व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत

जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार विश्वास के मार्ग पर चलना चाहिए। विश्वासियों को सत्य के अनुसार आचरण करना चाहिए। यदि लोगों के पास सत्य नहीं है और वे शैतान के फलसफों के अनुसार जीते हैं, तो अंततः वे एक सकारात्मक परिणाम या अंत प्राप्त नहीं करेंगे। केवल परमेश्वर के वचन ही अनंत, अपरिवर्तनीय सत्य हैं। यदि कोई विश्वासी परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं जीता या सत्य के अनुसार आचरण नहीं करता तो वह सांसारिक लोगों से भी अधिक और आशाहीन रूप से अंधा है। लौकिक दुनिया में एक निश्चित क्षेत्र में कुछ सफलता प्राप्त कर प्रसिद्ध होने वाले बहुत-से लोगों के दिमाग पर प्रसिद्धि और लाभ का नशा छा जाता है, और वे खुद को महान समझने लगते हैं। असल में तुम्हें दूसरे लोग जो आदर, प्रशंसा, समर्थन और मान्यता देते हैं, वे केवल अस्थायी सम्मान हैं। वे जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, न ही उनका जरा सा भी अर्थ यह है कि व्यक्ति सही मार्ग पर चल रहा है। वे अस्थायी सम्मान और यश से ज्यादा कुछ नहीं हैं। ये यश क्या हैं? ये वास्तविक हैं या खोखले? (खोखले।) ये टूटते तारों की तरह हैं, ये पलभर के लिए चमक बिखेरकर गायब हो जाते हैं। ऐसा यश, सम्मान, वाहवाही, ख्याति और प्रशंसा प्राप्त करने के बाद भी लोगों को वास्तविक जीवन में वापस लौटना होगा और वैसे जीना होगा जैसे उन्‍हें जीना चाहिए। कुछ लोग इसे समझ नहीं पाते और चाहते हैं कि ये चीजें हमेशा उनके साथ रहें, जो कि अव्‍यावहारिक है। ऐसे वातावरण और माहौल में रहने से जैसा अनुभव होता है, उसके कारण लोग इसमें रहना चाहते हैं; वे हमेशा इस भाव का आनंद लेना चाहते हैं। यदि वे इसका आनंद नहीं उठा पाते हैं, तो वे गलत रास्ते पर चलने लगते हैं। कुछ लोग खुद को भुलाने के लिए मदिरापान और नशीली दवाओं का सेवन करने जैसे विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल करते हैं : शैतान की दुनिया में रहने वाले इंसानों का प्रसिद्धि और लाभ को लेकर ऐसा ही रुख होता है। एक बार जब कोई व्यक्ति प्रसिद्ध हो जाता है और थोड़ा यश प्राप्त कर लेता है, तो उसके दिशा खोने की आशंका रहती है और वह नहीं जानता कि उसे कैसे कार्य करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। वह आसमान में उड़ने लगता है और जमीन पर नहीं आ पाता—यह खतरनाक है। क्या तुम लोग कभी ऐसी स्थिति में रहे हो या क्‍या तुमने कभी ऐसा व्यवहार प्रदर्शित किया है? (बिल्कुल।) इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों का स्वभाव भ्रष्ट है : वे बहुत घमंडी और अहंकारी हैं, वे प्रलोभन या प्रशंसा नहीं झेल सकते, और वे सत्य का अनुसरण नहीं करते या इसे समझते नहीं हैं। वे सोचते हैं कि वे अपनी केवल एक छोटी-सी उपलब्धि या यश के कारण अद्वितीय हैं; उन्हें लगता है कि वे एक महान व्यक्ति या महानायक बन गए हैं। वे सोचते हैं कि इस सारी प्रसिद्धि, लाभ और यश के सामने खुद को महान न समझना एक अपराध होगा। जो लोग सत्य को नहीं समझते, उनकी कभी भी और कहीं भी अपने बारे में ऊँची राय रखने की संभावना होती है। जब वे अपने बारे में बहुत ऊँची राय रखने लगते हैं, तो क्या उनके लिए फिर से धरातल पर आना आसान होता है? (नहीं।) थोड़ी-सी भी समझ रखने वाले लोग अपने बारे में अकारण ऊँची राय नहीं रखते। जब तक उन्होंने कुछ हासिल नहीं किया होता, देने के लिए उनके पास कुछ नहीं होता, और समूह में कोई उन पर ध्यान नहीं देता, वे चाहकर भी अपने बारे में ऊँची राय नहीं रख सकते। वे थोड़े अहंकारी और आत्ममुग्ध हो सकते हैं, या उन्‍हें लग सकता है कि वे कुछ हद तक प्रतिभाशाली और दूसरों से बेहतर हैं, लेकिन उनकी अपने बारे में ऊँची राय रखने की संभावना नहीं होती। लोग किन परिस्थितियों में अपने बारे में ऊँची राय रखते हैं? जब दूसरे लोग किसी उपलब्धि के लिए उनकी तारीफ करते हैं। वे सोचते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं, अन्य लोग साधारण और मामूली हैं, केवल वे ही रुतबे वाले हैं और अन्य लोगों वाले वर्ग या स्तर के न होकर उनसे ऊँचे हैं। ऐसे वे अहंकारी हो जाते हैं। और वे अपने बारे में अपनी ऊँची राय को उचित मानते हैं। वे यह कैसे आँकते हैं? वे यह मानते हैं, “मेरे पास अनोखी ताकत, क्षमता और दिमाग है, और मैं सत्य का अनुसरण करने का इच्‍छुक हूँ। अब मैंने कुछ हासिल कर लिया है—मैंने नाम कमा लिया है, और मेरी प्रतिष्ठा और मूल्य अन्य लोगों से अधिक है। इसलिए मैं निश्चित रूप से भीड़ से अलग दिखता हूँ, और मैं वह हूँ जिसका हर कोई सम्मान करता है, लिहाजा मेरा अपने बारे में ऊँची राय रखना सही है।” वे अपने दिमाग में इस तरह से सोचते हैं और अंततः यह निश्चित और प्रत्याशित हो जाता है कि उन्हें अपने बारे में ऊँची राय रखनी चाहिए। वे मानते हैं कि यह निर्विवाद रूप से सही और तर्कसंगत है। अगर वे अपने बारे में ऊँची राय नहीं रखते, तो वे असंतुलित महसूस करते हैं, जैसे वे खुद को कमतर आंक रहे हों और अन्य लोगों की स्‍वीकृति के योग्य न हों; और इसलिए उन्‍हें लगता है कि अपने बारे में ऊँची राय रखना स्वाभाविक है। अपने बारे में इतनी ऊँची राय रखने के क्या दुष्परिणाम होते हैं? (वे कभी दूसरों के साथ मिल-जुलकर काम नहीं करेंगे और चीजों को अपने तरीके से करना चाहेंगे।) यह उनके व्यवहार का एक पहलू होता है। दूसरे पहलू क्‍या हैं? (वे अब जमीन से जुड़े नहीं रहते, अपने कार्यक्षेत्र में आगे बढ़ने के प्रयास जारी नहीं रखते और जो कुछ भी उनके पास पहले से ही है, वे उसी के भरोसे बहुत अधिक रहते हैं।) (वे उन स्थितियों के आगे समर्पण करने से इनकार कर देते हैं जिन्हें वे पसंद नहीं करते।) वे समर्पण से इनकार क्‍यों कर देते हैं? क्या वे पहले ऐसा कर सकते थे? (उनके पास पहले अहंकारी होने का साधन नहीं था और वे अपने नियं‍त्रण और दमन में सक्षम थे, इसलिए वे कुछ हद तक समर्पण कर सकते थे। लेकिन अब उन्हें लगता है कि उनके पास साधन और योग्यता है, और वे दूसरों से अलग हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि वे अपनी शर्तें खुद तय कर समर्पण से इनकार कर सकते हैं।) उन्हें लगता है कि वे अब पहले से अलग हैं, कि उनके पास रुतबा है, वे प्रसिद्ध हैं, और उन्‍हें दूसरों के सामने आसानी से समर्पण नहीं कर देना चाहिए। यदि उन्होंने ऐसा किया, तो यह उनके रुतबे के अनुकूल नहीं होगा और वे अपनी प्रसिद्धि के अनुरूप नहीं जी रहे होंगे। उन्हें लगता है कि उन्हें “ना” कहने का और दूसरों के समक्ष समर्पण करने से इनकार करने का अधिकार है। वे कौन से अन्य व्यवहार प्रदर्शित करते हैं? (यदि उनका मामला गंभीर हो जाता है, तो वे यह कहकर पौलुस के समान हो सकते हैं, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8), और यह भूलकर कि वे एक सृजित प्राणी हैं, परमेश्वर के साथ सशर्त बातचीत करना शुरू कर सकते हैं।) वे भूल जाते हैं कि वे कौन हैं। क्या तुम लोगों को लगता है कि किसी व्यक्ति का अपने बारे में ऊँची राय रखना अच्छा है? (नहीं।) नहीं, तो फिर लोग अपने आप को ऊँचा क्यों समझते हैं? (उनके भीतर के शैतानी स्वभाव के कारण।) शैतानी स्वभाव होना अपरिहार्य है, और निश्चित रूप से यही समस्या की जड़ है। अन्‍य कारण क्‍या हैं? आइए, व्यावहारिक कारणों के बारे में बात करते हैं। (लोग अपनी उपलब्धियों पर बहुत अधिक जोर देते हैं, उन्हें ही जीवन मान लेते हैं। इस प्रकार वे हमेशा अपनी सफलता में मगन रहते हैं, जिससे वे एक ऐसी आत्म-संतोष की स्थ‍िति में पहुँच जाते हैं जिससे वे बाहर नहीं आ पाते।) यही इस मामले का मर्म है। इसका संबंध