80. कर्तव्य को लापरवाही से निभाने के परिणाम
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर के छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन कार्य में अपना कर्तव्य निभाना सम्मान की बात है। यह हर व्यक्ति के लिए सम्मान की बात है। यह अपमान की बात नहीं है; मुख्य बात यह है कि तुम परमेश्वर से मिले इस सम्मान को किस तरह से लेते हो और उसका बदला कैसे चुकाते हो। परमेश्वर ने तुम्हें ऊपर उठाया है; उसकी दयालुता की सराहना करना मत भूलो। तुम्हें परमेश्वर के अनुग्रह का ऋण चुकाना आना चाहिए। तुम्हें इसका ऋण कैसे चुकाना चाहिए? परमेश्वर को तुम्हारा पैसा या तुम्हारा जीवन नहीं चाहिए और न ही वह तुम्हारे परिवार से विरासत में मिली कोई संपत्ति चाहता है। परमेश्वर क्या चाहता है? परमेश्वर तुम्हारी ईमानदारी और निष्ठा चाहता है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (19))। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़ते हुए मैंने कुछ समय पहले के अपने एक अनुभव के बारे में सोचा जब मैं अपने कर्तव्य में गैरजिम्मेदार थी और मेरी काट-छाँट की गई थी। परमेश्वर ने एक अगुआ के कर्तव्य के लिए मेरा उन्नयन किया था लेकिन मैंने इसकी सराहना नहीं की और इस कर्तव्य को एक बोझ और परेशानी के रूप में देखा जिसके कारण कार्य में देरी हुई और मेरे हाथ अपराधबोध और पछतावा ही लगा।
अप्रैल 2023 में ऊपरी अगुआ ने वीडियो कार्य और उपदेश कार्य की जिम्मेदारी मुझे और दो सहयोगी बहनों को सौंपी। शुरुआत में तो मैं पूरी तरह से दृढ़ संकल्पित थी और अपनी सहयोगी बहनों के साथ मिलकर अयोग्य टीम अगुआओं और सुपरवाइजरों को दूसरा कार्य सौंप रही थी प्रत्येक टीम के कार्य की प्रगति पर नजर रख रही थी, कार्य में सामने आने वाले विचलनों की पहचान कर रही थी, कार्य की योजना बना रही थी और ऐसे ही अन्य कार्य कर रही थी। हालाँकि कार्य का बोझ भारी था और मैं इसके कारण व्यस्त रहती थी लेकिन फिर भी मुझे काफी संतोष महसूस होता था। बाद में ऊपरी अगुआ ने मुझे पटकथा लेखन कार्य की खोज-खबर लेने पर ध्यान केंद्रित करने की जिम्मेदारी सौंपी। यह कार्य मेरे लिए बहुत चुनौतीपूर्ण था और मुझे लगा कि अपनी तरफ से पूरी कोशिश करने के बाद भी मैं इसे अच्छी तरह से नहीं कर पाऊँगी। लेकिन यह काम मुझे सीधे ऊपरी अगुआ ने सौंपा था और मैं इसे अनदेखा करने की हिम्मत नहीं कर सकती थी, इसलिए मैंने पटकथा लेखन कार्य में लगभग अपनी सारी ऊर्जा लगा दी। जब अन्य टीमों के भाई-बहन मुझसे सवाल पूछते थे तो मैं उनके आसान सवालों को जल्दी से हल कर देती थी लेकिन जिनके लिए सोचने या अधिक समय देने और प्रयास करने की जरूरत होती थी उन्हें मैं अनदेखा करने का नाटक करती थी या उन्हें मैं सीधे अपनी सहयोगी बहनों को हल करने के लिए भेज देती थी। मैंने कई संदेशों को देखकर भी उन्हें “अनरेड” के रूप में सेट कर दिया था। इस समय मेरी सहयोगी बहनों ने भी मुझे दूसरी टीमों के कार्य की खोज-खबर लेने की याद दिलाई। मैं जुबानी तौर पर तो उनसे सहमत हो जाती थी लेकिन बाद में केवल कुछ सतही कार्य ही करती थी और कुछ दिनों बाद मुझे यह परेशानी भरा कार्य लगने लगता और मैं इसे संभालने की जहमत नहीं उठाती थी। कभी-कभी मेरे पास थोड़ा खाली समय होता था तो मुझे लगता था कि मैं शायद दूसरे कार्य की खोज-खबर ले सकती हूँ, लेकिन फिर मैं सोचती थी, “मेरे पास अभी भी पेशेवर कौशल की कमी है और बेहतर होगा कि मैं इस समय का उपयोग अधिक पेशेवर ज्ञान सीखने में करूँ ताकि मैं अपने अंदर जल्द से जल्द सुधार कर सकूँ और पटकथा लेखन कार्य को बेहतर तरीके से संभाल सकूँ। मेरी सहयोगी बहनों को समझना चाहिए कि ऐसे मैं अपने उचित कार्य की उपेक्षा नहीं कर रही हूँ।” इस तरह मेरे दिल में जो थोड़ा-सा अपराधबोध था, वह गायब हो गया।
एक दिन मैंने देखा कि वीडियो कार्य की प्रगति धीमी है और स्थिति को समझने के लिए मैंने टीम अगुआ को संदेश भेजा। टीम अगुआ ने मुझे कारणों की एक लंबी सूची भेज दी। मैंने देखा कि वह बस मुझसे बहस कर रहा है, इसलिए मैं विवरण समझना चाहती थी लेकिन फिर मैंने सोचा, “विवरण को समझने में अधिक समय लगेगा और चूँकि यह कार्य मुख्य रूप से मेरी सहयोगी बहन की जिम्मेदारी है तो वह भी इसकी खोज-खबर लेगी, इसलिए मुझे इसे लेकर अधिक चिंता नहीं करनी चाहिए ताकि मेरे अपने कार्य में कोई देरी न हो।” कुछ ही समय बाद ऊपरी अगुआ ने भी पाया कि वीडियो कार्य की धीमी प्रगति के कारण कार्य बुरी तरह से प्रभावित हुआ है इसलिए उसने गैरजिम्मेदार होने के लिए हमारी गंभीर रूप से काट-छाँट की और इस कार्य के लिए जिम्मेदार बहन को पद से हटा दिया। इसके बाद अगुआ ने मुझसे सख्ती से पूछा, “क्या तुम्हें लगता है कि सिर्फ इसलिए कि तुम्हें पटकथा लेखन का कार्य संभालने के लिए नियुक्त किया गया है, इसलिए अगर तुम वह कार्य अच्छी तरह से करती हो तो अन्य कार्यों की समस्याओं से तुम्हारा कोई संबंध नहीं है, चाहे वे कितनी भी बड़ी क्यों न हों? क्या तुम कोई भी मुसीबत झेलने से डरती हो? तुम बहुत बड़ी गैरजिम्मेदार हो, तुमने पद तो ले लिया है लेकिन कोई वास्तविक कार्य नहीं कर रही हो। तुम सिर्फ एक नकली अगुआ हो और तुम भरोसे और विकास के योग्य नहीं हो!” ऊपरी अगुआ के शब्दों ने मुझे मर्माहत कर दिया। मुझे पता था कि मैंने हाल-फिलहाल बहुत से कामों की खोज-खबर नहीं ली है और अगुआ ने मेरी काट-छाँट करते हुए जो बातें कही थीं वे सच थीं लेकिन बाद में मैं कुछ हद तक असंतुष्ट भी हुई और मैंने सोचा, “यह सच नहीं है कि मैंने बिल्कुल भी कोई वास्तविक कार्य नहीं किया है। मैं तो बस अपनी ऊर्जा पटकथा लेखन कार्य पर केंद्रित करना चाहती थी। यह तो कोई इतनी बड़ी समस्या नहीं है, है ना?” इसलिए मैंने अपनी स्थिति से संबंधित परमेश्वर के वचनों की तलाश की और मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मसीह-विरोधियों में कोई जमीर, विवेक या मानवता नहीं होती। वे न केवल शर्म से बेपरवाह होते हैं, बल्कि उनकी एक और खासियत भी होती है : वे असाधारण रूप से स्वार्थी और नीच होते