20. अहंकार, आत्मतुष्टि और अपने ही विचारों पर अड़े रहने की समस्या का समाधान कैसे करें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
अहंकारी और दंभी होना इंसान का सबसे प्रत्यक्ष शैतानी स्वभाव है, और अगर लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो उनके पास इसे साफ करने का कोई मार्ग नहीं होगा। सभी लोगों का स्वभाव अहंकारी और दंभी होता है, और वे हमेशा घमंडी होते हैं। वे जो भी सोचें या कहें, चीजों को कैसे भी देखें, वे हमेशा सोचते हैं कि उनका नजरिया और उनका रवैया ही सही है, और दूसरों का कहा उनके जैसा ठीक या उतना सही नहीं है। वे हमेशा अपनी ही राय से चिपके रहते हैं, और बोलने वाला इंसान जो भी हो, वे उसकी बात नहीं सुनते। किसी और की बात सही हो, या सत्य के अनुरूप हो, तो भी वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे; वे सुनने का सिर्फ दिखावा करेंगे, मगर वे उस विचार को सच में नहीं अपनाएँगे, और कार्य करने का समय आने पर भी वे अपने ही ढंग से काम करेंगे, हमेशा यह सोचते हुए कि जो वे कहते हैं वही सही और वाजिब है। संभव है तुम जो कहो, वह सचमुच सही और वाजिब हो, या तुम्हारा किया सही और त्रुटिहीन हो, मगर तुमने कैसा स्वभाव प्रदर्शित किया है? क्या यह अहंकारी और दंभी स्वभाव नहीं है? अगर तुम इस अहंकारी और दंभी स्वभाव को नहीं छोड़ते, तो क्या इससे तुम्हारे कर्तव्य निर्वाह पर असर नहीं पड़ेगा? क्या इससे सत्य का तुम्हारा अभ्यास प्रभावित नहीं होगा? अगर तुम अपने अहंकारी और दंभी स्वभाव को ठीक नहीं कर लेते, तो क्या इससे भविष्य में गंभीर रुकावटें पैदा नहीं होंगी? यकीनन रुकावटें आएंगी, यह होकर ही रहेगा। बोलो, क्या परमेश्वर इंसान के इस बर्ताव को देख सकता है? परमेश्वर यह देखने में बहुत समर्थ है! परमेश्वर न सिर्फ लोगों के दिलों की गहराई जाँचता है, वह हर जगह हमेशा उनकी हर कथनी और करनी का निरीक्षण करता है। तुम्हारा यह व्यवहार देखकर परमेश्वर क्या कहेगा? परमेश्वर कहेगा : “तुम दुराग्रही हो! जब यह न पता हो कि तुम गलत हो तो तुम्हारा अपने विचारों से चिपके रहना तो समझ आता है, मगर जब तुम्हें साफ पता है कि तुम गलत हो फिर भी तुम अपने विचारों से चिपके रहते हो और प्रायश्चित्त करने से पहले मरना पसंद करोगे, तो तुम निरे जिद्दी बेवकूफ हो, और मुसीबत में हो। सुझाव कोई भी दे, अगर तुम इसके प्रति हमेशा नकारात्मक, प्रतिरोधी रवैया अपनाकर सत्य को लेशमात्र भी स्वीकार नहीं करते, और तुम्हारा दिल पूरी तरह प्रतिरोधी, बंद और चीजों का नकारने के भाव से भरा है, तो तुम हँसी के पात्र हो, बेहूदा हो! तुमसे निपटना बहुत मुश्किल है।” तुमसे निपटना मुश्किल क्यों है? तुमसे निपटना इसलिए मुश्किल है, क्योंकि तुम जो प्रदर्शित कर रहे हो वह एक त्रुटिपूर्ण रवैया या त्रुटिपूर्ण व्यवहार नहीं है, बल्कि तुम्हारे स्वभाव का उद्गार है। किस स्वभाव का प्रदर्शन? उस स्वभाव का जिसमें तुम सत्य से ऊब चुके हो, सत्य से घृणा करते हो। जब एक बार तुम्हें उस व्यक्ति के रूप में पहचान लिया गया जो सत्य से घृणा करता है, तो परमेश्वर की नजरों में तुम मुसीबत में हो, और वह तुमसे घृणा करेगा, तुम्हें ठुकरा देगा, और तुम्हें अनदेखा करेगा। लोगों के नजरिये से देखें, तो ज्यादा-से-ज्यादा वे कहेंगे : “इस व्यक्ति का स्वभाव बुरा है। यह बेहद जिद्दी, दुराग्रही और अहंकारी है! इसके साथ निभाना बहुत मुश्किल है, यह सत्य से प्रेम नहीं करता। इसने कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं किया, और यह सत्य पर अमल नहीं करता।” ज्यादा-से-ज्यादा, सब लोग तुम्हारा यही आकलन करेंगे, मगर क्या यह आकलन तुम्हारे भाग्य का फैसला कर सकता है? लोग तुम्हारा जो आकलन करते हैं, वह तुम्हारे भाग्य का फैसला नहीं कर सकता, मगर एक चीज है जो तुम्हें नहीं भूलनी चाहिए : परमेश्वर लोगों के दिलों की जाँच करता है, और साथ ही साथ वह उनकी हर कथनी और करनी का निरीक्षण करता है। अगर परमेश्वर तुम्हें इस तरह परिभाषित करता है, और अगर वह मात्र इतना नहीं कहता कि तुम्हारा स्वभाव थोड़ा भ्रष्ट है, या तुम थोड़े अवज्ञाकारी हो, बल्कि कहता है कि तुम सत्य से घृणा करते हो, तो क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? (यह गंभीर है।) इससे मुसीबत होगी, और यह मुसीबत इसमें नहीं है कि लोग तुम्हें किस नजर से देखते हैं, या तुम्हारा आकलन कैसे करते हैं, यह इस बात में है कि परमेश्वर सत्य से घृणा करने वाले तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को कैसे देखता है। तो परमेश्वर इसे किस नजर से देखता है? क्या परमेश्वर ने सिर्फ यह तय कर दिया है कि तुम सत्य से घृणा करते हो, इससे प्रेम नहीं करते, और कुछ नहीं? क्या यह इतना सरल है? सत्य कहाँ से आता है? सत्य किसका प्रतिनिधित्व करता है? (यह परमेश्वर को दर्शाता है।) इस पर विचार करो : अगर एक इंसान सत्य से घृणा करता है, तो परमेश्वर अपने नजरिए से उसे कैसे देखेगा? (अपने शत्रु के रूप में।) क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? जब कोई व्यक्ति सत्य से घृणा करता है, तो वह परमेश्वर से घृणा करता है! मैं क्यों कहता हूँ कि वह परमेश्वर से घृणा करता है? क्या उन्होंने परमेश्वर को शाप दिया? क्या उन्होंने परमेश्वर के सामने उसका विरोध किया? क्या उन्होंने उसकी पीठ पीछे उसकी आलोचना या निंदा की? ऐसा जरूरी नहीं। तो मैं क्यों कहता हूँ कि सत्य से घृणा करने वाला स्वभाव दर्शाना परमेश्वर से घृणा करना है? यह राई का पहाड़ बनाना नहीं है, यह स्थिति की वास्तविकता है। यह पाखंडी फरीसियों जैसा होना है, जिन्होंने सत्य से अपनी घृणा के कारण प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ा दिया—बाद में हुए परिणाम भयावह थे। इसका यह अर्थ है कि अगर किसी व्यक्ति का स्वभाव ऐसा है कि वह सत्य से ऊब चुका है और उससे घृणा करता है, तो यह कभी भी कहीं भी उफन कर बाहर आ सकता है, और अगर वे इसी के सहारे जीते हैं तो क्या वे परमेश्वर का विरोध नहीं करेंगे? जब उनका सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो सत्य से या विकल्प चुनने से जुड़ी होती है, तो अगर वे सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते, और अपने भ्रष्ट स्वभाव के सहारे जीते हैं, तो स्वाभाविक रूप से वे परमेश्वर का विरोध करेंगे, और उसे धोखा देंगे, क्योंकि उनका भ्रष्ट स्वभाव परमेश्वर और सत्य से घृणा करता है। अगर तुम्हारा स्वभाव ऐसा है तो परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों को लेकर भी तुम सवाल उठाओगे, और उनका विश्लेषण और समालोचना करना चाहोगे। फिर तुम परमेश्वर के वचनों को शक से देखोगे, और कहोगे, “क्या ये सचमुच परमेश्वर के वचन हैं? ये मुझे सत्य जैसे नहीं लगते, ये सब मुझे अनिवार्यतः सही नहीं लगते!” इस प्रकार क्या सत्य से घृणा करने वाला तुम्हारा स्वभाव बाहर नहीं आ गया? इस प्रकार सोचने पर, क्या तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकोगे? यकीनन नहीं। अगर तुम परमेश्वर को समर्पित नहीं हो सकते, तो क्या वह अभी भी तुम्हारा परमेश्वर है? नहीं। फिर तुम्हारे लिए परमेश्वर क्या होगा? तुम उससे शोध के एक विषय के रूप में पेश आओगे, ऐसा जिस पर शक किया जाना चाहिए, जिसकी निंदा होनी चाहिए; तुम उससे एक साधारण और आम इंसान की तरह पेश आओगे, और ऐसे ही उसकी निंदा करोगे। ऐसा करके तुम ऐसे इंसान बन जाओगे जो परमेश्वर का प्रतिरोध और उसका तिरस्कार करता हो। किस प्रकार के स्वभाव के कारण ऐसा होता है? यह ऐसे अहंकारी स्वभाव के कारण होता है जो कुछ हद तक फूल चुका हो; न सिर्फ तुम्हारा शैतानी स्वभाव दिखाई देने लगेगा, बल्कि तुम्हारे शैतानी रूप का भी पूरी तरह खुलासा हो जाएगा। परमेश्वर का प्रतिरोध करने के स्तर तक पहुँच चुके इंसान, जिसका विद्रोहीपन एक विशेष सीमा तक पहुँच चुका हो, उसके और परमेश्वर के बीच के रिश्ते का क्या होता है? यह शत्रुता का रिश्ता बन जाता है, जिसमें व्यक्ति परमेश्वर को अपने विरोध में खड़ा कर लेता है। परमेश्वर में अपनी आस्था में, अगर तुम सत्य को स्वीकार कर उसका आज्ञापालन नहीं कर सकते, तो परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं रह जाता। अगर तुम सत्य को मना करके उसे ठुकरा देते हो, तो तुम ऐसे इंसान बन चुके होगे, जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। फिर भी क्या परमेश्वर तुम्हें बचा सकेगा? यकीनन नहीं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है
अहंकार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की जड़ है। लोग जितने ज्यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का प्रतिरोध किए जाने की संभावना होती है। यह समस्या कितनी गम्भीर है? अहंकारी स्वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं और उनके दिल में परमेश्वर का कोई भय नहीं होता। भले ही लोग परमेश्वर में विश्वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्वर क़तई नहीं मानते। उन्हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्छ मसला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव उसको परमेश्वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्यक्ति हमेशा दूसरों पर नियंत्रण स्थापित करने व सत्ता के लिए परमेश्वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्त होता है। इस तरह के व्यक्ति के हृदय में परमेश्वर के प्रति तनिक भी भय नहीं होता, परमेश्वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे, जो इतने घमंडी होते हैं कि अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पित नहीं हो पाते, यहाँ तक कि बढ़-बढ़कर खुद के लिए गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं और उन्हें परमेश्वर का बिलकुल भी भय नहीं होता। यदि लोग उस मुकाम पर पहुँचना चाहते हैं जहाँ उनके दिल में परमेश्वर के प्रति भय हो तो सबसे पहले उन्हें अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करना होगा। जितना अधिक तुम अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करोगे, तुम्हारे दिल में परमेश्वर के लिए उतना ही अधिक भय होगा और केवल तभी तुम उसके प्रति समर्पित होकर सत्य प्राप्त कर सकते हो और उसे जान सकते हो। केवल सत्य को प्राप्त करने वाले ही वास्तव में मनुष्य होते हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
जब तुम लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करते हो, तो क्या तुम अलग-अलग राय स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हो? क्या तुम दूसरों को बोलने देते हो? (हाँ, पहले मैं अक्सर भाई-बहनों के सुझाव नहीं सुनता था और इसी बात पर जोर देता था कि काम मेरे ही तरीके से किए जाएँ। लेकिन फिर जब तथ्यों से साबित हुआ कि मैं गलत हूँ, तब मुझे एहसास हुआ कि उनके अधिकाँश सुझाव सही थे, कि यह वह प्रस्ताव था जिस पर सब लोगों ने चर्चा की थी और जो दरअसल उपयुक्त था, और यह कि अपने विचारों पर भरोसा करने के कारण मैं चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहा था और यह मुझमें कमी थी। इस अनुभव के बाद, मुझे एहसास हुआ कि सामंजस्यपूर्ण सहयोग कितना अहम होता है।) तो इससे तुम्हें क्या सीख मिलती है? इसका अनुभव करने पर, क्या तुम्हें कोई लाभ हुआ और क्या सत्य समझ में आया? क्या तुम लोगों को लगता है कि कोई भी पूर्ण है? लोग चाहे जितने शक्तिशाली हों, या चाहे जितने सक्षम और प्रतिभाशाली हों, फिर भी वे पूर्ण नहीं हैं। लोगों को यह मानना चाहिए, यह तथ्य है, और यह वह दृष्टिकोण है जो उन्हें अपनी योग्यताओं और क्षमताओं या दोषों के प्रति रखना चाहिए; यह वह तार्किकता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। ऐसी तार्किकता के साथ तुम अपनी शक्तियों और कमज़ोरियों के साथ-साथ दूसरों की शक्तियों और कमज़ोरियों से भी उचित ढंग से निपट सकते हो, और इसके बल पर तुम उनके साथ सौहार्दपूर्वक कार्य कर पाओगे। यदि तुम सत्य के इस पहलू को समझ गए हो और सत्य वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ सौहार्दपूर्वक रह सकते हो, उनकी खूबियों का लाभ उठाकर अपनी किसी भी कमज़ोरी की भरपाई कर सकते हो। इस प्रकार, तुम चाहे जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या चाहे जो कार्य कर रहे हो, तुम सदैव उसमें श्रेष्ठतर होते जाओगे और परमेश्वर का आशीष प्राप्त करोगे। यदि तुम हमेशा सोचते हो कि तुम बहुत कुशल हो और दूसरे तुम्हारी तुलना में बदतर हैं, यदि तुम हमेशा अपनी राय को अंतिम राय मनवाना चाहते हो, तो इससे परेशानी होगी। यह स्वभावगत समस्या है। क्या ऐसे लोग अहंकारी और आत्मतुष्ट नहीं हैं? जरा सोचो कि कोई तुमको अच्छी सलाह देता है, और तुम सोचते हो कि अगर तुमने इसे स्वीकार लिया तो वे तुमको नीची नजर से देखने लगेंगे और सोचेंगे कि तुम उन जितने अच्छे नहीं हो। तो तुम बस उनकी बात न सुनने का फैसला ले लेते हो। इसके बजाय, तुम उन पर बड़े-बड़े और शानदार शब्दों से छा जाने की कोशिश करते हो ताकि वे तुमको सम्मान दें। यदि तुम हमेशा लोगों