19. अहंकार और दंभ की समस्या का समाधान कैसे करें?
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
चूँकि मानवजाति शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दी गई थी, इसलिए उनकी प्रकृति, जो उनका सार भी है, बदल गई है। तो फिर मनुष्य का सार क्या है? अब मैं जिस बारे में बात कर रहा हूँ, वह सभी लोगों का सार और प्रकृति है, और किसी एक व्यक्ति की ओर निर्देशित नहीं है। शैतान द्वारा मनुष्यों को भ्रष्ट किए जाने के बाद से उनकी प्रकृति बिगड़नी शुरू हो गई है और उन्होंने धीरे-धीरे सामान्य लोगों में मौजूद समझ को खो दिया है। मनुष्य होते हुए भी लोगों ने मनुष्य की तरह बरताव करना बंद कर दिया है; बल्कि, वे जंगली आकांक्षाओं से भरे हुए हैं; वे मनुष्य की स्थिति पार कर चुके हैं, फिर भी, वे और भी ऊँचे जाने की लालसा रखते हैं। यह “और भी ऊँचे” क्या दर्शाता है? वे परमेश्वर से बढ़कर होना चाहते हैं, स्वर्ग से बढ़कर होना चाहते हैं, और बाकी सभी से बढ़कर होना चाहते हैं। लोगों के इस तरह के स्वभाव दिखाने का मूल कारण क्या है? कुल मिलाकर यही नतीजा निकलता है कि मनुष्य की प्रकृति बहुत अधिक अहंकारी है। ज्यादातर लोग “अहंकार” शब्द का अर्थ समझते हैं। यह एक निंदात्मक शब्द है। अगर कोई अहंकार दिखाता है, तो दूसरे सोचते हैं कि वह अच्छा इंसान नहीं है। जब भी कोई अविश्वसनीय रूप से अहंकारी होता है, तो दूसरे हमेशा मान लेते हैं कि वह कुकर्मी है। कोई भी इस शब्द को अपने साथ जोड़ा जाना पसंद नहीं करता। पर तथ्य यह है कि हर कोई अहंकारी है, और सभी भ्रष्ट मनुष्यों का यही सार है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं जरा भी अहंकारी नहीं हूँ। मैंने कभी भी महादूत नहीं बनना चाहा, न ही मैंने कभी परमेश्वर से या दूसरों से ऊंचा उठना चाहा है। मैं हमेशा एक ऐसा व्यक्ति रहा हूँ जो शिष्ट और कर्तव्यनिष्ठ है।” कोई जरूरी नहीं है; ये शब्द गलत हैं। जब लोगों की प्रकृति और सार अहंकारी हो जाते हैं, तो वे परमेश्वर की अवज्ञा और विरोध करते हैं, उसके वचनों पर ध्यान नहीं देते, उसके बारे में धारणाएं उत्पन्न करते हैं, उसे धोखा देने वाले, अपना उत्कर्ष करने वाले और अपनी ही गवाही देने वाले काम करते हैं। तुम्हारा कहना है कि तुम अहंकारी नहीं हो, लेकिन मान लो कि तुम्हें कलीसिया चलाने और उसकी अगुआई करने की जिम्मेदारी दे दी जाती है; मान लो कि मैंने तुम्हारे साथ काट-छाँट नहीं की, और परमेश्वर के परिवार के किसी सदस्य ने तुम्हारी आलोचना या सहायता नहीं की है : कुछ समय तक उसकी अगुआई करने के बाद, तुम लोगों को अपने पैरों पर गिरा लोगे और उनसे अपने सामने इस हद तक समर्पण करवा लोगे कि वे तुम्हारी प्रशंसा और आदर करने लगें। और तुम ऐसा क्यों करोगे? यह तुम्हारी प्रकृति द्वारा निर्धारित होगा; यह स्वाभाविक प्रकटीकरण के अलावा और कुछ नहीं होगा। तुम्हें इसे दूसरों से सीखने की आवश्यकता नहीं है, और न ही दूसरों को तुम्हें यह सिखाने की आवश्यकता है। तुम्हें दूसरों की आवश्यकता नहीं है कि वे तुम्हें निर्देश दें या उसे करने के लिए तुम्हें विवश करें; इस तरह की स्थिति स्वाभाविक रूप से आती है। तुम जो भी करते हो, वह इसलिए होता है कि लोग तुम्हारी बड़ाई करें, तुम्हारी प्रशंसा करें, तुम्हारी आराधना करें, तुम्हारे आगे समर्पण करें और हर बात में तुम्हारी सुनें। जब तुम अगुआ बनने की कोशिश करते हो, तो स्वाभाविक रूप से इस तरह की स्थिति पैदा होती है और इसे बदला नहीं जा सकता। यह स्थिति कैसे पैदा होती है? ये मनुष्य की अहंकारी प्रकृति से निर्धारित होती है। अहंकार की अभिव्यक्ति परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध है। जब लोग अहंकारी, दंभी और आत्मतुष्ट होते हैं, तो उनकी अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने और अपने तरीके से चीज़ों को करने की प्रवृत्ति होती है। वे दूसरों को भी अपनी ओर खींचकर उन्हें अपने आलिंगन में ले लेते हैं। लोगों का ऐसी अहंकारी हरकतें करने में सक्षम होना साबित करता है कि उनकी अहंकारी प्रकृति का सार शैतान का है; प्रधान दूत का है। जब उनका अहंकार और दंभ एक निश्चित स्तर पर पहुँच जाता है, तो उनके दिलों में परमेश्वर के लिए स्थान नहीं रहता, और परमेश्वर अलग रख दिया जाता है। तब वे परमेश्वर बनना चाहते हैं, लोगों से अपना आज्ञापालन करवाते हैं और प्रधान दूत बन जाते हैं। यदि तुम्हारी प्रकृति ऐसी ही शैतानी अहंकारी है, तो तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होगा। भले ही तुम परमेश्वर पर विश्वास करो, परमेश्वर तुम्हें नहीं पहचानेगा, वह तुम्हें कुकर्मी समझेगा और बाहर निकाल देगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है
कई प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव हैं जो शैतान के स्वभाव में शामिल हैं, लेकिन जो सबसे स्पष्ट और सबसे अलग है, वह एक अहंकारी स्वभाव है। अहंकार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की जड़ है। लोग जितने ज्यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का प्रतिरोध किए जाने की संभावना होती है। यह समस्या कितनी गम्भीर है? अहंकारी स्वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं और उनके दिल में परमेश्वर का कोई भय नहीं होता। भले ही लोग परमेश्वर में विश्वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्वर क़तई नहीं मानते। उन्हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्छ मसला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव उसको परमेश्वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्यक्ति हमेशा दूसरों पर नियंत्रण स्थापित करने व सत्ता के लिए परमेश्वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्त होता है। इस तरह के व्यक्ति के हृदय में परमेश्वर के प्रति तनिक भी भय नहीं होता, परमेश्वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे, जो इतने घमंडी होते हैं कि अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पित नहीं हो पाते, यहाँ तक कि बढ़-बढ़कर खुद के लिए गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं और उन्हें परमेश्वर का बिलकुल भी भय नहीं होता।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है
अंत के दिनों में न्याय और ताड़ना का कार्य मुख्य रूप से लोगों के अहंकारी स्वभाव पर निर्देशित है। अहंकार में बहुत-सी चीजें, बहुत सारे भ्रष्ट स्वभाव शामिल हैं; लोगों के अहंकारी स्वभाव को पूरी तरह से दूर करने के लिए न्याय और ताड़ना सीधे इस शब्द, “अहंकार” पर आती है। अंत में, लोग परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह नहीं करेंगे और न ही उसका विरोध करेंगे, इसलिए वे स्वयं के स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास नहीं करेंगे, न ही वे खुद की प्रशंसा करेंगे या अपनी गवाही देंगे, न ही वे नीच कार्य करेंगे, न ही वे परमेश्वर से असाधारण माँगें करेंगे—इस तरह, उन्होंने अपना अहंकारी स्वभाव त्याग दिया है। अहंकार की कई अभिव्यक्तियाँ होती हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि कोई व्यक्ति जो परमेश्वर में विश्वास करता है, उसकी कृपा की माँग करता है—तुम किस आधार पर इसकी मांग कर सकते हो? तुम शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए व्यक्ति हो, एक सृजित प्राणी हो; यह तथ्य कि तुम जीवित हो और सांस लेते हो, यह पहले से ही परमेश्वर की सबसे बड़ी कृपा है। तुम परमेश्वर ने पृथ्वी पर जो कुछ भी बनाया है उसका आनंद ले सकते हो। परमेश्वर ने तुम्हें काफी कुछ दिया है, तो तुम उससे और अधिक की माँग क्यों करते हो? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग कभी भी अपने भाग्य से संतुष्ट नहीं होते हैं। वे हमेशा सोचते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं, उनके पास और अधिक होना चाहिए, इसलिए वे हमेशा परमेश्वर से इसकी माँग करते हैं। यह उनके अहंकारी स्वभाव का परिचायक है। चाहे लोग अपने मुँह से न कहें, लेकिन जब वे पहली बार परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करते हैं, तो अपने दिलों में सोच रहे होते हैं, “मैं स्वर्ग जाना चाहता हूँ, नरक नहीं। मैं चाहता हूँ कि न केवल मैं, बल्कि मेरा पूरा परिवार आशीष पाए। मैं अच्छा भोजन खाना चाहता हूँ, अच्छे कपड़े पहनना चाहता हूँ, अच्छी चीजों का आनंद लेना चाहता हूँ। मुझे एक अच्छा परिवार, एक अच्छा पति, (या पत्नी) और अच्छे बच्चे चाहिए। अंतत: मैं राजा की तरह राज करना चाहता हूँ।” ये सब सिर्फ उनकी आवश्यकताओं और माँगों से जुड़ा है। उनका यह स्वभाव, ये बातें जो वे अपने दिलों में सोचते हैं, ये असाधारण इच्छाएँ—ये सब मनुष्य की अहंकारी प्रकृति की प्रतीक हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? बात आखिरकार लोगों की हैसियत पर आती है। मनुष्य एक सृजित प्राणी है, जो धूल से उत्पन्न हुआ है; परमेश्वर ने मिट्टी से मनुष्य को बनाया और उसमें जीवन का श्वास फूँका। मनुष्य की ऐसी निम्न हैसियत है, फिर भी लोग बहुत-सी इच्छाएं लेकर परमेश्वर के सामने आते हैं। मनुष्य की हैसियत इतनी निम्न है कि उसे अपना मुँह खोलकर परमेश्वर से कुछ नहीं माँगना चाहिए। तो लोगों को क्या करना चाहिए? उन्हें निंदा की परवाह न करते हुए कड़ी मेहनत करनी चाहिए, अपने कंधे पहिये पर रख देने चाहिए और खुशी से आज्ञापालन करना चाहिए। यह प्रसन्नता से विनम्रता को अपनाने का प्रश्न नहीं है—प्रसन्नता से विनम्रता मत अपनाओ; लोग इसी हैसियत के साथ पैदा होते हैं; उन्हें जन्मजात आज्ञाकारी और विनम्र होना चाहिए, क्योंकि उनकी हैसियत ही तुच्छ है, और इसलिए उन्हें परमेश्वर से चीजों की माँग नहीं करनी चाहिए, न ही परमेश्वर से असाधारण अपेक्षाएँ रखनी