16. झूठ बोलने और धोखे में शामिल होने की समस्या का समाधान कैसे करें

बाइबल से उद्धृत परमेश्वर के वचन

“तुम अपने पिता शैतान से हो और अपने पिता की लालसाओं को पूरा करना चाहते हो। वह तो आरम्भ से हत्यारा है और सत्य पर स्थिर न रहा, क्योंकि सत्य उसमें है ही नहीं। जब वह झूठ बोलता, तो अपने स्वभाव ही से बोलता है; क्योंकि वह झूठा है वरन् झूठ का पिता है” (यूहन्ना 8:44)

“परन्तु तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो; क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है” (मत्ती 5:37)

“मैं तुम से सच कहता हूँ कि जब तक तुम न फिरो और बालकों के समान न बनो, तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे” (मत्ती 18:3)

“ये वे ही हैं कि जहाँ कहीं मेम्ना जाता है, वे उसके पीछे हो लेते हैं; ये तो परमेश्वर के निमित्त पहले फल होने के लिये मनुष्यों में से मोल लिए गए हैं। उनके मुँह से कभी झूठ न निकला था, वे निर्दोष हैं” (प्रकाशितवाक्य 14:4-5)

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

परमेश्वर का लोगों से ईमानदार बनने का आग्रह करना यह साबित करता है कि वह धोखेबाज लोगों से सचमुच घृणा करता है, उन्हें नापसंद करता है। धोखेबाज लोगों के प्रति परमेश्वर की नापसंदगी उनके काम करने के तरीके, उनके स्वभावों, उनके इरादों और उनकी चालबाजी के तरीकों के प्रति नापसंदगी है; परमेश्वर को ये सब बातें नापसंद हैं। यदि धोखेबाज लोग सत्य स्वीकार कर लें, अपने धोखेबाज स्वभाव को मान लें और परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने को तैयार हो जाएँ, तो उनके बचने की उम्मीद भी बँध जाती है, क्योंकि परमेश्वर सभी लोगों के साथ समान व्यवहार करता है, जैसा कि सत्य करता है। और इसलिए, यदि हम परमेश्वर को प्रसन्न करने वाले लोग बनना चाहें, तो सबसे पहले हमें अपने व्यवहार के सिद्धांतों को बदलना होगा : अब हम शैतानी फलसफों के अनुसार नहीं जी सकते, हम झूठ और चालबाजी के सहारे नहीं चल सकते। हमें अपने सारे झूठ त्यागकर ईमानदार बनना होगा। तब हमारे प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण बदलेगा। पहले लोग दूसरों के बीच रहते हुए हमेशा झूठ, ढोंग और चालबाजी पर निर्भर रहते थे, और शैतानी फलसफों को अपने अस्तित्व, जीवन और आचरण की नींव की तरह इस्तेमाल करते थे। इससे परमेश्वर को घृणा थी। अविश्वासियों के बीच यदि तुम खुलकर बोलते हो, सच बोलते हो और ईमानदार रहते हो, तो तुम्हें बदनाम किया जाएगा, तुम्हारी आलोचना की जाएगी और तुम्हें त्याग दिया जाएगा। इसलिए तुम सांसारिक चलन का पालन करते हो और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हो; तुम झूठ बोलने में ज्यादा-से-ज्यादा माहिर और अधिक से अधिक धोखेबाज होते जाते हो। तुम अपना मकसद पूरा करने और खुद को बचाने के लिए कपटपूर्ण साधनों का उपयोग करना भी सीख जाते हो। तुम शैतान की दुनिया में समृद्ध होते चले जाते हो और परिणामस्वरूप, तुम पाप में इतने गहरे गिरते जाते हो कि फिर उसमें से खुद को निकाल नहीं पाते। परमेश्वर के घर में चीजें ठीक इसके विपरीत होती हैं। तुम जितना अधिक झूठ बोलते और कपटपूर्ण खेल खेलते हो, परमेश्वर के चुने हुए लोग तुमसे उतना ही अधिक ऊब जाते हैं और तुम्हें त्याग देते हैं। यदि तुम पश्चाताप नहीं करते, अब भी शैतानी फलसफों और तर्क से चिपके रहते हो, अपना भेस बदलकर खुद को बढ़िया दिखाने के लिए चालें चलते और बड़ी-बड़ी साजिशें रचते हो, तो बहुत संभव है कि तुम्हें उजागर कर निकाल दिया जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर धोखेबाज लोगों से नफरत करता है। केवल ईमानदार लोग ही परमेश्वर के घर में समृद्ध हो सकते हैं, धोखेबाज लोगों को अंततः त्यागकर बाहर निकाल दिया जाता है। यह सब परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित कर दिया है। केवल ईमानदार लोग ही स्वर्ग के राज्य में साझीदार हो सकते हैं। यदि तुम ईमानदार व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करोगे, सत्य का अनुसरण करने की दिशा में अनुभव प्राप्त नहीं करोगे और अभ्यास नहीं करोगे, यदि अपना भद्दापन उजागर नहीं करोगे और यदि खुद को खोल कर पेश नहीं करोगे, तो तुम कभी भी पवित्र आत्मा का कार्य और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर पाओगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास

अगर लोग चाहते हैं कि उन्हें बचाया जाए, तो उन्हें ईमानदार बनना शुरू करना होगा। अंत में जिन्हें परमेश्वर प्राप्त कर लेता है, उन पर एक संकेत चिह्न लगाया जाता है। क्या तुम लोग जानते हो कि वह क्या है? बाइबल में, प्रकाशित-वाक्य में लिखा है : “उनके मुँह से कभी झूठ न निकला था, वे निर्दोष हैं” (प्रकाशितवाक्य 14:5)। कौन हैं “वे”? ये वे लोग हैं, जिन्हें परमेश्वर द्वारा बचाया, पूर्ण किया और प्राप्त किया जाता है। परमेश्वर उनका वर्णन कैसे करता है? उनके आचरण की विशेषताएँ और अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? उन पर कोई दोष नहीं है। वे झूठ नहीं बोलते।‌ तुम सब शायद समझ-बूझ सकते हो कि झूठ न बोलने का क्या अर्थ है : इसका अर्थ ईमानदार होना है। “निर्दोष” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कोई बुराई न करना। और कोई बुराई न करना किस नींव पर निर्मित है? बिना किसी संदेह के, यह परमेश्वर का भय मानने की नींव पर निर्मित है। अतः निर्दोष होने का अर्थ है परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। निर्दोष व्यक्ति को परमेश्वर कैसे परिभाषित करता है? परमेश्वर की दृष्टि में केवल वे ही पूर्ण हैं, जो परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं; इस प्रकार, निर्दोष लोग वे हैं जो परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं, और केवल पूर्ण लोग ही निर्दोष हैं। यह बिल्कुल सही है। अगर कोई रोज झूठ बोलता है, तो क्या यह एक दोष नहीं है? अगर वह अपनी ही मर्जी के अनुसार बोलता और काम करता है तो क्या यह दोष नहीं है? अगर वह कार्य करते हुए हमेशा सम्मान पाना चाहता है, हमेशा परमेश्वर से पुरस्कार माँगता है तो क्या यह दोष नहीं है? अगर उसने कभी भी परमेश्वर का उत्कर्ष नहीं किया, हमेशा अपनी ही गवाही देता है, तो क्या यह दोष नहीं है? अगर वह अपना कर्तव्य लापरवाही से निभाता है, अवसरवादी ढंग से काम करता है, बुरे इरादे पालता है और सुस्त पड़ा रहता है, तो क्या यह दोष नहीं है? भ्रष्ट स्वभाव के ये सारे के सारे लक्षण दोष हैं। बात बस इतनी है कि सत्य को समझने से पहले लोग इसे जानते नहीं हैं। अब तुम सभी लोग जानते हो कि ये सारे भ्रष्ट लक्षण दोष और गंदगी हैं; जब तुम सत्य को थोड़ा-सा समझ लेते हो, तभी तुममें इस प्रकार का विवेक आ सकता है। जो कुछ भी भ्रष्ट लक्षणों से संबंधित है, वह सब झूठ से जुड़ा है; बाइबल के ये शब्द, “कोई झूठ नहीं मिला,” यह चिंतन करने के लिए महत्वपूर्ण तत्व हैं कि तुममें दोष हैं या नहीं। इसलिए किसी व्यक्ति ने अपने जीवन में प्रगति का अनुभव किया है या नहीं, यह आँकने का एक और संकेतक यह है : तुम ईमानदार व्यक्ति बनने में प्रवेश कर चुके हो या नहीं, तुम जो कहते हो उसमें कितने झूठ पाए जा सकते हैं, और क्या तुम्हारे झूठ धीरे-धीरे कम हो रहे हैं या पहले जितने ही हैं। अगर तुम्हारे झूठ, जिनमें तुम्हारे भ्रामक और फरेबी शब्द भी शामिल हैं, धीरे-धीरे घट रहे हैं तो यह साबित करता है कि तुमने वास्तविकता में प्रवेश करना शुरू कर दिया है, और तुम्हारा जीवन प्रगति कर रहा है। क्या यह चीजों को देखने का व्यावहारिक तरीका नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुम्हें लगता है कि तुम पहले ही प्रगति का अनुभव कर चुके हो, लेकिन तुम्हारे झूठ बिल्कुल भी कम नहीं हुए हैं और तुम मूल रूप से किसी अविश्वासी जैसे ही हो, तो क्या यह सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का सामान्य लक्षण है? (नहीं।) जब कोई व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लेता है तो वह झूठ बहुत ही कम बोलेगा; वह मूल रूप से ईमानदार इंसान होगा। अगर तुम बहुत ज्यादा झूठ बोलते हो और तुम्हारे शब्दों में बहुत मिलावट होती है, तो इससे साबित हो जाता है कि तुम बिल्कुल नहीं बदले हो और तुम अभी भी एक ईमानदार इंसान नहीं हो। अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो फिर तुम्हारे पास जीवन प्रवेश भी नहीं होगा, फिर तुम कैसी प्रगति का अनुभव कर सकोगे? तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव अब भी मजबूती से कायम है, और तुम अविश्वासी और दुष्ट हो। ईमानदार होना यह आँकने का संकेतक है कि किसी व्यक्ति ने अपने जीवन में प्रगति का अनुभव किया है या नहीं; लोगों को पता होना चाहिए कि कैसे इन चीजों को अपने पर परखा जाए और अपनी थाह ली जाए।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक

अपने रोजमर्रा के जीवन में लोग अक्सर बेकार बातें करते हैं, झूठ बोलते हैं, और ऐसी बातें कहते हैं जो अज्ञानतापूर्ण, मूर्खतापूर्ण और रक्षात्मक होती हैं। इनमें से ज्यादातर बातें अभिमान और शान के लिए, अपने अहंकार की तुष्टि के लिए कही जाती हैं। ऐसे झूठ बोलने से उनके भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होते हैं। अगर तुम इन भ्रष्ट तत्वों का समाधान कर लो, तो तुम्हारा हृदय शुद्ध हो जाएगा, और तुम धीरे-धीरे ज्यादा शुद्ध और अधिक ईमानदार हो जाओगे। वास्तव में सभी लोग जानते हैं कि वे झूठ क्यों बोलते हैं। व्यक्तिगत लाभ और गौरव के लिए, या अभिमान और रुतबे के लिए, वे दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करने और खुद को वैसा दिखाने की कोशिश करते हैं, जो वे नहीं होते। हालाँकि दूसरे लोग अंततः उनके झूठ उजागर और प्रकट कर देते हैं, और वे अपनी इज्जत और साथ ही अपनी गरिमा और चरित्र भी खो बैठते हैं। यह सब अत्यधिक मात्रा में झूठ बोलने के कारण होता है। तुम्हारे झूठ बहुत ज्यादा हो गए हैं। तुम्हारे द्वारा कहा गया प्रत्येक शब्द मिलावटी और झूठा होता है, और एक भी शब्द सच्चा या ईमानदार नहीं माना जा सकता। भले ही तुम्हें यह न लगे कि झूठ बोलने पर तुम्हारी बेइज्जती हुई है, लेकिन अंदर ही अंदर तुम अपमानित महसूस करते हो। तुम्हारा जमीर तुम्हें दोष देता है, और तुम अपने बारे में नीची राय रखते हुए सोचते हो, “मैं ऐसा दयनीय जीवन क्यों जी रहा हूँ? क्या सच बोलना इतना कठिन है? क्या मुझे अपनी शान की खातिर झूठ का सहारा लेना चाहिए? मेरा जीवन इतना थका देने वाला क्यों है?” तुम्हें थका देने वाला जीवन जीने की जरूरत नहीं है। अगर तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास कर सको, तो तुम एक निश्चिंत, स्वतंत्र और मुक्त जीवन जीने में सक्षम होगे। हालाँकि तुमने झूठ बोलकर अपनी शान और अभिमान को बरकरार रखना चुना है। नतीजतन, तुम एक थकाऊ और दयनीय जीवन जीते हो, जो तुम्हारा खुद का थोपा हुआ है। झूठ बोलकर व्यक्ति को शान की अनुभूति हो सकती है, लेकिन वह शान की अनुभूति क्या है? यह महज एक खोखली चीज है, और यह पूरी तरह से बेकार है। झूठ बोलने का मतलब है अपना चरित्र और गरिमा बेच देना। इससे व्यक्ति की गरिमा और उसका चरित्र छिन जाता है; इससे परमेश्वर नाखुश होता है और इससे वह घृणा करता है। क्या यह लाभप्रद है? नहीं, यह लाभप्रद नहीं है। क्या यह सही मार्ग है? नहीं, यह सही मार्ग नहीं है। ... अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसे सत्य से प्रेम है, तो सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम विभिन्न कठिनाइयाँ सहन करोगे। अगर इसका मतलब अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत का बलिदान और दूसरों से उपहास और अपमान सहना भी हो, तो भी तुम बुरा नहीं मानोगे—अगर तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम हो, तो यह पर्याप्त है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे इसका अभ्यास करना और ईमानदार रहना चुनते हैं। यही सही मार्ग है, और इस पर परमेश्वर का आशीष है। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह क्या चुनता है? वह अपनी प्रतिष्ठा, हैसियत, गरिमा और चरित्र बनाए रखने के लिए झूठ का उपयोग करना चुनता है। वह धोखेबाज होगा और परमेश्वर उससे घृणा कर उसे ठुकरा देगा। ऐसे लोग सत्य को नकारते हैं और परमेश्वर को भी नकारते हैं। वे अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत चुनते हैं; वे धोखेबाज होना चाहते हैं। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि परमेश्वर प्रसन्न होता है या नहीं, या वह उन्हें बचाएगा या नहीं। क्या परमेश्वर अभी भी ऐसे लोगों को बचा सकता है? निश्चित रूप से नहीं, क्योंकि उन्होंने गलत मार्ग चुना है। वे सिर्फ झूठ बोलकर और धोखा देकर ही जीवित रह सकते हैं; वे रोजाना सिर्फ झूठ बोलकर उसे छिपाने और अपना बचाव करने में अपना दिमाग लगाने का दर्दनाक जीवन ही जी सकते हैं। अगर तुम सोचते हो कि झूठ वह प्रतिष्ठा, रुतबा, अभिमान और शान बरकरार रख सकता है जो तुम चाहते हो, तो तुम पूरी तरह से गलत हो। वास्तव में झूठ बोलकर तुम न सिर्फ अपना अभिमान और शान, और अपनी गरिमा और चरित्र बनाए रखने में विफल रहते हो, बल्कि इससे भी ज्यादा शोचनीय बात यह है कि तुम सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अवसर चूक जाते हो। अगर तुम उस पल अपनी प्रतिष्ठा, रुतबा, अभिमान और शान बचाने में सफल हो भी जाते हो, तो भी तुमने सत्य का बलिदान करके परमेश्वर को धोखा तो दे ही दिया है। इसका मतलब है कि तुमने उसके द्वारा बचाए और पूर्ण किए जाने का मौका पूरी तरह से खो दिया है, जो सबसे बड़ा नुकसान और जीवन भर का अफसोस है। जो लोग धोखेबाज हैं, वे इसे कभी नहीं समझेंगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है

कुछ लोग कभी किसी को सच नहीं बताते। लोगों से कहने से पहले वे अपने दिमाग में हर चीज पर सोच-विचार कर उसे चमकाते हैं। तुम नहीं बता सकते कि उनकी कौन-सी बातें सच हैं और कौन-सी झूठी। वे आज एक बात कहते हैं तो कल दूसरी, वे एक व्यक्ति से एक बात कहते हैं तो दूसरे से कुछ और। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह अपने आप में विरोधाभासी होता है। ऐसे लोगों पर कैसे विश्वास किया जा सकता है? तथ्यों की सटीक समझ प्राप्त करना बहुत कठिन हो जाता है, तुम उनसे कोई सीधी बात नहीं बुलवा सकते। यह कौन-सा स्वभाव है? यह कपट है। क्या कपटी स्वभाव बदलना आसान है? इसे बदलना सबसे मुश्किल है। जिस भी चीज में स्वभाव शामिल होते हैं, वह व्यक्ति की प्रकृति से संबंधित होती है, और व्यक्ति की प्रकृति से जुड़ी चीजों से मुश्किल किसी भी चीज का बदलना नहीं होता। “कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी रहती है” कहावत बिल्कुल सच है। कपटी लोग चाहे किसी भी चीज के बारे में बात करें या कुछ भी करें, वे हमेशा अपने लक्ष्य और इरादे रखते हैं। अगर उनका कोई लक्ष्य या इरादा न हो, तो वे कुछ नहीं कहेंगे। अगर तुम यह समझने की कोशिश करो कि उनके लक्ष्य और इरादे क्या हैं, तो वे एकाएक बोलना बंद कर देते हैं। अगर उनके मुँह से अचानक कोई सच निकल भी जाए, तो वे उसे तोड़ने-मरोड़ने का कोई तरीका सोचने के लिए किसी भी हद तक जाएँगे, ताकि तुम्हें भ्रमित कर सच जानने से रोक सकें। कपटी व्यक्ति चाहे कुछ भी करें, वे उसके बारे में किसी को पूरा सच पता नहीं चलने देंगे। लोग चाहे उनके साथ कितना भी समय बिता लें, कोई नहीं जानता कि उनके दिमाग में वास्तव में क्या चल रहा है। ऐसी होती है कपटी लोगों की प्रकृति। कपटी व्यक्ति चाहे कितना भी बोल लें, दूसरे लोग कभी नहीं जान पाएँगे कि उनके इरादे क्या हैं, वे वास्तव में क्या सोच रहे हैं, या वे ठीक-ठीक क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। यहाँ तक कि उनके माता-पिता को भी यह जानने में मुश्किल होती है। कपटी लोगों को समझने की कोशिश करना बेहद मुश्किल है, कोई नहीं जान सकता कि उनके दिमाग में क्या है। कपटी लोग ऐसे ही बोलते या करते हैं : वे कभी अपने मन की बात नहीं कहते या जो वास्तव में चल रहा होता है, उसे व्यक्त नहीं करते। यह एक प्रकार का स्वभाव है, है न? जब तुम्हारा स्वभाव कपटी होता है, तो तुम चाहे कुछ भी कहो या करो—यह स्वभाव हमेशा तुम्हारे भीतर रहता है, तुम्हें नियंत्रित करता है, तुमसे खेल कराता है और तुम्हें छल-कपट में संलग्न करता है, तुमसे लोगों के साथ खिलवाड़ कराता है, सत्य पर पर्दा डलवाता है और तुमसे अपने असली मनोभाव छिपवाता है। यह कपट है। कपटी लोग अन्य किन विशिष्ट व्यवहारों में संलग्न होते हैं? मैं एक उदाहरण देता हूँ। दो लोग बात कर रहे हैं, और उनमें से एक अपने आत्मज्ञान के बारे में बोल रहा है; यह व्यक्ति इस बारे में बात करता रहता है कि वह कैसे सुधरा है, और दूसरे व्यक्ति को इस पर विश्वास करने के लिए प्रेरित करने की कोशिश करता है, लेकिन वह उसे मामले के वास्तविक तथ्य नहीं बताता। इसमें कुछ छिपाया जा रहा है और यह एक खास स्वभाव का संकेत देता है—कपट का। देखें, तुम लोग इसे पहचान पाते हो या नहीं। यह व्यक्ति कहता है, “मैंने हाल ही में कुछ चीजें अनुभव की हैं, और मुझे लगता है कि इन वर्षों में परमेश्वर में मेरा विश्वास व्यर्थ रहा है। मुझे कुछ हासिल नहीं हुआ है। मैं बहुत दीन और दयनीय हूँ! हाल ही में मेरा व्यवहार बहुत अच्छा नहीं रहा है, लेकिन मैं पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हूँ।” लेकिन यह कहने के कुछ समय बाद ही उसमें पश्चात्ताप का लक्षण कहीं दिखाई नहीं देता। यहाँ क्या समस्या है? दरअसल, वह झूठ बोलता है और दूसरों को बहकाता है। जब दूसरे लोग उसे ऐसी बातें कहते हुए सुनते हैं, तो वे सोचते हैं, “इस व्यक्ति ने पहले सत्य का अनुसरण नहीं किया था, लेकिन यह तथ्य कि अब यह ऐसी बातें कह सकता है, दिखाता है कि इसने वास्तव में पश्चात्ताप किया है। इस बारे में कोई संदेह नहीं है। हमें इसे पहले की तरह नहीं, बल्कि एक नए, बेहतर आलोक में देखना चाहिए।” ये शब्द सुनकर लोग ऐसे ही सोचते-विचारते हैं। लेकिन क्या उस व्यक्ति की वर्तमान दशा वैसी ही है जैसा वह कहता है? हकीकत यह है कि ऐसा नहीं है। उसने वास्तव में पश्चात्ताप नहीं किया है, लेकिन उसके शब्द यह भ्रम देते हैं कि उसने ऐसा किया है, और कि वह बदलकर बेहतर हो गया है और पहले से अलग है। यही वह अपने शब्दों से हासिल करना चाहता है। लोगों को छलने के लिए इस तरह से बोलकर वह कैसा स्वभाव प्रकट कर रहा है? यह कपट है—और यह बहुत घातक है! तथ्य यह है कि उसे इस बात का बिल्कुल भी एहसास नहीं है कि वह परमेश्वर में अपने विश्वास में विफल हो गया है, कि वह बहुत दीन और दयनीय है। वह लोगों को छलने के लिए, दूसरों को अपने बारे में अच्छा सोचने और अच्छी राय रखने के लिए प्रेरित करने का अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक शब्द और भाषा उधार ले रहा है। क्या यह कपट नहीं है? यह कपट है, और जब कोई बहुत ज्यादा कपटी होता है, तो उसके लिए बदलना आसान नहीं होता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है

