82. अपनी माँ के निधन के दुःख से मैं कैसे उबरी
जून 2019 में मैं अपने कर्तव्य करने के लिए दूसरे क्षेत्र में गई थी। मैं एक साल से अधिक समय तक घर नहीं लौटी तो मेरे अविश्वासी पति ने मेरी और मेरी माँ की शिकायत कर दी। पुलिस द्वारा पकड़े जाने से बचने के लिए तभी से मेरी घर लौटने की हिम्मत नहीं हुई, न ही मैंने अपनी माँ से मिलने की हिम्मत की। मैं अक्सर उसके बारे में सोचती थी, “मेरी माँ बूढ़ी हो रही है, मेरे पिता का निधन जल्दी हो गया था और उसकी देखभाल के लिए उसका कोई रिश्तेदार भी नहीं है। अब जब मेरे पति ने उसकी शिकायत कर दी है तो वह भाई-बहनों से बात करने की हिम्मत नहीं करती। मुझे नहीं पता कि उसकी स्थिति क्या है या अभी उसकी कैसे निभ रही है।” मेरी माँ ने मुझे पालने के लिए कड़ी मेहनत की थी और अब जब वह बूढ़ी थी और उसे अपनी देखभाल के लिए किसी की जरूरत थी तो न केवल मैं संतान का कर्तव्य निभाने के लिए उसके साथ रहने में असमर्थ थी, बल्कि मैंने उसे फँसा दिया था और डर में जीने को मजबूर कर दिया था। जब भी मैं इस बारे में सोचती, मैं वास्तव में व्यथित हो जाती और अपनी माँ के प्रति ऋणी महसूस करती और मैं उस दिन का इंतजार करती जब मैं उससे मिलने और उसकी संतान के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने लौट पाऊँगी। लेकिन मुझे घर लौटने पर पुलिस द्वारा पकड़े जाने का डर था और मैं अपने कर्तव्य करने में व्यस्त रही, इसलिए मैं उससे मिलने घर नहीं जा पाई।
जुलाई 2023 में एक सभा के दौरान मुझे एक बहन से पता चला कि मेरी माँ को मनोभ्रंश हो गया है और वह अब खुद की देखभाल नहीं कर पाती और एक नर्सिंग होम में रह रही है। मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। मेरी माँ को मनोभ्रंश कैसे हो सकता है? वह खुद अपनी देखभाल नहीं कर सकती थी और उसकी देखभाल के लिए कोई रिश्तेदार भी आसपास नहीं था। यहाँ तक कि मैं कल्पना भी नहीं कर पाई कि वह कितनी पीड़ा झेल रही होगी! मैंने सभा के दौरान अपनी भावनाओं पर काबू रखा। बाद में जब मैं रात को शांत हो गई तो सोचा, “मेरी माँ को मनोभ्रंश कैसे हो सकता है? अगर उसे कोई दूसरी बीमारी होती तो कम से कम उसका मन साफ रह पाता और अपनी बीमारी में वह आत्म-चिंतन कर पाती, खुद को समझ पाती, सबक सीख पाती और शायद वह बीमारी से उबर पाने में सक्षम होती। लेकिन अब जब वह सामान्य रूप से काम नहीं कर रही है तो उसके बचाए जाने की कोई उम्मीद कैसे हो सकती है?” मुझे यह भी महसूस हुआ कि मेरी माँ को मनोभ्रंश इसलिए हुआ होगा क्योंकि मेरे पति ने मेरी माँ और मेरे बारे में रिपोर्ट की थी। इसने उसे सभाओं और अपने कर्तव्यों से दूर रखा और उसे मेरी चिंता भी करनी पड़ी। इससे उसके मन पर प्रभाव पड़ा होगा। अगर मैं अपने गृहनगर में अपने कर्तव्य करने में सक्षम होती तो मैं उसकी देखभाल कर पाती और उसके साथ परमेश्वर के वचनों की संगति भी कर पाती और उसकी मदद भी कर पाती और शायद उसे यह बीमारी न हुई होती। इस समय जब मेरी माँ को मेरी देखभाल की सबसे अधिक आवश्यकता थी, मैं उसके साथ नहीं रह पाई। मेरी जैसी बेटी को पालने-पोसने का आखिर क्या मतलब रह गया? मैं अपनी माँ के प्रति बहुत ऋणी महसूस करती थी। मुझमें अपने कर्तव्य करने के लिए कोई प्रेरणा नहीं बची थी और यहाँ तक कि उन्हें करने के लिए दूसरे क्षेत्र में आने का पछतावा भी था।
