32. परमेश्वर की जांच को कैसे स्वीकार करें?
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
मैं धार्मिक हूँ, मैं विश्वासयोग्य हूँ, और मैं वो परमेश्वर हूँ जो मनुष्यों के अंतरतम हृदय की जाँच करता है! मैं एक क्षण में इसे प्रकट कर दूँगा कि कौन सच्चा और कौन झूठा है। घबराओ मत; सभी चीजें मेरे समय के अनुसार काम करती हैं। कौन मुझे ईमानदारी से चाहता है और कौन नहीं—मैं एक-एक करके तुम सब को बता दूँगा। तुम लोग वचनों को खाने-पीने का ध्यान रखो और जब तुम मेरी उपस्थिति में आओ तो मेरे करीब आ जाओ, और मैं अपना काम स्वयं करूँगा। तात्कालिक परिणामों के लिए बहुत चिंतित न हो जाओ; मेरा काम ऐसा नहीं है जो सारा एक साथ पूरा किया जा सके। इसके भीतर मेरे चरण और मेरी बुद्धि निहित है, इसलिए ही मेरी बुद्धि प्रकट की जा सकती है। मैं तुम सभी को देखने दूँगा कि मेरे हाथों द्वारा क्या किया जाता है—बुराई को दण्डित और भलाई को पुरस्कृत किया जाता है। मैं निश्चय ही किसी से पक्षपात नहीं करता। तुम जो मुझे पूरी निष्ठा से प्रेम करते हो, मैं भी तुम्हें निष्ठा से प्रेम करूँगा, और जहाँ तक उनकी बात है जो मुझे निष्ठा से प्रेम नहीं करते, उन पर मेरा क्रोध हमेशा रहेगा, ताकि वे अनंतकाल तक याद रख सकें कि मैं सच्चा परमेश्वर हूँ, ऐसा परमेश्वर जो मनुष्यों के अंतरतम हृदय की जाँच करता है। लोगों के सामने एक तरह से और उनकी पीठ पीछे दूसरी तरह से काम न करो; तुम जो कुछ भी करते हो, उसे मैं स्पष्ट रूप से देखता हूँ, तुम दूसरों को भले ही मूर्ख बना लो, लेकिन तुम मुझे मूर्ख नहीं बना सकते। मैं यह सब स्पष्ट रूप से देखता हूँ। तुम्हारे लिए कुछ भी छिपाना संभव नहीं है; सबकुछ मेरे हाथों में है। अपनी क्षुद्र और छोटी-छोटी गणनाओं को अपने फायदे के लिए कर पाने के कारण खुद को बहुत चालाक मत समझो। मैं तुमसे कहता हूँ : इंसान चाहे जितनी योजनाएँ बना ले, हजारों या लाखों, लेकिन अंत में मेरी पहुँच से बच नहीं सकता। सभी चीज़ें और घटनाएं मेरे हाथों से ही नियंत्रित होती हैं, एक इंसान की तो बिसात ही क्या! मुझसे बचने या छिपने की कोशिश मत करो, फुसलाने या छिपाने की कोशिश मत करो। क्या ऐसा हो सकता है कि तुम अभी भी नहीं देख सकते कि मेरा महिमामय मुख, मेरा क्रोध और मेरा न्याय सार्वजनिक रूप से प्रकट किये गए हैं? मैं तत्काल और निर्ममता से उन सभी का न्याय करूँगा जो मुझे निष्ठापूर्वक नहीं चाहते। मेरी सहानुभूति समाप्त हो गई है; अब और शेष नहीं रही। अब और पाखंडी मत बनो, और अपने असभ्य एवं लापरवाह चाल-चलन को रोक लो।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 44
परमेश्वर में विश्वासी होने का अर्थ है कि तेरे सारे कृत्य उसके सम्मुख लाये जाने चाहिए और उन्हें उसकी छानबीन के अधीन किया जाना चाहिए। यदि तू जो कुछ भी करता है उसे परमेश्वर के आत्मा के सम्मुख ला सकते हैं लेकिन परमेश्वर की देह के सम्मुख नहीं ला सकते, तो यह दर्शाता है कि तूने अपने आपको उसके आत्मा की छानबीन के अधीन नहीं किया है। परमेश्वर का आत्मा कौन है? कौन है वो व्यक्ति जिसकी परमेश्वर द्वारा गवाही दी जाती है? क्या वे एक समान नहीं है? अधिकांश उसे दो अलग अस्तित्व के रूप में देखते हैं, ऐसा विश्वास करते हैं कि परमेश्वर का आत्मा तो परमेश्वर का आत्मा है, और परमेश्वर जिसकी गवाही देता है वह व्यक्ति मात्र एक मानव है। लेकिन क्या तू गलत नहीं है? किसकी ओर से यह व्यक्ति काम करता है? जो लोग देहधारी परमेश्वर को नहीं जानते, उनके पास आध्यात्मिक समझ नहीं होती है। परमेश्वर का आत्मा और उसका देहधारी देह एक ही हैं, क्योंकि परमेश्वर का आत्मा देह रूप में प्रकट हुआ है। यदि यह व्यक्ति तेरे प्रति निर्दयी है, तो क्या परमेश्वर का आत्मा दयालु होगा? क्या तू भ्रमित नही है? आज, जो कोई भी परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार नहीं कर सकता है, वह परमेश्वर की स्वीकृति नहीं पा सकता है, और जो देहधारी परमेश्वर को न जानता हो, उसे पूर्ण नहीं बनाया जा सकता। अपने सभी कामों को देख और समझ कि जो कुछ तू करता है वह परमेश्वर के सम्मुख लाया जा सकता है कि नहीं। यदि तू जो कुछ भी करता है, उसे तू परमेश्वर के सम्मुख नहीं ला सकता, तो यह दर्शाता है कि तू एक दुष्ट कर्म करने वाला है। क्या दुष्कर्मी को पूर्ण बनाया जा सकता है? तू जो कुछ भी करता है, हर कार्य, हर इरादा, और