एक ईमानदार व्यक्ति बनो, या थोड़ा और विस्तार में जाएँ तो : एक सरल और खुले व्यक्ति बनो, जो कुछ भी छिपाता नहीं, जो झूठ नहीं बोलता, जो घुमा-फिराकर नहीं बोलता, और एक निष्कपट व्यक्ति बनो जिसमें न्याय की भावना हो, जो सच्चाई के साथ बोल सकता हो। लोगों को पहले इसे हासिल करना चाहिए। मान लो, एक दुष्ट व्यक्ति है, जो कुछ ऐसा करता है जिससे कलीसिया का काम बाधित हो जाता है, और स्थिति बेहतर ढंग से समझने के लिए एक अगुआ तुम्हारे पास आता है। तुम जानते हो कि यह किसने किया, लेकिन चूँकि उस व्यक्ति के साथ तुम्हारे अच्छे संबंध हैं और तुम उसे अपमानित नहीं करना चाहते, इसलिए तुम झूठ बोल देते हो और कहते हो कि तुम नहीं जानते। अगुआ और अधिक विवरण माँगता है, तो तुम उस दुष्ट व्यक्ति के किए पर पर्दा डालने के लिए बहाना बनाते हुए इधर-उधर की हाँकने लगते हो। क्या यह कपटपूर्ण नहीं है? तुमने अगुआ को स्थिति के बारे में सच नहीं बताया, बल्कि उसे छिपा लिया। तुम ऐसा क्यों करोगे? क्योंकि तुम किसी को नाराज नहीं करना चाहते थे। तुमने आपसी संबंधों की रक्षा करने और किसी को ठेस न पहुँचाने को पहले रखा, और सच्चाई के साथ बोलने और सत्य का अभ्यास करने को अंत में। तुम किससे नियंत्रित हो रहे हो? तुम अपने शैतानी स्वभाव से नियंत्रित हो रहे हो, उसने तुम्हारे मुँह पर ताला लगा दिया है और तुम्हें सच्चाई के साथ बोलने से रोक दिया है—तुम केवल अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जी पाते हो। भ्रष्ट स्वभाव क्या है? भ्रष्ट स्वभाव एक शैतानी स्वभाव है, और जो व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीता है, वह एक जीवित शैतान है। उसकी वाणी में हमेशा प्रलोभन होता है, वह हमेशा घुमावदार होती है, और कभी सीधी नहीं होती; यहाँ तक कि अगर उसे पीट-पीटकर मार भी डाला जाए, तो भी वह सच नहीं बोलेगा। यही होता है जब किसी व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव बहुत गंभीर हो जाता है; अपनी मानवता पूरी तरह से खोकर वह शैतान बन जाता है। तुम लोगों में से बहुत-से लोग दूसरों के साथ अपने संबंध और अन्य लोगों के बीच अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा बचाए रखने के लिए परमेश्वर को ठेस पहुँचाना और धोखा देना पसंद करेंगे। क्या इस तरह से कार्य करने वाला व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है? क्या वह ऐसा व्यक्ति है, जो सत्य का अनुसरण करता है? वह ऐसा व्यक्ति है, जो जान-बूझकर परमेश्वर को धोखा देता है, जिसके दिल में परमेश्वर का लेशमात्र भी भय नहीं है। वह परमेश्वर को धोखा देने का साहस करता है; उसकी महत्वाकांक्षा और विद्रोह वास्तव में बड़ा होना चाहिए! फिर भी ऐसे लोगों को आम तौर पर यही लगता है कि वे परमेश्वर से प्रेम करते और उसका भय मानते हैं, और अक्सर कहते हैं : “हर बार जब मैं परमेश्वर के बारे में सोचता हूँ, तो मुझे यही लगता है कि वह कितना विशाल, कितना महान और कितना अथाह है! परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है, उसका प्रेम अत्यंत वास्तविक है!” तुम अच्छे-अच्छे शब्द बोल सकते हो, लेकिन किसी दुष्ट व्यक्ति को कलीसिया के काम में बाधा डालते देखकर भी उसे प्रकट नहीं करोगे। तुम लोगों को खुश करने वाले हो, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने के बजाय सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा, लाभ और हैसियत की रक्षा करते हो। जब तुम सही परिस्थिति जानते हो, तो तुम सच्चाई के साथ नहीं बोलते, इधर-उधर की हाँककर दुष्ट लोगों की रक्षा करते हो। अगर तुमसे सच्चाई के साथ बोलने के लिए कहा जाए, तो यह तुम्हारे लिए बहुत कठिन होगा। सिर्फ सच बोलने से बचने के लिए तुम इतनी बकवास करते हो! जब तुम बोलते हो, तो कितनी देर तक बोलते रहते हो, कितने विचार खर्च करते हो, और कितने थकाऊ तरीके से जीते हो, सब-कुछ अपनी प्रतिष्ठा और गौरव की रक्षा के लिए! क्या परमेश्वर इस तरह कार्य करने वाले लोगों से प्रसन्न होता है? परमेश्वर धोखेबाज लोगों से सबसे ज्यादा घृणा करता है। अगर तुम शैतान के प्रभाव से मुक्त होना और उद्धार प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकारना चाहिए। तुम्हें पहले एक ईमानदार व्यक्ति बनने से शुरुआत करनी चाहिए। स्पष्टवादी बनो, सच बोलो, अपनी भावनाओं से विवश मत होओ, अपना ढोंग और चालाकी एक तरफ रख दो, और सिद्धांतों के साथ बोलो और मामले सँभालो—यह जीने का एक आसान और सुखद तरीका है, और तुम परमेश्वर के सामने जी पाओगे। अगर तुम हमेशा शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हो, और अपने दिन बिताने के लिए हमेशा झूठ और चालाकी पर भरोसा करते हो, तो तुम शैतान की शक्ति के अधीन जियोगे और अंधकार में रहोगे। अगर तुम शैतान की दुनिया में रहते हो, तो तुम सिर्फ अधिकाधिक धोखेबाज बनोगे। तुम इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुमने इतने सारे उपदेश सुने हैं, पर तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव अभी तक शुद्ध नहीं हुआ है, और अब भी तुम अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार ही जी रहे हो—क्या तुम्हें इससे घृणा नहीं होती? क्या तुम्हें शर्म नहीं आती? चाहे तुमने जितने भी समय तक परमेश्वर में विश्वास किया हो, अगर तुम अभी भी किसी अविश्वासी की तरह ही हो, तो तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है? क्या तुम इस तरह से परमेश्वर में विश्वास करके वास्तव में उद्धार प्राप्त कर सकते हो? तुम्हारे जीवन के लक्ष्य नहीं बदले हैं, न ही तुम्हारे सिद्धांत और तरीके बदले हैं; तुम्हारे पास सिर्फ एक ही चीज है जो किसी अविश्वासी के पास नहीं है, वह है “विश्वासी” की उपाधि। हालाँकि तुम बाहर से परमेश्वर का अनुसरण करते हो, परतुम्हारा जीवन-स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला है, और अंत में तुम उद्धार प्राप्त नहीं करोगे। क्या तुम अपनी आशाएँ व्यर्थ ही नहीं बढ़ा रहे? क्या परमेश्वर में इस तरह का विश्वास तुम्हें सत्य या जीवन प्राप्त करने में मदद कर सकता है? बिल्कुल नहीं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है

जो लोग हमेशा झूठ बोलते और वाक्छल करते हैं, वे सबसे नीच लोग हैं; वे बेकार हैं। कोई उन पर ध्यान नहीं देना चाहता, कोई उनके साथ जुड़ना नहीं चाहता, उनके सामने अपना दिल खोलना या उनसे दोस्ती करना तो दूर की बात है। क्या ऐसे लोगों का कोई चरित्र या गरिमा होती है? (नहीं।) ऐसे लोगों से मिलने वाला हर व्यक्ति उनसे बेइंतहा नफरत करेगा; वे अपने शब्दों, कार्यों, चरित्र और निष्ठा में पूरी तरह से अविश्वसनीय होते हैं—ऐसे व्यक्ति बिल्कुल सच्चे नहीं होते। अगर वे गुणी और प्रतिभाशाली होते, तो क्या लोग उन्हें पसंद करते और उनका सम्मान करते? (नहीं।) और इसलिए एक-दूसरे के साथ मिलजुलकर रहने के लिए लोगों में क्या होना जरूरी है? उनमें चरित्र, निष्ठा, गरिमा होनी जरूरी है और उनका ऐसा व्यक्ति होना जरूरी है, जिसके सामने दूसरे अपना दिल खोलकर रख सकें। समस्त गरिमामय लोगों में कुछ न कुछ व्यक्तित्व होता है, वे कभी-कभी दूसरों के साथ निभा नहीं पाते, लेकिन वे ईमानदार होते हैं और उनमें कोई झूठ या चालाकी नहीं होती। दूसरे लोग अंततः उनका बहुत आदर करते हैं, क्योंकि वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं, वे ईमानदार होते हैं, उनमें गरिमा, निष्ठा और चरित्र होता है, वे कभी दूसरों का फायदा नहीं उठाते, जब लोग मुसीबत में होते हैं तो वे उनकी मदद करते हैं, वे लोगों से जमीर और सूझ-बूझ के साथ व्यवहार करते हैं, और उनके बारे में कभी तुरंत निर्णय नहीं लेते। दूसरे लोगों का मूल्यांकन या उनकी चर्चा करते समय ये व्यक्ति जो कुछ भी कहते हैं वह सटीक होता है, वे वही कहते हैं जो वे जानते हैं और जो वे नहीं जानते उसके बारे में अपना मुँह नहीं खोलते, वे नमक-मिर्च नहीं लगाते, और उनके शब्द साक्ष्य या संदर्भ का काम दे सकते हैं। निष्ठावान व्यक्ति जब बोलते और कार्य करते हैं, तो अपेक्षाकृत व्यावहारिक और भरोसेमंद होते हैं। निष्ठाहीन लोगों को कोई मूल्यवान नहीं मानता, उनकी कथनी और करनी पर कोई ध्यान नहीं देता, या उनके शब्दों और कार्यों को महत्वपूर्ण नहीं मानता, और कोई उन पर भरोसा नहीं करता। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे बहुत ज्यादा झूठ बोलते हैं और ईमानदारी भरे शब्द बहुत कम बोलते हैं, ऐसा इसलिए है क्योंकि जब वे लोगों के साथ बातचीत करते हैं या उनके लिए कुछ करते हैं तो उनमें ईमानदारी नहीं होती, वे सभी को धोखा देने और मूर्ख बनाने की कोशिश करते हैं, और कोई उन्हें पसंद नहीं करता। क्या तुम लोगों को कोई ऐसा व्यक्ति मिला है, जो तुम लोगों की नजर में भरोसेमंद हो? क्या तुम लोग खुद को दूसरे लोगों के भरोसे के काबिल समझते हो? क्या दूसरे लोग तुम पर भरोसा कर सकते हैं? अगर कोई तुमसे किसी दूसरे व्यक्ति की स्थिति के बारे में पूछे, तो तुम्हें उस व्यक्ति का मूल्यांकन और आकलन अपनी इच्छा के अनुसार नहीं करना चाहिए, तुम्हारे शब्द वस्तुनिष्ठ, सटीक और तथ्यों के अनुरूप होने चाहिए। तुम्हें उसी के बारे में बात करनी चाहिए जो तुम समझते हो, और उन चीजों के बारे में बात नहीं करनी चाहिए जिनके बारे में पूरी जानकारी न हो। तुम्हें उस व्यक्ति के प्रति न्यायपूर्ण और निष्पक्ष होना चाहिए। यही कार्य करने का जिम्मेदारी भरा तरीका है। अगर तुमने सिर्फ सतही स्तर की घटना देखी है, और तुम जो कहना चाहते हो वह उस व्यक्ति के बारे में सिर्फ तुम्हारी अपनी राय है, तो तुम्हें उस व्यक्ति पर आँख मूँदकर निर्णय नहीं सुनाना चाहिए, और तुम्हें निश्चित रूप से उस पर राय नहीं देनी चाहिए। तुम्हें अपनी बात इस तरह शुरू करनी चाहिए, “यह सिर्फ मेरी अपनी राय है,” या “मैं बस ऐसा महसूस करता हूँ।” इस तरह तुम्हारे शब्द अपेक्षाकृत वस्तुनिष्ठ होंगे, और तुम्हारी बात सुनकर दूसरा व्यक्ति तुम्हारे शब्दों की ईमानदारी और तुम्हारा निष्पक्ष रवैया समझ पाएगा, और वह तुम पर भरोसा करने में सक्षम होगा। क्या तुम लोग आश्वस्त हो कि तुम इसे कर सकते हो? (नहीं।) इससे साबित होता है कि तुम लोग दूसरों के प्रति पर्याप्त ईमानदार नहीं हो, और जिस तरह से तुम आचरण करते और मामले सँभालते हो, उसमें सच्चाई और ईमानदार रवैये की कमी है। मान लो कोई तुमसे पूछता है, “मुझे तुम पर भरोसा है : तुम उस व्यक्ति के बारे में क्या सोचते हो?” और तुम जवाब देते हो, “वह ठीक है।” वह पूछता है, “क्या तुम और जानकारी दे सकते हो?” और तुम कहते हो, “वह शिष्ट है, अपना कर्तव्य निभाते समय कीमत चुकाने को तैयार रहता है और लोगों से अच्छे संबंध रखता है।” क्या इन तीनों कथनों में से किसी का व्यावहारिक प्रमाण है? क्या ये उस व्यक्ति के चरित्र का सबूत देने के लिए पर्याप्त हैं? नहीं। क्या तुम भरोसेमंद हो? (नहीं।) इन तीन कथनों में से किसी में भी कोई विवरण शामिल नहीं है, ये सिर्फ अतिरंजित, खोखले, उथले शब्द हैं। अगर तुम अभी-अभी उस व्यक्ति से मिले होते और कहते कि वह शक्ल-सूरत के आधार पर ठीक है, तो यह सामान्य होता। लेकिन तुम कुछ समय से उसके संपर्क में थे और तुम्हें उसकी कुछ महत्वपूर्ण समस्याओं का पता लगाने में सक्षम होना चाहिए था। लोग यह सुनना चाहते हैं कि अपने दिल की गहराई में उस व्यक्ति के बारे में तुम्हारा क्या आकलन और विचार है, लेकिन तुम कुछ भी वास्तविक या सूक्ष्म या महत्वपूर्ण नहीं कहते, इसलिए लोग तुम पर भरोसा नहीं करेंगे, और वे आगे तुम्हारे साथ बातचीत नहीं करना चाहेंगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है