चाहिए। उनमें ऐसी चीजें नहीं मिलनी चाहिए। एक सरल उदाहरण देखो। किसी अमीर परिवार ने एक नौकर रखा। उस अमीर परिवार में इस नौकर की स्थिति विशेष रूप से निम्न थी, लेकिन फिर भी उसने घर के मालिक से कहा : “मैं आपके बेटे की टोपी पहनना चाहता हूँ, मैं वैसे चावल खाना चाहता हूँ जैसे आप खाते हैं, आपके कपड़े पहनना चाहता हूँ और आपके बिस्तर पर सोना चाहता हूँ। आप जो भी वस्तुएँ उपयोग करते हैं, चाहे वे सोने की हों या चाँदी की, मुझे वे चाहिए! मैं अपने काम में बहुत योगदान देता हूँ, और आपके घर में रहता हूँ, इसलिए मुझे वे चाहिए!” मालिक को उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? मालिक कहेगा : “तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम क्या हो, तुम्हारी भूमिका क्या है : तुम एक नौकर हो। मैं अपने बेटे को वह देता हूँ जो वह चाहता है, क्योंकि उसकी हैसियत वह है। तुम्हारी हैसियत, तुम्हारी पहचान क्या है? तुम ये चीजें माँगने के योग्य नहीं हो। तुम्हें जाकर अपना काम करना चाहिए, जाओ और अपनी हैसियत और पहचान के अनुसार अपने कर्तव्य पूरे करो।” क्या ऐसे व्यक्ति के पास कोई समझ है? परमेश्वर में विश्वास रखने वाले बहुत-से लोग ऐसे हैं जिनमें उतनी समझ नहीं है। परमेश्वर में विश्वास करने की शुरुआत से ही, उनके पास गुप्त उद्देश्य होते हैं, और आगे बढ़ते हुए, वे लगातार परमेश्वर से माँगें करते हैं : “जब मैं सुसमाचार फैलाता हूँ तो मैं चाहता हूँ कि पवित्र आत्मा का कार्य मेरा अनुसरण करे! जब मैं बुरे काम करता हूँ तो तुम्हें मुझे माफ और सहन भी करना होगा! अगर मैं बहुत काम करता हूँ, तो तुम्हें मुझे इनाम देना होगा!” संक्षेप में, लोग हमेशा परमेश्वर से चीजें चाहते हैं, वे हमेशा लालची रहते हैं। कुछ लोग जिन्होंने थोड़ा-सा काम किया है और किसी कलीसिया का अच्छी तरह से नेतृत्व किया है, वे सोचते हैं कि वे दूसरों से श्रेष्ठ हैं, और अक्सर ऐसी बातें फैलाते हैं : “परमेश्वर ने मुझे एक महत्वपूर्ण पद पर क्यों रखा है? वह बार-बार मेरा नाम क्यों लेता है? वह मुझसे बात क्यों करता रहता है? परमेश्वर मेरे बारे में ऊँची राय रखता है क्योंकि मेरे पास क्षमता है और मैं सामान्य लोगों से ऊपर हूँ। तुम लोगों को इस बात से भी ईर्ष्या हो रही है कि परमेश्वर मेरे साथ बेहतर व्यवहार करता है। तुम्हें किस बात से ईर्ष्या है? क्या तुम लोग देख नहीं सकते कि मैं कितना काम और त्याग करता हूँ? परमेश्वर ने मुझे जो भी अच्छी चीजें दी हैं, उनसे तुम लोगों को ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, क्योंकि मैं उनका हकदार हूँ। मैंने कई वर्षों तक काम किया है और बहुत कुछ सहा है। मैं श्रेय का पात्र हूँ और योग्य हूँ।” कुछ अन्य लोग भी हैं जो कहते हैं : “परमेश्वर ने मुझे सह-कार्यकर्ता बैठकों में शामिल होने और उसकी संगति सुनने की अनुमति दी। मेरे पास यह योग्यता है—क्या तुम लोगों के पास वह योग्यता है? पहली बात, मेरे पास उच्च क्षमता है, और मैं तुम्हारी तुलना में अधिक सत्य का अनुसरण करता हूँ। इसके अलावा, मैं खुद को तुम लोगों से अधिक खर्च करता हूँ और मैं कलीसिया का काम पूरा कर सकता हूँ—क्या तुम लोग वह कर सकते हो?” यह अहंकार है। लोगों के कर्तव्य-पालन और कार्यों के परिणाम अलग-अलग होते हैं। कुछ के परिणाम अच्छे होते हैं, जबकि कुछ के परिणाम खराब होते हैं। कुछ लोग अच्छी क्षमता के साथ पैदा होते हैं और सत्य की खोज करने में भी सक्षम होते हैं, इसलिए उनके कर्तव्यों के परिणामों में तेजी से सुधार होता है। यह उनकी अच्छी क्षमता के कारण है, जो परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है। परंतु कर्तव्यपालन से खराब परिणाम की समस्या का समाधान कैसे किया जाए? तुम्हें निरंतर सत्य की खोज करनी चाहिए और कड़ी मेहनत करनी चाहिए, तब तुम भी धीरे-धीरे अच्छे परिणाम प्राप्त कर सकते हो। जब तक तुम सत्य के लिए प्रयास करते रहते हो और अपनी क्षमताओं की सीमा तक परिणाम हासिल करते रहते हो, परमेश्वर इसे स्वीकार करेगा। लेकिन तुम्हारे कार्य के नतीजे चाहे अच्छे हों या नहीं, तुम्हें गलत विचार नहीं रखने चाहिए। ऐसा मत सोचो, “मैं परमेश्वर के बराबर होने के योग्य हूँ,” “परमेश्वर ने मुझे जो दिया है उसका आनंद लेने के मैं योग्य हूँ,” “मैं परमेश्वर से अपनी स्तुति करवाने के योग्य हूँ,” “मैं दूसरों का नेतृत्व करने के योग्य हूँ,” या “मैं दूसरों को व्याख्यान देने के योग्य हूँ।” मत कहो कि तुम योग्य हो। लोगों को ऐसे विचार नहीं रखने चाहिए। यदि तुम्हारे मन में ये विचार हैं, तो यह साबित करता है कि तुम अपनी सही जगह पर नहीं हो, और तुम्हारे पास वह बुनियादी समझ भी नहीं है जो एक इंसान के पास होनी चाहिए। तो तुम अपना अहंकारी स्वभाव कैसे त्याग सकते हो? तुम ऐसा नहीं कर सकते।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है
कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जाकर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है कि लोग उन्हें सुनें, उनकी आराधना करें और उनके चारों ओर घूमें। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के दिलों में उनकी एक जगह हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें। उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिलों में एक जगह रखना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें
कुछ लोग कहते हैं कि उनका स्वभाव भ्रष्ट नहीं है, वे अहंकारी नहीं हैं। ये कौन लोग हैं? ये नासमझ लोग हैं और यही लोग सबसे मूर्ख और अहंकारी भी हैं। वास्तव में, ये किसी भी अन्य व्यक्ति से अधिक अहंकारी और विद्रोही हैं; जो व्यक्ति जितना अधिक यह कहता है कि उसका स्वभाव भ्रष्ट नहीं है, वह उतना ही अधिक अहंकारी और दंभी होता है। अन्य लोग क्यों खुद को जान पाते हैं और परमेश्वर का न्याय स्वीकार कर पाते हैं, और तुम क्यों ऐसा नहीं कर पाते? क्या तुम कोई अपवाद हो? कोई संत हो? क्या तुम शून्य में रहते हो? तुम यह स्वीकार नहीं करते कि मानवजाति को शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है, सबका स्वभाव भ्रष्ट है। इसका मतलब है कि तुम सत्य बिलकुल नहीं समझते, और तुम सबसे अधिक विद्रोही, अज्ञानी और अहंकारी हो। तुम्हारे अनुसार दुनिया में अनेक अच्छे लोग हैं और बुरे लोग बहुत कम हैं—तो यह दुनिया अंधकार, गंदगी और भ्रष्टाचार से क्यों भरी है, इसमें इतना संघर्ष क्यों है? मनुष्यों की दुनिया में हर कोई एक-दूसरे से छीना-झपटी क्यों करता है? यहाँ तक कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले भी अपवाद नहीं हैं। लोग हमेशा एक-दूसरे से लड़ाई और संघर्ष कर रहे हैं। और यह संघर्ष कहाँ से उपजता है? यह उनकी भ्रष्ट प्रकृति का परिणाम है, निश्चित रूप से यह उनके भ्रष्ट स्वभावों का उद्गार है। जिन लोगों की प्रकृति भ्रष्ट होती है, वे अहंकार और विद्रोह का प्रदर्शन करते हैं; जो लोग शैतानी स्वभाव में रहते हैं वे लड़ाकू और युद्धप्रिय होते हैं। जो लोग लड़ाकू और युद्धप्रिय होते हैं वे सबसे अहंकारी होते हैं, वे किसी के भी प्रति समर्पण नहीं करते। ऐसा क्यों है कि लोग अक्सर अपने पापों को स्वीकार तो कर लेते हैं लेकिन पश्चाताप नहीं करते? ऐसा क्यों है कि वे परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन सत्य को व्यवहार में नहीं ला पाते? ऐसा क्यों है कि वे कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन उसके अनुरूप नहीं बन पाते? यह सब लोगों की अहंकारी प्रकृति के कारण होता है। मानवजाति ने हमेशा परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया है और उसका प्रतिरोध किया है, वह सत्य को स्वीकार करने के लिए पूरी तरह से अनिच्छुक रही है, और यहाँ तक कि उसने सत्य से नफरत की है और उसे अस्वीकार भी किया है। ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि मनुष्यों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत अधिक हैं, बल्कि इसलिए कि लोग परमेश्वर का बहुत उग्रता और बेरहमी से प्रतिरोध करते हैं, इस हद तक कि वे परमेश्वर को अपना दुश्मन बना लेते हैं और उसे सूली पर चढ़ा देते हैं। क्या ऐसी भ्रष्ट मानवजाति अत्यधिक उग्र, अहंकारी और अविवेकपूर्ण नहीं है? परमेश्वर बहुत सारे सत्य व्यक्त करता है, वह लोगों पर दया करता है और उन्हें बचाता है, और उनके पापों को क्षमा करता है—लेकिन मानवजाति सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करती है, वह हमेशा परमेश्वर की निंदा और प्रतिरोध करती है, और खुद को परमेश्वर का कट्टर विरोधी बना लेती है। अब, मानवता का परमेश्वर से संबंध किस स्तर पर है? मनुष्य परमेश्वर का शत्रु, उसका विरोधी बन गया है। परमेश्वर लोगों को उजागर करने, उनका न्याय करने और उन्हें बचाने के लिए सत्य व्यक्त करता है; लोग उसे स्वीकार नहीं करते या परमेश्वर पर कोई ध्यान नहीं देते। लोग वह नहीं करते जो परमेश्वर उनसे अपेक्षा करता है; इसके बजाय वे ऐसी चीजें करते हैं जिनसे वह नफरत और घृणा करता है। परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है, परन्तु लोग उसे दरकिनार कर देते हैं। परमेश्वर लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का न्याय करता है और उन्हें ताड़ना देता है, और वे न केवल सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं, बल्कि उसके साथ बहस करते हैं और उसके खिलाफ विद्रोह करते हैं। लोग कितने अहंकारी हैं? भ्रष्ट मानवजाति बेशर्मी से परमेश्वर को नकारती है और उसका प्रतिरोध करती है। भले ही वे परमेश्वर में विश्वास करते हों, पर वे हमेशा धन-दौलत, इनाम और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के पीछे भागते हैं; वे शासक बनना और सत्ता का उपयोग भी करना चाहते हैं। यह मनुष्य के अहंकार, उसके अत्यंत भ्रष्ट स्वभाव का उपयुक्त प्रतिमान है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है
कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर के घर में मैं परमेश्वर के अलावा किसी के प्रति समर्पित नहीं होता, क्योंकि सत्य सिर्फ परमेश्वर के पास है; लोगों के पास सत्य नहीं है, उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं, वे जो कुछ भी कहते हैं उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता, इसलिए मैं सिर्फ परमेश्वर के प्रति समर्पित होता हूँ।” क्या उनका यह कहना सही है? (नहीं।) क्यों नहीं? यह कैसा स्वभाव है? (अहंकारी और दंभी।) (शैतान और प्रधान दूत के स्वभाव।) यह एक अहंकारी स्वभाव है। हमेशा यह मत कहो कि यह शैतान और प्रधान दूत का स्वभाव है, बोलने का यह तरीका बहुत व्यापक और अस्पष्ट है। ... कुछ लोगों के पास कुछ कौशल, कुछ गुण, कुछ छोटी अभिरुचियाँ होती हैं, और उन्होंने कलीसिया के लिए कई कर्म किए होते हैं। ये लोग यही सोचते हैं, “परमेश्वर में तुम लोगों की आस्था में दिन भर किसी आध्यात्मिक व्यक्ति की तरह परमेश्वर के वचन पढ़ना, उन्हें कॉपी करना, लिखना, याद करना शामिल है। इसमें क्या रखा है? क्या तुम कुछ वास्तविक कर सकते हो? जब तुम कुछ नहीं करते, तो खुद को आध्यात्मिक कैसे कह सकते हो? तुम लोगों में जीवन नहीं है। मुझमें जीवन है, मैं जो कुछ भी करता हूँ, वास्तविक करता हूँ।” यह कौन-सा स्वभाव है? उनके पास कुछ विशेष कौशल होते हैं, कुछ गुण होते हैं, वे थोड़ा अच्छा कर सकते हैं, और वे इन चीजों को जीवन मान लेते हैं। नतीजतन, वे किसी का आज्ञापालन नहीं करते, वे किसी को उपदेश देने से नहीं डरते, वे सभी को हेय दृष्टि से देखते हैं—क्या यह अहंकार है? (हाँ।) यह अहंकार है। आम तौर पर लोग किन परिस्थितियों में अहंकार प्रकट करते हैं? (जब उनमें कुछ गुण या विशेष कौशल होते हैं, जब वे कुछ व्यावहारिक चीजें कर सकते हैं, जब उनके पास पूँजी होती है।) यह एक प्रकार की स्थिति होती है। तो क्या जिन लोगों में गुण या कोई विशेष कौशल नहीं होते, वे अहंकारी नहीं होते? (वे भी अहंकारी होते हैं।) जिस व्यक्ति के बारे में हमने अभी बात की है, वह अक्सर कहेगा, “मैं परमेश्वर के अलावा किसी का आज्ञापालन नहीं करता,” और यह सुनकर लोग अपने मन में सोचेंगे, “यह व्यक्ति सत्य के प्रति कितना आज्ञाकारी है, यह सत्य के अलावा किसी का आज्ञापालन नहीं करता, यह जो कहता है वह सही है!” वास्तव में, इन सही लगने वाले शब्दों के भीतर एक प्रकार का अहंकारी स्वभाव है : “मैं परमेश्वर के अलावा किसी का आज्ञापालन नहीं करता” का स्पष्ट अर्थ है कि वह किसी का आज्ञापालन नहीं करता। मैं तुमसे पूछता हूँ, क्या ऐसी बातें कहने वाले वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम हैं? वे कभी परमेश्वर का आज्ञापालन नहीं कर सकते। इस तरह की बातें कह सकने वाले लोग निस्संदेह सबसे ज्यादा अहंकारी होते हैं। बाहर से उनका कहा सही लगता है—पर वास्तव में, यह सबसे कपटपूर्ण तरीका है, जिससे अहंकारी स्वभाव अभिव्यक्त होता है। वे इन “परमेश्वर के अलावा” शब्दों का उपयोग यह साबित करने की कोशिश करने के लिए करते हैं कि वे तर्कसंगत हैं, लेकिन वास्तव में, यह सोना गाड़कर उसके ऊपर यह लिखने जैसा है कि “यहाँ कोई सोना नहीं गड़ा है।” क्या यह मूर्खता नहीं है? तुम क्या कहते हो, किस तरह का व्यक्ति सबसे अहंकारी होता है? लोग ऐसी कौन-सी बातें कह सकते हैं, जो उन्हें सबसे ज्यादा अहंकारी बनाती हैं? शायद तुम लोगों ने पहले कुछ अहंकार भरी बातें सुनी हों। इनमें से सबसे अहंकार भरी बात क्या है? क्या तुम लोग जानते हो? क्या कोई यह कहने की हिम्मत करता है, “मैं किसी का आज्ञापालन नहीं करता—स्वर्ग या पृथ्वी का भी नहीं, यहाँ तक कि परमेश्वर के वचनों का भी नहीं”? सिर्फ बड़ा लाल अजगर दानव ही ऐसा कहने का साहस करता है। परमेश्वर में विश्वास करने वाला कोई व्यक्ति ऐसा नहीं कहेगा। लेकिन अगर परमेश्वर में विश्वास करने वाले कहते हैं, “मैं परमेश्वर के अलावा किसी का आज्ञापालन नहीं करता,” तो वे बड़े लाल अजगर से बहुत अलग नहीं हैं, वे दुनिया के नंबर एक के लिए बँधे हैं, वे सबसे अहंकारी हैं। तुम लोग क्या कहते हो, लोग सभी अहंकारी हैं, लेकिन क्या उनके अहंकार में कोई अंतर है? तुम कहाँ भेद करते हो? सभी भ्रष्ट मनुष्यों में अहंकारी स्वभाव होते हैं, लेकिन उनके अहंकार में अंतर होता है। जब व्यक्ति का अहंकार एक निश्चित सीमा तक पहुँच जाता है, तो वह सारी समझ खो देता है। अंतर यह है कि क्या किसी के कहने का कोई अर्थ है। कुछ लोग अहंकारी होते हैं, फिर भी उनमें थोड़ा विवेक होता है। अगर वे सत्य स्वीकारने में सक्षम हैं, तो अभी भी उनके पास उद्धार की आशा है। कुछ लोग इतने अहंकारी होते हैं कि उनमें कोई समझ नहीं होती—उनके अहंकार की कोई सीमा नहीं होती—और ऐसे लोग कभी भी सत्य नहीं स्वीकार सकते। अगर लोग इतने अहंकारी हों कि उनमें कोई समझ न हो, तो वे शर्म की सारी भावना खो देते हैं और सिर्फ मूर्खतापूर्वक अहंकारी होते हैं। ये सभी एक अहंकारी स्वभाव के प्रकटीकरण और अभिव्यक्तियाँ हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कार्य करते समय अक्सर सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। वे काट-छाँट या निपटाए जाने को स्वीकार नहीं करते हैं, वे अपने दिल में जानते हैं कि जो बातें दूसरे कहते हैं वे सत्य के अनुरूप हैं, लेकिन वे उन्हें स्वीकार नहीं करते हैं। ऐसे लोग बहुत अहंकारी और दंभी होते हैं! उन्हें अहंकारी क्यों कहा जाए? यदि वे काट-छाँट या निपटाए जाने को स्वीकार नहीं करते हैं, तो वे आज्ञाकारी नहीं हैं, और क्या अवज्ञा अहंकार नहीं है? वे सोचते हैं कि वे अच्छा कर रहे हैं, वे यह नहीं सोचते कि वे गलतियाँ करते हैं, जिसका अर्थ है कि वे स्वयं को नहीं जानते हैं, जोकि अहंकार है। तो, कुछ चीजें हैं जिनका तुम्हें गंभीरता से विश्लेषण करने, थोड़ा-थोड़ा करके गहराई से जानने की जरूरत है। जैसे तुम कलीसिया का काम करते हो, यदि दूसरे तुम्हारी प्रशंसा करते हैं, और तुम्हें सुझाव देते हैं, और संगति में तुम्हारे समक्ष खुलते हैं, तो यह साबित होता है कि तुमने अपना काम अच्छे से किया है। यदि लोग हमेशा तुमसे विवश रहते हैं, तो वे धीरे-धीरे तुम्हें समझने लगेंगे, और तुमसे दूरी बना लेंगे जो साबित करता है कि तुम्हारे पास सत्य की वास्तविकता नहीं है, इसलिए तुम जो कुछ भी कहते हो वह निश्चित रूप से केवल सैद्धांतिक शब्द हैं, जो दूसरों को विवश करने के लिए हैं। कुछ कलीसिया नेताओं को बदल दिया जाता है, और उन्हें क्यों बदला जाता है? ऐसा इसलिए कि वे केवल सैद्धांतिक शब्द बोलते हैं, हमेशा दिखावा करते हैं और अपनी गवाही देते हैं। वे कहते हैं कि उनका प्रतिरोध करना परमेश्वर का प्रतिरोध करना है, और जो कोई ऊपरवाले को स्थितियों की रिपोर्ट करता है वह कलीसिया के काम में बाधा डाल रहा है। यह किस प्रकार की समस्या है? ये लोग पहले ही इतने अहंकारी हो गए हैं कि इन्हें कोई समझ नहीं बची है। क्या यह मसीह-विरोधियों के रूप में इनके असली रंग को नहीं दिखाता है? क्या इससे उनके अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की शुरुआत नहीं हो जाएगी? कुछ लोग जिन्होंने अभी-अभी विश्वास करना शुरू किया है, वे उनकी आराधना करेंगे और उनकी गवाही देंगे, और वे इसका बहुत आनंद लेंगे, और बहुत प्रसन्न महसूस करेंगे। इतना अहंकारी व्यक्ति तो पहले ही बरबाद है। एक व्यक्ति जो यह कहने में सक्षम है कि “मेरा प्रतिरोध करना ईश्वर का प्रतिरोध करना है”, पहले से ही एक आधुनिक पौलुस बन चुका है; इसमें और पौलुस के यह कहने में कोई अंतर नहीं है : “मेरे लिए जीवित रहना ही मसीह है”। क्या ऐसी बातें करने वाले लोग बहुत खतरे में नहीं हैं? भले ही वे स्वतंत्र राज्य स्थापित न करें, फिर भी वे प्रामाणिक मसीह-विरोधी हैं। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को कलीसिया का नेतृत्व करना होता, तो वह कलीसिया शीघ्र ही मसीह-विरोधियों का राज्य बन जाता। कुछ लोग, कलीसिया के अगुआ बनने के बाद, विशेष रूप से ऊँचे-ऊँचे उपदेश देने और दिखावा करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, विशेष रूप से रहस्य की बातें बोलने पर ताकि लोग उन्हें आदर की दृष्टि से देखें, और इसका परिणाम यह होता है कि वे सत्य की वास्तविकता से और भी दूर होते जाते हैं। इससे अधिकांश लोग आध्यात्मिक सिद्धांतों की पूजा करने लगते हैं। जो भी ऊँची बात कहता है, लोग उसी की सुनते हैं; जो कोई भी जीवन प्रवेश के बारे में बात करता है, लोग उस पर ध्यान नहीं देते। क्या यह लोगों को भटकाना नहीं है? यदि कोई सत्य की वास्तविकता पर संगति करता है, तो कोई नहीं सुनता, जो परेशानी की बात है। जबकि इस व्यक्ति के अलावा कोई भी कलीसिया का नेतृत्व नहीं कर सकता, क्योंकि हर कोई आध्यात्मिक सिद्धांतों की पूजा करता है; जो लोग आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में बात नहीं कर सकते वे दृढ़ता से पैर जमाने में असमर्थ रहते हैं। क्या तब भी ऐसा कलीसिया पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकता है? क्या लोग सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? सत्य के बारे में संगति करना और वास्तविक अनुभवों के बारे में बोलना क्यों अस्वीकार कर दिया जाता है, इस हद तक कि वे सत्य के बारे में मेरी संगति सुनने के भी इच्छुक नहीं हैं? इससे साबित होता है कि वे पहले ही इन लोगों को धोखा दे चुके हैं और इन्हें अपने वश में कर चुके हैं। ये लोग परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के बजाय उनकी बात सुनते हैं और उनके प्रति समर्पण करते हैं। यह स्पष्ट है कि ये लोग ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के बजाय अपने अगुआओं के