से इसी तरह बातचीत करते हो, तो क्या तुम उनसे सामंजस्य के साथ सहयोग कर पाओगे? तुम न केवल सामंजस्य स्थापित करने में नाकाम रहोगे, बल्कि इसके परिणाम भी नकारात्मक होंगे। समय के साथ, हर व्यक्ति तुमको बेहद कपटी और धूर्त समझने लगेगा, ऐसा व्यक्ति जिसकी वे थाह नहीं ले सकते। तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते और तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, तो अन्य लोग तुमसे विमुख हो जाते हैं। यदि हर कोई तुमसे विमुख हो जाता है, तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि तुमको ठुकरा दिया गया है? मुझे बताओ, परमेश्वर उस व्यक्ति से कैसा व्यवहार करेगा जिसे हर कोई ठुकरा देता है? ऐसे व्यक्ति से परमेश्वर भी घृणा करेगा। परमेश्वर ऐसे लोगों से घृणा क्यों करता है? हालाँकि, अपना कर्तव्य पूरा करने के उनके इरादे सच्चे होते हैं, पर उनके तरीकों से परमेश्वर को घृणा होती है। वे जो भी स्वभाव प्रकट करते हैं और उनकी हर सोच, विचार और इरादे परमेश्वर की नजर में दुष्ट होते हैं, और ये ऐसी चीजें हैं जिनसे परमेश्वर को घृणा है और जो उसे नाराज करती हैं। जब लोग दूसरों की नजरों में खुद को ऊँचा दिखाने के मकसद से हमेशा अपनी कथनी और करनी में ओछी चालें अपनाते हैं, तो इस व्यवहार से परमेश्वर को घृणा होती है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
जो लोग अहंकारी और आत्म-तुष्ट होते हैं वे अपने विचारों का पालन करने के लिए तत्पर रहते हैं, तो क्या उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है? जिन लोगों के व्यक्तिगत विचार मजबूत होते हैं, जब कार्य करने का समय आता है तो वे परमेश्वर को भूल जाते हैं, वे उसके प्रति समर्पण को भूल जाते हैं; केवल तभी जब वे किसी दीवार से टकरा गए हों और वे कुछ भी करने में असफल रहते हैं, तभी उन्हें लगता है कि उन्होंने परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं किया है, और परमेश्वर से प्रार्थना नहीं की है। ये कौन सी समस्या है? यह दिल में परमेश्वर का न होना है। उनके कार्य दिखाते हैं कि परमेश्वर उनके दिलों से अनुपस्थित है, और वे केवल स्वयं पर भरोसा करते हैं। और इसलिए, चाहे तुम कलीसिया का काम कर रहे हो, कोई कर्तव्य निभा रहे हो, कुछ बाहरी मामले सँभाल रहे हो, या अपने निजी जीवन में मामलों से निपट रहे हो, तुम्हारे दिल में सिद्धांत होने चाहिए, एक आध्यात्मिक स्थिति होनी चाहिए। कौन-सी स्थिति? “चाहे कुछ भी हो, मेरे साथ कुछ भी होने से पहले मुझे प्रार्थना करनी चाहिए, मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए, मुझे उसकी संप्रभुता के प्रति समर्पण करना चाहिए, सब-कुछ परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किया जाता है, और जब कुछ हो, तब मुझे परमेश्वर की इच्छा खोजनी चाहिए, मेरी यही मानसिकता होनी चाहिए, मुझे अपनी योजनाएँ नहीं बनानी चाहिए।” कुछ समय तक इस प्रकार अनुभव करने के बाद, लोग खुद को कई चीजों में परमेश्वर का प्रभुत्व देखते हुए पाएँगे। अगर तुम्हारी हमेशा अपनी योजनाएँ, विचार, कामनाएँ, स्वार्थी उद्देश्य और इच्छाएँ होंगी, तो तुम्हारा हृदय अनजाने ही परमेश्वर से भटक जाएगा, तुम यह देखने में असमर्थ हो जाओगे कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है, और अधिकांश समय परमेश्वर तुमसे छिपा रहेगा। क्या तुम अपने विचारों के अनुसार कार्य करना पसंद नहीं करते? क्या तुम अपनी योजनाएँ नहीं बनाते? तुम्हारे पास दिमाग है, तुम शिक्षित हो, जानकार हो, तुम्हारे पास चीजें करने की क्षमता और कार्यपद्धति है, तुम उन्हें अपने दम पर कर सकते हो, तुम अच्छे हो, तुम्हें परमेश्वर की जरूरत नहीं है, और इसलिए परमेश्वर कहता है, “तो जाओ और इसे अपने दम पर करो, और इसके ठीक से होने न होने की जिम्मेदारी लो, मुझे परवाह नहीं है।” परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देता। जब लोग परमेश्वर में अपनी आस्था में इस तरह से अपनी इच्छा के पीछे चलते हैं और जिस तरह चाहते हैं, वैसे विश्वास करते हैं, तो परिणाम क्या होता है? वे कभी भी परमेश्वर के प्रभुत्व का अनुभव करने में सक्षम नहीं होते, वे कभी भी परमेश्वर का हाथ नहीं देख पाते, कभी भी पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी महसूस नहीं कर पाते, वे परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस नहीं कर पाते। और समय बीतने के साथ क्या होगा? उनके हृदय परमेश्वर से और भी दूर हो जाएँगे, और इसके अप्रत्यक्ष प्रभाव होंगे। कौन-से प्रभाव? (परमेश्वर पर संदेह करना और उसे नकारना।) यह केवल परमेश्वर पर संदेह करने और उसे नकारने का मामला नहीं है; जब लोगों के दिलों में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं होता, और वे लंबे समय तक जैसा चाहते हैं वैसा करते हैं, तो एक आदत बन जाएगी : जब उनके साथ कुछ होगा, तो वे पहला काम अपने समाधान, लक्ष्यों, प्रेरणाओं और योजनाओं के बारे में सोचेंगे; वे पहले यह सोचेंगे कि यह उनके लिए लाभकारी है या नहीं; अगर हाँ, तो वे उसे करेंगे, और अगर नहीं, तो वे नहीं करेंगे; सीधे इस रास्ते पर चलना, उनकी आदत बन जाएगी। और अगर वे बिना पश्चात्ताप के इसी तरह करते रहे, तो परमेश्वर ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करेगा? परमेश्वर उन पर कोई ध्यान नहीं देगा, और उन्हें एक ओर कर देगा। एक ओर किए जाने का क्या मतलब है? परमेश्वर न तो उन्हें अनुशासित करेगा और न ही उन्हें फटकारेगा; वे अधिकाधिक मतलबी बन जाएंगे, उन्हें न्याय, ताड़ना, अनुशासन, या फटकार नहीं मिलेगी, प्रबुद्धता, रोशनी या मार्गदर्शन मिलना तो दूर की बात है। एक ओर किए जाने का यही मतलब है। जब परमेश्वर किसी को एक तरफ कर देता है तो उन्हें कैसा महसूस होता है? उनकी आत्मा अंधकारमय महसूस करती है, परमेश्वर उनके साथ नहीं होता, वे अपने उद्देश्य को लेकर स्पष्ट नहीं होते, उनके पास कार्य करने का कोई रास्ता नहीं होता, और वे केवल मूर्खतापूर्ण मामलों में उलझे रहते हैं। जैसे-जैसे इस तरह समय गुजरता जाता है, वे सोचने लगते हैं कि जीवन का कोई अर्थ नहीं है, और उनकी आत्माएँ खोखली हैं, इसलिए वे अविश्वासियों के समान बन जाते हैं और उनका तेजी से पतन होने लगता है। यह एक ऐसा व्यक्ति है जिसे परमेश्वर ठुकरा देता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के अभ्यास के सिद्धांत