जब सुपरवाइजर को मेरी स्थिति का पता चला तो उसने मेरे लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “तुम्हें अपने माता-पिता के गंभीर रूप से बीमार पड़ने या किसी बड़ी विपत्ति में फँसने का बहुत ज्यादा विश्लेषण या जाँच-पड़ताल नहीं करनी चाहिए, और निश्चित रूप से बहुत-सी ऊर्जा इसमें नहीं लगानी चाहिए—ऐसा करने का कोई लाभ नहीं होगा। लोगों का जन्म लेना, बूढ़े होना, बीमार पड़ना, मर जाना और जीवन में तरह-तरह की छोटी-बड़ी चीजों का सामना करना बड़ी सामान्य घटनाएँ हैं। अगर तुम वयस्क हो, तो तुम्हें सयाने तरीके से सोचना चाहिए, और इस मामले को शांत और सही ढंग से देखना चाहिए : ‘मेरे माता-पिता बीमार हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें मेरी बहुत याद आती थी, क्या यह संभव है? वे यकीनन मुझे याद करते थे—कोई व्यक्ति अपने बच्चे को कैसे याद नहीं करेगा? मुझे भी उनकी बहुत याद आई, तो फिर मैं बीमार क्यों नहीं पड़ा?’ क्या कोई व्यक्ति अपने बच्चों की याद आने के कारण बीमार पड़ जाता है? बात ऐसी नहीं है। तो जब तुम्हारे माता-पिता का ऐसे अहम मामलों से सामना होता है, तो क्या हो रहा होता है? बस यही कहा जा सकता है कि परमेश्वर ने उनके जीवन में ऐसा मामला आयोजित किया। यह परमेश्वर के हाथ से आयोजित हुआ—तुम वस्तुपरक कारणों और प्रयोजनों पर ध्यान नहीं लगा सकते—इस उम्र के होने पर तुम्हारे माता-पिता को इस मामले का सामना करना ही था, इस रोग से बीमार पड़ना ही था। तुम्हारे वहाँ होने पर क्या वे इससे बच जाते? अगर परमेश्वर ने उनके भाग्य के अंश के रूप में उनके बीमार पड़ने की व्यवस्था न की होती, तो तुम्हारे उनके साथ न होने पर भी कुछ न हुआ होता। अगर उनके लिए अपने जीवन में इस किस्म की महाविपत्ति का सामना करना नियत था, तो उनके साथ होकर भी तुम क्या प्रभाव डाल सकते थे? वे तब भी इससे बच नहीं सकते थे, सही है न? (सही है।) उन लोगों के बारे में सोचो जो परमेश्वर में यकीन नहीं करते—क्या उनके परिवार के सभी सदस्य साल-दर-साल साथ नहीं रहते? जब उन माता-पिता का महाविपत्ति से सामना होता है, तो उनके विस्तृत परिवार के सदस्य और बच्चे सब उनके साथ होते हैं, है कि नहीं? जब माता-पिता बीमार पड़ते हैं या जब उनकी बीमारियाँ बदतर हो जाती हैं, तो क्या इसका कारण यह है कि उनके बच्चों ने उन्हें छोड़ दिया? बात यह नहीं है, ऐसा होना ही था। बात बस इतनी है कि चूँकि बच्चे के तौर पर तुम्हारा अपने माता-पिता के साथ खून का रिश्ता है, इसलिए उनके बीमार होने की बात सुनकर तुम परेशान हो जाते हो, जबकि दूसरे लोगों को कुछ महसूस नहीं होता। यह बहुत सामान्य है। लेकिन, तुम्हारे माता-पिता के ऐसी महाविपत्ति का सामना करने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करने की जरूरत है, या यह चिंतन करने की जरूरत है कि इससे कैसे मुक्त हों या इसे कैसे दूर करें। तुम्हारे माता-पिता वयस्क हैं; उन्होंने समाज में इसका कई बार सामना किया है। अगर परमेश्वर उन्हें इससे मुक्त करने के माहौल की व्यवस्था करता है, तो देर-सबेर यह पूरी तरह से गायब हो जाएगी। अगर यह मामला उनके जीवन में एक रोड़ा है और उन्हें इसका अनुभव होना ही है, तो यह परमेश्वर पर निर्भर है कि उन्हें कब तक इसका अनुभव करना होगा। इसका उन्हें अनुभव करना ही है, और वे इससे बच नहीं सकते। अगर तुम अकेले ही इस मामले को सुलझाना चाहते हो, इसके स्रोत, कारणों और नतीजों का विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करना चाहते हो, तो यह एक मूर्खतापूर्ण विचार है। इसका कोई लाभ नहीं, और यह बेकार है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि लोगों का जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु परमेश्वर द्वारा नियत व्यवस्थाएँ हैं। जीवन में व्यक्ति को जिन कठिनाइयों और पीड़ाओं से गुजरना पड़ता है, वे सभी परमेश्वर द्वारा पहले से तय होती हैं और मुझे मानवीय परिप्रेक्ष्य से इन चीजों का विश्लेषण या अध्ययन नहीं करना चाहिए। मुझे जो करना चाहिए वह यह है कि उन्हें परमेश्वर से स्वीकार करूँ और उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना सीखूँ। मेरी माँ को मनोभ्रंश हो गया था और उसे इस पीड़ा को सहन करना चाहिए था, यह उसकी किस्मत से संबंधित थी और यह मेरे बारे में चिंता करने या उसकी देखभाल करने के लिए मेरे वहाँ न होने के कारण नहीं हुई थी। लेकिन मैंने गलती से सोच लिया था कि अगर मैं उसकी देखभाल करने और उसके जीवन प्रवेश