प्रति समर्पण करते हैं। क्योंकि जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, वे मनुष्यों की पूजा करने या उनका अनुसरण करने वाले नहीं होते; उनके दिलों में परमेश्वर के लिए जगह है, और वे परमेश्वर से डरते हैं, तो उन्हें मनुष्यों द्वारा कैसे विवश किया जा सकता है? वे कैसे आज्ञाकारी ढंग से एक झूठे नेता के प्रति समर्पण कर सकते हैं जिसके पास सत्य की वास्तविकता नहीं है? जिस चीज़ से एक झूठा नेता सबसे अधिक डरता है वह एक ऐसा व्यक्ति है जिसके पास सत्य की वास्तविकता है, एक ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर से डरता है और बुराई से दूर रहता है। यदि किसी के पास सत्य नहीं है, और फिर भी वह दूसरों से आज्ञाकारिता चाहता है, तो क्या यह सबसे अहंकारी दुष्ट या संभवत: शैतान नहीं है? यदि तुम कलीसिया पर एकाधिकार रखते हो या परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करते हो, तो तुमने परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाई है और खुद को बरबाद कर लिया है, और शायद तुम्हें पश्चाताप करने का मौका भी न मिले। तुममें से प्रत्येक को सावधान रहना चाहिए; यह एक बहुत ही खतरनाक बात है, जिसे कोई भी बहुत आसानी से कर सकता है। कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो कहें: “मैं ऐसा नहीं करूँगा, मैं अपनी गवाही नहीं दूँगा!” ऐसा सिर्फ इसलिए है कि तुमने बहुत ही कम समय काम किया है। बाद में, तुम ऐसा करने का साहस करोगे। धीरे-धीरे तुम और अधिक साहसी हो जाओगे—जितना अधिक तुम ऐसा करोगे, उतने ही अधिक साहसी हो जाओगे। यदि तुम जिन लोगों का नेतृत्व करते हो वे तुम्हारी डींगें हाँकते हैं और तुम्हारी बातें सुनते हैं, तो तुम्हें स्वाभाविक रूप से महसूस होगा कि तुम एक उच्च पद पर थे, तुम अद्भुत थे: “मुझे देखो, मैं बहुत अच्छा हूँ। मैं इन सभी लोगों का नेतृत्व कर सकता हूँ, और ये सभी मेरी बात सुनते हैं; जो लोग मेरी बात नहीं सुनते, उन्हें मैं अपने नियंत्रण में कर लेता हूँ। इससे साबित होता है कि मुझमें काम करने की कुछ क्षमता है और मैं अपने काम के योग्य हूँ।” जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, तुम्हारी प्रकृति के अहंकारी तत्व सामने आने लगेंगे, और तुम इतने अहंकारी हो जाओगे कि अपना विवेक खो बैठोगे, और खतरे में पड़ जाओगे। क्या तुम यह स्पष्ट रूप से देख सकते हो? जैसे ही तुम अपना अहंकारी, अवज्ञाकारी स्वभाव प्रकट करते हो, तुम मुसीबत में पड़ जाते हो। जब मैं बोलता हूँ तब भी तुम नहीं सुनते, परमेश्वर का घर तुम्हें बदल देता है, और फिर भी तुम यह कहने का साहस करते हो: “पवित्र आत्मा इसे प्रकट करे।” तुम ऐसा कहोगे, यह तथ्य साबित करता है कि तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते। तुम्हारा विद्रोह बहुत बड़ा है—इसने तुम्हारी प्रकृति और सार को उजागर कर दिया है। तुम परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते। इसलिए, मैं आज तुमसे यह सब कहता हूँ ताकि तुम लोग अपने ऊपर कड़ी नजर रखो। अपने आप को ऊँचा मत उठाओ और न ही अपनी गवाही दो। लोगों के लिए संभव है कि वे अपने स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास करें, क्योंकि वे सभी पद, धन और महिमा, घमंड, उच्च स्थिति का सेवक बनना और शक्ति का प्रदर्शन करना पसंद करते हैं: “देखो, मैंने ये शब्द कितनी कठोरता से कहे। जैसे ही मैंने धमकी देने का अभिनय किया, वे घबराकर शांत हो गए।” इस प्रकार की शक्ति का प्रदर्शन मत करो; यह बेकार है, और इससे कुछ भी सिद्ध नहीं होता। यह केवल इतना साबित करता है कि तुम विशेष रूप से अहंकारी हो, और तुम्हारा स्वभाव खराब है; इससे यह साबित नहीं होता कि तुममें कोई योग्यता है, यह तो बिल्कुल भी साबित नहीं होता कि तुममें सत्य की वास्तविकता है। कुछ वर्षों से उपदेश सुनने के बाद, क्या तुम सभी स्वयं को जानते हो? क्या तुम्हें यह महसूस नहीं होता कि तुम खतरनाक परिस्थितियों में हो? यदि परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए बोल और कार्य नहीं कर रहा होता, तो क्या तुम सभी स्वतंत्र राज्य स्थापित नहीं कर रहे होते? क्या तुम लोग उन कलीसियाओं पर एकाधिकार नहीं करना चाहते जिनके लिए तुम जिम्मेदार हो, उन लोगों को अपने प्रभाव में नहीं लाना चाहते ताकि उनमें से कोई भी तुम्हारे नियंत्रण से बच न सके, इसलिए उन्हें तुम्हारी बात सुननी होगी? यदि तुम लोगों को नियंत्रित करते हो तो तुम एक दुष्ट हो, शैतान हो। ऐसे विचार रखना तुम्हारे लिए बहुत खतरनाक है; तुम पहले ही मसीह-विरोधी मार्ग पर कदम रख चुके हो। यदि तुम आत्म-चिंतन नहीं करते, और यदि तुम परमेश्वर के सामने अपने पापों को स्वीकार करने और पश्चाताप करने में असमर्थ हो, तो तुम्हें निश्चित रूप से अलग कर दिया जाएगा, और परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देगा। यह सुनिश्चित करने के लिए कि तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान नहीं करते, तुम्हें पता होना चाहिए कि पश्चाताप कैसे करना है, परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होने के लिए खुद को कैसे बदलना है। तब तक प्रतीक्षा मत करते रहो जब तक कि परमेश्वर का घर यह निर्धारित न कर ले कि तुम मसीह-विरोधी हो और तुम्हें निष्कासित कर दे—तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है
किसी भी व्यक्ति को स्वयं को पूर्ण, प्रतिष्ठित, कुलीन या दूसरों से भिन्न नहीं समझना चाहिए; यह सब मनुष्य के अभिमानी स्वभाव और अज्ञानता से उत्पन्न होता है। हमेशा अपने आप को दूसरों से अलग समझना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी अपनी कमियाँ स्वीकार न कर पाना, और कभी भी अपनी भूलों एवं असफलताओं का सामना न कर पाना—अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी दूसरों को अपने से ऊँचा नहीं होने देना, या अपने से बेहतर नहीं होने देना—ऐसा अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; दूसरों को कभी खुद से श्रेष्ठ या बेहतर न होने देना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी दूसरों को अपने से बेहतर विचार, सुझाव और दृष्टिकोण न रखने देना, और, यह पता चलने पर कि दूसरे बेहतर हैं, नकारात्मक हो जाना, बोलने की इच्छा न रखना, व्यथित और निराश महसूस करना, तथा परेशान हो जाना—ये सभी चीजें अभिमानी स्वभाव के ही कारण होती हैं। अभिमानी स्वभाव तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा के प्रति रक्षात्मक, दूसरों के सुधारों को स्वीकार करने में असमर्थ, अपनी कमियों का सामना करने, तथा अपनी असफलताओं और गलतियों को स्वीकार करने में असमर्थ बना सकता है। इसके अतिरिक्त, जब कोई व्यक्ति तुमसे बेहतर होता है, तो यह तुम्हारे दिल में घृणा और जलन पैदा कर सकता है, और तुम स्वयं को विवश महसूस कर सकते हो, कुछ इस तरह कि अब तुम अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहते और इसे करने में लापरवाह हो जाते हो। अभिमानी स्वभाव के कारण तुम्हारे अंदर ये व्यवहार और आदतें प्रकट हो जाती हैं। अगर तुम इन विवरणों की धीरे-धीरे गहराई से पड़ताल करने, बढ़त पाने में समर्थ हो और उनकी समझ हासिल कर लेते हो, और अगर फिर तुम धीरे-धीरे इन विचारों को त्यागने में सक्षम हो जाते हो, और इन गलत धारणाओं, दृष्टिकोणों और व्यवहारों को त्याग पाते हो, और इनसे विवश नहीं होते; और यदि अपना कर्तव्य पालन करते समय तुम अपने लिए सही पद प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हो, तथा सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो, एवं उस कर्तव्य का निर्वाह करते हो जो तुम कर सकते हो तथा जो तुम्हें करना चाहिए; तो कुछ समय के बाद, तुम लोग अपने कर्तव्यों का बेहतर ढंग से निर्वाह करने में सक्षम हो जाओगे। यह सत्य की वास्तविकता में प्रवेश है। यदि तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर पाते हो, तो तुममें मानवीय समानता प्रतीत होगी, और लोग कहेंगे, “यह व्यक्ति अपने पद के अनुसार आचरण करता है, और वह अपना कर्तव्य विनम्र तरीके से निभा रहा है। ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाने में स्वाभाविकता पर, जल्दी क्रोध करने पर, या अपने भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव पर भरोसा नहीं करते। वे संयम से कार्य करते हैं, उनके पास एक दिल है जो परमेश्वर को पूजता है, उन्हें सत्य से प्यार है, और उनके व्यवहार और भावों से यह पता चलता है कि उन्होंने अपनी दैहिक इच्छाओं और प्राथमिकताओं का त्याग कर दिया है।” ऐसा आचरण करना कितना अद्भुत है! ऐसे अवसर पर जब दूसरे तुम्हारी कमियों को सामने लाते हैं, तो तुम न केवल उन्हें स्वीकार करने में सक्षम होते हो, बल्कि तुम आशावादी हो तथा अपनी कमियों एवं दोषों का आत्मविश्वास के साथ सामना करते हो। तुम्हारी मनोस्थिति बिल्कुल सामान्य है, अतिशयता और गरममिज़ाजी से मुक्त। क्या मानवीय समानता का होना यही नहीं होता? केवल ऐसे लोगों में ही समझ होती है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत
परमेश्वर द्वारा इंसानों पर विजय प्राप्त कर लिए जाने के बाद, उनके पास कम से कम यह विवेक तो होना ही चाहिए कि वे अहंकारपूर्वक बात न करें। सबसे अच्छा तो यही होगा कि वे अपना रुतबा बहुत छोटा समझें, “जमीन पर पड़े गोबर के समान,” और ऐसी बातें कहें जो सत्य हों। विशेष रूप से परमेश्वर की गवाही देते हुए, अगर तुम कोई खोखली या बड़ी बात किए बगैर, कोई काल्पनिक झूठ बोले बगैर, अपने हृदय से कोई गहरी बात कह सकते हो, तो फिर तुम्हारा स्वभाव वाकई बदल चुका होगा; परमेश्वर द्वारा जीत लिए जाने के बाद तुममें यही बदलाव आना चाहिए। अगर तुम इतनी भी समझदारी नहीं रख सकते हो, तो तुम्हारे अंदर मानवता जैसी कोई बात नहीं है। भविष्य में जब सभी राष्ट्रों और क्षेत्रों में परमेश्वर द्वारा चुने गए लोग परमेश्वर के समक्ष लौट चुके होंगे, और उसके वचनों के जरिये जीत लिए गए होंगे, तब अगर किसी विशाल सभा में तुम परमेश्वर के गुणगान में फिर से अहंकारपूर्वक कार्य करने लगते हो, लगातार डींगें हाँकते हो और दिखावा करते हो, तो तुम्हें पूरी तरह से रद्दी में डालकर निकाल दिया जाएगा। मनुष्य को हमेशा उचित व्यवहार करना चाहिए, अपनी पहचान और हैसियत की कद्र करनी चाहिए और अपने पुराने रंग-ढंग में नहीं लौटना चाहिए। शैतान की छवि सबसे मुखर ढंग से मनुष्य के अहंकार और दंभ में प्रकट होती है। अपने इस पहलू को बदले बगैर, तुम कभी भी एक मनुष्य जैसे नहीं हो सकते और हमेशा शैतान का चेहरा धारण किए रहोगे। अहंकार और दंभ का समाधान करना सबसे कठिन चीज है; और अपने अहंकार और दंभ का जरा-सा ज्ञान होने पर तुम पूर्ण परिवर्तन हासिल नहीं कर पाओगे; तुम्हें तब भी बहुत सारे शोधनों से गुजरना होगा। न्याय, ताड़ना और काट-छांट का सामना किए बिना लंबी अवधि में तुम अब भीखतरे में घिरे रहोगे। भविष्य में जब दुनिया भर में परमेश्वर के चुने हुए लोग उसके कार्य को स्वीकारेंगे और कहेंगे : “हमें बहुत पहले ही प्रबुद्ध किया गया था जब परमेश्वर ने चीन में विजेताओं का एक समूह प्राप्त कर लिया था,” और जब तुम लोग यह सुनोगे, तो तुम सोचोगे : “हमारे पास शेखी बघारने के लिए कुछ नहीं है, सब-कुछ परमेश्वर के अनुग्रह से प्राप्त हुआ है। हम विजेता कहलाने के योग्य नहीं हैं।” लेकिन समय के साथ जब तुम स्वयं को कुछ कहने में सक्षम होते देखने लगते हो, और तुम्हारे पास थोड़ी सी वास्तविकता होती है, तो तुम विचार करोगे : “यहाँ तक कि विदेशियों ने भी पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त की है, और उनका कहना है कि परमेश्वर ने चीन में विजेताओं का एक समूह बना लिया है, इसलिए हमें विजेता माना जाना चाहिए!” अब तुम अपने हृदय में इस स्वीकृति को चुपचाप मंजूर कर लोगे, और बाद में बस सार्वजनिक स्वीकृति दोगे। मनुष्य प्रशंसा किए जाने या हैसियत से परीक्षा लिए जाने पर टिक नहीं पाते। अगर तुम्हारी हमेशा प्रशंसा की जाती है, तो तुम खतरे में होगे। जिन लोगों का स्वभाव नहीं बदला है, वे आखिर में अडिग नहीं रह सकते।
भ्रष्ट मानवजाति के लिए सबसे कठिन समस्या है वही पुरानी गलतियाँ दोहराना। इसे रोकने के लिए लोगों को पहले इससे अवगत होना चाहिए कि उन्होंने अभी तक सत्य प्राप्त नहीं किया है, कि उनके जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया है, और यह कि भले ही वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, पर वे अभी भी शैतान की सत्ता में रह रहे हैं, और उन्हें बचाया नहीं गया है; वे किसी भी समय परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और उससे दूर भटक सकते हैं। यदि उनके हृदय में संकट का यह भाव हो—यदि, जैसा कि लोग अक्सर कहते हैं, वे शांति के समय खतरे के लिए तैयार रहें—तो वे कुछ हद तक अपने आपको काबू में रख पाएँगे, और अगर उनके साथ कोई बात हो भी जाए, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे और उस पर निर्भर रहेंगे, और वही पुरानी गलतियाँ करने से बच पाएँगे। तुम्हें स्पष्ट देखना चाहिए कि तुम्हारा स्वभाव नहीं बदला है, परमेश्वर के खिलाफ धोखा देने की प्रकृति अभी भी तुममें गहराई तक जड़ें जमाए हुए है और वह निकाली नहीं गई है, कि तुम अब भी परमेश्वर को धोखा देने के जोखिम में हो, और तुम्हें तबाह और नष्ट किए जाने की संभावना निरंतर बनी हुई है। यह वास्तविक है; इसलिए तुम लोगों को सावधान रहना चाहिए। तीन सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए : पहली, तुम अभी भी परमेश्वर को नहीं जानते; दूसरी, तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया है; और तीसरी, तुम्हें अभी भी मनुष्य की सच्ची छवि को जीना है। ये तीनों चीजें तथ्यों के अनुरूप हैं, ये वास्तविक हैं, और तुम्हें इनके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। तुम्हें आत्म-जागरूक होना चाहिए। यदि तुम्हारे पास इस समस्या को ठीक करने का संकल्प है, तो तुम्हें अपना नीति-वाक्य चुनना चाहिए : उदाहरण के लिए, “मैं जमीन पर पड़ा गोबर हूँ,” या “मैं शैतान हूँ,” या “मैं अकसर पुराने ढर्रे पर चल पड़ता हूँ,” या “मैं हमेशा खतरे में हूँ।” इनमें से कोई भी तुम्हारा व्यक्तिगत नीति-वाक्य बनने के लिए उपयुक्त है, और यदि तुम हर समय इसे याद करोगे, तो यह तुम्हारी मदद करेगा। इसे मन में दोहराते रहो, इस पर चिंतन करो, और तुम कम गलतियाँ करोगे या गलतियाँ करना बंद कर दोगे। बहरहाल, सबसे महत्वपूर्ण बात है परमेश्वर के वचन पढ़ने में अधिक समय बिताना, सत्य को समझना, अपनी प्रकृति को जानना और अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागना। तभी तुम सुरक्षित रहोगे। दूसरी चीज यह है कि कभी भी “परमेश्वर के किसी गवाह” का स्थान न लो, और कभी खुद को परमेश्वर के गवाह मत कहो। तुम केवल निजी अनुभव के बारे में बात कर सकते हो। तुम इस बारे में बात कर सकते हो कि परमेश्वर ने तुम लोगों को कैसे बचाया, इस बारे में संगति कर सकते हो कि परमेश्वर ने तुम लोगों को कैसे जीता, और यह बता सकते हो कि उसने तुम लोगों पर कौन-सा अनुग्रह किया। यह कभी मत भूलो कि तुम लोग सबसे अधिक भ्रष्ट हो, तुम गोबर की खाद और कचरा हो। अब तुम अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकार कर पा रहे हो तो इसका सारा श्रेय उसके हाथों तुम्हारे उत्थान को जाता है। इसकी वजह केवल यही है कि तुम लोग सबसे भ्रष्ट और सबसे गंदे हो, इसलिए तुम्हें देहधारी परमेश्वर ने बचाया है, और उसने तुम पर इतना बड़ा अनुग्रह किया है। इसलिए तुम लोगों में शेखी बघारने के लायक कुछ भी नहीं है और तुम केवल परमेश्वर की प्रशंसा कर सकते हो और उसे धन्यवाद दे सकते हो। तुम लोगों का उद्धार विशुद्ध रूप से परमेश्वर के अनुग्रह के कारण हुआ है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है
और आज जब चीजें इस मुकाम पर पहुँच गई हैं, तो तुम उसके बारे में वास्तव में कितना जानते हो, जो मैं कहता और करता हूँ? यह मत सोचो कि तुम एक स्वाभाविक रूप से जन्मी विलक्षण प्रतिभा हो, जो स्वर्ग से थोड़ी ही निम्न, किंतु पृथ्वी से कहीं अधिक ऊँची है। तुम किसी भी अन्य से ज्यादा होशियार होने से बहुत दूर हो—यहाँ तक कि यह भी कहा जा सकता है कि पृथ्वी पर जितने भी विवेकशील लोग हैं, उनसे तुम्हारा कहीं ज्यादा मूर्ख होना आकर्षक है, क्योंकि तुम खुद को बहुत ऊँचा समझते हो, और तुममें कभी हीनता की भावना नहीं रही, मानो तुम मेरे कार्यों की छोटी से छोटी बात पूरी तरह समझ सकते हो। वास्तव में, तुम ऐसे व्यक्ति हो, जिसके पास विवेक की मूलभूत रूप से कमी है, क्योंकि तुम्हें इस बात का कुछ पता नहीं कि मैं क्या करने का इरादा रखता हूँ, और तुम इस बात से तो बिल्कुल भी अवगत नहीं हो कि मैं अभी क्या कर रहा हूँ। और इसलिए मैं कहता हूँ कि तुम जमीन पर कड़ी मेहनत करने वाले किसी बूढ़े किसान के बराबर भी नहीं हो, ऐसा किसान, जिसे मानव-जीवन की थोड़ी भी समझ नहीं है और फिर भी जो जमीन पर खेती करते हुए अपना पूरा भरोसा स्वर्ग के आशीषों पर रखता है। तुम अपने जीवन के संबंध में एक पल भी विचार नहीं करते, तुम्हें यश के बारे में कुछ नहीं पता, और तुम्हारे पास आत्म-ज्ञान तो बिल्कुल भी नहीं है। तुम इतने “इस सबसे ऊपर” हो! ... मैं तुम्हें एक सत्य बता दूँ : आज यह बहुत कम महत्त्व रखता है कि तुम्हारे पास भय मानने वाला हृदय है या नहीं; उसके बारे में मैं न तो उत्सुक हूँ और न ही चिंतित। लेकिन मुझे तुम्हें यह भी बताना होगा : तुम, “प्रतिभा के धनी” व्यक्ति, जो सीखते नहीं और अज्ञानी बने रहते हो, अंततः अपनी आत्म-प्रशंसात्मक क्षुद्र चतुराई द्वारा नीचे गिरा दिए जाओगे—तुम वह होगे, जो दुःख भोगता है और जिसे ताड़ना दी जाती है। मैं इतना बेवकूफ नहीं हूँ कि जब तुम नरक में दुःख भुगतोगे तो मैं तुम्हारा साथ दूँगा, क्योंकि मैं तुम्हारे जैसा नहीं हूँ। मत भूलो कि तुम एक सृजित प्राणी हो, जिसे मेरे द्वारा शाप दिया गया है, लेकिन जिसे मेरे द्वारा सिखाया और बचाया भी जाता है, और तुममें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मैं छोड़ना न चाहूँ। मैं जिस भी समय अपना काम करता हूँ, कोई भी व्यक्ति, घटना या वस्तु मुझे कभी बाधित नहीं कर सकती। मानवजाति के प्रति मेरा रवैया और दृष्टिकोण हमेशा एक-से रहे हैं। मैं तुम्हारे प्रति विशेष रूप से अनुकूल नहीं हूँ, क्योंकि तुम मेरे प्रबंधन के एक संलग्नक हो, और किसी भी अन्य प्राणी से अधिक विशेष होने से बहुत दूर हो। तुम्हें मेरी यह सलाह है : तुम्हें हर समय यह याद रखना चाहिए कि तुम परमेश्वर द्वारा सृजित प्राणी से अधिक कुछ नहीं हो! हालाँकि तुम अपना अस्तित्व मेरे साथ साझा कर सकते हो, लेकिन तुम्हें अपनी पहचान पता होनी चाहिए; अपने बारे में बहुत ऊँची राय मत रखो। अगर मैं तुम्हें न भी फटकारूँ, या तुम्हारी काट-छाँट न भी करूँ और मुस्कराते चेहरे के साथ तुम्हारा अभिवादन भी करूँ, तो भी यह ये साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि तुम मेरे समान ही हो। तुम—तुम्हें खुद को सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति के रूप में जानना चाहिए, खुद सत्य के रूप में नहीं! तुम्हें हर समय मेरे वचनों के अनुसार बदलने के लिए तैयार रहना चाहिए। तुम इससे बच नहीं सकते। मैं तुमसे आग्रह करता हूँ, इस मूल्यवान समय के दौरान, जब तुम्हारे पास यह दुर्लभ अवसर है, कुछ सीखने का प्रयास करो। मुझे मूर्ख मत बनाओ; मैं नहीं चाहता कि तुम मुझे धोखा देने के लिए मेरी चापलूसी करो। जब तुम मुझे खोजते हो, तो यह पूरी तरह से मेरे लिए नहीं होता, बल्कि तुम्हारे खुद के लिए होता है!
