215 मोआब के वंशजों की ओर से परमेश्वर की स्तुति
1
मुसीबत में आँसू बहाती मोआब की संतानें,
आँसुओं में भीगे उदास चेहरे उनके।
परमेश्वर के वचनों का न्याय
ख़ौफ़ से कँपाता है मुझे।
आँसुओं में डूबी आँखों के साथ,
न्याय की अग्नि के हवाले कर दिया गया है मेरा देह।
मुसीबत में आँसू बहाती मोआब की संतानें।
बेरहम न्याय भेजता है नरक में मुझे।
दर्द और ताड़ना आते हैं मुझपर।
पुकारती हूँ, खोजती हूँ मैं तुम्हें इम्तहानों में।
मायूसी में डूबती, ख़ुद से और भी नफ़रत करती हूँ मैं।
है कैसी त्रासदी, भरोसा है मुझे, मगर तुम्हारी नहीं हूँ मैं।
महसूस करती हूँ अपराधी-सा, धिक्कारती ख़ुद को ग्लानि से मैं।
इम्तहान की भट्ठी तोड़ती है दिल मेरा।
2
भरोसा है तुम पर, संतुष्ट नहीं कर पाती तुम्हें मगर,
नहीं इस काबिल कि कहलाऊँ इंसान मैं।
अगर ज़मीर है मुझ में, तो उठना चाहिये मुझे,
गवाही देनी चाहिये तुम्हारी मुझे।
अगर नफ़रत भी है तुम्हें मुझसे, तो भी चाहूँगी तुम्हें,
बग़ैर शर्मिंदगी के।
भले ही मोआब की संतान हूँ मैं,
तुम्हें चाहने वाला दिल मेरा, बदलेगा नहीं कभी मगर।
तुम्हारी इच्छा जानना चाहते हैं बहुत से लोग।
तुम्हें पूरी तरह प्रेम करना चाहते हैं बहुत से लोग।
तुम्हें संतुष्ट करने की ख़ातिर गवाही तैयार कर रहे हैं बहुत से लोग।
तुम्हारे प्यार के प्रतिदान की ख़ातिर,
अपनी जान देने को तैयार हैं बहुत से लोग।
मुसीबत में आँसू बहाती मोआब की संतानें,
आशीष पाने की ख़्वाहिश,
हो रही है ओझल परमेश्वर के न्याय में,
भ्रष्टता हो गई दरकिनार ताड़ना में,
विलाप के आँसू धुल गए ख़ामोशी में।
पूरी निष्ठा से स्तुति करती मोआब की संतानें।
बेहद प्यारा है परमेश्वर, सदा प्रेम करती रहूँगी उसे मैं।