3. सत्य को न स्वीकारने और अपनी ओर से बहस करने की समस्या का समाधान कैसे करें?

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

यदि तुम परमेश्वर के शासन में विश्वास करते हो, तो तुम्हें यह विश्वास करना होगा कि हर दिन जो भी अच्छा-बुरा होता है, वो यूँ ही नहीं होता। ऐसा नहीं है कि कोई जानबूझकर तुम पर सख्त हो रहा है या तुम पर निशाना साध रहा है; यह सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और आयोजित है। परमेश्वर इन चीज़ों को किस लिए आयोजित करता है? यह तुम्हारी वास्तविकता प्रकट करने या तुम्हें उजागर करके बाहर निकालने के लिए नहीं है; तुम्हें उजागर करना अंतिम लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य तुम्हें पूर्ण बनाना और बचाना है। परमेश्वर तुम्हें पूर्ण कैसे बनाता है? वह तुम्हें कैसे बचाता है? वह तुम्हें तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से अवगत कराने और तुम्हें तुम्हारी प्रकृति, सार, तुम्हारे दोषों और कमियों से अवगत कराने से शुरुआत करता है। उन्हें साफ तौर पर समझकर और जानकर ही तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो और धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर सकते हो। यह परमेश्वर का तुम्हें एक अवसर प्रदान करना है। यह परमेश्वर की अनुकंपा है। तुम्हें यह जानना होगा कि इस अवसर को कैसे पाया जाए। तुम्हें परमेश्वर का विरोध नहीं करना चाहिए, उसके साथ लड़ाई में उलझना या उसे गलत नहीं समझना चाहिए। विशेष रूप से उन लोगों, घटनाओं और चीज़ों का सामना करते समय, जिनकी परमेश्वर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है, सदा यह मत सोचो कि चीजें तुम्हारे मन के हिसाब से नहीं हैं; हमेशा उनसे बच निकलने की मत सोचो, परमेश्वर को दोष मत दो या उसे गलत मत समझो। अगर तुम लगातार ऐसा कर रहे हो तो तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर रहे हो, और इससे तुम्हारे लिए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। ऐसी कोई भी समस्या आए जिसे तुम समझ न पाओ, तो तुम्हें समर्पण करना सीखना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी चाहिए। इस तरह, इससे पहले कि तुम जान पाओ, तुम्हारी आंतरिक स्थिति में एक बदलाव आएगा और तुम अपनी समस्या को हल करने के लिए सत्य की तलाश कर पाओगे। इस तरह तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर पाओगे। जब ऐसा होगा तो, तुम्हारे भीतर सत्य की वास्तविकता गढ़ी जायेगी, और इस तरह से तुम प्रगति करोगे और तुम्हारे जीवन की स्थिति का रूपांतरण होगा। एक बार जब ये बदलाव आएगा और तुममें सत्य की वास्तविकता होगी, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद होगा, और आध्यात्मिक कद के साथ जीवन आता है। यदि कोई हमेशा भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के आधार पर जीता है, तो फिर चाहे उसमें कितना ही उत्साह या ऊर्जा क्यों न हो, उसे आध्यात्मिक कद, या जीवन धारण करने वाला नहीं माना जा सकता है। परमेश्वर हर एक व्यक्ति में कार्य करता है, और इससे फर्क नहीं पड़ता है कि उसकी विधि क्या है, सेवा करने के लिए वो किस प्रकार के लोगों, चीज़ों या मामलों का प्रयोग करता है, या उसकी बातों का लहजा कैसा है, परमेश्वर का केवल एक ही अंतिम लक्ष्य होता है : तुम्हें बचाना। और वह तुम्हें कैसे बचाता है? वह तुम्हें बदलता है। तो तुम थोड़ी-सी पीड़ा कैसे नहीं सह सकते? तुम्हें पीड़ा तो सहनी होगी। इस पीड़ा में कई चीजें शामिल हो सकती हैं। सबसे पहले तो, जब लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार हैं, तो उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। जब परमेश्वर के वचन बहुत कठोर और मुखर होते हैं और लोग परमेश्वर के वचनों की गलत व्याख्या करते हैं—और धारणाएँ भी रखते हैं—तो यह भी पीड़ाजनक हो सकता है। कभी-कभी परमेश्वर लोगों की भ्रष्टता उजागर करने के लिए, और उनसे चिंतन करवाने के लिए कि वे खुद को समझें, उनके आसपास एक परिवेश बना देता है, और तब उन्हें कुछ पीड़ा भी होती है। कई बार जब लोगों की सीधी काट-छाँट की जाती है और उन्हें उजागर किया जाता है, तब उन्हें पीड़ा सहनी ही चाहिए। यह ऐसा है, जैसे वे शल्यचिकित्सा से गुजर रहे हों—अगर कोई कष्ट नहीं होगा, तो कोई प्रभाव भी नहीं होगा। यदि जब भी तुम्हारी काट-छाँट होती है, और किसी परिवेश द्वारा तुम्हें उजागर कर दिया जाता है, इससे तुम्हारी भावनाएँ जागती हैं और तुम्हारे अंदर जोश पैदा होता है, तो इस प्रक्रिया के माध्यम से तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करोगे और तुम्हारा आध्यात्मिक कद होगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए

क्या होता है जब कोई फटकार, काट-छाँट और निपटान का सामना करने पर बहाने बनाने लगता है? यह एक प्रकार का स्वभाव है जो बहुत अहंकारी, आत्मतुष्ट, और बहुत हठी है। अहंकारी और हठी लोगों को सत्य स्वीकारना बहुत मुश्किल लगता है। जब वे कुछ ऐसा सुनते हैं जो उनके परिप्रेक्ष्यों, राय और विचारों के साथ मेल नहीं खाता, तो वे इसे स्वीकार नहीं कर पाते। उन्हें इसकी परवाह नहीं होती कि दूसरे जो कहते हैं वो सही है या गलत, या यह किसने कहा, या यह किस संदर्भ में कहा गया था, या चाहे यह उनकी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से संबंधित था। वे इन चीजों की परवाह नहीं करते; उनके लिए सबसे जरूरी उनकी अपनी भावनाओं को संतुष्ट करना है। क्या यह हठी होना नहीं है। हठी होने से अंत में लोगों को क्या नुकसान होते हैं? उनके लिए सत्य को प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। सत्य को स्वीकार नहीं करने की वजह मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है, और अंतिम परिणाम यह है कि वे आसानी से सत्य को हासिल नहीं कर पाते। जो कुछ भी मनुष्य के प्रकृति-सार से स्वाभाविक रूप से निकलता है वह सत्य के विरोध में होता है और इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है; ऐसी कोई भी चीज न तो सत्य के अनुरूप होती है और न ही सत्य के आस-पास होती है। इसलिए, उद्धार पाने के लिए सत्य को स्वीकारना और उसका अभ्यास करना आवश्यक है। अगर कोई सत्य स्वीकार नहीं कर सकता और हमेशा अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार ही चलना चाहता है, तो वह व्यक्ति कभी भी उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

