प्रश्न 3: हमने इतने वर्षों तक प्रभु पर विश्वास किया है, और हमने उनका नाम बनाए रखा है। हम अक्सर बाइबल पढ़ते हैं, प्रार्थना करते हैं और अपने पापों को प्रभु के सामने स्वीकार करते हैं; हम दूसरों के प्रति विनीत, धैर्यवान और अनुरागशील हैं। हम अक्सर प्रभु के लिए कार्य करने के लिए परोपकार करते हैं, दान करते हैं और सब कुछ बलिदान कर देते हैं और उनकी गवाही देने के लिए सुसमाचार फैलाते हैं। क्या हम प्रभु के वचनों का अभ्यास नहीं कर रहे हैं और उनके मार्ग का अनुसरण नहीं कर रहे हैं? आप कैसे कह सकती हैं कि हमें कभी प्रभु में विश्वास नहीं था या हम अविश्वासी हैं? बाइबल में, पौलुस ने कहा है, "मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है…" (2 तीमुथियुस 4:7-8)। इसलिए, मुझे लगता है कि प्रभु में हमारा विश्वास उनकी प्रशंसा प्राप्त करेगा। जब प्रभु आएंगे, तो वे निश्चित रूप से हमारा स्वर्ग के राज्य में आरोहण करेंगे।
उत्तर: कई विश्वासी सोचते हैं कि जब तक वे प्रभु का नाम रखते हैं, बाइबल पढ़ते हैं, प्रार्थना करते हैं और अक्सर इकट्ठा होते हैं, प्रभु के लिए सब कुछ बलिदान करने और प्रभु के लिए श्रम करने में सक्षम हैं, तो वे सच्चे विश्वासी हैं। वे सोचते हैं कि जब तक वे इस तरह प्रभु में विश्वास करते हैं, जब प्रभु वापस आएंगे, तो उन्हें स्वर्ग के राज्य में ले जाया जायेगा। क्या परमेश्वर में विश्वास करना इतना आसान है जैसा लोग सोचते हैं? यदि लोग इस तरह परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो क्या वे वास्तव में परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त कर सकते हैं? जो फरीसी प्रभु यीशु द्वारा दोषी ठहराये गए और निन्दित किये गए थे, क्या वे इसी तरह से परमेश्वर में विश्वास नहीं करते थे? वे अक्सर प्रार्थना करते थे और कड़ी मेहनत करते थे और यहां तक कि सुसमाचार फैलाने के लिए पृथ्वी के छोर तक यात्रा भी करते थे। फिर क्यों उनकी आस्था प्रभु का अनुमोदन प्राप्त करने में विफल और उन्हें प्रभु की निंदा और शाप सहने पड़े? जिन लोगों ने पहले बाइबल पढ़ी है, समझते हैं कि हालांकि फरीसियों ने बाइबल को अच्छी तरह से पढ़ा था, अक्सर प्रार्थना की थी, परमेश्वर के कार्य का प्रचार किया था, बहुत कष्ट सहे थे, दूसरों से प्रेम किया था, और बाहर से धार्मिक और सच्चे विश्वासी दिखते थे, वास्तव में, उनके दिलों में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं था; उन्होंने परमेश्वर को महिमामंडित नहीं किया। अपने विश्वास में, उन्होंने परमेश्वर के वचनों में सच्चाई की खोज करने में या उसका प्रयोजन समझने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया, उनके वचनों का अभ्यास और उसकी आज्ञाओं के पालन करना तो दूर की बात है। उनका ध्यान केवल बाइबल और धार्मिक सिद्धांत के बारे में ज्ञान प्रसारित करने पर केंद्रित था; उनका ध्यान केवल धार्मिक अनुष्ठान करने पर, स्वयं को महिमामंडित करने के लिए नियमों का पालन करने पर, दूसरों के द्वारा अपनी पूजा करवाने के लिए स्वयं को स्थापित करने पर केंद्रित था। उन्होंने परमेश्वर पर कई वर्षों तक इस प्रकार विश्वास किया और उन्हें परमेश्वर का कोई ज्ञान नहीं था। वे निश्चित रूप से परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी और श्रद्धालु नहीं बने। इसलिए, जब प्रभु यीशु ने अपना कार्य किया, उन्होंने सत्य की खोज नहीं की। उन्होंने केवल अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर प्रभु यीशु के बारे में अनुमान लगाया था। यह ध्यान दिए बिना कि प्रभु यीशु का धर्मोपदेश कितना गहरा था या उनके कार्य में कितना अधिकार और कितनी शक्ति थी, उन्होंने उनकी खोज नहीं की या उनका अध्ययन नहीं किया। उन्होंने तब भी कट्टरता से प्रभु यीशु का विरोध किया और उनकी निंदा की, और फिर उन्हें क्रूस पर चढ़ा दिया। उन्हें शाप दिया गया और दंडित किया गया था। क्या फरीसियों के विश्वास को परमेश्वर में सच्चा विश्वास कहा जा सकता है? क्या परमेश्वर ने फरीसियों के विश्वास को स्वीकार किया था? न केवल प्रभु यीशु ने उनका अनुमोदन नहीं किया , बल्कि यह कहते हुए उनकी निन्दा की और शाप दिया, "हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय!" (मत्ती 23:13-26)। क्या यह सच नहीं है? फरीसी केवल अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर विश्वास करते थे; वे केवल स्वर्ग में एक अज्ञात परमेश्वर में विश्वास करते थे। वे देहधारी प्रभु यीशु में विश्वास नहीं करते थे जिन्होंने सत्य को व्यक्त किया था। वे सब सत्य से उब चुके थे और सच्चाई से नफरत करते थे। वे परमेश्वर पर विश्वास करते थे, परन्तु परमेश्वर का विरोध भी करते थे।