करने में उसकी मदद करने के लिए वहाँ होती तो उसे यह बीमारी नहीं हुई होती। यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को लेकर गलतफहमी और एक विकृत विचार था। मैंने इस दुनिया के माताओं-पिताओं के बारे में सोचा, जिनमें से कुछ के पास उनके साथ रहने और देखभाल करने के लिए बच्चे हैं। तब भी वे उन बीमारियों से पीड़ित हो जाते हैं जो उन पर आनी होती हैं और अपने नियत समय पर मर जाते हैं। देखभाल करने के लिए बच्चों के उनके साथ होने से उन्हें बड़ी पीड़ा से छूट नहीं मिल जाती। मेरी माँ की बीमारी और उसकी गंभीरता सब कुछ परमेश्वर ने तय कर रखा था। अगर मैं घर जाती तो मैं बस उसकी कुछ देखभाल कर पाती, लेकिन मैं उसकी पीड़ा को हल्का नहीं कर पाती। मुझे समर्पण कर अपनी माँ की बीमारी को परमेश्वर को सौंपना था, उसी को सब कुछ आयोजित और व्यवस्थित करने देना था और अपने कर्तव्यों में दिल लगाना था।
जनवरी 2024 में मुझे अचानक पता चला कि एक महीने पहले अपनी बीमारी के कारण मेरी माँ चल बसी। इस खबर ने मुझे झकझोर दिया। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरी माँ इतनी जल्दी चली जाएगी। इन पिछले कुछ सालों से मैं उम्मीद करती आ रही थी कि मुझे वापस जाकर अपनी माँ से मिलने का मौका मिलेगा, लेकिन इससे पहले कि मैं अपना संतानोचित कर्तव्य पूरा कर पाती, वह हमेशा के लिए इस दुनिया से चली गई। अब उसके प्रति संतानोचित होने का मेरे पास मौका नहीं बचा था। मैं वास्तव में व्यथित महसूस कर रही थी और अपने आँसू नहीं रोक पा रही थी। मैं परमेश्वर को पुकारती रही, उससे विनती करती रही कि वह मुझे अपने खिलाफ शिकायत करने या उसे गलत समझने से रोके। मैं पूरी दोपहर अपने कंप्यूटर के सामने स्तब्ध बैठी रही, अपना कर्तव्य करने का दिल नहीं किया। मैंने सोचा कि कैसे मैंने अपनी माँ की बीमारी में उसकी देखभाल नहीं की थी और कैसे मैं उसके मरने से पहले उसे आखिरी बार देख भी नहीं पाई और मुझे गहराई से लगा कि मैं अपराधी और ऋणी हूँ। मुझे पता था कि मेरे रिश्तेदार और परिचित अंतरात्मा न होने के लिए मेरी आलोचना करेंगे, कहेंगे मैं कृतघ्न हूँ, मैंने बेटी होने का कर्तव्य नहीं निभाया। अगले कुछ दिन हालाँकि मैं अपने कर्तव्य कर रही थी पर मैं पूरी तरह से निरुत्साहित थी। मेरे मन में बीमारी से पीड़ित अपनी माँ की छवियाँ छाई हुई थीं और मैं सोच रही थी कि उसने कितना चाहा होगा कि मैं मरने से पहले उसे आखिरी बार देखने घर चली आऊँ। जितना ही मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही मैंने अपनी माँ के प्रति ऋणी महसूस किया और खुद को रोने से नहीं रोक पाई। उन कुछ दिनों मुझे थोड़ा भी होश नहीं था। बाद में मुझे एहसास हुआ कि इस तरह से जीना खतरनाक था तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, परमेश्वर से मुझे मेरे स्नेह के बंधनों से मुक्त कराने और परेशान न होने के लिए मार्गदर्शन करने को कहा। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जो मेरे लिए काफी मददगार था। परमेश्वर कहता है : “अपने माता-पिता का बीमार होना तुम्हारे लिए पहले से ही एक गहरा झटका है, तो उनका निधन उससे भी बड़ा झटका होगा। तो फिर निधन होने से पहले तुम्हें उस अप्रत्याशित झटके का समाधान कैसे करना चाहिए, ताकि यह तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन या चलने के पथ में रुकावट न डाले? सबसे पहले आओ देखें वास्तव में मृत्यु का अर्थ क्या है और गुजर जाना क्या होता है—क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई व्यक्ति इस दुनिया को छोड़ रहा है? (हाँ।) इसका अर्थ है कि शारीरिक मौजूदगी वाला किसी व्यक्ति का जीवन मनुष्य द्वारा देखे जा सकने वाले भौतिक संसार से हटा दिया जाता है और फिर वह गायब हो जाता है। वह व्यक्ति फिर किसी और दुनिया में, किसी और रूप में जीने के लिए चला जाता है। तुम्हारे माता-पिता के जीवन के प्रस्थान का अर्थ है कि इस संसार में उनसे तुम्हारा रिश्ता भंग, गायब और खत्म हो चुका है। वे किसी और दुनिया में किसी और रूप में जी रहे हैं। उस दूसरी दुनिया में उनका जीवन किस तरह चलेगा, क्या वे इस दुनिया में लौटकर आएँगे, तुमसे फिर मिलेंगे या तुम्हारे साथ उनका कोई शारीरिक संबंध होगा या वे तुमसे किसी भावनात्मक जाल में उलझेंगे, यह परमेश्वर द्वारा नियत है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। कुल मिलाकर, उनके निधन का अर्थ है कि इस दुनिया में उनके उद्देश्य पूरे हो चुके हैं, और उनके पीछे एक पूर्ण विराम लग चुका है। इस जीवन और संसार में उनका उद्देश्य समाप्त हो चुका है, इसलिए उनके साथ तुम्हारा रिश्ता भी खत्म हो चुका है। ... तुम्हारे माता-पिता की मृत्यु बस वह आखिरी खबर होगी जो तुम इस संसार में उनके बारे में सुनोगे और वह अंतिम चरण होगा जो तुम उनके जन्म लेने, बूढ़े होने, बीमार पड़ने और मर जाने के अनुभवों के बारे में सुनोगे या देखोगे, बस और कुछ नहीं। उनकी मृत्यु तुमसे कुछ लेकर नहीं जाएगी न तुम्हें कुछ देगी, वे बस गुजर चुके होंगे, मनुष्यों के रूप में उनकी यात्रा समाप्त हो चुकी होगी। इसलिए उनकी मृत्यु की बात हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी मृत्यु दुर्घटना से हुई, सामान्य रूप से हुई, या बीमारी वगैरह से, किसी भी स्थिति में, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के बिना कोई भी व्यक्ति या ताकत उनका जीवन नहीं ले सकती। उनकी मृत्यु का अर्थ बस उनके शारीरिक जीवन का अंत है। अगर तुम्हें उनकी याद आए, तुम उनके लिए तरसते हो, या अपनी भावनाओं के चलते खुद से शर्मिंदा होते हो, तो तुम्हें इनमें से कुछ भी महसूस नहीं करना चाहिए, और इन्हें अनुभव करना जरूरी नहीं है। वे इस संसार से जा चुके हैं, इसलिए उन्हें याद करना अनावश्यक है, है कि नहीं? अगर तुम सोचते हो : ‘क्या मेरे माता-पिता इन तमाम वर्षों में मुझे याद करते रहे होंगे? इतने वर्षों तक संतानोचित निष्ठा दिखाते हुए मेरा उनके पास न रहना उनके लिए कितना कष्टप्रद रहा होगा? इन सभी वर्षों में मेरी हमेशा यह कामना रही कि मैं उनके साथ कुछ दिन बिता पाता, मुझे बिल्कुल आशा नहीं थी कि इतनी जल्दी उनका निधन हो जाएगा। मुझे दुख और अपराध-बोध होता है।’ तुम्हारा इस तरह सोचना जरूरी नहीं है, उनकी मृत्यु का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। उनका तुमसे कोई लेना-देना क्यों नहीं है? क्योंकि भले ही तुम उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाते या उनके साथ रहते, यह वह दायित्व या कार्य नहीं है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। परमेश्वर ने यह नियत किया है कि तुम्हारे माता-पिता को तुमसे कितना सौभाग्य और कितना कष्ट मिलेगा—इसका तुम्हारे साथ बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। वे इस कारण से ज्यादा लंबे समय तक नहीं जिएँगे कि तुम उनके साथ हो, और इस वजह से कम समय तक नहीं जिएँगे कि तुम उनसे बहुत दूर हो और उनके साथ अक्सर नहीं रह पाए हो। परमेश्वर ने नियत किया है कि उनका जीवन कितना लंबा होगा, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, अगर तुम यह खबर सुनते हो कि तुम्हारे माता-पिता की मृत्यु तुम्हारे जीवनकाल में हो गई है, तो तुम्हें अपराध-बोध पालने की जरूरत नहीं है। तुम्हें इस मामले को सही दृष्टि से देखकर स्वीकार करना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट होते हैं : लोगों का जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु सभी परमेश्वर द्वारा नियत होते हैं। चाहे कोई व्यक्ति कितना भी बूढ़ा हो या उसकी मृत्यु कैसे भी हो, चाहे वह सामान्य मृत्यु हो या आकस्मिक मृत्यु, ये सभी चीजें परमेश्वर द्वारा पहले से तय होती हैं और कोई भी उसे नहीं बदल सकता। जिस तरह से मेरी माँ का निधन हुआ, वह भी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था का हिस्सा था, जिसे परमेश्वर ने उसके जन्म से पहले ही निर्धारित कर दिया था और अब जब उसका समय आ गया था तो यह स्वाभाविक था कि उसे जाना ही था। भले ही मैं उसकी देखभाल करते हुए उसके साथ होती, मैं उसे जीवित नहीं रख पाती। मुझे याद आया जब मेरे पिता बीमार थे, मैं उन्हें इलाज के लिए अस्पताल ले गई थी और कई महीने उनकी देखभाल करते हुए उनके साथ रही थी, लेकिन मैं उनकी पीड़ा को हल्का नहीं कर पाई और अंत में बीमारी के कारण उनका भी निधन हुआ। लोगों का जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु सभी परमेश्वर द्वारा पहले से तय होते हैं। मैं अपने माता-पिता के दुख को कम नहीं कर पाई, न ही मैं उनके जीवन को लंबा कर सकी, इसलिए मुझे एक तर्कसंगत रवैया बनाए रखना था और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना था। मैंने यह भी सोचा कि कैसे परमेश्वर को पाने से पहले मेरी माँ को कई बीमारियाँ थीं। सभी डॉक्टरों ने कह दिया था कि वह लंबे समय तक जीवित नहीं रहेगी, लेकिन जब से उसने परमेश्वर को पाया, उसकी विभिन्न बीमारियाँ ठीक हो गईं। मेरी माँ का सत्तर साल तक जीवित रह पाना पहले ही परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष था। यह महसूस करते हुए मुझे कुछ हद तक मुक्ति का एहसास हुआ और मुझे अब अपनी माँ की मृत्यु को लेकर इतनी आत्म-निंदा और अपराध-बोध महसूस नहीं हुआ।
मैंने फिर परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “गैर-विश्वासियों की दुनिया में एक कहावत है : ‘कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं।’ एक कहावत यह भी है : ‘जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है।’ ये कहावतें कितनी शानदार लगती हैं! असल में, पहली कहावत में जिन घटनाओं का जिक्र है, कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना, वे सचमुच होती हैं, वे तथ्य हैं। लेकिन वे सिर्फ पशुओं की दुनिया की घटनाएँ हैं। वह महज एक प्रकार की व्यवस्था है जो परमेश्वर ने विविध जीवित प्राणियों के लिए बनाई है, जिसका इंसानों सहित सभी जीवित प्राणी पालन करते हैं। यह तथ्य कि हर प्रकार के जीवित प्राणी इस व्यवस्था का पालन करते हैं, आगे यह दर्शाता है कि सभी जीवित प्राणियों का सृजन परमेश्वर ने किया है। कोई भी जीवित प्राणी न तो इस विधि को तोड़ सकता है, न इसके पार जा सकता है। शेर और बाघ जैसे अपेक्षाकृत खूंख्वार मांसभक्षी भी अपनी संतान को पालते हैं और वयस्क होने से पहले उन्हें नहीं काटते। यह पशुओं का सहज ज्ञान है। वे जिस भी प्रजाति के हों, खूंख्वार हों या दयालु और भद्र, सभी पशुओं में यह सहज ज्ञान होता है। इंसानों सहित सभी प्रकार के प्राणी इस सहज ज्ञान और इस विधि का पालन करके ही अपनी संख्या बढ़ा और जीवित रह सकते हैं। अगर वे इस विधि का पालन न करें, या उनमें यह विधि और यह सहज ज्ञान न हो, तो वे अपनी संख्या बढ़ाकर जीवित नहीं रह पाएँगे। यह जैविक कड़ी नहीं रहेगी, और यह संसार भी नहीं रहेगा। क्या यह सच नहीं है? (है।) कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना ठीक यही दर्शाता है कि पशु जगत इस विधि का पालन करता है। सभी प्रकार के जीवित प्राणियों में यह सहज ज्ञान होता है। संतान पैदा होने के बाद प्रजाति के नर या मादा उसकी तब तक देखभाल और पालन-पोषण करते हैं, जब तक वह वयस्क नहीं हो जाती। सभी प्रकार के जीवित प्राणी शुद्ध अंतःकरण और कर्तव्यनिष्ठा से अगली पीढ़ी को पाल-पोस कर बड़ा करके अपनी संतान के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे कर पाते हैं। इंसानों के साथ तो ऐसा और अधिक होना चाहिए। इंसानों को मानवजाति उच्च प्राणी कहती है—अगर इंसान इस विधि का पालन न कर सकें, और उनमें यह सहज ज्ञान न हो तो वे पशुओं से बदतर हैं, है कि नहीं? इसलिए तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बड़ा करते समय