हैं। उनके ‘स्वार्थ और नीचता’ का शाब्दिक अर्थ समझना कठिन नहीं है : उन्हें अपने हित के अलावा कुछ नहीं सूझता। अपने हितों से संबंधित किसी भी चीज पर उनका पूरा ध्यान रहता है, वे उसके लिए कष्ट उठाएँगे, कीमत चुकाएँगे, उसमें खुद को तल्लीन और समर्पित कर देंगे। जिन चीजों का उनके अपने हितों से कोई लेना-देना नहीं होता, वे उनकी ओर से आँखें मूँद लेंगे और उन पर कोई ध्यान नहीं देंगे; दूसरे लोग जो चाहें सो कर सकते हैं—मसीह-विरोधियों को इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि कोई विघ्न-बाधा पैदा तो नहीं कर रहा, उन्हें इन बातों से कोई सरोकार नहीं होता। युक्तिपूर्वक कहें तो वे अपने काम से काम रखते हैं। लेकिन यह कहना ज्यादा सही है कि इस तरह का व्यक्ति नीच, अधम और दयनीय होता है; हम उन्हें ‘स्वार्थी और नीच’ के रूप में परिभाषित करते हैं। ... मसीह-विरोधी व्यक्ति चाहे जो भी कार्य करें, वे कभी परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते। वह केवल इस बात पर विचार करता है कि कहीं उसके हित तो प्रभावित नहीं हो रहे, वह केवल अपने सामने के उस छोटे-से काम के बारे में सोचता है, जिससे उसे फायदा होता है। उसकी नजर में, कलीसिया का प्राथमिक कार्य बस वही है, जिसे वह अपने खाली समय में करता है। वह उसे बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेता। वह केवल तभी हरकत में आता है जब उसे काम करने के लिए कोंचा जाता है, केवल वही करता है जो वह करना पसंद करता है, और केवल वही काम करता है जो उसकी हैसियत और सत्ता बनाए रखने के लिए होता है। उसकी नजर में, परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित कोई भी कार्य, सुसमाचार फैलाने का कार्य, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन-प्रवेश महत्वपूर्ण नहीं हैं। चाहे अन्य लोगों को अपने काम में जो भी कठिनाइयाँ आ रही हों, उन्होंने जिन भी मुद्दों को पहचाना और रिपोर्ट किया हो, उनके शब्द कितने भी ईमानदार हों, मसीह-विरोधी उन पर कोई ध्यान नहीं देते, वे उनमें शामिल नहीं होते, मानो इन मामलों से उनका कोई लेना-देना ही न हो। कलीसिया के काम में उभरने वाली समस्याएँ चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हों, वे पूरी तरह से उदासीन रहते हैं। अगर कोई समस्या उनके ठीक सामने भी हो, तब भी वे उस पर लापरवाही से ही ध्यान देते हैं। जब ऊपर वाला सीधे उनकी काट-छाँट करता है और उन्हें किसी समस्या को सुलझाने का आदेश देता है, तभी वे बेमन से थोड़ा-बहुत काम करके ऊपर वाले को दिखाते हैं; उसके तुरंत बाद वे फिर अपने धंधे में लग जाते हैं। जब कलीसिया के काम की बात आती है, व्यापक संदर्भ की महत्वपूर्ण चीजों की बात आती है, तो वे इन चीजों में रुचि नहीं लेते और इनकी उपेक्षा करते हैं। जिन समस्याओं का उन्हें पता लग जाता है, उन्हें भी वे नजरअंदाज कर देते हैं और समस्याओं के बारे में पूछने पर लापरवाही से जवाब देते हैं या आगा-पीछा करते हैं, और बहुत ही बेमन से उस समस्या की तरफ ध्यान देते हैं। यह स्वार्थ और नीचता की अभिव्यक्ति है, है न?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मुझे सच में बहुत शर्म महसूस हुई। मैंने इसी तरह अपना कर्तव्य निभाया था। शुरुआत में इस कार्य की जिम्मेदारी लेने के लिए मुझमें उत्साह और दृढ़ संकल्प था क्योंकि मुझे पता था कि अगर इस कार्य में समस्याएँ आईं तो फिर मुझे और मेरी सहयोगी बहनों को इसकी जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। इसलिए मैंने भरसक सहयोग किया क्योंकि अगर कार्य अच्छा होगा तो मुझे भी तो इसका लाभ मिलेगा। बाद में ऊपरी अगुआ ने मुझे मुख्य रूप से पटकथा लेखन कार्य की खोज-खबर लेने की जिम्मेदारी दे दी और मुझे इस बात की चिंता थी कि अगर मैंने यह कार्य अच्छे से नहीं किया तो यह मेरी कमजोर काबिलियत और वास्तविक कार्य करने में अक्षमता प्रकट कर देगा और इसलिए मैंने पटकथा लेखन कार्य पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित कर लिया और टीम के कार्य, उनके पेशेवर अध्ययन और टीम के सदस्यों की दशाओं पर भरसक ध्यान देने की कोशिश की। बेशक पटकथा लेखन कार्य में अधिक प्रयास करना अच्छा था लेकिन बाद में दूसरे कार्य की खोज-खबर लेने के लिए मेरे पास स्पष्ट रूप से समय और ऊर्जा होने के बावजूद मैं यह परेशानी उठाने को तैयार नहीं थी। कभी-कभी मैं अपनी लाज बचाने के लिए केवल खानापूरी करते हुए अनिच्छा से कुछ सतही कार्य कर लेती थी और यह सोचती थी कि इनमें से कुछ कार्यों के लिए मैं सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं थी और अगर उनमें समस्याएँ आईं तो अगुआ इनके लिए मुझे सीधे तौर पर जवाबदेह नहीं ठहराएगा। मुझे लगता था कि अगर मैंने कम प्रयास किया तो इसका मुझ पर ज्यादा असर नहीं पड़ेगा और बेहतर होगा कि मैं समय का उपयोग अधिक पेशेवर कौशल सीखने में करूँ और इसलिए, जैसा कि तर्कसंगत लग रहा था, मैंने सारा कार्य दूसरों को सौंप दिया और खुद काम से हाथ झाड़ने वाली प्रबंधक बन गई। मैंने देखा कि कर्तव्य निभाने की मेरी स्थिति ठीक एक मसीह-विरोधी जैसी ही थी जो पूरे हिसाब-किताब से और पूरी बारीकी से कार्य करता है। जो भी चीज मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे को लाभ पहुँचाती थी, उसके लिए मैं अधिक सोचती थी और कष्ट सहने और कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार थी, जबकि जो कार्य मुझे लाभ नहीं पहुँचाते थे उन्हें मैं नजरअंदाज कर देती थी और जब मुझ पर दबाव डाला जाता था केवल तभी मैं कार्रवाई करती थी और समस्याएँ सामने आते देखकर भी परवाह नहीं करती थी। मेरे कर्तव्य निभाने का तरीका एक मजदूर या एक गैर-विश्वासी जैसा था। मैंने परमेश्वर के इतने अधिक वचनों के सिंचन का आनंद लिया था लेकिन अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के बारे में नहीं सोचा और मेरे सारे विचारों का संबंध मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे से होता था। मैं सचमुच स्वार्थी और घृणित थी!