आज के धार्मिक समुदायों को देखिये। कई पादरी और एल्डर्स प्रभु के नाम को रखते हैं; वे प्रभु के नाम पर प्रार्थना करते हैं, बाइबिल पढ़ते हैं, प्रभु के लिए बाकी सब कुछ त्यागते हैं और प्रभु के लिए श्रम करते हैं, लेकिन जब सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों में अपने न्याय के कार्य को करने के लिए सच्चाई को व्यक्त करते हैं, वे अपनी स्वयं की धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर के कार्य को परिभाषित करते हैं। वे सोचते हैं कि परमेश्वर के वचन और कार्य बाइबल में हैं और जो कुछ भी बाइबल के परे है वह विधर्म है। वे स्पष्ट रूप से जानते हैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सत्य हैं; वे जानते हैं कि ये वचन मनुष्यों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन वे उनकी खोज नहीं करते या उनका अध्ययन नहीं करते हैं। वे अभी भी सभी प्रकार की अफवाहें और झूठ फैलाते हैं, कट्टरता से निंदा करते हैं, सर्वशक्तिमान परमेश्वर की निंदा और उनके खिलाफ ईश-निन्दा करते हैं। वे विश्वासियों को सच्चे मार्ग को खोजने से रोकने के लिए कुछ भी करते हैं। यहाँ तक कि अंत के दिनों में परमेश्वर के काम के बारे में गवाही देने वाले लोगों के बारे में पुलिस को सूचना दे देते हैं ताकि उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाए। बताइये, ये पादरी और एल्डर प्रभु यीशु का विरोध करने वाले फरीसियों से अलग कैसे हैं? क्या वे दोनों ऐसे लोग नहीं हैं जो सच्चे मार्ग को जानते हैं लेकिन फिर भी इसका विरोध करते हैं? क्या वे दोनों परमेश्वर के दुश्मन नहीं हैं जो सच्चाई से नफरत करते हैं? इसलिए, हम देख सकते हैं कि अगर लोग प्रभु में विश्वास करते हैं लेकिन केवल उनका नाम रखते हैं, उनके लिए श्रम करते हैं और श्रद्धालु प्रतीत होते हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि वे प्रभु के वचनों का पालन करते हैं या प्रभु के मार्ग का अनुसरण करते हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि जो प्रभु की सेवा करते हैं वे सच्चे विश्वासी हैं। तथ्य यह है कि वे श्रद्धालु दिखाई देते हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि वे अपने दिल में प्रभु की वृद्धि कर सकते हैं, उनका सम्मान कर सकते हैं या उनकी आज्ञा का पालन कर सकते हैं; निश्चित रूप से इसका अर्थ यह नहीं है कि वे सत्य को समझते हैं या उसे जानते हैं। अगर लोग प्रभु में विश्वास करते हैं लेकिन वास्तविकता में सत्य की तलाश, सत्य का अभ्यास या प्रभु के वचनों का अनुभव नहीं करते हैं, तो चाहे, कितने ही वर्ष वे लोग प्रभु में विश्वास करें या उनके लिए कैसे भी श्रम करें, वे उनकी प्रशंसा प्राप्त नहीं कर सकते। यह धार्मिक समुदायों में पादरियों और एल्डर्स के लिए विशेष रूप से सच है। हालांकि वे प्रभु के कार्य के लिए श्रम करते हैं, वे अभी भी कट्टरतापूर्वक सर्वशक्तिमान परमेश्वर, अंत के दिनों के मसीह का विरोध करते हैं और उसकी निंदा करते हैं। यह ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि वे दुष्ट हैं जो परमेश्वर का विरोध करते हैं। वे अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य द्वारा मसीह-विरोधियों के रूप में उजागर होते हैं। वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा शापित और दण्डित किये जाएंगे। यह बिलकुल वैसा है जैसा प्रभु यीशु ने कहा, "उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, 'हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला? और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?' तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, 'मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ'" (मत्ती 7: 22-23)। अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन भी बहुत स्पष्ट हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "मुझे इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं है कि तुम्हारी मेहनत कितनी सराहनीय है, तुम्हारी योग्यताएं कितनी प्रभावशाली हैं, तुम कितने बारीकी से मेरा अनुसरण कर रहे हो, तुम कितने प्रसिद्ध हो, या तुम कितने उन्नत प्रवृत्ति के हो; जब तक तुमने मेरी अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया है, तब तक तुम मेरी प्रशंसा प्राप्त नहीं कर पाओगे। जितनी जल्दी हो सके, तुम अपने विचारों और गणनाओं को ख़ारिज कर दो, और मेरी अपेक्षाओं को गंभीरता से लेना शुरु कर दो। वरना मैं अपना काम समाप्त करने के लिये सारे लोगों को भस्म कर दूँगा, और ज़्यादा से ज़्यादा मैं अपने कार्य के वर्षों और पीड़ाओं को शून्य में बदल दूँगा, क्योंकि मैं अगले युग में, अपने शत्रुओं और शैतान की तर्ज़ पर बुराई में लिप्त लोगों को अपने राज्य में नहीं ला सकता" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे)। परमेश्वर के वचन अपरिवर्तनीय सत्य हैं। क्या विश्वासी उनकी प्रशंसा प्राप्त कर सकते हैं, यह इस पर निर्भर नहीं करता कि वे कितना कार्य करते हैं या पीड़ित होते हैं; यह मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि क्या वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करते हैं या उनकी आज्ञा मानते हैं। हालांकि, पौलुस ने कहा था: "मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है: भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है…" (2 तीमुथियुस 4:7-8)। ये वचन पौलुस की अपनी धारणाएं और कल्पनाएं हैं। वे परमेश्वर के वचन या सच्चाई के अनुरूप बिलकुल भी नहीं हैं। वे परमेश्वर के वचनों के ठीक विपरीत हैं!
परमेश्वर पर सच्चा विश्वास रखने का क्या अर्थ है, और हमारे विश्वास को उसका अनुमोदन कैसे प्राप्त हो सकता है? यह सवाल बहुत ज़रूरी है। यह सीधे तौर पर इस बात से जुड़ा है कि क्या परमेश्वर में हमारा विश्वास हमारा उद्धार कर सकता है और क्या यह हमें उनके राज्य में प्रवेश दिला सकता है! पहले, हम अपने विश्वास में, केवल प्रभु के लिए कार्य करने पर ध्यान केंद्रित करते थे ताकि जब वे लौट के आए तो हमें उसके राज्य में प्रवेश मिल सके। अब हर कोई समझ गया है कि यह विश्वास का गलत मार्ग है। धार्मिक समुदाय में कोई नहीं जानता कि परमेश्वर में सच्चा विश्वास क्या है या हमें उसका अनुमोदन प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में कैसे विश्वास करना चाहिए। इन प्रश्नों के उत्तर कोई नहीं समझता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों के मसीह, ने परमेश्वर पर विश्वास के विषय में सभी सत्य और रहस्यों को उजागर किया है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर इस प्रश्न के बारे में बहुत स्पष्ट रूप से कहते हैं: परमेश्वर में सच्चा विश्वास क्या है? सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "यद्यपि बहुत से लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, किंतु बहुत कम लोग समझते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करने का अर्थ क्या है, और परमेश्वर के मन के अनुरूप बनने के लिये उन्हें क्या करना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि यद्यपि लोग "परमेश्वर" शब्द और 'परमेश्वर का कार्य' जैसे वाक्यांश से परिचित हैं, किंतु वे परमेश्वर को नहीं जानते हैं, और उससे भी कम वे उसके कार्य को जानते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि तब वे सभी जो परमेश्वर को नहीं जानते हैं, वे दुविधायुक्त विश्वास रखते हैं। लोग परमेश्वर पर विश्वास करने को गंभीरता से नहीं लेते हैं, क्योंकि परमेश्वर पर विश्वास करना उनके लिये अत्यधिक अनजाना और अजीब है। इस प्रकार, वे परमेश्वर की माँग से कम पड़ते हैं। दूसरे शब्दों में, यदि लोग परमेश्वर को नहीं जानते हैं, तो वे उसके कार्य को भी नहीं जानते हैं, तब वे परमेश्वर के इस्तेमाल के योग्य नहीं हैं, और उससे भी कम यह कि वे परमेश्वर की इच्छा को पूरा नहीं कर सकते हैं। 'परमेश्वर पर विश्वास' का अर्थ, यह विश्वास करना है कि परमेश्वर है; यह परमेश्वर पर विश्वास की सरलतम अवधारणा है। इससे बढ़कर यह बात है कि परमेश्वर है, यह मानना परमेश्वर पर सचमुच विश्वास करना नहीं है; बल्कि यह मजबूत धार्मिक प्रभाव के साथ एक प्रकार का सरल विश्वास है। परमेश्वर पर सच्चे विश्वास का अर्थ इस विश्वास के आधार पर परमेश्वर के वचनों और कामों का अनुभव करना है कि परमेश्वर सब वस्तुओं पर संप्रभुता रखता है। इस तरह से तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त हो जाओगे, परमेश्वर की इच्छा को पूरा करोगे और परमेश्वर को जान जाओगे। केवल इस प्रकार की यात्रा के माध्यम से ही तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास करने वाला कहा जा सकता है। मगर लोग परमेश्वर पर विश्वास को अक्सर बहुत सरल और तुच्छ मानते हैं। ऐसे लोगों का विश्वास अर्थहीन है और कभी भी परमेश्वर का अनुमोदन नहीं पा सकता है, क्योंकि वे गलत पथ पर चलते हैं। आज, अभी भी कुछ ऐसे लोग हैं जो अक्षरों में, खोखले सिद्धान्तों में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। वे इस बात से अनजान हैं कि परमेश्वर पर उनके विश्वास में कोई सार नहीं है, और कि वे परमेश्वर का अनुमोदन पाने में असमर्थ हैं, और तब भी वे परमेश्वर से शांति और पर्याप्त अनुग्रह के लिये प्रार्थना करते हैं। हमें रुक कर स्वयं से प्रश्न करना चाहिए: क्या परमेश्वर पर विश्वास करना पृथ्वी पर वास्तव में सबसे अधिक आसान बात है? क्या परमेश्वर पर विश्वास करने का अर्थ, परमेश्वर से अधिक अनुग्रह पाने की अपेक्षा कुछ नहीं है? क्या जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं पर उसे नहीं जानते हैं; और जो उस पर विश्वास तो करते हैं पर उसका विरोध करते हैं, सचमुच उसकी इच्छा को पूरा करते हैं?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना)।
"तुम सोच सकते हो कि परमेश्वर पर विश्वास करना कष्ट सहने के बारे में है, या उसके लिए कई चीजें करना है, या तुम्हारी देह की शान्ति के लिए है, या इसलिए है कि तुम्हारे साथ सब कुछ ठीक रहे, सब कुछ आरामदायक रहे—परन्तु इनमें से कोई भी ऐसा उद्देश्य नहीं है जिसे परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए लोगों में होना चाहिए। यदि तुम ऐसा विश्वास करते हो, तो तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है और तुम्हें मात्र पूर्ण नहीं बनाया जा सकता है। परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर की धार्मिक स्वभाव, उसकी बुद्धि, उसके वचन, और उसकी अद्भुतता और अगाधता इन सभी बातों को मनुष्यों को अवश्य समझना चाहिए। इस समझ का उपयोग व्यक्तिगत अनुरोधों, और साथ ही व्यक्तिगत आशाओँ और तुम्हारे हृदय की अवधारणाओं से छुटकारा पाने के लिए करो। केवल इन इन्हें दूर करके ही तुम परमेश्वर के द्वारा माँग की गई शर्तों को पूरा कर सकते हो। केवल इसी के माध्यम से ही तुम जीवन प्राप्त कर सकते हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो। परमेश्वर पर विश्वास करना उसे संतुष्ट करने के वास्ते और उस स्वभाव को जीवन बिताने के लिए है जो वह अपेक्षा करता है, इन अयोग्य लोगों के समूह के माध्यम से परमेश्वर के कार्य और उसकी महिमा को प्रदर्शित किया जा सके। परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए और उन लक्ष्यों के लिए जिन्हें तुम्हें खोजना चाहिए, यही सही दृष्टिकोण है। परमेश्वर पर विश्वास करने का तुम्हारा सही दृष्टिकोण होना चाहिए और तुम्हें परमेश्वर के वचनों को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने, और सत्य को जीने, और विशेष रूप से उसके व्यवहारिक कर्मों को देखने, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उनके अद्भुत कर्मों को देखने, और साथ ही देह में उसके द्वारा किए जाने वाले व्यवहारिक कार्य को देखने में सक्षम होने की आवश्यकता है। अपने वास्तविक अनुभवों के द्वारा, लोग बस इस बात की सराहना कर सकते हैं कि कैसे परमेश्वर उन पर अपना कार्य करता है, उनके प्रति उसकी क्या इच्छा है। यह सब उनके भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर करने के लिए है। अपने भीतर की अशुद्धता और अधार्मिकता से मुक्ति पाओ, अपने गलत इरादों को उतार फेंको, और तुम परमेश्वर में सच्चा विश्वास उत्पन्न कर सकते हो। केवल सच्चा विश्वास रख कर ही तुम परमेश्वर को सच्चा प्रेम कर सकते हो। तुम केवल अपने विश्वास की बुनियाद पर ही परमेश्वर से सच्चा प्रेम कर सकते हो। क्या तुम परमेश्वर पर विश्वास किए बिना उसके प्रति प्रेम को प्राप्त कर सकते हैं? चूँकि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, इसलिए तुम इसके बारे में नासमझ नहीं हो सकते हो। कुछ लोगों में जोश भर जाता है जैसे ही वे देखते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करना उनके लिए आशीषें लाएगा, परन्तु सम्पूर्ण ऊर्जा को खो देते है जैसे ही वे देखते हैं कि उन्हें शुद्धिकरणों को सहना पड़ेगा। क्या यह परमेश्वर पर विश्वास करना है? अंत में, परमेश्वर पर विश्वास करना उसके सामने पूर्ण और अतिशय आज्ञाकारिता है। तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो परन्तु फिर भी उससे माँगें करते हो, तुम्हारी कई धार्मिक अवधारणाएँ हैं जिन्हें तुम नीचे नहीं रख सकते हो, तुम्हारे व्यक्तिगत हित हैं जिन्हें तुम जाने नहीं दे सकते हो, और तब भी देह में आशीषों को खोजते हो और चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हारी देह को बचाए, तुम्हारी आत्मा की रक्षा करे—ये सब गलत दृष्टिकोण वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि धार्मिक विश्वास वाले लोगों का परमेश्वर पर विश्वास होता है, तब भी वे स्वभाव-संबंधी बदलाव का प्रयास नहीं करते हैं, परमेश्वर के ज्ञान की खोज नहीं करते हैं और केवल अपने देह के हितों की ही तलाश करते हैं। तुम में से कई लोगों के विश्वास हैं जो धार्मिक आस्थाओं की श्रेणी से सम्बन्धित हैं। यह परमेश्वर पर सच्चा विश्वास नहीं है। परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए लोगों पास उसके लिए पीड़ा सहने वाला हृदय और स्वयं को त्याग देने की इच्छा होनी चाहिए। जब तक वे इन दो शर्तों को पूरा नहीं करते हैं तब तक यह परमेश्वर पर विश्वास करना नहीं माना जाता है, और वे स्वभाव संबंधी परिवर्तनों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं होंगे। केवल वे लोग जो वास्तव में सत्य को खोजते हैं, परमेश्वर के ज्ञान की तलाश करते हैं, और जीवन की खोज करते हैं ऐसे लोग हैं जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने परमेश्वर पर विश्वास के संबंध में सभी रहस्यों और सच्चाइयों को उजागर किया है। बहुत से लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं लेकिन उन्हें फिर भी यह नहीं पता कि परमेश्वर पर सच्चा विश्वास क्या है, न ही वे परमेश्वर कोया उनके कार्य को जानते हैं। इस प्रकार का विश्वास एक भ्रमित विश्वास है जो कभी परमेश्वर की प्रशंसा नहीं प्राप्त करेगा! सर्वशक्तिमान परमेश्वर बहुत स्पष्ट रूप से उल्लिखित करते हैं कि असली विश्वास क्या है। "परमेश्वर पर सच्चे विश्वास का अर्थ इस विश्वास के आधार पर परमेश्वर के वचनों और कामों का अनुभव करना है कि परमेश्वर सब वस्तुओं पर संप्रभुता रखता है। इस तरह से तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त हो जाओगे, परमेश्वर की इच्छा को पूरा करोगे और परमेश्वर को जान जाओगे। केवल इस प्रकार की यात्रा के माध्यम से ही तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास करने वाला कहा जा सकता है।" सर्वशक्तिमान परमेश्वर वास्तविक आस्था के बारे में स्पष्ट रूप से कहते हैं! जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं वास्तव में परमेश्वर के वचनों में विश्वास करते हैं। मतलब, उनके वचनों का अभ्यास करना और उनके कार्य का अनुभव करना। यही तरीका है जिससे वे वास्तव में सच को समझेंगे और वास्तव में परमेश्वर को जानेंगे। यह परमेश्वर में सच्ची आस्था है। धार्मिक समुदाय में, हम केवल प्रभु के लिए कार्य करने और कष्ट सहने के बारे में बात करते हैं; हम प्रभु के वचनों का अभ्यास करने या उनका अनुभव करने के बारे में बात नहीं करते। इसलिए, हम चाहे कितने ही वर्ष परमेश्वर में विश्वास करें, हम सच्चाई नहीं