अपनी काट-छाँट और निपटारा किए जाने पर कुछ लोग अक्सर बहस करते हैं और अपना बचाव करने की कोशिश करते हैं। वे हमेशा समस्या के कारण पर जोर देते हैं और अपनी असफलताओं के लिए बहाने बनाते हैं, जो बहुत ही कष्टप्रद होता है। उनका रवैया विनम्र या सत्य खोजने का नहीं होता। इस तरह के लोग कम क्षमता के होते हैं और बहुत जिद्दी भी होते हैं। वे दूसरे लोगों की बातें नहीं समझते, सत्य उनकी पहुँच से बाहर होता है और उनकी प्रगति बहुत धीमी होती है। उनकी प्रगति धीमी क्यों होती है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वे सत्य नहीं खोजते, और जो भी गलतियाँ सामने आती हैं, वे हमेशा दूसरे लोगों को उनका कारण समझते हैं और उनकी जिम्मेदारी पूरी तरह से दूसरों पर डाल देते हैं। वे दुनियावी फलसफों के अनुसार जीते हैं, और जब तक वे सुरक्षित और स्वस्थ रहते हैं, खुद से विशेष रूप से प्रसन्न रहते हैं। वे सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं करते, और सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का यह एक बहुत अच्छा तरीका है। कुछ तो यह तक सोचते हैं, “सत्य का अनुसरण करने और सबक सीखने के बारे में हमेशा बहुत-सी बातें होती हैं, लेकिन क्या सीखने के लिए वाकई बहुत सारे सबक हैं? इस तरह से परमेश्वर में विश्वास करना एक बहुत बड़ी परेशानी है!” जब वे दूसरे लोगों को मामलों का सामना करते हुए सत्य खोजते और सबक सीखते देखते हैं, तो कहते हैं, “तुम सभी लोग कैसे हर चीज से सबक सीख लेते हो? मेरे सीखने के लिए उतने सबक क्यों नहीं हैं? क्या तुम सभी लोग इतने ही अज्ञानी हो? क्या तुम बस आँख मूँदकर नियमों का पालन नहीं कर रहे?” तुम इस भावना के बारे में क्या सोचते हो? यह गैर-विश्वासियों का परिप्रेक्ष्य है। क्या कोई गैर-विश्वासी सत्य प्राप्त कर सकता है? ऐसे व्यक्ति के लिए सत्य प्राप्त करना बहुत कठिन है। कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, “मैं बड़े मामलों में तो परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ, पर छोटे मामलों में उसे परेशान नहीं करता। परमेश्वर ब्रह्मांड में हर चीज के दैनिक प्रशासन, प्रत्येक व्यक्ति के प्रशासन में बहुत व्यस्त रहता है। कितना थका देने वाला काम है! मैं परमेश्वर को परेशान नहीं करूँगा, खुद ही इस मामले को सुलझा लूँगा। अगर परमेश्वर प्रसन्न है, तो इतना ही काफी है। मैं उसे चिंतित नहीं करना चाहता।” तुम इस भावना के बारे में क्या सोचते हो? यह गैर-विश्वासियों का भी परिप्रेक्ष्य है, मनुष्यों की कल्पना है। मनुष्य सृजित प्राणी हैं, चींटियों से भी निम्नतर। वे सृष्टिकर्ता को स्पष्ट रूप से कैसे देख सकते हैं? न जाने कितने लाख या अरब सालों से परमेश्वर ने ब्रह्मांड में हर चीज का प्रशासन किया है। क्या उसने कहा है कि वह थका हुआ महसूस करता है? क्या उसने कहा है कि वह बहुत व्यस्त है? नहीं, उसने नहीं कहा। लोग कभी परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम नहीं होंगे और उनका अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से बोलना बहुत ही अज्ञानतापूर्ण है। सृष्टिकर्ता के अनुसार, परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से प्रत्येक की और उनके आसपास जो कुछ भी होता है उसकी व्यवस्था परमेश्वर की संप्रभुता द्वारा की जाती है। परमेश्वर में विश्वास करने वाले के रूप में तुम्हें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए, सत्य खोजना चाहिए और सभी चीजों में सबक सीखने चाहिए। सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण चीज है। अगर तुम परमेश्वर की इच्छा पर विचार कर सको, तो तुम्हें उस पर भरोसा करना चाहिए और सत्य की ओर प्रयास करना चाहिए, क्योंकि यह परमेश्वर को भाता है। जब तुम सत्य प्राप्त कर लेते हो और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाते हो, तो परमेश्वर अधिक प्रसन्न होगा, लेकिन जितना अधिक तुम परमेश्वर से दूर होओगे, वह उतना ही अधिक दुखी होगा। परमेश्वर को क्या चीज दुखी करती है? (परमेश्वर ने इस उद्दश्य से परिस्थितियाँ व्यवस्थित की हैं कि लोग उसके वचनों का अनुभव कर सकें और सत्य प्राप्त कर सकें, लेकिन लोग परमेश्वर के मन को नहीं समझते; वे उसे गलत समझते हैं और यह बात परमेश्वर को दुखी करती है।) सही है। परमेश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक श्रमसाध्य कीमत चुकाई है और प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसकी एक इच्छा है। वह उनसे अपेक्षाएँ रखता है और उसने उन पर अपनी आशाएँ रखी हैं। उनके श्रमसाध्य प्रयास मुक्त रूप से और स्वेच्छा से सभी लोगों को दिए जाते हैं। उसका जीवन और सत्य का पोषण भी प्रत्येक व्यक्ति को स्वेच्छा से दिया जाता है। अगर लोग यह समझने में सक्षम हों कि परमेश्वर ऐसा क्यों करता है, तो वह प्रसन्न महसूस करेगा। परमेश्वर तुम्हारे लिए जिन भी परिस्थितियों की व्यवस्था करे, अगर तुम उन्हें परमेश्वर की देन समझकर प्राप्त कर पाओ, उसके प्रति समर्पित हो पाओ और इस सबके बीच सत्य खोज पाओ और सबक सीख पाओ, तो परमेश्वर को यह नहीं लगेगा कि उसने वह श्रमसाध्य कीमत व्यर्थ चुकाई। तुम परमेश्वर द्वारा निवेशित तमाम विचारों और प्रयासों को जीने में या उसकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने में विफल नहीं हुए होगे। खुद पर पड़े परिस्थितियों के हर समुच्चय में तुम सबक सीखने और पुरस्कार पाने में सक्षम होगे। इस तरह, परमेश्वर ने तुममें जो कार्य किया है, वह अपेक्षित प्रभाव प्राप्त कर लेगा और परमेश्वर का हृदय संतुष्ट होगा। अगर तुम परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में असमर्थ रहते हो, अगर तुम हमेशा परमेश्वर का विरोध करते हो, उसे नकारते और उससे लड़ते हो, तो क्या तुम्हें नहीं लगता कि परमेश्वर व्याकुल होगा? परमेश्वर का हृदय यह कहते हुए चिंतित और व्याकुल होगा, “मैंने तुम्हारे सबक सीखने के लिए इतनी सारी परिस्थितियों की व्यवस्था की। ऐसा कैसे है कि इनमें से किसी का भी तुम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा?” परमेश्वर दु:ख से दबा होगा। परमेश्वर इसलिए दुखी होता है, क्योंकि तुम सुन्न, अज्ञानी, धीमे और हठी हो, क्योंकि तुम उसकी इच्छा नहीं समझते, सत्य नहीं स्वीकारते, वे तमाम चीजें नहीं देख सकते जो वह तुम्हारे जीवन के लिए जिम्मेदार होने के लिए करता आ रहा है, यह नहीं समझते कि वह तुम्हारे जीवन के बारे में चिंतित और व्याकुल है, और इसलिए कि तुम उसकी अवज्ञा और उसके बारे में शिकायत करते हो।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए

जब लोग सही और गलत के बारे में बात करते हैं, तो वे यह स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं कि हर एक बात सही है या गलत, वे तब तक नहीं रुकते जब तक कि मामला साफ नहीं हो जाता है और यह समझ नहीं आ जाता कि कौन सही था और कौन गलत, वे ऐसी बातों से ग्रस्त रहते हैं, उन बातों से ग्रस्त रहते हैं जिनका कोई जवाब नहीं है : इस तरह की हरकत का क्या मतलब है? अंततः क्या सही और गलत के बारे में बात करना सही है? (नहीं।) गलती कहाँ है? क्या इसमें और सत्य के अभ्यास के बीच कोई संबंध है? (कोई संबंध नहीं है।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि कोई संबंध नहीं है? सही और गलत के बारे में बात करना सत्य के सिद्धांतों का पालन करना नहीं है, यह सत्य के सिद्धांतों पर चर्चा या संगति करना नहीं है; इसके बजाय, लोग हमेशा इस बारे में बात करते हैं कि कौन सही था और कौन गलत था, कौन उचित था और कौन नहीं, किसके पास उचित कारण थे और किसके पास नहीं, किसका विवेक अच्छा था, किसका बुरा, किसने अधिक समझदारी की बातें कीं; वे इन्हीं चीजों की जांच करते हैं। जब परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेता है, तो वे हमेशा परमेश्वर के साथ तर्क करने का प्रयास करते हैं, वे हमेशा कोई न कोई कारण देते हैं। क्या परमेश्वर तुमसे ऐसी बातों पर चर्चा करता है? क्या परमेश्वर पूछता है कि संदर्भ क्या था? क्या परमेश्वर तुम्हारे द्वारा बताए गए तर्कों और कारणों के बारे में पूछता है? वह नहीं पूछता। परमेश्वर पूछता है कि जब उसने तुम्हारी परीक्षा ली तब तुमने आज्ञाकारिता का रवैया अपनाया या प्रतिरोध का। परमेश्वर पूछता है कि तुमने सत्य समझा या नहीं, तुम आज्ञाकारी थे या नहीं। परमेश्वर यही पूछता है, और कुछ नहीं। परमेश्वर तुमसे तुम्हारी आज्ञाकारिता के अभाव का कारण नहीं पूछता, वह यह नहीं देखता कि क्या तुम्हारे पास कोई उचित कारण था—वह ऐसी बातों पर बिल्कुल विचार नहीं करता है। परमेश्वर केवल यह देखता है कि तुम आज्ञाकारी थे या नहीं। तुम्हारे रहने के माहौल और संदर्भ की परवाह न करते हुए, परमेश्वर केवल इस बात की जाँच करता है कि क्या तुम्हारे दिल में आज्ञाकारिता थी, क्या तुम्हारा रवैया आज्ञाकारिता का था; परमेश्वर तुम्हारे साथ सही और गलत पर बहस नहीं करता है, परमेश्वर यह परवाह नहीं करता कि तुम्हारे तर्क क्या थे, परमेश्वर केवल इसकी परवाह करता है कि क्या तुम वास्तव में आज्ञाकारी थे, परमेश्वर तुमसे बस यही पूछता है। जिस तरह के लोग सही और गलत के बारे में बात करते रहते हैं, जिन्हें वाक्-युद्ध पसंद है—क्या उनके दिलों में सत्य के सिद्धांत हैं? (नहीं।) क्यों नहीं? क्या उन्होंने कभी सत्य के सिद्धांतों पर ध्यान दिया है? क्या उन्होंने कभी उनके लिए प्रयास किया है? क्या उन्होंने कभी उन्हें खोजा है? उन्होंने कभी उन पर कोई ध्यान नहीं दिया, उनके लिए प्रयास नहीं किया या उनकी खोज नहीं की, और वे उनके दिलों में हैं ही नहीं। नतीजतन, वे केवल क्या सही है और क्या गलत, इसी के बीच जीसकते हैं, उनके दिलों में बस सही और गलत, उचित और अनुचित, बहाने, कारण, औचित्य और तर्क होते हैं, जिसके तुरंत बाद वे एक-दूसरे पर हमला करते हैं, आरोप लगाते हैं और निंदा करते हैं। इस तरह के लोगों का स्वभाव यह होता है कि उन्हें सही और गलत पर बहस करना पसंद होता है, उन्हें आरोप लगाना और लोगों की निंदा करना पसंद होता है। इस तरह के लोगों के पास सत्य के प्रति कोई प्रेम या स्वीकृति नहीं होती, यह संभव है कि वे परमेश्वर के साथ तर्क करने का प्रयास करें, यहाँ तक कि परमेश्वर के बारे में दावा करें और परमेश्वर का विरोध तक करें। अंततः उन्हें सजा भुगतनी ही पड़ेगी।

—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (15)