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो लोग सीखते नहीं और अज्ञानी बने रहते हैं : क्या वे जानवर नहीं हैं?
शैतान ने मानवजाति को इतनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है कि सभी की प्रकृति शैतानी और स्वभाव अहंकारी है; यहाँ तक कि मूर्ख और बेवकूफ भी अहंकारी हैं, और खुद को अन्य लोगों से बेहतर मानते हुए उनकी आज्ञा का पालन करने से इनकार कर देते हैं। साफ दिखाई देता है कि मानवजाति बहुत गहराई तक भ्रष्ट है और उसके लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना बहुत मुश्किल है। अपने अहंकार और दंभ के कारण, लोगों में विवेक की पूरी तरह से कमी हो गई है; वे किसी की बात नहीं मानते—दूसरों की बात सही और सत्य के अनुरूप होने पर भी वे उनकी बात नहीं मानते। यह अहंकार के कारण ही है कि लोग परमेश्वर का मूल्यांकन, निंदा और प्रतिरोध करने का दुस्साहस करते हैं। तो, अहंकारी स्वभाव का समाधान कैसे किया जा सकता है? क्या इसका समाधान मानवीय संयम के भरोसे रहकर किया जा सकता है? क्या केवल इसकी पहचान करने और इसे स्वीकार करने मात्र से इसका समाधान हो सकता है? बिल्कुल नहीं। अहंकारी स्वभाव के समाधान का केवल एक ही तरीका है, और वह है परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना। केवल वे जो सत्य को स्वीकार करने में सक्षम हैं, धीरे-धीरे अपने अहंकारी स्वभाव को त्याग सकते हैं; जो लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, वे कभी अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करने में सक्षम नहीं होंगे। मैं ऐसे कई लोगों को देखता हूँ जो अपने कर्तव्य में थोड़ी प्रतिभा क्या दिखा देते हैं, इसे अपने दिमाग पर हावी हो जाने देते हैं। अपनी योग्यताएँ दिखाकर वे सोचते हैं कि वे बहुत प्रभावशाली हैं, और फिर वे उन्हीं के सहारे जीवन गुजार देते हैं और उससे ज्यादा कोशिश नहीं करते। दूसरे चाहे जो भी कहें, वे उनकी बात यह सोचकर नहीं सुनते कि उनके पास जो छोटी-छोटी चीजें हैं, वे ही सत्य हैं और वे स्वयं सर्वोच्च हैं। यह कैसा स्वभाव है? यह अहंकारी स्वभाव है। उनमें तर्क की बहुत कमी है। क्या अहंकारी स्वभाव होने पर कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? क्या वह परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी हो सकता है और अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कर सकता है? यह तो और भी मुश्किल है। अहंकारी स्वभाव को ठीक करने के लिए, उसे सीखना होगा कि अपना कर्तव्य निभाते समय परमेश्वर के कार्य, उसके न्याय और ताड़ना का अनुभव कैसे किया जाए। केवल इसी तरह से वह स्वयं को वास्तव में जान सकता है। केवल अपने भ्रष्ट सार और अपने अहंकार की जड़ को स्पष्ट रूप से देखकर, और फिर उसे समझकर और उसका विश्लेषण करके ही तुम वास्तव में अपना प्रकृति सार जान सकते हो। तुम्हें अपने अंदर की सभी भ्रष्ट चीजों को खोदकर बाहर निकालना होगा, और उन्हें सामने रखकर सत्य के आधार पर उन्हें जानना होगा, तभी तुम्हें पता चलेगा कि तुम क्या हो : न केवल तुम अहंकारी स्वभाव से भरे हो, न केवल तुममें तर्क और आज्ञाकारिता की कमी है, बल्कि तुम पाओगे कि तुममें बहुत-सी चीजों की कमी है, तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है, और तुम बहुत दयनीय हो। तब तुम अहंकार नहीं कर पाओगे। यदि तुम इस तरह से विश्लेषण करके स्वयं को नहीं जानते, तो अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम्हें ब्रह्मांड में अपना स्थान पता नहीं चलेगा। तुम सोचोगे कि तुम हर तरह से उत्तम हो, दूसरों से जुड़ा सब कुछ बुरा है, केवल तुम ही सर्वश्रेष्ठ हो। फिर, तुम हर वक्त सबके सामने दिखावा करोगे, ताकि दूसरे तुम्हें आदर से देखें और तुम्हारी पूजा करें। यह पूरी तरह से आत्म-जागरूकता का अभाव होना है। कुछ लोग हमेशा दिखावा करते रहते हैं। दूसरों को यह अप्रिय लगता है, तो वे अहंकारी कहकर उनकी आलोचना करते हैं। परन्तु वे इसे स्वीकार नहीं करते; उन्हें यही लगता है कि वे प्रतिभाशाली और कुशल हैं। यह कैसा स्वभाव है? वे अत्यधिक अहंकारी और दंभी हैं। क्या ऐसे अहंकारी और दंभी लोग सत्य के प्यासे हो सकते हैं? क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? यदि वे कभी स्वयं को जानने में सक्षम नहीं होते, और अपने भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं पाते, तो क्या वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हैं? निश्चित रूप से, नहीं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने स्वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है
जब तुम किसी के भीतर से अहंकारी स्वभाव के प्रकट होने की अभिव्यक्तियों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन सुनते हो, तो तुम्हें अपने मन में सोचना चाहिए : “क्या मैं अहंकार की अभिव्यक्तियाँ दिखाता हूँ? मैं एक भ्रष्ट मानव हूँ, तो मैं अवश्य ही उनमें से कुछ अभिव्यक्तियाँ दिखाता होऊँगा; मुझे इस बात पर विचार करना चाहिए कि मैं ऐसा कहाँ करता हूँ। लोग कहते हैं कि मैं अहंकारी हूँ, कि मैं हमेशा खुद को दूसरों से ज्यादा महत्वपूर्ण मानकर चलता हूँ, कि जब मैं बोलता हूँ तो लोगों को विवश कर देता हूँ। क्या वास्तव में यही मेरा स्वभाव है?” चिंतन के माध्यम से, तुम अंततः जान जाओगे कि परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन पूरी तरह से सटीक है—कि तुम एक अहंकारी व्यक्ति हो। और चूँकि परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन पूरी तरह से सटीक है, चूँकि वह बिना किसी विसंगति के तुम्हारी स्थिति से पूरी तरह मेल खाता है, और आगे विचार करने पर और भी सटीक प्रतीत होता है, तो तुम्हें उसके वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकारनी चाहिए, और उनके अनुसार अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार को पहचानना और जानना चाहिए। तब तुम सच्चा पछतावा महसूस कर पाओगे। परमेश्वर में विश्वास करते हुए, केवल इस तरह से उसके वचन खाने-पीने से ही तुम खुद को जान सकते हो। अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए तुम्हें परमेश्वर के वचनों का न्याय और खुलासा स्वीकारना चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो तुम्हारे पास अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने का कोई उपाय नहीं होगा। अगर तुम एक चतुर व्यक्ति हो, जो देखता है कि परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन आम तौर पर सटीक होता है, या अगर तुम स्वीकार सकते हो कि उसका आधा हिस्सा सही है, तो तुम्हें फौरन उसे स्वीकार लेना चाहिए और परमेश्वर के सामने समर्पण कर देना चाहिए। तुम्हें उससे प्रार्थना कर आत्मचिंतन भी करना चाहिए। तभी तुम समझ पाओगे कि परमेश्वर के प्रकाशन के सभी वचन सटीक होते हैं, कि वे सभी तथ्य हैं, उससे कम कुछ नहीं हैं। परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय के साथ उसके सामने समर्पण करके ही लोग वास्तव में आत्मचिंतन कर सकते हैं। तभी वे अपने भीतर मौजूद विभिन्न प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव देख पाएँगे, और यह भी कि वे वास्तव में अहंकारी और आत्मतुष्ट हैं, जिनमें जरा-सी भी समझ नहीं है। अगर कोई सत्य से प्रेम करता है, तो वह परमेश्वर के सामने दंडवत होने में भी सक्षम होगा, उसके सामने स्वीकारेगा कि वह गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है, और उसका न्याय और ताड़ना स्वीकारने की इच्छा रखता है। इस तरह, वह पछतावे से भरा दिल विकसित कर सकता है, खुद को नकारना और खुद से नफरत करना शुरू कर सकता है, और पहले सत्य का अनुसरण न करने पर पछताते हुए सोच सकता है, “जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़ने शुरू किए थे, तो मैं उनका न्याय और ताड़ना स्वीकारने में असमर्थ क्यों था? उसके वचनों के प्रति मेरा यह रवैया अहंकारी था, है न? मैं इतना अहंकारी कैसे हो सकता हूँ?” कुछ समय तक इस तरह बार-बार आत्मचिंतन करने के बाद, वह पहचान लेगा कि वह वास्तव में अहंकारी है, कि वह यह स्वीकारने में पूरी तरह से सक्षम नहीं है कि परमेश्वर के वचन सत्य और तथ्य हैं, और उसमें वास्तव में रत्ती भर भी समझ नहीं है। लेकिन खुद को जानना एक कठिन चीज है। हर बार जब व्यक्ति चिंतन करता है, तो वह अपने बारे में सिर्फ थोड़ा अधिक और थोड़ा ज्यादा गहरा ज्ञान प्राप्त कर पाता है। भ्रष्ट स्वभाव का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करना कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे थोड़े समय में पूरा किया जा सकता हो; व्यक्ति को परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ने चाहिए, अधिक प्रार्थना करनी चाहिए और अधिक आत्मचिंतन करना चाहिए। सिर्फ इसी तरह वह धीरे-धीरे खुद को जान सकता है। वे सभी जो वाकई खुद को जानते हैं, अतीत में कुछ बार असफल हुए और लड़खड़ाए हैं, जिसके बाद, उन्होंने परमेश्वर के वचन पढ़े, उससे प्रार्थना की, और आत्मचिंतन किया, और इस तरह वे अपनी भ्रष्टता का सत्य स्पष्ट रूप से देख पाए, और यह महसूस कर पाए कि वे वाकई अत्यधिक भ्रष्ट और सत्य वास्तविकता से सर्वथा वंचित थे। अगर तुम इस प्रकार परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हो, और जब तुम पर चीजें आ पड़ती हैं, तो उससे प्रार्थना करते और सत्य खोजते हो, तो तुम धीरे-धीरे स्वयं को जान जाओगे। फिर