इससे है कि लोग अपने दिल में किस चीज का अनुसरण करते हैं और क्या चाहते हैं, साथ ही साथ वे किस मार्ग को चुनते हैं। बहुत से लोग मानते हैं कि अगर वे कुछ नियमित कार्य कर सकते हैं और तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता वाले कुछ कर्तव्य निभा सकते हैं, तो उनके पास आध्यात्मिक कद है। उनका कार्य जितना अधिक कुशल, असाधारण और परिपूर्ण होता है, उतना ही अधिक यह साबित होता है कि उनके पास वास्तविकता है, वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, और उसके प्रति समर्पित हैं। वे इसे अपना जीवन मानते हैं। इस प्रकार, वे निश्चित रूप से इसे संजोते हैं और अपने जीवन के लक्ष्य के रूप में इसका अनुसरण करते हैं, लेकिन उनके मार्ग के समान ही उनका लक्ष्य और उनकी दिशा भी गलत हैं। यही नहीं, इसके मूल में लोगों की जीवन के प्रति समझ, सत्य के अनुसरण की समझ और सत्य वास्तविकता के अर्थ को लेकर समझ त्रुटिपूर्ण है। जब लोगों की समझ त्रुटिपूर्ण होती है, तो किसी चीज के बारे में उसका ज्ञान और अंतिम अनुमान भी त्रुटिपूर्ण ही होगा। यदि तुम्‍हारी समझ त्रुटिपूर्ण है, तो जिसका तुम अनुसरण कर रहे हो, वह भी त्रुटिपूर्ण होना चाहिए। लिहाजा, तुम्हारा चुना रास्ता समस्याग्रस्त होना तय है, और तुम्‍हारे जीवन की दिशा और तुम्हारे लक्ष्य भी त्रुटिपूर्ण होंगे।

हर कोई जानता है कि किसी व्यक्ति के लिए सिर्फ इसलिए खुद को ऊँचा समझना अच्छी बात नहीं है कि वह अपने कर्तव्य निर्वहन में कुछ नतीजे प्राप्त करने में सक्षम रहा है। तो फिर लोग खुद को ऊँचा क्‍यों समझने लगते हैं? इसकी एक वजह लोगों का अहंकार और सतहीपन है। क्या अन्य कारण भी हैं? (एक कारण यह भी है कि लोगों को यह बोध नहीं होता कि परमेश्वर ही ये नतीजे हासिल कराने में उनकी अगुवाई करता है। वे सोचते हैं कि सारे श्रेय के हकदार वे खुद हैं, उनके पास साधन हैं, इसलिए वे अपने बारे में ऊँची राय रखते हैं। वास्तव में, परमेश्वर के कार्य के बिना लोग कुछ भी करने में असमर्थ हैं, लेकिन वे यह देख नहीं पाते।) यह कथन सही है, और यही इस मुद्दे में सबसे महत्‍वपूर्ण भी है। अगर लोग परमेश्वर को नहीं जानेंगे और उन्हें प्रबुद्ध करने के लिए उनके पास पवित्र आत्मा नहीं होगी तो वे हमेशा खुद को कुछ भी करने में सक्षम समझेंगे। इसलिए यदि उनके पास साधन हैं, तो वे अहंकारी हो सकते हैं और अपने बारे में ऊँची राय रख सकते हैं। क्‍या तुम अपना कर्तव्य निभाने के दौरान परमेश्वर का मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा का प्रबोधन महसूस करने में सक्षम हो? (हाँ।) अगर तुम पवित्र आत्मा के कार्य को महसूस करने में सक्षम हो, फिर भी अपने बारे में ऊँची राय रखते हो और सोचते हो कि तुम वास्तविकता से युक्त हो, तो यह क्या हो रहा है? (जब हमारा कर्तव्य-पालन कुछ सफल हो जाता है, तो हम सोचते हैं कि आधा श्रेय परमेश्वर का है और आधा हमारा। हम अपने सहयोग को असीम रूप से बढ़ा-चढ़ा लेते हैं, और सोचते हैं कि हमारे सहयोग से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं था, और परमेश्वर का प्रबोधन इसके बिना संभव नहीं होता।) तो परमेश्वर ने तुम्हें प्रबुद्ध क्यों किया? क्या परमेश्वर अन्य लोगों को भी प्रबुद्ध कर सकता है? (हाँ।) जब परमेश्वर किसी को प्रबुद्ध करता है, तो यह परमेश्वर का अनुग्रह होता है। और तुम्हारी ओर से वह छोटा-सा सहयोग क्या है? क्या वह कोई ऐसी चीज है, जिसके लिए तुम्हें श्रेय दिया जाए—या वह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है? (यह हमारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है।) जब तुम मानते हो कि यह तुम्‍हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है, तो तुम सही मनःस्थिति में होते हो, और तब तुम इसका श्रेय लेने की कोशिश करने के बारे में नहीं सोचोगे। अगर तुम हमेशा यह सोचते हो, “यह मेरा योगदान है। क्या परमेश्वर का प्रबोधन मेरे सहयोग के बिना संभव होता? इस कार्य के लिए इंसान के सहयोग की जरूरत है; यह उपलब्धि मुख्य रूप से हमारे सहयोग की बदौलत होती है,” तो तुम गलत हो। अगर पवित्र आत्मा ने तुम्हें प्रबुद्ध न किया होता, और अगर किसी ने तुम्हारे साथ सत्य सिद्धांतों पर संगति न की होती, तो तुम सहयोग कैसे कर पाते? तुम्हें पता ही नहीं होता कि परमेश्वर की क्या अपेक्षा है, न ही तुम्हें अभ्यास का मार्ग पता होता। अगर तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सहयोग करना भी चाहते, तो भी तुम यह न जानते कि कैसे करें। क्या तुम्हारा यह “सहयोग” केवल खोखले शब्द नहीं हैं? सच्चे सहयोग के बिना, तुम केवल अपने विचारों के अनुसार कार्य कर रहे होते हो—उस स्थिति में, तुम जो कर्तव्य निभाते हो, क्या वह मानक के अनुरूप हो सकता है? बिल्कुल नहीं, और यह विचाराधीन मुद्दे की ओर संकेत करता है। यह किस समस्या का संकेत देता है? व्यक्ति चाहे जो भी कर्तव्य करे, उसमें क्या वह परिणाम प्राप्त करता है, क्या मानक के अनुरूप अपना कर्तव्य निभाता है और परमेश्वर का अनुमोदन पाता है या नहीं, यह परमेश्वर के क्रियाकलापों पर निर्भर करता है। भले ही तुम अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य पूरे कर दो, लेकिन अगर परमेश्वर कार्य न करे, अगर वह तुम्हें प्रबुद्ध न करे और तुम्हारा मार्गदर्शन न करे, तो तुम अपना मार्ग, अपनी दिशा या अपने लक्ष्य नहीं जान पाओगे। अंततः इसका क्या परिणाम होता है? लगातार परिश्रम करने के बाद, तुमने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया होगा, न ही तुमने सत्य और जीवन प्राप्त किया होगा—यह सब व्यर्थ हो गया होगा। इसलिए, तुम्हारे कर्तव्य का मानक अनुरूप होना, इससे तुम्हारे भाई-बहनों को लाभ मिलना, और परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करना, ये सब परमेश्वर पर निर्भर करता है! लोग केवल वही चीजें कर सकते हैं, जिन्हें करने में वे व्यक्तिगत रूप से सक्षम होते हैं, जिन्हें उन्हें करना चाहिए और जो उनकी अंतर्निहित क्षमताओं के भीतर होती हैं—इससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए, अंततः प्रभावशाली ढंग से कर्तव्य निभाना परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा के प्रबोधन और अगुआई पर निर्भर करता है; केवल तभी तुम सत्य को समझ सकते हो और परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए मार्ग और उसके द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार परमेश्वर का आदेश पूरा कर सकते हो। ये परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष हैं, अगर लोग यह नहीं देख पाते, तो वे अंधे हैं। परमेश्वर का घर चाहे किसी भी प्रकार का कार्य करे, नतीजा क्या होना चाहिए? इसका एक भाग परमेश्वर की गवाही देना और परमेश्वर के सुसमाचार फैलाना होना चाहिए, जबकि इसका दूसरा भाग भाई-बहनों को शिक्षित कर लाभ पहुँचाना होना चाहिए। परमेश्वर के घर के कार्य को दोनों क्षेत्रों में नतीजे प्राप्त करने चाहिए। परमेश्वर के घर में तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभाओ, क्या तुम परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना नतीजे प्राप्त कर सकते हो? कदापि नहीं। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना तुम जो करते हो वह निश्चित रूप से व्‍यर्थ है। इन वर्षों में जैसे-जैसे तुम लोग अपने कर्तव्य निभाते जा रहे हो, जितना अधिक तुम ये कर्तव्य निभाते हो, उतना ही अधिक तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के करीब आते हो, उतना ही अधिक तुम उसके इरादों को समझ पाते हो और उतना ही अधिक तुम सिद्धांतों को समझ पाते हो। यह सब कैसे हासिल किया जाता है? (परमेश्वर के मार्गदर्शन से।) परमेश्वर के मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा के प्रबोधन के बिना लोग भला क्या “योगदान” दे सकते हैं? उनके “योगदान” का एक हिस्सा मानवीय कल्पनाएँ हैं। कभी-कभी लोग यह सोचकर अपनी कल्पनाओं के अनुसार कर्तव्य निभाते हैं कि ऐसा करके वे परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं। लेकिन नतीजा इसके विपरीत निकलता है। वे जो हासिल करते हैं वह न केवल परमेश्वर की गवाही देने के वांछित प्रभाव को प्राप्त करने में विफल रहता है, बल्कि अवास्तविक और अव्यावहारिक भी प्रतीत होता है, यह मानवीय कल्पनाओं और मनगढ़ंत बातों की उपज मात्र है, जो अंततः परमेश्वर का अपमान करता है। इसका एक अन्य भाग मानवीय धारणाएँ हैं। लोग अपनी धारणाओं के आधार पर कार्य करना पसंद करते हैं और मानते हैं कि उनकी धारणाएँ सत्य के अनुरूप हैं। जब वे अपनी धारणाओं के अनुसार कार्य करते हैं, तो वे सोचते हैं कि उन्हें दूसरों से अनुमोदन प्राप्त है और वे परमेश्वर की महिमा बढ़ा रहे हैं। परिणामस्वरूप, वे अपनी धारणाओं के आधार पर बहुत कुछ करते हैं, और न केवल वे परमेश्वर के लिए गवाही देने के वांछित प्रभाव को प्राप्त करने में असफल होते हैं; बल्कि, वे इन धारणाओं को सत्य मानने के लिए दूसरों को भी गुमराह करते हैं। यह उन्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करने से तो रोकता ही है, परमेश्वर के प्रति गलतफहमियों, संदेहों, उसकी भर्त्सना और ईशनिंदा की ओर भी ले जाता है। ये अपनी धारणाओं के आधार पर कार्य करने और इन धारणाओं को फैलाने के दुष्परिणाम हैं। जब लोगों में सत्य की समझ नहीं होती तो वे अपने कार्यों का मार्गदर्शन करने के लिए कल्पनाओं और धारणाओं के भरोसे रहते हैं। कल्पनाओं और धारणाओं के अलावा लोगों के “योगदान” का एक और पहलू मानवीय ज्ञान है। विभिन्न क्षेत्रों में ज्ञान की एक समृद्ध शृंखला प्राप्त करने के बाद वे इस ज्ञान का उपयोग परमेश्वर की अपेक्षाओं का मूल्यांकन करने, सत्य की कल्पना करने और अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने के तरीके के बारे में निर्णय लेने के लिए करते हैं। ऐसे कार्यों का नतीजा क्या होता है? वे निश्चित रूप से परमेश्वर के इरादों का खंडन करते हैं, क्योंकि मानवीय ज्ञान सत्य के विपरीत और इसके विरोध में है। जब लोग मानवीय ज्ञान के आधार पर अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो यह कलीसिया में किस प्रकार की स्थिति पैदा करता है? लोग ज्ञान को आदर्श मानने लगेंगे और एक दूसरे की तुलना कर यह देखने लगेंगे कि कौन अधिक जानता है, किसने अधिक किताबें पढ़ी हैं या कौन उच्च शैक्षणिक योग्यता रखता है। वे इस तरह की चीजों की तुलना करना पसंद करते हैं। जब कलीसिया के भीतर ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है, तो क्या इसका कोई लेना-देना लोगों द्वारा परमेश्वर की सेवा करने और गवाही देने के लिए मानवीय ज्ञान का उपयोग करने से है? निश्चित रूप से, ऐसा है। अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर की गवाही देने के लिए ज्ञान का उपयोग करने के क्या दुष्परिणाम हैं? यह सत्य के प्रति प्रेम के स्थान पर मानवीय ज्ञान को प्राथमिकता देता है, लोगों को मानवीय ज्ञान का अनुसरण करने के मार्ग की ओर मोड़ता है। यह गलत है और व्यक्ति को सच्चे मार्ग से पूरी तरह विचलित कर देता है। परमेश्वर की गवाही देने और सेवा करने के लिए चाहे कल्पनाओं का उपयोग करना हो या फिर अवधारणाओं या मानवीय ज्ञान का, इनमें से किसी भी तरीके से लोगों को परमेश्वर को जानने और उसके प्रति समर्पण में मदद करने का वांछित नतीजा प्राप्त नहीं हो सकता है। इसके बजाय ये तरीके लोगों को परमेश्वर की ओर मुड़ने से आसानी से रोक सकते हैं। इसलिए परमेश्वर की गवाही देने के लिए कल्पनाओं, धारणाओं या मानवीय ज्ञान का उपयोग करना, यह सब परमेश्वर के विरुद्ध एक प्रकार का प्रतिरोध है। यह परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी पैदा कर बाधा डालता है और वह ऐसे कार्यों को स्वीकृति नहीं देता है।

मानवीय कल्पनाएँ, धारणाएँ और ज्ञान, ये सभी विचार के क्षेत्र के पहलू हैं। मनुष्य के कार्यों का एक आधार उसके अपने विचार और दृष्टिकोण होते हैं, तो दूसरा आधार होता है उसका भ्रष्ट स्वभाव जो बहुत अहम भूमिका निभाता है। यदि लोग सत्य को नहीं समझते हैं, स्वयं को नहीं जानते हैं, सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं, सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, और परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण करने में अक्षम हैं, तो फिर वे किस चीज को आधार बनाकर अपने कर्तव्य निभाते हैं? वे अपने अहंकार, छल-कपट, शातिरपन और अपनी दुष्टताऔर हठधर्मिता के आधार पर कार्य कर रहे हैं, जो सभी उनके भ्रष्ट स्वभाव के पहलू हैं। इन भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर अपना कर्तव्य निभाने के क्या दुष्परिणाम होते हैं? (लोग दूसरों के साथ मिल-जुलकर सहयोग नहीं कर पाते और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा कर बाधा भी डाल सकते हैं।) इन दुष्परिणामों को जानना चाहिए। हर कोई अपनी इच्‍छा के अनुसार कार्य करता है, सत्य का अभ्यास नहीं करता। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं का काम करता है, सामंजस्य में कार्य नहीं करता है, और व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करता है। जो काम अच्छी तरह से पूरा किया जा सकता था, वह अराजक और अव्‍यवस्‍थ‍ित हो जाता है। यह अविश्वासियों के काम करने के तरीके से अलग नहीं है। शैतान के खेमे में चाहे समाज में हो या सरकारी हलकों में, कैसा माहौल है? कौन सी प्रथाएँ प्रचलित हैं? तुम सबको इसकी कुछ समझ होनी चाहिए। उनके कार्यों के सिद्धांत और दिशानिर्देश क्या होते हैं? प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में एक नियम है; हर कोई अपने हिसाब से चलता है। वे अपने हित में और अपनी मर्जी के कार्य करते हैं। जिसके पास अधिकार होता है उसी का निर्णय अंतिम होता है। वे दूसरों के बारे में जरा भी नहीं सोचते। जैसा वे चाहते हैं, वैसा ही करते हैं, और प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए संघर्ष करते हैं तथा पूरी तरह से अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हैं। जैसे ही उन्हें शक्ति प्राप्त होती है, वे इसका प्रयोग फौरन दूसरों पर करते हैं। यदि तुम उन्‍हें ठेस पहुँचाते हो, तो वे तुम पर शिकंजा कसना चाहते हैं, और तुम उन्हें उपहार देने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। वे बिच्छुओं की तरह हानिकारक हैं, कानून, सरकारी नियमों का उल्लंघन करने और यहाँ तक कि अपराध करने को तैयार हैं। वे यह सब करने में सक्षम हैं। तो शैतान के खेमे में इतना अँधेरा और दुष्टता है। अब, परमेश्वर मानवता को बचाने, लोगों को सत्य स्वीकार करवाने, सत्य समझाने और शैतान के बंधन और शक्ति से मुक्त करवाने आया है। यदि तुम लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते और सत्य का अभ्यास नहीं करते तो क्या तुम अब भी शैतान की सत्ता में नहीं जी रहे हो? उस स्थिति में, तुम लोगों की वर्तमान स्थिति और दानवों और शैतान की स्थिति में क्या अंतर है? तुम लोग ठीक वैसे ही प्रतिस्पर्धा करोगे जैसे अविश्वासी करते हैं। तुम लोग उसी तरह लड़ोगे जैसे अविश्वासी लड़ते हैं। सुबह से लेकर रात तक तुम लोग षड्यंत्र और प्रपंच रचने, ईर्ष्‍या करने और विवादों में उलझे रहोगे। इस समस्या की जड़ क्या है? इसका कारण यह है कि