चाहे जितना भी पालन-पोषण किया हो, तुम्हारे प्रति चाहे जितनी भी जिम्मेदारियाँ पूरी की हों, वे बस वही कर रहे थे जो उन्हें एक सृजित मनुष्य की क्षमताओं के दायरे में करना ही चाहिए—यह उनका सहज ज्ञान था। ... सभी प्रकार के जीवित प्राणियों और पशुओं में ये सहज ज्ञान और विधियाँ होती हैं, और वे उनका बढ़िया पालन कर उन्हें पूर्णता तक कार्यान्वित करते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे कोई भी व्यक्ति नष्ट नहीं कर सकता। कुछ विशेष पशु भी होते हैं, जैसे कि बाघ और सिंह। वयस्क हो जाने पर ये पशु अपने माता-पिता को छोड़ देते हैं, और उनमें से कुछ नर तो प्रतिद्वंद्वी भी बन जाते हैं, और जैसी जरूरत हो, वैसे काटते और लड़ते-झगड़ते हैं। यह सामान्य है, यह एक विधि है। वे अपनी भावनाओं से संचालित नहीं होते और वे लोगों की तरह यह कहकर अपनी भावनाओं में नहीं जीते : ‘मुझे उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना है, मुझे उनकी भरपाई करनी है—मुझे अपने माता-पिता का आज्ञापालन करना है। अगर मैंने उन्हें संतानोचित प्रेम नहीं दिखाया, तो दूसरे लोग मेरी निंदा करेंगे, मुझे फटकारेंगे, और पीठ पीछे मेरी आलोचना करेंगे। मैं इसे नहीं सह सकता!’ पशु जगत में ऐसी बातें नहीं कही जातीं। लोग ऐसी बातें क्यों करते हैं? इस वजह से कि समाज में और लोगों के समुदायों में तरह-तरह के गलत विचार और सहमतियाँ हैं। इन चीजों से लोगों के प्रभावित हो जाने, क्षय होने और सड़-गल जाने के बाद उनके भीतर माता-पिता और बच्चे के रिश्ते की व्याख्या करने और उससे निपटने के अलग-अलग तरीके पैदा होते हैं, और आखिरकार वे अपने माता-पिता से लेनदारों जैसा बर्ताव करते हैं—ऐसे लेनदार जिनका कर्ज वे पूरी जिंदगी नहीं चुका सकेंगे। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने माता-पिता के निधन के बाद पूरी जिंदगी अपराधी महसूस करते हैं, और सोचते हैं कि वे अपने माता-पिता की दयालुता के लायक नहीं थे, क्योंकि उन्होंने एक ऐसा काम किया जिससे उनके माता-पिता खुश नहीं हुए या वे उस राह पर नहीं चले जो उनके माता-पिता चाहते थे। मुझे बताओ, क्या यह ज्यादती नहीं है? लोग अपनी भावनाओं के बीच जीते हैं, तो इन भावनाओं से उपजने वाले तरह-तरह के विचारों से ही वे अतिक्रमित और परेशान हो सकते हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ में आया कि मैं इतनी पीड़ा में इसलिए थी क्योंकि मेरे अंदर पारंपरिक संस्कृति का जहर भर दिया गया था जैसे कि “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है” और “बुढ़ापे में सहारे के लिए बच्चों की परवरिश करो।” मेरा विश्वास था कि चूँकि मेरे माता-पिता ने मुझे पालने के लिए कड़ी मेहनत की, मेरे लिए भोजन, कपड़े और शिक्षा का प्रबंध किया और चूँकि मुझे अपने पिता के मरने से पहले उनके दयालुतापूर्ण पालन-पोषण का ऋण चुकाने का मौका नहीं मिला था और अगर मैं अपनी माँ की दयालुता का ऋण भी नहीं चुका पाई तो यह असल में बहुत बड़ा कलंक होगा, यहाँ तक कि मैं एक जानवर से भी नीच होऊँगी। मैं इन पारंपरिक मूल्यों को सकारात्मक चीजों और उन सिद्धांतों के रूप में मानती थी जिनके सहारे मुझे जीना था, मैंने यह महसूस नहीं किया कि मेरा जीवन परमेश्वर से आया है। मेरी माँ ने मुझे केवल जन्म दिया और मेरा पालन-पोषण किया और मेरे माता-पिता ने मेरे लिए जो कुछ भी किया, उसमें वे केवल अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा कर रहे थे और इसे दयालुता नहीं माना जा सकता था। आत्म-चिंतन करूँ तो अगर बड़े होते हुए परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा न होती तो मैं अभी जीवित न होती। जब मैं छोटी थी तो मैं एक दोस्त के साथ नाव पर गई थी और नाव पलट गई। हम दोनों नदी में गिरे और लगभग डूब ही गए थे लेकिन सौभाग्य से दो लोग नदी के किनारे मछली पकड़ रहे थे और उन्होंने हमें बचा लिया। उस समय मुझे लगा