मसीह-विरोधियों की मानवता बेईमान होती है, जिसका अर्थ है कि वे जरा भी सच्चे नहीं होते। वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, वह मिलावटी होता है और उसमें उनके इरादे और मकसद शामिल रहते हैं, और इस सबमें छिपी होती हैं उनकी अनकही और अकथनीय चालें और साजिशें। इसलिए मसीह-विरोधियों के शब्द और कार्य अत्यधिक दूषित और झूठ से भरे होते हैं। चाहे वे कितना भी बोलें, यह जानना असंभव होता है कि उनकी कौन-सी बात सच्ची है और कौन-सी झूठी, कौन-सी सही है और कौन-सी गलत। चूँकि वे बेईमान होते हैं, इसलिए उनके दिमाग बेहद जटिल होते हैं, कपटी साजिशों से भरे और चालों से ओतप्रोत होते हैं। वे एक भी सीधी बात नहीं कहते। वे एक को एक, दो को दो, हाँ को हाँ और ना को ना नहीं कहते। इसके बजाय, सभी मामलों में वे गोलमोल बातें करते हैं और चीजों के बारे में अपने दिमाग में कई बार सोचते हैं, परिणामों के बारे में सोच-विचार करते हैं, हर कोण से गुण और कमियाँ तोलते हैं। फिर, वे अपनी भाषा से चीजों में इस तरह हेरफेर करते हैं कि वे जो कुछ भी कहते हैं, वह काफी बोझिल लगता है। ईमानदार लोग उनकी बातें कभी समझ नहीं पाते और वे उनसे आसानी से धोखा खा जाते हैं और ठगे जाते हैं, और जो भी ऐसे लोगों से बोलता और बात करता है, उसका यह अनुभव थका देने वाला और दुष्कर होता है। वे कभी एक को एक और दो को दो नहीं कहते, वे कभी नहीं बताते कि वे क्या सोच रहे हैं, और वे चीजों का वैसा वर्णन नहीं करते जैसी वे होती हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह अथाह होता है, और उनके कार्यों के लक्ष्य और इरादे बहुत जटिल होते हैं। अगर उनकी कलई खुल जाती है—अगर दूसरे लोग उनकी असलियत जान जाते हैं और उन्हें समझ लेते हैं—तो वे इससे निपटने के लिए तुरंत एक और झूठ गढ़ लेते हैं। ऐसे व्यक्ति अक्सर झूठ बोलते हैं और झूठ बोलने के बाद उन्हें झूठ कायम रखने के लिए और ज्यादा झूठ बोलने पड़ते हैं। वे अपने इरादे छिपाने के लिए दूसरों को धोखा देते हैं, और अपने झूठ की मदद के लिए तमाम तरह के हीले-हवाले और बहाने गढ़ते हैं, ताकि लोगों के लिए यह बताना बहुत मुश्किल हो जाए कि क्या सच है और क्या नहीं, और लोगों को पता ही नहीं चलता कि वे कब सच्चे होते हैं, और इसका तो बिल्कुल भी पता नहीं चलता कि वे कब झूठ बोल रहे होते हैं। जब वे झूठ बोलते हैं, तो शरमाते या हिचकते नहीं, मानो सच बोल रहे हों। क्या इसका मतलब यह नहीं कि झूठ बोलना उनकी प्रकृति बन गया है? उदाहरण के लिए, कभी-कभी मसीह-विरोधी सतही तौर पर दूसरों के प्रति अच्छे, ख्याल रखने वाले और बोलचाल में गर्मजोशी से भरे हुए प्रतीत होते हैं, जो सुनने में सुखद और प्रेरक होता है। लेकिन जब वे इस तरह बोलते हैं, तब भी कोई नहीं बता सकता कि वे ईमानदार हैं या नहीं, और वे ईमानदार थे या नहीं, इस बात के प्रकट होने के लिए हमेशा कुछ दिनों बाद होने वाली घटनाओं की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता होती है। मसीह-विरोधी हमेशा कुछ निश्चित इरादों के साथ बोलते हैं, और कोई यह पता नहीं लगा सकता कि वास्तव में वे क्या चाहते हैं। ऐसे लोग आदतन झूठे होते हैं, जो अपने किसी भी झूठ के परिणाम के बारे में जरा भी नहीं सोचते। अगर उनका झूठ उन्हें लाभ पहुँचाता है और दूसरों को धोखा देने में सक्षम है, अगर वह उनके लक्ष्य प्राप्त कर सकता है, तो वे उसके परिणामों की परवाह नहीं करते। जैसे ही वे उजागर होते हैं, वे बात छिपाना, झूठ बोलना, छल करना जारी रखते हैं। जिस सिद्धांत और तरीके से ये लोग दूसरों से बातचीत करते हैं, वह लोगों को झूठ बोलकर बरगलाना है। वे दोमुँहे होते हैं और अपने श्रोताओं के अनुरूप बोलते हैं; स्थिति जिस भी भूमिका की माँग करती है, वे उसे निभाते हैं। वे मधुरभाषी और चालाक होते हैं, उनके मुँह झूठ से भरे होते हैं, और वे भरोसे के लायक नहीं होते। जो भी कुछ समय के लिए उनके संपर्क में आता है, वह धोखा खा जाता है या बाधित हो जाता है और उसे पोषण, सहायता या सीख नहीं मिल पाती। ऐसे लोगों के मुँह से निकले शब्द गंदे हों या अच्छे, तर्कसंगत हों या बेतुके, मानवता के अनुकूल हों या प्रतिकूल, अशिष्ट हों या सभ्य, वे सब अनिवार्य रूप से मिथ्या, असत्य और झूठ होते हैं।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव के सार का सारांश (भाग एक)

मैं झूठ बोलने के दो उदाहरण देता हूँ। दो प्रकार के लोग झूठ बोलने में सक्षम होते हैं। तुम्हें अंतर करना होगा कि कौन-से लोग हठी हैं और कभी सुधर नहीं सकते। तुम्हें यह अंतर भी करना होगा कि किन लोगों को बचाया जा सकता है। हालाँकि, जिन लोगों को बचाया जा सकता है वे अक्सर भ्रष्टता उजागर करते हैं, यदि वे सत्य स्वीकार कर और चिंतन-मनन करके खुद को पहचान सकें, तो उनके लिए अब भी उम्मीद बची है। पहले उदाहरण में, व्यक्ति बार-बार झूठ बोलता है। लेकिन, सत्य समझने के बाद, अगली बार झूठ बोलने पर उसकी प्रतिक्रिया अलग होती है। उसे बेहद कष्ट और पीड़ा महसूस होती है, तो उसने विचार किया, “मैंने फिर झूठ बोला। मैं क्यों नहीं बदल पा रहा? इस बार, चाहे जो हो जाए, मुझे इस समस्या को उजागर करना होगा, अपनी वास्तविकता को उजागर कर उसका विश्लेषण करने के लिए खुलकर बात करनी होगी। मुझे इस तथ्य को साफ तौर पर समझ लेना चाहिए मैं बस बदनामी से बचने के लिए झूठ बोल रहा था।” खुलकर बोलने और संगति करने के बाद, उसे शांति महसूस हुई और एहसास हुआ, “झूठ बोलना कितना कष्टदायी है, वहीं ईमानदार इंसान बनना कितना आसान और बढ़िया है! परमेश्वर चाहता है कि लोग ईमानदार बनें; लोगों में यही सदृश्ता होनी चाहिए।” इस थोड़ी सी अच्छाई का अनुभव करने के बाद, आगे से वह कम झूठ बोलने, जहाँ तक मुमकिन हो झूठ न बोलने, अपने मन की बात कहने, ईमानदारी से बोलने, सही कर्म करने और ईमानदार व्यक्ति बनने पर ध्यान देने लगा। हालाँकि, जब उसे ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा जिसमें उसकी अपनी गरिमा शामिल थी, तो उसने स्वाभाविक रूप से झूठ बोला और बाद में पछताया। फिर, जब उसने खुद को ऐसी स्थिति में पाया, जहाँ वह खुद को अच्छा दिखा सकता था, तो उसने फिर से झूठ बोला। उसने यह सोचकर खुद से घृणा की, “मैं अपने मुँह पर काबू क्यों नहीं रख पा रहा? क्या यह मेरी प्रकृति की कोई समस्या हो सकती है? क्या मैं बेहद कपटी हूँ?” उसे एहसास हुआ कि इस समस्या का समाधान किया जाना चाहिए; नहीं तो, परमेश्वर उससे घृणा करेगा और उसे अस्वीकार कर बाहर निकाल देगा। उसने परमेश्वर से प्रार्थना की, दोबारा झूठ बोलने पर खुद को अनुशासित करने को कहा, और वह दंड स्वीकारने के लिए तैयार था। उसने सभाओं में खुद का विश्लेषण करने का साहस जुटाया और कहा, “इन परिस्थितियों में मैंने झूठ इसलिए बोला क्योंकि मेरी स्वार्थी मंशाएँ थीं और मैं उनके काबू में था। आत्म-चिंतन करते हुए, मुझे एहसास हुआ कि मैं जब भी झूठ बोलता था तो यह मेरे घमंड या निजी फायदे के लिए होता था। अब मैं इसे स्पष्ट देख सकता हूँ : मैं अपने घमंड और निजी हितों के लिए जीता हूँ, इसलिए मैं हर चीज के बारे में हमेशा झूठ ही बोलता था।” अपने झूठों का विश्लेषण करते हुए, उसने अपने इरादे को भी उजागर किया और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का पता लगा लिया। यह फायदे की ही बात है; वह ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करने के साथ-साथ प्रबोधन प्राप्त कर अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचान सकता है। बाद में, उसने विचार किया, “मुझे बदलना होगा! मुझे अभी पता चला है कि मुझमें यह समस्या है। यह परमेश्वर की ओर से सच्चा प्रबोधन है। सत्य का अभ्यास करने वाले लोगों को परमेश्वर आशीष देता है!” उसने सत्य का अभ्यास करने का थोड़ा सा मीठा स्वाद भी चखा। हालाँकि, एक दिन अनजाने में उस व्यक्ति ने फिर से झूठ बोला। उसने एक बार फिर परमेश्वर से अनुशासित होने के लिए प्रार्थना की। इसके अलावा, उसने इस बात पर भी विचार किया कि उसकी बातों में हमेशा कोई इरादा क्यों छिपा होता है, और वह परमेश्वर की इच्छा के बजाय अपने अहंकार और घमंड के बारे में क्यों सोचता है। चिंतन करके, उसे अपने भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ प्राप्त होती है और वह खुद से घृणा करने लगता है। वह इस तरह से सत्य खोजता रहता है। तीन से पाँच वर्षों के बाद, उसके झूठ वास्तव में कम-से-कम होते गए और वह अधिकतर अपने मन की बात कहने और ईमानदारी से व्यवहार करने लगा। उसका हृदय धीरे-धीरे शुद्ध होता गया और वह अधिक शांत और खुश रहने लगा। वह अपना ज्यादातर समय परमेश्वर की मौजूदगी में बिताने लगा और उसकी स्थिति सामान्य होती गई। यह उस व्यक्ति की वास्तविक स्थिति है जो ईमानदार व्यक्ति होने का अनुभव करते हुए अक्सर झूठ बोलता था। तो क्या वह व्यक्ति अब भी झूठ बोलता है? क्या वह अब भी झूठ बोल सकता है? क्या वह वास्तव में ईमानदार व्यक्ति है? ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वह ईमानदार व्यक्ति है। उसके बारे में यही कहा जा सकता है कि वह व्यक्ति ईमानदार व्यक्ति बनने के सत्य का अभ्यास कर सकता है, और वह ईमानदार व्यक्ति बनने के अभ्यास की प्रक्रिया में है, पर वह अब तक पूरी तरह से ईमानदार व्यक्ति नहीं बना है। दूसरे शब्दों में, वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार है। क्या जो व्यक्ति सत्य का अभ्यास करने को तैयार है उसे सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति कहा जा सकता है? उसने सत्य का अभ्यास किया है और तथ्य उजागर हो चुके हैं, तो क्या उसे सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति के रूप में परिभाषित करना स्वाभाविक नहीं है? बेशक, जब वह ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास कर रहा था, तो वह तुरंत शुद्ध और खुली संगति का अभ्यास करने, या बिना किसी आशंका के अपने भीतर छिपी हर चीज को उजागर करने में सक्षम नहीं था। वह अब भी कुछ चीजों को छिपाकर आगे बढ़ने की कोशिश करता था। हालाँकि, अपनी कोशिशों और अनुभवों से, उसे एहसास हुआ कि वह जितना अधिक ईमानदारी से जीता रहा उतना ही उसे अच्छा महसूस हुआ, उतना ही उसका मन शांत हुआ, और बिना किसी बड़ी कठिनाई के सत्य का अभ्यास करना उसके लिए आसान हो गया। तभी उसने ईमानदार व्यक्ति होने का मीठा स्वाद चखा, और परमेश्वर में उसका विशवास बढ़ गया। ईमानदार व्यक्ति होने का अनुभव करने से, वह न केवल सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हुआ, बल्कि अपने दिल में शांति और आनंद का अनुभव भी किया। साथ ही, उसे ईमानदारी का अभ्यास करने के मार्ग की स्पष्ट समझ प्राप्त हुई। उसे एहसास हुआ कि ईमानदार व्यक्ति बनना बहुत कठिन नहीं है। उसने देखा कि लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ उचित और पूरा करने लायक हैं, और उसे परमेश्वर के कार्य की थोड़ी समझ प्राप्त हुई। यह सब कोई अतिरिक्त लाभ नहीं है, बल्कि वह है जो व्यक्ति को जीवन में प्रवेश करने की अपनी यात्रा में प्राप्त करना चाहिए, और वह इसे प्राप्त करने में सक्षम है।