हर प्रतिक्रिया, अवश्य ही परमेश्वर के सम्मुख लाई जानी चाहिए। यहाँ तक कि, तेरे रोजाना का आध्यात्मिक जीवन भी—तेरी प्रार्थनाएँ, परमेश्वर के साथ तेरा सामीप्य, परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने का तेरा ढंग, भाई-बहनों के साथ तेरी सहभागिता, और कलीसिया के भीतर तेरा जीवन—और साझेदारी में तेरी सेवा परमेश्वर के सम्मुख उसके द्वारा छानबीन के लिए लाई जा सकती है। यह ऐसा अभ्यास है, जो तुझे जीवन में विकास हासिल करने में मदद करेगा। परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करने की प्रक्रिया शुद्धिकरण की प्रक्रिया है। जितना तू परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करता है, उतना ही तू शुद्ध होता जाता है और उतना ही तू परमेश्वर की इच्छा के अनुसार होता है, जिससे तू व्यभिचार की ओर आकर्षित नहीं होगा और तेरा हृदय उसकी उपस्थिति में रहेगा; जितना तू उसकी छानबीन को ग्रहण करता है, शैतान उतना ही लज्जित होता है और उतना अधिक तू देहसुख के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम होता है। इसलिए, परमेश्वर की छानबीन को ग्रहण करना अभ्यास का वो मार्ग है जिसका सभी को अनुसरण करना चाहिए। चाहे तू जो भी करे, यहाँ तक कि अपने भाई-बहनों के साथ सहभागिता करते हुए भी, यदि तू अपने कर्मों को परमेश्वर के सम्मुख ला सकता है और उसकी छानबीन को चाहता है और तेरा इरादा स्वयं परमेश्वर के प्रति समर्पण का है, इस तरह जिसका तू अभ्यास करता है वह और भी सही हो जाएगा। केवल जब तू जो कुछ भी करता है, वो सब कुछ परमेश्वर के सम्मुख लाता है और परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करता है, तो वास्तव में तू ऐसा कोई हो सकता है जो परमेश्वर की उपस्थिति में रहता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर उन्हें पूर्ण बनाता है, जो उसकी इच्छा के अनुरूप हैं
तुझे सभी बातों में परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करने के लिए प्रार्थना को माध्यम के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए। जब तू प्रार्थना करता है, तब भले ही मैं व्यक्तिगत रूप से तेरे सामने खड़ा नहीं होता हूँ, लेकिन पवित्र आत्मा तेरे साथ होता है, और यह स्वयं मुझसे और पवित्र आत्मा से तू प्रार्थना कर रहा होता है। तू इस देह पर क्यों भरोसा करता है? तू इसलिए भरोसा करता है क्योंकि उसमें परमेश्वर का आत्मा है। यदि वह व्यक्ति परमेश्वर के आत्मा के बिना होता तो क्या तू उस पर भरोसा करता? जब तू इस व्यक्ति पर भरोसा करता है, तो तू परमेश्वर के आत्मा पर भरोसा करता है। जब तू इस व्यक्ति से डरता है, तो तू परमेश्वर के आत्मा से डरता है। परमेश्वर के आत्मा पर भरोसा इस व्यक्ति पर भरोसा करना है, और इस व्यक्ति पर भरोसा करना, परमेश्वर के आत्मा पर भरोसा करना भी है। जब तू प्रार्थना करता है, तो तू महसूस करता है कि परमेश्वर का आत्मा तेरे साथ है, और परमेश्वर तेरे सामने है; इसलिए तू उसके आत्मा से प्रार्थना करता है। आज, अधिकांश लोग अपने कृत्यों को परमेश्वर के सम्मुख लाने से बहुत डरते हैं; जबकि तू परमेश्वर की देह को धोखा दे सकता है, परन्तु उसके आत्मा को धोखा नहीं दे सकता है। कोई भी बात, जो परमेश्वर की छानबीन का सामना नहीं कर सकती, वह सत्य के अनुरूप नहीं है, और उसे अलग कर देना चाहिए; ऐसा न करना परमेश्वर के विरूद्ध पाप करना है। इसलिए, तुझे हर समय, जब तू प्रार्थना करता है, जब तू अपने भाई-बहनों के साथ बातचीत और संगति करता है, और जब तू अपना कर्तव्य करता है और अपने काम में लगा रहता है, तो तुझे अपना हृदय परमेश्वर के सम्मुख अवश्य रखना चाहिए। जब तू अपना कार्य पूरा करता है, तो परमेश्वर तेरे साथ होता है, और जब तक तेरा इरादा सही है और परमेश्वर के घर के कार्य के लिए है, तब तक जो कुछ भी तू करेगा, परमेश्वर उसे स्वीकार करेगा; इसलिए तुझे अपने कार्य को पूरा करने के लिए अपने आपको ईमानदारी से समर्पित कर देना चाहिए। जब तू प्रार्थना करता है, यदि तेरे पास परमेश्वर-प्रेमी हृदय है, और यदि तू परमेश्वर की देखभाल, संरक्षण और छानबीन की तलाश करता है, यदि ये चीजें तेरे इरादे हैं, तो तेरी प्रार्थनाएँ प्रभावशाली होंगी। उदाहरण के लिए, जब तू सभाओं में प्रार्थना करता है, यदि तू अपना हृदय खोल कर परमेश्वर से प्रार्थना करता है, और बिना झूठ बोले परमेश्वर से बोल देता है कि तेरे हृदय में क्या है, तब तेरी प्रार्थनाएँ निश्चित रूप से प्रभावशाली होंगी।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर उन्हें पूर्ण बनाता है, जो उसकी इच्छा के अनुरूप हैं
परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध रखने का अर्थ है परमेश्वर के किसी भी कार्य पर संदेह न करने या उससे इनकार न करने और उसके कार्य के प्रति समर्पित रहने में सक्षम होना। इसका अर्थ है परमेश्वर की उपस्थिति में सही इरादे रखना, स्वयं के बारे में योजनाएँ न बनाना, और सभी चीजों में पहले परमेश्वर के परिवार के हितों का ध्यान रखना; इसका अर्थ है परमेश्वर की जाँच को स्वीकार करना और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना। तुम जो कुछ भी करते हो, उसमें तुम्हें परमेश्वर की उपस्थिति में अपने हृदय को शांत करने में सक्षम होना चाहिए। यदि तुम परमेश्वर की इच्छा को नहीं भी समझते, तो भी तुम्हें अपनी सर्वोत्तम योग्यता के साथ अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए। एक बार परमेश्वर की इच्छा तुम पर प्रकट हो जाती है, तो फिर इस पर अमल करो, यह बहुत विलंब नहीं होगा। जब परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाता है, तब लोगों के साथ भी तुम्हारा संबंध सामान्य होगा। परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बनाने के लिए, सबकुछ परमेश्वर के वचनों की नींव पर बनाया जाना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, तुम्हें अपने विचार एकदम सरल रखने चाहिए और हर चीज में सत्य खोजना चाहिए। जब तुम सत्य समझ जाओ तो तुम्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए, और चाहे तुम्हारे साथ कुछ भी हो, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसके प्रति समर्पण करने वाले हृदय से खोजना करना चाहिए। इस प्रकार अभ्यास करते हुए, तुम परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बना पाओगे। साथ ही अपने कर्तव्य का उचित ढंग से पालन करते हुए, तुम्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि तुम ऐसा कुछ भी न करो जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को लाभ न हो, और ऐसा कुछ भी न कहो जो भाई-बहनों की मदद न करे। तुम्हें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जो तुम्हारे जमीर के विरुद्ध हो और वह तो बिलकुल नहीं करना चाहिए जो शर्मनाक हो। तुम्हें खासकर ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जो परमेश्वर से विद्रोह करे या उसका विरोध करे, और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जो कलीसिया के कार्य या जीवन को बाधित करे। अपने हर कार्य में न्यायसंगत और सम्माननीय रहो और सुनिश्चित करो कि तुम्हारा हर कार्य परमेश्वर के समक्ष प्रस्तुत करने योग्य हो। यद्यपि कभी-कभी देह कमज़ोर हो सकती है, फिर भी तुम्हें अपने व्यक्तिगत लाभ का लालच न करते हुए, कोई भी स्वार्थी या नीच कार्य न करते हुए, आत्म-चिंतन करते हुए परमेश्वर के परिवार के हित पहले रखने चाहिए। इस तरह तुम अक्सर परमेश्वर के सामने रह सकते हो, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध पूरी तरह सामान्य हो जाएगा।
अपने हर कार्य में तुम्हें यह जाँचना चाहिए कि क्या तुम्हारे इरादे सही हैं। यदि तुम परमेश्वर की माँगों के अनुसार कार्य कर सकते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है। यह न्यूनतम मापदंड है। अपने इरादों पर ग़ौर करो, और अगर तुम यह पाओ कि गलत इरादे पैदा हो गए हैं, तो उनके खिलाफ विद्रोह करो और परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करो; इस तरह तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो परमेश्वर के समक्ष सही है, जो बदले में दर्शाएगा कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है, और तुम जो कुछ करते हो वह परमेश्वर के लिए है, न कि तुम्हारे अपने लिए। तुम जो कुछ भी करते या कहते हो, उसमें अपने हृदय को सही बनाने और अपने कार्यों में नेक होने में सक्षम बनो, और अपनी भावनाओं से संचालित मत होओ, न अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करो। ये वे सिद्धांत हैं, जिनके अनुसार परमेश्वर के विश्वासियों को आचरण करना चाहिए।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?
