा परमेश्वर के सामने चली गई बाजी है और लोगों से अपेक्षित है कि वे परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग बने रहें” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि जो ऊपर से देखने में पूर्व सहकर्मियों के बीच एक सामान्य फोन कॉल थी, वह वास्तव में एक आध्यात्मिक लड़ाई थी। शैतान मुझे लुभाने की कोशिश कर रहा था और परमेश्वर यह देखने के लिए मेरी परीक्षा ले रहा था कि मैं क्या निर्णय लूँगी। मैंने सोचा कि कैसे लूत की पत्नी को स्वर्गदूतों ने सदोम से छुड़ाया था क्योंकि वह अपनी संपत्ति के बारे में सोचती रही थी और पीछे मुड़कर देखती रही थी तो वह नमक के खंभे में बदल गई। मेरे लिए शैतान के चंगुल से आजाद हो पाना काफी कठिन रहा था, मैं लूत की पत्नी की तरह अपमान की पात्र नहीं बन सकती थी। इस एहसास के साथ मैंने दृढ़ता से प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
बाद में मैंने इस बात पर चिंतन करना शुरू किया कि मैं इन प्रलोभनों से विचलित क्यों हुई। मैं स्पष्ट रूप से जानती थी कि इन चीजों के पीछे भागना निरर्थक और बेकार था, लेकिन फिर भी मैं बहुत द्वंद्व महसूस करती थी और उन्हें छोड़ नहीं पाती थी। इस समस्या की जड़ में क्या था? अपनी खोज के बीच मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला : “वास्तव में, मनुष्य के आदर्श चाहे कितने भी ऊँचे क्यों न हों, उसकी इच्छाएँ चाहे कितनी भी यथार्थपरक क्यों न हों या वे कितनी भी उचित क्यों न हों, वह सब जो मनुष्य हासिल करना चाहता है और खोजता है, वह अटूट रूप से दो शब्दों से जुड़ा है। ये दो शब्द हर व्यक्ति के जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, और ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें शैतान मनुष्य के भीतर बैठाना चाहता है। वे दो शब्द कौन-से हैं? वे हैं ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ।’ शैतान एक बहुत ही सौम्य किस्म का तरीका चुनता है, ऐसा तरीका जो मनुष्य की धारणाओं से बहुत अधिक मेल खाता है; जो बिल्कुल भी क्रांतिकारी नहीं है, जिसके जरिये वह लोगों से अनजाने ही जीने का अपना मार्ग, जीने के अपने नियम स्वीकार करवाता है, और जीवन के लक्ष्य और जीवन में उनकी दिशा स्थापित करवाता है, और वे अनजाने ही जीवन में महत्वाकांक्षाएँ भी पालने लगते हैं। जीवन की ये महत्वाकांक्षाएँ चाहे जितनी भी ऊँची क्यों न प्रतीत होती हों, वे ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ’ से अटूट रूप से जुड़ी होती हैं। कोई भी महान या प्रसिद्ध व्यक्ति—वास्तव में सभी लोग—जीवन में जिस भी चीज का अनुसरण करते हैं, वह केवल इन दो शब्दों : ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ’ से जुड़ी होती है। लोग सोचते हैं कि एक बार उनके पास प्रसिद्धि और लाभ आ जाए, तो वे ऊँचे रुतबे और अपार धन-संपत्ति का आनंद लेने के लिए, और जीवन का आनंद लेने के लिए इन चीजों का लाभ उठा सकते हैं। उन्हें लगता है कि प्रसिद्धि और लाभ एक प्रकार की पूँजी है, जिसका उपयोग वे भोग-विलास का जीवन और देह का प्रचंड आनंद प्राप्त करने के लिए कर सकते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ की खातिर, जिसके लिए मनुष्य इतना ललचाता है, लोग स्वेच्छा से, यद्यपि अनजाने में, अपने शरीर, मन, वह सब जो उनके पास है, अपना भविष्य और अपनी नियति शैतान