206 मैं परमेश्वर को दोबारा कभी नहीं छोड़ूँगी
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परमेश्वर की विश्वासी बनने के बाद, मैं उससे मुंह मोड़ कर फिर से दुनियादारी में वापस चली गई और धनदौलत के पीछे भागने लगी।
मैं दिन-रात देहसुख के पीछे भागती हुई अपने तन-मन को थकाती रही।
उन दिनों परमेश्वर के बिना, दुख ही मेरा साथी था।
मैं अंधकार में गिर चुकी थी और मेरे दिल में आतंक व्याप्त था।
परमेश्वर की कठोर ताड़ना और अनुशासन के बाद ही मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया।
मैंने कभी ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण नहीं किया था; मैंने कभी उसके वचनों को नहीं संजोया था।
आस्था और धार्मिकता से मुंह मोड़कर, मैंने परमेश्वर का दिल दुखाया था। मैंने अपने आपसे पूछा : मेरी अंतरात्मा कहां है?
मेरे मन में परमेश्वर के प्रति कोई श्रद्धा नहीं थी; उसके स्वभाव का उल्लंघन करके भी मैं बेखबर बनी रही।
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उसके न्याय और ताड़ना से मुझे अपनी ईश्वर-छली प्रकृति का साफ तौर पर पता चला।
मैंने परमेश्वर के सामने समर्पण कर दिया, मैं पछतावे, अपराध-बोध और शर्मिंदगी से भरी हुई थी।
मेरी जिद और मेरा विद्रोह निरंतर परमेश्वर को आहत करते रहे थे; मैंने जो शर्मनाक काम किए थे, मैं उन्हें अपने दिल से कैसे मिटा सकती थी?
यह उसकी दया और प्रेम भरी करुणा ही थी जिसने मुझे प्रायश्चित का अवसर दिया,
और मैं फिर से उसके घर में लौटकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर पाई।
परमेश्वर के सच्चे प्रेम का अनुभव करके, मुझे गहरा बोध हुआ कि मैं उसकी कितनी ऋणी हूँ।
मैंने महसूस किया कि उसके स्वभाव में धार्मिकता और प्रताप है, साथ ही दया और प्रेममयी करुणा भी है।
मैंने एक नया लक्ष्य तय किया : नई शुरुआत करने का, परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान और उसकी गवाही देने का।