बाद में मैंने यह भी सोचा कि अन्य कार्यों की उपेक्षा करने पर मैं जो इतना अपराधबोध महसूस कर रही थी उसका कारण यह था कि मुझे लगा कि पटकथा लेखन का जो कार्य मैंने अभी-अभी लिया था वह चुनौतीपूर्ण था और इसमें मुझे अधिक ध्यान देने की आवश्यकता थी, इसलिए भले ही मैं अन्य कार्यों की उपेक्षा कर रही थी लेकिन मुझे लगा कि हर कोई इस बात को समझेगा और यह ऐसा नहीं लगेगा कि मानो मैं कोई वास्तविक कार्य नहीं कर रही हूँ। लेकिन ऊपरी अगुआ ने यह क्यों कहा कि मैं एक नकली अगुआ हूँ? मैंने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों से संबंधित परमेश्वर के वचनों को खोजा और उन्हें पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगुआ होने के नाते, तुम सिर्फ एक कार्य विशेष के लिए ही नहीं, बल्कि संपूर्ण कार्य के लिए जिम्मेदार हो। अगर तुम देखते हो कि एक खास कार्य विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, तो तुम उस कार्य की देखरेख कर सकते हो, लेकिन तुम्हें दूसरे कार्यों का निरीक्षण करने, निर्देश देने और अनुवर्ती कार्रवाई करने के लिए भी समय निकालना होगा। अगर तुम सिर्फ एक कार्य अच्छी तरह से करके संतुष्ट हो जाते हो और फिर चीजों को पूरा हो चुका मान लेते हो, और दूसरे कार्यों की परवाह किए या उनके बारे में पूछे बिना उन्हें दूसरे लोगों को सौंप देते हो, तो यह गैर-जिम्मेदार व्यवहार है और कर्तव्य के प्रति लापरवाही है। अगर तुम एक अगुआ हो, तो फिर चाहे तुम कितने भी कार्यों के लिए जिम्मेदार क्यों ना हो, यह तुम्हारी जिम्मेदारी है कि तुम लगातार उनके बारे में प्रश्न पूछो और जाँच-पड़ताल करो, और साथ ही चीजों की जाँच भी करो और समस्याएँ उत्पन्न होने पर उन्हें तुरंत हल करो। यह तुम्हारा कार्य है। और इसलिए, चाहे तुम कोई क्षेत्रीय अगुआ हो या जिला अगुआ, कलीसिया अगुआ या कोई टीम अगुआ या निरीक्षक, एक बार जब तुम अपनी जिम्मेदारियों के दायरे के बारे में जान जाते हो, तो तुम्हें बार-बार जाँच करनी चाहिए कि क्या तुम वास्तविक कार्य कर रहे हो, क्या तुमने वे जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं जो एक अगुआ या कार्यकर्ता को पूरी करनी चाहिए, साथ ही—तुम्हें सौंपे गए कार्यों में से—तुमने कौन से कार्य नहीं किए हैं, कौन से तुम नहीं करना चाहते हो, किन कार्यों ने खराब परिणाम दिए हैं और किन कार्यों के सिद्धांतों को समझने में तुम विफल रहे हो। तुम्हें इन सभी चीजों की अक्सर जाँच करनी चाहिए। साथ ही, तुम्हें अन्य लोगों के साथ संगति करना और उनसे प्रश्न पूछना, और परमेश्वर के वचनों और कार्य-व्यवस्थाओं में कार्यान्वयन के लिए एक योजना, सिद्धांतों और अभ्यास के लिए एक मार्ग की पहचान करना सीखना चाहिए। किसी भी कार्य व्यवस्था के संबंध में, चाहे वह प्रशासन, कर्मियों, या कलीसियाई जीवन से, या फिर किसी भी किस्म के पेशेवर कार्य से संबंधित क्यों ना हो, अगर यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों का जिक्र करता है, तो यह एक ऐसी जिम्मेदारी है जिसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पूरी करनी पड़ेगी, और यह उसी के दायरे में आती है जिसके लिए अगुआ और कार्यकर्ता जिम्मेदार हैं—यही वे नियत कार्य हैं जो तुम्हें संभालने चाहिए। स्वाभाविक रूप से, प्राथमिकताएँ परिस्थिति के आधार पर नियत की जानी चाहिए; कोई भी कार्य पिछड़ नहीं सकता है। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कहते हैं, ‘मेरे पास तीन सिर और छह हाथ नहीं हैं। कार्य-व्यवस्था में बहुत सारे नियत कार्य हैं; अगर मुझे उन सभी का प्रभार दे दिया गया, तो मैं बिल्कुल भी संभाल नहीं पाऊँगा।’ अगर कुछ ऐसे नियत कार्य हैं जिनमें तुम व्यक्तिगत रूप से शामिल नहीं हो सकते हो, तो क्या तुमने उन्हें करने के लिए किसी और की व्यवस्था की है? यह व्यवस्था करने के बाद, क्या तुमने अनुवर्ती कार्रवाई की और पूछताछ की? क्या तुमने उनके कार्य का परेक्षण किया? यकीनन तुम्हारे पास पूछताछ करने और परेक्षण करने का समय था? तुम्हारे पास बिल्कुल था! कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कहते हैं, ‘मैं एक समय में सिर्फ एक ही कार्य कर सकता हूँ। अगर तुम मुझसे परेक्षण करने के लिए कहते हो, तो मैं एक समय में सिर्फ एक ही कार्य का परेक्षण कर पाऊँगा; इससे ज्यादा करना असंभव है।’ अगर ऐसी बात है, तो तुम निकम्मे हो, तुम्हारी काबिलियत बेहद खराब है, तुम्हारे पास कार्य क्षमता बिल्कुल नहीं है, तुम अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए उपयुक्त नहीं हो, और तुम्हें इस्तीफा दे देना चाहिए। बस कुछ ऐसा कार्य करो जो तुमसे मेल खाता है—कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन विकास में देरी मत करवाओ क्योंकि तुम्हारी काबिलियत कार्य करने के लिए बहुत ही खराब है; अगर तुम्हारे पास यह सूझ-बूझ नहीं है, तो इसका मतलब है कि तुम स्वार्थी और घिनौने हो। अगर तुम साधारण काबिलियत वाले हो लेकिन तुम परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील हो सकते हो, तुम प्रशिक्षण लेने के लिए तैयार हो, और तुम्हें इस बारे में यकीन नहीं है कि तुम कार्य को अच्छी तरह से कर सकते हो, तो फिर तुम्हें अच्छी काबिलियत वाले कुछ लोगों की तलाश करनी चाहिए जो कार्य में तुम्हारा सहयोग कर सकें। यह एक अच्छा दृष्टिकोण है, और इसे सूझ-बूझ का होना माना जाता है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (10))। परमेश्वर के वचनों के पहले वाक्य ने मेरी धारणाओं को खारिज कर दिया। परमेश्वर कहता है कि अगुआ कार्य की समग्र जिम्मेदारी के लिए उत्तरदायी होते हैं और उन्हें अपनी जिम्मेदारी के दायरे में आने वाले हर कार्य का विस्तृत ज्ञान होना चाहिए। कार्य की खोज-खबर लेते समय वे तात्कालिक जरूरत के आधार पर प्राथमिकता तय कर सकते हैं, विशेष रूप से महत्वपूर्ण कार्यों की खोज-खबर लेने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं और अगर कार्य का बोझ अधिक हो तो दूसरे कामों का जिम्मा अन्य भाई-बहनों को सौंप सकते हैं लेकिन उन्हें काम से हाथ झाड़ने वाला प्रबंधक नहीं बनना चाहिए, जो काम दूसरों को सौंप दे और उनकी उपेक्षा करे। उन्हें इन कार्यों के बारे में समय-समय पर पूछताछ करनी चाहिए और इनका निरीक्षण करना चाहिए और किसी भी समस्या को तुरंत हल करना चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि व्यक्ति अपनी ही कल्पनाओं पर निर्भर रहे और केवल उन कार्यों की खोज-खबर ले जिन्हें वह महत्वपूर्ण समझता है, जबकि दूसरे कामों की उपेक्षा करता रहे; यह कर्तव्य की उपेक्षा है। मैंने सोचा कि रोजाना पटकथा लेखन के कार्य में मग्न रह कर, पटकथा लेखन में सहयोग करके और सभी के साथ मुद्दों पर चर्चा करके