को सौंप देते हैं। वे ईमानदारी से और एक पल की भी हिचकिचाहट के बगैर ऐसा करते हैं, और सौंपा गया अपना सब-कुछ वापस प्राप्त करने की आवश्यकता के प्रति सदैव अनजान रहते हैं। लोग जब इस प्रकार शैतान की शरण ले लेते हैं और उसके प्रति वफादार हो जाते हैं, तो क्या वे खुद पर कोई नियंत्रण बनाए रख सकते हैं? कदापि नहीं। वे पूरी तरह से शैतान द्वारा नियंत्रित होते हैं, सर्वथा दलदल में धँस जाते हैं और अपने आप को मुक्त कराने में असमर्थ रहते हैं” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। “शैतान मनुष्य के विचारों को नियंत्रित करने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का तब तक उपयोग करता है, जब तक सभी लोग प्रसिद्धि और लाभ के बारे में ही नहीं सोचने लगते। वे प्रसिद्धि और लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए कष्ट उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं, और प्रसिद्धि और लाभ के लिए कोई भी फैसला या निर्णय ले लेते हैं। इस तरह शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनमें उन्हें उतार फेंकने का न तो सामर्थ्य होता है, न साहस। वे अनजाने ही ये बेड़ियाँ ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पैर घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ के लिए मानवजाति परमेश्वर से दूर हो जाती है, उसके साथ विश्वासघात करती है और अधिकाधिक दुष्ट होती जाती है। इसलिए, इस प्रकार एक के बाद एक पीढ़ी शैतान की प्रसिद्धि और लाभ के बीच नष्ट होती जाती है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे रोशनी देखने में मदद की और मुझे एहसास कराया कि मैं अपना क्लिनिक छोड़ने को लेकर इतनी द्वंद्व में इसलिए थी क्योंकि मैं शोहरत और लाभ के चंगुल में फँसी हुई थी। शैतान लोगों को भ्रष्ट करने के लिए शोहरत और लाभ का उपयोग करता है और उन्हें पूरी जिंदगी शोहरत और लाभ के पीछे भगाता है, अंततः उन्हें इन चीजों के लिए अपने जीवन का त्याग करने के लिए प्रेरित करता है। मैंने विचार किया कि कैसे छोटी उम्र से ही मेरे माता-पिता ने मुझे सिखाया था कि खुद को अलग दिखाने का एकमात्र तरीका अच्छी नौकरी पाना है। जब मैंने देखा कि डॉक्टरों की अच्छी और स्थिर आय है और उनका बहुत सम्मान होता है तो मैंने डॉक्टर बनने को अपना लक्ष्य बना लिया और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अथक प्रयास किया। आस्था में प्रवेश करने और परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने के बाद मुझे पता चला कि मुझे अपनी आस्था में सत्य का अनुसरण करना चाहिए और दौलत और शोहरत के पीछे भागना एक खोखला अनुसरण है। मगर शोहरत और लाभ की चाह से बँधे होने के कारण मैं अभी भी अपना कर्तव्य निभाते हुए खुद को अलग दिखाने का अपना सपना साकार करना चाहती थी। जब मैं अपने कर्तव्य और क्लिनिक के बीच किसी एक को चुनने के लिए मजबूर हुई तो मैंने एक आसान कर्तव्य चुनना चाहा और अपने कर्तव्य में औपचारिकताएँ निभानी शुरू कर दीं, जो कलीसिया के कार्य के लिए हानिकारक था। शैतान चाहता था कि मैं इन विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार जियूँ, जिससे मेरी सारी ऊर्जा दौलत, शोहरत और लाभ के पीछे भागने में लग जाए। नतीजतन, मेरे पास सत्य का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य करने के लिए समय