767 परमेश्वर में विश्वास करना लेकिन उसे प्रेम नहीं करना एक व्यर्थ जीवन है
1
ईश्वर प्रेम से बढ़कर नहीं है और गहरा सबक कोई।
जीवन भर के विश्वास से, कैसे प्रेम करें ईश्वर से, यही सबक लेते हैं लोग।
अगर विश्वास है तुम्हें ईश्वर में, तो उसे प्रेम करने का प्रयास करो।
विश्वास तो है, मगर प्रेम नहीं करते,
उसका ज्ञान हासिल नहीं करते, कभी दिल से
सच्चा प्रेम नहीं किया उसे तुमने, तो आस्था बेकार है तुम्हारी।
ईश्वर में विश्वास है, मगर प्रेम नहीं करते उसे, तो जीना व्यर्थ है तुम्हारा।
तमाम ज़िंदगियों में जीवन सबसे अधम है तुम्हारा।
अगर जीवन भर तुमने, प्रेम नहीं किया, संतुष्ट नहीं किया ईश्वर को,
तो क्या मायने हैं, क्या मायने हैं जीने के?
क्या मायने हैं ईश्वर में तुम्हारी आस्था के? क्या तमाम कोशिशें बेकार नहीं हैं?
2
अगर लोगों को आस्था रखनी है, प्रेम करना है ईश्वर से,
तो एक कीमत चुकानी होगी।
उन्हें सिर्फ़ दिखावे के लिए काम नहीं करने चाहिए।
अपने दिल की गहराइयों में उन्हें सच्चा ज्ञान अर्जित करना चाहिए।
अगर तुम में लगन है भजन गाने की, नाचने की,
मगर सत्य पर अमल नहीं कर पाते हो,
तो क्या कह सकते हो, ईश्वर से तुम सच्चा प्रेम करते हो?
ईश्वर में विश्वास है, मगर प्रेम नहीं करते उसे, तो जीना व्यर्थ है तुम्हारा।
तमाम ज़िंदगियों में जीवन सबसे अधम है तुम्हारा।
अगर जीवन भर तुमने, प्रेम नहीं किया, संतुष्ट नहीं किया ईश्वर को,
तो क्या मायने हैं, क्या मायने हैं जीने के?
क्या मायने हैं ईश्वर में तुम्हारी आस्था के? क्या तमाम कोशिशें बेकार नहीं हैं?
3
ईश्वर से प्रेम की ख़ातिर हर चीज़ में उसकी इच्छा तलाशना ज़रूरी है।
जब कुछ हो जाए तुम्हारे साथ, तो अंतर्मन की जाँच ज़रूरी है।
ईश्वर-इच्छा को समझने का प्रयास करो,
जानने की कोशिश करो इस मामले में
वो तुमसे क्या हासिल करवाना चाहता है,
और इस बात का तुम्हें कैसे ख़्याल रखना चाहिए।
ईश्वर में विश्वास है, मगर प्रेम नहीं करते उसे, तो जीना व्यर्थ है तुम्हारा।
तमाम ज़िंदगियों में जीवन सबसे अधम है तुम्हारा।
अगर जीवन भर तुमने, प्रेम नहीं किया, संतुष्ट नहीं किया ईश्वर को,
तो क्या मायने हैं, क्या मायने हैं जीने के?
क्या मायने हैं ईश्वर में तुम्हारी आस्था के? क्या तमाम कोशिशें बेकार नहीं हैं?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है से रूपांतरित