खराब काबिलियत होना घातक होता है। यदि किसी का स्वभाव भी खराब है, उसमें नैतिकता की कमी है, सलाह नहीं सुनता, सकारात्मक चीजें स्वीकार नहीं कर पाता, और नई चीजें सीखने और अपनाने की इच्छा नहीं रखता है, तो ऐसा व्यक्ति बेकार ही होता है! जो लोग अपने कर्तव्य निभाते हैं, उनमें अंतरात्मा और विवेक होगा, उन्हें अपनी कीमत और अपनी कमियां पता होंगी, और वो समझ पाएंगे कि उनमें क्या नहीं है और उन्हें क्या सुधारना चाहिए। उन्हें हमेशा यही लगेगा कि उनमें बहुत कमी है, और अगर वे अध्ययन नहीं करते और नई चीजें नहीं स्वीकारते, तो उन्हें त्यागा जा सकता है। यदि उनके दिल में आने वाले संकट की समझ है, तो इससे उन्हें प्रेरणा मिलती है और चीजें सीखने की इच्छा होती है। एक ओर, व्यक्ति को खुद को सत्य से सुसज्जित करना चाहिए, और दूसरी ओर, उसे अपने कर्तव्य निभाने से जुड़ा पेशेवर ज्ञान हासिल करना चाहिए। इस तरह अभ्यास करके वे प्रगति कर सकते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करने से उन्हें अच्छे नतीजे मिलेंगे। केवल अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और मानवता के अनुरूप जीने से ही जीवन मूल्यवान हो सकता है, इसलिए अपने कर्तव्यों का पालन करना सबसे सार्थक चीज है। कुछ लोगों का स्वभाव खराब होता है और वे न केवल अज्ञानी होते हैं बल्कि घमंडी भी होते हैं। वे हमेशा सोचते हैं कि सभी चीजों के संबंध में सत्य खोजने और हमेशा दूसरों की सुनने से दूसरे लोग उन्हें नीचा समझेंगे, और वे दूसरों की नजर में गिर जाएंगे, और इस तरह के आचरण से गरिमा कम होती है। वास्तव में, इसका उलटा होता है। अहंकारी और आत्म-तुष्ट होना, कुछ भी न सीखना, हर चीज में पीछे रहना और पुराने ढंग का होना, और ज्ञान, अंतर्दृष्टि और विचारों की कमी होना असल में शर्मनाक है, और यह तब होता है जब कोई इंसान ईमानदारी और गरिमा खो देता है। कुछ लोग कुछ भी ठीक से नहीं कर पाते, वे जो कुछ सीखते हैं उसकी आधी-अधूरी समझ रखते हैं, केवल कुछ धर्म-सिद्धांत समझकर ही संतुष्ट हो जाते हैं और सोचते हैं कि वे सक्षम हैं। मगर वे अभी भी कुछ हासिल नहीं कर पाते, और उनको कोई ठोस परिणाम नहीं मिलते। यदि तुम उन्हें बताते हो कि उन्हें कोई समझ नहीं है और उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया है, तो वे इससे आश्वस्त नहीं होते और लगातार अपनी बात पर बहस करते रहते हैं। लेकिन जब वे कोई काम करते हैं, तो वे उसे खराब ढंग से करते हैं, और वे आधे-अधूरे होते हैं। अगर कोई किसी काम को ठीक से नहीं सँभाल सकता तो क्या वह बेकार नहीं है? क्या वह निकम्मा नहीं है? बहुत ही कम काबिलियत वाले लोग सबसे आसान काम भी नहीं सँभाल पाते। वे निकम्मे होते हैं और उनके जीवन का कोई मूल्य नहीं होता। कुछ कहते हैं, “मैं छोटे कस्बों में पला-बढ़ा हूँ, मुझे शिक्षा या ज्ञान नहीं मिला है और तुम लोगों के मुकाबले मेरी काबिलियत कमजोर है। तुम शहर में रहते हो और शिक्षित और जानकार हो, इसलिए तुम हर चीज में उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हो।” क्या यह कथन सही है? (नहीं।) इसमें गलत क्या है? (कोई व्यक्ति कुछ हासिल कर पाएगा या नहीं, इसका उसके परिवेश से कोई लेना-देना नहीं होता; यह मुख्य रूप से इस पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति सीखने और खुद को बेहतर बनाने की कोशिश करता भी है या नहीं।) परमेश्वर लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, यह इस बात से तय नहीं होता कि वे कितने पढ़े-लिखे हैं या वे किस तरह के परिवेश में पैदा हुए या कितने प्रतिभाशाली हैं। इसके बजाय, वह सत्य के प्रति लोगों के नजरिए के आधार पर उनके साथ व्यवहार करता है। यह रवैया किस बात से जुड़ा है? यह उनकी मानवता से जुड़ा है और उनके स्वभाव से भी। यदि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो तो तुमको सत्य को सही तरीके से सँभालने लायक होना चाहिए। यदि तुम्हारा रवैया विनम्रता और सत्य को स्वीकार करने का है, तो भले ही तुम्हारी काबिलियत कुछ कम हो, परमेश्वर फिर भी तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और तुमको कुछ हासिल करने देगा। अगर तुम्हारी काबिलियत अच्छी है, लेकिन हमेशा अहंकारी और आत्मतुष्ट बने रहते हो, लगातार सोचा करते हो कि तुम जो कुछ भी कहते हो वह सही है और दूसरे जो कुछ भी कहते हैं वह गलत है, दूसरे जो भी सुझाव दें उसे अस्वीकार कर देते हो, यहाँ तक कि सत्य को भी नकार देते हो, चाहे उसके बारे जैसी भी संगति की जाए और हमेशा उसका विरोध करते हो, तो क्या तुम जैसा व्यक्ति परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकता है? क्या पवित्र आत्मा तुम जैसे व्यक्ति पर कार्य करेगा? वह नहीं करेगा। परमेश्वर कहेगा कि तुम्हारा स्वभाव बुरा है और तुम उसकी प्रबुद्धता प्राप्त करने के योग्य नहीं हो, और अगर तुम पश्चात्ताप नहीं करते, तो वह उसे भी वापस ले लेगा जो कभी तुम्हारे पास था। यही बेनकाब होना है। ऐसे लोग दयनीय जीवन जीते हैं। साफ तौर पर वे शून्य होते हैं, हर काम में अनाड़ी होते हैं, फिर भी उन्हें लगता है कि वे बहुत कुशल हैं, और हर मामले में दूसरों से बेहतर हैं। वे कभी भी दूसरों के सामने अपने दोषों या अपनी कमियों की चर्चा नहीं करते, न ही अपनी कमजोरियों और नकारात्मकता की। वे हमेशा अपनी योग्यता का दिखावा करते हैं और दूसरों पर झूठी छाप छोड़ते हैं, जिससे दूसरों को लगता है कि वे हर चीज में निपुण हैं, उनमें कोई कमजोरी नहीं है, उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं है, उन्हें दूसरों की राय सुनने की कोई आवश्यकता नहीं है, अपनी कमजोरियों को दूर करने के लिए दूसरों की क्षमता से सीखने की आवश्यकता नहीं है, और वे हमेशा हर किसी से बेहतर ही रहेंगे। यह किस तरह का स्वभाव है? (अहंकारी स्वभाव।) इतना अहंकार। ऐसे लोग दयनीय जीवन जीते हैं! क्या वे सचमुच सक्षम हैं? क्या वे सचमुच चीजें हासिल कर सकते हैं? अतीत में उन्होंने कई चीजों में गड़बड़ की है, और इसके बावजूद ऐसे लोग अभी भी सोचते हैं कि वे कुछ भी कर सकते हैं। क्या यह पूरी तरह अनुचित नहीं है? जब लोगों में इस हद तक विवेक की कमी होती है, तो वे भ्रमित हो जाते हैं। ऐसे लोग नई चीजें नहीं सीखते या नई चीजें स्वीकार नहीं करते। अंदर से वे रूखे, संकीर्ण सोच वाले और दरिद्र होते हैं, और चाहे जैसे भी हालात हों, वे सिद्धांतों को जानने और पकड़ पाने या परमेश्वर की इच्छा समझने में नाकाम रहते हैं, और केवल विनियमों पर टिके रहना, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को बोलना और दूसरों के सामने दिखावा करना जानते हैं। नतीजा यह होता है कि उन्हें किसी सत्य की कोई समझ नहीं होती और उनमें सत्य-वास्तविकता का थोड़ा भी अंश नहीं होता, फिर भी वे इतने अहंकारी बने रहते हैं। वे बस भ्रमित लोग होते हैं, जो तर्क से पूरी तरह अप्रभावित होते हैं, और जिन्हें केवल त्यागा जा सकता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