लोगों के स्‍वभाव भ्रष्ट हैं और वे इन भ्रष्‍ट स्‍वभावों के अनुसार जीते हैं। भ्रष्ट स्वभावों का शासन शैतान का शासन है; भ्रष्‍ट मानवता शैतानी स्वभाव में निवास करती है और कोई भी अपवाद नहीं है। इसलिए तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि तुम इतने अच्छे, इतने विनम्र या इतने ईमानदार हो कि सत्ता और लाभ के संघर्ष में लिप्त नहीं हो सकते। यदि तुम सत्य को नहीं समझते और परमेश्वर तुम्‍हारी अगुआई नहीं करता तो तुम निश्चित रूप से अपवाद नहीं हो, और तुम किसी भी तरह अपनी निष्कपटता, दयालुता या अपनी युवावस्था के कारण, प्रसिद्ध‍ि और लाभ के लिए संघर्ष करने से खुद को दूर नहीं रख पाओगे। वास्तव में, जब तक तुम्‍हारे पास मौका और परिस्थ‍ितियाँ हैं, तुम भी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागोगे। प्रसिद्ध‍ि और लाभ के लिए ललचाना शैतान की दुष्ट प्रकृति वाले मनुष्यों का सर्वविदित व्‍यवहार है। कोई भी अपवाद नहीं है। सभी भ्रष्ट मनुष्य प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए जीते हैं, और वे इन चीजों के अपने संघर्ष में कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं। शैतान की सत्ता के अधीन रहने वाले सभी लोगों का यही हाल है। इसलिए, जो कोई सत्य को स्वीकारता या समझता नहीं है, जो सिद्धांतों के अनुसार नहीं चल सकता, वह शैतान के स्वभाव के साथ जीने वाला व्यक्ति है। शैतानी स्वभाव पहले ही तुम्हारी सोच पर हावी होकर तुम्‍हारे व्यवहार को नियंत्रित कर चुका है; शैतान ने पूरी तरह तुम्हें अपने नियंत्रण और बंधन में जकड़ लिया है; और अगर तुम सत्य को स्वीकार करके शैतान से विद्रोह नहीं करते तो तुम बचकर नहीं निकल पाओगे। अब जब तुम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य अच्छे से निभा रहे हो, तो तुम थोड़े—से समर्पित, हृदय से थोड़े-बहुत लचीले, थोड़े-से गंभीर हो, और तुम्हारे अंदर जिम्मेदारी की एक भावना है, तुम अपने रुतबे की चिंता नहीं करते और अक्सर प्रतिस्‍पर्धा से दूर रह पाते हो, दूसरों के प्रति समर्पण कर पाते हो, दूसरों के साथ मिल-जुलकर सहयोग कर पाते हो और कुछ समझ में न आने पर खोज और प्रतीक्षा कर पाते हो। तुमने यह रवैया और व्यवहार कैसे प्राप्त किया? इसका सीधा संबंध परमेश्वर के प्रावधान, मार्गदर्शन और सिंचन से है। यह सब उन असंख्य वचनों का नतीजा है जो परमेश्वर ने बोले हैं। अन्यथा, भले ही किसी व्यक्ति में अच्छी काबिलियत हो, वह सत्य की खोज नहीं कर सकता या सत्य को समझ नहीं सकता। यदि परमेश्वर इन सत्यों को व्यक्त करने नहीं आया होता, तो लोग सत्य को खोजने के लिए कहाँ जाते? लोग बचपन से शिक्षा प्राप्त करते हैं और कई वर्षों तक स्कूल जाते हैं, लेकिन क्या उन्होंने सत्‍य सीखा? बिल्कुल नहीं। लोग मशहूर और महान हस्तियों की बड़ाई करते हैं, और सांस्कृतिक ज्ञान की बड़ाई करते हैं, लेकिन क्या उन्होंने सत्‍य सीखा? उन्‍होंने नहीं सीखा। अनेक पुस्तकें पढ़ने के बाद भी उन्होंने सत्य नहीं सीखा है। वस्तुतः संसार में कोई सत्य है ही नहीं। परमेश्वर के आने और सत्य और अनन्त जीवन का मार्ग लाने के बाद और कई वर्षों तक परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद ही लोग अंततः सत्य की खोज करते हैं। तभी उन्हें सत्य के मूल्य का और कीमती होने का एहसास होता है। इस बिंदु परआकर लोग यह पहचानने लगते हैं कि अतीत में, उनके शब्द, कार्य और आचरण कल्पनाओं, धारणाओं और मानवीय ज्ञान पर आधारित थे। इन चीजों के अलावा वे अपने भ्रष्ट स्वभाव से प्रेरित थे। लोगों के दिलों में भरी धारणाएँ, मानवीय ज्ञान और कल्पनाएँ सत्य नहीं हैं। इसलिए लोग शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के विभिन्न पहलुओं को जीने लगते हैं। वे चाहकर भी मानव के समान नहीं जी सकते या झूठ बोलने से परहेज नहीं कर सकते, और उनके लिए कुछ अच्छे काम करना भी कठिन है। जो लोग शैतान के स्वभाव के अनुसार जीते हैं, वे स्वाभाविक रूप से शैतान की छवि प्रकट करते हैं। उनके शब्द, कार्य और व्यवहार सभी शैतान के स्वभाव से प्रभावित हैं, और उनमें से कोई भी इससे बच नहीं सकता है। यदि तुम इस बिंदु को पहचानने में सक्षम हो, तो अपने कर्तव्य को निभाने की प्रक्रिया में, चाहे तुम कुछ निश्चित नतीजे प्राप्त करो, कुछ निश्चित योगदान करो, अच्छा व्यवहार प्रदर्शित करो, या कुछ परिवर्तनों का अनुभव करो, तुम्‍हारी मानसिकता कैसी होनी चाहिए? (परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता की मानसिकता।) तुम्हें परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए। सारी महिमा परमेश्वर की है। यह परमेश्वर का किया है, और इसमें लोगों के लिए डींग मारने लायक कुछ भी नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग स्तर का रुझान होता है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग संगीत की लय और धुन के प्रति स्वाभाविक रूप से संवेदनशील होते हैं, जबकि अन्य नृत्य में उत्कृष्ट होते हैं। लोगों के पास चाहे जो भी सहज प्रतिभा हों, वे सभी परमेश्वर ने दी हैं, और इसमें लोगों के लिए डींग मारने जैसा कुछ भी नहीं है। निश्चित रूप से उन्हें ये सहज प्रतिभाएँ अपने माता-पिता से नहीं मिलीं क्योंकि संभवतः स्‍वयं माता-पिता के पास ये प्रतिभाएँ न हों, और यदि उनके पास हों भी तो वे अपनी प्रतिभाएँ अपने बच्चों को नहीं दे सकते हैं; यदि बच्चों में पहले से ही सहज क्षमता नहीं है तो माता-पिता अपने बच्चों को प्रतिभा नहीं सिखा सकते। इसलिए, लोगों के पास मौजूद प्रतिभाओं और उपहारों का उनके माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है। निःसंदेह, ये प्रतिभाएँ कोई ऐसी चीज नहीं हैं जिन्हें सीखकर हासिल किया जा सके। लोग जिन खूबियों और क्षमताओं के साथ पैदा होते हैं, वे परमेश्वर प्रदत्त होती हैं। उन्हें बहुत पहले ही परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित कर दिया था। अगर परमेश्वर ने तुम्हें मूर्ख बनाया है, तो तुम्हारी मूर्खता अर्थवान है; अगर उसने तुम्हें तेज दिमाग का बनाया है, तो तुम्हारे में तेज होना अर्थवान है। परमेश्वर तुम्हें जो भी प्रतिभा दे, तुम्हारे जो भी ताकत हो, चाहे तुम्हारी बौद्धिक क्षमता कितनी भी ऊँची हो, उन सभी का परमेश्वर के लिए एक उद्देश्य है। ये सब बातें परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत हैं। अपने जीवन में तुम जो भूमिका और कर्तव्य निभाते हो—उन्‍हें परमेश्वर ने बहुत पहले ही नियत कर दिया था। कुछ लोग देखते हैं कि दूसरों के पास ऐसी क्षमताएँ हैं जो उनके पास नहीं हैं और असंतुष्ट रहते हैं। वे अधिक सीखकर, अधिक देखकर, और अधिक मेहनती होकर चीजों को बदलना चाहते हैं। लेकिन उनकी मेहनत जो कुछ हासिल कर सकती है, उसकी एक सीमा है, और वे प्रतिभा और विशेषज्ञता वाले लोगों से आगे नहीं निकल सकते। तुम चाहे जितना भी लड़ो, वह व्‍यर्थ है। परमेश्वर ने तय किया हुआ है कि तुम क्या होगे, और उसे बदलने के लिए कोई कुछ नहीं कर सकता। तुम जिस भी चीज में अच्छे हो, तुम्हें उसी में प्रयास करना चाहिए। तुम जिस भी कर्तव्य के उपयुक्त हो, तुम्‍हें उसी कर्तव्य को करना चाहिए। अपने कौशल से बाहर के क्षेत्रों में खुद को विवश करने का प्रयास न करो और दूसरों से ईर्ष्या मत करो। सबका अपना कार्य है। हमेशा दूसरे लोगों का स्थान लेने या आत्म-प्रदर्शन करने की इच्छा रखते हुए यह मत सोचो कि तुम सब-कुछ अच्छी तरह कर सकते हो, या तुम दूसरों से अधिक परिपूर्ण या बेहतर हो। यह भ्रष्ट स्वभाव है। ऐसे लोग भी हैं जो सोचते हैं कि वे कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते, और उनके पास बिल्कुल