वे जो भी सोचें या कहें, चीजों को कैसे भी देखें, वे हमेशा सोचते हैं कि उनका नजरिया और उनका रवैया ही सही है, और दूसरों का कहा उनके जैसा ठीक या उतना सही नहीं है। वे हमेशा अपनी ही राय से चिपके रहते हैं, और बोलने वाला इंसान जो भी हो, वे उसकी बात नहीं सुनते। किसी और की बात सही हो, या सत्य के अनुरूप हो, तो भी वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे; वे सुनने का सिर्फ दिखावा करेंगे, मगर वे उस विचार को सच में नहीं अपनाएँगे, और कार्य करने का समय आने पर भी वे अपने ही ढंग से काम करेंगे, हमेशा यह सोचते हुए कि जो वे कहते हैं वही सही और वाजिब है। ... तुम्हारा यह व्यवहार देखकर परमेश्वर क्या कहेगा? परमेश्वर कहेगा : “तुम दुराग्रही हो! जब यह न पता हो कि तुम गलत हो तो तुम्हारा अपने विचारों से चिपके रहना तो समझ आता है, मगर जब तुम्हें साफ पता है कि तुम गलत हो फिर भी तुम अपने विचारों से चिपके रहते हो और प्रायश्चित्त करने से पहले मरना पसंद करोगे, तो तुम निरे जिद्दी बेवकूफ हो, और मुसीबत में हो। सुझाव कोई भी दे, अगर तुम इसके प्रति हमेशा नकारात्मक, प्रतिरोधी रवैया अपनाकर सत्य को लेशमात्र भी स्वीकार नहीं करते, और तुम्हारा दिल पूरी तरह प्रतिरोधी, बंद और चीजों का नकारने के भाव से भरा है, तो तुम हँसी के पात्र हो, बेहूदा हो! तुमसे निपटना बहुत मुश्किल है।” तुमसे निपटना मुश्किल क्यों है? तुमसे निपटना इसलिए मुश्किल है, क्योंकि तुम जो प्रदर्शित कर रहे हो वह एक त्रुटिपूर्ण रवैया या त्रुटिपूर्ण व्यवहार नहीं है, बल्कि तुम्हारे स्वभाव का उद्गार है। किस स्वभाव का प्रदर्शन? उस स्वभाव का जिसमें तुम सत्य से ऊब चुके हो, सत्य से घृणा करते हो। जब एक बार तुम्हें उस व्यक्ति के रूप में पहचान लिया गया जो सत्य से घृणा करता है, तो परमेश्वर की नजरों में तुम मुसीबत में हो, और वह तुमसे घृणा करेगा, तुम्हें ठुकरा देगा, और तुम्हें अनदेखा करेगा। लोगों के नजरिये से देखें, तो ज्यादा-से-ज्यादा वे कहेंगे : “इस व्यक्ति का स्वभाव बुरा है। यह बेहद जिद्दी, दुराग्रही और अहंकारी है! इसके साथ निभाना बहुत मुश्किल है, यह सत्य से प्रेम नहीं करता। इसने कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं किया, और यह सत्य पर अमल नहीं करता।” ज्यादा-से-ज्यादा, सब लोग तुम्हारा यही आकलन करेंगे, मगर क्या यह आकलन तुम्हारे भाग्य का फैसला कर सकता है? लोग तुम्हारा जो आकलन करते हैं, वह तुम्हारे भाग्य का फैसला नहीं कर सकता, मगर एक चीज है जो तुम्हें नहीं भूलनी चाहिए : परमेश्वर लोगों के दिलों की जाँच करता है, और साथ ही साथ वह उनकी हर कथनी और करनी का निरीक्षण करता है। अगर परमेश्वर तुम्हें इस तरह परिभाषित करता है, और अगर वह मात्र इतना नहीं कहता कि तुम्हारा स्वभाव थोड़ा भ्रष्ट है, या तुम थोड़े अवज्ञाकारी हो, बल्कि कहता है कि तुम सत्य से घृणा करते हो, तो क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? (यह गंभीर है।) इससे मुसीबत होगी, और यह मुसीबत इसमें नहीं है कि लोग तुम्हें किस नजर से देखते हैं, या तुम्हारा आकलन कैसे करते हैं, यह इस बात में है कि परमेश्वर सत्य से घृणा करने वाले तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को कैसे देखता है। तो परमेश्वर इसे किस नजर से देखता है? क्या परमेश्वर ने सिर्फ यह तय कर दिया है कि तुम सत्य से घृणा करते हो, इससे प्रेम नहीं करते, और कुछ नहीं? क्या यह इतना सरल है? सत्य कहाँ से आता है? सत्य किसका प्रतिनिधित्व करता है? (यह परमेश्वर को दर्शाता है।) इस पर विचार करो : अगर एक इंसान सत्य से घृणा करता है, तो परमेश्वर अपने नजरिए से उसे कैसे देखेगा? (अपने शत्रु के रूप में।) क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? जब कोई व्यक्ति सत्य से घृणा करता है, तो वह परमेश्वर से घृणा करता है! मैं क्यों कहता हूँ कि वह परमेश्वर से घृणा करता है? क्या उन्होंने परमेश्वर को शाप दिया? क्या उन्होंने परमेश्वर के सामने उसका विरोध किया? क्या उन्होंने उसकी पीठ पीछे उसकी आलोचना या निंदा की? ऐसा जरूरी नहीं। तो मैं क्यों कहता हूँ कि सत्य से घृणा करने वाला स्वभाव दर्शाना परमेश्वर से घृणा करना है? यह राई का पहाड़ बनाना नहीं है, यह स्थिति की वास्तविकता है। यह पाखंडी फरीसियों जैसा होना है, जिन्होंने सत्य से अपनी घृणा के कारण प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ा दिया—बाद में हुए परिणाम भयावह थे। इसका यह अर्थ है कि अगर किसी व्यक्ति का स्वभाव ऐसा है कि वह सत्य से ऊब चुका है और उससे घृणा करता है, तो यह कभी भी कहीं भी उफन कर बाहर आ सकता है, और अगर वे इसी के सहारे जीते हैं तो क्या वे परमेश्वर का विरोध नहीं करेंगे? जब उनका सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो सत्य से या विकल्प चुनने से जुड़ी होती है, तो अगर वे सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते, और अपने भ्रष्ट स्वभाव के सहारे जीते हैं, तो स्वाभाविक रूप से वे परमेश्वर का विरोध करेंगे, और उसे धोखा देंगे, क्योंकि उनका भ्रष्ट स्वभाव परमेश्वर और सत्य से घृणा करता है। अगर तुम्हारा स्वभाव ऐसा है तो परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों को लेकर भी तुम सवाल उठाओगे, और उनका विश्लेषण और समालोचना करना चाहोगे। फिर तुम परमेश्वर के वचनों को शक से देखोगे, और कहोगे, “क्या ये सचमुच परमेश्वर के वचन हैं? ये मुझे सत्य जैसे नहीं लगते, ये सब मुझे अनिवार्यतः सही नहीं लगते!” इस प्रकार क्या सत्य से घृणा करने वाला तुम्हारा स्वभाव बाहर नहीं आ गया? इस प्रकार सोचने पर, क्या तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकोगे? यकीनन नहीं। अगर तुम परमेश्वर को समर्पित नहीं हो सकते, तो क्या वह अभी भी तुम्हारा परमेश्वर है? नहीं। फिर तुम्हारे लिए परमेश्वर क्या होगा? तुम उससे शोध के एक विषय के रूप में पेश आओगे, ऐसा जिस पर शक किया जाना चाहिए, जिसकी निंदा होनी चाहिए; तुम उससे एक साधारण और आम इंसान की तरह पेश आओगे, और ऐसे ही उसकी निंदा करोगे। ऐसा करके तुम ऐसे इंसान बन जाओगे जो परमेश्वर का प्रतिरोध और उसका तिरस्कार करता हो। किस प्रकार के स्वभाव के कारण ऐसा होता है? यह ऐसे अहंकारी स्वभाव के कारण होता है जो कुछ हद तक फूल चुका हो; न सिर्फ तुम्हारा शैतानी स्वभाव दिखाई देने लगेगा, बल्कि तुम्हारे शैतानी रूप का भी पूरी तरह खुलासा हो जाएगा। परमेश्वर का प्रतिरोध करने के स्तर तक पहुँच चुके इंसान, जिसका विद्रोहीपन एक विशेष सीमा तक पहुँच चुका हो, उसके और परमेश्वर के बीच के रिश्ते का क्या होता है? यह शत्रुता का रिश्ता बन जाता है, जिसमें व्यक्ति परमेश्वर को अपने विरोध में खड़ा कर लेता है। परमेश्वर में अपनी आस्था में, अगर तुम सत्य को स्वीकार कर उसका आज्ञापालन नहीं कर सकते, तो परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं रह जाता। अगर तुम सत्य को मना करके उसे ठुकरा देते हो, तो तुम ऐसे इंसान बन चुके होगे, जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। फिर भी क्या परमेश्वर तुम्हें बचा सकेगा? यकीनन नहीं। परमेश्वर तुम्हें अपना उद्धार पाने का एक मौका देता है, और तुम्हें एक शत्रु के रूप में नहीं देखता, मगर तुम सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते और परमेश्वर को अपने विरोध में खड़ा देते हो; परमेश्वर को अपने सत्य और अपने मार्ग के रूप में स्वीकार करने की तुम्हारी असमर्थता तुम्हें एक ऐसा इंसान बना देती है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। इस समस्या को कैसे सुलझाया जा सकता है? तुम्हें जल्द प्रायश्चित्त कर अपना मार्ग बदल लेना चाहिए। उदाहरण के लिए, अपना कर्तव्य निभाते समय जब तुम्हारे सामने कोई समस्या या कठिनाई आए, और तुम उसे सुलझाना न जानो, तो तुम्हें बिना सोचे-विचारे उस पर मनन नहीं करना चाहिए, तुम्हें पहले परमेश्वर के सामने खुद को शांत करना चाहिए, प्रार्थना कर उससे जानना चाहिए और देखना चाहिए कि परमेश्वर के वचन इस बारे में क्या कहते हैं। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद भी अगर तुम न समझो, और न जान पाओ कि यह मसला किन सत्यों से संबंधित है, तो तुम्हें एक सिद्धांत को कसकर थामे रहना चाहिए—यानी पहले आज्ञाकारी बनो, कोई निजी विचार या सोच न रखो, शांतचित्त होकर प्रतीक्षा करो, और देखो कि परमेश्वर क्या कुछ करने की इच्छा और इरादा रखता है। जब तुम सत्य को न समझ सको, तो तुम्हें उसे खोजना चाहिए, और बिना विचारे लापरवाही से कुछ करने के बजाय परमेश्वर की प्रतीक्षा करनी चाहिए। तुम्हारे सत्य न समझ पाने पर, कोई तुम्हें सुझाव दे, और सत्य के अनुसार कुछ करने का तरीका बताए, तो तुम्हें पहले उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, सबको उस पर संगति करने देना चाहिए, और देखना चाहिए कि यह रास्ता सही है या नहीं, यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं। अगर तुम इस बात की पुष्टि कर लो कि यह सत्य के अनुरूप है, तो उस पर अमल करो; अगर तुम तय कर लो कि यह सत्य के अनुरूप नहीं है, तो उस पर अमल मत करो। यह इतना ही आसान है। सत्य की खोज करते समय, तुम्हें बहुत-से लोगों से पूछना चाहिए। अगर किसी के पास कुछ कहने को है, तो तुम्हें सुनना चाहिए और उसके सभी कथनों को गंभीरता से लेना चाहिए। उनकी अनदेखी न करो, न ही उन्हें झिड़को, क्योंकि यह तुम्हारे कर्तव्य के दायरे के भीतर के मामलों से संबंधित है और तुम्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए। यही सही रवैया और सही दशा है। जब तुम्हारी दशा सही हो, और तुम सत्य से ऊबा हुआ और उससे घृणा करने वाला स्वभाव प्रदर्शित न करो, तो इस प्रकार अभ्यास करने से यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की जगह ले लेगा। यही है सत्य का अभ्यास। अगर तुम सत्य पर इस तरह अमल करोगे, तो इसका फल क्या होगा? (पवित्र आत्मा हमारा मार्गदर्शन करेगा।) पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन पाना एक पहलू है। कभी-कभी मामला बहुत आसान होगा और इसे तुम अपने दिमाग से पूरा कर लोगे; दूसरे लोगों के सुझाव देने और तुम्हारे उन्हें समझ लेने के बाद तुम चीजों को सुधार सकोगे और सिद्धांतों के अनुसार काम कर पाओगे। लोगों को लग सकता है कि यह बहुत छोटी बात है, मगर परमेश्वर के लिए यह बड़ी बात है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जब तुम ऐसा अभ्यास करते हो, तो परमेश्वर के लिए तुम सत्य पर अमल करने वाले इंसान बन जाते हो, एक इंसान जो सत्य से प्रेम करता है, और एक ऐसा इंसान जो सत्य से नहीं ऊबता—जब परमेश्वर तुम्हारे दिल में झांकता है, तो वह तुम्हारा स्वभाव भी देखता है, और यह एक बहुत बड़ी बात है। दूसरे शब्दों में, जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, परमेश्वर की मौजूदगी में कर्म करते हो, और तुम जो जीते और दर्शाते हो, वे सब सत्य की वो वास्तविकताएँ होती हैं, जो लोगों में होनी चाहिए। तुम्हारे हर काम में जो रवैये, सोच-विचार और दशाएँ होती हैं, वे परमेश्वर के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण होती हैं, और परमेश्वर इन्हीं की जाँच करता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है