किसी मामले का सामना करते वक्त, अगर सत्य की खोज किए बिना ही लोग बहुत मनमाने हों और अपने ही विचारों पर जोर दें, तो यह बहुत खतरनाक है। परमेश्वर ऐसे लोगों से घृणा करेगा और नकार देगा और उन्हें अलग कर देगा। इसके परिणाम क्या होंगे? निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि उन पर बाहर निकाल देने का खतरा मंडरा रहा है। हालांकि, जो सत्य की खोज करते हैं, वे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं, और परिणाम के तौर पर, परमेश्वर की आशीष प्राप्त कर सकते हैं। सत्य को खोजने और नहीं खोजने के दो अलग-अलग रवैये तुम्हारे अंदर दो अलग-अलग दशाएँ और दो अलग-अलग परिणाम ला सकते हैं। तुम लोग कौन सा परिणाम पसंद करोगे? (मैं परमेश्वर की प्रबुद्धता प्राप्त करना पसंद करूँगा।) अगर लोग परमेश्वर द्वारा प्रबुद्ध और निर्देशित होना और उसके अनुग्रह प्राप्त करना चाहते हैं, तो उनका रवैया किस तरह का होना चाहिए? उनमें परमेश्वर के सामने अक्सर खोजने और आज्ञाकारिता का रवैया होना चाहिए। चाहे तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, दूसरों के साथ बातचीत कर रहे हो, या अपने सामने आई किसी विशेष समस्या से निपट रहे हो, तुममें खोज और आज्ञाकारिता का रवैया होना चाहिए। इस तरह का रवैया होने पर यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर के प्रति कुछ भय है। सत्य की खोज और उसका पालन करने में सक्षम होना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है। अगर तुममें खोज और आज्ञाकारिता के रवैये का अभाव है, और इसके बजाय तुम अड़ियल विरोधी बनकर स्वयं से चिपके रहते हो, सत्य को स्वीकारने से मना करते हो और उससे ऊब चुके हो, तो तुम स्वाभाविक रूप से बहुत अधिक बुराई करोगे। तुम खुद को ऐसा करने से रोक नहीं पाओगे! अगर लोग इस समस्या को हल करने के लिए कभी सत्य का अनुसरण नहीं करें, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि चाहे वे कितना भी अनुभव कर लें, चाहे वे कितनी भी परिस्थितियों में खुद को पाएँ, चाहे परमेश्वर उनके लिए कितने ही सबक निर्धारित करे, वे फिर भी सत्य को नहीं समझेंगे, और अंततः सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने में असमर्थ रहेंगे। अगर लोगों में सत्य-वास्तविकता नहीं होगी, तो वे परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने में असमर्थ होंगे, और अगर वे कभी परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकेंगे, फिर वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने वाले लोग नहीं होंगे। लोग लगातार अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर का अनुसरण करने की इच्छा करते हैं। क्या चीजें इतनी सरल हैं? बिलकुल नहीं। लोगों के जीवन में ये चीजें बेहद महत्वपूर्ण हैं! अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाकर परमेश्वर को संतुष्ट करना और उसका भय मानना, और बुराई से दूर रहना आसान नहीं है। लेकिन मैं तुम लोगों को अभ्यास का एक सिद्धांत बताऊँगा : अगर अपने साथ कुछ होने पर तुम्हारा रवैया खोज और आज्ञाकारिता का रहता है, तो वह तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम्हारे लिए अंतिम लक्ष्य तुम्हारी रक्षा किया जाना नहीं है। यह लक्ष्य है तुम्हें सत्य समझाना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बनाना; यही अंतिम लक्ष्य है। अगर समस्त अनुभवों में तुम्हारा यह रवैया रहता है, तो तुम यह महसूस करना बंद कर दोगे कि अपना कर्तव्य निभाना और परमेश्वर की इच्छा पूरी करना खोखले शब्द और नारे हैं; वह अब इतना कठिन नहीं लगेगा। इसके बजाय, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम पहले ही कई सत्य समझ जाओगे। अगर तुम इस तरह अनुभव करने का प्रयास करोगे, तो तुम निश्चित रूप से फल प्राप्त करोगे। यह मायने नहीं रखता कि तुम कौन हो, तुम्हारी उम्र कितनी है, तुम कितने शिक्षित हो, तुमने कितने साल परमेश्वर में विश्वास किया है, या तुम कौन-सा कर्तव्य निभाते हो। अगर तुम्हारा रवैया खोजपूर्ण और आज्ञाकारिता का रहता है, अगर तुम इस तरह से अनुभव करते हो, तो अंतत: तुम्हारा सत्य को समझना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना निश्चित है। हालाँकि, अगर अपने साथ होने वाली हर चीज में तुम्हारा खोज और आज्ञाकारिता का रवैया नहीं रहता है, तो तुम सत्य को नहीं समझ पाओगे, न ही तुम सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
शैतान ने मानवजाति को इतनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है कि सभी की प्रकृति शैतानी और स्वभाव अहंकारी है; यहाँ तक कि मूर्ख और बेवकूफ भी अहंकारी हैं, और खुद को अन्य लोगों से बेहतर मानते हुए उनकी आज्ञा का पालन करने से इनकार कर देते हैं। साफ दिखाई देता है कि मानवजाति बहुत गहराई तक भ्रष्ट है और उसके लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना बहुत मुश्किल है। अपने अहंकार और दंभ के कारण, लोगों में विवेक की पूरी तरह से कमी हो गई है; वे किसी की बात नहीं मानते—दूसरों की बात सही और सत्य के अनुरूप होने पर भी वे उनकी बात नहीं मानते। यह अहंकार के कारण ही है कि लोग परमेश्वर का मूल्यांकन, निंदा और प्रतिरोध करने का दुस्साहस करते हैं। तो, अहंकारी स्वभाव का समाधान कैसे किया जा सकता है? क्या इसका समाधान मानवीय संयम के भरोसे रहकर किया जा सकता है? क्या केवल इसकी पहचान करने और इसे स्वीकार करने मात्र से इसका समाधान हो सकता है? बिल्कुल नहीं। अहंकारी स्वभाव के समाधान का केवल एक ही तरीका है, और वह है परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना। केवल वे जो सत्य को स्वीकार करने में सक्षम हैं, धीरे-धीरे अपने अहंकारी स्वभाव को त्याग सकते हैं; जो लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, वे कभी अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करने में सक्षम नहीं होंगे। मैं ऐसे कई लोगों को देखता हूँ जो अपने कर्तव्य में थोड़ी प्रतिभा क्या दिखा देते हैं, इसे अपने दिमाग पर हावी हो जाने देते हैं। अपनी योग्यताएँ दिखाकर वे सोचते हैं कि वे बहुत प्रभावशाली हैं, और फिर वे