भी कौशल नहीं है। अगर ऐसी बात है तो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो शालीनता से सुने और समर्पण करे। तुम जो कर सकते हो, उसे अच्छे से, अपनी पूरी ताकत से करो। इतना पर्याप्त है। परमेश्वर संतुष्ट होगा। हमेशा सभी से आगे निकलने, सब-कुछ दूसरों से बेहतर करने और हर तरह से भीड़ से अलग दिखने की मत सोचो। यह कैसा स्वभाव है? (अहंकारी स्वभाव।) लोगों का स्वभाव हमेशा अहंकारी होता है, और यदि वे सत्य के लिए प्रयास करना और परमेश्वर को संतुष्ट करना भी चाहें, तो कर नहीं पाते। अपने अहंकारी स्वभाव के नियंत्रण में होने के कारण लोगों के आसानी से भटकने की काफी संभावना होती है। जैसे, कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हमेशा परमेश्वर की अपेक्षाओं के बजाय अपने नेक इरादे जताकर दिखावा करना चाहते हैं। क्या परमेश्वर ऐसे नेक इरादों की अभिव्यक्ति को स्वीकृति देगा? परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहने के लिए, तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं का पालन करना होगा और अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना होगा। नेक इरादे व्यक्त करने वाले लोग परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील नहीं रहते, बल्कि नई-नई चालें चलने और ऊँची लगने वाली बातें कहने की कोशिश करते हैं। परमेश्वर यह नहीं कहता कि तुम इस तरह विचारशील बनो। कुछ लोग कहते हैं कि यह उनका प्रतिस्पर्धी होना है। प्रतिस्पर्धी होना अपने आप में एक नकारात्मक बात है। यह शैतान के अभिमानी स्वभाव का खुलासा है—प्रकटन है। जब तुम्हारा ऐसा स्वभाव होता है, तो तुम हमेशा दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश करते हो, हमेशा उनसे आगे निकलने की कोशिश करते हो, हमेशा प्रतिस्‍पर्धा करते हो, हमेशा लोगों से कुछ लेने की कोशिश करते हो। तुम अत्यधिक ईर्ष्यालु होते हो, किसी के सामने नहीं झुकते और हमेशा खुद को भीड़ से अलग दिखाने की कोशिश करते हो। इससे समस्‍या होती है; शैतान इसी तरह काम करता है। यदि तुम वाकई एक स्वीकार्य सृजित प्राणी बनना चाहते हो, तो अपने सपनों के पीछे मत भागो। अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपने कद से अधिक श्रेष्ठ और सक्षम होने का प्रयास करना बुरी बात है; तुम्हें परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना सीखना चाहिए और अपने पद से बाहर नहीं जाना चाहिए; इसी को समझदारी दिखाना कहते हैं।

अपने आचरण के संबंध में तुम लोगों के क्‍या सिद्धांत हैं? तुम्हारा आचरण तुम्हारे पद के अनुसार होना चाहिए, अपने लिए सही स्‍थान खोजो और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए उसे निभाओ; केवल ऐसा व्यक्ति ही समझदार होता है। उदाहरण के तौर पर, कुछ लोग कुछ पेशेवर कौशलों में निपुण होते हैं और सिद्धांतों की समझ रखते हैं, और उन्हें जिम्मेदारी लेनी चाहिए और उस क्षेत्र में अंतिम जाँचें करनी चाहिए; कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने विचार और अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं, और दूसरों को प्रेरित कर उन्हें अपने कर्तव्य बेहतर तरीके से निभाने में मदद कर सकते हैं—तो फिर उन्हें अपने विचार साझा करने चाहिए। यदि तुम अपने लिए सही स्‍थान खोज सकते हो और अपने भाई-बहनों के साथ सद्भाव से कार्य कर सकते हो, तो तुम अपना कर्तव्य पूरा करोगे, और तुम अपने पद के अनुसार आचरण करोगे। मूल रूप से, हो सकता है कि तुम केवल कुछ विचार प्रदान करने में सक्षम हों, लेकिन यदि तुम कुछ और पेश करने का प्रयास करते हो और तुम ऐसा करने की बहुत कोशिश करने के बावजूद इसमें असमर्थ होते हो; और फिर, जब दूसरे लोग वे चीजें प्रदान करते हैं, तो तुम असहज हो जाते हो, और सुनना नहीं चाहते, तुम्हारा दिल दुखी और लाचार हो जाता है, और तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो और कहते हो कि परमेश्वर अधार्मिक है—तो फिर यह महत्वाकांक्षा है। वह कौन सा स्वभाव है जो किसी व्यक्ति में महत्वाकांक्षा उत्पन्न करता है? व्यक्ति का अभिमानी स्वभाव ही महत्वाकांक्षा उत्पन्न करता है। निश्चित रूप से ऐसी अवस्थाएँ तुम लोगों में किसी भी समय उत्पन्न हो सकती हैं, और यदि तुम लोग इनका समाधान करने के लिए सत्य की खोज नहीं करते हो, न तुम्हारे पास जीवन प्रवेश हो और इस संबंध में बदल नहीं सकते, तो जिस योग्यता और शुद्धता के साथ तुम लोग अपना कर्तव्य करते हो, उसका स्‍तर बहुत ही निम्न होगा और परिणाम भी बहुत अच्छे नहीं होंगे। यह अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभाना नहीं है और इसका मतलब है कि परमेश्वर ने तुम लोगों से महिमा प्राप्त नहीं की है। परमेश्वर ने हर व्यक्ति को अलग-अलग प्रतिभा और गुण दिए हैं। कुछ लोगों के पास दो या तीन क्षेत्रों में प्रतिभाएँ होती हैं, कुछ के पास एक ही क्षेत्र में प्रतिभा होती है, और कुछ के पास कोई भी प्रतिभा नहीं होती है—यदि तुम लोग इन बातों को सही तरीके से समझ सको, तो तुम्‍हारे पास विवेक है। एक विवेकपूर्ण व्‍यक्ति अपना स्थान खोजने और उसके अनुसार आचरण कर अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में सक्षम होगा। जो व्यक्ति कभी अपना स्थान प्राप्त नहीं कर सकता, वह वो व्यक्ति होता है जो हमेशा महत्वाकांक्षा रखता है। वह हमेशा रुतबे और लाभ के पीछे भागता है। उसके पास जो कुछ होता है, वह उससे कभी संतुष्ट नहीं होता। अधिक लाभ पाने के लिए वह जितना हो सके, उतना लेने की कोशिश करता है; वह हमेशा अपनी असंयत इच्छाएँ पूरी होने की आशा करता है। वह सोचता है कि अगर उसके पास गुण हैं और उसकी क्षमता अच्छी है, तो उसे परमेश्वर का ज्यादा अनुग्रह मिलना चाहिए, और यह कि कुछ असंयत इच्छाएँ रखना कोई गलती नहीं है। क्या इस तरह के व्यक्ति में विवेक है? क्या हमेशा असंयत इच्छाएँ रखना बेशर्मी नहीं है? जिन लोगों में जमीर और विवेक होता है, वे महसूस कर सकते हैं कि यह बेशर्मी है। जो लोग सत्य समझते हैं, वे ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें नहीं करेंगे। अगर तुम परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करने के लिए अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाने की आशा रखते हो, तो यह कोई असंयत इच्छा नहीं है। यह सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के अनुरूप है। यह परमेश्वर को प्रसन्न करता है। अगर तुम सच में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहते हो, तो तुम्हें पहले अपने लिए उपयुक्त स्थान ढूँढ़ना होगा, उसके बाद तुम्हें वह चीज करनी होगी जिसे तुम पूरे मन से, पूरे दिमाग से, अपनी पूरी शक्ति से कर सकते हो, और अपना सर्वश्रेष्ठ करो। यह संतोषजनक है और कर्तव्य के ऐसे प्रदर्शन में शुद्धता का अंश मौजूद होता है। यह वही चीज है जो एक सच्चे सृजित प्राणी को करनी चाहिए। पहले, तुमको यह समझना जरूरी है कि सच्चा सृजित प्राणी किसे कहते हैं : सच्चा सृजित प्राणी कोई अलौकिक व्यक्ति नहीं होता है, बल्कि वह ऐसा व्यक्ति होता है जो पृथ्वी पर ईमानदारी और व्‍यावहारिकता से रहता है; वह बिल्कुल भी असाधारण नहीं होता है और जरा भी विशेष न होकर, किसी भी साधारण व्‍यक्ति के समान ही होता है। यदि तुम हमेशा दूसरों से आगे निकलने की इच्छा रखते हो, दूसरों से श्रेष्ठ बनना चाहते हो, तो यह तुम्हारे अभिमानी और शैतानी स्वभाव के कारण हुआ है, और यह तुम्‍हारी महत्‍वाकांक्षा से उपजा एक भ्रम है। वास्तव में, तुम इसे हासिल नहीं कर सकते, और तुम्हारे लिए ऐसा करना असंभव है। परमेश्वर ने तुमको ऐसी प्रतिभा या कौशल नहीं प्रदान किया और न ही उसने