सच्ची आस्था की पुष्टि कैसे की जा सकती है? मुख्य रूप से यह देखकर कि क्या उनके साथ कुछ घट जाने पर भी कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार कर उस पर अमल कर सकता है। अगर उसने सत्य को कभी स्वीकार नहीं किया, न ही उस पर अमल किया, तो वह पहले ही उजागर हो चुका होगा, और उसे उजागर करने के लिए परीक्षा की प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं। अगर रोजमर्रा के जीवन में किसी के साथ कुछ घटता है, तो आप साफ तौर पर देख सकते हैं कि क्या उसमें सत्य की वास्तविकता है। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो आमतौर पर सत्य का अनुसरण नहीं करते, और उनके साथ कुछ घट जाने पर सत्य पर अमल नहीं करते। क्या ऐसे लोगों को उजागर होने के लिए परीक्षा की प्रतीक्षा करनी चाहिए? बिल्कुल नहीं। कुछ समय बाद, अगर कुछ भी न बदले, तो इसका अर्थ है कि वे पहले ही उजागर हो चुके हैं। अगर उनकी काट-छाँट हो गयी हो, निपटान हो चुका हो, फिर भी वे सत्य को स्वीकार नहीं करते और दृढ़ता से प्रायश्चित्त नहीं करते, तो वे कुछ ज्यादा ही उजागर हो चुके हैं, और उन्हें बाहर निकालकर छोड़ देना चाहिए। जो लोग सत्य को स्वीकार करने पर आमतौर पर ध्यान नहीं देते, या उसे अमल में नहीं लाना चाहते, वे सभी गैर-विश्वासी हैं, और उन्हें कोई भी काम नहीं सौंपा जाना चाहिए, या कोई भी जिम्मेदारी नहीं दी जानी चाहिए। क्या सत्य के बिना कोई व्यक्ति दृढ़ रह सकता है? क्या सत्य पर अमल करना महत्वपूर्ण है? जरा ऐसे लोगों को देखो जिन्होंने कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया—उन सबके उजागर होने में अधिक वर्ष नहीं लगेंगे। उनके पास जरा भी अनुभव या गवाही नहीं है। ये लोग कितने गरीब और दयनीय हैं, और इन्हें कितनी शर्मिंदगी महसूस होनी चाहिए!

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्‍य का अभ्‍यास करना क्‍या है?

कारण चाहे जो भी हो—भले ही तुम्हें कोई बहुत बड़ी शिकायत हो—अगर तुम सत्य नहीं स्वीकारते, तो तुम्हारा काम तमाम है। परमेश्वर तुम्हारा रवैया देखता है, खासकर उन मामलों में, जो सत्य के अभ्यास से संबंधित हैं। क्या शिकायत करना तुम्हारे काम आएगा? क्या तुम्हारे शिकायत करने से भ्रष्ट स्वभाव की समस्याओं का समाधान हो सकता है? और अगर तुम्हारी शिकायत जायज भी है, तो क्या? क्या तुम सत्य हासिल कर लोगे? क्या परमेश्वर तुम्हें अपने सामने स्वीकार करेगा? जब परमेश्वर कहता है, "तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति नहीं हो। दूर हटो; मुझे तुमसे चिढ़ है," तो क्या तुम्हारा काम तमाम नहीं हो जाता? इस एक वाक्यांश—"मुझे तुमसे चिढ़ है"—से परमेश्वर तुम्हें एक व्यक्ति के रूप में प्रकट और परिभाषित कर देता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्‍वर के प्रति समर्पण सत्‍य प्राप्‍त करने में बुनियादी सबक है

परमेश्वर पर विश्वास करने का तुम्हारा जो भी कारण हो, अंततः परमेश्वर तुम्हारे परिणाम का निर्धारण इस आधार पर करेगा कि तुमने सत्य प्राप्त किया है या नहीं। अगर तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, तो तुम्हारे द्वारा दिए गए किसी भी औचित्य या बहाने में दम नहीं होगा। तुम चाहे जैसे तर्क करने का प्रयास करो, खुद के लिए जैसी मर्जी हो वैसी मुसीबत खड़ी करो—क्या परमेश्वर परवाह करेगा? क्या परमेश्वर तुमसे बात करेगा? क्या वह तुमसे बहस और बातचीत करेगा? क्या वह तुमसे परामर्श लेगा? जवाब क्या है? नहीं। वह बिल्कुल नहीं करेगा। तुम्हारा तर्क चाहे जितना भी मजबूत हो, वह टिक नहीं पाएगा। तुम्हें परमेश्वर के इरादों को गलत नहीं समझना चाहिए और ये नहीं सोचना चाहिए कि अगर तुम तमाम कारण दो और बहाने बनाओ तो तुम्हें सत्य का अनुसरण करने की जरूरत नहीं। परमेश्वर चाहता है कि तुम हर तरह के परिवेश में और खुद पर पड़ने वाले हर मामले में सत्य खोजने में सक्षम बनो, और अंततः सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सत्य प्राप्त करो। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए चाहे जिन परिस्थितियों की व्यवस्था की हो, चाहे जिन लोगों और घटनाओं से तुम्हारा सामना हो और चाहे जिस परिवेश में तुम खुद को पाओ, तुम्हें उनका सामना करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजना चाहिए। ये ही वे सबक हैं, जो तुम्हें सत्य का अनुसरण करने में सीखने चाहिए। यदि तुम हमेशा इन परिस्थितियों से निकल भागने के लिए बहाने खोजोगे, इनसे बचोगे, नकारोगे, विरोध करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें त्याग देगा। तर्क करने, हठी या टेढ़ा होने का कोई अर्थ नहीं है—अगर परमेश्वर तुमसे सरोकार नहीं रखता, तो तुम उद्धार का अवसर खो दोगे। परमेश्वर के लिए, ऐसी कोई समस्या नहीं जिसे हल नहीं किया जा सकता; उसने प्रत्येक व्यक्ति के लिए व्यवस्था की है, और उसके पास उन्हें सँभालने का तरीका है। परमेश्वर तुमसे इस बात की चर्चा नहीं करेगा कि तुम्हारे कारणों और बहानों का औचित्य है या नहीं। परमेश्वर यह नहीं सुनेगा कि अपने बचाव में तुम जो तर्क दे रहे हो, वह विवेकपूर्ण है या नहीं। वह तुमसे केवल यही पूछेगा, “क्या परमेश्वर के वचन सत्य हैं? क्या तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है? क्या तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए?” तुम्हें बस एक ही तथ्य के बारे में स्पष्ट होने की आवश्यकता है : परमेश्वर सत्य है, तुम एक भ्रष्ट मनुष्य हो, इसलिए तुम्हें खुद ही सत्य तलाशने की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। कोई भी समस्या या कठिनाई, कोई भी कारण या बहाना नहीं चलेगा—अगर तुम सत्य नहीं स्वीकारते, तो तुम नष्ट हो जाओगे। सत्य का अनुसरण करने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति जो भी कीमत चुकाता है, वह सार्थक है। लोगों को सत्य स्वीकारने और जीवन प्राप्त करने के लिए अपने सभी बहाने, औचित्य और परेशानियाँ छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर के वचन और सत्य ही वह जीवन है जिसे उन्हें प्राप्त करना चाहिए, और यह ऐसा जीवन है जिसे किसी भी चीज से बदला नहीं जा सकता। अगर तुम इस अवसर को खो देते हो, तो तुम न केवल अपने शेष जीवन में पछताओगे—यह महज खेद की बात नहीं है—बल्कि तुमने खुद को लगभग पूरी तरह से नष्ट कर लिया होगा। फिर तुम्हारे लिए कोई परिणाम या कोई गंतव्य नहीं होगा, और एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारा मार्ग अवरुद्ध हो चुका होगा। तुम्हें फिर कभी बचाए जाने का अवसर नहीं मिलेगा। क्या तुम लोग समझ रहे हो? (हाँ, समझ रहे हैं।) सत्य का अनुसरण न करने के बहाने या कारण न ढूँढ़ो। वे किसी काम के नहीं; तुम सिर्फ खुद को बेवकूफ बना रहे हो।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1)

