78. अपने माता-पिता के निधन के बारे में जानने के बाद

शू झेन, चीन

बचपन से ही मेरे माता-पिता हमेशा मुझ से बहुत प्यार करते थे और उन्होंने मुझे और मेरे भाई को स्कूल भेजने के लिए कड़ी मेहनत की। उन्हें सुबह से शाम तक इतनी मेहनत करते हुए देखकर मैं मन ही मन में सोचती थी कि, “जब मैं बड़ी हो जाऊँगी तो खूब पैसा कमाऊँगी ताकि अपने माता-पिता को एक बेहतर जीवन दे सकूँ।” फिर जब मैंने काम करना शुरू किया तो मैं अपनी सारी कमाई अपने माता-पिता को भेजने लगी इस उम्मीद के साथ कि उनके जीवन स्तर में सुधार हो सके। बाद में मैंने परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया और अपने माता-पिता के साथ भी सुसमाचार को साझा किया लेकिन मेरे पिता ने विश्वास करना छोड़ दिया क्योंकि उन्हें बड़े लाल अजगर द्वारा सताए जाने का डर था। हालाँकि मेरी माँ ने मेरे कर्तव्य में मेरा समर्थन करना जारी रखा और मेरे बच्चे की देखभाल में मदद की। मुझे यह एहसास हुआ कि मेरे माता-पिता ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है और हर बार जब मैं उनसे मिलने घर जाती थी तो मैं घर के कामों में उनकी मदद करने की पूरी कोशिश करती थी और अपनी संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाती थी, जिससे मुझे अधिक सुकून महसूस होता था। जून 2022 में, सुसमाचार के प्रचार के कारण पुलिस ने मेरा पीछा करना शुरू कर दिया और उसके बाद मैं अपने माता-पिता और बच्चे से मिलने घर नहीं लौट पाई। मुझे इस बात की भी चिंता थी कि मेरे माता-पिता बूढ़े हैं और उनका स्वास्थ्य भी खराब है, अगर वे बीमार पड़ गए तो उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैंने समझा कि इंसान का जीवन पूरी तरह से परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किया जाता है और यह कि परमेश्वर मेरे माता-पिता की नियति का भी संप्रभु है इसलिए मैंने अपने माता-पिता को परमेश्वर को सौंप दिया और मेरी स्थिति पर इसका कोई ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा, जिससे मैं अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभा सकी।

नवंबर 2022 के अंत में मुझे एक बहन का पत्र मिला जिसमें लिखा था कि मेरी माँ अस्पताल में है और उनकी स्थिति गंभीर है। इस पत्र में यह नहीं बताया गया था कि उन्हें कौन-सी बीमारी है और मैं बहुत चिंतित थी, यह नहीं जानती थी कि मेरी माँ को कौन-सी बीमारी है या उनकी स्थिति कैसी है। मैं सच में अपनी माँ से मिलने के लिए घर जाना चाहती थी। लेकिन फिर मैंने सोचा कि पुलिस अब भी मेरा पीछा कर रही थी और मैं बहुत अधिक व्यस्त थी क्योंकि मैं कई कलीसियाओं में हुई गिरफ्तारियों के बाद की स्थिति को संभाल रही थी और मेरा जाना कलीसिया के कार्य में देरी कर सकता था। मैं बहुत उलझन में थी इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और अपनी माँ की बीमारी उसके हाथों में सौंप दी। मई 2023 के मध्य में मुझे घर से एक पत्र मिला जिसमें लिखा था कि मेरी माँ का पिछले साल स्ट्रोक के कारण निधन हो गया था और यह कि कुछ दिन पहले मेरे पिता का भी अस्थमा के दौरे से निधन हो गया था। यह अचानक मिली खबर मेरे लिए बहुत बड़ा सदमा थी। जब मैंने इस बारे में सोचा कि कैसे वे कितनी जल्दी चल बसे थे और अब मेरे माता-पिता जिन्दा नहीं थे, तो दर्द की लहर मुझ पर हावी हो गई और मैं अपने आँसुओं को रोक नहीं पाई। मैंने इस बारे में सोचा कि जब वे बीमार थे तब मैं उनकी देखभाल के लिए वहाँ नहीं थी और यह कि उनके निधन से पहले मैंने उन्हें एक आखिरी बार देखा भी नहीं था। मुझे लगा कि वे अपनी बेटी के रूप में मुझसे बहुत दुखी और निराश हुए होंगे और मेरे रिश्तेदार मुझे एक असंतानोचित बेटी और एहसान फरामोश कह रहे होंगे। मैं इतनी कमजोर महसूस कर रही थी कि मैं केवल रो सकती थी। जब मैं अपने कमरे में में जाकर लेटी तो मेरे दिमाग में माता-पिता की तस्वीरें घूम रही थीं। उनकी मुस्कान, मेरे प्रति उनकी दयालुता और हमारे साथ बिताए गए पलों की झलकियाँ मेरे दिमाग में बार-बार एक फिल्म की तरह घूमने लगीं। मैंने सोचा कि मेरे माता-पिता ने मुझे पालने के लिए कितनी मेहनत की थी, कैसे उन्होंने मुझे स्कूल भेजने के लिए कठोर शारीरिक श्रम किया था और जब मैं घर से दूर अपने कर्तव्यों को निभा रही थी, तब मेरी माँ ने मेरे बच्चे की देखभाल करने में किस प्रकार मेरी मदद की थी। मैंने महसूस किया कि उन्होंने मेरे लिए जो कुछ भी किया है उसके लिए मैं उनकी बहुत बड़ी कर्जदार हूँ। मैं बहुत पीड़ा में थी और मैंने तो यहाँ तक सोचा कि अगर मैंने अपना कर्तव्य नहीं निभाया होता और इसके बजाय पैसा कमाने के लिए काम किया होता तो मैं उनके रोजाना के खर्चों में मदद कर सकती थी और जब वे बीमार थे तब उनके इलाज के लिए पैसे दे सकती थी और हो सकता है कि वे इतनी जल्दी न गुजरते। जब मैंने उन सभी वर्षों के बारे में सोचा जब मैं उनकी देखभाल करने के लिए उनके पास नहीं थी और कैसे मैंने एक बेटी के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं किया तो मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं एक पापी हूँ और मुझ पर उनका बहुत बड़ा कर्ज है! उन दिनों मैं बहुत ही निराशाजनक स्थिति में थी, मैं न खा पाती थी और न सो पाती थी और मैं अपराधबोध और पीड़ा में जी रही थी। हालाँकि मैं अब भी अपना कर्तव्य निभा रही थी लेकिन मेरा दिल बहुत ही बेचैन था। जिस सुसमाचार कार्य की जिम्मेदारी मुझे दी गई थी मेरे दिल में उसके प्रति दायित्व-बोध कम हो रहा था और मेरा कार्य भी प्रभावित हो रहा था। अपने इस दर्द में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरे माता-पिता का निधन हो गया है और मैं बहुत दर्द और कष्ट में हूँ। मेरी मदद कर और मेरे दिल को बेचैन होने से बचा।” यह प्रार्थना करने के बाद मुझे थोड़ा अधिक शांति महसूस हुई। मुझे परमेश्वर के वे वचन याद आए जो माता-पिता की मृत्यु से निपटने के तरीके के बारे में हैं इसलिए मैंने उन्हें पढ़ने के लिए खोजा।