एक दिन, अंतत: तुम्हारे हृदय में स्पष्ट समझ आ जाएगी : “मैं दूसरों की तुलना में थोड़ी बेहतर क्षमता का हो सकता हूँ, लेकिन यह मुझे परमेश्वर द्वारा दी गई थी। मैं हमेशा शेखी बघारता हूँ, जब बोलता हूँ तो दूसरों से आगे निकलने का प्रयास करता हूँ, कोशिश करता हूँ कि लोग मेरे तरीके से काम करें। मुझमें वाकई समझ नहीं है—यह अहंकार और आत्मतुष्टि है! आत्मचिंतन से मैंने अपने अहंकारी स्वभाव के बारे में जान लिया है। यह परमेश्वर का प्रबोधन और अनुग्रह है, और मैं इसके लिए उसका धन्यवाद करता हूँ!” अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में जानना अच्छी बात है या बुरी? (अच्छी बात है।) यहाँ से, तुम्हें खोजना चाहिए कि समझदारी और आज्ञाकारिता के साथ कैसे बोलना और कार्य करना है, दूसरों के साथ बराबरी पर कैसे खड़े होना है, दूसरों को बाधित किए बिना उनके साथ उचित व्यवहार कैसे करना है, अपनी क्षमता, गुणों और खूबियों आदि पर सही तरीके से विचार कैसे करना है। इस तरह, जैसे एक बार में एक प्रहार करने से पहाड़ धूल में बदल जाता है, वैसी ही तुम्हारे अहंकारी स्वभाव का समाधान हो जाएगा। उसके बाद, जब तुम दूसरों के साथ बातचीत करोगे या कोई कर्तव्य निभाने के लिए उनके साथ काम करोगे, तो तुम उनके विचारों पर सही तरह से विचार कर पाओगे और उन्हें सुनते हुए उन पर सावधानी और करीब से ध्यान दे पाओगे। और जब तुम उन्हें सही राय देते हुए सुनोगे, तो तुम्हें पता चलेगा, “ऐसा लगता है कि मेरी काबिलियत सबसे अच्छी नहीं है। बात तो यह है कि सभी की अपनी खूबियाँ हैं; वे मुझसे बिल्कुल भी हीन नहीं हैं। पहले मैं सोचता था कि मेरी काबिलियत दूसरों से बेहतर है। वह आत्म-प्रशंसा और संकीर्ण सोच वाली अज्ञानता थी। किसी कूपमंडूक की तरह मेरा दृष्टिकोण बहुत ही सीमित था। ऐसी सोच समझ से पूरी तरह रहित थी—यहबेशर्मी थी! अपने अहंकारी स्वभाव द्वारा मैं अंधा और बहरा हो गया था था। दूसरे लोगों की बातें मैं समझ नहीं पाता था, और मैं सोचता कि मैं उनसे बेहतर हूँ, कि मैं सही हूँ, जबकि वास्तव में मैं उनमें से किसी से भी बेहतर नहीं हूँ!” तब से, तुम्हें अपनी कमियों और छोटे आध्यात्मिक कद की सच्ची समझ और ज्ञान होगा। इसके बाद, जब तुम दूसरों के साथ संगति करोगे, तो उनके विचार ध्यान से सुनोगे, और तुम्हें पता चलेगा, “बहुत-से लोग मुझसे बेहतर हैं। मेरी काबिलियत और समझने की क्षमता, दोनों ही हद-से-हद औसत दर्जे की हैं।” यह बोध होने पर क्या तुम अपने बारे में कुछ जान नहीं जाओगे? यह अनुभव करके और बार-बार परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्म-चिंतन करके तुम ऐसा सच्चा आत्मज्ञान पा लोगे जो गहराता जाता है। तब तुम अपनी भ्रष्टता, दरिद्रता और दयनीयता, अपनी शोचनीय कुरूपता का सत्य समझने लगोगे, और उस समय तुम्हें खुद से अरुचि और अपने भ्रष्ट स्वभाव से नफरत होने लगेगी। फिर तुम्हारे लिए दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करना आसान हो जाएगा। परमेश्वर के कार्य का अनुभव इसी तरह किया जाता है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपनी भ्रष्टता के उद्गार पर चिंतन करना चाहिए। खास तौर से, किसी भी तरह के हालात भ्रष्ट स्वभाव उजागर करने बाद, तुम्हें बार-बार आत्मचिंतन करना और खुद को जानना चाहिए। तब तुम्हारे लिए अपना भ्रष्ट सार स्पष्ट रूप से देखना आसान हो जाएगा, और तुम अपनी भ्रष्टता, अपनी देह और शैतान से हृदय से घृणा करने में सक्षम हो जाओगे। और तुम दिल से सत्य से प्रेम करने और उसके लिए प्रयास करने में सक्षम होगे। इस तरह, तुम्हारा अहंकारी स्वभाव कम होता जाएगा और धीरे-धीरे तुम उसे त्याग दोगे। तुम अधिक से अधिक समझ प्राप्त करोगे, और तुम्हारे लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाएगा। दूसरों की नजरों में, तुम पहले से ज्यादा स्थिर और व्यावहारिक प्रतीत होगे और तुम अधिक निष्पक्षता से बोलते हुए प्रतीत होगे। तुम दूसरों को सुनने में सक्षम होगे और उन्हें बोलने का समय दोगे। दूसरों के सही होने पर तुम्हारे लिए उनकी बातें स्वीकार करना आसान होगा, और लोगों के साथ तुम्हारी बातचीत उतनी कठिन नहीं होगी। तुम किसी के भी साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग करने में सक्षम होगे। अगर इस तरह तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, तो क्या तब तुममें समझ और मानवता नहीं होगी? इस प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव के समाधान का वही तरीका है।
—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1)
अगर तुम्हारे पास अहंकारी स्वभाव हल करने का कोई मार्ग नहीं है, तो तुम्हें परमेश्वर से इस तरह प्रार्थना करनी चाहिए : “परमेश्वर, मेरा अहंकारी स्वभाव है। मुझे लगता है कि मैं दूसरों से ज्यादा अच्छा हूँ, दूसरों से बेहतर हूँ, दूसरों से ज्यादा चतुर हूँ, और मैं दूसरों से वैसा ही करवाना चाहता हूँ जैसा मैं कहता हूँ। यह बहुत नासमझी है। यह जानते हुए भी कि यह अहंकार है, मैं इसे क्यों नहीं छोड़ पाता? मैं विनती करता हूँ कि तुम मुझे अनुशासित करो और फटकारो। मैं अपना अहंकार और अपनी इच्छा छोड़कर तुम्हारी इच्छा खोजने के लिए तैयार हूँ। मैं तुम्हारे वचन सुनने और उन्हें अपना जीवन और कार्य करने के सिद्धांत मानने के लिए तैयार हूँ। मैं तुम्हारे वचनों को जीने के लिए तैयार हूँ। मैं विनती करता हूँ कि तुम मेरा मार्गदर्शन करो, मैं विनती करता हूँ कि तुम मेरी सहायता और अगुआई करो।” क्या इन शब्दों में समर्पण का रवैया है? समर्पित होने की इच्छा है? (हाँ।) कुछ लोग कह सकते हैं, “सिर्फ एक बार प्रार्थना करने से काम नहीं चलता। जब मुझ पर कुछ आकर पड़ता है, तो मैं अभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीता हूँ, और मैं अभी भी प्रभारी बनना चाहता हूँ।” उस स्थिति में, प्रार्थना करते रहो : “परमेश्वर, मैं बहुत अहंकारी हूँ, बहुत विद्रोही हूँ! मैं तुमसे विनती करता हूँ कि तुम मुझे अनुशासित करो, मेरे बुरे काम वहीं के वहीं रोक दो, और मेरे अहंकारी स्वभाव पर लगाम लगाओ। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मेरा मार्गदर्शन और अगुआई करो, ताकि मैं तुम्हारे वचनों को जी सकूँ, और तुम्हारे वचनों और तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य और अभ्यास कर सकूँ।” प्रार्थना और याचना में परमेश्वर के सामने और ज्यादा आओ, और उसे कार्य करने दो। तुम्हारे शब्द जितने सच्चे होंगे, और तुम्हारा दिल जितना ईमानदार होगा, दैहिक इच्छाओं और खुद से विद्रोह करने की तुम्हारी इच्छा उतनी ही ज्यादा होगी। जब यह अपनी मरजी के अनुसार कार्य करने की तुम्हारी इच्छा को दबा देती है, तो तुम्हारा दिल धीरे-धीरे बदलने लगता है—और जब ऐसा होता है, तो तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने की आशा होगी। जब तुम प्रार्थना करोगे, तो परमेश्वर तुमसे कुछ नहीं कहेगा, या तुम्हें कोई संकेत नहीं देगा, या तुमसे कोई वादा नहीं करेगा, बल्कि वह तुम्हारे दिल की और तुम्हारे शब्दों के पीछे की मंशा की जाँच करेगा; वह देखेगा कि तुम जो कहते हो, वह ईमानदार और सच्चा है या नहीं, और तुम उससे सच्चे दिल से याचना और प्रार्थना कर रहे हो या नहीं। जब परमेश्वर देखता है कि तुम्हारा हृदय ईमानदार है, तो वह तुम्हारी अगुआई और मार्गदर्शन करेगा, जैसा कि तुमने उससे करने के लिए कहा और प्रार्थना की थी, बेशक वह तुम्हें फटकारेगा और अनुशासित भी करेगा। जब परमेश्वर तुम्हारी याचना पूरी कर देगा, तो तुम्हारा हृदय प्रबुद्ध हो जाएगा और कुछ हद तक बदल जाएगा।
—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (2)
अपने दैनिक जीवन में, बोलते, आचरण करते और मामले सँभालते समय, अपना कर्तव्य निभाते हुए, दूसरों के साथ संगति आदि करते हुए, मामला चाहे जो भी हो, या तुम कहीं भी हो, या जो भी परिस्थितियाँ हों, तुम्हें हर समय यह जाँचने पर ध्यान देना चाहिए कि तुमने किस प्रकार का अहंकारी स्वभाव दिखाया है। तुम्हें अहंकारी स्वभाव से आने वाले उन सभी उद्गारों, विचारों और भावों को खोद-खोदकर निकालना चाहिए जिनके बारे में तुम जानते हो और जिन्हें अनुभव कर सकते हो, साथ ही अपने इरादों और लक्ष्यों को भी—विशेष रूप से, हमेशा ऊँचाई से दूसरों को भाषण देने की इच्छा रखना; किसी की आज्ञा न मानना; खुद को दूसरों से बेहतर समझना; दूसरे जो कहते हैं उसे स्वीकार न करना, चाहे वे कितने भी सही क्यों न हों; खुद गलत होने पर भी दूसरों से अपनी बात मनवाना और उसके प्रति समर्पण करवाना; दूसरों की अगुआई करने की सतत प्रवृत्ति होना; अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा तुम्हारी काट-छाँट किए जाने पर झूठा कहकर उनकी निंदा करते हुए अवज्ञाकारी होना और औचित्य पेश करना; हमेशा दूसरों की निंदा करना और खुद को ऊपर उठाना; हमेशा यह सोचना कि तुम अन्य सबसे बेहतर हो; हमेशा एक प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित व्यक्ति बनने की इच्छा रखना; हमेशा दिखावा करना पसंद करना, ताकि दूसरे तुम्हें सम्मान दें और तुम्हारी आराधना करें…। भ्रष्टता के इन उद्गारों पर चिंतन करने और उनका विश्लेषण करने के अभ्यास के जरिये तुम जान सकते हो कि तुम्हारा अहंकारी स्वभाव कितना भद्दा है, और तुम खुद को नापसंद करते हुए खुद से घृणा कर सकते हो, और अपने अहंकारी स्वभाव से और भी ज्यादा नफरत कर सकते हो। इस तरह तुम इस बात पर विचार करने के इच्छुक होगे कि तुमने