यदि तुम परमेश्वर का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहते हो, तो पहली बात यह कि अगर चीजें तुम्हारे अनुसार न हों, तो आवेश में आने से बचना चाहिए। पहले मन को शांत करो और परमेश्वर के सामने मौन रहो, मन ही मन उससे प्रार्थना करो और उससे खोजो। हठी मत बनो; पहले समर्पित हो जाओ। ऐसी मानसिकता से ही तुम समस्याओं का बेहतर समाधान कर सकते हो। यदि तुम परमेश्वर के सामने जीने में दृढ़ रह सको, और तुम पर चाहे जो भी मुसीबत आए, उसमें उससे प्रार्थना करने और रास्ता दिखाने के लिए कहने में समर्थ हो, और तुम समर्पण की मानसिकता से उसका सामना कर सकते हो, तो फिर इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की कितनी अभिव्यक्तियाँ हैं, या तुमने पहले क्या-क्या अपराध किए हैं—अगर तुम सत्य की खोज करो, तो उन सभी समस्याओं को हल कर पाओगे। तुम्हारे सामने कैसी भी परीक्षाएँ आएँ, तुम दृढ़ रह पाओगे। अगर तुम्हारी मानसिकता सही है, तुम सत्य स्वीकारते हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उसका आज्ञापालन करते हो, तब तुम सत्य पर पूरी तरह अमल कर सकोगे। भले ही तुम कभी-कभी थोड़े विद्रोही और प्रतिरोधी हो सकते हो और कभी-कभी रक्षात्मक समझ दिखाते हो और समर्पण नहीं कर पाते हो, पर यदि तुम परमेश्वर से प्रार्थना करके अपनी विद्रोही प्रवृत्ति को बदल सको, तो तुम सत्य स्वीकार कर सकते हो। ऐसा करने के बाद, इस पर विचार करो कि तुम्हारे अंदर विद्रोह और प्रतिरोध क्यों पैदा हुआ। कारण का पता लगाओ, फिर उसे दूर करने के लिए सत्य खोजो, और तब तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के उस पहलू को शुद्ध किया जा सकता है। ऐसी ठोकरें खाने और गिरकर उठने के बाद, जब तुम सत्य को अभ्यास में लाने लगोगे, तब तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे दूर होता जाएगा। और फिर, तुम्हारे अंदर सत्य का राज हो जाएगा और वह तुम्हारा जीवन बन जाएगा। उसके बाद, तुम्हारे सत्य के अभ्यास में कोई और बाधा नहीं आएगी। तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण कर पाओगे और तुम सत्य वास्तविकता को जिओगे। इस अवधि के दौरान, तुम्हें इसमें व्यवहारिक अनुभव होगा और सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर का अज्ञाकारी होने का मार्गदर्शन मिलेगा। बाद में तुम्हारे साथ कभी कुछ होगा, तो तुम जान जाओगे कि इस तरह से कैसे अभ्यास करें जो परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी हो और किस तरह का व्यवहार परमेश्वर के खिलाफ है। जब तुम्हारे हृदय में ये चीजें स्प्ष्ट होंगी, तो भी क्या तुम सत्य-वास्तविकता पर संगति करने में असमर्थ रहोगे? अगर तुम्हें अपने अनुभवों की गवाही साझा करने को कहा जाए, तो तुम्हें कोई समस्या नहीं होगी क्योंकि तुमने कई चीजों का अनुभव किया होगा और अभ्यास के सिद्धांतों को जाना होगा। तुम जैसे भी बात करो, वह वास्तविक होगी, और जो भी तुम बोलो, यह व्यावहारिक होगा। और अगर तुम्हें धर्म-सिद्धांत के शब्दों और धर्मपत्रों पर चर्चा करने को कहा जाए, तुम ऐसा करने के लिए तैयार नहीं होंगे—तुम अपने हृदय में उनसे तंग आ जाआगे। क्या तुम तब सत्य-वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर चुके होंगे? जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे कुछ ही वर्षों के प्रयास से इसका अनुभव प्राप्त कर सकते हैं, और फिर सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं। जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनके लिए सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करना आसान नहीं है, भले ही वे ऐसा करना चाहते हों। ऐसा इसलिए है क्योंकि जो सत्य से प्रेम नहीं करते, वे बहुत ज्यादा विद्रोही होते हैं। जब भी उन्हें किसी मामले में सत्य का अभ्यास करने की जरूरत होती है, वे हमेशा अपने लिए बहाने बनाते हैं और उनकी अपनी समस्याएं होती हैं, इसलिए सत्य का अभ्यास करना उनके लिए बहुत मुश्किल होगा। भले ही वे प्रार्थना और खोज कर सकते हैं, और सत्य को अभ्यास में लाने के इच्छुक हो सकते हैं, लेकिन जब उनके साथ कुछ होता है, जब वे मुश्किलों का सामना करते हैं, उनकी भ्रमित मानसिकता सामने आ जाती है, और उनका विद्रोही स्वभाव बाहर आ जाता है, उनके मन-मष्तिष्क पर काले बादल छाने लगते हैं। उनका विद्रोही स्वभाव कितना गंभीर होगा! अगर उनके हृदय का छोटा-सा हिस्सा भी भ्रमित है, और बड़ा हिस्सा परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहता है, तो उनके लिए सत्य का अभ्यास करना थोड़ा कम मुश्किल होगा। शायद वे कुछ देर के लिए प्रार्थना कर सकते हैं, या हो सकता है कि कोई उनके साथ सत्य पर संगति करे; अगर वे इसे उसी पल समझ लेते हैं, उनके लिए अभ्यास करना आसान होगा। अगर उनका भ्रम इतना बड़ा है कि यह उनके हृदय के बहुत बड़े हिस्से पर काबिज है, जिसमें विद्रोही होना प्राथमिक है और समर्पण बाद में आता है, तो उनके लिए सत्य को अभ्यास में लाना आसान नहीं होगा, क्योंकि उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। और जो सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करते वे सभी अत्यधिक या पूरी तरह से विद्रोही हैं, पूरी तरह से भ्रमित हैं। ये लोग इस हद तक भ्रमित हैं कि कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं कर पाएंगे, इसलिए उन पर लगाई गई कितनी भी ऊर्जा किसी काम की नहीं होगी। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, उनमें सत्य के लिए मजबूत प्रेरणा होती है; अगर वह बड़ा हिस्सा है या उन्हें प्रेरित करने वाली सबसे बड़ी चीज है, और सत्य उन तक स्पष्ट रूप से पहुंचता है, तो वे निश्चित रूप से इसका अभ्यास कर सकेंगे। सत्य से प्रेम करना कोई साधारण बात नहीं है; सिर्फ थोड़ी सी इच्छा होने मात्र से कोई सत्य से प्रेम नहीं कर सकता। उन्हें उस बिंदु तक पहुंचना होगा, जहां वे परमेश्वर के वचन को समझ सकें, वे प्रयास करें और मुश्किलों का सामना करें और सत्य को अभ्यास में लाने की कीमत चुकाएं। यह वही व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