मैं वास्तविक कार्य कर रही हूँ। मैंने चीजों को परमेश्वर के वचनों के आधार पर नहीं देखा बल्कि मैंने अपनी कल्पनाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाया जिसका यह मतलब था कि कई ऐसे कार्य जिनके बारे में मैंने केवल कभी-कभी पूछताछ की थी वे बाद में उपेक्षित रह गए थे और मुझे कोई अपराधबोध भी महसूस नहीं हुआ और जब ऊपरी अगुआ ने अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करने के कारण मेरी काट-छाँट की तो मैं असंतुष्ट महसूस करने लगी। मैं सचमुच जड़ थी! सच्चाई यह थी कि भले ही मैं कुछ समय के लिए एक कार्य में व्यस्त थी लेकिन यह मेरे लिए अन्य कार्यों की खोज-खबर न लेने का कोई बहाना नहीं हो सकता था। जैसा कि परमेश्वर कहता है : “अगर कुछ ऐसे नियत कार्य हैं जिनमें तुम व्यक्तिगत रूप से शामिल नहीं हो सकते हो, तो क्या तुमने उन्हें करने के लिए किसी और की व्यवस्था की है? यह व्यवस्था करने के बाद, क्या तुमने अनुवर्ती कार्रवाई की और पूछताछ की? क्या तुमने उनके कार्य का परेक्षण किया? यकीनन तुम्हारे पास पूछताछ करने और परेक्षण करने का समय था? तुम्हारे पास बिल्कुल था!” इस दौरान मेरा ध्यान मुख्य रूप से पटकथा लेखन कार्य पर केंद्रित था, लेकिन मेरे अंदर दिल होता तो मुझे दूसरे कार्य के लिए भी बोझ महसूस करना चाहिए था और यथासंभव संतुलन साधने की कोशिश करनी चाहिए थी। अगर मेरे पास इतनी ऊर्जा नहीं थी तो मैं अपनी सहयोगी बहनों के साथ स्पष्ट रूप से संवाद कर सकती थी और उन्हें इन कामों की अधिक से अधिक खोज-खबर लेने के लिए कह सकती थी और अगर समस्याएँ आतीं तो हम मिलकर उन पर चर्चा कर सकते थे और उन्हें हल कर सकते थे। अगर मैं कई कार्यों के लिए जिम्मेदार थी और मेरी काबिलियत में कमी थी, तो मैं ऊपरी अगुआओं को इस बारे में रिपोर्ट कर सकती थी ताकि कार्य में कोई देरी न हो। मुख्य समस्या यह नहीं थी कि मेरे पास बिल्कुल भी समय नहीं था बल्कि यह थी कि मैं समय देने के लिए तैयार नहीं थी। यह जिम्मेदारी की भावना की कमी थी और नकली अगुआ होने का संकेत था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर मैंने अपने कर्तव्यों में इतनी गैरजिम्मेदारी दिखाई है और सच में अगुआ होने लायक नहीं हूँ। परमेश्वर के घर ने मुझे प्रशिक्षण के जो बहुत से अवसर दिए, उनके लिए मेरे मन में आभार नहीं था और मैंने अपने कर्तव्यों को एक बोझ और परेशानी के रूप में देखा। मुझमें सच में अंतरात्मा या मानवता नहीं है! यह देखते हुए कि परमेश्वर के घर ने मुझे बर्खास्त नहीं किया, मैं पश्चात्ताप करने और इस अवसर को संजोने को तैयार हूँ और आगे चलकर अपने कर्तव्यों को लगनपूर्वक निभाऊँगी।”
बाद में ऊपरी अगुआ ने मुझे अनुभवजन्य गवाही वीडियो के फिल्मांकन कार्य की जिम्मेदारी सौंपी। मैंने बहुत आभार महसूस किया और सोचा, “इस बार मैं सच में पश्चात्ताप करूँगी और अपने कर्तव्यों में और अधिक जिम्मेदारी लूँगी।” उस समय से मेरे दिन व्यस्त हो गए थे और मैं अक्सर देर रात तक कार्य करती थी। कुछ समय तक देर रात तक कार्य करने के बाद जब मैंने कार्य परिणामों में कुछ सुधार देखा तो मुझे बहुत खुशी हुई, मैंने सोचा कि इस बार मैंने कुछ वास्तविक कार्य किया है और ऊपरी अगुआ को मेरी पश्चात्ताप की भावना दिख जानी चाहिए। बाद में अनुभवजन्य गवाही वीडियो के फिल्मांकन की खोज-खबर लेने के लिए मुझे एक सुपरवाइजर मिल गया, मुझे अपनी कार्यसूची से थोड़ी-सी फुर्सत मिल गई और मुझे कलीसिया के दूसरे कार्य पर ध्यान देने का समय मिलने लगा। लेकिन जो बाद में हुआ उसने मुझे फिर से बेनकाब कर दिया। उस समय कलीसिया को कोई चीज खरीदने की जरूरत पड़ी और चूँकि इसका संबंध कलीसिया के वित्तीय मामलों से था, इसलिए एक सहयोगी बहन ने मुझसे इस पर चर्चा करने को कहा। शुरुआत में मैं चर्चाओं में भाग लेती थी लेकिन कुछ बार भाग लेने के बाद मुझे यह झंझट भरा लगने लगा, मैंने सोचा कि इस मामले पर चर्चा करने में बहुत समय लग रहा है और यह मुख्य रूप से मेरी सहयोगी बहन की जिम्मेदारी है, अगर यह कार्य अच्छी तरह से हो गया तो ऊपरी अगुआ को पता नहीं चलेगा कि मैंने इसमें भाग लिया है या नहीं। मैंने सोचा कि इस समय को अनुभवजन्य गवाही वीडियो फिल्माने में लगाना बेहतर होगा क्योंकि इसके नतीजे दिखाई दे रहे थे। लेकिन जब मैंने सोचा कि यह भी मेरी जिम्मेदारी के दायरे में आता है तो मुझे अपनी लाज बचाने के लिए अनमने होकर चर्चाओं में भाग लेना पड़ा। इसके अलावा एक अन्य टीम के लिए कुछ वीडियो कार्य था जिसके बारे में मैं केवल कभी-कभी संदेश भेजकर पूछताछ करती थी। कभी-कभी मैं असहज हो जाती थी लेकिन फिर यह सोचती थी, “हाल-फिलहाल कोई समस्या नहीं आई है, इसलिए मैं अपना समय उस कार्य पर केंद्रित करूँगी जिस पर ऊपरी अगुआ वर्तमान में जोर दे रहा है क्योंकि अगर इन कार्यों में समस्याएँ आती हैं तो मैं सीधे उनके लिए जिम्मेदार हो जाऊँगी।” इसलिए मैंने इस टीम के वीडियो कार्य के ब्योरों की खोज-खबर लेना छोड़ दिया, लेकिन एक दिन ऊपरी अगुआ ने अचानक हमसे संपर्क किया और कहा कि दस से अधिक वीडियो तैयार करने के लिए लंबित पड़े हैं और उसने पूछा कि क्या हमें इस बात का पता है। यह सुनकर मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा और मैंने सोचा, “मैं पूरी तरह से फँस गई। यह कार्य मेरी सीधी जिम्मेदारी थी। क्या यह बड़ी समस्या मेरी अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करने के कारण पैदा नहीं हुई है?” इसके बाद ऊपरी अगुआ ने मेरी काट-छाँट की और कहा “तुम्हारी समस्याओं से अभी हाल ही में निपटा गया था और अब तुम फिर से गैरजिम्मेदारी बरत रही हो! जब तुम्हें पटकथा लेखन का कार्य सौंपा गया था तो तुमने केवल उसी की परवाह की और अब जब तुम्हें अनुभवजन्य गवाही वाली वीडियो का प्रभारी बनाया गया है तो तुम केवल इसी कार्य की परवाह कर रही हो। क्या तुम्हें वास्तव में लगता है कि एक अगुआ के रूप में तुम्हें केवल अपने कार्यों पर ध्यान देना चाहिए और बाकी सबको नजरअंदाज कर देना चाहिए? तुम कठिनाइयों से डरती हो, तुम्हारे अंदर बोझ का एहसास नहीं है और तुम सत्य का अनुसरण नहीं करती! तो फिर तुम्हारे जैसा कोई व्यक्ति कई कार्यों के लिए जिम्मेदार कैसे हो सकता है?” इसके बाद मुझे कुछ जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया गया। इस तरह दूसरा कार्य सौंपे जाने से मुझे सच में बहुत बुरा लगा और मैंने सोचा, “मैं बहुत स्वार्थी, घृणित और मानवता से रहित हूँ। शायद मैं सच में बचाए जाने के काबिल नहीं हूँ।” लेकिन बाद में मैं कुछ हद तक असंतुष्ट भी हुई और मैंने सोचा, “मैं हाल-फिलहाल सचमुच मेहनत कर रही हूँ, तो गैरजिम्मेदार होने के लिए मेरी फिर से काट-छाँट क्यों की जा रही है? क्या मैं सच में बिल्कुल भी नहीं बदली हूँ?”