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “इसी तरह माता-पिता के निधन को लेकर भी लोगों को एक सही और तार्किक रवैया अपनाना चाहिए। ... तो फिर निधन होने से पहले तुम्हें उस अप्रत्याशित झटके का समाधान कैसे करना चाहिए, ताकि यह तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन या चलने के पथ में रुकावट न डाले? सबसे पहले आओ देखें वास्तव में मृत्यु का अर्थ क्या है और गुजर जाना क्या होता है—क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई व्यक्ति इस दुनिया को छोड़ रहा है? (हाँ।) इसका अर्थ है कि शारीरिक मौजूदगी वाला किसी व्यक्ति का जीवन मनुष्य द्वारा देखे जा सकने वाले भौतिक संसार से हटा दिया जाता है और फिर वह गायब हो जाता है। वह व्यक्ति फिर किसी और दुनिया में, किसी और रूप में जीने के लिए चला जाता है। तुम्हारे माता-पिता के जीवन के प्रस्थान का अर्थ है कि इस संसार में उनसे तुम्हारा रिश्ता भंग, गायब और खत्म हो चुका है। वे किसी और दुनिया में किसी और रूप में जी रहे हैं। उस दूसरी दुनिया में उनका जीवन किस तरह चलेगा, क्या वे इस दुनिया में लौटकर आएँगे, तुमसे फिर मिलेंगे या तुम्हारे साथ उनका कोई शारीरिक संबंध होगा या वे तुमसे किसी भावनात्मक जाल में उलझेंगे, यह परमेश्वर द्वारा नियत है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। कुल मिलाकर, उनके निधन का अर्थ है कि इस दुनिया में उनके उद्देश्य पूरे हो चुके हैं, और उनके पीछे एक पूर्ण विराम लग चुका है। इस जीवन और संसार में उनका उद्देश्य समाप्त हो चुका है, इसलिए उनके साथ तुम्हारा रिश्ता भी खत्म हो चुका है। क्या भविष्य में उनका पुनर्जन्म होगा, उन्हें कोई दंड भरना होगा या प्रतिबंध झेलने होंगे, या इस दुनिया में कोई चीज सँभालनी होगी या व्यवस्था करनी होगी, क्या इसका तुमसे कोई लेना-देना है? क्या तुम यह तय कर सकते हो? इसका तुमसे कोई सरोकार नहीं है, तुम यह तय नहीं कर सकते, और तुम इसकी कोई खबर भी नहीं पा सकोगे। तब इस जीवन में उनसे तुम्हारा रिश्ता खत्म हो चुका है। यानी जिस भाग्य ने तुम्हें 10, 20, 30 या 40 साल तक बाँधे रखा, वह तब खत्म हो गया। इसके बाद वे अलग हैं और तुम अलग, और तुम लोगों के बीच कोई भी रिश्ता नहीं रहता। भले ही तुम सब परमेश्वर में विश्वास रखते हो, फिर भी उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया, और तुमने अपना; जब वे और तुम एक ही स्थान के परिवेश में नहीं जीते तो तुम लोगों के बीच कोई रिश्ता नहीं रह जाता। उन्होंने बस परमेश्वर से मिले उद्देश्य पहले ही पूरे कर लिए हैं। इसलिए जहाँ तक यह बात है कि उन्होंने तुम्हारे प्रति जिम्मेदारियाँ निभाईं, तो ये उसी दिन खत्म हो जाती हैं जब तुम उनसे स्वतंत्र होकर रहने लगते हो—तब अपने माता-पिता से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं रहता है। अगर आज उनकी मृत्यु हो जाए, तो तुम बस भावनात्मक स्तर पर कोई चीज याद करोगे, और तुम्हारी लालसा के दो प्रियजन कम हो जाएँगे। तुम उन्हें फिर कभी नहीं देखोगे, फिर कभी उनकी कोई खबर नहीं सुन पाओगे। बाद में उनके साथ जो भी हो, उनका भविष्य जैसा भी हो, उसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं होता, उनके साथ तुम्हारा कोई रक्त संबंध नहीं रहता, और तुम अब उसी प्रकार के प्राणी भी नहीं रह पाते। ऐसा ही होता है। तुम्हारे माता-पिता की मृत्यु बस वह आखिरी खबर होगी जो तुम इस संसार में उनके बारे में सुनोगे और वह अंतिम चरण होगा जो तुम उनके जन्म लेने, बूढ़े होने, बीमार पड़ने और मर जाने के अनुभवों के बारे में सुनोगे या देखोगे, बस और कुछ नहीं। उनकी मृत्यु तुमसे कुछ लेकर नहीं जाएगी न तुम्हें कुछ देगी, वे बस गुजर चुके होंगे, मनुष्यों के रूप में उनकी यात्रा समाप्त हो चुकी होगी। इसलिए उनकी मृत्यु की बात हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी मृत्यु दुर्घटना से हुई, सामान्य रूप से हुई, या बीमारी वगैरह से, किसी भी स्थिति में, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के बिना कोई भी व्यक्ति या ताकत उनका जीवन नहीं ले सकती। उनकी मृत्यु का अर्थ बस उनके शारीरिक जीवन का अंत है। अगर तुम्हें उनकी याद आए, तुम उनके लिए तरसते हो, या अपनी भावनाओं के चलते खुद से शर्मिंदा होते हो, तो तुम्हें इनमें से कुछ भी महसूस नहीं करना चाहिए, और इन्हें अनुभव करना जरूरी नहीं है। वे इस संसार से जा चुके हैं, इसलिए उन्हें याद करना अनावश्यक है, है कि नहीं? अगर तुम सोचते हो : ‘क्या मेरे माता-पिता इन तमाम वर्षों में मुझे याद करते रहे होंगे? इतने वर्षों तक संतानोचित निष्ठा दिखाते हुए मेरा उनके पास न रहना उनके लिए कितना कष्टप्रद रहा होगा? इन सभी वर्षों में मेरी हमेशा यह कामना रही कि मैं उनके साथ कुछ दिन बिता पाता, मुझे बिल्कुल आशा नहीं थी कि इतनी जल्दी उनका निधन हो जाएगा। मुझे दुख और अपराध-बोध होता है।’ तुम्हारा इस तरह सोचना जरूरी नहीं है, उनकी मृत्यु का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। उनका तुमसे कोई लेना-देना क्यों नहीं है? क्योंकि भले ही तुम उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाते या उनके साथ रहते, यह वह दायित्व या कार्य नहीं है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। परमेश्वर ने यह नियत किया है कि तुम्हारे माता-पिता को तुमसे कितना सौभाग्य और कितना कष्ट मिलेगा—इसका तुम्हारे साथ बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। वे इस कारण से ज्यादा लंबे समय तक नहीं जिएँगे कि तुम उनके साथ हो, और इस वजह से कम समय तक नहीं जिएँगे कि तुम उनसे बहुत दूर हो और उनके साथ अक्सर नहीं रह पाए हो। परमेश्वर ने नियत किया है कि उनका जीवन कितना लंबा होगा, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, अगर तुम यह खबर सुनते हो कि तुम्हारे माता-पिता की मृत्यु तुम्हारे जीवनकाल में हो गई है, तो तुम्हें अपराध-बोध पालने की जरूरत नहीं है। तुम्हें इस मामले को सही दृष्टि से देखकर स्वीकार करना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। “अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़कर नहीं गए होते और अपने माता-पिता के साथ ही रह रहे होते, तो क्या तुम उन्हें बीमार पड़ने से रोक सकते थे? (नहीं।) क्या यह तुम्हारे वश में है कि तुम्हारे माता-पिता जीवित रहें या मर जाएँ? क्या उनका अमीर या गरीब होना तुम्हारे वश में है? (नहीं।) तुम्हारे माता-पिता को जो भी रोग हो, वह इस वजह से नहीं है कि वे तुम्हें बड़ा करने में बहुत थक गए, या उन्हें तुम्हारी याद आई; वे खास तौर से कोई भी बड़ा, गंभीर और संभवतः जानलेवा रोग तुम्हारे कारण नहीं पकड़ेंगे। यह उनका भाग्य है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम चाहे जितने भी संतानोचित क्यों न हो, ज्यादा-से-ज्यादा तुम उनकी दैहिक पीड़ा और बोझों को कुछ हद तक कम कर सकते हो, लेकिन वे कब बीमार पड़ेंगे, उन्हें कौन-सी बीमारी होगी, उनकी मृत्यु कब और कहाँ होगी—क्या इन चीजों का तुमसे कोई लेना-देना है? नहीं, नहीं है। अगर तुम संतानोचित हो, अगर तुम लापरवाह अकृतज्ञ नहीं हो, पूरा दिन उनके साथ बिताते हो, उनकी देखभाल करते हो, तो क्या वे बीमार नहीं पड़ेंगे? क्या वे नहीं मरेंगे? अगर उन्हें बीमार पड़ना ही है, तो क्या वे कैसे भी बीमार नहीं पड़ेंगे? अगर उन्हें मरना ही है, तो क्या वे कैसे भी नहीं मर जाएँगे? क्या यह सही नहीं है?(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मैंने महसूस किया कि कब कोई व्यक्ति जन्म लेता है, कब उसकी मृत्यु होती है और उसकी आयु कितनी होती है, यह सब परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनियति का हिस्सा होता है। हमारे माता-पिता की मृत्यु कब और कैसे होगी यह भी सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और शासित होता है। मैं चीजों को परमेश्वर के वचनों के आधार पर नहीं देख रही थी और मैंने उसकी संप्रभुता को नहीं पहचाना था। मैंने सोचा कि अगर मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए बाहर नहीं गई होती, तो मैं अपने माता-पिता की देखभाल कर सकती थी और बीमार पड़ने पर उनका इलाज करा सकती थी और मुझे लगता था कि ऐसा करके वे कुछ और साल जी सकते थे और इतनी जल्दी नहीं मरते। मेरा दृष्टिकोण गैर विश्वासी जैसा ही था और बिल्कुल एक छद्म-विश्वासी के विचारों से मेल खाता था। मुझे याद आया कि जब मेरे माता-पिता पहले बीमार थे, तो मैं उनसे मिलने घर गई थी लेकिन मैं उन्हें केवल कुछ दिलासा देने वाले दो शब्द और अपना ध्यान रखने की सलाह ही दे पाई थी और उन्हें दवा खरीदने के लिए मेरे पास पड़े थोड़े से पैसे दे पाई थी। लेकिन इससे उनकी बीमारी ठीक नहीं हुई और न ही मैं उनकी पीड़ा कम कर सकी। जब मैंने विशेष रूप से परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “तुम्हारे माता-पिता को जो भी रोग हो, वह इस वजह से नहीं है कि वे तुम्हें बड़ा करने में बहुत थक गए, या उन्हें तुम्हारी याद आई; वे खास तौर से कोई भी बड़ा, गंभीर और संभवतः जानलेवा रोग तुम्हारे कारण नहीं पकड़ेंगे। यह उनका भाग्य है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है।” मुझे आखिरकार एहसास हुआ कि मेरे माता-पिता की मृत्यु का मुझसे कोई लेना-देना नहीं था और यह कि जब उनकी आयु पूरी हो गई तो उन्हें परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित समय पर इस दुनिया को छोड़ना ही था। यह उनकी नियति थी। मुझे याद आया कि मेरी माँ ने बताया था कि मेरे पिता को कई बार गंभीर हालत में अस्पताल ले जाया गया था ताकि उनका जीवन बचाया जा सके और यह कि हर किसी को लगता था कि वे मरने वाले हैं लेकिन आखिरकार वह बच गए। बहुत से लोग अपने माता-पिता के पास रहकर सालों तक उनकी देखभाल करते हैं लेकिन फिर जब वे बीमार पड़ते हैं तो उनकी मृत्यु को रोक नहीं पाते। उन पर जितना भी पैसा खर्च किया जाए उनकी जान नहीं बच सकती। मैंने देखा कि परमेश्वर हर व्यक्ति की नियति का संप्रभु है और अगर मैं अपने माता-पिता के पास रहकर उनकी देखभाल करती भी तो भी उन्हें वही बीमारियाँ होतीं जो उन्हें होनी थीं और चाहे मैं उनके इलाज पर कितना भी पैसा खर्च क्यों न करती, यह उनकी जिंदगी नहीं बचा सकता था। इसके अलावा मेरे माता-पिता दोनों साठ साल से ऊपर के थे और मेरे पिता कई सालों से अस्थमा से पीड़ित थे और हर दिन जीने के लिए दवाओं पर निर्भर रहते थे और वह बहुत दर्द में थे। अब जबकि उनका निधन हो गया था तो वह अब बीमारी से पीड़ित नहीं थे जो कि उनके लिए राहत का एक रूप था। इन विचारों को ध्यान में रखते हुए मुझे कुछ हद तक राहत महसूस हुई और मेरी स्थिति थोड़ी बेहतर हुई और मैंने अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभाना शुरू कर दिया।