जो लोग सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार कर सकते हैं। परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार करने पर तुम्हारा हृदय निष्कपट हो जाएगा। यदि तुम हमेशा दूसरों को दिखाने के लिए ही काम करते हो, और हमेशा दूसरों की प्रशंसा और सराहना प्राप्त करना चाहता हो और परमेश्वर की पड़ताल स्वीकार नहीं करते, तब भी क्या तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है? ऐसे लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता। हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन मेंतुम अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम निष्ठावान रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्हें इन चीज़ों के बारे में अवश्य विचार करना चाहिए। अगर तुम इन पर बार-बार विचार करते हो और इन्हें समझ लेते हो, तो तुम्हारे लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना आसान हो जाएगा। अगर तुम्हारे पास ज्यादा काबिलियत नहीं है, अगर तुम्हारा अनुभव उथला है, या अगर तुम अपने पेशेवर कार्य में दक्ष नहीं हो, तब तुम्हारेतुम्हारे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, हो सकता है कि तुम्हें अच्छे परिणाम न मिलें—पर तब तुमने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया होगा। तुमतुम अपनी स्वार्थपूर्णइच्छाएँ या प्राथमिकताएँ पूरी नहीं करते। इसके बजाय, तुम लगातार कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हो। भले ही तुम्हें अपने कर्तव्य में अच्छे परिणाम प्राप्त न हों, फिर भी तुम्हारा दिल निष्कपट हो गया होगा; अगर इसके अलावा, इसके ऊपर से, तुम अपने कर्तव्य में आई समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो, तब तुम अपना कर्तव्य निर्वहन मानक स्तर का कर पाओगे और साथ ही, तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। किसी के पास गवाही होने का यही अर्थ है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है
तुम लोग सब कर्तव्य निभाने वाले लोग हो। कम से कम, तुम्हारे पास एक ईमानदार दिल होना चाहिए और तुम्हें परमेश्वर को यह देखने देना चाहिए कि तुम ईमानदार हो—सिर्फ तभी तुम परमेश्वर की प्रबुद्धता, रोशनी और मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हो। महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकारते हो। चाहे तुम्हारे और अन्य लोगों के बीच कोई भी बाधाएँ हों, तुम अपने अभिमान और प्रतिष्ठा को कितना भी महत्व देते हो, और चाहे ऐसे जितने भी इरादे रखते हो जिनके बारे में तुम सरल तरीके से खुलकर नहीं बोल सकते, ये तमाम चीजें धीरे-धीरे बदलनी चाहिए। कदम-दर-कदम हर व्यक्ति को इन भ्रष्ट स्वभावों और कठिनाइयों से मुक्त होना चाहिए, और अपने भ्रष्ट स्वभावों द्वारा उत्पन्न बाधाओं पर काबू पाना चाहिए। इससे पहले कि तुम इन बाधाओं से गुजरो, क्या तुम्हारा दिल वास्तव में परमेश्वर के प्रति ईमानदार है? क्या तुम उससे चीजें छिपाते और गुप्त रखते हो या मुखौटा लगाकर उसे धोखा देते हो? तुम्हें अपने दिल में इसके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। अगर तुम्हारे दिल में ये चीजें हैं, तो तुम्हें परमेश्वर की जाँच स्वीकारनी चाहिए। चीजें संयोग पर छोड़ते हुए यह मत कहो, “मैं अपना पूरा जीवन परमेश्वर के लिए नहीं खपाना चाहता। मैं परिवार शुरू करके अपना जीवन जीना चाहता हूँ। उम्मीद है कि परमेश्वर मेरी पड़ताल करके मेरी निंदा नहीं करेगा।” अगर तुम ये सभी चीजें परमेश्वर से छिपाते हो—यानी वे इरादे, उद्देश्य, योजनाएँ और जीवन-लक्ष्य, जिन्हें तुम अपने दिल की गहराई में रखते हो—और अगर तुम कई चीजों पर अपने विचार और परमेश्वर में आस्था के बारे में अपने विश्वास छिपाते हो, तो तुम मुसीबत में पड़ जाओगे। अगर तुम ये बेकार की चीजें छिपाते हो और इन्हें हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, तो यह दर्शाता है कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, और तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना और पाना कठिन है। तुम दूसरों