एक बार अपने कर्तव्यों के विषय पर परमेश्वर की संगति ने मुझे गहराई से प्रभावित किया था और मुझे आखिरकार अपने समस्याओं की कुछ समझ आने लगी थी। परमेश्वर कहता है : “मुझे बताओ, लोगों को उचित कर्म कैसे करने चाहिए और उन्हें ये ऐसी किस दशा और स्थिति में करने चाहिए ताकि इसे अच्छे कर्म तैयार करना माना जाए? कम-से-कम, उन्हें सकारात्मक और सक्रिय रवैया रखना चाहिए, अपना कर्तव्य करते समय वफादार होना चाहिए, सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में समर्थ होना चाहिए और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी चाहिए। सकारात्मक और सक्रिय होना सबसे महत्वपूर्ण है; अगर तुम हमेशा निष्क्रिय रहते हो तो यह समस्या वाली बात है। यह ऐसा है मानो तुम परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं हो और तुम अपना कर्तव्य नहीं कर रहे हो, मानो तुम्हारे पास किसी नियोक्ता की जरूरत के तहत वेतन कमाने के लिए इसे करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है—तुम यह स्वेच्छा से नहीं कर रहे हो, बल्कि बहुत निष्क्रिय रूप से कर रहे हो। अगर इसमें तुम्हारे हित शामिल नहीं होते तो तुम ऐसा बिल्कुल भी नहीं करते। या अगर किसी ने तुमसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा होता तो तुम ऐसा बिल्कुल भी नहीं करते। तो फिर इस दृष्टिकोण से चीजें करना अच्छे कर्म करना नहीं है। इसलिए इस तरह के लोग बहुत बेवकूफ होते हैं; वे जो कुछ भी करते हैं उसमें निष्क्रिय होते हैं। वे वह चीज नहीं करते हैं जिसे वे करने के बारे में सोच सकते हैं और न ही वे वह चीज करते हैं जिसे वे समय और प्रयास से पूरा कर सकते हैं। वे बस प्रतीक्षा करते हैं और देखते हैं। यह परेशान करने वाली और बहुत दयनीय बात है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह बहुत दयनीय है? सबसे पहली बात, ऐसा नहीं है कि तुम्हारी काबिलियत अपर्याप्त है; दूसरी बात, ऐसा नहीं है कि तुम्हारा अनुभव अपर्याप्त है; तीसरी बात, ऐसा नहीं है कि तुम्हारे पास इसे करने के साधन नहीं हैं—तुम्हारे पास यह कार्य करने की काबिलियत है और अगर तुम समय और प्रयास लगाते तो इसे कर सकते थे, लेकिन तुम ऐसा नहीं करते हो, तुम अच्छे कर्म तैयार नहीं करते हो। यह बहुत अफसोसजनक है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह अफसोसजनक है? अगर तुम कई वर्षों बाद वापस इस पर नजर डालो तो तुम्हें अफसोस होगा और तब अगर तुम उस वर्ष, उस महीने और उस दिन पर वापस जाकर उस कार्य को करना भी चाहो तो भी चीजें बदल चुकी होंगी और वह समय पहले ही गुजर चुका होगा। तुम्हें उस जैसा दूसरा मौका नहीं मिलेगा; जब वह मौका गुजर जाता है तो वह गुजर जाता है, जब वह खो जाता है तो वह खो जाता है। अगर तुम बढ़िया खाना खाने या बढ़िया कपड़े पहनने जैसे दैहिक सुखों से वंचित रह जाते हो तो इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि ये चीजें खोखली हैं और इनका तुम्हारे जीवन प्रवेश या अच्छे कर्मों की तैयारी या तुम्हारे गंतव्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन, अगर कोई चीज परमेश्वर के तुम्हारे प्रति रवैये और आकलन से जुड़ी है या यहाँ तक कि तुम जिस मार्ग पर चलते हो उससे और तुम्हारे गंतव्य से भी जुड़ी है तो इसे करने का अवसर खो देना बहुत ही अफसोसजनक है। वह इसलिए क्योंकि यह भविष्य में तुम्हारे अस्तित्व के मार्ग पर एक दाग छोड़ जाएगा और पछतावे छोड़ जाएगा और तुम्हें अपने पूरे जीवन में इसकी भरपाई करने का कभी कोई दूसरा मौका नहीं मिलेगा। क्या यह अफसोसजनक नहीं है? अगर तुम्हारी काबिलियत बहुत खराब है और तुम यह कार्य स्वीकार नहीं कर सकते हो तो यह अफसोसजनक नहीं है, परमेश्वर का घर इसे करने के लिए किसी और की व्यवस्था कर सकता है। अगर तुम इसे अच्छी तरह से करने में सक्षम हो, लेकिन तुम इसे नहीं करते हो तो यह बहुत ही अफसोसजनक है। यह अवसर तुम्हें परमेश्वर ने दिया है, लेकिन तुम इसे गंभीरता से नहीं लेते हो, तुम इस अवसर का फायदा नहीं उठाते हो और इसे हाथ से फिसलने देते हो—यह अत्यंत अफसोसजनक है! तुम्हारे लिए यह अफसोसजनक है; परमेश्वर के लिए यह निराशाजनक है। परमेश्वर ने तुम्हें काबिलियत और कई बेहतर स्थितियाँ दी हैं जो तुम्हें इस मामले की असलियत देखने देती हैं और इस कार्य के लिए योग्य बनने देती हैं। लेकिन तुम सही रवैया नहीं रखते हो, तुममें निष्ठा और ईमानदारी की कमी है और तुम इसे अच्छी तरह से करने के लिए अपना भरसक प्रयास नहीं करना चाहते हो। यह परमेश्वर को बहुत ही निराश करता है। ... मान लो कि सत्य और अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया हमेशा लापरवाह होता है और तुम सतही तौर पर वादे करते हो, लेकिन पर्दे के पीछे उन्हें अभ्यास में नहीं लाते हो, तुम टालमटोल करते हो और तुममें तात्कालिकता की भावना और परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होने का सकारात्मक