सभी मामलों में अहंकारी स्वभाव दिखाया है या नहीं। इसका एक हिस्सा इस बात पर चिंतन करना है कि तुम्हारे बोलने में कौन-से अहंकारी और आत्म-तुष्ट स्वभाव प्रवाहित होते हैं—तुम कितनी शेखी भरी, अहंकारी, मूर्खतापूर्ण बातें कहते हो। दूसरा हिस्सा इस बात पर चिंतन करना है कि अपनी धारणाओं, कल्पनाओं, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हुए तुम कितनी बेतुकी, मूर्खतापूर्ण चीजें करते हो। केवल इस तरह का आत्मचिंतन ही आत्मज्ञान उत्पन्न कर सकता है। जब तुम सच्चा आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों में एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए अभ्यास के मार्ग और सिद्धांत खोजने चाहिए, और फिर अभ्यास करना चाहिए, अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों में बताए गए मार्गों और सिद्धांतों के अनुसार दूसरों से संपर्क और बातचीत करनी चाहिए। कुछ समय, शायद एक-दो महीने, इस तरह से अभ्यास कर लेने पर तुम इसे लेकर दिल में एक उजाला महसूस करोगे, और तुम्हें इससे कुछ हासिल होगा और तुम सफलता का स्वाद चख लोगे। तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे पास एक ईमानदार, समझदार व्यक्ति बनने का मार्ग है, और तुम बहुत अधिक स्थिरचित्त महसूस करोगे। हालाँकि तुम अभी सत्य के विशेष रूप से गहन ज्ञान के बारे में बात नहीं कर पाओगे, पर तुमने उसके बारे में कुछ बोधात्मक ज्ञान और साथ ही अभ्यास का एक मार्ग भी प्राप्त कर लिया होगा। हालाँकि तुम इसे शब्दों में स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाओगे, फिर भी तुम्हें इस बात की थोड़ी समझ होगी कि अहंकारी स्वभाव लोगों को क्या नुकसान पहुँचाता है और कैसे उनकी मानवता विकृत कर देता है। उदाहरण के लिए, अहंकारी, आत्म-तुष्ट लोग अक्सर डींग मारने वाली, जंगली बातें कहते हैं, और दूसरों को धोखा देने के लिए झूठ बोलते हैं; वे आडंबरपूर्ण शब्द बोलते हैं, नारे लगाते हैं और लंबी-चौड़ी बातें करते हैं। क्या ये अहंकारी स्वभाव की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं? क्या ये अहंकारी स्वभाव दिखाना बहुत मूर्खतापूर्ण नहीं है? अगर तुम वास्तव में यह समझने में सक्षम हो कि तुमने ऐसा अहंकारी स्वभाव दिखाया है तो जरूर तुमने अपना सामान्य इंसानी विवेक खो दिया होगा, और अहंकारी स्वभाव के भीतर जीने का मतलब है कि तुम मानवता के बजाय दानवता को जी रहे हो, तो तुमने वास्तव में पहचान लिया होगा कि भ्रष्ट स्वभाव एक शैतानी स्वभाव है, और तुम शैतान और भ्रष्ट स्वभावों से दिल से घृणा करने में सक्षम होगे। छह महीने या साल भर के ऐसे अनुभव के बाद, तुम सच्चा आत्म-ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम हो जाओगे, और अगर तुम फिर से अहंकारी स्वभाव प्रदर्शित करोगे, तो तुरंत उसके बारे में जान जाओगे, और उसके खिलाफ विद्रोह कर उसे त्यागने में सक्षम हो जाओगे। तुम बदलना शुरू कर चुके होगे, और धीरे-धीरे अपना अहंकारी स्वभाव छोड़ने में सक्षम हो जाओगे, और सामान्य रूप से दूसरों के साथ हिल-मिलकर रह पाओगे। तुम ईमानदारी से और दिल से बोल पाओगे; तुम अब झूठ नहीं बोलोगे या अहंकारी बातें नहीं कहोगे। तब क्या तुममें थोड़ा-सा विवेक और कुछ ईमानदार व्यक्ति की समानता नहीं होगी? क्या तुम वह प्रवेश प्राप्त नहीं कर चुके होगे? यह वह क्षण है, जब तुम कुछ हासिल करना शुरू करोगे। जब तुम इस तरह ईमानदार होने का अभ्यास करोगे, तो तुम चाहे किसी भी तरह का अहंकारी स्वभाव क्यों न दिखाओ, सत्य खोजने और आत्मचिंतन करने में सक्षम होगे, और कुछ समय तक इस तरह से एक ईमानदार व्यक्ति होने का अनुभव करने के बाद तुम अनजाने ही और धीरे-धीरे एक ईमानदार व्यक्ति होने के बारे में सत्यों और परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों को समझने लगोगे। और जब तुम अपने अहंकारी स्वभाव का विश्लेषण करने के लिए उन सत्यों का उपयोग करते हो, तो तुम्हारे हृदय की गहराइयों में परमेश्वर के वचनों की प्रबुद्धता और रोशनी होगी, और तुम्हारा हृदय उज्ज्वल महसूस करने लगेगा। तुम स्पष्ट रूप से वह भ्रष्टता देख सकोगे जो अहंकारी स्वभाव लोगों में लाता है, और वह कुरूपता देखोगे, जिसे जीने के लिए वह उन्हें मजबूर करता है, और उन सभी भ्रष्ट अवस्थाओं को समझने में सक्षम होगे, जिनमें लोग स्वयं को तब पाते हैं जब वे अहंकारी स्वभाव प्रकट करते हैं। अधिक विश्लेषण करने पर तुम शैतान की कुरूपता और अधिक स्पष्ट रूप से देखोगे, और तुम शैतान से और भी अधिक घृणा करोगे। इस तरह तुम्हारे लिए अपना अहंकारी स्वभाव त्यागना आसान हो जाएगा।
—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (2)
यदि लोगों का स्वयं के बारे में ज्ञान बहुत उथला है, तो समस्याओं को हल करना उनके लिए असंभव होगा, और उसका जीवन स्वभाव नहीं बदलेगा। स्वयं को एक गहरे स्तर पर जानना आवश्यक है, जिसका अर्थ है कि अपनी स्वयं की प्रकृति को जानना : उस प्रकृति में कौन से तत्व शामिल हैं, ये कैसे पैदा हुए और वे कहाँ से आये। इसके अलावा, क्या तुम इन चीजों से वास्तव में घृणा कर पाते हो? क्या तुमने अपनी स्वयं की कुरूप आत्मा और अपनी बुरी प्रकृति को देखा है? यदि तुम सच में सही अर्थों में स्वयं के बारे में सत्य को देख पाओगे, तो तुम स्वयं से घृणा करोगे। जब तुम स्वयं से घृणा करते हो और फिर परमेश्वर के वचन का अभ्यास करते हो, तो तुम देह को त्यागने में सक्षम हो जाओगे और इसे श्रमसाध्य समझे बिना तुम्हारे अंदर सत्य को कार्यान्वित करने की शक्ति होगी। क्यों कई लोग अपनी दैहिक प्राथमिकताओं का अनुसरण करते हैं? क्योंकि वे स्वयं को बहुत अच्छा मानते हैं, उन्हें लगता है कि उनके कार्यकलाप सही और न्यायोचित हैं, कि उनमें कोई दोष नहीं है, और यहाँ तक कि वे पूरी तरह से सही हैं, इसलिए वे इस धारणा के साथ कार्य करने में समर्थ हैं कि न्याय उनके पक्ष में है। जब कोई यह जान लेता है कि उसकी असली प्रकृति क्या है—कितना कुरूप, कितना घृणित और कितना दयनीय है—तो फिर वह स्वयं पर बहुत गर्व नहीं करता है, उतना बेतहाशा अहंकारी नहीं होता है, और स्वयं से उतना प्रसन्न नहीं होता है जितना वह पहले होता था। ऐसा व्यक्ति महसूस करता है, कि "मुझे ईमानदार और व्यवहारिक बनकर परमेश्वर के कुछ वचनों का अभ्यास करना चाहिए। यदि नहीं, तो मैं इंसान होने के स्तर के बराबर नहीं होऊँगा, और परमेश्वर की उपस्थिति में रहने में शर्मिंदा होऊँगा।" तब कोई वास्तव में अपने आपको क्षुद्र के रूप में, वास्तव में महत्वहीन के रूप में देखता है। इस समय, उसके लिए सच्चाई का पालन करना आसान होता है, और वह थोड़ा-थोड़ा ऐसा दिखाई देता है जैसा कि किसी इंसान को होना चाहिए। जब लोग वास्तव में स्वयं से घृणा करते हैं केवल तभी वे शरीर को त्याग पाते हैं। यदि वे स्वयं से घृणा नहीं करते हैं, तो वे देह को नहीं त्याग पाएँगे। स्वयं से घृणा करना कोई मामूली बात नहीं है। उसमें बहुत-सी बातें होनी अनिवार्य हैं : सबसे पहले, अपने स्वयं के स्वभाव को जानना; और दूसरा, स्वयं को अभावग्रस्त और दयनीय के रूप में समझना, स्वयं को अति तुच्छ और महत्वहीन समझना, और स्वयं की दयनीय और गंदी आत्मा को समझना। जब कोई पूरी तरह से देखता है कि वह वास्तव में क्या है, और यह परिणाम प्राप्त हो जाता है, तब वह स्वयं के बारे में वास्तव में ज्ञान प्राप्त करता है, और ऐसा कहा जा सकता है कि किसी ने अपने आपको पूरी तरह से जान लिया है। केवल तभी कोई स्वयं से वास्तव में घृणा कर सकता है, इतना कि स्वयं को शाप दे, और वास्तव में महसूस करे कि उसे शैतान के द्वारा अत्यधिक गहराई तक भ्रष्ट किया गया है इस तरह से कि वह अब इंसान के समान नहीं है। तब एक दिन, जब मृत्यु का भय दिखाई देगा, तो ऐसा व्यक्ति महसूस करेगा, "यह परमेश्वर की धार्मिक सजा है; परमेश्वर वास्तव में धार्मिक है; मुझे वास्तव में मर जाना चाहिए!" इस बिन्दु पर, वह कोई शिकायत दर्ज नहीं करेगा, परमेश्वर को दोष देने की तो बात ही दूर है, वह बस यही महसूस करेगा कि वह बहुत ज़रूरतमंद और दयनीय है, वो इतना गंदा है कि उसे परमेश्वर द्वारा त्याग दिया और नष्ट कर दिया जाना चाहिए, और उसके जैसी आत्मा पृथ्वी पर रहने के योग्य नहीं है। इसलिए, यह व्यक्ति परमेश्वर की शिकायत या उसका विरोध नहीं करेगा, परमेश्वर के साथ विश्वासघात तो बिल्कुल नहीं करेगा। यदि कोई स्वयं को नहीं जानता है, और तब भी स्वयं को बहुत अच्छा मानता है, तो जब मृत्यु दस्तक देते हुए आएगी, तो ऐसा व्यक्ति महसूस करेगा, कि "मैंने अपनी आस्था में इतना अच्छा किया है। मैंने कितनी मेहनत से खोज की है! मैंने इतना अधिक दिया है, मैंने इतने कष्ट झेले हैं, मगत अंततः, अब परमेश्वर मुझे मरने के लिए कहता है। मुझे नहीं पता कि परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ है? वह मुझे मरने के लिए क्यों कह रहा है? यदि मुझे मरना पड़ता है, तो किसे बचाया जाएगा? क्या मानव जाति का अंत नहीं हो जाएगा?" सबसे पहले, इस व्यक्ति की परमेश्वर के बारे में धारणाएँ हैं। दूसरा, यह व्यक्ति शिकायत कर रहा है, और किसी प्रकार का समर्पण नहीं दर्शा रहा है। यह ठीक पौलुस की तरह है: जब वह मरने वाला था, तो वह स्वयं को नहीं जानता था और जब तक परमेश्वर से दण्ड निकट आया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
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मैं इतना अहंकारी क्यों हूँ?
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