से चीजें छिपा सकते हो, लेकिन परमेश्वर से नहीं छिपा सकते। अगर तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते, तो उसमें विश्वास क्यों करते हो? अगर तुम्हारे पास कुछ रहस्य हैं, और तुम्हें चिंता है कि अगर तुम उनके बारे में खुलकर बोलोगे तो लोग तुम्हें तुच्छ समझेंगे, और तुममें बोलने का साहस नहीं है, तो तुम सिर्फ परमेश्वर से खुलकर कह सकते हो। तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, वे घृणित इरादे स्वीकारने चाहिए जो तुम उस पर अपने विश्वास में रखते हो, और वे चीजें भी जो तुमने अपने भविष्य और भाग्य के लिए की हैं, और यह भी कि कैसे तुमने शोहरत और लाभ के लिए प्रयास किया है। ये सब परमेश्वर के सामने रखो और उस पर प्रकट करो; इन्हें उससे मत छिपाओ। चाहे तुम्हारा दिल कितने भी लोगों के लिए बंद हो, उसे परमेश्वर के लिए बंद मत करो—तुम्हें अपना दिल उसके सामने खोलना चाहिए। यह ईमानदारी की वह न्यूनतम मात्रा है, जो उसमें विश्वास करने वाले लोगों में होनी चाहिए। अगर तुम्हारे पास ऐसा हृदय है, जो परमेश्वर के लिए खुला है और उसके लिए बंद नहीं है, और जो उसकी जाँच स्वीकार सकता है, तो वह तुम्हें कैसे देखेगा? भले ही तुम दूसरों के सामने न खुल पाओ, लेकिन अगर तुम परमेश्वर के सामने खुल सकते हो, तो वह तुम्हें एक ईमानदार दिल वाले ईमानदार व्यक्ति के रूप में देखेगा। अगर तुम्हारा ईमानदार दिल उसकी जाँच स्वीकार सकता है, तो यह उसकी नजर में अनमोल है, और उसे निश्चित रूप से तुममें काम करना है। उदाहरण के लिए, अगर तुमने परमेश्वर के प्रति कोई धोखेबाजी की है, तो वह तुम्हें अनुशासित करेगा। तब तुम्हें उसका अनुशासन स्वीकारना चाहिए, तुरंत पश्चात्ताप करना चाहिए और उसके सामने कबूलना चाहिए, और अपनी गलतियाँ माननी चाहिए; तुम्हें अपना विद्रोह और भ्रष्टता माननी चाहिए, परमेश्वर की ताड़ना और न्याय स्वीकारना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव जानने चाहिए, उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए और सच में पश्चात्ताप करना चाहिए। यह परमेश्वर में तुम्हारे सच्चे विश्वास और उसमें तुम्हारी वास्तविक आस्था का प्रमाण है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है
जब लोगों के पास विचार होते हैं, तो उनके पास विकल्प होते हैं। अगर उनके साथ कुछ हो जाता है और वे गलत विकल्प चुन लेते हैं, तो उन्हें वापस मुड़ना चाहिए और सही विकल्प चुनना चाहिए; उन्हें अपनी गलती पर अड़े नहीं रहना चाहिए। ऐसे लोग चतुर होते हैं। लेकिन अगर वे जानते हैं कि उन्होंने गलत विकल्प चुना है और फिर भी वापस नहीं मुड़ते, तो फिर वे ऐसे इंसान हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते, और ऐसा इंसान वास्तव में परमेश्वर को नहीं चाहता। उदाहरण के लिए मान लो, अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम लापरवाह और आलसी होना चाहते हो। तुम ढिलाई बरतने और परमेश्वर की जाँच से बचने की कोशिश करते हो। ऐसे समय में, प्रार्थना करने के लिए जल्दी से परमेश्वर के सामने जाओ, और विचार करो कि क्या यह कार्य करने का सही तरीका था। फिर इस बारे में सोचो : “मैं परमेश्वर में विश्वास क्यों करता हूँ? इस तरह की ढिलाई भले ही लोगों की नजर से बच जाए, लेकिन क्या परमेश्वर की नजर से बचेगी? इसके अलावा, परमेश्वर में मेरा विश्वास ढीला होने के लिए नहीं है—यह बचाए जाने के लिए है। मेरा इस तरह काम करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति नहीं है, न ही यह परमेश्वर को प्रिय है। नहीं, मैं बाहरी दुनिया में सुस्त हो सकता हूँ और जैसा चाहूँ वैसा कर सकता हूँ, लेकिन अब मैं परमेश्वर के घर में हूँ, मैं परमेश्वर की संप्रभुता में हूँ, परमेश्वर की आँखों की जाँच के अधीन हूँ। मैं एक इंसान हूँ, मुझे अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना चाहिए, मैं जैसा चाहूँ वैसा नहीं कर सकता। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करना चाहिए, मुझे लापरवाह या अनमना नहीं होना चाहिए, मैं सुस्त नहीं हो सकता। तो सुस्त, लापरवाह और अनमना न होने के लिए मुझे कैसे काम करना चाहिए? मुझे कुछ प्रयास करना चाहिए। अभी मुझे लगा कि इसे इस तरह करना बहुत अधिक कष्टप्रद था, मैं कठिनाई से बचना चाहता था, लेकिन अब मैं समझता हूँ : ऐसा करने में बहुत परेशानी हो सकती है, लेकिन यह कारगर है, और इसलिए इसे ऐसे ही किया जाना चाहिए।” जब तुम काम कर रहे होते हो और फिर भी कठिनाई से डरते हो, तो ऐसे समय तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर! मैं आलसी और धोखेबाज हूँ, मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे अनुशासित करो, मुझे फटकारो, ताकि मेरा अंतःकरण कुछ महसूस करे और मुझे शर्म आए। मैं लापरवाह और अनमना नहीं होना चाहता। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरी विद्रोहशीलता और कुरूपता दिखाने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे प्रबुद्ध करो।” जब तुम इस प्रकार प्रार्थना करते हो, चिंतन और खुद को जानने का प्रयास करते हो, तो यह खेद की भावना उत्पन्न करेगा, और तुम अपनी कुरूपता से घृणा करने में सक्षम होगे, और तुम्हारी गलत दशा बदलने लगेगी, और तुम इस पर विचार करने और अपने आप से यह कहने में सक्षम होगे, “मैं लापरवाह और अनमना क्यों हूँ? मैं हमेशा ढीला होने की कोशिश क्यों करता हूँ? ऐसा कार्य करना अंतरात्मा या समझदारी से रहित होना है—क्या मैं अब भी ऐसा इंसान हूँ जो परमेश्वर में विश्वास करता है? मैं चीजों को गंभीरता से क्यों नहीं लेता? क्या मुझे थोड़ा और समय और प्रयास लगाने की जरूरत नहीं? यह कोई बड़ा बोझ नहीं है। मुझे यही करना चाहिए; अगर मैं यह भी नहीं कर सकता, तो क्या मैं इंसान कहलाने के लायक हूँ?” नतीजतन, तुम एक संकल्प करोगे और शपथ लोगे : “हे परमेश्वर! मैंने तुम्हें नीचा दिखाया है, मैं वास्तव में बहुत गहराई तक भ्रष्ट हूँ, मैं अंतरात्मा या समझदारी से रहित हूँ, मुझमें मानवता नहीं है, मैं पश्चात्ताप करना चाहता हूँ। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे माफ कर दो, मैं निश्चित रूप से बदल जाऊँगा। अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करता, तो मैं चाहूँगा कि तुम मुझे दंड दो।” बाद में तुम्हारी मानसिकता बदल जाएगी और तुम बदलने लगोगे। तुम कम लापरवाही से और कम अनमने होकर कार्य करोगे, कर्तव्यनिष्ठा से अपने कर्तव्य निभाओगे और कष्ट उठाने और कीमत चुकाने में सक्षम होगे। तुम महसूस करोगे कि इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना अद्भुत है, और तुम्हारे हृदय में शांति और आनंद होगा। जब लोग परमेश्वर की जाँच स्वीकार पाते हैं, जब वे उससे प्रार्थना कर पाते हैं और उस पर भरोसा कर पाते हैं, तो उनकी अवस्थाएँ जल्दी ही बदल जाएँगी। जब तुम्हारे दिल की नकारात्मक अवस्था बदल गई होती है, और तुमने अपने इरादे त्याग दिए होते हैं और देह की स्वार्थपरक इच्छाएँ छोड़ दी होती हैं, जब तुम दैहिक सुख और आनंद छोड़ने में सक्षम रहते हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करते हो, और अब मनमाने या लापरवाह नहीं रहते, तो तुम्हारे दिल में शांति होगी और तुम्हारा जमीर तुम्हें धिक्कारेगा नहीं। क्या इस तरह से देह-सुख त्यागना और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना आसान है? अगर लोगों में परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं हैं, तो वे देह-सुख त्यागकर सत्य का अभ्यास कर सकते हैं। और अगर तुम इस तरह से अभ्यास करने में सक्षम रहते हो, तो अनजाने ही तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर रहे होगे। यह बिल्कुल भी मुश्किल नहीं होगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है