उन्हीं के सहारे जीवन गुजार देते हैं और उससे ज्यादा कोशिश नहीं करते। दूसरे चाहे जो भी कहें, वे उनकी बात यह सोचकर नहीं सुनते कि उनके पास जो छोटी-छोटी चीजें हैं, वे ही सत्य हैं और वे स्वयं सर्वोच्च हैं। यह कैसा स्वभाव है? यह अहंकारी स्वभाव है। उनमें तर्क की बहुत कमी है। क्या अहंकारी स्वभाव होने पर कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? क्या वह परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी हो सकता है और अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कर सकता है? यह तो और भी मुश्किल है। अहंकारी स्वभाव को ठीक करने के लिए, उसे सीखना होगा कि अपना कर्तव्य निभाते समय परमेश्वर के कार्य, उसके न्याय और ताड़ना का अनुभव कैसे किया जाए। केवल इसी तरह से वह स्वयं को वास्तव में जान सकता है। केवल अपने भ्रष्ट सार और अपने अहंकार की जड़ को स्पष्ट रूप से देखकर, और फिर उसे समझकर और उसका विश्लेषण करके ही तुम वास्तव में अपना प्रकृति सार जान सकते हो। तुम्हें अपने अंदर की सभी भ्रष्ट चीजों को खोदकर बाहर निकालना होगा, और उन्हें सामने रखकर सत्य के आधार पर उन्हें जानना होगा, तभी तुम्हें पता चलेगा कि तुम क्या हो : न केवल तुम अहंकारी स्वभाव से भरे हो, न केवल तुममें तर्क और आज्ञाकारिता की कमी है, बल्कि तुम पाओगे कि तुममें बहुत-सी चीजों की कमी है, तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है, और तुम बहुत दयनीय हो। तब तुम अहंकार नहीं कर पाओगे। यदि तुम इस तरह से विश्लेषण करके स्वयं को नहीं जानते, तो अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम्हें ब्रह्मांड में अपना स्थान पता नहीं चलेगा। तुम सोचोगे कि तुम हर तरह से उत्तम हो, दूसरों से जुड़ा सब कुछ बुरा है, केवल तुम ही सर्वश्रेष्ठ हो। फिर, तुम हर वक्त सबके सामने दिखावा करोगे, ताकि दूसरे तुम्हें आदर से देखें और तुम्हारी पूजा करें। यह पूरी तरह से आत्म-जागरूकता का अभाव होना है। कुछ लोग हमेशा दिखावा करते रहते हैं। दूसरों को यह अप्रिय लगता है, तो वे अहंकारी कहकर उनकी आलोचना करते हैं। परन्तु वे इसे स्वीकार नहीं करते; उन्हें यही लगता है कि वे प्रतिभाशाली और कुशल हैं। यह कैसा स्वभाव है? वे अत्यधिक अहंकारी और दंभी हैं। क्या ऐसे अहंकारी और दंभी लोग सत्य के प्यासे हो सकते हैं? क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? यदि वे कभी स्वयं को जानने में सक्षम नहीं होते, और अपने भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं पाते, तो क्या वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हैं? निश्चित रूप से, नहीं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने स्वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है
परमेश्वर में अपनी आस्था में, अगर तुम सत्य को स्वीकार कर उसका आज्ञापालन नहीं कर सकते, तो परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं रह जाता। अगर तुम सत्य को मना करके उसे ठुकरा देते हो, तो तुम ऐसे इंसान बन चुके होगे, जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। फिर भी क्या परमेश्वर तुम्हें बचा सकेगा? यकीनन नहीं। परमेश्वर तुम्हें अपना उद्धार पाने का एक मौका देता है, और तुम्हें एक शत्रु के रूप में नहीं देखता, मगर तुम सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते और परमेश्वर को अपने विरोध में खड़ा देते हो; परमेश्वर को अपने सत्य और अपने मार्ग के रूप में स्वीकार करने की तुम्हारी असमर्थता तुम्हें एक ऐसा इंसान बना देती है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। इस समस्या को कैसे सुलझाया जा सकता है? तुम्हें जल्द प्रायश्चित्त कर अपना मार्ग बदल लेना चाहिए। उदाहरण के लिए, अपना कर्तव्य निभाते समय जब तुम्हारे सामने कोई समस्या या कठिनाई आए, और तुम उसे सुलझाना न जानो, तो तुम्हें बिना सोचे-विचारे उस पर मनन नहीं करना चाहिए, तुम्हें पहले परमेश्वर के सामने खुद को शांत करना चाहिए, प्रार्थना कर उससे जानना चाहिए और देखना चाहिए कि परमेश्वर के वचन इस बारे में क्या कहते हैं। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद भी अगर तुम न समझो, और न जान पाओ कि यह मसला किन सत्यों से संबंधित है, तो तुम्हें एक सिद्धांत को कसकर थामे रहना चाहिए—यानी पहले आज्ञाकारी बनो, कोई निजी विचार या सोच न रखो, शांतचित्त होकर प्रतीक्षा करो, और देखो कि परमेश्वर क्या कुछ करने की इच्छा और इरादा रखता है। जब तुम सत्य को न समझ सको, तो तुम्हें उसे खोजना चाहिए, और बिना विचारे लापरवाही से कुछ करने के बजाय परमेश्वर की प्रतीक्षा करनी चाहिए। तुम्हारे सत्य न समझ पाने पर, कोई तुम्हें सुझाव दे, और सत्य के अनुसार कुछ करने का तरीका बताए, तो तुम्हें पहले उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, सबको उस पर संगति करने देना चाहिए, और देखना चाहिए कि यह रास्ता सही है या नहीं, यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं। अगर तुम इस बात की पुष्टि कर लो कि यह सत्य के अनुरूप है, तो उस पर अमल करो; अगर तुम तय कर लो कि यह सत्य के अनुरूप नहीं है, तो उस पर अमल मत करो। यह इतना ही आसान है। सत्य की खोज करते समय, तुम्हें बहुत-से लोगों से पूछना चाहिए। अगर किसी के पास कुछ कहने को है, तो तुम्हें सुनना चाहिए और उसके सभी कथनों को गंभीरता से लेना चाहिए। उनकी अनदेखी न करो, न ही उन्हें झिड़को, क्योंकि यह तुम्हारे कर्तव्य के दायरे के भीतर के मामलों से संबंधित है और तुम्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए। यही सही रवैया और सही दशा है। जब तुम्हारी दशा सही हो, और तुम सत्य से ऊबा हुआ और उससे घृणा करने वाला स्वभाव प्रदर्शित न करो, तो इस प्रकार अभ्यास करने से यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की जगह ले लेगा। यही है सत्य का अभ्यास। अगर तुम सत्य पर इस तरह अमल करोगे, तो इसका फल क्या होगा? (पवित्र आत्मा हमारा मार्गदर्शन करेगा।) पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन पाना एक पहलू है। कभी-कभी मामला बहुत आसान होगा और इसे तुम अपने दिमाग से पूरा कर लोगे; दूसरे लोगों के सुझाव देने और तुम्हारे उन्हें समझ लेने के बाद तुम चीजों को सुधार सकोगे और सिद्धांतों के अनुसार काम कर पाओगे। लोगों को लग सकता है कि यह बहुत छोटी बात है, मगर परमेश्वर के लिए यह बड़ी बात है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जब तुम ऐसा अभ्यास करते हो, तो परमेश्वर के लिए तुम सत्य पर अमल करने वाले इंसान बन जाते हो, एक इंसान जो सत्य से प्रेम करता है, और एक ऐसा इंसान जो सत्य से नहीं ऊबता—जब परमेश्वर तुम्हारे दिल में झांकता है, तो वह तुम्हारा स्वभाव भी देखता है, और यह एक बहुत बड़ी बात है। दूसरे शब्दों में, जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, परमेश्वर की मौजूदगी में कर्म करते हो, और तुम जो जीते और दर्शाते हो, वे सब सत्य की वो वास्तविकताएँ होती हैं, जो लोगों में होनी चाहिए। तुम्हारे हर काम में जो रवैये, सोच-विचार और दशाएँ होती हैं, वे परमेश्वर के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण होती हैं, और परमेश्वर इन्हीं की जाँच करता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है
जब तुम्हारे सामने कोई मामला आए तो बहस करने के बजाय पहले तुम्हें अपनी धारणाएँ, कल्पनाएँ और फैसले परे रखने चाहिए—किसी व्यक्ति में यही तार्किकता होनी चाहिए। अगर कोई ऐसी चीज है जिसे मैं समझता नहीं हूँ और मैं इसका विशेषज्ञ नहीं हूँ तो किसी ऐसे व्यक्ति से राय लूँगा जो इस विषय से परिचित हो। उससे सलाह लेने के बाद मुझे इस मामले की बुनियादी समझ मिल जाएगी। लेकिन, मुझे मामला खुद सँभालने के तरीके खोजते रहने चाहिए, न तो मैं पूरी तरह दूसरे लोगों की राय पर निर्भर रह सकता हूँ, न मुझे पूरी तरह अपनी कल्पनाओं के आधार पर मामला सँभालना चाहिए। मुझे काम करने के ऐसे तरीके खोजते रहने चाहिए जिससे कलीसिया के कार्य को फायदा हो और यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप भी रहे। क्या यह चीजों से निपटने का तार्किक तरीका नहीं है? क्या यही बुद्धि सामान्य व्यक्ति में नहीं होनी चाहिए? इस तरह सलाह करना और माँगना सही है। मान लो कि तुम किसी एक क्षेत्र के जानकार हो और मैं इसके बारे में तुमसे सलाह लेता हूँ, लेकिन बाद में, तुम माँग करने लगो कि तुमने जो कहा, मैं उसी का पालन करूँ और तुम्हारी कार्ययोजना पर चलूँ—तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह अहंकारी स्वभाव है। ऐसे में तुम्हारे लिए कार्य करने का उचित तरीका क्या होगा? तुम्हें कहना चाहिए : “मुझे इस क्षेत्र में थोड़ा-सा ही ज्ञान है, लेकिन यह सत्य से संबंधित नहीं है। आप इसे केवल सुझाव के तौर पर ले सकते हैं, लेकिन कार्य कैसे करना है इसकी विशिष्ट जानकारी के लिए आपको परमेश्वर की इच्छा के बारे में और अधिक जानकारी लेनी होगी।” अगर मैं तुमसे सलाह माँगता हूँ और तुम वास्तव में यह सोचते हो कि तुम इस मामले को समझते हो, और खुद को असाधारण मानते हो, तो यह अहंकारी स्वभाव है। अहंकारी प्रकृति तुममें इस प्रकार की प्रतिक्रिया और अभिव्यक्ति ला सकती है—जब कोई व्यक्ति तुमसे सलाह माँगता है तो तुम फौरन अपनी तार्किकता खो बैठते हो; तुम सामान्य व्यक्ति की बुद्धि खो देते हो और सही निर्णय नहीं ले पाते हो। जब किसी का भ्रष्ट स्वभाव छलक रहा हो तो इसका कारण सामान्य नहीं होता है। इसलिए तुम्हारे साथ चाहे जो हो, भले ही दूसरे लोग तुमसे सलाह लें, तुम्हें धृष्ट बनने की बजाय सामान्य बुद्धि अपनानी चाहिए। कार्य करने का सामान्य तरीका क्या है? इस सवाल पर तुम्हें यह सोचना चाहिए : “यद्यपि मैं यह मामला समझता हूँ लेकिन मैं धृष्टता नहीं दिखा सकता हूँ। मुझे इसे सामान्य मानवता की बुद्धि से सुलझाना चाहिए।” परमेश्वर के समक्ष लौटने पर तुम्हें सामान्य मानवता की बुद्धि मिलेगी। यद्यपि यदा-कदा तुम आत्म-संतुष्टि का कोई भाव प्रकट करोगे लेकिन तुम्हारे दिल में संयम होगा—तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे घटकर आधे रह जाएँगे, और दूसरों पर तुम्हारा बहुत ही कम नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। लेकिन, अगर तुम अपने अहंकारी स्वभाव के अनुसार कार्य करते हो, हमेशा खुद को ही सही मानते हो और लिहाजा दूसरों को अपनी बात सुनने के लिए मजबूर करते हो तो यह बुद्धि का भारी अभाव दिखाता है। अगर लोगों को बताया गया तुम्हारा रास्ता सही है तो चीजें ठीक हो सकती हैं, लेकिन यदि यह रास्ता गलत है तो उन्हें नुकसान होगा। अगर कोई तुमसे निजी मामले में सलाह मांगे और तुम उसे गलत रास्ता पकड़ा दो तो तुम केवल एक व्यक्ति को नुकसान पहुँचाओगे। लेकिन, अगर वह तुमसे कलीसिया के कार्य से जुड़े किसी महत्वपूर्ण मामले में राय लेता है और तुम उन्हें गलत रास्ता बताते हो तो तुम कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचा चुके होगे, और परमेश्वर के घर के हितों को क्षति पहुँचेगी। अगर समस्या गंभीर प्रकृति की है और यह परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाती है तो नतीजे अकल्पनीय होंगे।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्ट स्वभाव दूर करने का मार्ग
तुम चाहे जो कुछ कर रहे हो, तुम्हें यह सीखना चाहिए कि सत्य को कैसे खोजें और उसके प्रति समर्पण कैसे करें; तुम्हें चाहे कोई भी सलाह दे रहा है, अगर यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है तो फिर चाहे कोई छोटा बच्चा भी बताए, इसे स्वीकार कर मान लेना चाहिए। किसी व्यक्ति में चाहे कोई समस्या हो, अगर उसकी बातें और सलाह पूरी तरह सत्य के अनुरूप हैं तो फिर तुम्हें इन्हें स्वीकार कर मान लेनी चाहिए। इस ढंग से कार्य करने के परिणाम सुखद और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होंगे। महत्वपूर्ण यह देखना है कि तुम्हारे प्रयोजन क्या हैं और चीजें सँभालने के तुम्हारे सिद्धांत और तरीके क्या हैं। अगर चीजें सँभालने के तुम्हारे सिद्धांत और तरीके मनुष्य की इच्छा से, मनुष्य के विचारों और धारणाओं से, या शैतान के फलसफों से उपजे हैं, तो तुम्हारे सिद्धांत और तरीके अव्यावहारिक हैं, और उनका अप्रभावी होना तय है। ऐसा इसलिए है कि तुम्हारे सिद्धांतों और तरीकों का मूल गलत है, यह सत्य के सिद्धांतों के अनुसार नहीं हैं। अगर तुम्हारे विचार सत्य के सिद्धांतों पर आधारित हैं, और तुम सत्य के सिद्धांतों के अनुसार चीजें सँभालते हो, तो तुम निस्संदेह उन्हें सही तरीके से सँभालोगे। भले ही उस समय कुछ लोग तुम्हारे चीजें सँभालने के तरीकों को न स्वीकारें, या फिर इनके बारे में धारणाएँ पालें या इनका विरोध करें, कुछ समय बाद इन्हें स्वीकारा जाएगा। जो चीजें सत्य के सिद्धांतों के अनुसार होती हैं, उनके उत्तरोत्तर सकारात्मक नतीजे निकलते जाते हैं, जबकि जो चीजें सत्य के सिद्धांतों के अनुसार नहीं होतीं, उनके उत्तरोत्तर नकारात्मक नतीजे निकलते हैं, भले ही वे उस समय लोगों