दूसरा उदाहरण एक ऐसे व्यक्ति के बारे में है जिसे झूठ बोलना पसंद है—यह उसकी प्रकृति में है। जब वह कुछ नहीं कहता, तो सब ठीक होता है, पर जैसे ही वह अपना मुँह खोलता है, उसकी बातें मिलावट से भरी होती हैं। वह ऐसा जानबूझकर करता है या नहीं, सच तो यह है कि उसकी ज्यादातर बातों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। एक दिन, झूठ बोलने के बाद, उसने विचार किया, “झूठ बोलना गलत है और इससे परमेश्वर नाराज होता है। यदि लोगों को पता चला कि मैंने झूठ बोला है, तो मेरी बदनामी होगी! लेकिन ऐसा लगता है कि किसी को मेरे झूठ की भनक लग चुकी है। जो भी हो, मैं देख लूँगा। मैं कोई और विषय ढूँढ लूँगा, और उनका ध्यान भटकाने के लिए अलग तरह के शब्द इस्तेमाल करूँगा, उन्हें उलझन में डाल दूँगा, जिससे वे मेरा झूठ नहीं पकड़ पाएँगे। अब ये हुई ना असली चालाकी?” फिर अपने पुराने झूठ पर पर्दा डालने और चीजों को ठीक करने के लिए उसने और बड़ा झूठ बोल दिया, जिसके बहकावे में लोग आ गए। उसने यह सोचकर आत्मतुष्टि और दंभ महसूस किया, “देखो मैं कितना चतुर हूँ! मैंने बिना किसी चूक के झूठ बोला, और अगर कोई चूक हुई भी, तो मैं फिर से झूठ बोलकर उस पर पर्दा डाल दूँगा। ज्यादातर लोग मेरी असलियत नहीं जान पाते। झूठ बोलना भी एक कला है!” कुछ लोग कहते हैं, “झूठ बोलना मेहनत का काम है। एक झूठ पर पर्दा डालने के लिए कई झूठ बोलने पड़ते हैं। इसमें बहुत सोच-विचार और मेहनत लगती है।” लेकिन, इस झूठ बोलने में माहिर व्यक्ति को ऐसा नहीं लगा। इस उदाहरण में, उसके झूठ उजागर नहीं हुए थे। उसने दूसरों को बहकाने के लिए अच्छी तरह से झूठ बोला, फिर उजागर किए जाने के डर से, उसने पिछला झूठ छिपाने के लिए एक और झूठ बोल दिया। उसे बहुत गर्व हुआ, और उसने अपने दिल में कोई अपराध-बोध या खेद महसूस नहीं किया। उसकी अंतरात्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह कैसे मुमकिन है? वह इस बात से अनजान है कि झूठ बोलना उसके लिए कितना हानिकारक है। उसे लगता है कि अपने पिछले झूठों पर पर्दा डालने के लिए नए झूठ बोलने से उसकी छवि बेहतर होगी और उसे फायदे होंगे। इतनी कठिनाई और थकान के बाद भी, उसे लगता है कि ऐसा करना ठीक है। उसे यह सत्य समझने और सत्य का अभ्यास करने से ज्यादा मूल्यवान लगता है। वह बिना कसूरवार महसूस किए अक्सर झूठ क्यों बोलता है? क्योंकि उसके दिल में सत्य के लिए प्रेम नहीं है। ऐसे लोगों के लिए उनका अभिमान, प्रतिष्ठा, और रुतबा ज्यादा प्यारा है। वे संगति में दूसरों के सामने कभी अपना दिल खोलकर नहीं रखते; बल्कि, अपने झूठों को छिपाने के लिए स्वांग रचते और ढोंग करते हैं। वे लोगों के साथ इसी तरह से संवाद करते और पेश आते हैं। चाहे वे कितने भी झूठ बोलें, कितने भी झूठों पर पर्दा डालें या अपने स्वार्थी और नीच इरादों को कितना भी छिपाएँ, उन्हें अपने दिल में जरा भी अपराध-बोध या अशांति महसूस नहीं होती। आम तौर पर, जिन लोगों के पास अंतरात्मा और थोड़ी मानवता है वे झूठ बोलने पर थोड़ा असहज महसूस करेंगे, और खुद को उसके अनुसार ढालने में दिक्कत होगी। उन्हें शर्म महसूस होगी; लेकिन यह व्यक्ति तो ऐसा नहीं सोचता। ऐसा व्यक्ति झूठ बोलकर आत्मतुष्ट महसूस करता है और कहता है, “आज मैंने फिर से झूठ बोलकर उस बेवकूफ को चकमा दे दिया। मेरे पसीने छूट रहे थे, पर उसे भनक तक नहीं लगी!” क्या वह बार-बार झूठ बोलने और अपने झूठ पर पर्दा डालने वाले ऐसे जीवन से तंग नहीं आ गया है? यह कैसी प्रकृति है? यह एक राक्षस की प्रकृति है। राक्षस रोज झूठ बोलते हैं। वे बिना किसी परेशानी या पीड़ा के झूठ से भरा जीवन जीते हैं। यदि उन्हें परेशानी या पीड़ा महसूस होती, तो वे जरूर बदलते, पर वे पीड़ा नहीं महसूस करते, क्योंकि झूठ बोलना ही उनका जीवन है—यह उनकी प्रकृति में है। जब वे स्वाभाविक रूप से खुद को व्यक्त करते हैं, तो कोई संयम नहीं दिखाते और कोई आत्म-चिंतन नहीं करते। चाहे वे कितने भी झूठ बोलें या कितनी भी चालें चलें, उन्हें अपने दिल में कोई अपराध-बोध नहीं होता, और उनकी अंतरात्मा में कोई टीस नहीं उठती। वे इस बात से अनजान हैं कि परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराई की जाँच करता है; वे झूठ बोलने और छल-कपट करने के बाद अपनी जिम्मेदारी और उन्हें मिलने वाले प्रतिकार का एहसास तक नहीं कर पाते हैं। उनका सबसे बड़ा डर यह है कि कोई उनकी कपटपूर्ण साजिशों को उजागर कर देगा, इसलिए वे अपनी साजिशों पर पर्दा डालने के लिए और भी अधिक झूठ बोलते हैं, और साथ ही अपने झूठों और अपनी असलियत को छिपाने के लिए कोई न कोई रास्ता, कोई न कोई साधन ढूंढने की कोशिश में खुद को थका देते हैं। क्या ऐसे व्यक्ति ने इस पूरी प्रक्रिया में एक बार भी पश्चात्ताप किया है? क्या उसे कोई ग्लानि या दुख महसूस होता है? क्या उसमें खुद को बदलने की कोई इच्छा है? नहीं, उसे लगता है कि झूठ बोलना या उस पर पर्दा डालना कोई पाप नहीं है, ज्यादातर लोग ऐसे ही जीते हैं, और वह जरा भी नहीं बदलना चाहता। जहाँ तक ईमानदार व्यक्ति बनने की बात है, वह अपने दिल में सोचता है, “मैं ईमानदार व्यक्ति क्यों बनूँ, दिल की बात क्यों कहूँ, और सच क्यों बोलूँ? मैं ऐसा नहीं करता। यह बेवकूफों के लिए है और मैं उतना बेवकूफ नहीं हूँ। यदि मैं झूठ बोलता हूँ और उजागर होने से डरता हूँ, तो मैं उस पर पर्दा डालने के लिए कोई और तर्क या बहाने ढूँढ लूँगा। मैं ईमानदारी से बात करने वालों में से नहीं हूँ। यदि ऐसा होता तो मैं निहायत ही बेवकूफ होता!” वे सत्य नहीं स्वीकारते या उसे नहीं मानते। जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते वे सत्य से प्रेम नहीं कर सकते। ऐसे व्यक्ति की शुरू से अंत तक क्या स्थिति होती है? (वे खुद को बदलना नहीं चाहते।) चीजों को न बदलने की उनकी इच्छा एक वस्तुपरक दृष्टिकोण से स्पष्ट है, लेकिन उनकी वास्तविक स्थिति क्या है? वे बुनियादी तौर पर इस बात से इनकार करते हैं कि ईमानदार व्यक्ति होना जीवन का सही मार्ग है। वे सत्य के अस्तित्व, अंत के दिनों में मानवजाति के लिए परमेश्वर के न्याय, और इस बात से भी इनकार करते हैं कि परमेश्वर मनुष्य का अंतिम परिणाम और व्यक्ति के कर्मों के लिए अलग-अलग दंड निर्धारित करता है। यह अविवेकी, मूर्खतापूर्ण और अड़ियल रवैया है। ऐसी सोच ही उनकी हठी स्थिति, कार्यों और व्यवहार को जन्म देती है। ये चीजें व्यक्ति की प्रकृति और सार से उत्पन्न होती हैं। वे इसी प्रकार के लोग हैं—निहायत ही कपटी इंसान—और वे बदल नहीं सकते। ऐसे लोगों को सत्य स्वीकारने से इनकार करते देखना कुछ लोगों को अकल्पनीय लग सकता है, और वे इसे समझ नहीं पाते। वास्तव में, ऐसे लोगों में सामान्य मानवता का अभाव होता है और उनकी अंतरात्मा काम नहीं करती है। इसके अलावा, उनमें सामान्य मानवता की भावना का अभाव होता है। सत्य और न्याय के वचनों को सुनकर, सामान्य मानवता और समझ वाला व्यक्ति कम-से-कम आत्म-चिंतन करेगा और सच्चा पश्चात्ताप करेगा, लेकिन ऐसा व्यक्ति सच्चे मार्ग को सुनने के बाद कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाता है। परमेश्वर में अपने बरसों के विश्वास में जरा सा भी बदले बिना वह अभी भी शैतानी फलसफों के अनुसार जीने पर जोर देता है। ऐसे व्यक्ति में सामान्य मानवता की भावना का अभाव होता है, और ऐसे व्यक्ति का बचाया जाना कठिन है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है

जब लोग ईमानदार होने का अनुभव करते हैं, तो कई व्यावहारिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। कभी-कभी वे बिना सोचे-समझे बोल देते हैं, वे क्षण भर के लिए चूक कर बैठते हैं और झूठ बोल देते हैं, क्योंकि वे गलत इरादे या उद्देश्य, या अभिमान और गर्व से संचालित होते हैं, और नतीजतन, उन्हें इसे छिपाने के लिए ज्यादा से ज्यादा झूठ बोलना पड़ता है। अंत में उन्हें अपने दिल में सहजता महसूस नहीं होती, लेकिन वे वो झूठ वापस नहीं ले पाते, उनमें अपनी गलतियाँ सुधारने का, यह स्वीकारने का साहस नहीं होता कि उन्होंने झूठ बोले थे, और इस तरह उनकी गलतियाँ लगातार होती जाती हैं। इसके बाद हमेशा ऐसा होता है जैसे उनका दिल किसी चट्टान से दबा जा रहा हो; वे हमेशा अपना भेद खोलने, गलती स्वीकारने और पश्चात्ताप करने का अवसर ढूँढ़ना चाहते हैं, लेकिन वे इसे कभी अभ्यास में नहीं लाते। अंततः वे इस पर विचार कर मन ही मन कहते हैं, “मैं जब भविष्य में अपना कर्तव्य निभाऊँगा तो इसकी भरपाई कर दूँगा।” वे हमेशा कहते हैं कि वे इसकी भरपाई कर देंगे, लेकिन कभी करते नहीं। यह झूठ बोलने के बाद माफी माँगने जितना आसान नहीं है—क्या तुम झूठ बोलने और धोखे में शामिल होने के नुकसान और परिणामों की भरपाई कर सकते हो? अगर अत्यधिक आत्म-घृणा के बीच तुम पश्चात्ताप का अभ्यास करने में सक्षम रहते हो और फिर कभी उस तरह की चीज नहीं करते, तो तुम्हें परमेश्वर की सहनशीलता और दया प्राप्त हो सकती है। अगर तुम मीठी बातें बोलते हो और कहते हो कि तुम भविष्य में अपने झूठ की भरपाई कर दोगे, लेकिन वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करते, और बाद में झूठ बोलना और धोखा देना जारी रखते हो, तो तुम पश्चात्ताप करने से इनकार करने में बेहद जिद्दी हो, और तुम्हें निश्चित रूप से बहिष्कृत कर दिया जाएगा। इसे उन लोगों को पहचानना चाहिए, जिनके पास जमीर और सूझ-बूझ है। झूठ बोलने और धोखे में शामिल होने के बाद सिर्फ उन्हें सुधारने के बारे में सोचना ही पर्याप्त नहीं है; सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें सच में पश्चात्ताप करना चाहिए। अगर तुम ईमानदार होना चाहते हो, तो तुम्हें झूठ बोलने और धोखा देने की समस्या का समाधान करना चाहिए। तुम्हें सच बोलना चाहिए और व्यावहारिक चीजें करनी चाहिए। कभी-कभी सच बोलने के परिणामस्वरूप तुम्हें अनादर झेलना पड़ेगा और तुम्हारी काट-छाँट की जाएगी, लेकिन तुमने सत्य का अभ्यास किया होगा, और उस एक घटना में परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसे संतुष्ट करना उपयोगी होगा, और यह ऐसी चीज होगी जो तुम्हें आराम देगी। हर हाल में तुम अंततः ईमानदार होने का अभ्यास करने में सक्षम हो जाओगे, तुम अंततः अपना बचाव करने या खुद को निर्दोष साबित करने की कोशिश किए बिना अपने दिल की बात कहने में सक्षम हो जाओगे, और यही सच्चा विकास है। चाहे तुम्हारी काट-छाँट की जाए या तुम्हें बदला जाए, तुम अपने दिल में दृढ़ता महसूस करोगे, क्योंकि तुमने झूठ नहीं बोला; तुम महसूस करोगे कि चूँकि तुमने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया, इसलिए तुम्हारी काट-छाँट होना और तुम्हारा इसकी जिम्मेदारी लेना सही था। यह एक सकारात्मक मानसिक अवस्था है। लेकिन अगर तुम धोखे में शामिल होते हो, तो क्या परिणाम होंगे? धोखे में शामिल होने के बाद तुम अपने दिल में कैसा महसूस करोगे? असहज; तुम्हें हमेशा महसूस होगा कि तुम्हारे दिल में अपराध और भ्रष्टता है, तुम हमेशा दोषी महसूस करोगे : “मैं झूठ कैसे बोल सका? मैं दोबारा धोखे में शामिल कैसे हो सका? मैं ऐसा क्यों हूँ?” तुम्हें लगेगा मानो तुम अपना सिर ऊँचा नहीं उठा सकते, मानो तुम इतने शर्मिंदा हो कि परमेश्वर का सामना नहीं कर सकते। विशेष रूप से जब लोगों को परमेश्वर का आशीष मिलता है, जब उन्हें परमेश्वर का अनुग्रह, दया और सहनशीलता प्राप्त होती है, तो उन्हें और भी ज्यादा महसूस होता है कि परमेश्वर को धोखा देना शर्मनाक है, और उनके दिलों में तिरस्कार का सशक्त बोध होता है, और शांति और आनंद कम महसूस होता है। यह किस समस्या को प्रदर्शित करता है? लोगों को धोखा देना एक भ्रष्ट स्वभाव का प्रकाशन है, यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करना और उसका विरोध करना है, इसलिए यह तुम्हें पीड़ा पहुँचाएगा। जब तुम झूठ बोलते और धोखा देते हो, तो तुम्हें लग सकता है कि तुमने बहुत चतुराई और चालाकी से बात की है, और तुमने अपने धोखे का कोई छोटा-मोटा सुराग भी नहीं छोड़ा—लेकिन बाद में तुम्हें तिरस्कार और दोषारोपण का बोध होगा, जो जीवन भर तुम्हारा पीछा कर सकता है। अगर तुम इरादतन और जानबूझकर झूठ बोलते और धोखा देते हो, और एक दिन तुम्हें इसकी गंभीरता का एहसास होता है, तो यह चाकू की तरह तुम्हारे दिल को बेध देगा, और तुम हमेशा गलती सुधारने का मौका ढूँढ़ोगे। और तुम्हें यही करना चाहिए, बशर्ते तुम्हारे पास जमीर न हो और तुमने कभी अपने जमीर के अनुसार जीवन न जिया हो, और तुममें कोई मानवता और कोई चरित्र या गरिमा न हो। अगर तुममें थोड़ा चरित्र और गरिमा है, और थोड़ी जमीर की जागरूकता है, तो जब तुम्हें एहसास होगा कि तुम झूठ बोल रहे हो और धोखा देने में संलग्न हो, तो तुम्हें अपना यह व्यवहार शर्मनाक, अपमानजनक और ओछा लगेगा; तुम खुद से घृणा करोगे और खुद को तुच्छ समझोगे, और झूठ और धोखे का मार्ग छोड़ दोगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है