समझेंगे, न ही हम परमेश्वर को जानेंगे। यदि हम परमेश्वर में इस तरह विश्वास करते हैं, तो परमेश्वर हमें कैसे स्वीकार कर सकते हैं! प्रभु यीशु ने कहा था, "उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, 'हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला? और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?'" (मत्ती 7:22)। प्रभु यीशु ने आगे क्या कहा? "तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ" (मत्ती 7:23)। इससे पता चलता है कि हम प्रभु में विश्वासी अपनी इच्छा के अनुसार उनके लिए बलिदान और कार्य करते हैं। हम प्रभु के वचनों का अभ्यास या उनका अनुभव नहीं करते। इस तरह के विश्वास को न सिर्फ परमेश्वर का अनुमोदन नहीं मिलता, बल्कि परमेश्वर द्वारा इसकी निंदा भी की जाती है। धार्मिक समुदाय में एक विश्वासी के रूप में अपने समय के बारे में जब मैं वापिस विचार करता हूं तो, मैंने प्रभु के वचनों का अभ्यास करने या उनके कार्य का अनुभव लेने पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया; पाप करने के बाद, मैंने केवल उनके सामने पश्चाताप कर उनसे क्षमा करने की प्रार्थना की। जब मैं मुसीबत में था, मैंने प्रभु से प्रार्थना की, उनसे मदद की गुहार की। मैं सोचता था कि जब तक बाइबल के कुछ अंश मेरी स्मृति में थे, बाइबल के वचनों को मैंने आत्मसात किया हुआ था और नियमों का पालन कर रहा था, मैं प्रभु में विश्वास कर रहा था। मैं सोचता था कि यदि मैंने बस उत्साहपूर्वक प्रभु के लिए बलिदान दिया और कार्य किया, तो, मैं भले से प्रभु में विश्वास कर रहा था। मेरे विचार थे कि मैं प्रभु से प्रेम करता था और उनके प्रति निष्ठावान था। मैंने सोचा जब प्रभु वापिस लौटेंगे तो मैं निश्चित रूप से उनके राज्य में प्रवेश कर लूंगा। यह तब तक जारी रहा जब तक मैंने अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर जो वह कहते हैं उसे देख न लिया: "अधिकांश लोग जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं वे केवल इस बात को ज्यादा महत्व देते हैं कि आशीषों को किस प्रकार प्राप्त किया जाए या आपदा से कैसे बचा जाए। …ऐसे लोगों के पास परमेश्वर का अनुसरण करने का बहुत ही साधारण लक्ष्य होता हैः आशीषें प्राप्त करने का और वे इस लक्ष्य से मतलब न रखने वाली किसी भी बात पर ध्यान देने में बहुत ही आलस दिखाते हैं। उनके लिए, करने का अर्थ आशीषें प्राप्त करने के लिये परमेश्वर पर विश्वास करना सबसे तर्कसंगत लक्ष्य और उनके विश्वास का आधारभूत मूल्य है। और जो चीज़ें इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता प्रदान नहीं करतीं वे उनसे प्रभावित नहीं होते हैं। आज जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं उनके साथ ऐसी ही समस्या है। उनके लक्ष्य और प्रेरणा तर्कसंगत दिखाई देते हैं, क्योंकि वे परमेश्वर पर विश्वास समय ही, परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते भी हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित भी होते हैं और अपने कर्तव्य को भी निभाते हैं। वे अपनी जवानी लगा देते हैं, परिवार और भविष्य को त्याग देते हैं, और यहां तक कि सालों अपने घर से दूर व्यस्त रहते हैं। …इसमें, हम एक पहले से ही अज्ञात समस्या को देखते हैं: मनुष्य का परमेश्वर के साथ सम्बन्ध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का सम्बन्ध है। सीधे-सीधे, यह कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य के सम्बन्ध के समान है। कर्मचारी नियोक्ता के द्वारा पुरस्कार प्राप्त करने के लिए ही कार्य करता है। इस प्रकार के सम्बन्ध में, कोई स्नेह नहीं होता है, केवल एक सौदा होता है; प्रेम करने और प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होता है; कोई आपसी समझ नहीं होती केवल अधीनता और धोखा होता है; कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक खाई जो कभी भी भरी नहीं जा सकती। जब चीज़ें इस बिन्दु तक आ जाती हैं, तो कौन इस प्रकार की प्रवृत्ति को बदलने में सक्षम है? और कितने लोग इसे वास्तव में समझने के योग्य हैं कि यह सम्बन्ध कितना निराशजनक बन चुका है? मैं मानता हूं कि जब लोग आशीषित होने के आनन्द में अपने आप को लगा देते हैं, तो कोई भी यह कल्पना नहीं कर सकता कि परमेश्वर के साथ इस प्रकार का सम्बन्ध कितना ही शर्मनाक और भद्दा होगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। सर्वशक्तिमान परमेश्वर मर्म तक पंहुच कर मनुष्यों के सत्य स्वभाव को उजागर करते हैः वे उनका आशीष पाने के लिए उनमें विश्वास करते हैं। वे उनके साथ सौदा करना चाहते हैं। मैंने बस यह एहसास किया है कि मेरे विश्वास के लिए मेरे उद्देश्य बहुत अशुद्ध थे। मैं स्वर्ग के राज्य में आशीषों, अनुग्रह, पुरस्कारों और स्वर्गारोहण के पीछे लगा था। जब तक मैं स्वर्ग के राज्य के आशीषों का आनंद ले सकता हूं, मुझे किसी भी पीड़ा को सहन करने और कोई भी कीमत चुकाने को तैयार था, लेकिन मैंने प्रभु के वचनों का अभ्यास करने और अनुभव लेने पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया; मैंने परमेश्वर को जानने की कोशिश नहीं की। परिणामस्वरूप, परमेश्वर के वचनों में निहित सत्य से मेरे जीवन को कुछ लेना देना नहीं था। मैंने वर्षों तक प्रभु में विश्वास किया है लेकिन मुझे प्रभु की थोड़ी