31. ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास कैसे करें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए चीज़ें न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना। मैं जो कहता हूँ वह बहुत सरल है, किंतु तुम लोगों के लिए दुगुना मुश्किल है। बहुत-से लोग ईमानदारी से बोलने और कार्य करने की बजाय नरक में दंडित होना पसंद करेंगे। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि जो बेईमान हैं उनके लिए मेरे भंडार में अन्य उपचार भी है। मैं अच्छी तरह से जानता हूँ तुम्हारे लिए ईमानदार इंसान बनना कितना मुश्किल काम है। चूँकि तुम लोग बहुत चतुर हो, अपने तुच्छ पैमाने से लोगों का मूल्यांकन करने में बहुत अच्छे हो, इससे मेरा कार्य और आसान हो जाता है। और चूंकि तुम में से हरेक अपने भेदों को अपने सीने में भींचकर रखता है, तो मैं तुम लोगों को एक-एक करके आपदा में भेज दूँगा ताकि अग्नि तुम्हें सबक सिखा सके, ताकि उसके बाद तुम मेरे वचनों के प्रति पूरी तरह समर्पित हो जाओ। अंततः, मैं तुम लोगों के मुँह से “परमेश्वर एक निष्ठावान परमेश्वर है” शब्द निकलवा लूँगा, तब तुम लोग अपनी छाती पीटोगे और विलाप करोगे, “कपटी है इंसान का हृदय!” उस समय तुम्हारी मनोस्थिति क्या होगी? मुझे लगता है कि तुम उतने खुश नहीं होगे जितने अभी हो। तुम लोग इतने “गहन और गूढ़” तो बिल्कुल भी नहीं होगे जितने कि तुम अब हो। कुछ लोग परमेश्वर की उपस्थिति में नियम-निष्ठ और उचित शैली में व्यवहार करते हैं, वे “शिष्ट व्यवहार” के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, फिर भी आत्मा की उपस्थिति में वे अपने जहरीले दाँत और पँजे दिखाने लगते हैं। क्या तुम लोग ऐसे इंसान को ईमानदार लोगों की श्रेणी में रखोगे? यदि तुम पाखंडी और ऐसे व्यक्ति हो जो “व्यक्तिगत संबंधों” में कुशल है, तो मैं कहता हूँ कि तुम निश्चित रूप से ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर को हल्के में लेने का प्रयास करता है। यदि तुम्हारी बातें बहानों और महत्वहीन तर्कों से भरी हैं, तो मैं कहता हूँ कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करने से घृणा करता है। यदि तुम्हारे पास ऐसे बहुत-से गुप्त भेद हैं जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे। यदि सत्य का मार्ग खोजने से तुम्हें प्रसन्नता मिलती है, तो तुम सदैव प्रकाश में रहने वाले व्यक्ति हो। यदि तुम परमेश्वर के घर में सेवाकर्मी बने रहकर बहुत प्रसन्न हो, गुमनाम बनकर कर्मठतापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से काम करते हो, हमेशा देने का भाव रखते हो, लेने का नहीं, तो मैं कहता हूँ कि तुम एक निष्ठावान संत हो, क्योंकि तुम्हें किसी फल की अपेक्षा नहीं है, तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो। यदि तुम स्पष्टवादी बनने को तैयार हो, अपना सर्वस्व खपाने को तैयार हो, यदि तुम परमेश्वर के लिए अपना जीवन दे सकते हो और दृढ़ता से अपनी गवाही दे सकते हो, यदि तुम इस स्तर तक ईमानदार हो जहाँ तुम्हें केवल परमेश्वर को संतुष्ट करना आता है, और अपने बारे में विचार नहीं करते हो या अपने लिए कुछ नहीं लेते हो, तो मैं कहता हूँ कि ऐसे लोग प्रकाश में पोषित किए जाते हैं और वे सदा राज्य में रहेंगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ

आज, अधिकांश लोग अपने कृत्यों को परमेश्वर के सम्मुख लाने से बहुत डरते हैं; जबकि तू परमेश्वर की देह को धोखा दे सकता है, परन्तु उसके आत्मा को धोखा नहीं दे सकता है। कोई भी बात, जो परमेश्वर की छानबीन का सामना नहीं कर सकती, वह सत्य के अनुरूप नहीं है, और उसे अलग कर देना चाहिए; ऐसा न करना परमेश्वर के विरूद्ध पाप करना है। इसलिए, तुझे हर समय, जब तू प्रार्थना करता है, जब तू अपने भाई-बहनों के साथ बातचीत और संगति करता है, और जब तू अपना कर्तव्य करता है और अपने काम में लगा रहता है, तो तुझे अपना हृदय परमेश्वर के सम्मुख अवश्य रखना चाहिए। जब तू अपना कार्य पूरा करता है, तो परमेश्वर तेरे साथ होता है, और जब तक तेरा इरादा सही है और परमेश्वर के घर के कार्य के लिए है, तब तक जो कुछ भी तू करेगा, परमेश्वर उसे स्वीकार करेगा; इसलिए तुझे अपने कार्य को पूरा करने के लिए अपने आपको ईमानदारी से समर्पित कर देना चाहिए। जब तू प्रार्थना करता है, यदि तेरे पास परमेश्वर-प्रेमी हृदय है, और यदि तू परमेश्वर की देखभाल, संरक्षण और छानबीन की तलाश करता है, यदि ये चीजें तेरे इरादे हैं, तो तेरी प्रार्थनाएँ प्रभावशाली होंगी। उदाहरण के लिए, जब तू सभाओं में प्रार्थना करता है, यदि तू अपना हृदय खोल कर परमेश्वर से प्रार्थना करता है, और बिना झूठ बोले परमेश्वर से बोल देता है कि तेरे हृदय में क्या है, तब तेरी प्रार्थनाएँ निश्चित रूप से प्रभावशाली होंगी। ...

परमेश्वर में विश्वासी होने का अर्थ है कि तेरे सारे कृत्य उसके सम्मुख लाये जाने चाहिए और उन्हें उसकी छानबीन के अधीन किया जाना चाहिए। यदि तू जो कुछ भी करता है उसे परमेश्वर के आत्मा के सम्मुख ला सकते हैं लेकिन परमेश्वर की देह के सम्मुख नहीं ला सकते, तो यह दर्शाता है कि तूने अपने आपको उसके आत्मा की छानबीन के अधीन नहीं किया है। परमेश्वर का आत्मा कौन है? कौन है वो व्यक्ति जिसकी परमेश्वर द्वारा गवाही दी जाती है? क्या वे एक समान नहीं है? अधिकांश उसे दो अलग अस्तित्व के रूप में देखते हैं, ऐसा विश्वास करते हैं कि परमेश्वर का आत्मा तो परमेश्वर का आत्मा है, और परमेश्वर जिसकी गवाही देता है वह व्यक्ति मात्र एक मानव है। लेकिन क्या तू गलत नहीं है? किसकी ओर से यह व्यक्ति काम करता है? जो लोग देहधारी परमेश्वर को नहीं जानते, उनके पास आध्यात्मिक समझ नहीं होती है। परमेश्वर का आत्मा और उसका देहधारी देह एक ही हैं, क्योंकि परमेश्वर का आत्मा देह रूप में प्रकट हुआ है। यदि यह व्यक्ति तेरे प्रति निर्दयी है, तो क्या परमेश्वर का आत्मा दयालु होगा? क्या तू भ्रमित नही है? आज, जो कोई भी परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार नहीं कर सकता है, वह परमेश्वर की स्वीकृति नहीं पा सकता है, और जो देहधारी परमेश्वर को न जानता हो, उसे पूर्ण नहीं बनाया जा सकता। अपने सभी कामों को देख और समझ कि जो कुछ तू करता है वह परमेश्वर के सम्मुख लाया जा सकता है कि नहीं। यदि तू जो कुछ भी करता है, उसे तू परमेश्वर के सम्मुख नहीं ला सकता, तो यह दर्शाता है कि तू एक दुष्ट कर्म करने वाला है। क्या दुष्कर्मी को पूर्ण बनाया जा सकता है? तू जो कुछ भी करता है, हर कार्य, हर इरादा, और हर प्रतिक्रिया, अवश्य ही परमेश्वर के सम्मुख लाई जानी चाहिए। यहाँ तक कि, तेरे रोजाना का आध्यात्मिक जीवन भी—तेरी प्रार्थनाएँ, परमेश्वर के साथ तेरा सामीप्य, परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने का तेरा ढंग, भाई-बहनों के साथ तेरी सहभागिता, और कलीसिया के भीतर तेरा जीवन—और साझेदारी में तेरी सेवा परमेश्वर के सम्मुख उसके द्वारा छानबीन के लिए लाई जा सकती है। यह ऐसा अभ्यास है, जो तुझे जीवन में विकास हासिल करने में मदद करेगा। परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करने की प्रक्रिया शुद्धिकरण की प्रक्रिया है। जितना तू परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करता है, उतना ही तू शुद्ध होता जाता है और उतना ही तू परमेश्वर की इच्छा के अनुसार होता है, जिससे तू व्यभिचार की ओर आकर्षित नहीं होगा और तेरा हृदय उसकी उपस्थिति में रहेगा; जितना तू उसकी छानबीन को ग्रहण करता है, शैतान उतना ही लज्जित होता है और उतना अधिक तू देहसुख के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम होता है। इसलिए, परमेश्वर की छानबीन को ग्रहण करना अभ्यास का वो मार्ग है जिसका सभी को अनुसरण करना चाहिए। चाहे तू जो भी करे, यहाँ तक कि अपने भाई-बहनों के साथ सहभागिता करते हुए भी, यदि तू अपने कर्मों को परमेश्वर के सम्मुख ला सकता है और उसकी छानबीन को चाहता है और तेरा इरादा स्वयं परमेश्वर के प्रति समर्पण का है, इस तरह जिसका तू अभ्यास करता है वह और भी सही हो जाएगा। केवल जब तू जो कुछ भी करता है, वो सब कुछ परमेश्वर के सम्मुख लाता है और परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करता है, तो वास्तव में तू ऐसा कोई हो सकता है जो परमेश्वर की उपस्थिति में रहता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर उन्हें पूर्ण बनाता है, जो उसकी इच्छा के अनुरूप हैं

ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार व्यवहार करना चाहिए; तुम्हें न्याय, ताड़ना, निपटारे और काट-छाँट से गुजरना चाहिए। जब तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध हो जाता है और तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में सक्षम हो जाते हो, तभी तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनते हो। जो लोग अज्ञानी, मूर्ख और सरल हैं, वे बिल्कुल ईमानदार लोग नहीं होते। ईमानदार होने की माँग करके परमेश्वर लोगों से सामान्य मानवता रखने, अपना कपट और छद्मवेश त्यागने, दूसरों से झूठ न बोलने या चालाकी न करने, वफादारी के साथ अपना कर्तव्य निभाने, और परमेश्वर से वास्तव में प्रेम करने और उसकी आज्ञा मानने में सक्षम होने के लिए कहता है। सिर्फ यही लोग परमेश्वर के राज्य के लोग हैं। परमेश्वर माँग करता है कि लोग मसीह के अच्छे सैनिक बनें। मसीह के अच्छे सैनिक कौन हैं? उन्हें सत्य की वास्तविकता से लैस होना चाहिए और मसीह के साथ एक-चित्त और एक-मन होना चाहिए। हर समय और स्थान पर उन्हें परमेश्वर का गुणगान करने और उसकी गवाही देने और शैतान के साथ युद्ध करने के लिए सत्य का उपयोग करने में सक्षम होना चाहिए। सभी चीजों में उन्हें परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना चाहिए, गवाही देनी चाहिए और सत्य की वास्तविकता को जीना चाहिए। उन्हें शैतान को अपमानित करने और परमेश्वर के लिए अद्भुत जीत हासिल करने में सक्षम होना चाहिए। मसीह का अच्छा सैनिक होने का यही अर्थ है। मसीह के अच्छे सैनिक विजेता हैं, ये वे हैं जो शैतान पर विजय पाते हैं। लोगों से ईमानदार होने और कपटी न होने की अपेक्षा करके परमेश्वर उन्हें मूर्ख बनने के लिए नहीं कहता, बल्कि यह कहता है कि वे खुद को अपने कपटी स्वभावों से छुटकारा दिलाएँ, उसके प्रति समर्पण प्राप्त करें और उसके लिए महिमा लाएँ। यही है, जो सत्य का अभ्यास करके हासिल किया जा सकता है। यह व्यक्ति के व्यवहार में बदलाव नहीं है, यह ज्यादा या कम बोलने का मामला नहीं है और न ही यह इस बारे में है कि व्यक्ति कैसे कार्य करता है। बल्कि, यह व्यक्ति की बोलचाल और कार्यों, उसके विचारों और दृष्टिकोणों, उसकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के पीछे की मंशा के बारे में है। भ्रष्ट स्वभाव के उद्गारों और त्रुटि से संबंधित हर चीज जड़ से बदलनी होगी, ताकि वह सत्य के अनुरूप हो सके। अगर व्यक्ति को स्वभाव में बदलाव प्राप्त करना है, तो उसे शैतान के स्वभाव का सार समझने में सक्षम होना चाहिए। अगर तुम कपटी स्वभाव का सार समझ सकते हो, कि यह शैतान का स्वभाव और शैतान का चेहरा है, अगर तुम शैतान से घृणा कर सकते हो और शैतान को त्याग सकते हो, तो तुम्हारे लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव को छोड़ना आसान होगा। अगर तुम नहीं जानते कि तुम्हारे भीतर एक कपटपूर्ण अवस्था है, अगर तुम कपटी स्वभाव के उद्गार नहीं पहचानते, तो तुम नहीं जान पाओगे कि उसे हल करने के लिए सत्य कैसे खोजा जाए, और तुम्हारे लिए अपने कपटी स्वभाव को बदलना कठिन होगा। तुम्हें पहले यह पहचानना होगा कि तुमसे क्या चीजें निकलती हैं, और वे भ्रष्ट स्वभाव के कौन-से पहलू हैं। अगर तुम्हारे द्वारा प्रकट की जाने वाली चीजें कपटी स्वभाव की हैं, तो क्या तुम अपने हृदय में उनसे घृणा करोगे? और अगर करते हो, तो तुम्हें कैसे बदलना चाहिए? तुम्हें अपने इरादों से निपटना होगा और अपने विचार सही करने होंगे। अपनी समस्याएँ हल करने के लिए पहले तुम्हें अपनी कपटपूर्ण अवस्था और अपने कपटी स्वभाव के उद्गारों के मामले में सत्य खोजना चाहिए, जो कुछ परमेश्वर कहता है उसे प्राप्त कर उसे संतुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए, और ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो परमेश्वर या अन्य लोगों को धोखा देने की कोशिश नहीं करता, यहाँ तक कि उन्हें भी, जो थोड़े मूर्ख या अज्ञानी हैं। किसी मूर्ख या अज्ञानी को धोखा देने की कोशिश करना बहुत ही अनैतिक है—यह तुम्हें शैतान बना देता है। ईमानदार व्यक्ति होने के लिए तुम्हें किसी को छलना या उससे झूठ बोलना नहीं चाहिए। हालाँकि, दानवों और शैतान के मामले में तुम्हें अपने शब्द बुद्धिमानी से चुनने चाहिए; अगर तुम ऐसा नहीं करते, तो तुम उनके द्वारा मूर्ख बनाए जा सकते हो और परमेश्वर को लज्जित कर सकते हो। अपने शब्द बुद्धिमानी से चुनने और सत्य का अभ्यास करने से ही तुम शैतान को हरा पाओगे और उसे शर्मिंदा कर पाओगे। जो लोग अज्ञानी, मूर्ख और हठी हैं, वे कभी सत्य समझने में समर्थ नहीं होंगे; उन्हें सिर्फ धोखा दिया जा सकता है, उनके साथ खिलवाड़ किया जा सकता है और उन्हें शैतान द्वारा रौंदा और अंत में निगला जा सकता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है

एक ईमानदार व्यक्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण अभ्यास क्या है? यह परमेश्वर के प्रति अपना हृदय खोलने का कार्य है। लेकिन हृदय खोलने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है अपने विचार, इरादे और वे चीजें उसके साथ साझा करना जिनके तुम अधीन हो, और फिर उससे सत्य खोजना। परमेश्वर हर चीज असाधारण स्पष्टता से देखता है, चाहे तुम कुछ भी जाहिर करो। अगर तुम अपनी भावनाएँ परमेश्वर के सामने व्यक्त कर सकते हो, उन चीजों के बारे में उसके सामने खुल सकते हो जिन्हें तुम दूसरों से छिपाते हो, बिना कुछ छिपाए उन्हें स्पष्ट रूप से बता सकते हो, और अपने विचार बिना किसी इरादे के ज्यों के त्यों व्यक्त कर सकते हो, तो यह खुलापन है। कभी-कभी, ईमानदारी से बोलना दूसरों को चोट या ठेस पहुँचा सकता है। ऐसे मामलों में क्या कोई कहेगा, “तुम बहुत ज्यादा ईमानदारी से बोलते हो, यह बहुत दर्दनाक है, और मैं इसे नहीं स्वीकार सकता”? नहीं, वह नहीं कहेगा। अगर तुम कभी-कभार कुछ ऐसा कह भी देते हो जिससे दूसरों को ठेस पहुँचती है, लेकिन यह स्वीकारते हुए खुलकर माफी माँग लेते हो कि तुम्हारे शब्दों में बुद्धिमत्ता की कमी थी, और तुम उनकी कमजोरी के प्रति निष्ठुर थे, तो वे पहचान जाएँगे कि तुम्हारा इरादा गलत नहीं था। वे समझ जाएँगे कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो, जो सच्चे और सीधे-सपाट तरीके से बात करता है। वे तुमसे बहस नहीं करेंगे, और अपने दिल में तुम्हें पसंद करेंगे। ऐसे में क्या तुम्हारे बीच बाधाएँ हो सकती हैं? अगर बाधाएँ न हों, तो टकरावों से बचा जा सकता है, और समस्याएँ तेजी से हल की जा सकती हैं, जिससे तुम मुक्ति और विश्राम की स्थिति में रह सकते हो। “ईमानदार लोग ही सुखी रह सकते हैं” का यही अर्थ है। एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा पहले परमेश्वर के प्रति खुलना और फिर दूसरों के प्रति खुलना सीखना है। ईमानदारी, सच्चाई और दिल से बोलो। गरिमापूर्ण, चरित्रवान और सत्यनिष्ठ व्यक्ति बनने का प्रयास करो, खोखली हँसी-दिल्लगी या कपटपूर्ण तरीके से बोलने से बचो, और भ्रामक या बहकाने वाले तरीके से बोलने से परहेज करो। एक ईमानदार व्यक्ति होने का दूसरा पहलू अपना कर्तव्य ईमानदार रवैये और सच्चे दिल से निभाना है। कम से कम, अपने क्रियाकलाप के मार्गदर्शन के लिए अपने जमीर पर भरोसा करो, सत्य-सिद्धांतों का पालन करने का प्रयास करो, और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने की कोशिश करो। इन चीजों को सिर्फ मौखिक रूप से स्वीकारना ही काफी नहीं है, और सिर्फ एक विशेष रवैया अपनाने का मतलब यह नहीं है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। इसमें ईमानदार व्यक्ति होने की वास्तविकता कहाँ है? वास्तविकता के बिना सिर्फ नारे लगाना पर्याप्त नहीं है। जब परमेश्वर व्यक्तियों की जाँच-पड़ताल करता है, तो वह न सिर्फ उनके दिलों को परखता है, बल्कि उनके कार्यों, व्यवहारों और प्रथाओं की जाँच भी करता है। अगर तुम दावा करते हो कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनना चाहते हो, लेकिन जब तुम पर कोई मुसीबत आती है, तो तब भी तुम झूठ बोलने और धोखा देने में सक्षम होते हो, तो क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति का व्यवहार है? नहीं, यह एक ईमानदार व्यक्ति का व्यवहार नहीं है; यह कहना कुछ और मतलब कुछ और होना है। तुम कहते कुछ हो और करते कुछ और हो, सफाई से दूसरों को धोखा देते हो और नैतिकता का दिखावा करते हुए काम करते हो। तुम ठीक उन फरीसियों की तरह हो, जो लोगों को समझाते समय तो तमाम धर्मग्रंथ आगे-पीछे पढ़ सकते थे, लेकिन जब उन पर कोई मुसीबत आती थी, तो धर्मग्रंथों के अनुसार अभ्यास करने में विफल रहते थे। वे लगातार रुतबे के लाभ पाने की इच्छा से प्रेरित थे, अपनी शोहरत, लाभ और रुतबा छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। इस तरह फरीसी पाखंडी थे। वे सही मार्ग पर नहीं चले, उनका मार्ग सही मार्ग नहीं था, और परमेश्वर उन जैसों से घृणा करता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है

एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करने के लिए तुम्हें पहले परमेश्वर के सामने अपना दिल खोलना, और रोजाना प्रार्थना में उससे हृदयस्पर्शी शब्द कहना सीखना जरूरी है। उदाहरण के लिए, अगर तुमने आज कोई ऐसा झूठ बोला, जिस पर अन्य लोगों का ध्यान नहीं गया, लेकिन तुम में सबके सामने खुलकर बोलने का साहस नहीं था, तो कम से कम तुम्हें वे गलतियाँ जिनकी तुमने जाँच की है, और जिनका पता लगाया है, और वे झूठ जो तुमने बोले हैं, चिंतन के लिए परमेश्वर के सामने लाने चाहिए और कहना चाहिए : “हे परमेश्वर, मैंने अपने हितों की रक्षा के लिए फिर से झूठ बोला है, और मैं गलत था। अगर मैं दोबारा झूठ बोलूँ तो कृपया मुझे अनुशासित करना।” परमेश्वर ऐसे रवैये से प्रसन्न होता है और वह इसे याद रखेगा। झूठ बोलने के इस भ्रष्ट स्वभाव को हल करने के लिए तुम्हें कठोर प्रयास करने पड़ सकते हैं, लेकिन चिंता मत करो, परमेश्वर तुम्हारे साथ है। वह तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, और इस बार-बार आने वाली कठिनाई को दूर करने में तुम्हारी मदद करेगा, तुम्हें अपने झूठ कभी न स्वीकारने से लेकर अपने झूठ स्वीकारने और खुद को खुले तौर पर प्रकट करने में सक्षम होने का साहस देगा। तुम न सिर्फ अपने झूठ स्वीकारोगे, बल्कि खुलकर यह भी प्रकट कर पाओगे कि तुम झूठ क्यों बोलते हो, और तुम्हारे झूठ के पीछे क्या मंशा और उद्देश्य हैं। जब तुम में इस बाधा को भेदने, शैतान का पिंजरा और नियंत्रण तोड़ने का साहस होगा, और तुम उत्तरोत्तर उस बिंदु पर पहुँच जाओगे जहाँ तुम फिर झूठ नहीं बोलोगे, तो तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के मार्गदर्शन और आशीष के तहत प्रकाश में रहने लगोगे। जब तुम दैहिक बंधनों की बाधा तोड़ते हो, और सत्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम होते हो, खुलकर खुद को प्रकट करते हो, सार्वजनिक रूप से अपना रुख घोषित करते हो, और कोई संदेह नहीं रखते, तो तुम मुक्त और स्वतंत्र हो जाओगे। जब तुम इस तरह से रहोगे, तो न सिर्फ लोग तुम्हें पसंद करेंगे, बल्कि परमेश्वर भी प्रसन्न होगा। हालाँकि तुम अभी भी कभी-कभी गलतियाँ कर सकते और झूठ बोल सकते हो, और अभी भी कभी-कभी तुम्हारे व्यक्तिगत इरादे, गुप्त उद्देश्य या स्वार्थपूर्ण और घृणित व्यवहार और विचार हो सकते हैं, लेकिन तुम परमेश्वर के सामने अपने इरादे, वास्तविक अवस्था और भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हुए और उससे सत्य खोजते हुए उसकी जाँच स्वीकारने में सक्षम होगे। जब तुम सत्य समझ लोगे, तो तुम्हारे पास अभ्यास का मार्ग होगा। जब तुम्हारे अभ्यास का मार्ग सही होगा, और तुम सही दिशा में आगे बढ़ोगे, तो तुम्हारा भविष्य सुंदर और उज्ज्वल होगा। इस तरह तुम अपने दिल में शांति के साथ रहोगे, तुम्हारी आत्मा को पोषण मिलेगा, और तुम पूर्ण और संतुष्ट महसूस करोगे। अगर तुम देह-सुख के बंधनों से मुक्त नहीं हो सकते, अगर तुम लगातार भावनाओं, व्यक्तिगत हितों और शैतानी फलसफों के आगे बेबस होते हो, गुप्त तरीके से बोलते और कार्य करते हो, और हमेशा परछाइयों में छिपते हो, तो तुम शैतान की शक्ति के अधीन रहते हो। लेकिन अगर तुम सत्य समझते हो, देह-सुख के बंधनों से मुक्त हो जाते हो और सत्य का अभ्यास करते हो, तो तुम धीरे-धीरे मानवीय समानता प्राप्त कर लोगे। तुम अपने वचनों और कर्मों में स्पष्ट और सीधे होगे, और तुम अपनी राय, विचार और अपने द्वारा की गई गलतियाँ प्रकट करने में सक्षम होगे, और सभी को उन्हें स्पष्ट रूप से देखने दोगे। अंत में लोग तुम्हें एक पारदर्शी व्यक्ति के रूप में पहचानेंगे। पारदर्शी व्यक्ति कौन होता है? यह वह व्यक्ति होता है, जो असाधारण ईमानदारी से बोलता है, जिसकी बातें सभी सच मानते हैं। अगर वे बेइरादा झूठ बोलते या कुछ गलत कहते भी हैं, तो भी लोग यह जानते हुए कि यह बेइरादा था, उन्हें माफ कर पाते हैं। अगर उन्हें एहसास होता है कि उन्होंने झूठ बोला है या कुछ गलत कहा है, तो वे माफी माँगकर गलती सुधार लेते हैं। यह होता है पारदर्शी व्यक्ति। ऐसे व्यक्ति को सभी लोग पसंद करते हैं और उस पर भरोसा करते हैं। परमेश्वर और दूसरों का भरोसा हासिल करने के लिए तुम्हें इस स्तर तक पहुँचने की आवश्यकता है। यह कोई आसान काम नहीं है—यह गरिमा का वह उच्चतम स्तर है, जो किसी व्यक्ति में हो सकता है। ऐसे व्यक्ति में आत्मसम्मान होता है। अगर तुम दूसरे लोगों का भरोसा हासिल करने में असमर्थ रहते हो, तो तुम परमेश्वर का भरोसा अर्जित करने की उम्मीद कैसे रख सकते हो? ऐसे व्यक्ति हैं, जो अपमानजनक जीवन जीते हैं, लगातार झूठ गढ़ते रहते हैं, और कामों को अनमने तरीके से लेते हैं। उनमें जिम्मेदारी का जरा भी बोध नहीं होता, वे काट-छाँट किए जाने को नकारते हैं, वे हमेशा निरर्थक तर्कों का सहारा लेते हैं, और उनसे मिलने वाले सभी लोग उन्हें नापसंद करते हैं। वे बिना किसी शर्म-लिहाज के जीते हैं। क्या उन्हें सच में इंसान माना जा सकता है? जिन लोगों को दूसरे लोग अप्रिय और अविश्वसनीय मानते हैं, वे अपनी मानवता पूरी तरह से खो चुके हैं। अगर दूसरे लोग उन पर भरोसा नहीं कर सकते, तो क्या परमेश्वर उन पर भरोसा कर सकता है? अगर दूसरे उन्हें नापसंद करते हैं, तो क्या परमेश्वर उन्हें पसंद कर सकता है? परमेश्वर ऐसे लोगों को नापसंद करता है और उनसे बेइंतहा नफरत करता है, और उन्हें अनिवार्य रूप से त्याग दिया जाएगा। एक इंसान के रूप में व्यक्ति को ईमानदार होना चाहिए, और अपने वादे पूरे करने चाहिए। व्यक्ति कर्म चाहे दूसरों के लिए करे या परमेश्वर के लिए, उसे अपना वचन अवश्य निभाना चाहिए। जब व्यक्ति लोगों का विश्वास अर्जित कर लेता है और परमेश्वर को संतुष्ट और आश्वस्त कर सकता है, तो वह तब अपेक्षाकृत ईमानदार व्यक्ति होता है। अगर तुम अपने कार्यों में भरोसेमंद हो, तो न सिर्फ दूसरे तुम्हें पसंद करेंगे, बल्कि परमेश्वर भी तुम्हें अवश्य पसंद करेगा। एक ईमानदार व्यक्ति बनकर तुम परमेश्वर को खुश कर सकते हो और गरिमा के साथ जी सकते हो। इसलिए ईमानदारी व्यक्ति के आचरण का प्रारंभिक बिंदु होना चाहिए।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है