था कि मैं बस किस्मत वाली हूँ लेकिन बाद में परमेश्वर के वचन पढ़ने और यह पता लगाने पर कि परमेश्वर दिन-रात मानवता पर नजर रखता है, मुझे एहसास हुआ कि यह वास्तव में परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा थी। इसके अलावा मेरे माता-पिता द्वारा मेरी देखभाल और मेरा पालन-पोषण भी परमेश्वर से ही नियत था। लेकिन मैंने परमेश्वर को उसकी देखभाल और सुरक्षा के लिए धन्यवाद नहीं दिया या अपने कर्तव्य ठीक से नहीं किए। इसके बजाय मैं हमेशा अपनी माँ की देखभाल न कर पाने के लिए उसके प्रति ऋणी महसूस करती थी और इसने मेरे कर्तव्यों पर भी असर डाला। खासतौर पर अपनी माँ के गुजरने का सुनकर मैंने बुढ़ापे में उसकी देखभाल न कर पाने और उसे उचित ढंग से विदा न कर पाने को लेकर और ज्यादा अपराध-बोध और पीड़ित महसूस किया। मुझे अपने कर्तव्य करने के लिए घर छोड़कर जाने का भी पछतावा हुआ। क्या मुझमें पूरी तरह अंतरात्मा की कमी नहीं थी? पारंपरिक संस्कृति के विचारों ने मुझे प्रभावित कर नुकसान पहुँचाया था और मैं वास्तव में सही-गलत में अंतर करने में असमर्थ थी!
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े जिन्होंने मुझे सिखाया कि मुझे अपने माता-पिता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अपने माता-पिता से पेश आते समय एक संतान के रूप में उनकी देखभाल के दायित्वों को पूरा करने या न करने का फैसला पूरी तरह से तुम्हारी व्यक्तिगत स्थितियों और परमेश्वर के आयोजनों के आधार पर होना चाहिए। क्या यह बात मामले को बिल्कुल ठीक तरीके से स्पष्ट नहीं करती? जब कुछ लोग अपने माता-पिता से अलग होते हैं तो उन्हें लगता है कि उनके माता-पिता का उन पर बहुत कर्ज है लेकिन वे उनके लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। लेकिन, वे जब माता-पिता के साथ रह रहे होते हैं तो संतानोचित तरीके से बिल्कुल नहीं रहते और माता-पिता के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह नहीं करते। क्या ऐसा आदमी वास्तव में संतानोचित दायित्वों का निर्वाह करने वाला व्यक्ति है? वह केवल खोखली बातें करने वाला है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो, क्या सोचते हो, या क्या योजना बनाते हो, वे सब महत्वपूर्ण बातें नहीं हैं। महत्वपूर्ण यह है कि क्या तुम यह समझ सकते हो और सचमुच विश्वास कर सकते हो कि सभी सृजित प्राणियों का नियंत्रण परमेश्वर के हाथों में हैं। कुछ माता-पिताओं को ऐसा आशीष मिला होता है और ऐसी नियति होती है कि वे घर-परिवार का आनंद लेते हुए एक बड़े और समृद्ध परिवार की खुशियां भोगें। यह परमेश्वर का अधिकार क्षेत्र है, और परमेश्वर से मिला आशीष है। कुछ माता-पिताओं की नियति ऐसी नहीं होती; परमेश्वर ने उनके लिए ऐसी व्यवस्था नहीं की होती। उन्हें एक खुशहाल परिवार का आनंद लेने, या अपने बच्चों को अपने साथ रखने का आनंद लेने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। यह परमेश्वर की व्यवस्था है और लोग इसे जबरदस्ती हासिल नहीं कर सकते। चाहे कुछ भी हो, अंततः जब संतानोचित शील की बात आती है, तो लोगों को कम से कम समर्पण की मानसिकता रखनी चाहिए। यदि वातावरण अनुमति दे और तुम्हारे पास ऐसा करने के साधन हों, तो तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित दायित्व निर्वाह का शील दिखाना चाहिए। अगर वातावरण उपयुक्त न हो और तुम्हारे पास साधन न हों, तो तुम्हें जबरन ऐसा करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए—इसे क्या कहते हैं? (समर्पण।) इसे समर्पण कहा जाता है। यह समर्पण कैसे आता है? समर्पण का आधार क्या है? यह परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और परमेश्वर द्वारा शासित इन सभी चीजों पर आधारित है। यद्यपि लोग चुनना चाह सकते हैं, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकते, उन्हें चुनने का अधिकार नहीं है, और उन्हें