सी भी जानकारी नहीं थी। मैंने सोचा कि मेरा विश्वास प्रभु की प्रशंसा प्राप्त कर सकता है, और यह कि जब वे वापिस लौटेंगे, तो मुझे स्वर्ग के राज्य में आरोहित कर दिया जायेगा। मैं वास्तव में बहुत बेशर्म और अज्ञानी था! मानवता को मुक्ति प्रदान करने और बचाने के लिए परमेश्वर ने दो बार अवतरण लिया। उसने ऐसा मनुष्य जाति को सत्य प्रदान करने के लिए किया। यह उन्हें परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार करने देगा। उन्हें पाप के बंधनों और नियंत्रणों से मुक्त कर उन्हें परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी बनाएगा। मैंने परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझा; मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, और निश्चित रूप से मैंने परमेश्वर के ज्ञान की खोज नहीं की। मैंने बस अनुग्रह और पुरस्कारों का ही विशिष्ट रूप से पीछा किया। भले ही मैंने कुछ त्याग किया हो, वो सिर्फ स्वर्ग के राज्य के आशीषों के लिए सौदे के समान है। मैं परमेश्वर में कहां विश्वास कर रहा था? मैं परमेश्वर से कहां प्रेम कर उनके प्रति निष्ठावान रहा? स्पष्टतौर पर, मैं बस परमेश्वर के साथ सौदेबाजी की कोशिश कर रहा था; मैं उनका इस्तेमाल करने और उनके साथ छल करने की कोशिश कर रहा था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के न्याय में, मैं अंततः देख चुका हूँ कि शैतान द्वारा मैं कितनी गहराई से भ्रष्ट किया जा चुका हूँ! मैं बहुत ज्यादा स्वार्थी और चालाक था! मुझमें मानवता की कोई भी झलक तक न थी! मैं एक घृणित खलनायक था, केवल खुद के लिए ही सोचता था। मैं परमेश्वर के समक्ष जीने के लिए उपयुक्त नहीं था! परमेश्वर सभी वस्तुओं के रचयिता है। मैं उनकी रचना हूँ। मेरे लिए यह ठीक और उचित है कि मैं परमेश्वर में विश्वास करूँ और उनके लिए हर चीज त्याग दूँ। यह मेरा कर्तव्य है। एक मनुष्य के तौर पर यह मेरी जिम्मेदारी है। मुझमें विवेक और अंतर्मात्मा की कमी थी। जब मैंने कुछ त्याग किया या दुख झेला, तो यह मेरी परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश का हिस्सा था; मैं उनसे क्षतिपूर्ति चाहता था; मैं आशीष चाहता था। मेरा यह विश्वास, जिसके द्वारा मैं परमेश्वर से छल करता हूँ, फिर मैं उनका तिरस्कार और घृणा का भागी किस प्रकार नहीं बनूंगा? परमेश्वर भला मेरे जैसे शैतानी प्राणी को अपने राज्य में कैसे प्रवेश करने दे सकते हैं? इस बार, मैं पश्चाताप में प्रार्थना कर, परमेश्वर के समक्ष घुटने टेक रहा रहा था। कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर मेरे साथ कैसा व्यवहार करें या मेरा अंतिम परिणाम जो कुछ भी हो, मैं स्वेच्छापूर्वक परमेश्वर की योजना का आज्ञा पालन करूंगा। यहां तक कि यदि मैं बस परमेश्वर को सेवा प्रदान करूं, तब भी मैं सत्य का अनुसरण करूंगा। उनके सृजन के तौर पर मैं अपना कर्तव्य निभाऊंगा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय, दंड, शोधन और एक के बाद दूसरे वचन की जांच का अनुभव लेकर, उनमें मेरे विश्वास से सम्बन्धित मेरा दृष्टिकोण बदल गया है। मैंने सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना शुरू कर दिया है। धीरे-धीरे, मैंने विश्वास के सही मार्ग पर आगे बढ़ना शुरू कर दिया है, जो उद्धार अर्जित कर सकता है। ये सब अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय का अनुभव लेने के परिणाम हैं! मुझे बचाने के लिए, सर्वशक्तिमान परमेश्वर को धन्यवाद!
अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव लेने के बाद, मैं अंततः देख चुका हूं कि मैं काफी गहराई तक शैतान द्वारा भ्रष्ट किया जाता रहा हूँ; मैं बहुत घमण्डी और पूरी तरह से बिना उद्देश्य के था। बाहर से, मुझे लगता था जैसे कि मैं सुसमाचार फैला सकता हूँ, कुछ काम कर सकता हूँ, परेशानियां झेल सकता हूँ और बाइबल के वचनों के बारे में बात कर सकता हूँ, कुछ अवतरणों को याद कर सकता हूँ। मैंने सोचा कि मैं परमेश्वर को जानता हूँ और अहंकारपूर्वक तथा दूसरों से स्वयं को श्रेष्ठ समझ कर कार्य करता था। दरअसल, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना नहीं की या सत्य और सिद्धांतों के लिए खोज नहीं की। मैंने आँख मूंदकर वो किया जो मेरी अपनी अवधारणाओं के अनुसार था। जब प्रभु की वापसी के संबंध में मेरे व्यवहार की बात आई, तो यह विशेष रूप से सच था। मैंने अपनी खुद की अवधारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर को बाइबल में सीमित कर दिया। मैंने सोचा कि परमेश्वर के सभी वचन और कार्य बाइबल में थे, और उनके कोई भी वचन या कार्य बाइबल से बाहर विद्यमान नहीं थे। मैंने हठपूर्वक विश्वास किया कि वे लोग जो प्रभु में विश्वास करते हैं उन्हें बाइबल रखनी चाहिए, और सोचा, कोई भी जो बाइबल नहीं रखता प्रभु में विश्वास कैसे रख सकता है? परिणाम यह था कि अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य ने जब मुझे छुआ, तो मैंने इसकी खोज या तलाश नहीं की। मैंने इसे नकारने और आलोचना करने में पादरियों और एल्डर्स (गुरूजनों) का अनुसरण भी किया। मैं अभिमानी था और ठीक परमेश्वर के सामने मैंने सभी उद्देश्य खो दिए! मेरा व्यवहार, क्या परमेश्वर में विश्वास का रूप था? नहीं, यह बस दुष्टता थी। मैं उन फरीसियों से अलग कैसे हूँ जिन्होंने प्रभु यीशु का विरोध किया?