तुम्हें ऐसा सार दिया। यह मत भूलो कि तुम मनुष्य जाति के एक साधारण सदस्य हो, तुम किसी भी तरह से दूसरों से भिन्न नहीं हो, हालांकि तुम्हारा रूप, परिवार और पालन-पोषण अलग हो सकता है, और तुम्हारी प्रतिभा और गुणों में कुछ अंतर हो सकते हैं। लेकिन यह मत भूलो : तुम कितने ही अद्वितीय क्यों न हों, यह केवल इन छोटी-छोटी बातों तक सीमित है, तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव दूसरों के ही समान है। तुम्‍हारा दृष्टिकोण और वे सिद्धांत जिनका अपना कर्तव्य निर्वाह करते समय तुम्‍हें पालन करना जरूरी है, दूसरों के समान ही हैं। लोग केवल अपनी शक्ति और गुणों में ही दूसरों से भिन्न होते हैं। कलीसिया में कुछ लोग गिटार बजा सकते हैं तो कुछ आरहू या ड्रम बजा सकते हैं। यदि इनमें से किसी में भी तुम्‍हारी रुचि है तो तुम सीख सकते हो। चाहे कोई भी खास कौशल या तकनीक हो, जब तक तुम सीखने में आनंद लेते हो और तुममें लगन है, तुम सीख सकते हो। एक बार तुम एक नया कौशल सीख लोगे तो इसका उपयोग एक अतिरिक्त कर्तव्य निभाने के लिए कर सकते हो, न केवल लोगों को खुश करने के लिए बल्कि परमेश्वर को भी खुश करने के लिए भी। अधिक कौशल हासिल करना और परमेश्वर के घर के कार्य में अधिक योगदान देना सबसे धन्य होने वाली बात है। जब कोई युवा हो और उसकी याददाश्त अच्छी हो तो नई चीजें सीखने में कोई बुराई नहीं है। इससे फायदा ही फायदा है और नुकसान कोई नहीं है। यह कर्तव्यों के पालन और परमेश्वर के घर के कार्य के लिए लाभप्रद है। अपने कर्तव्य निभाते हुए विभिन्न नई चीजें सीखने पर ध्यान केंद्रित करने का मतलब है कि व्यक्ति मेहनती और जिम्मेदार है; वह उन लोगों से कहीं बेहतर है जो अपने काम के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं। लेकिन यदि तुम कुछ समय से कुछ सीख रहे हो और अब तक तुममें उसकी कोई समझ नहीं बनी है, तो यह इंगित करता है कि उस क्षेत्र में तुममें काबिलियत नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे कुछ लोग नृत्य तो अच्छा कर लेते हैं लेकिन गाते बेसुरा हैं या उतने संगीतमर्मज्ञ नहीं होते, यह जन्मजात है और इसे बदला नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति से सही दृष्टिकोण के साथ निपटना चाहिए। यदि तुम नृत्य कर सकते हो, तो अच्छे से नृत्य करो। यदि तुम्‍हारे पास परमेश्वर की प्रशंसा करने वाला हृदय है, तो भले ही तुम बेसुरा गाते हो, परमेश्वर इसका बुरा नहीं मानता। जब तक तुम्‍हारे हृदय में खुशी है, तो उतना ही पर्याप्त है। भले ही तुम्‍हारी व्यक्तिगत प्रतिभाएँ कैसी भी हों, जब तक तुम उनका उपयोग करते हो, यह अच्छी बात है। अपने कर्तव्यों को शुद्ध अंतःकरण से निभाओ और यही अपने स्‍थान के अनुसार आचरण करने का अर्थ है।

किसी भी व्यक्ति को स्वयं को पूर्ण, प्रतिष्ठित, कुलीन या दूसरों से भिन्न नहीं समझना चाहिए; यह सब मनुष्य के अभिमानी स्वभाव और अज्ञानता से उत्पन्न होता है। हमेशा अपने आप को दूसरों से अलग समझना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी अपनी कमियाँ स्वीकार न कर पाना और कभी भी अपनी भूलों और असफलताओं का सामना न कर पाना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी दूसरों को अपने से ऊँचा नहीं होने देना या अपने से बेहतर नहीं होने देना—ऐसा अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; दूसरों की खूबियों को कभी खुद से श्रेष्ठ या बेहतर न होने देना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी दूसरों को अपने से बेहतर विचार, सुझाव और दृष्टिकोण न रखने देना और दूसरे लोगों के बेहतर होने का पता चलने पर खुद नकारात्मक हो जाना, बोलने की इच्छा न रखना, व्यथित और निराश महसूस करना, तथा परेशान हो जाना—ये सभी चीजें अभिमानी स्वभाव के ही कारण होती हैं। अभिमानी स्वभाव तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा के प्रति रक्षात्‍मक, दूसरों के सुधारों को स्वीकार करने में असमर्थ, अपनी कमियों का सामना करने तथा अपनी असफलताओं और गलतियों को स्वीकार करने में असमर्थ बना सकता है। इसके अतिरिक्त, जब कोई व्यक्ति तुमसे बेहतर होता है, तो यह तुम्हारे दिल में घृणा और जलन पैदा कर सकता है, और तुम स्वयं को विवश महसूस कर सकते हो, कुछ इस तरह कि अब तुम अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहते और इसे निभाने में अनमने हो जाते हो। अभिमानी स्वभाव के कारण तुम्हारे अंदर ये व्यवहार और आदतें प्रकट हो जाती हैं। अगर तुम इन विवरणों की धीरे-धीरे गहराई से पड़ताल करने, सफलता पाने में समर्थ हो और इनकी समझ हासिल कर लेते हो; और अगर फिर तुम धीरे-धीरे इन विचारों से विद्रोह करने में सक्षम हो जाते हो, इन गलत धारणाओं, दृष्टिकोणों और व्यवहारों से विद्रोह कर पाते हो, और इनसे विवश नहीं होते; और यदि अपना कर्तव्य निभाते समय तुम अपने लिए सही पद प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हो, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो और वह कर्तव्य निभाते हो जो तुम निभा सकते हो तथा जो तुम्हें निभाना चाहिए; तो समय के साथ तुम लोग अपने कर्तव्य बेहतर ढंग से निभाने में सक्षम हो जाओगे। यह सत्य वास्तविकता में प्रवेश है। यदि तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाते हो, तो तुममें मनुष्य जैसी समानता प्रतीत होगी और लोग कहेंगे, “यह व्यक्ति अपने पद के अनुसार आचरण करता है और वह अपना कर्तव्य विनम्र तरीके से निभा रहा है। ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाने में स्वाभाविकता पर, जल्दी क्रोध करने पर या अपने भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव पर भरोसा नहीं करते। वे संयम से कार्य करते हैं, उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, उन्हें सत्य से प्रेम होता है और उनके व्यवहार और हाव-भाव से पता चलता है कि वे अपनी दैहिक इच्‍छाओं और प्राथमिकताओं से विद्रोह कर चुके हैं।” ऐसा आचरण करना कितना अद्भुत है! ऐसे अवसर पर जब दूसरे लोग तुम्हारी कमियाँ बताते हैं, तो तुम न केवल उन्हें स्वीकार कर लेते हो, बल्कि तुम आशावादी रहते हो तथा अपनी कमियों और दोषों का आत्मविश्वास के साथ सामना करते हो। तुम्हारी मनोस्थिति बिल्कुल सामान्य है, अतिशयता और गरममिज़ाजी से मुक्‍त। क्या मानवीय समानता का होना यही नहीं होता? केवल ऐसे लोगों में ही समझ होती है।

जब लोग हमेशा मुखौटा लगाए रहते हैं, हमेशा खुद को अच्छा दिखाते हैं, हमेशा खास होने का ढोंग करते हैं जिससे दूसरे उनके बारे में अच्छी राय रखें, और अपने दोष या कमियाँ नहीं देख पाते, जब वे लोगों के सामने हमेशा अपना सर्वोत्तम पक्ष प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं, तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह अहंकार है, कपट है, पाखंड है, यह शैतान का स्वभाव है, यह एक दुष्ट स्वभाव है। शैतानी शासन के सदस्यों को लें : वे अंधेरे में कितना भी लड़ें-झगड़ें या हत्या तक कर दें, किसी को भी उनकी शिकायत करने या उन्‍हें उजागर करने की अनुमति नहीं होती। वे डरते हैं कि लोग उनका राक्षसी चेहरा देख लेंगे, और वे इसे छिपाने का हर संभव प्रयास करते हैं। सार्वजनिक रूप से वे यह कहते हुए खुद को पाक-साफ दिखाने की पूरी कोशिश करते हैं कि वे लोगों से कितना प्यार करते हैं, वे कितने महान, गौरवशाली और अमोघ हैं। यह शैतान की प्रकृति है। शैतान की प्रकृति की सबसे प्रमुख विशेषता धोखाधड़ी और छल है। और इस धोखाधड़ी और छल का उद्देश्य क्या होता है? लोगों की आँखों में धूल झोंकना, लोगों को अपना सार और असली रंग न देखने देना, और इस तरह अपने शासन