एक दिन जब मैं अपना कर्तव्य निभाने बाहर गई हुई थी तो मैंने बस में एक बुजुर्ग जोड़े को देखा जो मेरे माता-पिता की उम्र के आसपास के थे और मुझे फिर से अपने माता-पिता का ख्याल आया जो गुजर चुके थे और अब मेरे साथ इस दुनिया में नहीं थे। यह सोचकर मेरी आँखों में आँसू भर आए और मैं एक बहुत ही उदास अवस्था में चली गई। विशेष रूप से नए साल के समय मैंने फिर से अपने माता-पिता के बारे में सोचा जिन्हें एक आरामदायक जीवन न दे पाने के कारण मैं खुद को असंतानोचित मान रही थी। यह मेरे लिए एक ऐसी बाधा थी जिसे मैं पार नहीं कर पा रही थी और मैं उनके प्रति बहुत कर्जदार मान रही थी। मुझे पता था कि मेरी स्थिति गलत है और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरे माता-पिता का निधन हो गया है और मैं जानती हूँ कि यह तेरी संप्रभुता और व्यवस्था है लेकिन मैं अब भी इस बात को भुला नहीं पा रही और अपराधबोध और आत्म-दोष की अवस्था में जी रही हूँ। मेरी स्थिति को हल करने में मेरी मदद कर।”

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “माता-पिता की अपेक्षाओं के विषय में क्या यह स्पष्ट है कि कौन-से सिद्धांतों का पालन करना है और कौन-से बोझों को त्याग देना है? (हाँ।) तो ठीक-ठीक वे कौन-से बोझ हैं जो लोग यहाँ ढोते हैं? उन्हें अपने माता-पिता की बात माननी चाहिए और अपने माता-पिता को अच्छा जीवन जीने देना चाहिए; उनके माता-पिता जो भी करते हैं, उनके अच्छे के लिए करते हैं; और उनके माता-पिता जिसे संतानोचित होना कहते हैं, वैसे काम करने चाहिए। इसके अतिरिक्त, वयस्कों के रूप में, उन्हें अपने माता-पिता के लिए चीजें करनी चाहिए, उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना चाहिए, उनके प्रति संतानोचित बनना चाहिए, उनके साथ रहना चाहिए, उन्हें दुखी या उदास नहीं करना चाहिए, उन्हें निराश नहीं करना चाहिए, और उनकी तकलीफें कम करने या पूरी तरह से दूर करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। अगर तुम यह हासिल नहीं कर सकते, तो तुम कृतघ्न हो, असंतानोचित हो, तुम पर बिजली गिर जानी चाहिए और दूसरों को तुम्हारा तिरस्कार करना चाहिए, और तुम एक बुरे इंसान हो। क्या ये तुम्हारे बोझ हैं? (हाँ।) चूँकि ये लोगों के बोझ हैं, इसलिए लोगों को सत्य स्वीकार कर उचित ढंग से उनका सामना करना चाहिए। सिर्फ सत्य को स्वीकार करके ही इन बोझों और गलत विचारों और नजरियों को त्यागा और बदला जा सकता है। अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं करते, तो क्या तुम्हारे सामने चलने का कोई दूसरा पथ है? (नहीं।) इस तरह परिवार के बोझों को त्यागने की बात हो या देह को, इन सबकी शुरुआत सही विचारों और नजरियों को स्वीकारने और सत्य को स्वीकारने से होती है। जब तुम सत्य को स्वीकारना शुरू करोगे, तो तुम्हारे अंदर के ये गलत विचार और नजरिये धीरे-धीरे विघटित हो जाएँगे, पूरी तरह समझ-बूझ लिए जाएँगे और फिर धीरे-धीरे ठुकरा दिए जाएँगे। विघटन, समझने-बूझने, और फिर इन गलत विचारों और नजरियों को जाने देने और ठुकराने की प्रक्रिया के दौरान, तुम धीरे-धीरे इन मामलों के प्रति अपना रवैया और नजरिया बदल दोगे। वे विचार जो तुम्हारे इंसानी जमीर या भावनाओं से आते हैं, धीरे-धीरे कमजोर पड़ जाएँगे; वे तुम्हें तुम्हारे मन की गहराई में न परेशान करेंगे, न बाँधकर रखेंगे, तुम्हारे जीवन को नियंत्रित या प्रभावित नहीं करेंगे, या तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में दखल नहीं देंगे। मिसाल के तौर पर, अगर तुमने सही विचारों और नजरियों और सत्य के इस पहलू को स्वीकार किया है, तो अपने माता-पिता की मृत्यु की खबर सुन कर तुम उनके लिए सिर्फ आँसू बहाओगे, यह नहीं सोचोगे कि कैसे इन वर्षों के दौरान तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा करने में उनकी दयालुता का कर्ज तुमने नहीं चुकाया, कैसे तुमने उन्हें बहुत दुख दिए, कैसे उनकी जरा भी भरपाई नहीं की, या कैसे तुमने उन्हें अच्छा जीवन जीने नहीं दिया। अब तुम इन चीजों के लिए खुद को दोष नहीं दोगे—बल्कि सामान्य मानवीय भावनाओं से निकलने वाली सामान्य अभिव्यक्तियाँ दर्शाओगे; तुम आँसू बहाओगे, और फिर उनके लिए थोड़ा तरसोगे। जल्दी ही ये चीजें स्वाभाविक और सामान्य हो जाएँगी, और तुम तेजी से सामान्य जीवन और अपने कर्तव्य निर्वहन में डूब जाओगे; तुम इस मामले से परेशान नहीं होगे। लेकिन अगर तुम ये सत्य स्वीकार नहीं करते, तो अपने माता-पिता की मृत्यु की खबर सुनकर तुम निरंतर रोते रहोगे। तुम्हें अपने माता-पिता पर तरस आएगा कि जीवन भर उनके लिए चीजें कठिन रहीं, और उन्होंने तुम जैसे एक असंतानोचित बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा किया; जब वे बीमार थे, तो तुम उनके सिरहाने नहीं रहे, और उनकी मृत्यु पर उनकी अंत्येष्टि के समय चीख-चीख कर रोए नहीं या शोक-संतप्त नहीं हुए; तुमने उन्हें निराश किया, उन्हें हताश किया, और तुमने उन्हें एक अच्छा जीवन नहीं जीने दिया। तुम लंबे समय तक इस अपराध बोध के साथ जियोगे, और इस बारे में जब भी सोचोगे तो रोओगे, और तुम्हारे दिल में एक टीस उठेगी। जब भी तुम्हारा सामना संबंधित हालात या लोगों, घटनाओं और चीजों से होगा, तुम भावुक हो जाओगे; यह अपराध बोध शायद शेष जीवन भर तुम्हारे साथ रहे। इसका कारण क्या है? कारण यह है कि तुमने कभी सत्य या सही विचारों और नजरियों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार नहीं किया; इसके बजाय तुम्हारे पुराने विचार और नजरिये तुम पर हावी बने रहे हैं, तुम्हारे जीवन को प्रभावित करते रहे हैं। तो तुम अपने माता-पिता की मृत्यु के कारण अपना बचा हुआ जीवन पीड़ा में बिताओगे। इस निरंतर दुख के नतीजे थोड़ी-सी दैहिक बेचैनी से बढ़ कर कहीं ज्यादा हो जाएँगे; ये तुम्हारे