एक ईमानदार व्यक्ति होने की कुंजी है अपनी मंशाओं, अपने इरादों और अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करना। यही झूठ बोलने की समस्या को जड़ से हल करने का एकमात्र तरीका है। अपने निजी लक्ष्य हासिल करना यानी व्यक्तिगत रूप से लाभान्वित होना, किसी स्थिति का फायदा उठाना, खुद को अच्छा दिखाना, या दूसरों की स्वीकृति पाना—ये झूठ बोलते वक्त लोगों के इरादे और लक्ष्य होते हैं। इस प्रकार से झूठ बोलना भ्रष्ट स्वभाव दर्शाता है, और झूठ बोलने को लेकर तुम्हें ऐसी समझ की जरूरत है। तो इस भ्रष्ट स्वभाव को कैसे हल करना चाहिए? इन सबका दारोमदार इस बात पर है कि तुम सत्य से प्रेम करते हो या नहीं। अगर तुम सत्य को स्वीकार सकते हो और अपनी वकालत किए बिना बोल सकते हो; अगर तुम अपने हितों पर ध्यान देना छोड़कर कलीसिया के कार्य, परमेश्वर की इच्छा और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों का विचार कर सकते हो, तो तुम झूठ बोलना छोड़ दोगे। तुम सच्चाई और साफगोई से बोल पाओगे। इस आध्यात्मिक कद के बिना तुम सच्चाई से नहीं बोल पाओगे, जिससे यह साबित होगा कि तुम्हारे आध्यात्मिक कद में कमी है, और तुम सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो। इसलिए एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए सत्य की समझ और आध्यात्मिक कद में बढ़ने की प्रक्रिया की जरूरत होती है। जब हम इसे इस रूप में देखते हैं, तो आठ-दस साल के अनुभव के बिना ईमानदार व्यक्ति होना असंभव लगता है। किसी को जीवन में बढ़ने की प्रक्रिया, सत्य को समझने और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया में इतना समय लगाना चाहिए। शायद कुछ लोग यह पूछें : “झूठ बोलने की समस्या का हल और ईमानदार व्यक्ति बनना क्या सचमुच इतना कठिन हो सकता है?” यह इस पर निर्भर करता है कि तुम किसकी बात कर रहे हो। अगर वह सत्य से प्रेम करने वाला है, तो वह कुछ मामलों में झूठ बोलना छोड़ पाएगा। लेकिन अगर वह ऐसा है जो सत्य से प्रेम नहीं करता, तो उसके लिए झूठ बोलना छोड़ना और ज्यादा मुश्किल हो जाएगा।

ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए खुद को प्रशिक्षित करना मुख्य रूप से झूठ बोलने की समस्या को हल करने और साथ ही अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने का मामला है। इसे करने में एक अहम अभ्यास जुड़ा होता है : जब तुम्हें यह एहसास हो जाए कि तुमने किसी से झूठ बोला है, उसके साथ चाल चली है, तो तुम्हें उनके सामने पूरी तरह खुल कर माफी माँग लेनी चाहिए। झूठ बोलने की समस्या हल करने के लिए यह अभ्यास बहुत लाभकारी है। मिसाल के तौर पर, अगर तुमने किसी के साथ चाल चली या तुमने उससे जो बातें कीं, उनमें थोड़ी मिलावट थी या तुम्हारे निजी इरादे थे, तो तुम्हें उससे मिलकर अपना विश्लेषण करना चाहिए। तुम्हें उसे बताना चाहिए : “मैंने तुम्हें जो बताया वह झूठ था, अपने गौरव की रक्षा के लिए था। यह कहने के बाद मैं परेशान हो गया था, इसलिए मैं अब तुमसे क्षमा माँग रहा हूँ। कृपया मुझे माफ कर दो।” उस व्यक्ति को यह बात बहुत ताजगी देने वाली लगेगी। वह सोचेगा कि ऐसा कोई कैसे हो सकता है जो झूठ बोलने के बाद उसके लिए माफी माँगे। ऐसे साहस की वे सचमुच सराहना करते हैं। ऐसा अभ्यास करने के बाद किसी व्यक्ति को क्या लाभ हासिल होते हैं? इसका प्रयोजन दूसरों की सराहना पाना नहीं, बल्कि खुद को झूठ बोलने से ज्यादा असरदार तरीके से संयमित करना और रोकना है। इसलिए झूठ बोलने के बाद तुम्हें इसके लिए माफी माँगने का अभ्यास करना चाहिए। तुम इस तरह लोगों के सामने अपना विश्लेषण करने, पूरी तरह खुल जाने, और माफी माँगने का जितना ज्यादा अभ्यास करोगे, नतीजे उतने ही बेहतर होंगे—और तुम्हारी झूठी बातों की मात्रा कम और कम होती जाएगी। ईमानदार बनने और खुद को झूठ बोलने से रोकने के लिए अपना विश्लेषण कर, खुद को पूरी तरह खोल कर पेश करने का अभ्यास करने के लिए साहस चाहिए, और किसी से झूठ बोलने के बाद उससे माफी माँगने के लिए और भी ज्यादा साहस चाहिए। अगर तुम लोग साल-दो साल--या शायद चार-पाँच साल—इसका अभ्यास करो, तो तुम्हें यकीनन स्पष्ट नतीजे मिलेंगे, और झूठ बोलने से छुटकारा पाना मुश्किल नहीं होगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास

अभी क्या तुम लोगों के पास ईमानदार होने का कोई मार्ग है? तुम्हें जीवन में अपने हर कथन और कार्य की जाँच करनी चाहिए, ताकि तुम ज्यादा झूठ और धोखे का पता लगा सको और अपने कपटी स्वभाव को पहचान सको। फिर तुम्हें यह देखना चाहिए कि ईमानदार लोग कैसे अभ्यास और अनुभव करते हैं, और कुछ सबक सीखने चाहिए। तुम्हें सभी चीजों में परमेश्वर की पड़ताल स्वीकारने का भी अभ्यास करना चाहिए, और परमेश्वर से प्रार्थना और उसके साथ संगति करने के लिए अक्सर परमेश्वर के सामने आना चाहिए। मान लो, तुमने अभी-अभी झूठ बोला है : तुम्हें तुरंत एहसास होता है कि “मैंने अभी जो कुछ बातें कही हैं, वे सटीक नहीं थीं—मुझे इसे तुरंत स्वीकार कर सही करना चाहिए, जिससे सब जान जाएँ कि मैंने अभी-अभी झूठ बोला है।” तुम खुद को फौरन ठीक कर लेते हो। अगर तुम हमेशा खुद को इस तरह से ठीक कर लेते हो, और अगर इस तरह से अभ्यास करना तुम्हारी आदत बन जाती है, तो जब भी तुम झूठ बोलोगे और उसे ठीक नहीं करोगे, तब तुम असहज महसूस करोगे, और परमेश्वर तुम पर नजर रखकर इसमें तुम्हारी मदद करेगा। कुछ समय तक इस तरह अभ्यास और अनुभव करने से तुम कम झूठ बोलना शुरू कर दोगे, तुम्हारे शब्दों में कम से कम अशुद्धियाँ होंगी, और तुम्हारे क्रियाकलाप कम से कम दागदार और अधिकाधिक शुद्ध होते जाएँगे—और इसमें तुम स्वच्छ कर दिए जाओगे। ईमानदार होने का यही मार्ग है। तुम्हें धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा करके बदलना चाहिए। तुम जितना ज्यादा बदलोगे, उतने ही बेहतर बनोगे; तुम जितना ज्यादा बदलोगे, तुम्हारे शब्द उतने ही ज्यादा ईमानदार हो जाएँगे, और तुम झूठ बोलना बंद कर दोगे—जो कि सही अवस्था है। सभी भ्रष्ट लोगों में एक जैसी समस्या होती है : वे सभी झूठ बोलने में सक्षम पैदा होते हैं, और उन्हें अपने अंतरतम विचार साझा करना या सच बोलना निहायत मुश्किल लगता है। अगर वे सत्य बताना भी चाहें, तो भी वे ऐसा करने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाते। सभी लोग मानते हैं कि ईमानदार होना मूढ़ता और मूर्खता है—वे सोचते हैं कि सिर्फ बेवकूफ ही साफ-साफ बोलते हैं, और अगर कोई व्यक्ति अन्य लोगों के साथ पूरी तरह से पारदर्शी है और हमेशा अपने मन की बात कहता है, तो उसे नुकसान होने की सबसे ज्यादा संभावना है, और दूसरे उसके साथ बातचीत करना नहीं चाहेंगे, बल्कि उसका तिरस्कार करेंगे। क्या तुम लोग ऐसे व्यक्ति का तिरस्कार करोगे? क्या तुम यह विचार रखते हो? (परमेश्वर में विश्वास करने से पहले मैं उनका तिरस्कार करता था, लेकिन अब मैं ऐसे लोगों की सराहना करता हूँ और सोचता हूँ कि सरल और ईमानदार जीवन जीना बेहतर है। इस तरह जीने से व्यक्ति अपने दिल पर कम बोझ डालता है। वरना किसी से झूठ बोलने के बाद मुझे उसे छिपाना पड़ता है, और अंत में मैं अपने लिए एक बड़े से बड़ा गड्ढा खोदता रह जाता हूँ, और अंततः झूठ उजागर हो जाएगा।) झूठ बोलना और कपट में संलग्न होना दोनों मूर्खतापूर्ण व्यवहार हैं और सिर्फ सच बोलना और दिल से बोलना ही ज्यादा बुद्धिमानी है। सभी लोगों को अब इस मुद्दे की समझ है—अगर कोई अब भी सोचता है कि झूठ बोलना और कपट में संलग्न होना काबिलियत और चतुर होने का संकेत है, तो वह बेहद मूर्ख, हठपूर्वक अज्ञानी है, और उसमें सत्य का लेश मात्र भी नहीं है। पहले ही बूढ़ा हो रहा व्यक्ति, जो अभी भी मानता है कि धोखेबाज लोग सबसे चतुर होते हैं और सभी ईमानदार लोग मूर्ख होते हैं, एक बेतुके किस्म का व्यक्ति है जो कुछ नहीं समझ सकता। सभी लोग अपना जीवन जीते हैं—कुछ लोग, जो रोजाना ईमानदार होने का अभ्यास करते हैं, खुश और तनावमुक्त रहते हैं, और अपने दिल में स्वतंत्र और मुक्त महसूस करते हैं। उनमें कोई कमी नहीं होती और वे ज्यादा आरामदेह जीवन जीते हैं। सभी को ऐसे लोगों के साथ बातचीत करने में आनंद आता है, और उन्हें वास्तव में सभी की ईर्ष्या का पात्र होना चाहिए—ऐसे लोग जीवन का अर्थ समझ गए हैं। कुछ मूर्ख लोग हैं, जो सोचते हैं : “वह आदमी हमेशा सच बोलता है और उसकी काट-छाँट की गई है, है न? खैर, वह इसी लायक था! मुझे देखो—मैं अपने इरादे सीने से लगाकर रखता हूँ, और मैं उनके बारे में बात नहीं करता या उन्हें प्रकट नहीं करता, इसलिए मेरी काट-छाँट नहीं की गई है, या मुझे कोई नुकसान नहीं हुआ है, या सबके सामने शर्मिंदा नहीं होना पड़ा है। यह अद्भुत है! जो लोग अपने इरादे छिपाते हैं, किसी से ईमानदारी से बात नहीं करते और दूसरों को यह जानने से रोकते हैं कि वे क्या सोच रहे हैं, वे श्रेष्ठ और अत्यधिक बुद्धिमान व्यक्ति हैं।” लेकिन सभी देख सकते हैं कि ये लोग सबसे धोखेबाज और धूर्त हैं; इनके आसपास के दूसरे लोग हमेशा सतर्क रहते हैं और इनसे दूरी बनाए रखते हैं। धोखेबाज लोगों से कोई दोस्ती नहीं करना चाहता। क्या ये तथ्य नहीं हैं? अगर कोई व्यक्ति निष्कपट है और अक्सर सच बोलता है, अगर वह दूसरों के सामने अपना दिल खोलकर रखने में सक्षम है और दूसरे लोगों के प्रति कोई हानिकारक इरादे नहीं रखता, तो हालाँकि वह कभी-कभी अज्ञानी लग सकता है और मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है, लेकिन उसे आम तौर पर एक अच्छा इंसान माना जाएगा और सभी उसके साथ बातचीत करने के बहुत इच्छुक होंगे। यह एक सामान्य रूप से स्वीकृत तथ्य है कि ईमानदार, अच्छे लोगों के साथ बातचीत करने पर लोगों को लाभ और सुरक्षा की भावना का आनंद मिलता है। परमेश्वर में विश्वास करने वाले जो लोग ईमानदार होते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, उनसे न सिर्फ कलीसिया में दूसरे लोग प्रेम करते हैं, बल्कि स्वयं परमेश्वर भी उनसे प्रेम करता है। जैसे ही वे सत्य प्राप्त करते हैं, वैसे ही उनके पास वास्तविक गवाही होती है और वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं—क्या यह उन्हें सभी लोगों में सबसे ज्यादा धन्य नहीं बनाता? जो लोग थोड़ा भी सत्य समझते हैं, वे इस मामले को स्पष्ट रूप से देखेंगे। अपने आचरण में तुम्हें एक ऐसा अच्छा और ईमानदार व्यक्ति बनने का प्रयास करना चाहिए, जिसके पास सत्य हो; इस तरह न सिर्फ दूसरे तुमसे प्रेम करेंगे, बल्कि तुम परमेश्वर का आशीष भी प्राप्त करोगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है

एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करने के लिए तुम्हें पहले परमेश्वर के सामने अपना दिल खोलना, और रोजाना प्रार्थना में उससे हृदयस्पर्शी शब्द कहना सीखना जरूरी है। उदाहरण के लिए, अगर तुमने आज कोई ऐसा झूठ बोला, जिस पर अन्य लोगों का ध्यान नहीं गया, लेकिन तुम में सबके सामने खुलकर बोलने का साहस नहीं था, तो कम से कम तुम्हें वे गलतियाँ जिनकी तुमने जाँच की है, और जिनका पता लगाया है, और वे झूठ जो तुमने बोले हैं, चिंतन के लिए परमेश्वर के सामने लाने चाहिए और कहना चाहिए : “हे परमेश्वर, मैंने अपने हितों की रक्षा के लिए फिर से झूठ बोला है, और मैं गलत था। अगर मैं दोबारा झूठ बोलूँ तो कृपया मुझे अनुशासित करना।” परमेश्वर ऐसे रवैये से प्रसन्न होता है और वह इसे याद रखेगा। झूठ बोलने के इस भ्रष्ट स्वभाव को हल करने के लिए तुम्हें कठोर प्रयास करने पड़ सकते हैं, लेकिन चिंता मत करो, परमेश्वर तुम्हारे साथ है। वह तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, और इस बार-बार आने वाली कठिनाई को दूर करने में तुम्हारी मदद करेगा, तुम्हें अपने झूठ कभी न स्वीकारने से लेकर अपने झूठ स्वीकारने और खुद को खुले तौर पर प्रकट करने में सक्षम होने का साहस देगा। तुम न सिर्फ अपने झूठ स्वीकारोगे, बल्कि खुलकर यह भी प्रकट कर पाओगे कि तुम झूठ क्यों बोलते हो, और तुम्हारे झूठ के पीछे क्या मंशा और उद्देश्य हैं। जब तुम में इस बाधा को भेदने, शैतान का पिंजरा और नियंत्रण तोड़ने का साहस होगा, और तुम उत्तरोत्तर उस बिंदु पर पहुँच जाओगे जहाँ तुम फिर झूठ नहीं बोलोगे, तो तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के मार्गदर्शन और आशीष के तहत प्रकाश में रहने लगोगे। जब तुम दैहिक बंधनों की बाधा तोड़ते हो, और सत्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम होते हो, खुलकर खुद को प्रकट करते हो, सार्वजनिक रूप से अपना रुख घोषित करते हो, और कोई संदेह नहीं रखते, तो तुम मुक्त और स्वतंत्र हो जाओगे। जब तुम इस तरह से रहोगे, तो न सिर्फ लोग तुम्हें पसंद करेंगे, बल्कि परमेश्वर भी प्रसन्न होगा। हालाँकि तुम अभी भी कभी-कभी गलतियाँ कर सकते और झूठ बोल सकते हो, और अभी भी कभी-कभी तुम्हारे व्यक्तिगत इरादे, गुप्त उद्देश्य या स्वार्थपूर्ण और घृणित व्यवहार और विचार हो सकते हैं, लेकिन तुम परमेश्वर के सामने अपने इरादे, वास्तविक अवस्था और भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हुए और उससे सत्य खोजते हुए उसकी जाँच स्वीकारने में सक्षम होगे। जब तुम सत्य समझ लोगे, तो तुम्हारे पास अभ्यास का मार्ग होगा। जब तुम्हारे अभ्यास का मार्ग सही होगा, और तुम सही दिशा में आगे बढ़ोगे, तो तुम्हारा भविष्य सुंदर और उज्ज्वल होगा। इस तरह तुम अपने दिल में शांति के साथ रहोगे, तुम्हारी आत्मा को पोषण मिलेगा, और तुम पूर्ण और संतुष्ट महसूस करोगे। अगर तुम देह-सुख के बंधनों से मुक्त नहीं हो सकते, अगर तुम लगातार भावनाओं, व्यक्तिगत हितों और शैतानी फलसफों के आगे बेबस होते हो, गुप्त तरीके से बोलते और कार्य करते हो, और हमेशा परछाइयों में छिपते हो, तो तुम शैतान की शक्ति के अधीन रहते हो। लेकिन अगर तुम सत्य समझते हो, देह-सुख के बंधनों से मुक्त हो जाते हो और सत्य का अभ्यास करते हो, तो तुम धीरे-धीरे मानवीय समानता प्राप्त कर लोगे। तुम अपने वचनों और कर्मों में स्पष्ट और सीधे होगे, और तुम अपनी राय, विचार और अपने द्वारा की गई गलतियाँ प्रकट करने में सक्षम होगे, और सभी को उन्हें स्पष्ट रूप से देखने दोगे। अंत में लोग तुम्हें एक पारदर्शी व्यक्ति के रूप में पहचानेंगे। पारदर्शी व्यक्ति कौन होता है? यह वह व्यक्ति होता है, जो असाधारण ईमानदारी से बोलता है, जिसकी बातें सभी सच मानते हैं। अगर वे बेइरादा झूठ बोलते या कुछ गलत कहते भी हैं, तो भी लोग यह जानते हुए कि यह बेइरादा था, उन्हें माफ कर पाते हैं। अगर उन्हें एहसास होता है कि उन्होंने झूठ बोला है या कुछ गलत कहा है, तो वे माफी माँगकर गलती सुधार लेते हैं। यह होता है पारदर्शी व्यक्ति। ऐसे व्यक्ति को सभी लोग पसंद करते हैं और उस पर भरोसा करते हैं। परमेश्वर और दूसरों का भरोसा हासिल करने के लिए तुम्हें इस स्तर तक पहुँचने की आवश्यकता है। यह कोई आसान काम नहीं है—यह गरिमा का वह उच्चतम स्तर है, जो किसी व्यक्ति में हो सकता है। ऐसे व्यक्ति में आत्मसम्मान होता है। अगर तुम दूसरे लोगों का भरोसा हासिल करने में असमर्थ रहते हो, तो तुम परमेश्वर का भरोसा अर्जित करने की उम्मीद कैसे रख सकते हो? ऐसे व्यक्ति हैं, जो अपमानजनक जीवन जीते हैं, लगातार झूठ गढ़ते रहते हैं, और कामों को अनमने तरीके से लेते हैं। उनमें जिम्मेदारी का जरा भी बोध नहीं होता, वे काट-छाँट किए जाने को नकारते हैं, वे हमेशा निरर्थक तर्कों का सहारा लेते हैं, और उनसे मिलने वाले सभी लोग उन्हें नापसंद करते हैं। वे बिना किसी शर्म-लिहाज के जीते हैं। क्या उन्हें सच में इंसान माना जा सकता है? जिन लोगों को दूसरे लोग अप्रिय और अविश्वसनीय मानते हैं, वे अपनी मानवता पूरी तरह से खो चुके हैं। अगर दूसरे लोग उन पर भरोसा नहीं कर सकते, तो क्या परमेश्वर उन पर भरोसा कर सकता है? अगर दूसरे उन्हें नापसंद करते हैं, तो क्या परमेश्वर उन्हें पसंद कर सकता है? परमेश्वर ऐसे लोगों को नापसंद करता है और उनसे बेइंतहा नफरत करता है, और उन्हें अनिवार्य रूप से त्याग दिया जाएगा। एक इंसान के रूप में व्यक्ति को ईमानदार होना चाहिए, और अपने वादे पूरे करने चाहिए। व्यक्ति कर्म चाहे दूसरों के लिए करे या परमेश्वर के लिए, उसे अपना वचन अवश्य निभाना चाहिए। जब व्यक्ति लोगों का विश्वास अर्जित कर लेता है और परमेश्वर को संतुष्ट और आश्वस्त कर सकता है, तो वह तब अपेक्षाकृत ईमानदार व्यक्ति होता है। अगर तुम अपने कार्यों में भरोसेमंद हो, तो न सिर्फ दूसरे तुम्हें पसंद करेंगे, बल्कि परमेश्वर भी तुम्हें अवश्य पसंद करेगा। एक ईमानदार व्यक्ति बनकर तुम परमेश्वर को खुश कर सकते हो और गरिमा के साथ जी सकते हो। इसलिए ईमानदारी व्यक्ति के आचरण का प्रारंभिक बिंदु होना चाहिए।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है