जब कोई तुम्हारी निगरानी या निरीक्षण करने में थोड़ा समय लगाता है या तुमसे गहन प्रश्न पूछता है, तुम्हारे साथ खुले दिल से बातचीत करने और यह पता लगाने की कोशिश करता है कि इस दौरान तुम्हारी स्थिति कैसी रही है, यहाँ तक कि कभी-कभी जब उसका रवैया थोड़ा कठोर होता है, और वह तुमसे थोड़ा निपटता है और तुम्हारी थोड़ी काट-छाँट करता है, और तुम्हें अनुशासित करता और धिक्कारता है, तो वह यह सब इसलिए करता है क्योंकि उसका परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति एक ईमानदार और जिम्मेदारी भरा रवैया होता है। तुम्हें इसके प्रति नकारात्मक विचार या भावनाएँ नहीं रखनी चाहिए। अगर तुम दूसरों की निगरानी, निरीक्षण और पूछताछ स्वीकार कर सकते हो, तो इसका क्या मतलब है? यह कि अपने दिल में तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करते हो। अगर तुम लोगों के द्वारा अपनी निगरानी, निरीक्षण और पूछताछ स्वीकार नहीं करते—अगर तुम इस सबका विरोध करते हो—तो क्या तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करने में सक्षम हो? परमेश्वर की जाँच लोगों की पूछताछ से ज्यादा विस्तृत, गहन और सटीक होती है; परमेश्वर जो पूछता है, वह इससे अधिक विशिष्ट, कठोर और गहन होता है। इसलिए अगर तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा निगरानी की जाना स्वीकार नहीं कर सकते, तो क्या तुम्हारे ये दावे कि तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर सकते हो, खोखले शब्द नहीं हैं? परमेश्वर की जाँच और परीक्षा स्वीकार करने में सक्षम होने के लिए तुम्हें पहले परमेश्वर के घर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, और भाई-बहनों द्वारा निगरानी स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए।
—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7)
तुम्हारे इर्द-गिर्द जो भी घटे, तुम्हें परमेश्वर से हर चीज के बारे में प्रार्थना करनी चाहिए। तुम्हें हमेशा सत्य खोजना चाहिए, खुद को संयम में रखना चाहिए, सुनिश्चित करना चाहिए कि तुम परमेश्वर की मौजूदगी में जी रहे हो, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है। परमेश्वर लोगों की हमेशा जाँच करता रहता है, और पवित्र आत्मा ऐसे लोगों के भीतर काम करता है। परमेश्वर किसी व्यक्ति के दिल की जाँच कैसे करता है? वह सिर्फ अपनी नजरों से नहीं देखता, बल्कि तुम्हारे लिए माहौल तैयार करता है और अपने हाथों से तुम्हारे दिल को छूता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? इसलिए कि जब परमेश्वर तुम्हारे लिए एक माहौल तैयार करता है, तो देखता है कि क्या तुम उससे नाखुश हो, उससे घृणा करते हो, या उसे पसंद कर उसे समर्पित हो जाते हो, क्या तुम निष्क्रियता से प्रतीक्षा करते हो या सक्रियता से सत्य खोजते हो। परमेश्वर देखता है कि तुम्हारा दिल और सोच कैसे बदलते हैं, और किस दिशा में विकसित हो रहे हैं। तुम्हारे दिल की दशा कभी-कभी सकारात्मक होती है, और कभी-कभी नकारात्मक। अगर तुम सत्य को स्वीकार कर सकते हो, तो तुम परमेश्वर से लोग, घटनाएँ, चीजें और विविध माहौल पा सकोगे, जो उसने तुम्हारे लिए तैयार किए हैं, और तुम उन तक सही ढंग से पहुँच सकोगे। परमेश्वर के वचन पढ़कर और सोच-विचार से तुम्हारे सारे विचार, सारी राय, और तमाम मन:स्थितियाँ उसके वचनों के आधार पर बदल जाएँगी। तुम्हारे मन में इस बारे में स्पष्टता आएगी, और परमेश्वर इन सबकी भी जाँच करेगा। हालाँकि तुमने इस बारे में किसी से बात नहीं की होगी, या इस बारे में प्रार्थना नहीं की होगी, और तुम सिर्फ यही सोचोगे कि यह तुम्हारे दिल में है, तुम्हारी दुनिया में है, मगर परमेश्वर के नजरिए से यह स्पष्ट हो चुका होगा—उसके लिए यह जाहिर होगा। लोग तुम्हें अपनी नजरों से देखते हैं, मगर परमेश्वर अपने दिल से तुम्हारे दिल को छूता है, वह तुम्हारे इतना करीब है। अगर तुम परमेश्वर की जाँच को महसूस कर सकते हो, तो तुम परमेश्वर की मौजूदगी में जी रहे हो। अगर तुम उसकी जाँच को जरा भी महसूस नहीं कर रहे, अपनी ही दुनिया में जी रहे हो, और अपनी ही भावनाओं और भ्रष्ट स्वभाव के साथ जी रहे हो, तो तुम मुसीबत में हो। अगर तुम परमेश्वर की मौजूदगी में नहीं जीते, अगर तुम्हारे और परमेश्वर के बीच एक बड़ी खाई है, और तुम उससे बहुत दूर हो, अगर तुम उसकी इच्छा का जरा भी ख्याल नहीं रखते, और तुम परमेश्वर की जाँच को स्वीकार नहीं करते, तो परमेश्वर यह सब जान लेगा। इसे भाँप लेना उसके लिए बहुत आसान होगा। इसलिए, जब तुममें संकल्प और एक लक्ष्य होगा, तुम परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने और एक ऐसा व्यक्ति बनने को तैयार हो जाओगे जो परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण करता है और उससे डरता है, बुराई से दूर रहता है, जब तुम्हारे मन में यह संकल्प होगा, और तुम इन चीजों के लिए अक्सर प्रार्थना और विनती कर सकोगे, और परमेश्वर से दूरी बनाए बिना या उसे छोड़े बिना, परमेश्वर की मौजूदगी में रह सकोगे, तब तुम्हारे मन में इन चीजों के बारे में स्पष्टता होगी, और परमेश्वर भी ये सब जानता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है