को दीर्घकालिक बनाने का उद्देश्य हासिल करना। साधारण लोगों में ऐसी शक्ति और हैसियत की कमी हो सकती है, लेकिन वे भी चाहते हैं कि लोग उनके पक्ष में राय रखें और उन्हें खूब सम्मान की दृष्टि से देखें और अपने दिल में उन्हें ऊँचे स्थान पर रखें। यह भ्रष्ट स्वभाव होता है, और अगर लोग सत्य नहीं समझते, तो वे इसे पहचानने में असमर्थ रहते हैं। भ्रष्ट स्वभावों को पहचानना सबसे कठिन है : स्वयं के दोषों और कमियों को पहचानना आसान है, लेकिन अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानना आसान नहीं है। जो लोग स्वयं को नहीं जानते वे कभी भी अपनी भ्रष्ट दशाओं के बारे में बात नहीं करते—वे हमेशा सोचते हैं कि वे ठीक हैं। और यह एहसास किए बिना, वे दिखावा करना शुरू कर देते हैं : “अपनी आस्था के इतने वर्षों के दौरान, मैंने बहुत उत्पीड़न सहा है और बहुत कठिनाई झेली है। क्या तुम लोग जानते हो कि मैंने इन सब पर जीत कैसे पाई?” क्या यह अहंकारी स्वभाव है? स्वयं को प्रदर्शित करने के पीछे क्या प्रेरणा है? (ताकि लोग उनके बारे में ऊँची राय रखें।) लोग उनके बारे में ऊँची राय रखें, इसके पीछे उनका मकसद क्या है? (ऐसे लोगों के मन में रुतबा पाना।) जब तुम्‍हें किसी और के मन में रुतबा मिलता है, तब वे तुम्‍हारे साथ होने पर तुम्हारे प्रति सम्मान दिखाते हैं, और तुमसे बात करते समय विशेष रूप से विनम्र रहते हैं। वे हमेशा प्रेरणा के लिए तुम्‍हारी ओर देखते हैं, वे हमेशा हर चीज पहले तुम्‍हें करने देते हैं, वे तुम्‍हें रास्ता देते हैं, तुम्‍हारी चापलूसी करते हैं और तुम्‍हारी बात मानते हैं। सभी चीजों में वे तुम्‍हारी राय चाहते हैं और तुम्‍हें निर्णय लेने देते हैं। और तुम्‍हें इससे आनंद की अनुभूति होती है—तुम्‍हें लगता है कि तुम किसी और से अधिक ताकतवर और बेहतर हो। यह एहसास हर किसी को पसंद आता है। यह किसी के दिल में अपना रुतबा होने का एहसास है; लोग इसका आनंद लेना चाहते हैं। यही कारण है कि लोग रुतबे के लिए होड़ करते हैं, और सभी चाहते हैं कि उन्हें दूसरों के दिलों में रुतबा मिले, दूसरे उनका सम्मान करें और उन्‍हें पूजें। यदि वे इससे ऐसा आनंद प्राप्त नहीं कर पाते, तो वे रुतबे के पीछे नहीं भागते। उदाहरण के लिए, यदि किसी के मन में तुम्‍हारा रुतबा नहीं है, तो वह तुम्‍हारे साथ समान स्तर पर जुड़ेगा, तुम्‍हें अपने बराबर मानेगा। वह जरूरत पड़ने पर तुम्हारी बात काटेगा, तुम्हारे प्रति विनम्र नहीं रहेगा या तुम्हें आदर नहीं देगा और तुम्‍हारी बात खत्‍म होने से पहले ही उठकर जा भी सकता है। क्या तुम्हें बुरा लगेगा? जब लोग तुम्‍हारे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं तो तुम्‍हें अच्छा नहीं लगता; तुम्‍हें अच्छा तब लगता है जब वे तुम्‍हारी चापलूसी करते हैं, तुम्हें आदर और सराहना की नजर से देखते हैं और हर पल तुम्हें पूजते हैं। तुम्‍हें तब अच्‍छा लगता है जब हर चीज तुम्हारे इर्द-गिर्द घूमती है, हर चीज तुम्‍हारे हिसाब से होती है, हर कोई तुम्‍हारी बात सुनता है, तुम्हें आदर और सराहना की नजर से देखता है और तुम्‍हारे निर्देशों का पालन करता है। क्या यह एक राजा के रूप में शासन करने, सत्ता पाने की इच्छा नहीं है? तुम्हारी कथनी और करनी रुतबा चाहने और उसे पाने से प्रेरित होती है और इसके लिए तुम दूसरों से संघर्ष, छीना-झपटी और प्रतिस्पर्धा करते हो। तुम्‍हारा लक्ष्य एक पद हासिल करना, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को अपनी बात सुनाना, उनसे समर्थन पाना और अपनी आराधना करवाना है। एक बार जब तुम उस पद पर आसीन हो जाते हो, तो फिर तुम्‍हें सत्ता मिल जाती है और तुम रुतबे के फायदों, दूसरों की प्रशंसा और उस पद के साथ आने वाले अन्य सभी लाभों का मजा ले सकते हो। लोग हमेशा अपना भेष बदलते रहते हैं, दूसरों के सामने दिखावा करते हैं, मुखौटे ओढ़ते हैं, ढोंग करते रहते हैं और खुद को सजाते हैं ताकि दूसरों को लगे कि वे पूर्ण हैं। इसमें उनका उद्देश्य रुतबा हासिल करना होता है ताकि वे रुतबे के फायदों का आनंद उठा सकें। यदि तुम्‍हें विश्‍वास न हो तो इस पर ध्यान से सोचो : तुम हमेशा यह क्यों चाहते हो कि लोग तुम्‍हारे बारे में अच्छा सोचें? तुम चाहते हो कि वे तुम्‍हारी आराधना करें और तुम्हें आदर और सराहना की नजर से देखें ताकि अंततः तुम सत्ता हासिल कर सको और रुतबे के फायदों का आनंद उठा सको। तुम जिस रुतबे के पीछे इतनी बेसब्री से पड़े हो, वह तुम्‍हें कई फायदे दिलाएगा और यही वो फायदे हैं जिनसे दूसरे लोग ईर्ष्या करते हैं और जिन्हें चाहते भी हैं। जब लोगों को रुतबे से मिलने वाले अनेक लाभों का स्वाद मिलता है, तो उन पर इसका नशा छा जाता है और वे उस विलासितापूर्ण जीवन में डूब जाते हैं। लोगों को लगता है कि यही एक जीवन है जो बर्बाद नहीं हुआ है। भ्रष्ट मानवता इन चीजों में लिप्त होकर प्रसन्न होती है। इसलिए, एक बार जब कोई व्यक्ति एक निश्चित पद प्राप्त कर लेता है और इससे मिलने वाले विभिन्न फायदे उठाने लगता है, तो वह लगातार इन पापपूर्ण सुखों के लिए ललचाएगा, इस हद तक कि वह इन्‍हें कभी नहीं छोड़ता। संक्षेप में, प्रसिद्धि और रुतबे की चाहत एक खास पद से मिलने वाले फायदे उठाने, एक राजा के रूप में शासन करने, परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर नियंत्रण स्थापित करने, हर चीज पर प्रभुत्व रखने और एक स्‍वतंत्र राज्‍य स्थापित करने की इच्छा से प्रेरित होती है जहाँ वे अपने रुतबे के फायदों का आनंद उठा सकते हैं और पापपूर्ण सुखों में डूब सकते हैं। शैतान लोगों को भ्रांत करके उन्हें धोखा देने, ठगने और मूर्ख बनाने के लिए हर तरह के तरीके इस्तेमाल करता है, ताकि अपनी झूठी छवि बना सके। लोग उसकी प्रशंसा करें और उससे डरें, इसके लिए वह उन्‍हें डराता-धमकाता तक है, जिसका अंतिम लक्ष्य उनसे शैतान के आगे समर्पण करवाकर उसकी आराधना करवाना है। यही चीज है, जो शैतान को प्रसन्न करती है; यह लोगों को जीतने के लिए परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा करने में उसका लक्ष्य भी है। तो, जब तुम लोग अन्य लोगों के बीच रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए लड़ते हो, तो तुम किस लिए लड़ते हो? क्या यह लड़ाई वाकई प्रसिद्धि के लिए है? नहीं, तुम वास्तव में उन लाभों के लिए लड़ते हो, जो तुम्हें प्रसिद्धि से मिलते हैं। यदि तुम हमेशा उन लाभों का आनंद लेना चाहते हो, तो तुम्‍हें उनके लिए लड़ना होगा। लेकिन यदि तुम उन लाभों को महत्व नहीं देते और यह कहते हो कि “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग मेरे साथ कैसा व्यवहार करते हैं। मैं तो बस एक साधारण व्यक्ति हूँ। मैं ऐसे अच्छे व्यवहार के योग्य नहीं हूँ और न ही मेरी इच्‍छा किसी व्यक्ति की आराधना करने की है। एकमात्र परमेश्वर ही है जिसकी मुझे सचमुच आराधना करनी चाहिए और जिसका भय मानना चाहिए। वही मेरा परमेश्वर और मेरा प्रभु है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई कितना अच्छा है, उसमें कितनी बड़ी क्षमताएँ हैं, उसमें कितनी ज्यादा प्रतिभा है या उसकी छवि कितनी शानदार या पूर्ण है, वह मेरी श्रद्धा का विषय नहीं है क्योंकि वह सत्य नहीं है। वह सृष्टिकर्ता नहीं है; वह उद्धारकर्ता नहीं है, और वह मनुष्य की नियति की योजना नहीं बना सकता या उस पर प्रभुत्व स्थापित नहीं कर सकता। वह मेरी आराधना की वस्तु नहीं है। कोई भी मनुष्य मेरी आराधना के योग्य नहीं है” तो क्या यह सत्य के अनुरूप नहीं है? इसके विपरीत, अगर तुम दूसरों की आराधना नहीं करते लेकिन वे तुम्‍हारी आराधना करने लगें तो तुम्‍हें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? तुम्‍हें