ईमानदार होने के लिए तुम्हें पहले अपना दिल खोल कर रखना चाहिए ताकि सभी उसके भीतर झाँक सकें, तुम्हारी सोच और तुम्हारा असली चेहरा देख सकें। तुम्हें बहुरुपिया बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, या खुद को छिपाना नहीं चाहिए। तभी दूसरे तुम पर भरोसा करेंगे, और तुम्हें ईमानदार व्यक्ति मानेंगे। यह सबसे बुनियादी अभ्यास है, और ईमानदार व्यक्ति बनने की पहली शर्त है। अगर तुम हमेशा बहाने बनाते हो, हमेशा पवित्रता, कुलीनता, महानता और उच्च चरित्र का दिखावा करते हो; अगर तुम लोगों को अपनी भ्रष्टता और खामियाँ नहीं देखने देते; अगर तुम लोगों को अपनी नकली छवि दिखाते हो, ताकि वे तुम्हारी सच्चाई पर यकीन करें, यह मानें कि तुम महान, आत्मत्यागी, न्यायप्रिय, और निस्वार्थ हो—तो क्या यह धोखेबाजी और झूठ नहीं है? क्या समय के साथ लोग तुम्हारी असलियत नहीं देख पाएँगे? तो बहुरुपिया मत बनो, खुद को मत छिपाओ। इसके बजाय दूसरों के देखने के लिए खुद को और अपना दिल खोल कर रख दो। अगर तुम दूसरों के देखने के लिए अपना दिल खोल कर रख सकते हो, अगर तुम अपने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के विचारों और योजनाओं को खोल कर रख सकते हो—तो क्या यह ईमानदारी नहीं है? अगर तुम दूसरों के देखने के लिए खुद को खोल कर रख सकते हो, तो परमेश्वर भी तुम्हें देखेगा। वह कहेगा : “अगर तुमने दूसरों के देखने के लिए खुद को खोल कर रख दिया है, तो तुम यकीनन मेरे समक्ष ईमानदार हो।” लेकिन अगर तुम दूसरे लोगों की दृष्टि से दूर होने पर सिर्फ परमेश्वर के सामने खुद को खोल कर रखते हो, और दूसरे लोगों के साथ होने पर हमेशा महान, कुलीन या निस्वार्थ होने का दिखावा करते हो, तो फिर परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या सोचेगा? वह क्या कहेगा? वह कहेगा : “तुम पूरी तरह धोखेबाज हो। पूरी तरह पाखंडी और दुष्ट हो, तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो।” परमेश्वर इस तरह तुम्हारी निंदा करेगा। अगर तुम ईमानदार बनना चाहते हो, तो तुम चाहे परमेश्वर के सामने रहो या दूसरे लोगों के सामने, तुम्हें अपनी भीतरी दशा और अपने दिल की बातों का शुद्ध और खुला हिसाब पेश करने में समर्थ होना चाहिए। क्या ऐसा कर पाना आसान है? इसके लिए कुछ समय तक प्रशिक्षण और परमेश्वर से अक्सर प्रार्थना कर उस पर भरोसा करने की जरूरत है। तुम्हें हर विषय पर अपने दिल की बात को सरल ढंग से खुलकर बोलने के लिए खुद को प्रशिक्षित करना होगा। ऐसे प्रशिक्षण से तुम तरक्की कर सकोगे। अगर तुम्हारे सामने कोई बड़ी मुश्किल आए तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य को खोजना चाहिए; जब तक कि तुम सत्य का अभ्यास न कर लो, तुम्हें अपने दिल में युद्ध कर देह को जीतना चाहिए। खुद को इस प्रकार प्रशिक्षित करने से थोड़ा-थोड़ा करके तुम्हारा दिल धीरे-धीरे खुल जाएगा। तुम और ज्यादा शुद्ध हो जाओगे, तुम्हारे कथन और कार्य के प्रभाव पहले से अलग होंगे। तुम्हारी झूठी बातें और चालबाजी धीरे-धीरे कम होती जाएँगी और तुम परमेश्वर के समक्ष जी पाओगे। फिर तुम अनिवार्य रूप से ईमानदार व्यक्ति बन चुके होगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास

ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए खुद को प्रशिक्षित करना मुख्य रूप से झूठ बोलने की समस्या को हल करने और साथ ही अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने का मामला है। इसे करने में एक अहम अभ्यास जुड़ा होता है : जब तुम्हें यह एहसास हो जाए कि तुमने किसी से झूठ बोला है, उसके साथ चाल चली है, तो तुम्हें उनके सामने पूरी तरह खुल कर माफी माँग लेनी चाहिए। झूठ बोलने की समस्या हल करने के लिए यह अभ्यास बहुत लाभकारी है। मिसाल के तौर पर, अगर तुमने किसी के साथ चाल चली या तुमने उससे जो बातें कीं, उनमें थोड़ी मिलावट थी या तुम्हारे निजी इरादे थे, तो तुम्हें उससे मिलकर अपना विश्लेषण करना चाहिए। तुम्हें उसे बताना चाहिए : “मैंने तुम्हें जो बताया वह झूठ था, अपने गौरव की रक्षा के लिए था। यह कहने के बाद मैं परेशान हो गया था, इसलिए मैं अब तुमसे क्षमा माँग रहा हूँ। कृपया मुझे माफ कर दो।” उस व्यक्ति को यह बात बहुत ताजगी देने वाली लगेगी। वह सोचेगा कि ऐसा कोई कैसे हो सकता है जो झूठ बोलने के बाद उसके लिए माफी माँगे। ऐसे साहस की वे सचमुच सराहना करते हैं। ऐसा अभ्यास करने के बाद किसी व्यक्ति को क्या लाभ हासिल होते हैं? इसका प्रयोजन दूसरों की सराहना पाना नहीं, बल्कि खुद को झूठ बोलने से ज्यादा असरदार तरीके से संयमित करना और रोकना है। इसलिए झूठ बोलने के बाद तुम्हें इसके लिए माफी माँगने का अभ्यास करना चाहिए। तुम इस तरह लोगों के सामने अपना विश्लेषण करने, पूरी तरह खुल जाने, और माफी माँगने का जितना ज्यादा अभ्यास करोगे, नतीजे उतने ही बेहतर होंगे—और तुम्हारी झूठी बातों की मात्रा कम और कम होती जाएगी। ईमानदार बनने और खुद को झूठ बोलने से रोकने के लिए अपना विश्लेषण कर, खुद को पूरी तरह खोल कर पेश करने का अभ्यास करने के लिए साहस चाहिए, और किसी से झूठ बोलने के बाद उससे माफी माँगने के लिए और भी ज्यादा साहस चाहिए। अगर तुम लोग साल-दो साल--या शायद चार-पाँच साल—इसका अभ्यास करो, तो तुम्हें यकीनन स्पष्ट नतीजे मिलेंगे, और झूठ बोलने से छुटकारा पाना मुश्किल नहीं होगा। खुद को झूठ से छुटकारा दिलाना ईमानदार व्यक्ति बनने की ओर पहला कदम है, और यह चार-पाँच साल के प्रयास के बिना नहीं किया जा सकता। झूठ बोलने की समस्या हल होने के बाद, दूसरा कदम छल-कपट और चालबाजी की समस्या को हल करना है। कभी-कभी झूठ बोलने के लिए चालबाजी और छल-कपट जरूरी नहीं होते—ये चीजें सिर्फ कार्य से भी हासिल की जा सकती हैं। हो सकता है कि कोई व्यक्ति बाहर से शायद झूठ न बोले, मगर फिर भी उनके दिल में छल-कपट और चालबाजी छिपी हुई हो। यह बात वे किसी और से ज्यादा जानते हैं क्योंकि उन्होंने बड़ी गहराई से इस बारे में सोचा और सावधानी से इस पर विचार किया है। बाद में चिंतन के बाद इसे पहचानना उनके लिए आसान होगा। एक बार झूठ बोलने की समस्या हल हो जाए, तो छल-कपट और चालबाजी की समस्याएँ दूर करना अपेक्षाकृत थोड़ा आसान होगा। लेकिन व्यक्ति को परमेश्वर का भय मानने वाला होना चाहिए क्योंकि छल-कपट और चालबाजी करते समय मनुष्य पर नीयत हावी होती है। दूसरे लोग बाहर से इसे बूझ नहीं पाते, न ही वे इसे जान पाते हैं। सिर्फ परमेश्वर ही इसे जाँच सकता है, और सिर्फ वही इस बारे में जानता है। इसलिए कोई व्यक्ति छल-कपट और चालबाजी की समस्या को सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना पर भरोसा करके और उसकी जाँच को स्वीकार करके ही हल कर सकता है। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता या दिल से परमेश्वर का भय नहीं मानता, तो उसकी छल-कपट और चालबाजी की समस्या हल नहीं हो सकती। हो सकता है तुम परमेश्वर से प्रार्थना करो, अपनी गलतियाँ मान लो, पाप स्वीकार कर प्रायश्चित्त करो, या हो सकता है अपने भ्रष्ट स्वभाव का विश्लेषण करो—सच्चाई से बताओ कि उस वक्त तुम क्या सोच रहे थे, तुमने क्या कहा, तुम्हारी नीयत क्या थी, और तुमने कपट कैसे किया। ये सब करना अपेक्षाकृत आसान है। हालाँकि अगर तुम्हें किसी दूसरे व्यक्ति के सामने पूरी तरह खुल जाने को कहा जाए, तो हो सकता है अपनी नाक कटने से बचने के लिए तुम अपना साहस और संकल्प खो दो। तब तुम्हारे लिए पूरी तरह खुल कर पेश आने का अभ्यास करना बहुत मुश्किल होगा। शायद तुम एक सामान्य ढंग से स्वीकार लो कि तुम कभी-कभी अपने निजी लक्ष्यों और नीयत के आधार पर बोलते या कार्य करते हो; तुम्हारी कथनी और करनी में एक स्तर की धोखेबाजी, मिलावट, झूठ या चालबाजी है। लेकिन फिर, कुछ हो जाए और शुरू से अंत तक की घटनाएँ उजागर कर, यह बता कर कि तुम्हारी कौन-सी बातें कपटपूर्ण थीं, उनके पीछे क्या नीयत थी, तुम क्या सोच रहे थे, तुम बैरभाव में या कुटिल थे या नहीं, तुम्हें अपना विश्लेषण करने पर मजबूर किया जाए, तो तुम बारीकियों में नहीं जाना चाहते या विस्तार से नहीं बताना चाहते। कुछ लोग यह कहकर चीजें छिपाते भी हैं : “बात ऐसी ही है। मैं बस बहुत धोखेबाज, घिनौना और अविश्वसनीय व्यक्ति हूँ।” यह दर्शाता है कि वे अपने भ्रष्ट सार का उचित ढंग से सामना करने के लायक नहीं हैं और यह भी कि वे कितने धोखेबाज और घिनौने हैं। ये लोग हमेशा टालमटोल के अंदाज और दशा में होते हैं। ये लोग हमेशा खुद को माफ करते और समायोजित करते रहते हैं, और ईमानदार बनने के सत्य का अभ्यास करने का कष्ट सहने या कीमत चुकाने में असमर्थ होते हैं। कई लोग वर्षों से हमेशा यह कहते हुए धर्म-सिद्धांत के वचनों का प्रचार करते रहे हैं : “मैं अत्यंत धोखेबाज और घिनौना हूँ, मेरे कृत्यों में अक्सर चालबाजी होती है, मैं लोगों से बिल्कुल ईमानदारी से पेश नहीं आता।” लेकिन वर्षों तक यूँ चिल्लाने के बाद भी वे पहले जितने ही धोखेबाज बने रहते हैं क्योंकि जब वे अपनी धोखेबाजी की दशा दिखाते हैं, तब कोई कभी उनसे सच्चा विश्लेषण या पछतावा नहीं सुनता। वे कभी भी दूसरों के सामने खुद को खोल कर पेश नहीं करते या लोगों से झूठ बोलने या उसे चालबाजी के बाद माफी नहीं माँगते, सभाओं में आत्म-विश्लेषण और आत्मज्ञान की अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में संगति तो वे करते ही नहीं। न वे कभी यह बताते हैं कि वे खुद को कैसे जान पाए, या ऐसी बातों को लेकर उन्होंने प्रायश्चित कैसे किया। वे इनमें से कुछ भी नहीं करते, जो यह साबित करता है कि वे खुद को नहीं जानते और उन्होंने सचमुच प्रायश्चित्त नहीं किया है। जब वे कहते हैं कि वे धोखेबाज हैं और ईमानदार व्यक्ति बनना चाहते हैं, तो वे महज नारे लगाते हैं, धर्म-सिद्धांत का प्रचार करते हैं, और कुछ नहीं। हो सकता है कि वे ये चीजें इसलिए करते हैं क्योंकि वे बने-बनाए ढर्रे पर चलने और दूसरों के पीछे चलने की कोशिश करते हैं। या हो सकता है कि कलीसिया के जीवन का माहौल उन्हें बिना दिलचस्पी के सतही तौर पर काम करने और दिखावा करने को मजबूर करता है। चाहे जो हो, ऐसे नारेबाज और धर्म-सिद्धांत प्रचारक कभी सच्चे दिल से प्रायश्चित्त नहीं करेंगे, और यकीनन परमेश्वर का उद्धार नहीं पा सकेंगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास

ईमानदार होने का अभ्यास करने के लिए तुम्हारे पास एक पथ और एक लक्ष्य होना चाहिए। सबसे पहले, झूठ बोलने की समस्या को दूर करो। तुम्हें अपने अपने झूठ बोलने के पीछे के सार को जानना चाहिए। तुम्हें यह भी विश्लेषण करना चाहिए कि कौन-से इरादे और मंशाएँ तुम्हें ये झूठ बोलने को प्रेरित करती हैं, तुम्हारे भीतर ऐसे इरादे क्यों हैं, और उनका सार क्या है। जब तुम इन सभी मसलों का स्पष्टीकरण कर लोगे, तो तुम झूठ बोलने की समस्या को अच्छी तरह समझ चुके होगे, और कोई घटना होने पर तुम्हारे पास अभ्यास के सिद्धांत होंगे। अगर तुम ऐसे अभ्यास और अनुभव के साथ आगे बढ़ोगे, तो यकीनन तुम्हें परिणाम मिलेंगे। एक दिन तुम कहोगे : “ईमानदार होना आसान है। धोखेबाज होना बहुत थकाऊ है! मैं अब धोखेबाज इंसान नहीं रहना चाहता, मुझे हमेशा सोचना पड़ता है कि कौन-सा झूठ बोलूँ और अपने झूठ कैसे छिपाऊँ। यह एक मानसिक रोगी होने की तरह है, जो विरोधाभासी बातें करता है, ऐसा जो ‘इंसान’ कहने लायक नहीं है! ऐसा जीवन बहुत थकाऊ है, और अब मैं उस तरह नहीं जीना चाहता!” तब तुम्हें सचमुच ईमानदार होने की आशा होगी, और इससे साबित होगा कि तुम ईमानदार बनने की ओर आगे बढ़ रहे हो। यह एक नई तोड़ है। बेशक तुममें से कुछ लोग होंगे जो अभ्यास शुरू करते समय ईमानदार बातें कहने और खुद को खोल कर पेश करने के बाद अपमानित महसूस करेंगे। तुम्हारा चेहरा लाल हो जाएगा, तुम शर्मिंदा महसूस करोगे, लोगों की हँसी से डरोगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? तब भी तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे शक्ति देने की विनती करनी चाहिए। तुम कहो : “हे परमेश्वर, मैं ईमानदार बनाना चाहता हूँ, लेकिन मुझे डर है कि मेरे सत्य बोलने पर लोग मुझ पर हँसेंगे। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरे शैतानी स्वभाव के बंधन से बाहर निकालो; मुझे स्वतंत्र और मुक्त होकर तुम्हारे वचनों के अनुसार जीने दो।” जब तुम इस तरह प्रार्थना करोगे, तो तुम्हारे दिल में और ज्यादा उजाला हो जाएगा, और तुम खुद से कहोगे : “इस पर अमल करना अच्छा है। आज मैंने सत्य पर अमल किया है। आखिरकार, अब मैं ईमानदार इंसान बन गया हूँ।” जब तुम इस तरह प्रार्थना करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। वह तुम्हारे हृदय में कार्य करेगा, तुम्हें प्रेरित करेगा, तुम्हें गुण जानने देगा कि ईमानदार बन कर कैसा महसूस होता है। सत्य को इस तरह अमल में लाना चाहिए। बिल्कुल शुरुआत में तुम्हारे सामने कोई पथ नहीं होगा, लेकिन सत्य को खोजने से तुम्हें पथ मिल जाएगा। जब लोग सत्य को खोजना शुरू करते हैं, तो जरूरी नहीं कि उनमें आस्था हो। पथ न होने से लोगों को बड़ी मुश्किल होती है, लेकिन जब एक बार वे सत्य को समझ लेते हैं, और उनके सामने अभ्यास का पथ होता है तो उनके दिलों को उसमें आनंद मिलता है। अगर वे सत्य पर अमल कर पाएँ, सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाएँ, तो उनके दिलों को आराम मिलेगा, उन्हें स्वतंत्रता और मुक्ति हासिल होगी।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास

ईमानदारी के अभ्यास के कई पहलू हैं। दूसरे शब्दों में, ईमानदार होने का मानक केवल एक तरीके से हासिल नहीं होता; ईमानदार होने से पहले, तुम्हें कई मामलों में मानक पर खरा उतरना होगा। कुछ लोगों को हमेशा लगता है कि ईमानदार होने के लिए उन्हें बस यह देखना है कि वे झूठ न बोलें। क्या यह दृष्टिकोण सही है? क्या ईमानदार होने का मतलब केवल झूठ नहीं बोलना है? नहीं—इसके और भी कई पहलू हैं। पहली बात तो यह कि तुम्हारे सामने कोई भी मामला आए, चाहे यह तुम्हारी आँखों देखी बात हो या तुम्हें किसी और ने बताया हो, चाहे लोगों के साथ बातचीत करना हो या किसी समस्या को सुलझाने का मामला हो, चाहे यह तुम्हारा कर्तव्य हो जिसे तुम्हें निभाना ही चाहिए या परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया कोई कार्य हो, तुम्हें इन सारे मामलों में पूरी ईमानदारी से पेश आना चाहिए। इंसान चीजों को ईमानदार हृदय से देखने का अभ्यास कैसे करे? जो तुम सोचते और बोलते हो, उसे ईमानदारी से कहो; खोखली, आडंबरपूर्ण या मीठी लगने वाली बातें मत बोलो, चापलूसी वाली या पाखंडपूर्ण झूठी बातें मत बोलो, बल्कि वह बोलो जो तुम्हारे दिल में हैं। यह ईमानदार होना है। अपने दिल की सच्ची बातें और विचार व्यक्त करना—यही वह है जो ईमानदार लोगों को करना चाहिए। अगर तुम जो सोचते हो, वह कभी नहीं बोलते, तुम्हारे मन में कटु शब्द पलते रहते हैं और तुम जो कहते हो वह कभी तुम्हारे विचारों से मेल नहीं खाता, तो यह ईमानदार होना नहीं है। उदाहरण के लिए, मान लो, तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, और जब लोग पूछते हैं कि क्या चल रहा है, तो तुम कहते हो, “मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहता हूँ, लेकिन बहुत-सी वजहों से, मैंने ऐसा नहीं किया है।” वास्तव में, अपने दिल में तुम जानते हो कि तुम कर्मठ नहीं थे, लेकिन तुम सच नहीं बताते। इसके बजाय, तुम तथ्यों को छिपाने और जिम्मेदारी से बचने के लिए हर तरह के कारण, औचित्य और बहाने बनाते हो। क्या एक ईमानदार व्यक्ति ऐसा करता है? (नहीं।) तुम इन बातों के जरिए लोगों को बेवकूफ बनाकर जैसे-तैसे काम करते रहते हो। लेकिन तुम्हारे अंदर जो कुछ है, तुम्हारे जो इरादे हैं, उनका सार भ्रष्ट स्वभाव है। अगर तुम अपने अंदर की चीजें और इरादे सबके सामने लाकर उसका विश्लेषण नहीं कर सकते, तो उन्हें शुद्ध नहीं किया जा सकता—और यह कोई छोटी बात नहीं है! तुम्हें सच बोलना चाहिए : “मैं अपने काम में टाल-मटोल करता रहा हूँ। मैं अनमना और असावधान रहा हूँ। जब मेरी मनोदशा अच्छी होती है, तो थोड़ी-बहुत मेहनत कर लेता हूँ, पर जब यह अच्छी नहीं होती, तो मैं सुस्त हो जाता हूँ, मेहनत नहीं करना चाहता और दैहिक-सुख का लालच करता हूँ। इसलिए, काम करने के मेरे सारे प्रयास अप्रभावी रहते हैं। पिछले कुछ दिनों से स्थिति बदल रही है, और मैं अपना सर्वस्व देने, अपनी दक्षता में सुधार करने और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने की कोशिश कर रहा हूँ।” यह दिल से बोलना हुआ। पहले वाली बात दिल से नहीं निकली थी। काट-छाँट किए जाने, लोगों को तुम्हारी समस्याओं का पता लगने और तुम्हें जवाबदेह ठहराए जाने के डर से, तुमने तथ्यों को छिपाने के लिए हर तरह के कारण, औचित्य और बहाने ढूँढ़े, पहले तो तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारी स्थिति के बारे में बात न करें, फिर जिम्मेदारी किसी और पर डालना चाहते हो ताकि तुम्हारी काट-छाँट न की जाए। यह तुम्हारे झूठ का स्रोत है। झूठा व्यक्ति चाहे कितने भी झूठ बोले, उसकी बातों में कुछ तो सच्चाई और तथ्य होना निश्चित है। लेकिन उसकी कही कुछ मुख्य बातों में झूठ और उसकी अपनी मंशा की मिलावट तो होगी। इसलिए, जरूरी है कि सच और झूठ की पहचान और उनमें विभेद किया जाए। हालांकि, यह करना आसान नहीं है। उनकी बातों में थोड़ी मलिनता और सजावट होगी, कुछ तथ्यों के अनुरूप होगा और उनकी कुछ बातें तथ्यों का खंडन करेंगी; तथ्य और कल्पना के इस प्रकार उलझ जाने से सत्य और असत्य का पता लगाना कठिन होता है। ऐसे लोग बेहद कपटी होते हैं और उन्हें पहचानना बहुत मुश्किल होता है। अगर वे सत्य नहीं स्वीकारते या ईमानदारी का अभ्यास नहीं करते, तो उन्हें जरूर त्याग दिया जाएगा। तो फिर लोगों को कौन-सा मार्ग अपनाना चाहिए? ईमानदारी का अभ्यास करने का मार्ग कौन-सा है? तुम लोगों को सच बोलना सीखना चाहिए और अपनी वास्तविक अवस्थाओं और समस्याओं के बारे में खुलकर बातचीत करनी चाहिए। ईमानदार लोग ऐसे ही अभ्यास करते हैं और यह अभ्यास सही है। जिन लोगों में जमीर और सूझ-बूझ है, वे सब ईमानदार होने का प्रयास करने के इच्छुक हैं। सिर्फ ईमानदार लोग ही वास्तव में आनंदित और सहज महसूस करते हैं, और सिर्फ परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति वास्तविक सुख भोग सकता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है