लोग भले ही सत्य समझते हों या न समझते हों, उन्हें किसी भी हालत में बुरे काम नहीं करने चाहिए, अपनी महत्वाकांक्षाओं के अनुसार काम नहीं करना चाहिए या कुछ भी करके बच निकलने की आशा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर की नज़र पूरी पृथ्वी पर होती है। “संपूर्ण पृथ्वी” में क्या शामिल होता है? इसमें भौतिक और अभौतिक दोनों शामिल होते हैं। अपने दिमाग़ का इस्तेमाल करके, परमेश्वर को, उसके अधिकार और सर्वशक्तिमत्ता को न मापो। कोई ऐसा काम न करो जो अज्ञानता या दुष्टता का हो; देर-सबेर, दुष्ट कामों का प्रतिफल मिलेगा, तब एक ऐसा दिन आयेगा जब परमेश्वर तुम्हें उजागर कर देगा और तुम्हें परिणाम भुगतने पड़ेंगे। इसलिए कुछ मामलों में तुम्हारे लिए परमेश्वर के वचनों पर कायम रहना बेहतर होगा, इससे पहले कि परमेश्वर तुम्हें उजागर कर दे, तुम्हें स्वयं इन समस्याओं का पता लगा कर इनके बारे में आत्मचिंतन करने की कोशिश करनी चाहिए। पहले कोशिश करो, इन्हें खुद सुलझाओ—परमेश्वर तुम्हें उजागर करे, इसकी प्रतीक्षा न करो। जब वह तुम्हें उजागर कर दे, तो तुम निष्क्रिय तो नहीं हो जाते हो? क्या अभी भी तुम में कोई योग्यता है? क्या तुम्हारी योग्यता में कोई बदलाव हुआ है, परमेश्वर द्वारा तुम्हारी जांच शुरू करने से ले कर तुम्हें उजागर करने तक, परमेश्वर की दृष्टि में तुम कैसे हो? बदलाव कितना बड़ा है? परमेश्वर तुम्हारी जांच के दौरान, तुम्हें अवसर देता है, तुमसे बहुत आशा रखता है, उस दिन तक जब वह तुम्हें उजागर करता है—उस मुकाम पर तुमसे उसकी आशा और तुम्हें दिये हुए उसके मौके बहुत भिन्न होते हैं। इस भिन्नता से तुम्हें क्या मिलेगा? कम गंभीर हालात में, शायद तुम उन लोगों में से एक बन जाओ जिनके लिए परमेश्वर के दिल में घृणा होती है और जो अलग डाल दिये जाने की कगार पर होते हैं। “अलग डाल दिये जाने” का क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ होता है पीछे डाल कर निगरानी में रखना। फिर गंभीर मामलों में क्या होता है? परमेश्वर का दिल कहता है, “यह व्यक्ति एक विपत्ति है, सेवा करने के लायक भी नहीं है। मैं इस व्यक्ति को कभी नहीं बचाऊंगा!” जब परमेश्वर ऐसा इरादा बना ले, तो फिर तुम गए काम से। तब सिर झुकाने और रगड़ने से कोई फायदा नहीं—परमेश्वर तुम्हें पहले ही काफी मौके दे चुका है, तब भी तुमने कोई प्रयाश्चित नहीं किया। तुम बहुत आगे निकल चुके हो। इसलिए, चाहे तुम्हारे अंदर कोई भी समस्या हो या तुम किसी भी तरह की भ्रष्टता प्रकट करो, तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्म-चिंतन करके स्वयं को जानना चाहिए या भाई-बहनों से फीडबैक देने के लिए कहना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि तुम्हें परमेश्वर की जांच स्वीकार करनी चाहिए और परमेश्वर के सामने आकर उसकी प्रबुद्धता और प्रकाश पाने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। तुम इसे चाहे जैसे करो, सबसे अच्छा यह होगा कि तुम पहले ही अपनी समस्याओं की पहचान कर उन्हें हल कर लो, जो आत्म-चिंतन का परिणाम होता है। तुम जो कुछ भी करो, उसमें परमेश्वर द्वारा उजागर किए जाने का इंतज़ार न करो, क्योंकि तब तक बहुत देर हो चुकी होगी! किसी का पर्दाफ़ाश करते समय, क्या परमेश्वर अत्यधिक क्रोधित होगा, या अत्यधिक दयालु होगा? यह कहना आसान नहीं है, यह एक अनिश्चितता है। मैं तुम्हें कोई भी गारंटी नहीं दे सकता; तुम्हें अपने मार्ग पर चलना होगा।
—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक)
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