उन्हें ऐसा करने से रोकने का तरीका खोजना होगा और उन्हें ऐसी मानसिकता से मुक्त होने में मदद करनी होगी। तुम्‍हें उन्हें अपना असली चेहरा दिखाने का तरीका खोजकर अपनी कुरूपता और असली प्रकृति दिखानी होगी। लोगों को यह समझाना महत्वपूर्ण है कि तुममें चाहे कितनी ही अच्छी काबिलियत हो, तुम कितने ही उच्च शिक्षित हो, कितने ही ज्ञानी या बुद्धिमान हो, फिर भी तुम एक साधारण व्यक्ति ही हो। तुम किसी के लिए प्रशंसा या आराधना की वस्तु नहीं हो। सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि तुम अपनी स्थिति पर दृढ़ रहो और गलतियाँ करने या शर्मिंदा होने के बाद पीछे मत हटो। यदि गलतियाँ करने या खुद को शर्मिंदा करने के बाद तुम इसे स्वीकार नहीं करते, बल्कि इसे छिपाने या ढकने के लिए धोखे का सहारा भी लेते हो तो तुम अपनी गलती को कई गुना बढ़ाकर और भी कुरूप दिखने लगते हो। तुम्‍हारी महत्वाकांक्षा और भी अधिक खुलकर सामने आ जाती है। भ्रष्ट मनुष्य छद्मवेश धारण करने में कुशल होते हैं। चाहे वे कुछ भी करें या किसी भी तरह की भ्रष्टता प्रकट करें, वे हमेशा छद्मवेश धारण करते ही हैं। अगर कुछ गलत हो जाता है या वे कुछ गलत करते हैं, तो वे दूसरों पर दोष मढ़ना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि अच्छी चीजों का श्रेय उन्हें मिले और बुरी चीजों के लिए दूसरों को दोष दिया जाए। क्या वास्तविक जीवन में इस तरह का छद्मवेश बहुत अधिक धारण नहीं किया जाता? ऐसा बहुत होता है। गलतियाँ करना या छद्मवेश धारण करना : इनमें से कौन-सी चीज स्वभाव से संबंधित है? छद्मवेश धारण करना स्वभाव का मामला है, इसमें अहंकारी स्वभाव, दुष्टता और धूर्तता शामिल होती है; परमेश्वर इससे विशेष रूप से घृणा करता है। वास्तव में, जब तुम छद्मवेश धारण करते हो, तो हर कोई समझता है कि क्या हो रहा है, लेकिन तुम्हें लगता है कि दूसरे इसे नहीं देखते, और तुम अपनी इज्जत बचाने और इस प्रयास में कि दूसरे सोचें कि तुमने कुछ गलत नहीं किया, बहस करने और खुद को सही ठहराने की पूरी कोशिश करते हो। क्या यह बेवकूफी नहीं है? दूसरे इस बारे में क्या सोचते हैं? वे कैसा महसूस करते हैं? ऊब और घृणा। यदि कोई गलती करने के बाद तुम उसे सही तरह से ले सको, और अन्य सभी को उसके बारे में बात करने दे सको, उस पर टिप्पणी और विचार करने दे सको, और उसके बारे में खुलकर बात कर सको और उसका गहन-विश्लेषण कर सको, तो तुम्हारे बारे में सभी की राय क्या होगी? वे कहेंगे कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो, क्योंकि तुम्हारा दिल परमेश्वर के प्रति खुला है। तुम्हारे कार्यों और व्यवहार के माध्यम से वे तुम्हारे दिल को देख पाएँगे। लेकिन अगर तुम खुद को छिपाने और हर किसी को धोखा देने की कोशिश करते हो, तो लोग तुम्हें तुच्छ समझेंगे और कहेंगे कि तुम मूर्ख और नासमझ व्यक्ति हो। यदि तुम ढोंग करने या खुद को सही ठहराने की कोशिश न करो, यदि तुम अपनी गलतियाँ स्वीकार सको, तो सभी लोग कहेंगे कि तुम ईमानदार और बुद्धिमान हो। और तुम्हें बुद्धिमान क्या चीज बनाती है? सब लोग गलतियाँ करते हैं। सबमें दोष और कमजोरियाँ होती हैं। और वास्तव में, सभी में वही भ्रष्ट स्वभाव होता है। अपने आप को दूसरों से अधिक महान, परिपूर्ण और दयालु मत समझो; यह एकदम अनुचित है। जब तुम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और सार, और उनकी भ्रष्टता के असली चेहरे को पहचान जाते हो, तब तुम अपनी गलतियाँ छिपाने की कोशिश नहीं करते, न ही तुम दूसरों की गलतियों के करण उनके बारे में गलत धारणा बनाते हो—तुम दोनों का सही ढंग से सामना करते हो। तभी तुम समझदार बनोगे और मूर्खतापूर्ण काम नहीं करोगे, और यह बात तुम्हें बुद्धिमान बना देगी। जो लोग बुद्धिमान नहीं हैं, वे मूर्ख होते हैं, और वे हमेशा पर्दे के पीछे चोरी-छिपे अपनी छोटी-छोटी गलतियों पर देर तक बात किया करते हैं। यह देखना घृणास्‍पद है। वास्तव में, तुम जो कुछ भी करते हो, वह दूसरों पर तुरंत जाहिर हो जाता है, फिर भी तुम खुल्लम-खुल्ला वह करते रहते हो। लोगों को यह मसखरों जैसा प्रदर्शन लगता है। क्या यह मूर्खतापूर्ण नहीं है? यह सच में मूर्खतापूर्ण ही है। मूर्ख लोगों में कोई अक्ल नहीं होती। वे कितने भी उपदेश सुन लें, फिर भी उन्हें न तो सत्य समझ में आता है, न ही वे चीजों की असलियत देख पाते हैं। वे अपने हवाई घोड़े से कभी नीचे नहीं उतरते और सोचते हैं कि वे बाकी सबसे अलग और अधिक सम्माननीय हैं; यह अहंकार और आत्मतुष्टि है, यह मूर्खता है। मूर्खों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती, है न? जिन मामलों में तुम मूर्ख और नासमझ होते हो, वे ऐसे मामले होते हैं जिनमें तुम्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं होती, और तुम आसानी से सत्य को नहीं समझ सकते। मामले की सच्‍चाई यह है।

भ्रष्ट स्वभाव रातोरात परिवर्तित नहीं होता। व्यक्ति को सभी मामलों में लगातार आत्‍मचिंतन और आत्‍मपरीक्षण करना चाहिए। उसे परमेश्वर के वचनों के आलोक में अपने कार्यों और व्यवहारों की जाँच करनी चाहिए, स्वयं को समझने का प्रयास करना चाहिए और सत्य का अभ्यास करने का मार्ग खोजना चाहिए। भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने का यही तरीका है। यह जरूरी है कि दैनिक जीवन में प्रकट होने वाले भ्रष्ट स्वभावों पर चिंतन करें और उनका पता लगाएँ, सत्य की अपनी समझ के आधार पर गहन-विश्लेषण और विवेक का अभ्यास करें और धीरे-धीरे बाधाएँ पार कर आगे बढ़ें ताकि व्यक्ति सत्य का अभ्यास कर सके और अपने सभी कार्यों को सत्य के अनुरूप कर सके। इस तरह के अनुसरण, अभ्यास और अपने बारे में समझ के माध्यम से भ्रष्टता के ये खुलासे कम होने लगते हैं और यह आशा बँधी रहती है कि व्यक्ति का स्वभाव अंततः परिवर्तित हो जाएगा। यही रास्ता है। व्यक्ति के स्वभाव का परिवर्तन उसके जीवन में विकास का विषय है। उसे सत्य को समझकर इसका अभ्यास करना चाहिए। केवल सत्य का अभ्यास करके ही वह भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का समाधान कर सकता है। यदि भ्रष्ट स्वभाव लगातार प्रकट होता रहता है, यहाँ तक कि हर कथनी-करनी में प्रकट होने लगे तो इसका मतलब है कि व्‍यक्ति का स्वभाव परिवर्तित नहीं हुआ है। भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित किसी भी मामले का ईमानदारी से गहन-विश्लेषण और अन्वेषण किया जाना चाहिए। भ्रष्ट स्वभाव के मूल कारणों का पता लगाने और उनका समाधान करने के लिए व्यक्ति को सत्य खोजना चाहिए। भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को पूरी तरह से हल करने का यही एकमात्र तरीका है। एक बार जब तुम्‍हें यह रास्ता मिल जाता है तो तुम्‍हारे स्वभाव में परिवर्तन की आशा बँधी रहती है। ये खोखली बातें नहीं हैं; ये वास्तविक जीवन के लिए प्रासंगिक हैं। मुख्य बात यह है कि क्या व्यक्ति पूरे दिल से और परिश्रमपूर्वक अपना ध्यान सत्य वास्तविकताओं पर केंद्रित कर सकता है और क्या वह सत्य का अभ्यास कर सकता है। जब तक वह सत्य का अभ्यास करने में सक्षम है, वह धीरे-धीरे अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागना शुरू कर सकता है। तब वह परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार और अपने स्थान के अनुसार आचरण कर सकता है। अपना स्थान पाकर, एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी भूमिका में दृढ़ रहकर और वास्तव में परमेश्वर की आराधना करने वाला और उसके प्रति समर्पण करने वाला व्यक्ति बनकर उसे परमेश्वर का अनुमोदन मिलेगा।

20 फ़रवरी 2020

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