समर्पण करना चाहिए। जब तुम महसूस करते हो कि लोगों को समर्पण करना चाहिए और सब कुछ परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित है, तो क्या तुम्हें अपने हृदय में शांति महसूस नहीं होती? (हाँ।) क्या तुम्हारी अंतरात्मा तब भी धिक्कार का अनुभव करती रहेगी? उसे अब लगातार धिक्कार की अनुभूति नहीं होगी, और अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित दायित्वों का निर्वाह न कर पाने का विचार अब तुम पर हावी नहीं होगा। इतने पर भी कभी-कभी तुम्हें ऐसा महसूस हो सकता है क्योंकि मानवता में ये एक तरह से सामान्य विचार या सहज प्रवृत्ति है और कोई भी इससे बच नहीं सकता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। “एक बच्चे के तौर पर तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें इस जीवन में करनी हैं, ये सब ऐसी चीजें हैं जो एक सृजित प्राणी को करनी ही चाहिए, जो तुम्हें सृष्टि के प्रभु ने सौंपी हैं, और इनका तुम्हारे माता-पिता को दयालुता का कर्ज चुकाने के साथ कोई लेना-देना नहीं है। अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना, उनकी दयालुता का बदला चुकाना—इन चीजों का तुम्हारे जीवन के उद्देश्य से कोई लेना-देना नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हारे लिए अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना या उनके प्रति अपनी कोई भी जिम्मेदारी पूरी करना जरूरी नहीं है। दो टूक शब्दों में कहें, तो तुम्हारे हालात इजाजत दें, तो तुम यह थोड़ा-बहुत कर सकते हो और अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो; जब हालात इजाजत न दें, तो तुम्हें ऐसा करने पर अड़ना नहीं चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाने की जिम्मेदारी पूरी न कर सको, तो यह कोई भयानक बात नहीं है, बस यह तुम्हारे जमीर, मानवीय नैतिकता और मानवीय धारणाओं के थोड़ा खिलाफ है। मगर कम-से-कम यह सत्य के विपरीत नहीं है, और परमेश्वर इसे लेकर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। जब तुम सत्य को समझ लेते हो, तो इसे लेकर तुम्हारे जमीर को फटकार महसूस नहीं होगी” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचन स्पष्ट रूप से बताते हैं कि हमें हमारे माता-पिता के साथ कैसे पेश आना है। यह मुख्य रूप से हमारी परिस्थितियों और क्षमताओं पर निर्भर करता है। यदि परिस्थितियाँ इजाजत दें और हमारी क्षमताएँ अनुमति दें तो हम अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हैं और अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित हो सकते हैं, लेकिन यदि परिस्थितियाँ अनुमति नहीं देतीं तो ऐसा करने पर जोर देने की कोई जरूरत नहीं है और हमें परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। अपनी माँ के बीमार होने से लेकर उसके निधन तक के समय में उसकी देखभाल करने में मेरी असमर्थता का मतलब यह नहीं था कि मैं भावनाहीन या कृतघ्न थी। मैं अपनी माँ के प्रति संतानोचित होना चाहती थी, लेकिन चूँकि मुझे नास्तिक देश में परमेश्वर में विश्वास करने के लिए सीसीपी द्वारा सताया और तलाशा जा रहा था, तो मैं घर नहीं लौट सकी। यह मेरी ओर से अंतरात्मा की कमी को नहीं दर्शाता। इसके अलावा परमेश्वर में विश्वास करने का मेरा अपना मिशन है, जो कि एक सृजित प्राणी के कर्तव्य पूरे करना है। यदि मैं अपने कर्तव्य करने में खुद को असमर्थ पाती हूँ क्योंकि मैं पूरी तरह अपनी माँ के प्रति संतानोचित होने पर केंद्रित हूँ तो इसका मतलब होगा कि मुझमें सच में अंतरात्मा की कमी थी। यह पहचानने के बाद मुझे अब अपनी अंतरात्मा द्वारा दोषी महसूस नहीं हुआ और मैं अपने कर्तव्यों के दौरान अपने दिल को शांत कर पाई। परमेश्वर के वचनों ने ही मेरे भ्रामक दृष्टिकोण को बदला जिससे मैं अपनी माँ के निधन को सही तरीके से ले पाई और मुझे अपने दिल में मुक्ति का एहसास हुआ।