323 लोग परमेश्वर से परमेश्वर जैसा बर्ताव नहीं करते
1 प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय में निरंतर ऐसा गुणा-भाग करता है, और वे परमेश्वर से माँगें करते हैं जिनमें उनके कारण, महत्वाकांक्षाएँ, तथा लेन-देन की मानसिकता होती है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने हृदय में लगातार परमेश्वर की परीक्षा लेता रहता है, परमेश्वर के बारे में लगातार मनसूबे बनाता रहता है, और स्वयं अपने व्यक्तिगत मनोरथ के पक्ष में परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क करता रहता है, और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहलवाने की कोशिश करता है, यह देखने के लिए कि परमेश्वर उसे वह दे सकता है या नहीं जो वह चाहता है। परमेश्वर का अनुसरण करने के साथ ही साथ, मनुष्य परमेश्वर से परमेश्वर के समान बर्ताव नहीं करता है। मनुष्य ने परमेश्वर के साथ हमेशा सौदेबाजी करने की कोशिश की है, उससे अनवरत माँगें की हैं, और यहाँ तक कि एक इंच देने के बाद एक मील लेने की कोशिश करते हुए, हर क़दम पर उस पर दबाव भी डाला है।
2 परमेश्वर के साथ सौदबाजी करने की कोशिश करते हुए साथ ही साथ, मनुष्य उसके साथ तर्क-वितर्क भी करता है, और यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं जो, जब परीक्षाएँ उन पर पड़ती हैं या जब वे अपने आप को किन्हीं निश्चित स्थितियों में पाते हैं, तो प्रायः कमज़ोर, निष्क्रिय और अपने कार्य में सुस्त पड़ जाते हैं, और परमेश्वर के बारे में शिकायतों से भरे होते हैं। मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक स्विस आर्मी चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और कर्तव्य है, जबकि परमेश्वर का दायित्व मनुष्य की रक्षा और देखभाल करना, और उसे भरण-पोषण देना है। ऐसी है "परमेश्वर में विश्वास" की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ।
3 मनुष्य की प्रकृति के सार से लेकर उसके व्यक्तिपरक अनुसरण तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के भय से संबंधित हो। परमेश्वर में विश्वास करने में मनुष्य के लक्ष्य का परमेश्वर की आराधना के साथ कोई लेना-देना संभवतः नहीं हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह, मनुष्य ने न कभी यह विचार किया और न समझा कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए परमेश्वर का भय मानने और आराधना करने की आवश्यकता होती है। मनुष्य का हृदय द्वेषपूर्ण है, छल और कपट रखता है, निष्पक्षता और धार्मिकता और उससे जो सकारात्मक है प्रेम नहीं करता है, और यह तिरस्करणीय और लोभी है। मनुष्य का हृदय परमेश्वर के लिए और अधिक बंद नहीं हो सकता है; उसने इसे परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं दिया है। परमेश्वर ने मनुष्य का सच्चा हृदय कभी नहीं देखा है, न ही उसकी मनुष्य द्वारा कभी आराधना की गई है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II से रूपांतरित