जीवन को प्रभावित करेंगे, ये तुम्हारे अपने कर्तव्य निर्वहन, कलीसिया के कार्य, परमेश्वर, और साथ ही तुम्हारी आत्मा को छूने वाले किसी भी व्यक्ति या मामले के प्रति तुम्हारे रवैये को भी प्रभावित करेंगे। शायद तुम और भी मामलों के प्रति भी निराश और हतोत्साहित, मायूस और निष्क्रिय हो जाओ, जीवन में विश्वास खो दो, किसी भी चीज के लिए उत्साह और अभिप्रेरणा, आदि खो दो। समय के साथ, यह प्रभाव तुम्हारे सरल दैनिक जीवन तक सीमित नहीं रहेगा; यह तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन और जीवन में जिस पथ पर चलते हो, उसके प्रति तुम्हारे रवैये को भी प्रभावित करेगा। यह बहुत खतरनाक है। इस खतरे का नतीजा यह हो सकता है कि तुम एक सृजित प्राणी के रूप में ढंग से अपने कर्तव्य न निभा सको, और आधे में ही अपना कर्तव्य निर्वहन बंद कर दो, या जिन कर्तव्यों का तुम निर्वाह करते हो उनके प्रति एक प्रतिरोधी मनोदशा और रवैया अपना लो। संक्षेप में कहें, तो ऐसी स्थिति समय के साथ जरूर बिगड़ेगी और तुम्हारी मनोदशा, भावनाओं और मानसिकता को एक घातक दिशा में ले जाएगी। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मैंने महसूस किया कि मैं दर्द और अपराधबोध में इसलिए जी रही थी क्योंकि मैंने शैतान के पारंपरिक विचारों को स्वीकार कर लिया था, जैसे “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए,” “तुम्हें अपने माता-पिता की वृद्धावस्था में देखभाल करनी चाहिए और उनके जीवन के अंत तक उनके साथ रहना चाहिए,” और “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है।” मैं यह मानती थी कि माता-पिता के प्रति संतानोचित भक्ति होना और उनकी वृद्धावस्था में उनकी देखभाल करना और उनके जीवन के अंत तक उनके साथ रहना ही एक व्यक्ति के पास अंतरात्मा और मानवता होने का प्रमाण है और यह कि अगर कोई व्यक्ति ऐसा नहीं करता तो वह नितांत अनैतिक है और उसमें मानवता की कमी है इसीलिए मेरा दिल अपराधबोध से भर गया और मुझे अपनी अंतरात्मा में दोष और असंतोष की भावना महसूस हो रही थी। अपने माता-पिता के निधन की खबर सुनने के बाद मैंने सोचा कि उन्हें मुझे पालने के लिए कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था और उन्होंने मेरे लिए कितना बलिदान किया था फिर भी मैंने उन्हें बुढ़ापे में आराम नहीं दिया या जब वे बीमार थे तब उनकी देखभाल नहीं की और उनके निधन से पहले मैं उन्हें आखिरी बार देख भी नहीं सकी। मैं लगातार खुद को असंतानोचित महसूस कर रही थी और यह कि मैंने एक बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कीं और इस वजह से दूसरे लोग मेरी निंदा करेंगे और मुझे ठुकरा देंगे और इसलिए मैं खुद को माफ नहीं कर पा रही थी। मैंने “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए”, “तुम्हें अपने माता-पिता की वृद्धावस्था में देखभाल करनी चाहिए और उनके जीवन के अंत तक उनके साथ रहना चाहिए,” और “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है” जैसे विचारों को सकारात्मक चीजें माना था लेकिन मैंने चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखा था। वास्तव में परमेश्वर इस आधार पर राय बनाता है कि किसी व्यक्ति में अंतरात्मा और मानवता है या नहीं कि क्या वह एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभा सकता है और उसे संतुष्ट कर सकता है या नहीं। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के लिए सब कुछ त्याग कर खुद को उसके लिए खपाता है और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाता है तो ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार होता है और उसमें काफी अंतरात्मा और मानवता होती है। इसके विपरीत अगर कोई व्यक्ति संतानोचित बनने के लिए अपना कर्तव्य छोड़ देता है तो भले ही वह अपने माता-पिता की बहुत अच्छी तरह से देखभाल करता हो और भले ही हर कोई उसकी प्रशंसा करता हो कि वह एक संतानोचित संतान है, ऐसा व्यक्ति दैहिक भावनाओं के लिए जी रहा होता है और स्वार्थी, घृणित और मानवता से रहित होता है। मैंने उन संतों के बारे में सोचा जिन्होंने इतिहास में प्रभु के सुसमाचार का प्रचार करने के लिए अपने परिवारों और नौकरियों को त्याग दिया था। लोगों को परमेश्वर के पास लाने और उन्हें उसका उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बनाने के लिए, उन्होंने अपनी मातृभूमि और परिवार छोड़ दिया था। लोगों की नजरों में वे अपने परिवार की देखभाल न करने या अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित न होने के कारण भावनाहीन लगते थे लेकिन परमेश्वर की नजरों में उन्होंने एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा किया था और उनमें अंतरात्मा और मानवता थी। उनके कार्यों को परमेश्वर द्वारा स्मरण किया गया। मैं परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग का अनुसरण कर रही थी, सीसीपी के उत्पीड़न का सामना कर रही थी और अपने घर लौटने में असमर्थ थी। मैं केवल अपनी परिस्थितियों के कारण अपने माता-पिता की देखभाल नहीं कर सकी, न कि अपनी संतानोचित धर्मनिष्ठा या अंतरात्मा की कमी के कारण। मेरे परिवार ने मुझे चाहे जैसे भी देखा हो या गैर-विश्वासियों ने मुझे कितना भी डाँटा हो, मैं जिस मार्ग पर चल रही थी वह गलत नहीं था। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि दूसरे मुझे किस तरह देखते हैं बल्कि जो महत्वपूर्ण है वह यह है कि क्या मैं परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकती हूँ। यही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। मैं अपने माता-पिता की मृत्यु के कारण उनकी कर्जदार होने और दर्द की स्थिति में जी रही थी, मैं परमेश्वर के प्रति शिकायत और विद्रोह रखती थी और अपने कर्तव्य में वफादार नहीं थी। तो फिर आखिर इस अवस्था में मुझमें मानवता और अंतरात्मा कहाँ थी? परमेश्वर ने मुझे जीवन दिया था, मेरी देखभाल और मेरी रक्षा की थी और मेरी हर आवश्यकता को पूरा किया था लेकिन फिर भी मैं उसके प्रति शिकायत कर रही थी। मैं सही और गलत में अंतर करने में सचमुच असमर्थ थी और बिल्कुल अनुचित थी! इन बातों को समझते हुए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं अपने माता-पिता के निधन के दर्द में नहीं जीना चाहती, मैं तेरे सामने पश्चाताप करना चाहती हूँ।”