रवैया नहीं होता है। भले ही बाहरी तौर पर तुम गड़बड़ी और बाधा पैदा नहीं करते हो, बुराई नहीं करते हो, बेहूदा मनमानी नहीं करते हो या अँधाधुँध बुरे कर्म नहीं करते हो और देखने में तुम एक निष्कपट और काफी शिष्ट व्यक्ति लगते हो, लेकिन तुम परमेश्वर द्वारा तुमसे जो करने की माँग की जाती है उसे सकारात्मक और सक्रिय रूप से करने में समर्थ नहीं हो, बल्कि तुम ढुलमुल होते हो और कामचोरी करते हो और वास्तविक कार्य करने से बचते हो। ऐसे में आखिर तुम वाकई किस मार्ग पर चल रहे हो? अगर यह मसीह-विरोधी का मार्ग न भी हो, तो भी कम-से-कम यह नकली अगुआ का मार्ग तो है ही” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (11))। परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ने के बाद मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया। ऊपरी अगुआ ने पिछली बार जब मेरी काट-छाँट की थी तो तबसे मैं जानती थी कि मैं अपने कर्तव्यों में गैरजिम्मेदार रही हूँ और मैंने जल्द से जल्द पश्चात्ताप करना चाहा। शुरुआत में मैं रोज देर रात तक कार्य करती थी और मेरे कर्तव्यों में कुछ नतीजे निकलने लगे, इसलिए मुझे लगा कि मैंने पश्चात्ताप की भावना दिखा दी है, लेकिन बाद में अगर उस कार्य पर ऊपरी अगुआई का ध्यान न होता तो मुझे यह कार्य परेशान करने वाला लगता और मैं इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाती थी। मैंने देखा कि मैं जो “पहल” और “सक्रियता” दिखा रही थी, वह कपटपूर्ण और अशुद्ध थी। क्योंकि मैं काट-छाँट किए आने के बाद कोई दूसरा कार्य सौंपे जाने या बर्खास्त किए जाने से डरती थी, इसलिए अपनी झूठी शान और रुतबा कायम रखने के लिए मैंने कुछ समय कष्ट सहा, लेकिन यह व्यवहार तो बस आत्मरक्षा के लिए था। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा परमेश्वर मजदूरी पर रखे किसी कर्मचारी के बारे में बताता है कि वह मजदूरी कमाने के लिए केवल अपने नियोक्ता द्वारा अपेक्षित चीजें करता है, वह जो करता है वह दिल से नहीं होता है। इस रवैये के रहते मेरे कर्तव्यों का निर्वहन अच्छे कर्मों में नहीं गिना जा सकता था। सच्चा कर्तव्य निर्वहन सक्रिय होने और बोझ की भावना में निहित होता है। इसका संबंध कर्तव्यों के प्रति वफादारी और सत्य सिद्धांतों की खोज से है ताकि कार्य अच्छी तरह से किया जाना सुनिश्चित हो। मैंने अपने हाल के प्रदर्शन पर चिंतन किया : जब अगुआओं ने मुझे अनुभवजन्य गवाही वाली वीडियो के फिल्मांकन का प्रभारी बनाया तो मैंने केवल इस कार्य पर ध्यान केंद्रित किया लेकिन जहाँ तक अन्य कार्यों की बात थी, अगर वे मेरे हितों से संबंधित नहीं थे, तो उनके प्रति मेरा रवैया पूरी तरह से उदासीन था और मैंने अन्य कार्यों को एक बोझ और परेशानी के रूप में देखा। वीडियो बैकलॉग की समस्या मेरे लिए एक प्रकाशन थी और मुझे एहसास हुआ कि मैंने बिल्कुल भी पश्चात्ताप नहीं किया था। जो थोड़ा-बहुत अच्छा व्यवहार मैंने दिखाया था वह केवल अपने रुतबे को कायम रखने और अपनी प्रतिष्ठा बहाल करने का प्रयास था और अपने कर्तव्यों के प्रति मेरा रवैया अभी भी नहीं बदला था। मैं केवल वही कार्य करती थी जो ऊपरी अगुआई द्वारा मुझे सौंपे गए थे और जो मेरे रुतबे और प्रतिष्ठा से जुड़े थे। यह कर्तव्यों का सच्चा निर्वहन नहीं था। सच यह है कि अगुआ होने के नाते व्यक्ति को दूसरे भाई-बहनों की तुलना में अधिक चिंताएँ करनी पड़ती हैं। अगर मैं जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी तो मुझे आगे बढ़कर ऊपरी अगुआओं को बता देना चाहिए था और इस भूमिका को दूसरों को संभालने देना चाहिए था, न कि पद पर कब्जा कर के बिना वास्तविक कार्य किए उस पर बने रहना चाहिए था। इसने परमेश्वर के घर को नुकसान पहुँचा। क्या मैं वास्तविक कार्य किए बिना पद के लाभों का आनंद उठाकर एक नकली अगुआ नहीं बनी हुई थी? मैंने सोचा कि किस तरह ऊपरी अगुआओं ने मेरा मूल्यांकन “भरोसे और विकास के योग्य न होने के रूप में किया था!” मैं बिल्कुल ऐसी ही थी। मैंने कलीसिया के समग्र कार्य को नजरअंदाज कर दिया था और मैं वास्तव में भरोसे के योग्य नहीं थी। जिस कार्य की मैं जिम्मेदार थी, वह धीरे-धीरे कम हो गया और जब मैंने वास्तव में इसे खो दिया तो मुझे सच में इसका बहुत पछतावा हुआ। मैंने सोचा था कि जब तक मैं अगुआई द्वारा मुझे सीधे सौंपे गए कार्यों को करती रहूँगी, मैं अपने रुतबे को बनाए रख सकती हूँ लेकिन इसके बदले में मुझे जो मिला वह था, अच्छे कर्मों को तैयार करने और सत्य प्राप्त करने में अपने कर्तव्यों की हानि और अवसरों की हानि। यह मेरा सबसे बड़ा नुकसान था। अगर मैंने अपने कर्तव्यों में इसी रवैये को जारी रखा तो निश्चित रूप से मेरा मूल्यांकन “लगातार गैरजिम्मेदार और बेपरवाह” के रूप में किया जाएगा और मेरी व्यक्तिगत साख पूरी तरह से समाप्त हो जाएगी। ऐसा करके मैं अपना कर्तव्य निभाने का अवसर और उद्धार पाने का मौका नष्ट कर रही थी!