की धारणाओं के अनुरूप हों। तमाम लोग इसकी पुष्टि करेंगे। तुम जो कुछ भी करते हो, वह मानवीय विवशताओं के अधीन नहीं करना चाहिए, और तुम्हें अपने हिसाब से निर्णय नहीं करना चाहिए; पहले तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजना चाहिए, और फिर इस विषय में सबके साथ खोजबीन और संगति करनी चाहिए। संगति का उद्देश्य क्या है? उद्देश्य यह है कि तुम ठीक परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चीजें कर सको और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कार्य कर सको। यह बात कहने का कुछ-कुछ भव्य तरीका है और लोग इसे पूरी तरह समझ नहीं पाएंगे। इसे और अधिक ठोस शब्दों में कहें तो, इसका उद्देश्य यह है कि तुम चीजें ठीक सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कर सको। यह कुछ अधिक स्पष्ट है। जब कोई व्यक्ति इस मानक को पूरा करता है, तो वह सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की इच्छा का अनुपालन कर रहा होता है; उसके पास सत्य की वास्तविकता होती है और इसमें किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होगी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्ट स्वभाव दूर करने का मार्ग
जब तुम्हारे साथ कोई बात हो जाए, तो तुम्हें दंभी नहीं होना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के सामने खुद को शांत करना और सबक सीखना चाहिए। तुम्हें ज्यादा सीखने के लिए खुद को मुक्त करना होगा। अगर तुम सोचते हो, “मैं इस विषय में तुम सबसे बड़ा विशेषज्ञ हूँ, इसलिए मुझे प्रभारी होना चाहिए, और तुम सबको मेरी बात सुननी चाहिए!”—तो यह कैसा स्वभाव है? यह अहंकार और दंभ है। यह शैतानी और भ्रष्ट स्वभाव है, और यह इंसानियत के दायरे के बाहर है। तो दंभी न होने का क्या अर्थ है? (इसका अर्थ है सबके सुझाव सुनना और सभी से विचार-विमर्श करना।) तुम्हारे निजी विचार और राय जो भी हों, अगर तुम आँख बंद करके तय मान लोगे कि ये सही हैं, और चीजें इसी ढंग से की जानी चाहिए, तो यह अहंकार और दंभ है। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे कुछ विचार या राय सही हैं, मगर तुम्हें खुद पर पूरा विश्वास नहीं है, और साधना और संगति से तुम इनकी पुष्टि कर सकते हो, तो यह है दंभी न होना। काम करने का वाजिब तरीका काम से पहले सबका साथ और स्वीकृति पाने की प्रतीक्षा करना है। अगर कोई तुमसे असहमत हो, तो तुम्हें शुद्ध अंत:करण से इस पर प्रतिक्रिया दिखानी चाहिए, और अपने काम के व्यवसायिक पहलुओं पर बारीकी से ध्यान देना चाहिए। तुम्हें यह कहकर इससे नजर नहीं फेरनी चाहिए, “इसे तुम बेहतर समझते हो या मैं? काम के इस क्षेत्र से मैं इतने वर्षों से जुड़ा हुआ हूँ—क्या इसकी समझ मुझे तुमसे ज्यादा नहीं है? तुम्हें इस बारे में क्या मालूम? तुम इसे नहीं समझते!” यह अच्छा स्वभाव नहीं है, यह बहुत अहंकारी और दंभी है। संभव है तुमसे असहमत होने वाला व्यक्ति नौसिखिया हो, और उसे काम के इस क्षेत्र की अच्छी समझ न हो; शायद तुम सही हो और तुम चीजें सही ढंग से कर रहे हो, मगर समस्या तुम्हारे स्वभाव की है। तो फिर व्यवहार और कर्म करने का सही तरीका क्या है? सत्य के सिद्धांतों के अनुसार तुम व्यवहार और कर्म कैसे कर सकते हो? तुम्हें अपने विचार सामने रखने चाहिए और सभी को देखने देना चाहिए कि क्या उनमें कोई समस्या है। अगर कोई सुझाव दे, तो पहले तुम्हें उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, और तब सभी को अभ्यास के सही मार्ग की पुष्टि करने देना चाहिए। अगर उनमें से किसी को कोई समस्या न हो, तब तुम कर्म करने का सबसे उपयुक्त तरीका तय कर कर्म कर सकते हो। कोई समस्या नजर आने पर तुम्हें सबकी राय माँगनी चाहिए और तुम सबको साथ मिलकर एक साथ सत्य खोजकर उस पर एक साथ संगति करनी चाहिए, और इस तरह तुम लोग पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता पा सकोगे। जब तुम्हारे दिल प्रकाशित हों, और तुम्हारे सामने बेहतर मार्ग हो, तो तुम्हें प्राप्त होने वाले नतीजे पहले से बेहतर होंगे। क्या यह परमेश्वर का मार्गदर्शन नहीं है? यह अद्भुत चीज है! अगर तुम दंभी होने से बच सको, अपनी कल्पनाएँ और विचार त्याग सको, और दूसरों के सही विचार सुन सको, तो तुम पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता पा सकोगे। तुम्हारा दिल प्रकाशित हो जाएगा और तुम सही मार्ग पा सकोगे। तुम्हें आगे का रास्ता मिलेगा, और जब इस पर अमल करोगे, तो यह यकीनन सत्य के अनुरूप होगा। ऐसे अभ्यास और अनुभव के जरिए तुम सीख सकोगे कि सत्य पर अमल कैसे करें, और साथ ही काम के उस क्षेत्र के बारे में तुम कुछ नया सीख सकोगे। क्या यह अच्छी बात नहीं है? इसके जरिए तुम्हें एहसास होगा कि अपने साथ कुछ घटने पर तुम्हें दंभी नहीं होना चाहिए सत्य को खोजना चाहिए, और अगर तुम दंभी होकर सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो सब तुमसे नफरत करेंगे और परमेश्वर यकीनन तुमसे घृणा करेगा। क्या यह सबक सीखना नहीं है? अगर तुम हमेशा इस प्रकार अनुसरण करते हो और सत्य पर अमल करते हो, तो तुम अपने कर्तव्य में प्रयोग होने वाले व्यावसायिक कौशल को पैना बनाते जाओगे, अपने कर्तव्य में बेहतर-से-बेहतर नतीजे पाओगे, परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध कर आशीष देगा, और भी ज्यादा हासिल करने देगा। इसके अलावा, तुम्हारे पास सत्य पर अमल करने का मार्ग होगा, और जब तुम जान लोगे कि सत्य पर अमल कैसे करें, तो धीरे-धीरे सिद्धांतों को समझ लोगे। जब तुम जान लोगे कि किन कर्मों से परमेश्वर से प्रबुद्धता और मार्गदर्शन मिलेगा, किनसे वह घृणा कर तुम्हें बर्खास्त कर देगा, और किनसे उसकी स्वीकृति और आशीष मिलेंगे, तो तुम्हें आगे का रास्ता मिलेगा। जब लोगों को परमेश्वर के आशीष और प्रबुद्धता मिलेगा, तो उनके जीवन की प्रगति तेजी से होगी। उन्हें हर दिन परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन मिलेगा, और उनके दिलों में शांति और खुशी होगी। क्या इससे उन्हें आनंद नहीं मिलेगा? जब तुम्हारे कर्मों को परमेश्वर के सामने पेश किया जा सकेगा और उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी, तो तुम्हें दिल में आनंद का अनुभव होगा, और भीतर से शांति और खुशी मिलेगी। शांति और खुशी की ये भावनाएँ परमेश्वर ने तुम्हें दी हैं, ये वे संवेदनाएँ हैं जो पवित्र आत्मा ने तुम्हें दी हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है
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