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “आओ तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें जन्म देने के मामले पर गौर करें। यह किसने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें : तुमने या तुम्हारे माता-पिता ने? किसने किसे चुना? अगर इस पर तुम परमेश्वर के दृष्टिकोण से गौर करो, तो जवाब है : तुममें से किसी ने भी नहीं। न तुमने और न ही तुम्हारे माता-पिता ने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें। अगर तुम इस मामले की जड़ पर गौर करो, तो यह परमेश्वर द्वारा नियत था। इस विषय को फिलहाल हम अलग रख देंगे, क्योंकि लोगों के लिए यह मामला समझना आसान है। अपने नजरिये से, तुम निश्चेष्टा से, इस मामले में बिना किसी विकल्प के, अपने माता-पिता के यहाँ पैदा हुए। माता-पिता के नजरिये से, उन्होंने तुम्हें अपनी स्वतंत्र इच्छा से जन्म दिया, है ना? दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के विधान को अलग रखकर तुम्हें जन्म देने के मामले को देखें, तो ये तुम्हारे माता-पिता ही थे जिनके पास संपूर्ण शक्ति थी। उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है और उन्होंने ही तमाम फैसले लिए। उनके लिए तुमने नहीं चुना कि वे तुम्हें जन्म दें, तुमने निश्चेष्टा से उनके यहाँ जन्म लिया, और इस मामले में तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। तो चूँकि तुम्हारे माता-पिता के पास संपूर्ण शक्ति थी और उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है, तो यह उनका दायित्व और जिम्मेदारी है कि वे तुम्हें पालें-पोसें, बड़ा करें, शिक्षा दें, खाना, कपड़े और पैसे दें—यह उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है, और यह उन्हें करना ही चाहिए। वे जब तुम्हें बड़ा कर रहे थे, तब तुम हमेशा निश्चेष्ट थे, तुम्हारे पास चुनने का हक नहीं था—तुम्हें उनके हाथों ही बड़ा होना था। चूँकि तुम छोटे थे, तुम्हारे पास खुद को पाल-पोस कर बड़ा करने की क्षमता नहीं थी, तुम्हारे पास निश्चेष्टा से अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किए जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। तुम उसी तरह बड़े हुए जैसे तुम्हारे माता-पिता ने चुना, अगर उन्होंने तुम्हें बढ़िया चीजें खाने-पीने को दीं, तो तुमने बढ़िया खाना खाया-पिया। अगर तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जीने का ऐसा माहौल दिया जहाँ तुम्हें भूसा और जंगली पौधे खाकर जिंदा रहना पड़ता, तो तुम भूसे और जंगली पौधों पर जिंदा रहते। किसी भी स्थिति में, अपने पालन-पोषण के समय तुम निश्चेष्ट थे, और तुम्हारे माता-पिता अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे। यह वैसी ही बात है जैसे कि तुम्हारे माता-पिता किसी फूल की देखभाल कर रहे हों। चूँकि वे फूल की देखभाल की चाह रखते हैं, इसलिए उन्हें उसे खाद देना चाहिए, सींचना चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे धूप मिले। तो लोगों की बात करें, तो तुम्हारे माता-पिता ने सावधानी से तुम्हारी देखभाल की हो या तुम्हारी बहुत परवाह की हो, किसी भी स्थिति में, वे बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे। तुम्हें उन्होंने जिस भी कारण से पाल-पोस कर बड़ा किया हो, यह उनकी जिम्मेदारी थी—चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, इसलिए उन्हें तुम्हारी जिम्मेदारी उठानी चाहिए। इस आधार पर, जो कुछ भी तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए किया, क्या उसे दयालुता कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता, सही है? (सही है।) तुम्हारे माता-पिता का तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करने को दयालुता नहीं माना जा सकता, तो अगर वे किसी फूल या पौधे के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं, उसे सींच कर उसे खाद देते हैं, तो क्या उसे दयालुता कहेंगे? (नहीं।) यह दयालुता से कोसों दूर की बात है। फूल और पौधे बाहर बेहतर ढंग से बढ़ते हैं—अगर उन्हें जमीन में लगाया जाए, उन्हें हवा, धूप और बारिश का पानी मिले, तो वे पनपते हैं। वे घर के अंदर गमलों में बाहर जैसे अच्छे ढंग से नहीं पनपते, लेकिन वे जहाँ भी हों, जीवित रहते हैं, है ना? वे चाहे जहाँ भी हों, इसे परमेश्वर ने नियत किया है। तुम एक जीवित व्यक्ति हो, और परमेश्वर प्रत्येक जीवन की जिम्मेदारी लेता है, उसे इस योग्य बनाता है कि वह जीवित रहे और उस विधि का पालन करे जिसका सभी सृजित प्राणी पालन करते हैं। लेकिन एक इंसान के रूप में, तुम उस माहौल में जीते हो, जिसमें तुम्हारे माता-पिता तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करते हैं, इसलिए तुम्हें उस माहौल में बड़ा होना और टिके रहना पड़ता है। उस माहौल में तुम काफी हद तक परमेश्वर द्वारा नियत होने के कारण जी रहे हो; कुछ हद तक इसका कारण