इसके बाद मैंने अक्सर इस मामले के बारे में सोचा और महसूस किया कि मैं कितनी स्वार्थी थी, मैं अपने कर्तव्यों में केवल अपने हितों की चिंता कर रही थी। तब मुझे परमेश्वर के कुछ संबंधित वचन याद आ गए, इसलिए मैंने उन्हें खोजा और पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। उस प्रकृति में विशिष्ट रूप से क्या शामिल होता है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीजों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। मैंने इस अंश को बार-बार पढ़ा। परमेश्वर कहता है कि लोग जब उसके कार्य का अनुभव करते हैं और सत्य को समझते हैं, उससे पहले शैतान उनके दिल में विभिन्न जहर और जीवित रहने के नियम बैठा चुका होता है और ये लोगों का जीवन बन जाते हैं, इसीलिए लोग शैतान की छवि को जीते हैं और शैतान की प्रकृति उनके हर शब्द और कार्यकलाप को नियंत्रित करती है। मैं शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट की गई थी और मैं जीवन भर बहुत स्वार्थी रही थी। जब परिवार वाले या दोस्त मुझसे मदद माँगते थे और अगर मुझे इससे कोई लाभ हो सकता था तो मैं खुशी-खुशी राजी हो जाती थी या अगर वह ऐसा व्यक्ति होता था जिसे मैं खुश करना चाहती थी या जिसके करीब जाना चाहती थी तो मैं पूरे दिल से मदद करने को तैयार हो जाती थी। लेकिन अगर मुझे इससे बिल्कुल भी कोई लाभ नहीं मिल पाता था तो मुझे यह परेशानी की बात लगती थी और मैं उनकी कोई चिंता नहीं करना चाहती थी। मेरे पिता जी मुझसे कहते थे, “तुम इतनी कठोर दिल क्यों हो?” लेकिन मैं उनकी बातों की परवाह नहीं करती थी और सोचती थी कि लोग तो ऐसे ही होते हैं! कलीसिया में अपने कर्तव्य निभाते हुए भी मेरा अपना ही एजेंडा होता था और मैं केवल उन कार्यों पर ध्यान केंद्रित करती थी जो मुझे लाभ पहुँचाते थे और मैं शायद ही कभी कलीसिया के कार्य पर विचार करती थी। उदाहरण के लिए जब कोई भाई-बहन खराब स्थिति में होते थे और अगर मैं सीधे तौर पर उनके लिए जिम्मेदार होती थी तो मैं प्रेम के साथ उनकी मदद करती थी क्योंकि इससे उनकी नजरों में मुझे एक अच्छे अगुआ के रूप में स्थापित करने में मदद मिलती। लेकिन अगर मैं सीधे तौर पर उनके लिए जिम्मेदार न होती तो उन्हें भ्रष्ट स्वभावों में जीते देखकर भी मुझे लगता था कि उनकी मदद करने का मतलब परमेश्वर के वचन खोजना और उन पर विचार करने के लिए अपनी ऊर्जा और मेहनत खर्च करना होगा, इसलिए मुझे यह कार्य परेशान करने वाला लगता था और मैं यह झंझट नहीं लेना चाहती थी या फिर मैं केवल कुछ सतही शब्द कहकर जवाब दे देती थी। मुझे लगा कि ऐसा करना मेरी चतुराई थी लेकिन जब मैंने इस बारे में सोचा तो स्वार्थी होकर मुझे क्या मिला है? वास्तविकता में विभिन्न कामों की खोज-खबर लेने का संबंध चीजों और लोगों को देखने के विभिन्न सत्यों और समस्याओं से निपटने के विभिन्न सिद्धांतों से है और कुछ कार्यों में भाग न लेकर मैं अनजाने में सत्य प्राप्त करने के कई अवसर खो रही थी। इसके अतिरिक्त परमेश्वर ने अगुआई का कर्तव्य निभाने का अवसर देकर मुझ पर अनुग्रह किया था, मुझे यह सीखने योग्य बनाया था कि मैं चिंताओं का सामना कर सकूँ, बोझ उठा सकूँ और धीरे-धीरे अपनी सामान्य मानवता बहाल कर सकूँ। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था लेकिन मैं अधिक जिम्मेदारियाँ या चिंताएँ लेने के लिए तैयार नहीं थी। मैं हमेशा कहती थी कि मैं परमेश्वर की आभारी हूँ और उसका ऋण चुकाना चाहती हूँ लेकिन वास्तव में जो रवैया मैंने दिखाया वह परमेश्वर के प्रति धोखा था। मुझमें सच में मानवता की कमी थी! अगर मैंने अब भी बदलने की कोशिश न की तो परमेश्वर का कार्य समाप्त होने पर मेरी मजदूरी का भी अंत हो जाएगा और मुझे दंड दिया जाएगा।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “अगर तुम कोई गलती करते हो और सिर्फ यही कहते हो : ‘मुझे वाकई खुद से नफरत है! मैं ऐसी नीच, घिनौनी चीज कैसे कर सकता हूँ? मुझे वाकई अपने गाल पर एक थप्पड़ मारना चाहिए!’ सिर्फ खुद से नफरत करना, इससे कोई फायदा नहीं होगा। मुख्य चीज यह है कि जब तुम कोई गलती करते हो तो तुम्हें यह भेद पहचानने में समर्थ होना चाहिए कि इसमें क्या गलत है, किस चीज ने तुम्हें ऐसा करने के लिए उकसाया है, तुम सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ क्यों हो, इसका मूल कारण क्या है और तुम्हारे क्रियाकलापों का आधार और सिद्धांत क्या हैं। इसके अतिरिक्त, मुख्य चीज यह है कि किसी मामले का सामना करने पर क्या तुम सचेत रूप से परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य कर रहे हो और सचेत रूप से अपने शैतानी विचारों और नजरियों, अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं और अपने इरादों और योजनाओं के खिलाफ विद्रोह कर रहे हो या नहीं। अगर तुमने सचेत रूप से ये सभी चीजें की हैं तो तुमने अच्छे कर्मों की तैयारी की है और यह एक बड़ी चीज है और तुमने कुछ प्राप्त किया है। ... बुराई न करना अच्छे कर्मों की तैयारी करने के बराबर नहीं है। बुराई न करना और अच्छे कर्मों की तैयारी करना दो अलग-अलग अवधारणाएँ हैं। बुराई किए बिना कोई कर्तव्य निभाना वही है जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए; यह एक अभिव्यक्ति है जो उन लोगों में होनी चाहिए जिनमें सामान्य मानवता का जमीर और विवेक है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं : ‘ऐसे भी लोग हैं जो दूसरों की हत्या कर देते हैं, लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया है; उस व्यक्ति ने दूसरों की चीजें चुराई हैं, लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया है। इसका मतलब है कि मैं एक अच्छा व्यक्ति हूँ।’ क्या यह डींग हाँकने लायक चीज है? क्या उनका जोर देकर यह कहना सही है? (नहीं है।) इसे भ्रामक अवधारणाएँ कहते हैं। चोर न होना, दूसरों की हत्या न करना, आगजनी न करना और अवैध यौन संबंधों में लिप्त न होना एक अच्छा व्यक्ति होने के बराबर नहीं है। बुराई न करना या कानून न तोड़ना एक अच्छा व्यक्ति होने से भिन्न अवधारणा है। एक अच्छा व्यक्ति होने के अपने मानक होते हैं। बुराई न करना और अच्छे कर्मों की तैयारी करना भी दो अलग अवधारणाएँ हैं। बुराई किए बिना अपना कर्तव्य निभाना कुछ ऐसा है जिसे तुम्हें एक सामान्य व्यक्ति के रूप में प्राप्त करना चाहिए। लेकिन अच्छे कर्मों की तैयारी करने का मतलब है कि तुम्हें सक्रिय और सकारात्मक रूप से सत्य का अभ्यास करना चाहिए और परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। तुममें निष्ठा होनी चाहिए, तुम्हें कष्ट सहने और कीमत चुकाने को तैयार रहना चाहिए, जिम्मेदारी लेने को तैयार रहना चाहिए और सकारात्मक और सक्रिय रूप से कार्य करने में समर्थ होना चाहिए। इन सिद्धांतों के अनुसार किए गए सभी क्रियाकलाप बुनियादी रूप से अच्छे कर्म हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे बड़े मामले हैं या छोटे, वे लोगों द्वारा याद किए जाने लायक हैं या नहीं, वे लोगों द्वारा सम्मानित हैं या तुच्छ माने जाते हैं या क्या लोग उन्हें उल्लेखनीय समझते हैं, परमेश्वर की नजर में वे सभी अच्छे कर्म हैं। अगर तुम अच्छे कर्मों की तैयारी करते हो तो अंत में यह तुम्हारे लिए आशीषें लेकर आएगा, विपत्तियाँ लेकर नहीं। ... तो आखिरकार अच्छे कर्मों को कैसे परिभाषित किया जाता है? इस तरह कि तुम जो करते हो वह कम-से-कम तुम्हारे और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश के लिए उपयोगी होता है और परमेश्वर के घर के कार्य के लिए लाभदायक होता है। अगर यह तुम्हारे लिए, दूसरों के लिए और परमेश्वर के घर के लिए लाभदायक है तो तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन परमेश्वर के सामने प्रभावी और परमेश्वर द्वारा स्वीकृत है। परमेश्वर तुम्हें अंक देगा। इसलिए यह मूल्यांकन करो कि तुमने बीते वर्षों में कितने अच्छे कर्म तैयार किए हैं। क्या ये अच्छे कर्म तुम्हारे अपराधों के नुकसान की भरपाई कर सकते हैं? उनकी भरपाई करने के बाद कितने अच्छे कर्म बचते हैं? तुम्हें खुद को अंक देने और अपने दिल में इसे जानने की जरूरत है; तुम्हें इस मामले को लेकर भ्रमित नहीं होना चाहिए” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (11))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे एक मार्ग दिखाया। पश्चात्ताप केवल मौखिक नहीं हो सकता। सिर्फ यह कह देने से वास्तविक बदलाव नहीं आता कि तुम खुद से नफरत करते हो। मुख्य बात यह देखना है कि व्यक्ति वास्तव में किस चीज को जी रहा है और अपने कर्तव्य के प्रति उसका रवैया क्या है, विशेष रूप से कलीसिया के कार्य से संबंधित मामलों में। क्या व्यक्ति समस्याओं की ओर आँख मूँद लेता है और मूकदर्शक बना रहता है या कलीसिया के हितों की रक्षा करता है, यही बात व्यक्ति के चरित्र को दर्शाती है। अच्छे और बुरे कर्मों के अंतर के बारे में परमेश्वर की संगति पढ़ते हुए मैं समझ गई कि बुराई न करना या गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा न करना किसी को एक अच्छा व्यक्ति नहीं बनाता है और ज्यादा से ज्यादा ऐसा व्यक्ति एक निष्कपट व्यक्ति माना जा सकता है। अच्छे कर्मों में पहल करने की भावना और सत्य की खोज करने की प्रक्रिया शामिल होती है। उनका संबंध मामलों को सिद्धांतों के अनुसार संभालने से है ताकि इन्हें परमेश्वर के इरादों के अनुरूप किया जा सके। ऐसे अभ्यास में ही सच्चे अच्छे कर्म निहित हैं। अंत में परमेश्वर लोगों के परिणाम इस आधार पर निर्धारित करता है कि क्या उन्होंने अच्छे कर्म किए हैं। मैं पीछे मुड़कर देखती हूँ तो परमेश्वर में विश्वास करने के बाद से मेरे अधिकांश कर्तव्य निर्वहन का उद्देश्य प्रतिष्ठा और लाभ था और मैं शायद ही कभी सक्रिय होकर सत्य का अभ्यास करती थी। मैंने कभी भी झूठे अगुआओं या मसीह-विरोधियों को सक्रिय रूप से उजागर नहीं किया या उनकी रिपोर्ट नहीं की और मैंने शायद ही कभी भाई-बहनों की कठिनाइयों और समस्याओं को हल करने में मदद की। ज्यादातर समय मैंने बस शैतान के इस जीवित रहने के नियम का पालन किया : “अपना काम करो, दूसरों के मामले में दखल न दो।” एक कलीसिया की अगुआ के रूप में मैं अपनी जिम्मेदारी के दायरे में आने वाले अधिकांश कार्य को करने को तैयार नहीं थी और मेरे काम से हाथ झाड़ने वाली प्रबंधक होने के कारण कार्य में देरी हुई। ये सब बुरे कर्म थे। सत्य सिद्धांतों के अनुसार आलोचना करूँ तो मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर में विश्वास करने के इन वर्षों के दौरान मैंने शायद ही कोई अच्छा कर्म तैयार किया है और वास्तव में मैंने बहुत से बुरे कर्म किए हुए हैं। मुझे लगा कि मैं बहुत बड़े खतरे में हूँ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, भले ही मैंने इन वर्षों में परमेश्वर के घर में कई कर्तव्य निभाए हैं, फिर भी मैंने खुद को परमेश्वर के घर का व्यक्ति नहीं माना है और मैं कलीसिया के कार्य की रक्षा करने में शायद ही कभी सक्रिय रही हूँ। मैं बहुत ज्यादा स्वार्थी और घृणित रही हूँ! हे परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। मेरी मदद और पड़ताल कर। मैं तुझे संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार हूँ।”
इसके बाद मैंने अपने कर्तव्यों के लिए समय तय करना शुरू किया, अपने दैनिक कार्य को उचित रूप से व्यवस्थित किया और मैं हर रात सोने से पहले अगले दिन के कार्य की योजना बन लेती थी। इससे मुझे अपने कार्यों पर ध्यान केंद्रित करने और अधिक कार्य पूरा करने में भी मदद मिली और मैं अन्य कार्यों में भी शामिल हो सकी। कुछ समय तक इस तरीके का अभ्यास करने के बाद मैंने पाया कि उचित योजना बनाने से कार्य क्षमता में काफी सुधार हुआ है और इससे मुझे एक दिन में कई कार्य करने में मदद मिली। कभी-कभी जब दूसरी टीमों के भाई-बहन मेरे पास मदद लेने आते थे तो मैं इन चिंताओं को भी सँभाल लेती थी और इस प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर से प्रार्थना करती थी कि मैं उसकी जाँच-पड़ताल स्वीकार लूँ। अगर मैं कोई कार्य करने के लिए सहमत होती थी, तो मुझे इसमें अपना दिल झोंकना होता था और मैं बस खानापूरी नहीं कर सकती थी। कभी-कभी मुझे अब भी दूसरे कार्य की खोज-खबर लेना मुश्किल लगता था लेकिन जब मुझे इसका एहसास होता तो मैं सक्रिय रूप से अपने खिलाफ विद्रोह करती थी और उस कार्य के विवरण पर ध्यान देने की भरसक कोशिश करती थी। मैं जानती हूँ कि मेरी शैतानी प्रकृति की जड़ें बहुत गहरी हैं और काट-छाँट के ये दो उदाहरण इसके समाधान के लिए पर्याप्त नहीं हैं, इसलिए मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि वह मेरे दिल की पड़ताल करे, जब भी मैं अपने कर्तव्यों में गैरजिम्मेदारी दिखाऊँ तो वह मुझे ताड़ना दे और अनुशासित करे, ताकि मैं सामान्य मानवता को जीने सकूँ और एक अंतरात्मा और मानवता वाली इंसान बन सकूँ। मैं अपनी काट-छाँट के इन दो प्रकरणों के लिए परमेश्वर की बहुत आभारी भी हूँ जिससे मुझे अपने कर्तव्यों के प्रति गैरजिम्मेदारी के गंभीर परिणामों को समझने और जागने और कुछ हद तक बदलने में मदद मिली।