लोगों के झूठों के पीछे अक्सर इरादे होते हैं, लेकिन कुछ झूठों के पीछे कोई इरादा नहीं होता, न ही जान-बूझ कर उनकी योजना बनाई जाती है। बजाय इसके वे सहज ही निकल आते हैं। ऐसे झूठ आसानी से सुलझाए जा सकते हैं; जिन झूठों के पीछे इरादे होते हैं उन्हें सुलझाना मुश्किल होता है। ऐसा इसलिए कि ये इरादे व्यक्ति की प्रकृति से आते हैं और शैतान की चालबाजी दर्शाते हैं, और ये ऐसे इरादे हैं जो लोग जान-बूझ कर चुनते हैं। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह देह-सुख नहीं त्याग सकता—इसलिए उसे परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा करना चाहिए, और मसला सुलझाने के लिए सत्य खोजना चाहिए। लेकिन झूठ को एक ही बार में पूरी तरह नहीं सुलझाया जा सकता। ये कभी-कभी लौट आते हैं और कई-कई बार ऐसा होता है। यह सामान्य स्थिति है, और अगर तुम अपना बताया प्रत्येक झूठ सुलझाते जाओगे, तो वह दिन आएगा जब तुमने सभी झूठ सुलझा लिए होंगे। झूठ का समाधान एक लंबा युद्ध है : एक झूठी बात बाहर आने पर आत्मचिंतन करो और परमेश्वर से प्रार्थना करो। जब दूसरा झूठ बाहर आए, तो दोबारा आत्मचिंतन कर परमेश्वर से प्रार्थना करो। तुम परमेश्वर से जितनी ज्यादा प्रार्थना करोगे, अपने भ्रष्ट स्वभाव से उतनी ही घृणा करोगे, और सत्य पर अमल करने और उसे जीने को उतने ही लालायित होगे। इस तरह, तुम्हें झूठ का परित्याग करने की शक्ति मिलेगी। ऐसे अनुभव और अभ्यास के थोड़े समय के बाद तुम देख पाओगे कि तुम्हारे झूठ बहुत कम हो गए हैं, तुम ज्यादा आसानी से जी रहे हो, और अब तुम्हें झूठ बोलने या अपने झूठ छिपाने की जरूरत नहीं है। हालाँकि तुम शायद हर दिन ज्यादा न बोलो, मगर तुम्हारा हर वाक्य तुम्हारे दिल से आएगा और सच्चा होगा, झूठ बहुत कम होंगे। इस तरह जीना कैसा लगेगा? क्या यह स्वतंत्र और मुक्त करनेवाला नहीं होगा? तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव तुम पर शासन नहीं करेगा, तुम उसके बंधन में नहीं रहोगे, और कम-से-कम तुम ईमानदार इंसान बनने के परिणाम देखना शुरू कर दोगे। बेशक विशेष हालात का सामना होने पर तुम शायद कोई छोटा झूठ बोल दो। ऐसे मौके भी आ सकते हैं जब किसी खतरे या मुसीबत से तुम्हारा सामना हो जाए, या तुम अपनी सुरक्षा बनाए रखना चाहो, तब झूठ बोलने से बचा नहीं जा सकता। फिर भी तुम्हें उस पर चिंतन कर उसे समझना चाहिए और समस्या को दूर करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर कहना चाहिए : “मुझमें अभी भी झूठ और चालबाजी हैं। परमेश्वर मुझे सदा के लिए मेरे भ्रष्ट स्वभाव से बचा ले।” जब कोई जान-बूझ कर बुद्धि का प्रयोग करता है, तो यह भ्रष्टता का खुलासा नहीं माना जाता। ईमानदार बनने के लिए इंसान को इसका अनुभव करना पड़ता है। इस तरह तुम्हारे झूठ और भी कम हो जाएँगे। आज तुम दस झूठ बोलते हो, कल शायद नौ बोलो, और परसों आठ। बाद में, तुम सिर्फ दो-तीन ही बोलोगे। तुम ज्यादा-से-ज्यादा सत्य बोलोगे, और ईमानदार बनने का तुम्हारा अभ्यास परमेश्वर की इच्छा, उसकी अपेक्षाओं और मानकों के और ज्यादा करीब पहुँच जाएगा, और यह कितना अच्छा होगा! ईमानदार होने का अभ्यास करने के लिए तुम्हारे पास एक पथ और एक लक्ष्य होना चाहिए। सबसे पहले, झूठ बोलने की समस्या को दूर करो। तुम्हें अपने अपने झूठ बोलने के पीछे के सार को जानना चाहिए। तुम्हें यह भी विश्लेषण करना चाहिए कि कौन-से इरादे और मंशाएँ तुम्हें ये झूठ बोलने को प्रेरित करती हैं, तुम्हारे भीतर ऐसे इरादे क्यों हैं, और उनका सार क्या है। जब तुम इन सभी मसलों का स्पष्टीकरण कर लोगे, तो तुम झूठ बोलने की समस्या को अच्छी तरह समझ चुके होगे, और कोई घटना होने पर तुम्हारे पास अभ्यास के सिद्धांत होंगे। अगर तुम ऐसे अभ्यास और अनुभव के साथ आगे बढ़ोगे, तो यकीनन तुम्हें परिणाम मिलेंगे। एक दिन तुम कहोगे : “ईमानदार होना आसान है। धोखेबाज होना बहुत थकाऊ है! मैं अब धोखेबाज इंसान नहीं रहना चाहता, मुझे हमेशा सोचना पड़ता है कि कौन-सा झूठ बोलूँ और अपने झूठ कैसे छिपाऊँ। यह एक मानसिक रोगी होने की तरह है, जो विरोधाभासी बातें करता है, ऐसा जो ‘इंसान’ कहने लायक नहीं है! ऐसा जीवन बहुत थकाऊ है, और अब मैं उस तरह नहीं जीना चाहता!” तब तुम्हें सचमुच ईमानदार होने की आशा होगी, और इससे साबित होगा कि तुम ईमानदार बनने की ओर आगे बढ़ रहे हो। यह एक नई तोड़ है। बेशक तुममें से कुछ लोग होंगे जो अभ्यास शुरू करते समय ईमानदार बातें कहने और खुद को खोल कर पेश करने के बाद अपमानित महसूस करेंगे। तुम्हारा चेहरा लाल हो जाएगा, तुम शर्मिंदा महसूस करोगे, लोगों की हँसी से डरोगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? तब भी तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे शक्ति देने की विनती करनी चाहिए। तुम कहो : “हे परमेश्वर, मैं ईमानदार बनाना चाहता हूँ, लेकिन मुझे डर है कि मेरे सत्य बोलने पर लोग मुझ पर हँसेंगे। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरे शैतानी स्वभाव के बंधन से बाहर निकालो; मुझे स्वतंत्र और मुक्त होकर तुम्हारे वचनों के अनुसार जीने दो।” जब तुम इस तरह प्रार्थना करोगे, तो तुम्हारे दिल में और ज्यादा उजाला हो जाएगा, और तुम खुद से कहोगे : “इस पर अमल करना अच्छा है। आज मैंने सत्य पर अमल किया है। आखिरकार, अब मैं ईमानदार इंसान बन गया हूँ।” जब तुम इस तरह प्रार्थना करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। वह तुम्हारे हृदय में कार्य करेगा, तुम्हें प्रेरित करेगा, तुम्हें गुण जानने देगा कि ईमानदार बन कर कैसा महसूस होता है। सत्य को इस तरह अमल में लाना चाहिए। बिल्कुल शुरुआत में तुम्हारे सामने कोई पथ नहीं होगा, लेकिन सत्य को खोजने से तुम्हें पथ मिल जाएगा। जब लोग सत्य को खोजना शुरू करते हैं, तो जरूरी नहीं कि उनमें आस्था हो। पथ न होने से लोगों को बड़ी मुश्किल होती है, लेकिन जब एक बार वे सत्य को समझ लेते हैं, और उनके सामने अभ्यास का पथ होता है तो उनके दिलों को उसमें आनंद मिलता है। अगर वे सत्य पर अमल कर पाएँ, सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाएँ, तो उनके दिलों को आराम मिलेगा, उन्हें स्वतंत्रता और मुक्ति हासिल होगी।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास

अंततः ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करने का सबसे सरल तरीका बस यही है कि चीजों को वैसा ही बताया जाए जैसी वे हैं, ईमानदार बात की जाए और तथ्यों के अनुसार बोला जाए। जैसा प्रभु यीशु ने कहा था, “परन्तु तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो” (मत्ती 5:37)। ईमानदार व्यक्ति होने के लिए इस सिद्धांत के अनुसार अभ्यास करना जरूरी है—कुछ साल यह अभ्यास करने के बाद तुम्हें नतीजे जरूर दिखेंगे। अभी तुम ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास किस तरह करते हो? (मैं जो कहता हूँ उसमें घालमेल नहीं करता और दूसरों को चकमा भी नहीं देता।) “घालमेल न करने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि तुम्हारी कही बातों में झूठ या कोई व्यक्तिगत इरादा या उद्देश्य नहीं होता है। अगर तुम अपने मन में चालबाजी या व्यक्तिगत इरादे और उद्देश्य पालते हो तो फिर तुमसे स्वाभाविक रूप से झूठ छलकेगा। अगर तुम्हारे मन में कोई चालबाजी या व्यक्तिगत इरादे या उद्देश्य नहीं हैं, तो तुम जो कहोगे वह खरा होगा और उसमें झूठ नहीं होगा—इस तरह तुम्हारी बातें होंगी : “‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’।” पहले अपने मन को शुद्ध करना सबसे महत्वपूर्ण है। एक बार किसी का मन शुद्ध हो गया तो उसका अहंकार और कपट दूर हो जाएगा। ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए इन मिलावटों को दूर करना ही होगा। ऐसा कर चुकने के बाद ईमानदार व्यक्ति बनना आसान हो जाएगा। क्या ईमानदार व्यक्ति बनना जटिल है? नहीं, यह जटिल नहीं है। तुम्हारी आंतरिक दशा चाहे जैसी हो या तुममें चाहे जैसा भ्रष्ट स्वभाव हो, तुम्हें ईमानदार व्यक्ति होने के सत्य का अभ्यास करना चाहिए। तुम्हें सबसे पहले झूठ बोलने की समस्या दूर करनी होगी—यह सबसे महत्वपूर्ण है। सबसे पहले, बोलचाल में, जो तुम्हारे मन में है वह कहने का अभ्यास करना चाहिए, सच्चे शब्द बोलने चाहिए, जैसा है वैसा ही कहना चाहिए, और झूठ बोलने से पूरी तरह बचना चाहिए; तुम्हें ऐसे शब्द भी जुबान पर नहीं लाने चाहिए जो मिलावटी हों, और यह पक्का कर लेना चाहिए कि तुम दिन भर जो कुछ बोलो, वह सच्चाई युक्त और ईमानदार हो। ऐसा करके तुम सत्य का अभ्यास और ईमानदार होने का अभ्यास कर रहे होते हो। अगर तुम यह देखते हो कि तुम्हारी जुबान से झूठ या मिलावटी शब्द निकल रहे हैं तो फौरन आत्म-चिंतन करके यह जानो और विश्लेषण करो कि तुम झूठ क्यों बोलते हो और कौन-सी चीज तुम्हें झूठ बोलने के लिए उकसाती है। उसके बाद परमेश्वर के वचनों के आधार पर इस बुनियादी और महत्वपूर्ण समस्या का विश्लेषण करो। एक बार तुम अपने झूठ के मूल कारणों का स्पष्ट ज्ञान हासिल कर लेते हो तो तुम अपनी कथनी-करनी में इस शैतानी स्वभाव के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो जाओगे। ऐसी ही स्थितियाँ पेश आने पर तुम फिर कभी झूठ का सहारा नहीं लोगे, तथ्यों के अनुसार बोल सकोगे और भ्रामक बातें नहीं करोगे। इस तरह तुम्हारी आत्मा मुक्त और स्वतंत्र हो जाएगी और तुम परमेश्वर के समक्ष रहने में सक्षम रहोगे। अगर तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में सक्षम हो तो तुम प्रकाश में जी रहे हो। लेकिन, अगर तुम निरंतर छल-कपट और प्रपंच में लगे रहते हो, हमेशा चोरों की तरह अंधेरे कोनों में छिपे फिरते हो, और अपने कार्य गुपचुप संचालित करते हो तो फिर तुममें परमेश्वर के सामने रहने की हिम्मत नहीं होगी। चूँकि तुम्हारे गुप्त इरादे होते हैं, तुम हमेशा अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए दूसरों को चकमा देना चाहते हो, और अपने मन में बहुत सारी शर्मनाक और अकथनीय चीजें पालते हो, इसलिए तुम लगातार उन्हें लुकाने-छिपाने, आवरण पहनाकर उन्हें ढकने की कोशिश करते हो, लेकिन तुम ये चीजें हमेशा छिपाकर नहीं रख सकते। देर-सबेर वे प्रकाश में आ जाएंगी। जिस व्यक्ति के गुप्त उद्देश्य होते हैं, वह रोशनी में रहने में असमर्थ होता है। अगर वह आत्म-चिंतन, आत्म-विश्लेषण और खुद को अनावृत करने का अभ्यास नहीं करता तो वह अपने भ्रष्ट स्वभाव के नियंत्रण और बंधन से मुक्त होने में असमर्थ रहेगा। वह पापमय जीवन की कैद में फँसा रहेगा और खुद को छुड़ा नहीं पाएगा। अंततः तुम्हें किसी भी स्थिति में झूठ नहीं बोलना चाहिए। अगर तुम यह जानते हो कि झूठ बोलना गलत है और सत्य के अनुरूप नहीं है, फिर भी तुम झूठ बोलने और दूसरों को चकमा देने में उद्धत रहते हो, यहाँ तक कि लोगों को गुमराह करने के लिए तुम तथ्यों को और स्थिति की वास्तविकता को छिपाने के लिए झूठ गढ़ते हो तो फिर तुम जानबूझकर गलत काम करने में शामिल हो। ऐसा व्यक्ति उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने का मार्ग

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प्रश्न 1: सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है," तो मुझे वह याद आया जो प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)। हम पहले से ही जानते हैं कि प्रभु यीशु जीवन के सजीव जल का स्रोत हैं, और अनन्‍त जीवन का मार्ग हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और प्रभु यीशु समान स्रोत हों? क्या उनके कार्य और वचन दोनों पवित्र आत्मा के कार्य और वचन हैं? क्या उनका कार्य एक ही परमेश्‍वर करते हैं?

उत्तर: दोनों बार जब परमेश्‍वर ने देह धारण की तो अपने कार्य में, उन्होंने यह गवाही दी कि वे सत्‍य, मार्ग, जीवन और अनन्‍त जीवन के मार्ग हैं।...

प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

उत्तर: हम परमेश्वर की वाणी कैसे सुनते हैं? हममें कितने भी गुण हों, हमें कितना भी अनुभव हो, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। प्रभु यीशु में विश्वास...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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