जब तुम दूसरों के साथ बातचीत करते हो, तब तुम्हें पहले उन्हें अपने सच्चे दिल और ईमानदारी का एहसास कराना चाहिए। अगर बोलने और इकट्ठे कार्य करने, और दूसरों के साथ संपर्क करने में, किसी के शब्द लापरवाह, आडंबरपूर्ण, मजाकिया, चापलूसी करने वाले, गैर-जिम्मेदाराना और मनगढ़ंत हैं, या उसकी बातें केवल सामने वाले से अपना काम निकालने के लिए हैं, तो उसके शब्द विश्वसनीय नहीं हैं, और वह थोड़ा भी ईमानदार नहीं है। दूसरों के साथ बातचीत करने का उनका यही तरीका होता है, चाहे वे कोई भी हों। ऐसे व्यक्ति का दिल सच्चा नहीं होता। यह व्यक्ति ईमानदार नहीं है। मान लो, कोई नकारात्मक अवस्था में है और वह तुमसे ईमानदारी से कहता है : “मुझे बताओ, असल में मैं इतना नकारात्मक क्यों हूँ। मैं बिल्कुल समझ नहीं पाता।” और मान लो, तुम अपने दिल में उसकी समस्या वास्तव में जानते हो, लेकिन उसे बताते नहीं, बल्कि उससे कहते हो : “यह कुछ नहीं है। तुम नकारात्मक नहीं हो रहे हो; मैं भी ऐसा हो जाता हूँ।” ये शब्द उस व्यक्ति के लिए बहुत बड़ी सांत्वना हैं, लेकिन तुम्हारा रवैया ईमानदार नहीं है। तुम उसके साथ अनमने हो रहे हो, उसे अधिक सहज और आश्वस्त महसूस कराने के लिए तुमने उसके साथ ईमानदारी से बात करने से परहेज किया है। तुम ईमानदारी से उसकी सहायता नहीं कर रहे और उसकी समस्या स्पष्ट रूप से नहीं रख रहे जिससे वह अपनी नकारात्मकता छोड़ सके। तुमने वह नहीं किया, जो एक ईमानदार व्यक्ति को करना चाहिए। उसे सांत्वना देने के प्रयास में और यह सुनिश्चित करने के लिए कि उसके साथ तुम्हारा कोई मनमुटाव या झगड़ा न हो, तुम उसके साथ अनमने रहे हो—और यह ईमानदार व्यक्ति होना नहीं है। इसलिए, एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए, इस तरह की स्थिति से सामना होने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें उसे वह बताना चाहिए, जो तुमने देखा और पहचाना है : “मैं तुम्हें वह बताऊँगा, जो मैंने देखा और अनुभव किया है। तुम निर्णय करना कि मैं जो कह रहा हूँ, वह सही है या गलत। अगर वह गलत है, तो तुम्हें उसे स्वीकारने की जरूरत नहीं है। अगर वह सही है, तो आशा है तुम उसे स्वीकारोगे। अगर मैं कुछ ऐसा कहूँ जिसे सुनना तुम्हारे लिए कठिन हो और तुम्हें उससे चोट पहुँचे, तो मुझे उम्मीद है, तुम उसे परमेश्वर से आया समझकर स्वीकार पाओगे। मेरा इरादा और उद्देश्य तुम्हारी सहायता करना है। मुझे तुम्हारी समस्या स्पष्ट दिखती है : चूँकि तुम्हें लगता है कि तुम्हें अपमानित किया गया है, और कोई तुम्हारे अहं को बढ़ावा नहीं देता, और तुम्हें लगता है कि सभी लोग तुम्हें तुच्छ समझते हैं, कि तुम पर प्रहार किया जा रहा है, और तुम्हारे साथ इतना गलत कभी नहीं हुआ, तो तुम इसे बरदाश्त नहीं कर पाते और नकारात्मक हो जाते हो। तुम्हें क्या लगता है—क्या वास्तव में यही बात है?” और यह सुनकर वह महसूस करता है कि वास्तव में यही मामला है। तुम्हारे दिल में वास्तव में यही है, लेकिन अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुम यह नहीं कहोगे। तुम कहोगे, “मैं भी अक्सर नकारात्मक हो जाता हूँ,” और जब दूसरा व्यक्ति सुनता है कि सभी लोग नकारात्मक हो जाते हैं, तो उसे लगता है कि उसका नकारात्मक होना सामान्य बात है, और अंत में, वह अपनी नकारात्मकता पीछे नहीं छोड़ता। अगर तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो और ईमानदार रवैये और सच्चे दिल से उसकी सहायता करते हो, तो तुम सत्य समझने और अपनी नकारात्मकता पीछे छोड़ने में उसकी मदद कर सकते हो।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है

ईमानदार व्यक्ति होना मनुष्य से परमेश्वर की एक अपेक्षा है। यह एक सत्य है, जिसका मनुष्य को अभ्यास करना चाहिए। तो, वे कौन-से सिद्धांत हैं जिनका मनुष्य को परमेश्वर के साथ व्यवहार करते समय पालन करना चाहिए? ईमानदार रहो : यही वह सिद्धांत है, जिसका परमेश्वर के साथ बातचीत करते समय पालन किया जाना चाहिए। चापलूसी या खुशामद करने की अविश्वासियों की प्रथा में संलग्न न हो; परमेश्वर को मनुष्य की खुशामद या चापलूसी की आवश्यकता नहीं है। ईमानदार होना ही पर्याप्त है। और ईमानदार होने का क्या मतलब है? इसे अभ्यास में कैसे लाया जाना चाहिए? (बस कोई दिखावा किए बिना या कुछ छिपाए बिना या कोई रहस्य रखे बिना परमेश्वर के सामने खुलना, परमेश्वर से सच्चे दिल से मिलना, और बिना किसी छल या फरेब के स्पष्टवादी होना।) यह सही है। ईमानदार होने के लिए तुम लोगों को पहले अपनी निजी इच्छाओं को एक तरफ रखना होगा। यह ध्यान देने की बजाय कि परमेश्वर तुम्हारे साथ किस तरह का व्यवहार करता है, जो कुछ तुम्हारे दिल में है वह कह दो, और इस बात की चिंता या परवाह न करो कि तुम्हारे शब्दों का क्या परिणाम होगा; जो कुछ तुम सोच रहे हो वह कह दो, अपनी मंशाओं को एक तरफ रख दो, और बस किसी मकसद को हासिल करने के लिए शब्दों को मत कहो। जब तुम्हारे अनेक व्यक्तिगत इरादे और दूषणकारी विचार होते हैं, तो तुम हमेशा यह सोचते हुए तोलकर बातें करते हो कि “मुझे इस बारे में बात करनी चाहिए, उस बारे में नहीं, मैं जो कहता हूँ उसके बारे में सावधान रहना चाहिए। मैं इसे उस तरह कहूँगा जिससे मुझे फायदा हो और जो मेरी कमियाँ ढक दे, और परमेश्वर पर अच्छा प्रभाव छोड़े।” क्या तुम्हारे पास प्रेरणाएँ नहीं हैं? मुँह खोलने से पहले तुम्हारा दिमाग कुटिल विचारों से भरा होता है, तुम जो कहना चाहते हो उसे कई बार संशोधित करते हो, जिससे जब शब्द तुम्हारे मुँह से निकलते हैं तो वे इतने शुद्ध नहीं होते, और जरा भी वास्तविक नहीं होते, और उनमें तुम्हारे अपने इरादे और शैतान के षड्यंत्र शामिल होते हैं। यह ईमानदार होना नहीं है; यह कुटिल मंशाएँ और बुरे इरादे रखना है। और तो और, जब तुम बात करते हो, तो तुम हमेशा परमेश्वर के चेहरे के भावों और उसकी आँखों के रुख से अपने संकेत लेते हो : अगर उसके चेहरे पर सकारात्मक अभिव्यक्ति होती है, तो तुम बात करते रहते हो; अगर नहीं, तो तुम बात दबा लेते हो और कुछ नहीं कहते; अगर परमेश्वर की आँखों का रुख खराब होता है, और अगर ऐसा लगता है कि उसे वह पसंद नहीं है जो वह सुन रहा है, तो तुम इसके बारे में सोचते हो और मन में कहते हो, “ठीक है, मैं कुछ ऐसा कहूँगा जो तुम्हें रुचिकर लगे, जो तुम्हें खुश कर दे, जिसे तुम पसंद करोगे, और जो तुम्हें मेरे अनुकूल बना दे।” क्या यह ईमानदार होना है? यह ईमानदार होना नहीं है। कुछ लोग सोचते हैं, “अगर तुम इस बात से अनजान हो, तो मैं इसे सूचित नहीं करूँगा। इसके बजाय, मैं किसी और के द्वारा इसे सूचित किए जाने की प्रतीक्षा करूँगा और केवल तभी मैं इसके बारे में बोलने में बाकी सभी का अनुसरण करूँगा। ऐसा करके मैं तुम्हें अवगत करा देता हूँ कि मेरी सूचना सत्य है, जबकि अगर मैं इसकी सूचना देने वाला पहला व्यक्ति हुआ, तो मुझसे निपटा जा सकता है। अपना सिर बाहर निकालने वाला पक्षी मारा जाता है, और मैं वह पक्षी नहीं बनना चाहता। मैं निश्चित रूप से पहले आगे आने वाला नहीं बनूँगा।” क्या यह ईमानदार होना है? मान लो, तुम्हें किसी के बारे में कोई सच्ची जानकारी मिलती है और केवल तुम्हीं हो जो इसके बारे में जानते हो और बाकी सभी लोग इससे अनजान हैं, और वे अभी भी सोचते हैं कि वह एक अच्छा व्यक्ति है, और यदि मसीह भी इस बात से अनजान है, तो क्या इन परिस्थितियों में तुम पूरी सच्चाई के साथ मसीह को बताओगे? यदि तुम इसे छिपाते हो, दबाते हो, और इसके बारे में कभी कुछ नहीं कहते, इसे कभी प्रकट नहीं करते, और केवल तभी खड़े होकर बोलते हो, जब उस व्यक्ति की असलियत दिखाई दे जाती है और जब उसे उसके पद से मुक्त कर दिया जाता है या परमेश्वर के घर से हटा दिया जाता है, तो क्या यह ईमानदार होना है? चाहे कोई भी किसी समस्या से ग्रस्त होने के कारण उजागर किया जाए या चाहे कोई भी अन्य समस्या सूचित की जाए, तुम हमेशा अंतिम बोलने वाले होते हो। क्या यह ईमानदार होना है? मान लो, तुम व्यक्तिगत रूप से किसी को नापसंद करते हो, या किसी को तुमसे द्वेष है। यह आवश्यक नहीं कि वह व्यक्ति दुष्ट हो या उसने कोई बुरे कार्य किए हों, लेकिन तुम उससे घृणा करते हो और उसके पतन का कारण बनना चाहते हो, जिससे वह मूर्ख दिखाई दे, और इसलिए तुम उसके बारे में कुछ बुरा कहने के तरीके सोचते और अवसर तलाशते हो। भले ही तुम इस व्यक्ति के बारे में कोई निश्चित बयान दिए बिना बात कर रहे होते हो, फिर भी मामले के तुम्हारे विवरण के हर हिस्से में तुम्हारे इरादे स्पष्ट हो जाते हैं। तुम उससे निपटने के लिए ऊपरवाले के हाथ का उपयोग करने का प्रयास कर रहे हो। सतही तौर पर यह लग सकता है कि तुम सिर्फ सच्चे तथ्यों के बारे में बात कर रहे हो, लेकिन वे तुम्हारे व्यक्तिगत उद्देश्यों से दूषित हैं; यह ईमानदार होना नहीं है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो)