मैंने कुछ ऐसा देखा जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने कहा है: "चूँकि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, इसलिए तुम्हें परमेश्वर के सभी वचनों और उसके सभी कार्यों में विश्वास अवश्य रखना चाहिए। अर्थात्, चूँकि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, इसलिए तुम्हें आज्ञापालन अवश्य करना चाहिए। यदि तुम ऐसा करने में असमर्थ हो, तो यह मायने नहीं रखता है कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो या नहीं। यदि तुमने वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास किया है, फिर भी कभी भी उसका आज्ञापालन नहीं किया है या उसके सभी वचनों को स्वीकार नहीं किया है, बल्कि उसके बजाए परमेश्वर से समर्पण करने को और तुम्हारी अवधारणाओं के अनुसार कार्य करने को कहा है, तो तुम सब से अधिक विद्रोही व्यक्ति हो, और तुम एक अविश्वासी हो। एक ऐसा व्यक्ति कैसे परमेश्वर के कार्य और वचनों का पालन करने में समर्थ हो सकता है जो मनुष्य की अवधारणाओं के अनुरूप नहीं है? सबसे अधिक विद्रोही मनुष्य वह है जो जानबूझकर परमेश्वर की अवहेलना करता है और उसका विरोध करता है। वह परमेश्वर का शत्रु है और मसीह विरोधी है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सच्चे हृदय से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे)। "जो लोग पवित्र आत्मा के नए कार्य का सामना करते समय सचेत नहीं होते हैं, जो अपना मुँह चलाते रहते हैं, वे आलोचनात्मक होते हैं, जो पवित्र आत्मा के धर्मी कार्यों को इनकार करने की अपनी प्राकृतिक सहज प्रवृत्ति पर लगाम नहीं लगाते हैं और उसका अपमान और ईशनिंदा करते हैं—क्या इस प्रकार के असभ्य लोग पवित्र आत्मा के कार्य के बारे में अनभिज्ञ नहीं रहते हैं? इसके अलावा, क्या वे अभिमानी, अंतर्निहित रूप से घमण्डी और अशासनीय नहीं हैं? …इस प्रकार के असभ्य, आसक्त लोग परमेश्वर में भरोसा करने का दिखावा करते हैं और जितना अधिक वे ऐसा करते हैं, उतना ही अधिक उनकी परमेश्वर के प्रशासकीय आदेशों का उल्लंघन करने की संभावना होती है। क्या वे सभी घमण्डी ऐसे लोग नहीं हैं जो स्वाभाविक रूप से उच्छृंखल हैं, और जिन्होंने कभी भी किसी का भी आज्ञापालन नहीं किया है, जो सभी इसी मार्ग पर चलते हैं? क्या वे दिन प्रतिदिन परमेश्वर का विरोध नहीं करते हैं, वह जो हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है)। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का प्रत्येक वचन मेरे हृदय में जड़ा हुआ था। उनके न्याय ने मेरा स्वभाव तथा सार प्रकट कर चुका है: मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ लेकिन उसका विरोध करता हूँ। मैंने अपने ऊपर उनका क्रोध महसूस किया। मैंने उनका धार्मिक और राजसी स्वभाव महसूस किया जिसको अपमानित नहीं किया जा सकता। अपने खुद के बुरे कार्यों की शर्म से मैं डर से कांप उठा, सिवाय घुटनों के बल जमीन पर बैठने के मेरे मैं और कुछ न कर सका। इन सब वर्षों में मैंने प्रभु में विश्वास किया है, तो मैं अभी भी इतना अभिमानी और दंभी क्यों हूँ? मुझमें परमेश्वर के प्रति श्रद्धा की भावना की कमी क्यों है? जब परमेश्वर का कार्य मेरी अवधारणाओं के अनुरूप नहीं था, मैंने अपनी इच्छानुसार इसे आंका और नकार दिया। मैंने सत्य की खोज नहीं की या परमेश्वर की बिल्कुल भी आज्ञा नहीं मानी। क्या मैं ऐसा अभिमानी पुरूष नहीं हूँ जो परमेश्वर में विश्वास करता है, फिर भी उनका विरोध करता है? मेरे व्यवहार ने परमेश्वर के स्वभाव को बहुत पहले अपमानित किया। यदि यह परमेश्वर की दया और उद्धार नहीं होता तो मुझे बहुत पहले नरक में भेज दिया गया होता। अंत के दिनों में मुझे परमेश्वर की आवाज सुनने और उनके न्याय व शुद्धि को स्वीकार करने का अवसर कैसे मिल सकता था?! मैंने महसूस किया कि मुझे वास्तव में परमेश्वर द्वारा बचाया गया था! इस बार मैंने पहले कभी की अपेक्षा खुद से ज्यादा घृणा की है और शाप दिया है। मैंने समाधान निकाला कि, इस बात की परवाह किये बिना कि, परमेश्वर मेरे साथ कैसा न्याय करते हैं, मुझे ताड़ना देते हैं, छांटते हैं, व्यवहार करते हैं, परखता या परिष्कृत करते हैं मैं इच्छापूर्वक इसे स्वीकार करूंगा और उनकी आज्ञा का पालन करूंगा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को निरंतर पढ़कर, और उनके न्याय और ताड़ना का अनुभव कर अब मैं कई सत्यों को समझता हूँ जिन्हें पहले नहीं समझा था। मैं परमेश्वर का विरोध करने और विश्वासघात करने के अपने खुद के शैतानी स्वभाव की समझ को पहले से ज्यादा प्राप्त कर रहा हूँ। अब मेरे पास परमेश्वर के पवित्र सार और धार्मिक स्वभाव के बारे में कुछ सच्चा ज्ञान भी है जो किसी दोष की अनुमति नहीं देता। अनजाने में, मैंने परमेश्वर के प्रति सम्मान और सत्य की ललक विकसित की है। मैं पहले की अपेक्षा बहुत लो प्रोफाइल रखता हूँ। अब मैं वैसा अभिमानी और दंभी नहीं हूँ। जब मैं चीजों का सामना करता हूँ, मैं जानबूझकर खुद से इनकार कर सकता हूँ, सत्य को तलाश सकता हूँ और सत्य का अभ्यास कर सकता हूँ। मेरे जीवन का स्वभाव धीरे-धीरे बदल गया। ये सब परमेश्वर के वचन द्वारा न्याय