अपने माता-पिता के हाथों पालन-पोषण है, है ना? किसी भी स्थिति में, तुम्हें पाल-पोसकर तुम्हारे माता-पिता एक जिम्मेदारी और एक दायित्व निभा रहे हैं। तुम्हें पाल-पोस कर वयस्क बनाना उनका दायित्व और जिम्मेदारी है, और इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता। अगर इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता, तो क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसका तुम्हें मजा लेना चाहिए? (जरूर है।) यह एक प्रकार का अधिकार है जिसका तुम्हें आनंद लेना चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किया जाना चाहिए, क्योंकि वयस्क होने से पहले तुम्हारी भूमिका एक पाले-पोसे जा रहे बच्चे की होती है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे प्रति सिर्फ एक जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं, और तुम बस इसे प्राप्त कर रहे हो, लेकिन निश्चित रूप से तुम उनसे अनुग्रह या दया प्राप्त नहीं कर रहे हो। किसी भी जीवित प्राणी के लिए बच्चों को जन्म देकर उनकी देखभाल करना, प्रजनन करना और अगली पीढ़ी को बड़ा करना एक किस्म की जिम्मेदारी है। मिसाल के तौर पर पक्षी, गायें, भेड़ें और यहाँ तक कि बाघिनें भी बच्चे जनने के बाद अपनी संतान की देखभाल करती हैं। ऐसा कोई भी जीवित प्राणी नहीं है जो अपनी संतान को पाल-पोस कर बड़ा न करता हो। कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन ये ज्यादा नहीं हैं। जीवित प्राणियों के अस्तित्व में यह एक कुदरती घटना है, जीवित प्राणियों का यह सहज ज्ञान है, और इसे दयालुता का लक्षण नहीं माना जा सकता। वे बस उस विधि का पालन कर रहे हैं जो सृष्टिकर्ता ने जानवरों और मानवजाति के लिए स्थापित की है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता का तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना किसी प्रकार की दयालुता नहीं है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। वे तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं। वे तुम पर चाहे जितनी भी मेहनत करें, जितना भी पैसा लगाएँ, उन्हें तुमसे इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए, क्योंकि माता-पिता के रूप में यह उनकी जिम्मेदारी है। चूँकि यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है, इसलिए इसे मुफ्त होना चाहिए, और उन्हें इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मैंने महसूस किया कि मेरे माता-पिता ने मुझे जन्म देने के बाद जो मेरा पालन-पोषण किया है यह उनकी जिम्मेदारी और कर्तव्य था और इसे उपकार नहीं माना जा सकता। मैंने सत्य को नहीं समझा था और अपने माता-पिता की देखभाल और परवरिश को उपकार समझा था और यह सोचा था कि क्योंकि उन्होंने मेरे लिए बहुत कुछ किया है और मुझ पर बहुत दयालुता दिखाई है इसलिए मुझे उनके उपकार का बदला चुकाना चाहिए। जब मेरे माता-पिता बीमार थे तो मैं उनकी देखभाल करने के लिए वापस नहीं गई और जब उनका निधन हो गया तो मैंने उन्हें आखिरी बार देखा भी नहीं था। मैं खुद को अपने माता-पिता की बहुत बड़ी कर्जदार महसूस कर रही थी लेकिन परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मैंने महसूस किया कि बच्चों को वयस्कता तक पहुँचाना माता-पिता का कर्तव्य होता है। यह उनकी जिम्मेदारी होती है। जैसे एक व्यक्ति जो गमले में लगे पौधे की देखभाल करता है, यह उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह उसे पानी दे और उसमें खाद डाले और इस कार्य को दयालुता नहीं माना जाता। मेरे माता-पिता की भलाई और उन्होंने मेरे लिए जो कुछ भी किया था वह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था से निकला था और मुझे इसे परमेश्वर की ओर से आया मानकर स्वीकारना चाहिए। मुझ पर अपने माता-पिता के प्रति कोई कर्ज नहीं था और न ही मुझे किसी चीज का बदला चुकाने या मुआवजा देने की आवश्यकता थी। इस बात को समझने के बाद मेरे दिल का दर्द कुछ हद तक कम हो गया।

मुझे अपने माता-पिता को लेकर सही दृष्टिकोण अपनाने के बारे में परमेश्वर के वचनों में एक मार्ग मिला। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं—यानी तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचते रहना चाहिए कि सिर्फ इसलिए कि उन्होंने इतने वर्ष खप कर तुम्हें पाला-पोसा और बड़ा किया, तुम्हें उनका कर्ज चुकाना ही चाहिए। अगर तुम उनका कर्ज नहीं चुका पाते, अगर तुम्हारे पास उनका कर्ज चुकाने का मौका या सही हालात नहीं हैं, तो तुम हमेशा दुखी और अपराधी महसूस करते रहोगे, इस हद तक कि जब भी तुम किसी को अपने माता-पिता की देखभाल करते या संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए कुछ करते हुए देखोगे, तुम दुखी और अपराधी महसूस करने लगोगे। परमेश्वर ने यह नियत किया था कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारा पालन-पोषण करेंगे, तुम्हें वयस्क होने योग्य बनाएँगे, इसलिए नहीं कि तुम उनका कर्ज चुकाते हुए जीवन गुजार दो। इस जीवन में निभाने के लिए तुम्हारे पास अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं, एक पथ है जिस पर तुम्हें चलना है, और तुम्हारा अपना जीवन है। इस जीवन में तुम्हें अपनी सारी ताकत अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने में नहीं लगा देनी चाहिए। यह बस ऐसी चीज है जो तुम्हारे जीवन और जीवन पथ में तुम्हारे साथ रहती है। मानवता और भावनात्मक रिश्तों के संदर्भ में यह ऐसी चीज है जिससे बचा नहीं जा सकता। लेकिन तुम्हारा और तुम्हारे माता-पिता का कैसा रिश्ता नियत है, क्या तुम लोग बाकी जीवन साथ गुजारोगे या अलग हो जाओगे, और भाग्य की डोर से जुड़े नहीं रहोगे, यह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं पर निर्भर करता है। अगर परमेश्वर ने यह आयोजन और व्यवस्था की है कि तुम इस जीवन में अपने माता-पिता से अलग जगह पर रहोगे, उनसे बहुत दूर रहोगे और अक्सर साथ नहीं रह पाओगे, तो उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना तुम्हारी बस एक आकांक्षा ही है। अगर परमेश्वर ने व्यवस्था की है कि तुम इस जीवन में अपने माता-पिता के बहुत पास रहोगे, उनके साथ रह सकोगे, तो उनके प्रति अपनी थोड़ी-सी जिम्मेदारियाँ निभाना और संतानोचित निष्ठा दिखाना ऐसी चीजें हैं जो तुम्हें इस जीवन में करनी चाहिए—इस बारे में आलोचना करने लायक कुछ नहीं है। लेकिन अगर तुम अपने माता-पिता से अलग किसी और जगह हो, तुम्हारे पास उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाने का मौका या सही हालात नहीं हैं, तो तुम्हें इस पर शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है। संतानोचित निष्ठा न दिखा पाने के कारण तुम्हें अपने माता-पिता को मुँह दिखाने में शर्मिंदा नहीं होना चाहिए, बात बस इतनी है कि तुम्हारे हालात इसकी अनुमति नहीं देते। एक बच्चे के तौर पर तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें इस जीवन में करनी हैं, ये सब ऐसी चीजें हैं जो एक सृजित प्राणी को करनी ही चाहिए, जो तुम्हें सृष्टि प्रभु ने सौंपी हैं, और इनका तुम्हारे माता-पिता को दयालुता का कर्ज चुकाने के साथ कोई लेना-देना नहीं है। अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना, उनकी दयालुता का बदला चुकाना—इन चीजों का तुम्हारे जीवन के उद्देश्य से कोई लेना-देना नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हारे लिए अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना या उनके प्रति अपनी कोई भी जिम्मेदारी पूरी करना जरूरी नहीं है। दो टूक शब्दों में कहें, तो तुम्हारे हालात इजाजत दें, तो तुम यह थोड़ा-बहुत कर सकते हो और अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो; जब हालात इजाजत न दें, तो तुम्हें ऐसा करने पर अड़ना नहीं चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाने की जिम्मेदारी पूरी न कर सको, तो यह कोई भयानक बात नहीं है, बस यह तुम्हारे जमीर, मानवीय नैतिकता और मानवीय धारणाओं के थोड़ा खिलाफ है। मगर कम-से-कम यह सत्य के विपरीत नहीं है, और परमेश्वर इसे लेकर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। जब तुम सत्य को समझ लेते हो, तो इसे लेकर तुम्हारे जमीर को फटकार महसूस नहीं होगी। अब चूँकि तुमने सत्य के इस पहलू को समझ लिया है, तो क्या तुम्हारा दिल स्थिर महसूस नहीं कर रहा है? (हाँ।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि मेरे माता-पिता मेरे लेनदार नहीं थे। अंत के दिनों में मेरा जन्म परमेश्वर की पूर्वनियति थी और इसका उद्देश्य मेरे माता-पिता का कर्ज चुकाना या उनके प्रति संतानोचित होना नहीं था बल्कि उस मिशन को पूरा करना था जो मुझे पूरा करना चाहिए अर्थात एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना, जैसा कि एक व्यक्ति के रूप में मेरा दायित्व है। संतानोचित धर्मनिष्ठा अपनी परिस्थितियों के आधार पर होनी चाहिए। संतान होने की जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए एक व्यक्ति अपने माता-पिता से मिलने जा सकता है बशर्ते कि इससे उसके कर्तव्य में कोई देरी न हो। लेकिन अगर कोई अपने कर्तव्य को निभाने के दौरान अपने माता-पिता के पास रहने और उनकी देखभाल करने का अवसर नहीं पाता तो उसे खुद को कर्जदार या दोषी महसूस करने की कोई आवश्यकता नहीं है। महत्वपूर्ण समय पर हमेशा कर्तव्यों को प्राथमिकता देनी चाहिए। यह बात विशेष रूप से तब स्पष्ट हुई जब मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मानवजाति के एक सदस्य और मसीह के समर्पित अनुयायियों के रूप में अपने मन और शरीर परमेश्वर के आदेश की पूर्ति करने के लिए समर्पित करना हम सभी की जिम्मेदारी और दायित्व है, क्योंकि हमारा संपूर्ण अस्तित्व परमेश्वर से आया है, और वह परमेश्वर की संप्रभुता के कारण अस्तित्व में है। यदि हमारे मन और शरीर परमेश्वर के आदेश और मानवजाति के न्यायसंगत कार्य को समर्पित नहीं हैं, तो हमारी आत्माएँ उन लोगों के सामने शर्मिंदा महसूस करेंगी, जो परमेश्वर के आदेश के लिए शहीद हुए थे, और परमेश्वर के सामने तो और भी अधिक शर्मिंदा होंगी, जिसने हमें सब-कुछ प्रदान किया है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है)। परमेश्वर मानव जीवन का स्रोत है। मेरा जीवन परमेश्वर द्वारा दिया गया है और आज जो मैं जीवित हूँ, यह भी परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा के कारण ही है। आज एक सृजित प्राणी के रूप में कर्तव्य निभाना मेरी जिम्मेदारी और दायित्व है। इस बात को समझने के बाद मैं अपने माता-पिता के निधन को सही दृष्टिकोण से देख सकती हूँ।

हालाँकि मैं अभी भी कभी-कभी अपने माता-पिता के बारे में सोचती हूँ लेकिन अब मैं इस सोच से बंधी नहीं हूँ और अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित कर पा रही हूँ। यह परमेश्वर के वचन ही हैं जिन्होंने मुझे इस बात को समझने में मार्गदर्शन दिया कि अपने माता-पिता के निधन को सही तरीके से कैसे देखा जाए और अपने माता-पिता को देखने के सिद्धांतों का अभ्यास कैसे किया जाए। मैं अब अपने दर्द से बाहर आ चुकी हूँ। परमेश्वर के उद्धार के लिए मैं उसका धन्यवाद करती हूँ!

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