यदि कोई खुले दिल वाला और खरा है, तो वह एक ईमानदार व्यक्ति है। उसने अपना दिल और आत्मा पूरी तरह से परमेश्वर के लिए खोल दिए हैं, उसके पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है, न किसी चीज से छिपने की जरूरत है। वह अपना दिल परमेश्वर को सौंप चुका है, उसे दिखा चुका है, यानी उसने अपना सर्वस्व उसे दे दिया है। तो क्या वह अब भी परमेश्वर से दूर रह सकता है? नहीं, वह नहीं रह सकता, और इसलिए उसके लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाता है। यदि परमेश्वर कहता है कि वह कपटी है, तो वह मान लेता है। यदि परमेश्वर कहता है कि वह अहंकारी और आत्मतुष्ट है, तो वह इसे भी मान लेता है, और वह बसइन चीजों को मानकर यहीं पर नहीं छोड़ देता—बल्कि वह पश्चात्ताप कर सकता है, और यह एहसास होने पर कि वह गलत है तो सत्य सिद्धांत हासिल करने का प्रयास कर अपनी त्रुटियों को दूर कर सकता है। उसे पता भी नहीं चलेगा कि उसने अपने कई गलत तौर-तरीके कब सुधार लिए, उसका छल-कपट, और अनमनापन कम होते चले जाएँगे। वह इस तरह जितने लंबे समय तक जीवन जिएगा, उतना ही खुलता जाएगा, सम्माननीय होता जाएगा और एक ईमानदार व्यक्ति बनने के लक्ष्य के उतने ही करीब पहुँच जाएगा। प्रकाश में रहने का यही अर्थ है। यह सारी महिमा परमेश्वर की है! अगर लोग प्रकाश में रहते हैं तो यह परमेश्वर का कार्य है—यह उनके शेखी बघारने का विषय नहीं है। जब लोग प्रकाश में रहते हैं, तो वे हर सत्य समझने लगते हैं, उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, उनके सामने जो भी मसला आता है, वे उसमें सत्य खोजना और उसका अभ्यास करना जानते हैं, वह अंतरात्मा और विवेक के साथ जीते हैं। भले ही उन्हें धार्मिक व्यक्ति नहीं कहा जा सकता, फिर भी परमेश्वर की दृष्टि में उनमें थोड़ी-बहुत मानवीय समानता होती है, कम से कम वे अपनी कथनी-करनी में परमेश्वर से होड़ नहीं लेते, जब कोई मुसीबत आती है तो वे सत्य खोजते हैं और उनके पास परमेश्वर के प्रति समर्पण वाला दिल होता है। इसलिए वे अपेक्षाकृत सुरक्षित होते हैं और संभव है कि वे परमेश्वर के साथ विश्वासघात न करें। भले ही उनमें सत्य की बहुत गहरी समझ नहीं होती, फिर भी वे परमेश्वर का आज्ञापालन कर उसके आगे समर्पण कर देते हैं, उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है और वे बुराई से दूर सकते हैं। जब उन्हें कोई कार्य या कर्तव्य सौंपा जाता है, तो वे उसका निर्वहन पूरे मन-मस्तिष्क और अपनी पूरी काबिलियत से करते हैं। ऐसे व्यक्ति भरोसे के काबिल होते हैं और परमेश्वर को उन पर विश्वास होता है—ऐसे लोग रोशनी में जीते हैं। क्या प्रकाश में रहने वाले लोग परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर पाते हैं? क्या वे अब भी परमेश्वर से अपना हृदय छिपाते हैं? क्या उनके पास अभी भी ऐसे राज होते हैं जिन्हें वे परमेश्वर को नहीं बता सकते? क्या उनमें अभी भी कोई छल-कपट, चालाकियाँ होती हैं? नहीं होतीं। वे पूरी तरह से परमेश्वर के लिए अपना हृदय खोल चुके होते हैं और ऐसा कुछ भी नहीं नहीं है जिसे वे छिपाते हों या नजर से चुराकर रखते हों। वे खुलकर परमेश्वर को अपने दिल के राज बता सकते हैं, किसी भी चीज पर उसके साथ संगति कर सकते हैं, वह जो कुछ भी जानना चाहे, उसे बता सकते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं होता जो वे परमेश्वर को नहीं बता सकते या नहीं दिखा सकते। जब लोग इस मानक को हासिल कर लेते हैं, तो उनका जीवन सहज, स्वतंत्र और मुक्त हो जाता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

क्या ऐसा कहने मात्र से तुम एक ईमानदार व्यक्ति बन सकते हो? (नहीं, तुममें एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए।) एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ क्या हैं? सबसे पहले, परमेश्वर के वचनों के बारे में कोई संदेह नहीं होना। यह ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाओं में से एक है। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यंजना है सभी मामलों में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना—यह सबसे महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपने मस्तिष्क के कोने में धकेल देते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? तुम कहते हो, “भले ही मेरी क्षमता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।” फिर भी, जब तुम्हें कोई कर्तव्य मिलता है, तो तुम इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं किया तो तुम्हें पीड़ा सहनी और इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, इसलिये तुम अपने कर्तव्य से बचने के लिये बहाने बनाते हो या फिर सुझाते कि इसे कोई और करे। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? स्पष्ट रूप से, नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति निष्ठावान होना चाहिए और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है। एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिये जाल न बिछाना। ये ईमानदारी की अभिव्यंजनाएँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए। अगर तुम वह नहीं करते जो तुम जानते और समझते हो, अगर तुम अपने प्रयास का 50-60 प्रतिशत ही देते हो, तो तुम इसमें अपना पूरा दिल और अपनी सारी शक्ति नहीं लगा रहे हो। बल्कि तुम धूर्त और काहिल हो। क्या इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने वाले लोग ईमानदार होते हैं? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर के पास ऐसे धूर्त और धोखेबाज लोगों का कोई उपयोग नहीं है; उन्हें बाहर कर देना चाहिए। परमेश्वर कर्तव्य निभाने के लिए सिर्फ ईमानदार लोगों का उपयोग करता है। यहाँ तक कि निष्ठावान सेवाकर्ता भी ईमानदार होने चाहिए। जो लोग हमेशा अनमने और धूर्त होते हैं और ढिलाई के तरीके तलाशते रहते हैं—वे सभी लोग धोखेबाज हैं, वे सभी राक्षस हैं। उनमें से कोई भी वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, और वे सभी बाहर निकाल दिए जाएँगे। कुछ लोग सोचते हैं, “ईमानदार व्यक्ति होने का मतलब बस सच बोलना और झूठ न बोलना है। ईमानदार व्यक्ति बनना तो वास्तव में आसान है।” तुम इस भावना के बारे में क्या सोचते हो? क्या ईमानदार व्यक्ति होने का दायरा इतना सीमित है? बिल्कुल नहीं। तुम्हें अपना हृदय प्रकट करना होगा और इसे परमेश्वर को सौंपना होगा, यही वह रवैया है जो एक ईमानदार व्यक्ति में होना चाहिए। इसलिए एक ईमानदार हृदय अनमोल है। इसका तात्पर्य क्या है? इसका तात्पर्य है कि एक ईमानदार हृदय तुम्हारे व्यवहार को नियंत्रित कर सकता है और तुम्हारी मनोदशा बदल सकता है। यह तुम्हें सही विकल्प चुनने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसकी स्वीकृति प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकता है। ऐसा हृदय सचमुच अनमोल है। यदि तुम्हारे पास इस तरह का ईमानदार हृदय है, तो तुम्हें इसी स्थिति में रहना चाहिए, तुम्हें इसी तरह व्यवहार करना चाहिए, और इसी तरह तुम्हें खुद को समर्पित करना चाहिए।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, समस्याओं से सामना होने पर तुममें जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए, और समस्याएँ हल करने के लिए तुम्हें सत्य तलाशने के तरीके खोजने चाहिए। विश्वासघाती व्यक्ति मत बनो। अगर तुम जिम्मेदारी से बचते हो और समस्याएँ आने पर उससे पल्ला झाड़ लेते हो, तो अविश्वासी भी तुम्हारी निंदा करेंगे, परमेश्वर का घर तो करेगा ही। परमेश्वर इसकी निंदा करता है और इसे शाप देता है। परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसे व्यवहार को तिरस्कृत और अस्वीकृत करते हैं। परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है, लेकिन धोखेबाज और धूर्त लोगों से घृणा करता है। अगर तुम एक विश्वासघाती व्यक्ति हो और चालाकी करने का प्रयास करते हो, तो क्या परमेश्वर तुमसे घृणा नहीं करेगा? क्या परमेश्वर का घर तुम्हें सजा दिए बिना ही छोड़ देगा? देर-सवेर तुम्हें जवाबदेह ठहराया जाएगा। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और विश्वासघाती लोगों को नापसंद करता है। सभी को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए, और भ्रमित होकर मूर्खतापूर्ण कार्य करना बंद कर देना चाहिए। क्षणिक अज्ञान समझ में आता है, लेकिन सत्य स्वीकारने से एकदम इनकार कर देना हठ है। ईमानदार लोग जिम्मेदारी ले सकते हैं। वे अपनी लाभ-हानि पर विचार नहीं करते, वे बस परमेश्वर के घर के काम और हितों की रक्षा करते हैं। उनके दिल दयालु और ईमानदार होते हैं, साफ पानी के उस कटोरे की तरह, जिसका तल एक नजर में देखा जा सकता है। उनके कार्यों में पारदर्शिता भी होती है। धोखेबाज व्यक्ति हमेशा चालाकी करता है, हमेशा चीजें छिपाता है, लीपापोती करता है, और खुद को ऐसा कसकर लपेटता है कि कोई भी उसकी असलियत नहीं देख सकता। लोग तुम्हारे आंतरिक विचार नहीं देख सकते, लेकिन परमेश्वर तुम्हारे दिल में मौजूद गहनतम चीजें देख सकता है। अगर परमेश्वर देखता है कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, कि तुम धूर्त हो, कि तुम कभी सत्य नहीं स्वीकारते, कि तुम हमेशा उसे धोखा देने की कोशिश करते हो, और तुम अपना दिल उसके हवाले नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें पसंद नहीं करेगा, वह तुमसे नफरत करेगा और तुम्हें त्याग देगा। जो लोग अविश्वासियों के बीच फलते-फूलते हैं—जो वाक्पटु और हाजिरजवाब होते हैं—वे किस तरह के लोग होते हैं? क्या यह तुम लोगों को स्पष्ट है? उनका सार कैसा होता है? कहा जा सकता है कि वे सभी असाधारण रूप से शातिर होते हैं, वे सब अत्यंत धोखेबाज और विश्वासघाती होते हैं, वे असली दुष्ट शैतान होते हैं। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को बचा सकता है? परमेश्वर शैतानों से ज्यादा किसी से नफरत नहीं करता—वे लोग जो धोखेबाज और विश्वासघाती होते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को कभी नहीं बचाएगा, इसलिए तुम लोग कुछ भी करो, पर इस तरह के व्यक्ति मत बनो। जो हाजिर-जवाब होते हैं और बोलते हुए सभी पहलुओं पर विचार करते हैं, जो मधुरभाषी और चालाक होते हैं और मामलों से निपटते हुए यह देख लेते हैं कि हवा किस तरफ बह रही है—मैं कहता हूँ, परमेश्वर इन लोगों से सबसे ज्यादा नफरत करता है, ऐसे लोग बचाए नहीं जा सकते। जब लोग धोखेबाज और विश्वासघाती होते हैं, तो चाहे उनके बोल कितने भी अच्छे क्यों न लगें, वे फिर भी भ्रामक झूठ ही होते हैं। उनके बोल जितने ज्यादा अच्छे लगते हैं, वे उतने ही ज्यादा दुष्ट शैतान होते हैं। वे बिलकुल उस किस्म के लोग होते हैं, जिनसे परमेश्वर सबसे ज्यादा घृणा करता है। तुम लोग क्या कहते हो : जो लोग धोखेबाज होते हैं, झूठ बोलने में माहिर होते हैं, मीठा-मीठा बोलते हैं—क्या वे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे पवित्र आत्मा की रोशनी और प्रबुद्धता प्राप्त कर सकते हैं? बिलकुल नहीं। धोखेबाज और विश्वासघाती लोगों के प्रति परमेश्वर का क्या रवैया होता है? वह उनसे घृणा करता है और उन्हें नकार देता है। वह उन्हें दरकिनार कर देता है और उनकी तरफ ध्यान नहीं देता। वह उन्हें पशुओं की श्रेणी का ही मानता है। परमेश्वर की नजरों में ऐसे लोग सिर्फ मनुष्य की खाल पहने होते हैं, अपने सार में वे दुष्ट शैतान की श्रेणी के ही होते हैं, वे चलती-फिरती लाशें हैं, और परमेश्वर उन्हें कभी नहीं बचाएगा।

—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8)