और ताड़ना के अनुभव का परिणाम है। अब मैं अंततः समझता हूँ कि परमेश्वर में सच्चा विश्वास क्या होता है। मैं परमेश्वर में सच्चे मूल्य और विश्वास के अर्थ को समझता हूँ। यह ऐसा कुछ है जिसे विश्वासियों ने अनुग्रह के युग में कभी प्राप्त नहीं किया। अनुग्रह के युग के दौरान, हम में से अधिकांश विश्वासियों ने पौलुस का अनुकरण करने पर ध्यान दिया। हमने प्रभु के लिए कार्य किया और कष्ट उठाए। हमने प्रभु के नाम को नकारने की अपेक्षा कारावास में कष्ट उठाना भी पसंद किया। क्या परमेश्वर में इस प्रकार का विश्वास हमारे जीवन के स्वभाव को बदल सकता है? क्या यह वास्तव में हमें परमेश्वर की आज्ञा पालन करने और उन्हें प्रेम करने दे सकता है? अंत में, क्या यह विश्वास वास्तव में हमें शैतान को हराने दे सकता है? क्या यह वास्तव में परमेश्वर को संतुष्ट कर सकता है? परमेश्वर सत्य को अभिव्यक्त करते हुए मनुष्यों पर अपना कार्य करते हैं और उन्हें अपने वचनों का अभ्यास व अनुभव करने को कहते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? वह ऐसा मनुष्य के जीवन के स्वभाव में बदलाव लाने और उन्हें शैतान के प्रभाव से बचाने के लिए करते हैं। अंत में, यह मनुष्यों को उन्हें जानने और उनका पालन करने देते हैं। यही है, जिसे परमेश्वर में सच्चे विश्वास से प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन प्रभु के अधिकांश विश्वासी मानते हैं कि जब तक वे प्रभु के लिए अपना सब कुछ बलिदान और कठिन परिश्रम करेंगे, तब ही वे प्रभु के हृदय के करीब होंगे, और यह कि जब वे लौटेंगे, तो वे स्वर्ग के राज्य में स्वर्गारोहण किये जायेंगे। प्रभु हम पर अपना कार्य करते हैं। क्या यह इसलिए कि उनके कार्य का प्रचार करने के बाद और उस प्रक्रिया में कष्ट उठाकर, हम उनसे पूछें कि, "मैंने अच्छी लड़ाई लड़ी है। और अब मार्ग पर मेरी दौड़ समाप्त हो चुकी है। क्या मेरे लिए धार्मिकता का एक मुकुट रखा गया है?" क्या परमेश्वर मनुष्यों से ऐसी मांग करते हैं? क्या यह परमेश्वर की इच्छा है? क्या हम इसे परमेश्वर में विश्वास करना समझते हैं, क्या हम उन्हें गलत नहीं समझ रहे हैं?
अब जबकि हम यह सब कह चुके हैं, तो क्या आप समझते हैं कि परमेश्वर में सच्चा विश्वास क्या है? क्या परमेश्वर में विश्वास करना लेकिन अंत के दिनों में उनके न्याय या शुद्धि का अनुभव न लेना ठीक है? यदि हम परमेश्वर में विश्वास करें लेकिन उनके वचन के न्याय और ताड़ना का अनुभव न लें, तो क्या हम परमेश्वर को जान सकते हैं? क्या हम परमेश्वर की इच्छा को समझ सकते हैं और वास्तव में उनकी आज्ञा पालन व आराधना कर सकते हैं, यदि हम उनमें विश्वास तो करें लेकिन उनके वचनों का अभ्यास न करें या उनके कार्य का अनुभव न लें? इस प्रकार, यदि हम वास्तव में परमेश्वर को जानना चाहते हैं और अपने स्वभाव को बदलना चाहते हैं, तो अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के कार्य को स्वीकारना और अनुभव करना अत्यंत महत्वूर्ण है! सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "यदि लोग अनुग्रह के युग में बने रहेंगे, तो वे कभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त नहीं होंगे, और परमेश्वर के अंर्तनिहित स्वभाव को जानने की बात को तो जाने ही दें। यदि लोग सदैव अनुग्रह की प्रचुरता में रहते हैं, परंतु वे जीवन के उस मार्ग के बिना हैं, जो उन्हें परमेश्वर को जानने और उसे संतुष्ट करने देता है, तब वे उसे वास्तव में कभी भी प्राप्त नहीं करेंगे, यद्यपि वे उस पर विश्वास करते हैं। यह विश्वास का कैसा दयनीय स्वरूप है। …जब तुम राज्य के युग में देहधारी परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक कदम का अनुभव प्राप्त कर लोगे, तब तुम अनुभव करोगे कि अनेक वर्षों की तुम्हारी आशाएँ अंततः साकार हो गयी हैं। तुम अनुभव करोगे कि केवल अब तुमने परमेश्वर को वास्तव में आमने-सामने देखा है, केवल अब ही तुमने परमेश्वर के चेहरे को निहारा है, परमेश्वर व्यक्तिगत कथन को सुना है, परमेश्वर के कार्य की बुद्धि की सराहना की है, और वास्तव में महसूस किया है कि परमेश्वर कितना वास्तविक और सर्वशक्तिमान है। तुम महसूस करोगे कि तुमने ऐसी बहुत सी चीजों को पाया है जिन्हें अतीत में लोगों ने कभी देखा या धारण नहीं किया था। इस समय, तुम संतुष्ट रूप में जान लोगे कि परमेश्वर पर विश्वास करना क्या है, और परमेश्वर के हृदय के अनुसरण में होना क्या है। निस्संदेह, यदि तुम अतीत के विचारों से जुड़े रहते हो, और परमेश्वर के दूसरे देहधारण को अस्वीकार या इनकार करते हो, तब तुम खाली-हाथ रहोगे और कुछ नहीं पाओगे, और अंततः परमेश्वर का विरोध करने के दोषी होगे। वे जो सत्य का पालन करते हैं और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करते हैं, वे दूसरे देहधारी परमेश्वर – सर्वशक्तिमान—के नाम के अधीन आएँगे। वे परमेश्वर से व्यक्तिगत मार्गदर्शन पाने में सक्षम होंगे, वे अधिक उच्चतर सत्य को प्राप्त करेंगे और वास्तविक मानव जीवन ग्रहण करेंगे…" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना)।
"परमेश्वर में आस्था" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश