12. अपना कर्तव्य सही तरह से कैसे निभाया जा सकता है

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

"कर्तव्य का पर्याप्त निष्पादन," वाक्यांश में "पर्याप्त" शब्द पर ज़ोर दिया गया है। तो, "पर्याप्त" को कैसे परिभाषित किया जाना चाहिए? इसमें भी, तलाश करने के लिए सत्य है। क्या केवल काम चलाऊ कार्य करना ही पर्याप्त है? "पर्याप्त" शब्द को कैसे समझना और उस पर विचार करना है, इसके विशिष्ट विवरण के लिए, तुम्हें अनेक सत्य समझने होंगे और बहुत से सत्यों पर और अधिक संगति करनी चाहिए। अपने कर्तव्य को पूरा करने में, तुम्हें सत्य और उसके सिद्धांतों को समझना चाहिए; तभी तुम कर्तव्य का पर्याप्त निर्वहन कर सकते हो। लोगों को अपने कर्तव्यों का निर्वहन क्यों करना चाहिए? एक बार जब वे परमेश्वर में विश्वास करके उसके आदेश को स्वीकार कर लेते हैं, तो परमेश्वर के घर के काम में और परमेश्वर के कार्य-स्थल के प्रति ज़िम्मेदारी और दायित्व में लोगों की भी हिस्सेदारी होती है और बदले में, इस ज़िम्मेदारी और दायित्व के कारण, वे परमेश्वर के कार्य का एक प्रमुख हिस्सा बन जाते हैं—उसके कार्य के उद्देश्यों का एक प्रमुख हिस्सा और उसके उद्धार के उद्देश्यों का एक प्रमुख हिस्सा। इस प्रकार, लोगों के उद्धार और वे कैसे अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं, उन दोनों के बीच काफी गहरा संबंध है, क्या वे उनका निर्वहन अच्छी तरह से कर सकते हैं और क्या वे उनका निर्वहन पर्याप्त रूप से कर सकते हैं। चूँकि, तुम परमेश्वर के घर का एक हिस्सा बन गए हो और उसका आदेश स्वीकार कर लिया है, तुम्हारे पास अब कर्तव्य है। तुम्हें यह नहीं बताना है कि तुम्हें इस कर्तव्य को कैसे पूरा करना चाहिए; यह बताना परमेश्वर का कार्य है और यह सत्य के मानकों द्वारा निर्धारित किया जाता है। इसलिए, लोगों को यह समझना और इस बात पर स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर द्वारा चीजों का आकलन कैसे किया जाता है—यह तलाश करने के लिए एक उपयुक्त चीज़ है। परमेश्वर के कार्य में, अलग-अलग लोगों को अलग-अलग कर्तव्य मिलते हैं। अर्थात, लोगों को उनके गुणों, काबिलियत, उम्र, स्थितियों और युग के आधार पर कार्य सौंपे जाते हैं। तुम्हें चाहे कोई भी कार्य दिया जाए, उसे प्राप्त करने का युग या परिस्थितियां चाहे जो हों, कार्य केवल कार्य होता है; इसका प्रबंधन कोई इंसान नहीं करता है। तुम्हारे कर्त्तव्य में परमेश्वर तुमसे जिस मानक की अपेक्षा करता है, वह है “पर्याप्तता”। “पर्याप्तता” शब्द को कैसे समझा जाना चाहिए? इसका मतलब है कि तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करके उसे संतुष्ट करना चाहिए, और परमेश्वर द्वारा तुम्हारे कार्य को पर्याप्त कहकर स्वीकृति प्रदान की जानी चाहिए; तभी पर्याप्त रूप से तुम्हारे कर्तव्य का निर्वहन होगा। अगर परमेश्वर कहता है कि तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं कर रहे हो, तो चाहे तुम उसे कितने भी समय से कर रहे हो और तुमने उसके लिए कितनी भी कीमत चुकाई हो, वह अभी भी अपर्याप्त है। इसका परिणाम क्या होगा? तुम सिर्फ सेवा करते रहोगे। बहुत कम संख्या में ही निष्ठावान सेवाकर्ता आपदाओं से बच पाएँगे। अगर तुम स्वयं द्वारा दी जाने वाली सेवा में निष्ठावान नहीं हो, तो तुम्हारे बचने की कोई आशा नहीं रहेगी। स्पष्ट रूप से कहें तो, तुम आपदाओं में नष्ट हो जाओगे। कम गंभीर मामलों में, उन्हें कर्तव्यों के निर्वहन के अधिकार से वंचित किया जा सकता है। ऐसे अधिकारों से वंचित करके, कुछ लोगों को दर-किनार कर दिया जाता है, जिसके बाद उनका अलग से ख्याल रखकर व्यवस्था की जाती है। क्या अलग से ख्याल रखने और व्यवस्था करने का मतलब है कि वे हटा दिए गए हैं? ऐसा ज़रूरी नहीं है; परमेश्वर प्रतीक्षा करेगा और देखेगा कि ये लोग कैसे कार्य करते हैं। इसलिए, कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे करता है, यह महत्वपूर्ण है। लोगों का व्यवहार विवेकपूर्ण होना चाहिए और उन्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए तथा इसे अपने जीवन में प्रवेश और उद्धार-प्राप्ति में अत्यधिक महत्व का विषय मानना चाहिए; उन्हें इसे लापरवाही से नहीं लेना चाहिए।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?

परमेश्वर में विश्वास रखने वाले हर व्यक्ति को परमेश्वर की इच्छा समझनी चाहिये। अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभाने वाले लोग ही परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं, परमेश्वर व्यक्ति को जो काम सौंपता है, उसे पूरा करने से ही उसके कर्तव्यों का निर्वहन संतोषजनक हो सकता है। परमेश्वर के आदेश की पूर्णता के मानक हैं। प्रभु यीशु ने कहा: "तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन से, और अपने सारे प्राण से, और अपनी सारी बुद्धि से, और अपनी सारी शक्ति से प्रेम रखना।" परमेश्वर से प्रेम करना उसका एक पहलू है जिसकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है। वास्तव में, जब तक परमेश्वर ने लोगों को एक आदेश दिया है, और जब तक वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो परमेश्वर उनसे इन मानकों की अपेक्षा करता है : वे अपने पूर्ण हृदय से, अपने पूर्ण प्राण से, अपने पूरे दिमाग से, और अपनी पूरी ताकत के साथ काम करें। यदि तू मौजूद तो है, लेकिन तेरा हृदय मौजूद नहीं है—यदि तेरे दिमाग की स्मृति और विचार मौजूद हैं, लेकिन तेरा हृदय नहीं—और यदि तू अपनी क्षमताओं द्वारा चीजें पूरी करता है, तो क्या तू परमेश्वर का आदेश पूरा कर रहा है? तो, परमेश्वर के आदेश को पूरा करने के लिए और अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक और अच्छे ढंग से निभाने के लिए किस तरह का मानक प्राप्त करना चाहिए? यह मानक है अपने कर्तव्य को पूरे हृदय से, अपने पूरे प्राण से, अपने पूरे मन से, और अपनी पूरी ताकत से करना। अगर परमेश्वर के लिए प्रेम से भरे हृदय के बिना तुम अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभाने की कोशिश करते हो, तो बात नहीं बनेगी। अगर परमेश्वर के लिये तुम्हारा प्रेम मजबूत होता जाए और अधिक सच्चा होता जाए, तो स्वाभाविक रूप से तुम पूरे दिल से, पूरे प्राण से, पूरे मन से, और पूरी शक्ति से अपना कर्तव्य निभा पाओगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं?

तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभा रहे हो, तुम्हें जो सिद्धांत समझने चाहिए और जिन सत्यों का अभ्यास करना चाहिए वे समान हैं। तुमसे चाहे अगुआ बनने को कहा जाए या कार्यकर्ता, या तुम चाहे मेजबान के रूप में खाना बना रहे हो या बर्तन धो रहे हो, या तुमसे चाहे बाहरी कार्यों की देखरेख करने या कोई शारीरिक मेहनत करने को कहा जाए, ये विभिन्न कर्तव्य निभाते हुए जिन सत्य सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए वे इस रूप में एक समान हैं कि ये सत्य और परमेश्वर के वचनों पर आधारित होने चाहिए। तो फिर इनमें सबसे बड़ा और मुख्य सिद्धांत कौन-सा है? यही कि अपना कर्तव्य निभाने में अपने दिल, दिमाग और प्रयास समर्पित किए जाएँ, और इसे अपेक्षित मानक के अनुसार पूरा किया जाए। अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने और इसे मानक के अनुसार पूरा करने के लिए तुम्हें यह जरूर जानना चाहिए कि कर्तव्य क्या है। आखिर बताओ जरा, कर्तव्य क्या है? क्या कर्तव्य तुम्हारी आजीविका है? (नहीं।) अगर तुम अपने कर्तव्य को अपनी आजीविका मानते हो, इसे अच्छे से पूरा करने के लिए अपने सारे प्रयास झोंकने को तैयार हो ताकि दूसरे लोग देख लें कि तुम कितने कामयाब और विलक्षण हो, और यह सोचने लगो कि इससे तुम्हारे जीवन को मायने मिलते हैं तो क्या यह सही दृष्टिकोण होगा? (नहीं।) यह विचार कहाँ गलत ठहरता है? यह परमेश्वर के आदेश को अपना उद्यम मानने से गलत ठहरता है। भले ही यह इंसानों को ठीक लगता है, लेकिन परमेश्वर के अनुसार यह गलत मार्ग पर चलना है, और वह इसकी निंदा करता है। परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप चलने के लिए कर्तव्य का पालन परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए। सत्य सिद्धांतों की अवहेलना करते हुए मानवीय रुझानों के आधार पर कार्य करना पापमय है। यह परमेश्वर का विरोध है और दंड का भागी है। जो मूर्ख और अज्ञानी लोग सत्य को नहीं स्वीकारते, उनकी यही नियति है। जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं उन्हें इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर लोगों से क्या अपेक्षाएँ रखता है। यह दृष्टि स्पष्ट होनी चाहिए। चलो सबसे पहले इस बारे में बात करें कि कर्तव्य क्या है। कोई भी कर्तव्य तुम्हारा अपना अभियान, अपना करियर या अपना कार्य नहीं है; यह परमेश्वर का कार्य है। परमेश्वर के कार्य को तुम्हारे सहयोग की जरूरत होती है, जो तुम्हारे कर्तव्य को जन्म देता है। परमेश्वर के कार्य का वह हिस्सा जिसमें मनुष्य को सहयोग करना चाहिए, वही उसका कर्तव्य है। कर्तव्य परमेश्वर के कार्य का हिस्सा है—यह तुम्हारा करियर नहीं है, न तुम्हारा घरेलू मामला है, न जीवन में तुम्हारा व्यक्तिगत मामला है। तुम्हारा कर्तव्य चाहे आंतरिक या बाहरी कार्यों से निपटना हो, चाहे इसमें मानसिक या शारीरिक श्रम शामिल हो, यह ऐसा कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना ही चाहिए, यह कलीसिया का कार्य है, यह परमेश्वर की प्रबंधन योजना का हिस्सा है, और यह वो आदेश है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। यह तुम्हारा व्यक्तिगत मामला नहीं है। तो फिर, तुम्हें अपने कर्तव्य को किस रूप में लेना चाहिए? कम से कम, तुम्हें अपना कर्तव्य मनमाने ढंग से नहीं निभाना चाहिए, तुम्हें लापरवाही से कार्य नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हारे पास अपने भाई-बहनों के लिए खाना बनाने का प्रभार है तो यह तुम्हारा कर्तव्य है। तुम्हें यह कार्य किस रूप में लेना चाहिए? (मुझे सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए।) तुम सत्य सिद्धांत कैसे खोजते हो? इसका संबंध वास्तविकता और सत्य से है। तुम्हें यह सोचना चाहिए कि सत्य को अभ्यास में कैसे लाएँ, इस कर्तव्य को किस प्रकार अच्छे से निभाएँ, और इस कर्तव्य में सत्य के कौन से पहलू शामिल हैं। पहला कदम यह है कि तुम्हें सबसे पहले यह जानना चाहिए, “मैं खाना अपने लिए नहीं बना रहा हूँ। यह तो मेरा कर्तव्य है जिसे मैं निभा रहा हूँ।” यहाँ पहलू दृष्टि का है। दूसरे कदम के बारे में क्या कहोगे? (मुझे यह सोचना है कि खाना कैसे अच्छे से बनाएँ।) खाना अच्छे से बनाने का मानदंड क्या है? (मुझे परमेश्वर की अपेक्षाएँ खोजनी चाहिए।) बिल्कुल सही कहा। परमेश्वर की अपेक्षाएँ ही सत्य, मानक और सिद्धांत हैं। परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार खाना बनाना सत्य का एक पहलू है। तुम्हें सबसे पहले सत्य के इस पहलू के बारे में सोचकर यह चिंतन करना चाहिए, “परमेश्वर ने मुझे यह कर्तव्य निभाने के लिए दिया है। परमेश्वर का अपेक्षित मानक क्या है?” यह आधार अनिवार्य है। तो फिर परमेश्वर के मानक पर खरे उतरने के लिए तुम्हें कैसे खाना बनाना चाहिए? तुम जो खाना बनाओ वह पौष्टिक, स्वादिष्ट, स्वच्छ हो और शरीर के लिए नुकसानदेह न हो—इसमें ये बातें शामिल हैं। जब तक तुम इस सिद्धांत के अनुसार खाना बनाते हो, यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार बना होगा। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि तुमने इस कर्तव्य के सिद्धांत खोजे और परमेश्वर के तय किए हुए दायरे के बाहर नहीं गए। खाना बनाने का यही सही तरीका है। तुमने अपना कर्तव्य अच्छे से निभाया और इसे संतोषजनक ढंग से पूरा किया।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है

तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभा रहे हो, तुम्हें सत्य के सिद्धांत खोजने चाहिए, परमेश्वर की इच्छा समझनी चाहिए, यह जानना चाहिए कि उस कर्तव्य के संबंध में उसकी क्या अपेक्षाएँ हैं, और यह समझना चाहिए कि उस कर्तव्य के माध्यम से तुम्हें क्या चीज पूरी करनी चाहिए। केवल ऐसा करके ही तुम सिद्धांत के अनुसार अपना कार्य कर सकते हो। अपने कर्तव्य को निभाने में, तू अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार बिल्कुल नहीं जा सकता है या तू जो चाहे मात्र वह नहीं कर सकता है, जिसे भी करने में तू खुश हो, वह नहीं कर सकता है, या ऐसा काम नहीं कर सकता जो तुझे अच्छे व्यक्ति के रूप में दिखाए। यह अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना है। अगर तू अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में यह सोचते हुए अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं पर भरोसा करता है कि परमेश्वर यही अपेक्षा करता है, और यही है जो परमेश्वर को खुश करेगा, और यदि तू परमेश्वर पर अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को बलपूर्वक लागू करता है या उन का अभ्यास ऐसे करता है मानो कि वे सत्य हों, उनका ऐसे पालन करता है मानो कि वे सत्य के सिद्धांत हों, तो क्या यह गलती नहीं है? यह कर्तव्य पूरा करना नहीं है, और इस तरह से तेरा कर्तव्य निभाना परमेश्वर के द्वारा याद नहीं रखा जाएगा। कुछ लोग सत्य को नहीं समझते हैं, और वे नहीं जानते कि अपने कर्तव्यों को ठीक से पूरा करने का क्या अर्थ है। उन्हें लगता है कि चूँकि उन्होंने अपना दिल और अपना प्रयास इसमें लगाया है, और देहासक्ति का त्याग किया है और कष्ट उठाया है, इसलिए उनके कर्तव्य की पूर्ति मानकों पर खरी उतरेगी—पर फिर क्यों परमेश्वर हमेशा असंतुष्ट रहता है? इन लोगों ने कहाँ भूल की है? उनकी भूल यह थी कि उन्होंने परमेश्वर की अपेक्षाओं की तलाश नहीं की थी, बल्कि अपने ही विचारों के अनुसार काम किया था; उन्होंने अपनी ही इच्छाओं, पसंदों और स्वार्थी उद्देश्यों को सत्य मान लिया था और उन्होंने इनको वो मान लिया जिससे परमेश्वर प्रेम करता है, मानो कि वे परमेश्वर के मानक और अपेक्षाएँ प हों। जिन बातों को वे सही, अच्छी और सुन्दर मानते थे, उन्हें सत्य के रूप में देखते थे; यह गलत है। वास्तव में, भले ही लोगों को कभी कोई बात सही लगे, लगे कि यह सत्य के अनुरूप है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि यह आवश्यक रूप से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। लोग जितना अधिक यह सोचते हैं कि कोई बात सही है, उन्हें उतना ही अधिक सावधान होना चाहिए और उतना ही अधिक सत्य को खोजना चाहिए और यह देखना चाहिए कि उनकी सोच परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप है या नहीं। यदि यह उसकी अपेक्षाओं के विरुद्ध है और उसके वचनों के विरुद्ध है, तो तुम्हारा यह सोचना गलत है कि यह बात सही है, क्योंकि यह बस एक मानवीय विचार है और यह आवश्यक रूप से सत्य के अनुरूप नहीं होगा भले ही तुम्हें यह कितना भी सही लगे। सही और गलत का तुम्हारा निर्णय सिर्फ़ परमेश्वर के वचनों पर आधारित होना चाहिए, और तुम्हें कोई बात चाहे जितनी भी सही लगे, जबतक इसका आधार परमेश्वर के वचन न हों, तुम्हें इसे हटा देना चाहिए। कर्तव्य क्या है? यह परमेश्वर द्वारा लोगों को सौंपा गया एक आदेश है। तो तुम्हें अपना कर्तव्य कैसे पूरा करना चाहिए? व्यक्तिपरक मानवीय इच्छाओं के आधार पर नहीं बल्कि परमेश्वर की अपेक्षाओं और मानकों के अनुसार काम कर तथा सत्य के सिद्धांतों पर अपना व्यवहार आधारित कर। इस तरह तुम्हारा अपने कर्तव्य को करना मानकों के स्तर का होगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है

अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हें हमेशा खुद को जांच कर देखना चाहिए कि क्या तुम सिद्धांत के अनुसार काम कर रहे हो, तुम्हारा कर्तव्य निर्वाह सही स्तर का है या नहीं, कहीं तुम इसे सतही तौर पर तो नहीं कर रहे हो, कहीं तुमने अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने से जी चुराने की कोशिश तो नहीं की है, कहीं तुम्हारे रवैये और तुम्हारे सोचने के तरीके में कोई खोट तो नहीं। एक बार तुम्हारे आत्मचिंतन कर लेने और तुम्हारे सामने इन चीज़ों के स्पष्ट हो जाने से, अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हें आसानी होगी। अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारा किसी भी चीज़ से सामना हो—नकारात्मकता और कमज़ोरी, या निपटान के बाद बुरी मन:स्थिति में होना—तुम्हें कर्तव्य के साथ ठीक से पेश आना चाहिए, और तुम्हें साथ ही सत्य को खोजना और परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए। ये काम करने से तुम्हारे पास अभ्यास करने का मार्ग होगा। अगर तुम अपना कर्तव्य निर्वाह बहुत अच्छे ढंग से करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी मन:स्थिति से बिल्कुल प्रभावित नहीं होना चाहिए। तुम्हें चाहे जितनी निराशा या कमज़ोरी महसूस हो रही हो, तुम्हें अपने हर काम में पूरी सख्ती के साथ सत्य का अभ्यास करना चाहिए, और सिद्धांतों पर अडिग रहना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो न सिर्फ दूसरे लोग तुम्हें स्वीकार करेंगे, बल्कि परमेश्वर भी तुम्हें पसंद करेगा। इस तरह, तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे, जो ज़िम्मेदार है और दायित्व का निर्वहन करता है; तुम सचमुच में एक अच्छे व्यक्ति होगे, जो अपने कर्तव्यों को सही स्तर पर निभाता है और जो पूरी तरह से एक सच्चे इंसान की तरह जीता है। ऐसे लोगों का शुद्धिकरण किया जाता है और वे अपने कर्तव्य निभाते समय वास्तविक बदलाव हासिल करते हैं, उन्हें परमेश्वर की दृष्टि में ईमानदार कहा जा सकता है। केवल ईमानदार लोग ही सत्य का अभ्यास करने में डटे रह सकते हैं और सिद्धांत के साथ कर्म करने में सफल हो सकते हैं, और मानक स्तर के अनुसार कर्तव्यों को निभा सकते हैं। सिद्धांत पर चलकर कर्म करने वाले लोग अच्छी मन:स्थिति में होने पर अपने कर्तव्यों को ध्यान से निभाते हैं; वे सतही ढंग से कार्य नहीं करते, वे अहंकारी नहीं होते और दूसरे उनके बारे में ऊंचा सोचें इसके लिए दिखावा नहीं करते। बुरी मन:स्थिति में होने पर भी वे अपने रोज़मर्रा के काम को उतनी ही ईमानदारी और ज़िम्मेदारी से पूरा करते हैं और उनके कर्तव्यों के निर्वाह के लिए नुकसानदेह या उन पर दबाव डालने वाली या उनके कर्तव्यों में बाधा पहुँचाने वाली किसी चीज़ से सामना होने पर भी वे परमेश्वर के सामने अपने दिल को शांत रख पाते हैं और यह कहते हुए प्रार्थना करते हैं, “मेरे सामने चाहे जितनी बड़ी समस्या खड़ी हो जाए—भले ही आसमान फट कर गिर पड़े—जब तक मैं जीवित हूँ, अपना कर्तव्य निभाने की भरसक कोशिश करने का मैं दृढ़ संकल्प लेता हूँ। मेरे जीवन का प्रत्येक दिन वह दिन होगा जब मैं अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाऊंगा, ताकि मैं परमेश्वर द्वारा मुझे दिये गये इस कर्तव्य, और उसके द्वारा मेरे शरीर में प्रवाहित इस सांस के योग्य बना रहूँ। चाहे जितनी भी मुश्किलों में रहूँ, मैं उन सबको परे रख दूंगा क्योंकि कर्तव्य निर्वाह करना मेरे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है!” जो लोग किसी व्यक्ति, घटना, चीज़ या माहौल से प्रभावित नहीं होते, जो किसी मन:स्थिति या बाहरी स्थिति से बेबस नहीं होते, और जो परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गये कर्तव्यों और आदेशों को सबसे आगे रखते हैं—वही परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होते हैं और सच्चाई के साथ उसके सामने समर्पण करते हैं। ऐसे लोगों ने जीवन-प्रवेश हासिल किया है और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश किया है। यह सत्य को जीने की सबसे सच्ची और व्यावहारिक अभिव्यक्तियों में से एक है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है

बेमन से अपना कर्तव्य निभाना भारी वर्जना है। अगर अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हारा मन कभी नहीं लगता तो मान्य मापदंडों के अनुरूप काम करने का कोई तरीका तुम्हारे पास नहीं है। अगर तुम निष्ठा से काम करना चाहते हो तो पहले तुम्हें बेमन से काम करने की अपनी समस्या दूर करनी होगी। यह समस्या देखते ही इसके निराकरण के कदम उठाने होंगे। अगर हमेशा भ्रमित रहते हो, समस्याएं कभी नहीं देख पाते और लापरवाही से कार्य करते हो तो अपना कर्तव्य ठीक से करने का तरीका तुम्हें कभी नहीं आएगा। इसलिए, तुम्हें हमेशा पूरे मन से अपना कर्तव्य निभाना होगा। लोगों को यह अवसर मिलना बहुत कठिन था! जब परमेश्वर उन्हें अवसर देता है लेकिन वे उसे पकड़ नहीं पाते, तो वह अवसर खो जाता है—और अगर बाद में वे ऐसा अवसर खोजना चाहें, तो शायद वह दोबारा न मिले। परमेश्वर का कार्य किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, और न ही अपना कर्तव्य निभाने के अवसर किसी की प्रतीक्षा करते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने पहले अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया था, लेकिन अभी भी मैं उसे पूरा करना चाहता हूँ। मैं दुबारा डटना चाहता हूँ।” इस तरह का संकल्प लेना तो अच्छी बात है लेकिन अपना कर्तव्य निभाना कैसे है, इसकी स्पष्ट समझ होनी चाहिए, और तुम्हें सत्य हासिल करने का प्रयास करना चाहिए। जो सत्य समझते हैं, केवल वही अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकते हैं। जो सत्य नहीं समझते, वे तो सेवा करने योग्य भी नहीं हैं। सत्य के बारे में जितनी अधिक स्पष्टता होगी, तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में उतने ही प्रभावी होगे। अगर तुम यह सच्चाई समझ लोगे तो सत्य को जानने का प्रयास करने लगोगे, और तब तुम अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने की उम्मीद रख सकते हो। वर्तमान में कर्तव्य निभाने के बहुत ज्यादा अवसर नहीं हैं, इसलिए जब भी संभव हो, तुम्हें उन्हें लपक लेना चाहिए। जब कोई कर्तव्य सामने होता है, तो यही समय होता है जब तुम्हें परिश्रम करना चाहिए; यही समय होता है जब तुम्हें खुद को अर्पित करना चाहिए और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहिए, और यही समय होता है जब तुमसे कीमत चुकाने की अपेक्षा की जाती है। कोई कमी मत छोड़ो, कोई षड्यंत्र मत करो, कोई कसर बाकी मत रखो, या अपने लिए बचने का कोई रास्ता मत छोड़ो। यदि तुमने कोई कसर छोड़ी, या तुम मतलबी, मक्कार या विश्वासघाती बनते हो, तो तुम निश्चित ही एक खराब काम करोगे। मान लो, तुम कहते हो, “किसी ने मुझे चालाकी से काम करते हुए नहीं देखा। क्या बात है!” यह किस तरह की सोच है? क्या तुम्हें लगता है कि तुमने लोगों की आँखों में धूल झोंक दी, और परमेश्वर की आँखों में भी? हालांकि, वास्तविकता में, तुमने जो किया वो परमेश्वर जानता है या नहीं? वह जानता है। वास्तव में, जो कोई भी तुमसे कुछ समय तक बातचीत करेगा, वह तुम्हारी भ्रष्टता और नीचता के बारे में जान जाएगा, और भले ही वह ऐसा सीधे तौर पर न कहे, लेकिन वह अपने दिल में तुम्हारा आकलन करेगा। ऐसे कई लोग रहे हैं, जिन्हें इसलिए उजागर करके बाहर निकाल दिया गया, क्योंकि बहुत सारे दूसरे लोग उन्हें समझ गए थे। जब उन सबने उनका सार देख लिया, तो उन्होंने उनकी असलियत उजागर कर दी और उन्हें बाहर निकाल दिया गया। इसलिए, लोग चाहे सत्य का अनुसरण करें या न करें, उन्हें अपनी क्षमता के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए; उन्हें व्यावहारिक काम करने में अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। तुममें दोष हो सकते हैं, लेकिन अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में प्रभावी हो पाते हो, तो वे तुम्हारे निकाले जाने के स्तर तक नहीं बढ़ेंगे। अगर तुम हमेशा सोचते हो कि तुम ठीक हो, अपने बाहर न निकाले जाने के बारे में निश्चित रहते हो, और अभी भी आत्मचिंतन या खुद को जानने की कोशिश नहीं करते, और तुम अपने उचित कार्यों को अनदेखा करते हो, हमेशा लापरवाह और असावधान रहते हो, तो जब तुम्हें लेकर परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सहनशीलता खत्म हो जाएगी, तो वे तुम्हारी असलियत उजागर कर देंगे, और इस बात की पूरी संभावना है कि तुम्हें निकाल दिया जाएगा। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सभी ने तुम्हारी असलियत देख ली है और तुमने अपनी गरिमा और निष्ठा खो दी है। अगर कोई व्यक्ति तुम पर भरोसा नहीं करता, तो क्या परमेश्वर तुम पर भरोसा कर सकता है? परमेश्वर मनुष्य का अंतस्तल देखता है : वह ऐसे व्यक्ति पर बिलकुल भी भरोसा नहीं कर सकता। अगर कोई व्यक्ति भरोसेमंद नहीं है तो उसे किसी भी परिस्थिति में कोई काम मत सौंपो। अगर तुम किसी व्यक्ति को जानते नहीं हो, या सिर्फ लोगों से सुना है कि वह अपने काम में अच्छा है, लेकिन तुम्हारा दिल सौ फीसदी गवाही नहीं देता, तो पहले उसे कोई छोटा-सा काम सौंपकर देखो—जो कतई महत्वपूर्ण न हो। अगर वह कुछ छोटे-छोटे काम ठीक से कर ले, तो उसे कोई सामान्य काम सौंप सकते हो। और अगर उसने वह काम सफलतापूर्वक कर दिखाया, तभी उसे कोई महत्वपूर्ण काम सौंप सकते हो। अगर वह सामान्य-सा काम भी बिगाड़ दे तो वह व्यक्ति भरोसेमंद नहीं है। काम चाहे छोटा हो या बड़ा, उसे नहीं सौंपा जा सकता है। यदि तुम्हें ऐसा कोई व्यक्ति मिले जो सज्जन और जिम्मेदार है, लापरवाही नहीं करता, जो दूसरों के सौंपे काम को अपना मानकर करता है, काम के हर पहलू पर ध्यान देता है, तुम्हारी जरूरतें समझता है, हर दृष्टिकोण को ध्यान में रखता है, गहराई में जाता है और बिल्कुल सही तरीके से चीजें संभालता है, अपने काम से तुम्हें पर संतुष्ट करता है—तो इसी तरह का व्यक्ति भरोसेमंद है। भरोसेमंद लोग वे लोग होते हैं जिनमें मानवता होती है, और जिन लोगों में मानवता होती है उनमें अंतःकरण और समझ होती है, और उनके लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना बहुत आसान होना चाहिए, क्योंकि वे अपने कर्तव्य को अपना दायित्व मानते हैं। अंतःकरण या समझ से रहित लोगों का अपना कर्तव्य खराब तरीके से निभाना निश्चित है, और उनका कर्तव्य चाहे कुछ भी हो, उसके प्रति उनमें जिम्मेदारी का कोई बोध नहीं होता। दूसरों को हमेशा उनकी चिंता करनी पड़ती है, उनकी निगरानी करनी पड़ती है और उनकी प्रगति के बारे में पूछना पड़ता है; वरना उनके कर्तव्य निभाते समय चीजें गड़बड़ा सकती हैं, कार्य करते समय चीजें गलत हो सकती हैं, जिससे भारी परेशानी होगी।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है

मान्य मापदंड के अनुरूप अपना कर्तव्य निभाने के लिए पहले तुम्हारी उचित मानसिकता होनी चाहिए। जब भ्रष्ट स्वभाव सामने आए तो तुम्हें अपनी दशा भी सुधारनी होगी। जब तुम सही ढंग से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होते हो, जब तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों से होने वाली बेबसी और प्रभावों से मुक्त हो चुके हो, जब खुद को पूरी तरह परमेश्वर को समर्पित कर सकते हो, तभी तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकोगे। इसका राज यही है कि अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियों को सर्वोपरि रखो। अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में हमेशा अपना परीक्षण करो : “क्या अपने कर्तव्य के प्रति मेरा लापरवाह रवैया है? कौन-सी चीजें मुझे तंग करती हैं और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति लापरवाह बनाती हैं? क्या मैं पूरे दिल और दम-खम से अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ? क्या इस तरह काम करके परमेश्वर मुझ पर भरोसा करेगा? क्या मैं अपना मन परमेश्वर को पूरी तरह समर्पित कर चुका हूँ? क्या इस तरह कर्तव्य निभाना सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या इससे सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त होंगे?” तुम्हें अक्सर इन सवालों पर चिंतन करना चाहिए। जब तुम्हें समस्याएं दिखाई दें तो सक्रिय होकर सत्य खोजना चाहिए, और परमेश्वर के प्रासंगिक वचन तलाश कर उन्हें हल करना चाहिए। इस तरह तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकोगे और तुम्हारे दिल को शांति और खुशी मिलेगी। अगर कर्तव्य निभाते हुए बार-बार परेशानियाँ सामने आएं तो इनमें से अधिकतर तुम्हारे गलत इरादों के कारण आती हैं—ये तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की समस्याएं हैं। जब किसी व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव सामने आता है, तो उसका मन परेशान होगा और स्थिति असामान्य रहेगी, जिसका सीधा असर उसकी कर्तव्य क्षमता पर पड़ेगा। कर्तव्य क्षमता पर असर डालने वाली ऐसी समस्याएं बड़ी गंभीर होती हैं; ये परमेश्वर के साथ उसके संबंध को सीधे प्रभावित कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, जब कुछ लोगों के परिवारों पर विपदा आती है तो उनके मन में परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और नासमझियाँ घर कर लेती हैं। परेशानियाँ झेलने पर कुछ लोग नकारात्मक हो जाते हैं और इसे न कोई देखता है, न उनकी प्रशंसा करता है। कुछ लोग अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, हमेशा लापरवाह बने रहते हैं, और जब उनकी काट-छांट की जाती है या उनसे निपटा जाता है तो वे परमेश्वर के प्रति शिकायत करते हैं। कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाने के अनिच्छुक इसलिए होते हैं क्योंकि वे हमेशा बचने का रास्ता ढूंढने में लगे रहते हैं। ये सारी समस्याएँ परमेश्वर के साथ सहज संबंध पर सीधा असर डालती हैं। इन सारी समस्याओं की जड़ भ्रष्ट स्वभाव है। ये सब इसलिए उपजती हैं क्योंकि लोग परमेश्वर को नहीं जानते, हमेशा चालबाजी में लगे रहकर अपने बारे में ही सोचते हैं, जो उन्हें परमेश्वर की इच्छा के बारे में सोचने या परमेश्वर की योजनाओं के लिए समर्पित होने से रोकता है। इससे तमाम तरह के नकारात्मक मनोभाव उत्पन्न होते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे बिल्कुल ऐसे ही होते हैं। जब उन पर छोटे-छोटे संकट आते हैं तो वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं, अपना कर्तव्य निभाने पर खीझ निकालते हैं, परमेश्वर की अवज्ञा कर उसका विरोध करते हैं, और अपनी जिम्मेदारियाँ छोड़कर परमेश्वर को धोखा देना चाहते हैं। ये सारी चीजें भ्रष्ट स्वभाव से उपजी बेबसी के विभिन्न दुष्परिणाम हैं। जो व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है, वह अपने जीवन, भविष्य और नियति की चिंता को परे रखकर सिर्फ और सिर्फ सत्य का अनुसरण कर इसे हासिल करना चाहता है। ऐसे लोग मानते हैं कि समय अपर्याप्त है, उन्हें डर लगा रहता है कि वे अपना कर्तव्य नहीं निभा पाएंगे, खुद को पूर्ण नहीं बना पाएंगे, इसलिए वे हर चीज को परे रख पाते हैं। उनकी मानसिकता सिर्फ परमेश्वर की ओर मुड़ने और उसके लिए समर्पित होने की होती है। वे किसी भी परेशानी से विचलित नहीं होते, और अगर वे खुद को नकारात्मक या कमजोर महसूस करते हैं तो परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़कर सहज रूप से इसका समाधान कर लेते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं वे परेशान होते हैं, और आप उनके साथ सत्य के बारे में चाहे जितनी संगति कर लें, वे अपनी समस्याएं पूरी तरह से हल करने में असमर्थ होते हैं। भले ही वे क्षण भर के लिए सचेत होकर सत्य को स्वीकारने में सक्षम हो जाएं, फिर भी वे बाद में इससे पीछे हट जाएंगे, इसलिए ऐसे व्यक्तियों को संभालना बहुत मुश्किल है। ऐसा नहीं है कि वे सत्य के बारे में कुछ भी नहीं समझते, बल्कि बात यह है कि वे अपने मन में सत्य को संजोते या स्वीकारते नहीं हैं। आखिरकार, इस हालत में वे अपनी इच्छा, अपने स्वार्थ, भविष्य, अपनी नियति और मंजिल को परे नहीं रख पाते, और फिर ये सब उन्हें परेशान करने के लिए हमेशा सिर उठाते रहते हैं। अगर कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकारने में सक्षम है तो जैसे-जैसे वह सत्य को समझता है, उसके भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित सारी चीजें अपने आप गायब हो जाएंगी, और उसे जीवन-प्रवेश और आध्यात्मिक कद प्राप्त होगा; वह आगे अज्ञानी बच्चा नहीं रहेगा। जब किसी व्यक्ति का आध्यात्मिक कद होता है तो वह चीजों को समझने में अधिक से अधिक सक्षम होगा, तमाम तरह के लोगों में भेद कर सकेगा, और किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज के आगे बेबस नहीं होगा। कोई कुछ भी कहे या करे, वह प्रभावित नहीं होगा। वह शैतान की दुष्ट शक्तियों के दखल या झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के धोखे और विघ्नों से प्रभावित नहीं होगा। यदि ऐसा होता है तो क्या उस व्यक्ति का आध्यात्मिक कद धीरे-धीरे बढ़ेगा नहीं? वह सत्य को जितना ज्यादा समझेगा, उसके जीवन में उतनी ही प्रगति होगी, और उसके लिए अपना कर्तव्य सफलतापूर्वक निभाना और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना आसान हो जाएगा। जब तुम जीवन में प्रवेश कर लोगे और तुम्हारे जीवन में धीरे-धीरे प्रगति होने लगेगी तो तुम्हारी दशा ज्यादा से ज्यादा सामान्य होने लगेगी। जो लोग, घटनाएँ और चीजें कभी तुम्हें परेशान और बेबस करती थीं, वे तुम्हारे लिए समस्या नहीं रहेंगी। कर्तव्य निभाने में तुम्हें कोई समस्या नहीं आएगी, और परमेश्वर के साथ संबंध अधिक से अधिक सामान्य होता जाएगा। जब तुम यह जान जाओगे कि परमेश्वर पर कैसे भरोसा करना है, मेरा स्थान क्या है, मुझे क्या करना है और क्या नहीं करना है, कौन-से मामलों की जिम्मेदारी लेनी है और कौन-से मामलों की नहीं, तो क्या तुम्हारी दशा ज्यादा से ज्यादा सामान्य नहीं होती जाएगी? इस तरह जीवन जीना तुम्हें थकाएगा नहीं, क्या थकाएगा? थकना तो दूर रहा, तुम कहीं अधिक चैन और खुशी महसूस करोगे। तब क्या तुम्हारा दिल रोशनी से नहीं भर जाएगा? तुम्हारी मानसिकता सामान्य हो जाएगी, तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव छलकना घट जाएगा, और तुम परमेश्वर की उपस्थिति में रहकर सामान्य मानवता के साथ जीने लगोगे। जब लोग तुम्हारा मानसिक दृष्टिकोण देखेंगे तो पाएंगे कि तुममें बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है। वे तुम्हारे साथ संगति करना चाहेंगे, अपने दिल में शांति और आनंद महसूस करेंगे, और लाभान्वित भी होंगे। जैसे-जैसे तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, तुम्हारी कथनी-करनी और अधिक उचित और सिद्धांत सम्मत होती जाएगी। जब तुम कमजोर और नकारात्मक लोगों को देखोगे तो उनकी ठोस मदद कर पाओगे—उन्हें बेबस नहीं करोगे या भाषण नहीं सुनाओगे, बल्कि अपने वास्तविक अनुभवों के सहारे मदद कर उन्हें लाभान्वित करोगे। इस तरह तुम परमेश्वर के घर में परिश्रम ही नहीं कर रहे होगे, बल्कि तुम ऐसे उपयोगी व्यक्ति भी बन जाओगे जो अपने कंधों पर जिम्मेदारी लेने और परमेश्वर के घर में बहुत सार्थक कार्य करने में सक्षम है। क्या परमेश्वर ऐसे ही व्यक्ति को नहीं चाहता? अगर परमेश्वर तुम्हें चाहता है तो क्या सब लोग भी नहीं चाहेंगे? (बिल्कुल चाहेंगे।) परमेश्वर ऐसे व्यक्ति से क्यों प्रसन्न होता है? क्योंकि ऐसे व्यक्ति उसके व्यावहारिक कार्य कर सकते हैं, चापलूसी में नहीं फंसते, व्यावहारिक कार्य करते हैं, और अपने सच्चे अनुभवों के बारे में बताकर दूसरे लोगों की मदद और मार्गदर्शन कर सकते हैं। वे कोई भी समस्या हल करने में दूसरों की मदद करने में सक्षम होते हैं, और जब कलीसिया के कार्य में परेशानियाँ आती हैं तो वे सक्रिय रूप से समस्या सुलझाकर आगे का रास्ता दिखा सकते हैं। इसे ही निष्ठापूर्वक कर्तव्य निभाना कहते हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है

हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्‍हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्‍हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्‍हें परमेश्वर की इच्छा का ध्‍यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्‍हारे कर्तव्‍य निर्वहन मेंतुम अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम निष्‍ठावान रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्‍हें इन चीज़ों के बारे में अवश्‍य विचार करना चाहिए। अगर तुम इन पर बार-बार विचार करते हो और इन्हें समझ लेते हो, तो तुम्‍हारे लिए अपना कर्तव्‍य अच्‍छी तरह से निभाना आसान हो जाएगा। अगर तुम्‍हारे पास ज्यादा काबिलियत नहीं है, अगर तुम्‍हारा अनुभव उथला है, या अगर तुम अपने पेशेवर कार्य में दक्ष नहीं हो, तब तुम्‍हारेतुम्‍हारे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, हो सकता है कि तुम्‍हें अच्‍छे परिणाम न मिलें—पर तब तुमने अपना सर्वश्रेष्‍ठ दिया होगा। तुमतुम अपनी स्‍वार्थपूर्णइच्छाएँ या प्राथमिकताएँ पूरी नहीं करते। इसके बजाय, तुम लगातार कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हो। भले ही तुम्‍हें अपने कर्तव्‍य में अच्छे परिणाम प्राप्त न हों, फिर भी तुम्‍हारा दिल निष्‍कपट हो गया होगा; अगर इसके अलावा, इसके ऊपर से, तुम अपने कर्तव्य में आई समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो, तब तुम अपना कर्तव्‍य निर्वहन मानक स्तर का कर पाओगे और साथ ही, तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। किसी के पास गवाही होने का यही अर्थ है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है

शुरू में लोग सत्य पर अमल करने को तैयार नहीं होते। उदाहरण के तौर पर, निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों के निर्वहन को ही लो : तुम्हारे अंदर अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होने की कुछ समझ है, तुम्हें सत्य की भी थोड़ी समझ है, लेकिन तुम पूरी तरह निष्ठावान कब होगे? नाम और कर्म में तुम अपने कर्तव्यों का निर्वहन कब कर सकोगे? इसमें प्रक्रिया की आवश्यकता है। इस प्रक्रिया के दौरान तुम्हें कई कठिनाइयों को झेलना पड़ सकता है। शायद कुछ लोग तुम्हारी काट-छाँट करें, कुछ तुम्हारी आलोचना करें। सबकी निगाहें तुम पर लगी रहेंगी, तुम्हें परख रही होंगी, केवल तब जाकर तुम्हें एहसास होगा कि तुम गलत हो, तुम ही हो जिसने अच्छा काम नहीं किया, कि कर्तव्य के निर्वहन में निष्ठा न होना अस्वीकार्य है और यह भी कि तुम्हें अनमना नहीं होना चाहिए! पवित्र आत्मा तुम्हें भीतर से प्रबुद्ध करता है और जब तुम कोई भूल करते हो, तो वह तुम्हें फटकारता है। इस प्रक्रिया के दौरान तुम अपने बारे में कुछ बातें समझने लगोगे और जान जाओगे कि तुममें बहुत सारी अशुद्धियाँ हैं, तुम्हारे अंदर निजी इरादे भरे पड़े हैं और अपने कर्तव्य निभाते समय तुम्हारे अंदर बहुत सारी अनियंत्रित इच्छाएँ होती हैं। जब तुम इन चीजों के सार को समझ जाते हो, तब अगर तुम परमेश्वर के समक्ष आकर उससे प्रार्थना कर सच्चा प्रायश्चित कर सकते हो, तो तुम्हारी वे भ्रष्ट चीजें शुद्ध की जा सकती हैं। यदि इस तरह अपनी व्यावहारिक समस्याओं का समाधान करने के लिए तुम अक्सर सत्य की खोज करोगे, तो तुम आस्था के सही मार्ग पर कदम बढ़ा सकोगे; तुम्हें सच्चे जीवन-अनुभव होने लगेंगे और धीरे-धीरे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध होने लगेगा। तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव जितना शुद्ध होता जाएगा, तुम्हारा जीवन स्वभाव उतना ही रूपांतरित होगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए

कर्तव्य के निर्वहन में पर्याप्तता लाने के लिए, सबसे पहले इसके निर्वहन में सामंजस्यपूर्ण सहयोग आवश्यक है। कुछ लोग ऐसे हैं जो वर्तमान में इस दिशा में अभ्यास कर रहे हैं, जिसका अर्थ है कि सत्य सुनकर, उन्होंने इस सिद्धांत के अनुसार काम करना शुरू कर दिया है, हालाँकि वे सत्य को पूरी तरह से, सौ प्रतिशत व्यवहार में लाने में असमर्थ हैं। इस प्रक्रिया में, वे असफल हो सकते हैं या कमज़ोर पड़ सकते हैं, भटक सकते हैं और बार-बार गलतियां कर सकते हैं, फिर भी वे जिस रास्ते पर चलते हैं, वह इस सिद्धांत के अनुसार कार्य करने में सक्षम होने के लिए एक प्रयास है। उदाहरण के लिए, यद्यपि, तुम कभी-कभी महसूस कर सकते हो कि कुछ करने का तुम्हारा तरीका सही है, यदि तुम ऐसी स्थिति में हो, जिससे जो काम तुम अब कर रहे हो, उसमें देरी नहीं होगी, तो तुम्हें इस पर चर्चा करने के लिए सहकर्मी या टोली के सदस्य भी मिल सकते हैं। तब तक सहभागिता करो, जब तक तुम इस मामले पर स्पष्ट नहीं हो जाते, जब तक तुम यह सोचकर आम सहमति तक नहीं पहुँच जाते कि इसे एक निश्चित तरीके से करने से सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त हो सकते हैं, जब तक यह सिद्धांत के दायरे से आगे नहीं बढ़ जाता, परमेश्वर के घर के फायदे के लिए न हो, परमेश्वर के घर के हितों की अधिकतम सुरक्षा न करे। हालाँकि, हो सकता है कि अंतिम परिणाम कभी-कभी इच्छानुसार न हो, लेकिन तुम्हारे काम का तरीका, दिशा और लक्ष्य सही हैं। फिर परमेश्वर इसे किस ढंग से देखेगा? वह इस मामले को कैसे परिभाषित करेगा? वह कहेगा कि तुम इस कर्तव्य को पर्याप्त रूप से पूरा कर रहे हो।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?

अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? इसे पूरे मन और पूरी ताकत से निभाना चाहिए। अपने पूरे मन और ताकत का उपयोग करने का अर्थ है कि अपने सभी विचारों को अपना कर्तव्य निभाने पर केंद्रित करना और अन्य चीजों को हावी न होने देना, और फिर अपनी सारी ताकत लगाना, अपनी संपूर्ण सामर्थ्य का प्रयोग करना, और कार्य संपादित करने के लिए अपनी क्षमता, गुण, खूबियों और उन चीजों का प्रयोग करना जो समझ आ गई हैं। अगर तुम्हारे पास समझने-बूझने की योग्यता है और तुम्हारे पास कोई अच्छा विचार है, तो तुम्हें इस बारे में दूसरों को बताना चाहिए। मिल-जुलकर सहयोग करने का यही अर्थ होता है। इस तरह तुम अपने कर्तव्य का पालन अच्छी तरह से करोगे, इसी तरह अपने कर्तव्य को संतोषजनक ढंग से कर पाओगे। यदि तुम हमेशा सब-कुछ अपने ऊपर लेना चाहते हो, यदि तुम हमेशा बड़े कार्य अकेले करना चाहते हो, यदि तुम हमेशा यह चाहते हो कि ध्यान तुम पर केंद्रित हो, दूसरों पर नहीं, तो क्या तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो? तुम जो कर रहे हो उसे तानाशाही कहते हैं; यह दिखावा करना है। यह शैतानी व्यवहार है, कर्तव्य का निर्वहन नहीं। किसी की क्षमता, गुण या विशेष प्रतिभा कुछ भी हो, वह सभी कार्य स्वयं नहीं कर सकता; यदि उसे कलीसिया का काम अच्छी तरह से करना है तो उसे सद्भाव में सहयोग करना सीखना होगा। इसलिए सौहार्दपूर्ण सहयोग, कर्तव्य के निर्वहन के अभ्यास का एक सिद्धांत है। अगर तुम अपना पूरा मन, सारी ऊर्जा और पूरी निष्ठा लगाते हो, और जो हो सके, वह अर्पित करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा रहे हो। यदि तुम्हारे पास कोई खयाल या विचार है, तो उसे दूसरों को बताओ; इसे स्वयं तक न रखो या रोके मत रहो—यदि तुम्हारे पास सुझाव हैं, तो उन्हें पेश करो; जिसका भी विचार सत्य के अनुरूप हो, उसे स्वीकार किया जाना और उसका पालन किया जाना चाहिए। ऐसा करोगे तो तुम सद्भाव में सहयोग प्राप्त कर लोगे। अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक निभाने का यही अर्थ है। अपने कर्तव्य का पालन करने में, तुम लोगों को सब कुछ अपने ऊपर लेने की जरूरत नहीं है, न ही अत्यधिक कार्य करने की जरूरत है, या “खिलने वाला एकमात्र फूल” या सबसे अलग सोचने वाला बनने की जरूरत नहीं है; इसके बजाय तुम्हें सीखना है कि दूसरों के साथ मिल-जुलकर कैसे सहयोग करना है, जो बन पड़े वो कैसे करना है, अपनी जिम्मेदारियाँ कैसे पूरी करनी हैं और अपनी सारी ऊर्जा कैसे लगानी है। अपने कर्तव्य के निर्वहन का यही अर्थ है। अपना कर्तव्य निभाना यानी परिणाम प्राप्त करने के लिए तुम्हारे पास जो भी सामर्थ्य और रोशनी है, उसे इस्तेमाल में लाना। बस इतना ही करना काफी है। हमेशा दिखावा करने, ऊँची-ऊँची बातें करने, चीजें खुद करने की कोशिश मत करो। तुम्हें दूसरों के साथ काम करना सीखना चाहिए, दूसरों के सुझाव सुनने और उनकी क्षमताएँ खोजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस तरह मिल-जुलकर सहयोग करना आसान हो जाता है। यदि तुम हमेशा दिखावा करने और अपनी बात ही मनवाने की कोशिश करते हो, तो तुम मिल-जुलकर सहयोग नहीं कर रहे हो। तुम क्या कर रहे हो? तुम रुकावट पैदा कर रहे हो और दूसरों को कमजोर कर रहे हो। रुकावट पैदा करना और दूसरों को कमजोर करना शैतान की भूमिका निभाना है; यह कर्तव्य का निर्वहन नहीं है। यदि तुम हमेशा ऐसे काम करते हो जो रुकावट पैदा करते हैं और दूसरों को कमजोर करते हैं, तो तुम कितना भी प्रयास करो या ध्यान रखो, परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा। तुम कम सामर्थ्यवान हो सकते हो, लेकिन अगर तुम दूसरों के साथ काम करने में सक्षम हो, और उपयुक्त सुझाव स्वीकार सकते हो, और अगर तुम्हारे पास सही प्रेरणाएँ हैं, और तुम परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा कर सकते हो, तो तुम एक सही व्यक्ति हो। कभी-कभी तुम एक ही वाक्य से किसी समस्या का समाधान कर सकते हो और सभी को लाभान्वित कर सकते हो; कभी-कभी सत्य के एक ही कथन पर तुम्हारी संगति के बाद हर किसी के पास अभ्यास करने का एक मार्ग होता है, और वह एक-साथ मिलकर काम करने में सक्षम होता है, और सभी एक समान लक्ष्य के लिए प्रयास करते हैं, और समान विचार और राय रखते हैं, और इसलिए काम विशेष रूप से प्रभावी होता है। हालाँकि यह भी हो सकता है कि किसी को याद ही न रहे कि यह भूमिका तुमने निभाई है, और शायद तुम्हें भी ऐसा महसूस न हो मानो तुमने कोई बहुत अधिक प्रयास किए हों, लेकिन परमेश्वर देखेगा कि तुम वह इंसान हो जो सत्य का अभ्यास करता है, जो सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है। तुम्हारे ऐसा करने पर परमेश्वर तुम्हें याद रखेगा। इसे कहते हैं अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाना। अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हारे सामने चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न आएँ, वास्तव में उन सभी को आसानी से हल किया जा सकता है। जब तक तुम एक ईमानदार व्यक्ति बने रहते हो जिसका दिल परमेश्वर की ओर झुका हुआ है, और सत्य खोज करने में सक्षम हो, तब तक ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसे हल नहीं किया जा सकता। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम्हें आज्ञापालन करना सीखना चाहिए। अगर कोई ऐसा है जो सत्य समझता है या सत्य के अनुरूप बोलता है, तो तुम्हें उसे स्वीकार कर उसकी बात माननी चाहिए। किसी भी तरीके से तुम्हें ऐसी चीजें नहीं करनी चाहिए जो बाधा डालती या कमजोर करती हों, और न ही मनमर्जी से काम करना या फैसले लेना चाहिए। इस तरह से तुम कोई बुराई नहीं करोगे। तुम्हें याद रखना चाहिए : कर्तव्य-निर्वहन का मतलब यह नहीं है कि सारे प्रयास तुम करो और सारा प्रबंधन अपने सिर पर ले लो। यह तुम्हारा निजी कार्य नहीं है, यह कलीसिया का कार्य है, और तुम उसमें केवल अपनी उस क्षमता का योगदान करते हो जो तुम्हारे पास है। तुम परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में जो कुछ करते हो वह मनुष्य के सहयोग का एक छोटा-सा हिस्सा है। किसी कोने में तुम्हारी सिर्फ एक छोटी-सी भूमिका है। यही तुम्हारी जिम्मेदारी है। तुम्हारे मन में यह समझ होनी चाहिए। और इसलिए, चाहे कितने भी लोग अपने कर्तव्य साथ मिलकर निभा रहे हों या वे कैसी भी समस्याओं का सामना कर रहे हों, सबसे पहले सभी को परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और मिलकर संगति करनी चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, और फिर यह निर्धारित करना चाहिए कि अभ्यास के सिद्धांत क्या हैं। जब वे इस तरीके से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेंगे, तो उनके पास अभ्यास का मार्ग होगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग

परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी करते हो, वह तुम्हारा अपना निजी उद्यम नहीं है; यह परमेश्वर के घर का काम है, यह परमेश्वर का काम है। तुम्हें इस ज्ञान और जागरुकता को लगातार ध्यान में रखना होगा और कहना होगा, “यह मेरा अपना मामला नहीं है; मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ और अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर रहा हूँ। मैं कलीसिया का काम कर रहा हूँ। यह काम मुझे परमेश्वर ने सौंपा है और मैं इसे उसके लिए कर रहा हूँ। यह मेरा कर्तव्य है कोई निजी मामला नहीं है।” यह पहली बात है जिसे लोगों को समझना चाहिए। यदि तुम किसी कर्तव्य को अपना निजी व्यवसाय मान लेते हो, अपने कार्य करते हुए सत्य के सिद्धांत नहीं खोजते और उसे अपने निजी उद्देश्यों, विचारों और एजेंडे के अनुसार कार्यांवित करते हो, तो बहुत संभव है कि तुम गलतियाँ करोगे। अगर तुम अपने कर्तव्य और निजी मामलों में स्पष्ट अंतर रखते हो और जानते हो कि यह कर्तव्य है, तो तुम्हें कैसे कार्य करना चाहिए? (परमेश्वर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों को खोजना चाहिए)। बिल्कुल सही। यदि तुम्हारे साथ कुछ हो जाए और तुम्हें सत्य न समझ आए, और तुम्हें कुछ समझ आ रहा है, लेकिन चीजें अभी भी तुम्हारे लिए स्पष्ट नहीं हैं, तो तुम्हें संगति के लिए किसी ऐसे भाई-बहन को खोजना चाहिए जो सत्य समझता हो; यह सत्य खोजना है और सबसे पहले, कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया यही होना चाहिए। तुम्हें जो उचित लगे उसके आधार पर तुम्हें चीजों का फैसला नहीं करना चाहिए, हथौड़ा उठाया और मेज पर ठोककर कहा कि मामला खत्म—इससे समस्याएं आसानी से पैदा हो जाती हैं। कर्तव्य चाहे बड़ा हो या छोटा, यह तुम्हारा कोई व्यक्तिगत मामला नहीं है; परमेश्वर के घर के मामले किसी के निजी मामले नहीं होते। अगर यह कर्तव्य से जुड़ा है, तो यह तुम्हारा निजी मामला नहीं है, यह तुम्हारा अपना मामला नहीं है—इसका संबंध सत्य और सिद्धांत से है। तो पहला काम तुम लोगों को क्या करना चाहिए? सत्य और सिद्धांत खोजो। यदि तुम्हें सत्य की समझ नहीं है, तो पहले सिद्धांत खोजो; यदि तुम्हें सत्य की समझ पहले से है, तो सिद्धांतों की पहचान करना आसान होगा। ... अपने कर्तव्य को पर्याप्त रूप से निभाने के लिए, चाहे तुमने कितने ही वर्ष परमेश्वर पर विश्वास किया हो, तुमने अपने कर्तव्य के निर्वहन में कितना ही काम किया हो और चाहे तुमने परमेश्वर के घर में कितना ही योगदान दिया हो, तुम अपने कार्य में कितने अनुभवी हो। परमेश्वर मुख्यत: यह देखता है उस व्यक्ति ने किस मार्ग का अनुसरण किया है। दूसरे शब्दों में, वह किसी भी व्यक्ति के कार्यों के पीछे सत्य, सिद्धांतों, दिशा और मूल के प्रति उसका रवैया देखता है। परमेश्वर इन बातों पर ध्यान देता है; यही बातें तुम्हारे मार्ग का निर्धारण करती हैं। तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन की प्रक्रिया में, यदि तुम्हारे अंदर ये सकारात्मक बातें बिल्कुल न दिखाई दें और तुम्हारे कार्य के सिद्धांत, मार्ग और आधार तुम्हारे ही विचार, उद्देश्य और योजनाएँ हों, तुम्हारा सारा ध्यान अपने ही हितों की रक्षा करना, अपनी प्रतिष्ठा और ओहदे की रक्षा करना हो, तुम्हारी कार्य-प्रणाली निर्णय लेना, अकेले काम करना और अपनी बात को ही सर्वोपरि मानना हो, कभी दूसरों के साथ किसी चीज़ पर विचार-विमर्श करना या सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग न करना हो, और गलती करने पर कभी सलाह न मानना हो, सत्य की तलाश करने की तो बात ही छोड़ दो, तो परमेश्वर तुम्हें कैसे देखेगा? अगर तुम अपना कर्तव्य इस ढंग से निभाते हो तो तुम अभी तक उस मानक तक नहीं पहुँचे हो; तुमने सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर कदम नहीं रखा है, क्योंकि काम करते समय तुम सत्य के सिद्धांत की तलाश नहीं करते, हमेशा अपनी इच्छानुसार ही कार्य करते हो, जो चाहते हो वही करते हो। यही कारण है कि ज़्यादातर लोग अपने कर्तव्यों का संतोषजनक ढंग से पालन क्यों नहीं कर पाते। तुम लोग क्या कहते हो, क्या किसी के लिए अपने कर्तव्य को ठीक से पूरा करना मुश्किल होता है? वास्तव में, ऐसा नहीं है; लोगों को केवल विनम्रता का एक भाव रखने में सक्षम होना होगा, थोड़ी समझ रखनी होगी और एक उपयुक्त स्थिति अपनानी होगी। चाहे तुम कितने भी शिक्षित हो, चाहे तुमने कोई भी पुरस्कार जीते हों, या तुम्हारी कितनी भी उपलब्धियाँ हों, और तुम्हारा रुतबा और दर्जा कितना भी ऊँचा हो, तुम्हें इन सभी चीजों को छोड़ देना चाहिए, तुम्हें अपनी ऊँची गद्दी से उतर जाना चाहिए—इन सबका कोई मोल नहीं है। चाहे वे महिमामयी चीजें कितनी भी महान हों, परमेश्वर के घर में वे सत्य से बड़ी नहीं हो सकती हैं; क्योंकि ऐसी सतही चीजें सत्य नहीं हैं, और उसकी जगह नहीं ले सकती हैं। तुम्हें यह मसला स्पष्ट होना चाहिए। यदि तुम कहते हो, "मैं बहुत गुणी हूँ, मेरे पास एक बहुत तेज दिमाग है, मेरे पास त्वरित सजगता है, मैं शीघ्रता से सीखता हूँ, और मेरी याददाश्त बहुत अच्छी है, इसलिए मैं अंतिम निर्णय लेने योग्य हूँ," यदि तुम हमेशा इन चीजों को पूंजी के रूप में उपयोग करते हो, उन्हें कीमती और सकारात्मक मानते हो, तो यह परेशानी वाली बात है। अगर तुम्हारा दिल इन चीजों के कब्जे में है, अगर इन चीजों ने तुम्हारे दिल में जड़ें जमा ली हों, तो तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना मुश्किल हो जाएगा—और इसके परिणाम की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस प्रकार, सबसे पहले तुम उन चीजों का त्याग करो, उन्हें नकारो जो तुम्हें प्रिय हों, जो तुम्हें अच्छी लगती हों और जो तुम्हारे लिए बेशकीमती हों। वे बातें सत्य नहीं हैं बल्कि, वे तुम्हें सत्य में प्रवेश करने से रोक सकती हैं। अब सबसे जरूरी चीज यह है कि तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने में सत्य की तलाश करनी चाहिए और सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, ताकि तुम्हारे कर्तव्य का प्रदर्शन यथेष्ट हो जाए, क्योंकि कर्तव्य का यथेष्ट प्रदर्शन जीवन-प्रवेश के मार्ग पर मात्र पहला कदम है। यहाँ "पहला कदम" का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है यात्रा शुरू करना। सभी चीजों में, कुछ ऐसा होता है जिसके साथ यात्रा शुरू करनी होती है, कुछ ऐसा जो सबसे बुनियादी, सबसे मूलभूत होता है, और कर्तव्य का यथेष्ट प्रदर्शन हासिल करना जीवन में प्रवेश का मार्ग है। यदि तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन केवल इस दृष्टि से सही लगता है कि वह कैसे किया जाता है, लेकिन वह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, तो तुम अपना कर्तव्य यथेष्ट रूप से नहीं निभा रहे। तो फिर, इस पर कैसे कार्य करना चाहिए? सत्य के सिद्धांतों पर काम करना चाहिए और उन्हें खोजना चाहिए; सत्य के सिद्धांतों से लैस होना ही अहम है। अगर तुम केवल अपना बरताव और मिजाज सुधारते हो, लेकिन सत्य के सिद्धांतों से लैस नहीं होते, तो यह बेकार है। तुम्हारे पास कोई गुण या विशेषता हो सकती है। यह एक अच्छी बात है—लेकिन उसे अपना कर्तव्य निभाने में इस्तेमाल करके ही तुम उसका ठीक से उपयोग करते हो। अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए तुम्हारी मानवता या व्यक्तित्व में सुधार होना आवश्यक नहीं है, न ही ये आवश्यक है कि तुम अपना गुण या प्रतिभा अलग रख दो। महत्वपूर्ण यह है कि तुम सत्य समझो और परमेश्वर के प्रति समर्पित होना सीखो। यह लगभग अपरिहार्य है कि जब तुम अपना कर्तव्य निभाओगे तो तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव बाहर उमड़ आएगा। ऐसे समय में तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें समस्या हल करने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए और सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करना चाहिए। ऐसा करो, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने में तुम्हें कोई समस्या नहीं आएगी। तुम्हारा गुण या विशेषता जिस भी क्षेत्र में हो, या जिसका भी तुम्हें कुछ व्यावसायिक ज्ञान हो, तुम अपनी वह सीखी हुई चीज अपना वह कर्तव्य निभाने में इस्तेमाल कर सकते हो, जिसे तुम्हें निभाना है। कर्तव्य निभाने में गुणों, विशेषताओं या व्यावसायिक ज्ञान का उपयोग करना सबसे सही है, लेकिन तुम्हें सत्य से लैस और सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करने में सक्षम भी होना चाहिए। तभी तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो। यह दोतरफा दृष्टिकोण है, जिसके बारे में पहले कहा गया है : एक तरफ तुममें जमीर और विवेक होना चाहिए, और दूसरी तरफ तुम्हें अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए। इस तरह अपना कर्तव्य निभाते हुए व्यक्ति जीवन में प्रवेश करता है और अपना कर्तव्य यथेष्ट रूप से निभाने में सक्षम हो जाता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?

तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन की प्रक्रिया में, सकारात्मक पक्ष यह है कि तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन सही ढंग से कर सकते हो, भले ही कैसी भी परिस्थिति क्यों न आए, हार मत मानो। भले ही बाकी सब लोग विश्वास करना और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना बंद कर दें, तुम तब भी हार न मानते हुए, इसका निर्वहन करना जारी रख सकते हो। अर्थात, तुम शुरू से लेकर संपन्न होने तक, अपने कर्तव्य का त्याग नहीं करोगे और अंत तक दृढ़ और समर्पित बने रहोगे; इस तरह, तुमने वास्तव में अपने कर्तव्य को कर्तव्य के रूप में ले पाओगे। यदि तुम ऐसा कर सकते हो, तो तुमने मूल रूप से अपने कर्तव्य के निर्वहन में पर्याप्तता हासिल कर ली है। यह चीज़ों का सकारात्मक पक्ष है। लेकिन, इसे प्राप्त करने से पहले, चीज़ों के नकारात्मक पक्ष को देखें तो, लोगों को सभी तरह के प्रलोभनों को रोकना होगा। यदि, अपने कर्तव्य के निर्वहन की प्रक्रिया में, कोई व्यक्ति प्रलोभननहीं रोक पाए और अपने कर्तव्य का त्याग करके उससे विमुख हो जाए, तो क्या अभी भी वह उद्धार पा सकेगा? उस व्यक्ति के लिए सारी उम्मीद खत्म हो जाएँगी, और उसके लिए पर्याप्त या अपर्याप्त होना पूरी तरह से अप्रासांगिक हो जाएगा; उसके लिए उद्धार का कोई अवसर न होगा। इसलिए, व्यक्ति को अपने कर्तव्य पर अडिग रहना चाहिए। ऐसा करने के लिए, सबसे पहले, हर किसी को जो सबसे बड़ी कठिनाई झेलनी पड़ती है, वह है कि प्रलोभनों का सामना करते समय कोई व्यक्ति दृढ़ रह सकता है या नहीं। उसके सामने किस प्रकार के प्रलोभन हैं? धन, प्रतिष्ठा, विपरीत लिंग के साथ संबंध, भावनाएं। और क्या? यदि किसी कर्तव्य–निर्वहन में थोड़ा जोखिम है, या जीवन को खतरा है और यदि कर्तव्य–निर्वहन के कारण जेल जाने की या मृत्यु हो जाने की संभावना है, तो क्या तुम तब भी कर्तव्यों का निर्वहन करोगे? तुम उनका निर्वहन कैसे करोगे? ऐसी सभी चीज़ें प्रलोभन हैं। इन प्रलोभनों को जीत पाना आसान है या नहीं? इन्हें तुमसे सत्य की खोज करने की अपेक्षा है। सत्य की तलाश करने की प्रक्रिया में, इन सभी प्रलोभनों से तुम्हारा सामना होता है, तुम्हें धीरे-धीरे विवेक का इस्तेमाल करने और ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होना चाहिए। उनके सार को पहचानो, उनके असली रंगों को समझो, अपने सार और भ्रष्ट स्वभाव को जानो; अपनी कमजोरियों को जानो; अपनी रक्षा करने और इन प्रलोभनों का सामना करने में सक्षम बनाने के लिए, बार-बार परमेश्वर से प्रार्थना करो। यदि तुम उनका सामना कर सको और चाहे तुम किसी भी स्थिति में हो, अपने कर्तव्य पर अडिग रह सको, न तो उनसे विमुख हो, न ही उनसे भागो, तो तुम उद्धार के आधे रास्ते तक पहुँच जाओगे। क्या आधे रास्ते तक पहुँचना पहुँचना आसान है? तुम्हारे हर कदम पर एक संभावित खतरा है; मार्ग खतरों से भरा है। यह आसान नहीं है! तो, क्या ऐसा कोई इंसान है जिसे यह लगे कि यह तो बहुत मुश्किल है और महसूस करे कि जीवन बहुत ही थकाऊ है, ज्ना देना ही बेहतर होगा? वे आशीष तो चाहते हैं, लेकिन कष्ट नहीं उठाना चाहते। वे किस तरह के लोग हैं?

जहाँ तक बात यह है कि पर्याप्त रूप से अपने कर्तव्यों का निर्वहन कैसे किया जाए, पर्याप्तता की परिभाषा क्या है, पर्याप्तता की पात्रता क्या है, परमेश्वर ने इस पर्याप्तता के मानक के लिए क्या कारण दिए हैं, और पर्याप्त रूप से अपने कर्तव्य को पूरा करने और जीवन प्रवेश के बीच क्या संबंध है, लोगों को ये बातें समझ में आ गई हैं। यदि तुम उस स्थिति तक पहुँच सको, जहां समय या स्थान की परवाह किए बिना तुम अपने कर्तव्य पर अडिग रह सको, उससे हार न मानो, सभी तरह के प्रलोभनों का सामना कर सको और फिर उन विभिन्न सत्यों को समझ सको, उनका ज्ञान प्राप्त कर सको, जिनकी अपेक्षा परमेश्वर उन तमाम स्थितियों में करता है और जिनकी रचना वह तुम्हारे लिए करता है, तब परमेश्वर की नज़र में, तुमने मूलत: पर्याप्तता हासिल कर ली है। तुम्हारे कर्तव्य के निर्वहन में पर्याप्तता प्राप्त करने के लिए तीन मूलभूत तत्व हैं: एक तो यह कि तुम अपने कर्तव्य को किस ढंग से लेते हो, दूसरा यह कि इसे पूरा करने की प्रक्रिया में तुम सभी तरह के प्रलोभनों का सामना कैसे करते हो और अन्य है अपने कर्तव्य के निर्वहन में, प्रत्येक सत्य को समझने में सक्षम होना।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?

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