या ऊर्जा नहीं रही और मैं शोहरत और लाभ के नाम पर परमेश्वर को धोखा भी दे देती, जिससे मेरा उद्धार का मौका पूरी तरह से चला जाता। शैतान इसी तरह से मानवजाति को भ्रष्ट करता है। मशहूर लोग अपना पूरा जीवन शोहरत और लाभ के लिए प्रयास करते हुए बिता देते हैं, लेकिन जब वे अंततः उन चीजों को प्राप्त करते हैं, तो अपने दिलों के आध्यात्मिक खालीपन को नहीं भर पाते और अधिक से अधिक पथभ्रष्ट हो जाते हैं। उनमें से कुछ लोग उस अति तक पहुँचने में नशीली दवाओं का भी सहारा लेते हैं और कुछ आत्महत्या कर लेते हैं। मैंने अपने एक पूर्व सहकर्मी के बारे में सोचा जो अपने अस्पताल में थोड़ा मशहूर होने के बावजूद संतुष्ट नहीं था और उसने अपना निजी अस्पताल खोल लिया। लेकिन बाद में उसने एक मरीज की मौत के कारण न केवल अपनी सारी मेहनत की कमाई गँवा दी, बल्कि मरीज के परिवार ने यह शर्त भी रखी कि उसे शोक के कपड़े पहनने होंगे और 10 घंटे से अधिक समय पूर्व मरीज के शव वाहन में झुककर चलना होगा। अंत में उसकी प्रतिष्ठा बरबाद हो गई और उसकी पत्नी और बच्चे उसे छोड़कर चले गए। लोग अपना पूरा जीवन शोहरत, लाभ और सम्मान पाने में बिता देते हैं, लेकिन इनमें से कोई भी चीज लोगों को वास्तव में देती क्या है? यह बस उस समय उनके अहंकार की भूख मिटाती है और उन्हें उस भावना से ग्रस्त और जुनूनी बना देती है। इस तरह उनके पास परमेश्वर को खोजने के लिए कोई समय या ऊर्जा नहीं बचती और वे परमेश्वर के उद्धार को पूरी तरह से गँवा देते हैं। क्या यह वह घृणित तरीका नहीं है जिसके द्वारा शैतान मानवजाति को पीड़ा देता है और निगल जाता है? परमेश्वर का कार्य पहले से ही अपने अंतिम चरण में है, राज्य का सुसमाचार पूरी दुनिया में फैल चुका है और जैसे ही परमेश्वर का कार्य समाप्त होगा, परमेश्वर पर उचित रूप से विश्वास करने और सत्य का अनुसरण करने का कोई और मौका नहीं बचेगा! सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए अब बहुत समय नहीं बचा है और भले ही हम इसमें अपना पूरा समय लगा दें, फिर भी सत्य को प्राप्त करना आसान नहीं है। जब मैंने अपना आधा समय अपने क्लिनिक को और बाकी आधा समय सत्य का अनुसरण करने में लगाया था तो मैं सत्य प्राप्त करने की उम्मीद कैसे कर सकती थी? यदि परमेश्वर का उद्धार और मार्गदर्शन न होता तो मुझे यह सब कभी नहीं मिलता। मैं निरंतर शैतान द्वारा सताई जाती और परमेश्वर के उद्धार का अवसर चूक जाती।
अपनी आस्था के वर्षों के बारे में सोचूँ तो इस तथ्य के बावजूद कि मेरी देह ने अपना कर्तव्य करते हुए कुछ हद तक पीड़ा झेली है और हो सकता है कि मुझे पहले जैसी प्रतिष्ठा न मिले, मैं कुछ सत्यों को समझ पाई हूँ और जान पाई हूँ कि शैतान किस तरह से मानवजाति को भ्रष्ट करता है और किस तरह का जीवन सबसे मूल्यवान और सार्थक है। मैं बहुत अधिक शांत, सहज और मुक्त महसूस करती हूँ। यह एक ऐसी भावना है जो कोई भी सांसारिक चीज मुझे नहीं दे सकती। बाद में चाहे लोगों ने मुझे बहुत सारे भत्तों वाली नई नौकरी लेने को कितना भी लुभाने की कोशिश की हो, मैं फिर कभी नहीं डगमगाई। इन दिनों मैं यह देखने लगी हूँ कि शोहरत और लाभ के पीछे भागने से मुझे कैसे नुकसान पहुँचा है और मैंने अपना कर्तव्य करने के लिए अपना क्लिनिक छोड़ दिया है। यह सब परमेश्वर के उद्धार के कारण है और मेरे लिए यह सबसे अच्छा विकल्प है। परमेश्वर का धन्यवाद!