जब लोग परमेश्वर के सामने अपना कर्तव्य या कोई कार्य करते हैं, तो उनका दिल शुद्ध होना चाहिए : ताजे पानी के कटोरे की तरह—एकदम साफ, अशुद्धियों से अछूता। तो किस तरह का रवैया सही है? चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, चाहे तुम्हारे दिल में जो हो या जो भी तुम्हारे विचार हों, तुम उस पर दूसरों के साथ संगति कर पाते हो। अगर कोई कहता है कि चीजें करने का तुम्हारा तरीका नहीं चलेगा और वह कोई और विचार रखता है, और अगर तुमको लगता है कि यह बहुत बढ़िया विचार है, तो तुम अपना तरीका छोड़ देते हो, और उसकी सोच के अनुसार काम करने लगते हो। ऐसा करने से हर कोई देखता है कि तुम दूसरों के सुझाव स्वीकार कर सकते हो, सही रास्ता चुन सकते हो, सिद्धांतों के अनुसार और पारदर्शिता और स्पष्टता के साथ कार्य कर सकते हो। तुम्हारे मन में कोई दुर्भावना नहीं रहती और तुम ईमानदारी के रवैये पर भरोसा करके सच्चाई से काम करते और बोलते हो। तुम खरी बात करते हो। यह है, तो है; नहीं है, तो नहीं है। कोई चालाकी नहीं, कोई राज़ नहीं, बस एक बहुत पारदर्शी व्यक्ति। क्या यह एक प्रकार का रवैया नहीं है? यह लोगों, घटनाओं और चीज़ों के प्रति एक रवैया है, और यह एक व्यक्ति के स्वभाव का द्योतक है। दूसरी ओर, कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं, जो कभी खुलकर बात न करें, और जो वे सोचते हैं, उसे दूसरों के साथ साझा न करें। और जो कुछ भी वे करते हैं, उसमें कभी दूसरों के साथ परामर्श नहीं करते, इसके बजाय वे अपने दिल की बात दूसरों को पता नहीं चलने देते, प्रकट रूप में हर मोड़ पर लगातार दूसरों के प्रति सतर्क रहते हैं। वे खुद को जितना हो सकता है, उतना ज्यादा ढककर रखते हैं। क्या यह कपटी इंसान नहीं है? उदाहरण के लिए, उनके पास एक विचार है जो उन्हें शानदार लगता है, और वे सोचते हैं, “मैं अभी इसे अपने तक ही रखूँगा। अगर मैं इसे साझा करूँगा, तो तुम लोग इसका इस्तेमाल कर सकते हो और मेरी सफलता हथिया सकते हो। ऐसा कतई नहीं होगा। मैं इसे गुप्त रखूँगा।” या अगर कुछ ऐसा हुआ, जिसे वे पूरी तरह से नहीं समझते, तो वे सोचेंगे : “मैं अभी नहीं बोलूँगा। अगर मैं बोलता हूँ और किसी ने कोई और ऊँची बात कह दी तो क्या होगा, क्या मैं मूर्ख जैसा नहीं दिखूँगा? हर कोई मेरी असलियत जान लेगा, इसमें मेरी कमज़ोरी देखेगा। मुझे कुछ नहीं कहना चाहिए।” इसलिए चाहे जो भी सोच-विचार हों, चाहे जो भी अंतर्निहित उद्देश्य हो, वे डरते हैं कि हर कोई उनकी वास्तविकता जान जाएगा। वे अपने कर्तव्य और लोगों, घटनाओं और चीजों को हमेशा इस तरह के परिप्रेक्ष्य और रवैये के साथ देखते हैं। यह किस तरह का स्वभाव है? कुटिल, कपटी और दुष्ट स्वभाव। सतह पर ऐसा लगता है कि उन्होंने दूसरों से वह सब कह दिया है, जो उन्हें लगता है कि वे कह सकते हैं, लेकिन सतह के नीचे वे कुछ चीजें रोके रखते हैं। वे क्या रोककर रखते हैं? वे कभी ऐसी बातें नहीं कहते जिनमें उनकी प्रतिष्ठा और हितों की चर्चा हो—उन्हें लगता है कि ये बातें निजी हैं और वे कभी भी उनके बारे में किसी से बात नहीं करते, यहाँ तक कि अपने माता-पिता से भी नहीं। वे ये बातें कभी नहीं कहते। यही मुसीबत है! तुम सोचते हो कि अगर तुम ये बातें नहीं कहोगे तो परमेश्वर को इनका पता नहीं चलेगा? लोग कहते हैं कि परमेश्वर जानता है, पर क्या वे अपने हृदय में आश्वस्त हो सकते हैं कि परमेश्वर को पता होता है? लोगों को कभी यह एहसास नहीं होता कि “परमेश्वर को सब कुछ पता है; कि जो कुछ मैं अपने दिल में सोचता हूँ, भले ही मैंने उसे प्रकट न किया हो, परमेश्वर गुप्त रूप से पड़ताल करता है, परमेश्वर बिल्कुल जानता है। मैं परमेश्वर से कुछ नहीं छिपा सकता, इसलिए मुझे इसे साफ तौर पर बोलना ही होगा, अपने भाई-बहनों के साथ खुलकर संगति करनी होगी। चाहे मेरी सोच और विचार अच्छे हों या बुरे, मुझे उन्हें सत्यता से बताना होगा। मैं कुटिल, धोखेबाज, स्वार्थी या नीच नहीं हो सकता—मुझे एक ईमानदार व्यक्ति होना पड़ेगा।” अगर लोग इस तरह सोच पाएं, तो यही सही रवैया है। सत्य की खोज करने के बजाय, अधिकतर लोगों के अपने तुच्छ एजेंडे होते हैं। अपने हित, इज्जत और दूसरे लोगों के मन में जो स्थान या प्रतिष्ठा वे रखते हैं, उनके लिए बहुत महत्व रखते हैं। वे केवल इन्हीं चीजों को सँजोते हैं। वे इन चीजों पर मजबूत पकड़ बनाए रखते हैं और इन्हें ही बस अपना जीवन मानते हैं। और परमेश्वर उन्हें कैसे देखता या उनसे कैसे पेश आता है, इसका महत्व उनके लिए गौण होता है; फिलहाल वे उसे नजरअंदाज कर देते हैं; फिलहाल वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे समूह के मुखिया हैं, क्या दूसरे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं और क्या उनकी बात में वजन है। उनकी पहली चिंता उस पद पर कब्जा जमाना है। जब वे किसी समूह में होते हैं, तो प्रायः सभी लोग इसी प्रकार की प्रतिष्ठा, इसी प्रकार के अवसर तलाशते हैं। अगर वे अत्यधिक प्रतिभाशाली होते हैं, तब तो शीर्षस्थ होना चाहते ही हैं, लेकिन अगर वे औसत क्षमता के भी होते हैं, तो भी वे समूह में उच्च पद पर कब्जा रखना चाहते हैं; और अगर वे औसत क्षमता और योग्यताओं के होने के कारण समूह में निम्न पद धारण करते हैं, तो भी वे यह चाहते हैं कि दूसरे उनका सम्मान करें, वे नहीं चाहते कि दूसरे उन्हें नीची निगाह से देखें। इन लोगों की इज्जत और गरिमा ही होती है, जहाँ वे सीमा-रेखा खींचते हैं : उन्हें इन चीजों को कसकर पकड़ना होता है। भले ही उनमें कोई सत्यनिष्ठा न हो, और न ही परमेश्वर की स्वीकृति या अनुमोदन हो, मगर वे उस आदर, हैसियत और सम्मान को बिल्कुल नहीं खो सकते जिसके लिए उन्होंने दूसरों के बीच कोशिश की है—जो शैतान का स्वभाव है। मगर लोग इसके प्रति जागरूक नहीं होते। उनका विश्वास है कि उन्हें इस इज्जत की रद्दी से अंत तक चिपके रहना चाहिए। वे नहीं जानते कि ये बेकार और सतही चीजें पूरी तरह से त्यागकर और एक तरफ रखकर ही वे असली इंसान बन पाएंगे। यदि कोई व्यक्ति जीवन समझकर इन त्यागे जाने योग्य चीजों को बचाता है तो उसका जीवन बर्बाद हो जाता है। वे नहीं जानते कि दाँव पर क्या लगा है। इसीलिए, जब वे कार्य करते हैं तो हमेशा कुछ छिपा लेते हैं, वे हमेशा अपनी इज्जत और हैसियत बचाने की कोशिश करते हैं, वे इन्हें पहले रखते हैं, वे केवल अपने झूठे बचाव के लिए, अपने उद्देश्यों के लिए बोलते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, अपने लिए करते हैं। वे हर चमकने वाली चीज के पीछे भागते हैं, जिससे सभी को पता चल जाता है कि वे उसका हिस्सा थे। इसका वास्तव में उनसे कोई लेना-देना नहीं होता, लेकिन वे कभी पृष्ठभूमि में नहीं रहना चाहते, वे हमेशा अन्य लोगों द्वारा नीची निगाह से देखे जाने से डरते हैं, वे हमेशा दूसरे लोगों द्वारा यह कहे जाने से डरते हैं कि वे कुछ नहीं हैं, कि वे कुछ भी करने में असमर्थ हैं, कि उनके पास कोई कौशल नहीं है। क्या यह सब उनके शैतानी स्वभावों द्वारा निर्देशित नहीं है? जब तुम इज्जत और हैसियत जैसी चीजें छोड़ने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम अपने भीतर अधिक निश्चिंत और अधिक मुक्त हो पाते हो; तुम ईमानदार होने की राह पर कदम रख देते हो। लेकिन कई लोगों के लिए इसे हासिल करना आसान नहीं होता। मिसाल के लिए, जब कैमरा दिखता है, तो लोग आगे आने के लिए धक्कामुक्की करने लगते हैं; वे कैमरे में दिखना पसंद करते हैं, जितनी ज्यादा कवरेज, उतनी बेहतर; वे पर्याप्त कवरेज न मिलने से डरते हैं और उसे प्राप्त करने का अवसर पाने के लिए हर कीमत चुकाते हैं। क्या यह सब उनके शैतानी स्वभावों द्वारा निर्देशित नहीं है? ये उनके शैतानी स्वभाव हैं। तो तुम्हें कवरेज मिल जाती है—फिर क्या? लोग तुम्हारे बारे में अच्छी राय रखते हैं—तो क्या? वे तुम्हारी आराधना करते हैं—तो क्या? क्या इनमें से कोई भी चीज साबित करती है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है? इसमें से किसी भी चीज का कोई मूल्य नहीं है। जब तुम इन चीजों पर काबू पा लेते हो—जब तुम इनके प्रति उदासीन हो जाते हो और इन्हें महत्वपूर्ण नहीं समझते, जब इज्जत, अभिमान, हैसियत, और लोगों की सराहना तुम्हारे विचारों और व्यवहार को अब नियंत्रित नहीं कर पाते, तुम्हारे कर्तव्य-पालन के तरीके को तो बिल्कुल भी नियंत्रित नहीं करते—तब तुम्हारा कर्तव्य-पालन और भी प्रभावी हो जाता है, और भी शुद्ध हो जाता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

अगर तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति हो, और सत्य को स्वीकार करने में समर्थ हो, तो ईमानदार व्यक्ति बनना बहुत मुश्किल नहीं होगा। तुम्हें लगेगा कि यह तो बहुत आसान है। निजी अनुभव वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं कि ईमानदार व्यक्ति होने की राह में आने वाली सबसे बड़ी बाधाएँ है लोगों का छल, उनकी धोखेबाजी, उनका बैर भाव और उनके घिनौने इरादे। जब तक उनके ये भ्रष्ट स्वभाव मौजूद रहेंगे, ईमानदार व्यक्ति होना बहुत मुश्किल होगा। तुम सभी लोग ईमानदार होने का प्रशिक्षण ले रहे हो, इसलिए तुम्हें इसका थोड़ा अनुभव है। तुम लोगों के अनुभव कैसे रहे हैं? (मैं हर दिन अपनी कही सारी झूठी बातें, सारा कूड़ा-करकट लिख डालता हूँ। फिर मैं थोड़ा आत्म-निरीक्षण और आत्म-विश्लेषण करता हूँ। मुझे पता चला है कि इन ज्यादातर झूठी बातों के पीछे मेरी कोई मंशा होती है, और मैंने ये बातें अपने मिथ्याभिमान और नाक कटने से बचने के लिए बताई थीं। हालाँकि मैं जानता हूँ कि मेरी बातें सत्य के अनुरूप नहीं हैं, फिर भी मैं झूठ बोले या ढोंग किए बिना नहीं रह सकता।) यही है ईमानदार व्यक्ति होने की सबसे बड़ी मुश्किल। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि तुम इससे अवगत हो या नहीं; अहम बात यह है कि यह जानते हुए भी कि जो तुम कर रहे हो वह गलत है, तुम जिद्दी होकर झूठ बोलते जाते हो, ताकि अपने लक्ष्य हासिल कर सको, अपनी छवि और अपना नाम बनाए रख सको, और इससे अनजान होने का कोई भी दावा झूठ है। एक ईमानदार व्यक्ति होने की कुंजी है अपनी मंशाओं, अपने इरादों और अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करना। यही झूठ बोलने की समस्या को जड़ से हल करने का एकमात्र तरीका है। अपने निजी लक्ष्य हासिल करना यानी व्यक्तिगत रूप से लाभान्वित होना, किसी स्थिति का फायदा उठाना, खुद को अच्छा दिखाना, या दूसरों की स्वीकृति पाना—ये झूठ बोलते वक्त लोगों के इरादे और लक्ष्य होते हैं। इस प्रकार से झूठ बोलना भ्रष्ट स्वभाव दर्शाता है, और झूठ बोलने को लेकर तुम्हें ऐसी समझ की जरूरत है। तो इस भ्रष्ट स्वभाव को कैसे हल करना चाहिए? इन सबका दारोमदार इस बात पर है कि तुम सत्य से प्रेम करते हो या नहीं। अगर तुम सत्य को स्वीकार सकते हो और अपनी वकालत किए बिना बोल सकते हो; अगर तुम अपने हितों पर ध्यान देना छोड़कर कलीसिया के कार्य, परमेश्वर की इच्छा और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों का विचार कर सकते हो, तो तुम झूठ बोलना छोड़ दोगे। तुम सच्चाई और साफगोई से बोल पाओगे। इस आध्यात्मिक कद के बिना तुम सच्चाई से नहीं बोल पाओगे, जिससे यह साबित होगा कि तुम्हारे आध्यात्मिक कद में कमी है, और तुम सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो। इसलिए एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए सत्य की समझ और आध्यात्मिक कद में बढ़ने की प्रक्रिया की जरूरत होती है। जब हम इसे इस रूप में देखते हैं, तो आठ-दस साल के अनुभव के बिना ईमानदार व्यक्ति होना असंभव लगता है। किसी को जीवन में बढ़ने की प्रक्रिया, सत्य को समझने और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया में इतना समय लगाना चाहिए। शायद कुछ लोग यह पूछें : “झूठ बोलने की समस्या का हल और ईमानदार व्यक्ति बनना क्या सचमुच इतना कठिन हो सकता है?” यह इस पर निर्भर करता है कि तुम किसकी बात कर रहे हो। अगर वह सत्य से प्रेम करने वाला है, तो वह कुछ मामलों में झूठ बोलना छोड़ पाएगा। लेकिन अगर वह ऐसा है जो सत्य से प्रेम नहीं करता, तो उसके लिए झूठ बोलना छोड़ना और ज्यादा मुश्किल हो जाएगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास

परमेश्वर द्वारा ईमानदारी की माँग अत्यंत महत्वपूर्ण है। अगर तुम्हें ईमानदारी का अभ्यास करने के दौरान कई असफलताओं का अनुभव होता है, और वह अत्यधिक कठिन लगता है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? क्या तुम्हें निराश होकर पीछे हट जाना चाहिए और सत्य का अभ्यास छोड़ देना चाहिए? यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं। एक निश्चित अवधि तक ईमानदारी का अभ्यास करने के बाद कुछ लोग सोचते हैं, “ईमानदार होना बहुत कठिन है—मैं इससे अपने अभिमान, शान और प्रतिष्ठा को होने वाला नुकसान बरदाश्त नहीं कर सकता!” नतीजतन, वे अब ईमानदार नहीं रहना चाहते। वास्तव में यहीं एक ईमानदार व्यक्ति होने की चुनौती निहित है, और अधिकतर व्यक्ति खुद को इसी बिंदु पर फँसा हुआ पाते हैं, और इसका अनुभव करने में असमर्थ रहते हैं। तो एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करने के लिए क्या अपेक्षित है? किस तरह का व्यक्ति सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होता है? सबसे पहले व्यक्ति को सत्य से प्रेम करना चाहिए। उसे सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति होना चाहिए—यह निश्चित है। कुछ लोग कई वर्षों तक ईमानदारी के अभ्यास का अनुभव करने के बाद वास्तव में परिणाम प्राप्त करते हैं। वे धीरे-धीरे अपने झूठ और धोखा कम कर देते हैं, और वास्तव में मूल रूप से ईमानदार लोग बन जाते हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि ईमानदारी का अभ्यास करने के अपने अनुभव के दौरान उन्हें कठिनाइयों का सामना न करना पड़ा हो या पीड़ा न सहनी पड़ी हो? उन्होंने निश्चित रूप से बहुत ज्यादा पीड़ा सही। चूँकि वे सत्य से प्रेम करते थे, इसलिए वे इसका अभ्यास करने के लिए पीड़ा सहने, सच्चाई के साथ बोलने में डटे रहने और व्यावहारिक चीजें करते रहने, ईमानदार लोग बने रहने और अंततः परमेश्वर का आशीष प्राप्त करने में सक्षम रहे। ईमानदार बनने के लिए व्यक्ति को सत्य से प्रेम करना चाहिए और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला हृदय रखना चाहिए। ये दो कारक अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। सत्य से प्रेम करने वाले सभी लोगों के पास परमेश्वर-प्रेमी हृदय होते हैं। और जो लोग परमेश्वर से प्रेम करते हैं, उनके लिए सत्य का अभ्यास करना विशेष रूप से आसान होता है, और वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए किसी भी तरह की पीड़ा सह सकते हैं। अगर व्यक्ति के पास परमेश्वर-प्रेमी हृदय हो, तो सत्य के अपने अभ्यास में अपमान या बाधाएँ और असफलताएँ आने पर वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए तब तक अपमान और पीड़ा सहने में सक्षम होंगे, जब तक परमेश्वर प्रसन्न है। इसलिए वे सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होते हैं। निस्संदेह सत्य के किसी भी पहलू का अभ्यास करने में एक निश्चित मात्रा में कठिनाई आती ही है, और एक ईमानदार व्यक्ति बनना तो और भी कठिन होता है। सबसे बड़ी कठिनाई व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभावों की बाधा है। सभी मनुष्यों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, और वे शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं। उदाहरण के लिए इन कहावतों को ले लो, “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” या “झूठ बोले बिना कोई भी बड़ा काम पूरा नहीं किया जा सकता।” ये शैतानी फलसफे और भ्रष्ट स्वभाव के उदाहरण हैं। लोग काम पूरा करने, व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करने और अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए झूठ बोलने का सहारा लेते हैं। इस तरह का भ्रष्ट स्वभाव होने पर ईमानदार व्यक्ति बनना आसान नहीं है। व्यक्ति को परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए उस पर भरोसा करना चाहिए और बार-बार आत्म-चिंतन कर खुद को जानते रहना चाहिए, ताकि धीरे-धीरे देह के खिलाफ विद्रोह किया जा सके, अपने व्यक्तिगत हित त्यागे जा सकें और अपना अभिमान और शान छोड़ी जा सके। इसके अलावा एक ईमानदार व्यक्ति, जो सच बोल सकता है और झूठ बोलने से बच सकता है, बनने में सक्षम होने से पहले व्यक्ति को विभिन्न प्रकार की बदनामी और आलोचना सहनी चाहिए। उस अवधि के दौरान जब कोई व्यक्ति ईमानदार बनने का अभ्यास कर रहा होता है, कई विफलताओं और ऐसे क्षणों का सामना करना अपरिहार्य है, जिनमें उसकी भ्रष्टता प्रकट होती है। ऐसे अवसर आ सकते हैं जब व्यक्ति के शब्द और विचार आपस में मेल न खाते हों, या वे दिखावे और धोखे के क्षण हो सकते हैं। लेकिन चाहे तुम पर कुछ भी आ पड़े, अगर तुम सच बताना चाहते हो और एक ईमानदार व्यक्ति बनना चाहते हो, तो तुम्हें अपना अभिमान और शान त्यागने में सक्षम होना चाहिए। जब तुम्हें कोई बात समझ न आए, तो कहो कि तुम नहीं समझते; जब तुम किसी चीज के बारे में अस्पष्ट हो, तो कहो कि तुम अस्पष्ट हो। इस बात से मत डरो कि दूसरे तुम्हें तुच्छ समझेंगे या तुम्हारा अनादर करेंगे। लगातार दिल से बोलने और इस तरह सच बताने से तुम्हें अपने दिल में खुशी और शांति मिलेगी, और स्वतंत्रता और मुक्ति का बोध होगा, और अभिमान और शान अब तुम्हें बेबस नहीं करेंगे। तुम चाहे जिसके साथ भी बातचीत करो, तुम जो वास्तव में सोचते हो अगर उसे व्यक्त कर सकते हो, दूसरों के सामने अपना दिल खोल सकते हो, और उन चीजों को जानने का दिखावा नहीं करते जिन्हें तुम नहीं जानते, तो यह एक ईमानदार रवैया है। कभी-कभी लोग तुम्हें इसलिए नीची निगाह से देखते हुए मूर्ख कह सकते हैं कि तुम हमेशा सच बोलते हो। ऐसी स्थिति में तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, “भले ही सभी मुझे मूर्ख कहें, मैं एक ईमानदार व्यक्ति बनने का संकल्प लेता हूँ, धोखेबाज व्यक्ति बनने का नहीं। मैं सच्चाई के साथ और तथ्यों के अनुसार बोलूँगा। हालाँकि मैं परमेश्वर के सामने गंदा, भ्रष्ट और बेकार हूँ, फिर भी मैं बिना किसी दिखावे या स्वाँग के सच बोलूँगा।” अगर तुम इस तरह बोलोगे, तो तुम्हारे हृदय में स्थिरता और शांति रहेगी। एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए तुम्हें अपना अभिमान और शान छोड़नी चाहिए, और सच बोलने और अपनी सच्ची भावनाएँ व्यक्त करने के लिए तुम्हें दूसरों द्वारा किए जाने वाले उपहास और अवमानना से डरना नहीं चाहिए। अगर दूसरे तुम्हें मूर्ख भी समझें, तो भी तुम्हें बहस या अपना बचाव नहीं करना चाहिए। अगर तुम इस तरह से सत्य का अभ्यास कर सको, तो तुम एक ईमानदार व्यक्ति बन सकते हो। अगर तुम दैहिक प्राथमिकताएँ और अभिमान और शान नहीं छोड़ सकते, अगर तुम लगातार दूसरों से अनुमोदन चाहते हो, जो नहीं जानते उसे जानने का दिखावा करते हो, और अभिमान और शान के लिए जीते हो, तो तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं बन सकते—यह एक व्यावहारिक कठिनाई है। अगर तुम्हारा दिल हमेशा अभिमान और शान के आगे बेबस रहता है, तो तुम्हारे झूठ बोलने और मुखौटा लगाने की संभावना बनी रहेगी। इसके अलावा जब दूसरे तुम्हें अपमानित करते हैं या तुम्हारा असली व्यक्तित्व उजागर करते हैं, तो तुम्हें इसे स्वीकारने में कठिनाई होगी, और तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा बहुत बड़ा अपमान हुआ है—तुम्हारा चेहरा तमतमा जाएगा, दिल तेजी से धड़कने लगेगा, और तुम उत्तेजित और व्यग्र महसूस करोगे। यह समस्या हल करने के लिए तुम्हें थोड़ी और पीड़ा सहना और कुछ और शोधनों से गुजरना जरूरी होगा। तुम्हें यह समझना आवश्यक होगा कि समस्या की जड़ कहाँ है, और जब तुम ये मामले समझ लोगे, तो तुम अपनी पीड़ा कुछ कम करने में सक्षम हो पाओगे। जब तुम इन भ्रष्ट स्वभावों को अच्छी तरह से समझ जाते हो, और अपना अभिमान और शान त्यागने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम्हारे लिए एक ईमानदार व्यक्ति बनना आसान हो जाएगा। अगर तुम्हारे सच बोलने और अपने मन की बात कहने पर दूसरे लोग तुम्हारा मजाक उड़ाएँ, तो तुम बुरा नहीं मानोगे, और चाहे दूसरे तुम्हारी कितनी भी आलोचना करें या तुम्हारे साथ जैसा भी व्यवहार करें, तुम उसे सहने और सही ढंग से जवाब देने में सक्षम होगे। तब तुम पीड़ा से मुक्त हो जाओगे, और तुम्हारा दिल हमेशा शांत और आनंदित रहेगा, और तुम स्वतंत्रता और मुक्ति प्राप्त कर लोगे। इस तरह तुम भ्रष्टता को उतार फेंकोगे और मानव-सदृश जीवन जियोगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है

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5. पुराने और नए दोनों नियमों के युगों में, परमेश्वर ने इस्राएल में काम किया। प्रभु यीशु ने भविष्यवाणी की कि वह अंतिम दिनों के दौरान लौटेगा, इसलिए जब भी वह लौटता है, तो उसे इस्राएल में आना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु पहले ही लौट चुका है, कि वह देह में प्रकट हुआ है और चीन में अपना कार्य कर रहा है। चीन एक नास्तिक राजनीतिक दल द्वारा शासित राष्ट्र है। किसी भी (अन्य) देश में परमेश्वर के प्रति इससे अधिक विरोध और ईसाइयों का इससे अधिक उत्पीड़न नहीं है। परमेश्वर की वापसी चीन में कैसे हो सकती है?

संदर्भ के लिए बाइबल के पद :"क्योंकि उदयाचल से लेकर अस्ताचल तक जाति-जाति में मेरा नाम महान् है, और हर कहीं मेरे नाम पर धूप और शुद्ध भेंट...

प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

उत्तर: हम परमेश्वर की वाणी कैसे सुनते हैं? हममें कितने भी गुण हों, हमें कितना भी अनुभव हो, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। प्रभु यीशु में विश्वास...

प्रश्न 1: सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है," तो मुझे वह याद आया जो प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)। हम पहले से ही जानते हैं कि प्रभु यीशु जीवन के सजीव जल का स्रोत हैं, और अनन्‍त जीवन का मार्ग हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और प्रभु यीशु समान स्रोत हों? क्या उनके कार्य और वचन दोनों पवित्र आत्मा के कार्य और वचन हैं? क्या उनका कार्य एक ही परमेश्‍वर करते हैं?

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