मान लो तुम्हारे साथ कुछ हो जाता है, तुम्हें नहीं पता कि क्या करना है, न तुमने किसी और से सुना है कि क्या करना चाहिए। मुमकिन है यह मामला न तो तुम्हारी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो, न ठीक तुम्हारी रुचि के अनुरूप; लिहाजा तुम्हारे दिल में कुछ प्रतिरोध होता है, और तुम कुछ परेशान हो जाते हो। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? ऐसे में अभ्यास का एक सबसे सरल रास्ता है, यह कि सबसे पहले समर्पण करो। समर्पण न तो कोई बाहरी क्रिया या उक्ति है, न कोई मौखिक दावा—यह एक आंतरिक अवस्था है। यह तुम लोगों के लिए अनजानी चीज नहीं होनी चाहिए। अपने वास्तविक अनुभवों के आधार पर बताओ कि जब लोग सच्चा समर्पण करते हैं तो वे कैसे बोलते, काम करते और सोचते हैं, और उनकी अवस्था और रवैया कैसा होता है? (वे जिन चीजों को अभी तक नहीं समझते, सबसे पहले उनके बारे में अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से किनारा करते हैं। वे सत्य को और परमेश्वर की इच्छा को खोजते हैं। अगर खोजने के बाद भी वे समझते नहीं हैं तो फिर वे परमेश्वर के उचित समय का इंतजार करना सीखते हैं।) यह इसका एक पहलू है। और क्या है? (जब उनकी काट-छाँट होती है और उनसे निपटा जाता है, तो वे तर्क-वितर्क या अपना बचाव नहीं करते।) यह इस अवस्था का दूसरा पहलू है। कुछ लोग भले ही तुम्हारे मुँह पर तर्क-वितर्क या अपना बचाव न करें, मगर वे शिकायतों और असंतोष से भरे होते हैं। वे इस बारे में तुम्हारे मुँह पर कुछ नहीं बोलते, मगर तुम्हारी पीठ पीछे बेपरवाही से बातें बनाकर इसे सब जगह फैला देते हैं। क्या यह समर्पण का रवैया है? (नहीं है।)। तो फिर समर्पित रवैया आखिर क्या है? सबसे पहले तो तुम्हारे पास एक सकारात्मक रवैया होना चाहिए : जब काट-छाँट या निपटान हो तो सबसे पहले सही-गलत का विश्लेषण करने मत बैठ जाओ—इसे समर्पित मन से स्वीकारो। उदाहरण के लिए, कोई कह सकता है कि तुमने कुछ गलत किया है। यद्यपि तुम्हारा दिल नहीं मानता, तुम यह भी नहीं जानते कि क्या गलत किया, फिर भी तुम इसे स्वीकारते हो। स्वीकार करना मूल रूप से एक सकारात्मक रवैया है। इसके अलावा इससे एक थोड़ा ज्यादा निष्क्रिय रवैया भी है, वह है चुप रहना और कोई प्रतिरोध न करना। इसमें किस तरह का व्यवहार शामिल है? तुम तर्क-वितर्क नहीं करते, अपना बचाव नहीं करते, या अपने लिए वस्तुनिष्ठ बहाने नहीं बनाते। अगर तुम हमेशा अपने लिए बहाने बनाते हो और तर्क-वितर्क करते हो, और जिम्मेदारी दूसरे लोगों पर ठेलते हो तो क्या यह प्रतिरोध है? यह विद्रोह का स्वभाव है। तुम्हें अस्वीकार, प्रतिरोध या तर्क-वितर्क नहीं करना चाहिए। भले ही तुम्हारा तर्क सही हो, लेकिन क्या यही सत्य है? यह मनुष्य का वस्तुनिष्ठ बहाना है, सत्य नहीं। अभी, मैं तुमसे वस्तुनिष्ठ बहानों के बारे में नहीं पूछ रहा हूँ—चीजें क्यों हुईं, या कैसे हुईं। बल्कि, मैं यह कह रहा हूँ कि तुम्हारे कार्यों की प्रकृति सत्य के अनुरूप नहीं है। यदि तुम्हारे पास इस स्तर का ज्ञान है, तो तुम वास्तव में स्वीकार करने और प्रतिरोध न करने में सक्षम होओगे। कोई घटना हो जाने पर सबसे पहले समर्पित रवैया अपनाना मुख्य है। कुछ लोग काट-छाँट का सामना करने और निपटाए जाने के बाद हमेशा तर्क करते हैं और अपना बचाव करते हैं : “इसके लिए मैं ही अकेला दोषी नहीं हूँ, तो सारी जिम्मेदारी मेरे मत्थे कैसे डाल दी गई? मेरी ओर से कोई क्यों नहीं बोल रहा है? इसकी सारी जिम्मेदारी अकेले मुझ पर ही क्यों है? यह तो वाकई ‘फायदे सारे उठाएंगे, पर दोष केवल एक आदमी ले’ जैसी स्थिति हो गई। मेरी तो किस्मत ही खराब है!” यह कैसी भावना है? यह प्रतिरोध है। यद्यपि ऊपरी तौर पर वे सिर हिलाकर अपनी गलती कबूलते हैं, अपने शब्दों के जरिए भी स्वीकारते हैं, लेकिन मन ही मन वे शिकायत करते हैं, “अगर तुम मुझसे निपटना चाहते हो तो निपटो, लेकिन इतने कटु शब्द बोलने की जरूरत क्या है? तुम इतने सारे लोगों के सामने मेरी आलोचना कर रहे हो, लेकिन मैं अपना मुँह लेकर कहाँ जाऊँ? तुम मुझसे प्यार से पेश नहीं आ रहे हो! मैंने एक छोटी-सी ही गलती तो की, फिर क्यों लगातार सुनाए जा रहे हो?” इस तरह वे अपने दिल में प्रतिरोध कर इस व्यवहार को खारिज कर देते हैं, हठपूर्वक इसका विरोध करते हैं, और तर्कहीनता और बहसबाजी पर उतर आते हैं। ऐसे विचार और भावनाएँ रखने वाला साफ तौर पर बाधक और प्रतिरोधी है, तो फिर उसके पास सच्चा समर्पित रवैया कैसे आएगा? काट-छाँट और निपटारे का सामना होने पर, एक स्वीकारने वाले और समर्पित रवैये के तहत किस प्रकार के कार्यकलाप आते हैं? कम-से-कम तुम्हें समझदार और तर्कसंगत होना चाहिए। तुम्हें पहले समर्पण करना चाहिए, इसका विरोध या इसे अस्वीकार नहीं करना चाहिए, और इसके साथ तर्कसंगत व्यवहार करना चाहिए। इस तरीके से तुम्हारे पास न्यूनतम आवश्यक तार्किकता होगी। अगर तुम स्वीकृति और समर्पण हासिल करना चाहते हो तो तुम्हें सत्य को समझना होगा। सत्य को समझना कोई आसान चीज नहीं है। सबसे पहले तुम्हें परमेश्वर के दृष्टिकोण से चीजों को समझना होगा : कम-से-कम यह तो जान ही लो कि तुम्हारे साथ निपटान और काट-छाँट परमेश्वर की अनुमति से होती है, वह चाहता है कि तुम्हारे साथ ऐसा हो, यह परमेश्वर से आता है। निपटान और काट-छाँट चाहे पूरी तरह उचित हो या नहीं, तुम्हें स्वीकार करने वाला और समर्पित रवैया रखना चाहिए। यह परमेश्वर के प्रति समर्पण की अभिव्यक्ति है, और साथ ही यह परमेश्वर द्वारा पड़ताल की स्वीकृति भी है। यदि तुम केवल तर्क-वितर्क करके अपना बचाव करते हो, यह सोचते हो कि काट-छाँट और निपटान मनुष्य से आता है न कि परमेश्वर से, तो तुम्हारी समझ गलत है। एक बात तो यह कि, तुमने परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार नहीं किया है, और दूसरी बात परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो परिवेश तैयार किया है उसमें ढलने के लिए तुम्हारे पास न तो समर्पित रवैया है, न ही आज्ञाकारी आचरण है। यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करता है। ... लोगों को समर्पण का पाठ सिखाने का परमेश्वर का अंतिम लक्ष्य क्या है? उस समय तुम्हें चाहे जितनी प्रताड़ना और पीड़ा सहनी पड़े, चाहे जितनी शर्मिंदगी उठानी पड़े, या तुम्हारी छवि, अहं या प्रतिष्ठा को चाहे जितनी चोट पहुँचे, ये सभी गौण हैं। सबसे महत्वपूर्ण है अपनी अवस्था को आमूलचूल बदलना। कैसी अवस्था? सामान्य परिस्थितियों में, लोगों के दिल की गहराइयों में एक प्रकार की अड़ियल और विद्रोही अवस्था मौजूद होती है—जिसका मुख्य कारण यह है कि उनके दिल में, खास तरह के मानवीय तर्क और मानवीय धारणाएँ होती हैं, जो इस प्रकार हैं : “जब तक मेरे इरादे सही हैं, तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि परिणाम क्या है; तुम्हें मेरे साथ निपटना नहीं चाहिए और यदि तुम ऐसा करते हो, तो मुझे आज्ञापालन करने की आवश्यकता नहीं है।” वे इस बात पर विचार नहीं करते कि क्या उनके कार्य सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप हैं या परिणाम क्या होंगे। वे हमेशा इन बातों से चिपके रहते हैं, “अगर मेरे इरादे नेक और सही हैं, तो परमेश्वर को मुझे स्वीकार करना चाहिए। भले ही परिणाम अच्छा न हो, तुम्हें मेरी काट-छाँट या मेरा निपटारा नहीं करना चाहिए, मेरी निंदा करने की बात तो बहुत दूर है।” यह मानवीय तर्क है, है न? ये मानवीय धारणाएँ हैं न? मनुष्य हमेशा अपने तर्क पर कायम रहता है—क्या इसमें कोई समर्पण है? तुमने अपने तर्क को सत्य बना लिया है और सत्य को दरकिनार कर दिया है। तुम्हें लगता है, जो तुम्हारे तर्क के अनुरूप है वह सत्य है और जो नहीं है वह सत्य नहीं है। क्या तुमसे ज्यादा हास्यास्पद और कोई है? क्या तुमसे ज्यादा अहंकारी और आत्म-तुष्ट कोई है? समर्पण का सबक सीखने के लिए किस भ्रष्ट स्वभाव का समाधान किया जाना चाहिए? यह वास्तव में अहंकार और आत्म-तुष्टि का स्वभाव है, जो लोगों के सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सबसे बड़ी बाधा है। अहंकारी और आत्म-तुष्ट स्वभाव वाले लोग तर्क-वितर्क और अवज्ञा करने में सबसे अधिक प्रवृत्त होते हैं, वे हमेशा सोचते हैं कि वे सही हैं, इसलिए अपने अहंकारी और आत्म-तुष्ट स्वभाव का समाधान करने और उससे निपटने से ज्यादा जरूरी कुछ नहीं है। जब लोग विनम्र हो जाएंगे और अपने तर्क देने बंद कर देंगे तो विद्रोह की समस्या हल हो जाएगी और वे समर्पित बनने में समर्थ हो जाएंगे। अगर लोगों को समर्पित बनने में सक्षम होना है, तो क्या उनमें कुछ हद तक तार्किकता होनी आवश्यक नहीं है? उनमें एक सामान्य व्यक्ति की समझ होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, कुछ मामलों में हमने चाहे सही काम किया हो या नहीं, अगर परमेश्वर संतुष्ट नहीं है, तो हमें वही करना चाहिए जैसा परमेश्वर कहता है और उसके वचनों को हर चीज के लिए मानक मानना चाहिए। क्या यह तर्कसंगत है? लोगों में इस भावना का होना सबसे जरूरी है। हम चाहे कितना भी कष्ट उठाएँ, चाहे हमारे इरादे, उद्देश्य और कारण कुछ भी हों, यदि परमेश्वर संतुष्ट नहीं है—यदि उसकी अपेक्षाएँ पूरी नहीं हुई हैं—तो हमारे कार्य निस्संदेह सत्य के अनुरूप नहीं हैं, इसलिए हमें परमेश्वर की बात मानकर उसके प्रति समर्पण करना चाहिए और उसके साथ बहस या तर्क करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। जब तुममें ऐसी तर्कसंगतता होगी, जब तुममें एक सामान्य व्यक्ति की समझ होगी, तो तुम्हारे लिए अपनी समस्याएँ हल करना आसान होगा, और तुम सच में विनम्र हो जाओगे। चाहे तुम किसी भी स्थिति में हो, तुम विद्रोही नहीं बनोगे और परमेश्वर की अपेक्षाओं की अवहेलना नहीं करोगे; तुम यह विश्लेषण नहीं करोगे कि परमेश्वर जो चाहता है वह सही है या गलत, अच्छा है या बुरा, और तुम आज्ञापालन कर पाओगे—इस तरह तुम अपनी तर्क-वितर्क, हठधर्मिता और विद्रोह की स्थिति को हल कर सकते हो।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है

परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारिता परमेश्वर की आज्ञाकारिता का सबसे बुनियादी सबक है। परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं में वे लोग, मामले और चीजें—और विभिन्न परिस्थितियाँ—शामिल हैं, जिन्हें परमेश्वर तुम्हारे चारों ओर पैदा करता है। तो इन परिस्थितियों से सामना होने पर तुम्हें कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए? सबसे बुनियादी बात है परमेश्वर से ग्रहण करना। "परमेश्वर से ग्रहण करने" का क्या अर्थ है? शिकायत करना और विरोध करना—क्या यह परमेश्वर से ग्रहण करना है? बहाने बनाना और दोष ढूँढ़ना—क्या यह परमेश्वर से ग्रहण करना है? नहीं। तो परमेश्वर से ग्रहण करने का अभ्यास कैसे किया जाए? पहले तनावमुक्त हो जाओ, सत्य की खोज करो, और आज्ञाकारिता का अभ्यास करो। बहाने या कारण मत सुनाओ। कौन सही है और कौन गलत, इसका अनुमान लगाने या विश्लेषण करने की कोशिश मत करो। और इसका विश्लेषण मत करो कि किसकी गलती अधिक गंभीर है और किसकी कम। क्या इन चीजों का विश्लेषण करना परमेश्वर से ग्रहण करने का रवैया है? क्या यह आज्ञाकारिता का रवैया है? (नहीं।) यह परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता का रवैया नहीं है, और ग्रहण करने का रवैया नहीं है, यह परमेश्वर की व्यवस्था स्वीकार करने का रवैया नहीं है। परमेश्वर से ग्रहण करना : यह परमेश्वर की आज्ञाकारिता का अभ्यास करने के सिद्धांतों का एक पहलू है। ... सही या गलत का विश्लेषण न करना, तर्कसंगत न ठहराना, लोगों में दोष न खोजना, बाल की खाल न निकालना, वस्तुनिष्ठ कारणों का विश्लेषण न करना, और मानव-बुद्धि का उपयोग करके विश्लेषण और जाँच न करना; ये सभी विवरण हैं, और यह परमेश्वर से स्वीकार करना है। और इसे अमल में लाने का तरीका है पहले आज्ञापालन करना। भले ही तुम्हारी धारणाएँ हों या तुम्हें चीजें स्पष्ट न हों, फिर भी आज्ञा मानो, बहाने न बनाओ या विद्रोह न करो; और आज्ञा मानने के बाद सत्य खोजो; परमेश्वर से प्रार्थना करो और खोजो।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्‍वर के प्रति समर्पण सत्‍य प्राप्‍त करने में बुनियादी सबक है

सृष्टिकर्ता चाहे कुछ भी करे, वह सही होता है। वह चाहे कुछ भी करे, उसकी पहचान और हैसियत वही रहती है, और लोगों को उसकी आराधना करनी चाहिए। वह मानवजाति का शाश्वत प्रभु और शाश्वत परमेश्वर है, और यह तथ्य कभी नहीं बदल सकता। ऐसा नहीं होना चाहिए कि जब परमेश्वर लोगों को देता है तो वे स्वीकार करें कि वह परमेश्वर है, लेकिन जब वह लेता है, तो वह परमेश्वर नहीं होता। यह सृजित प्राणियों को सही ज्ञान न होने का मामला है, परमेश्वर द्वारा गलती करने का नहीं। यदि लोगों के अनुभव उन्हें इसकी समझ देते हैं, और यह उन्हें स्पष्ट है—अगर अपने हृदय में वे स्वीकार करें कि यह सत्य है—तो परमेश्वर के साथ उनका संबंध और भी सामान्य हो जाएगा। अगर तुम केवल शब्दों में स्वीकार करते हो कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है, तो यह तुम्हारे लिए केवल सिद्धांत होगा, और जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आएगी, तो तब भी तुम परमेश्वर के साथ तर्क करने का प्रयास करोगे, तब भी तुम्हें लगेगा कि परमेश्वर को ऐसा नहीं करना चाहिए या वैसा नहीं करना चाहिए, ऐसे में परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कभी भी सामान्य नहीं होगा। अगर तुम कभी भी इस कदम से आगे नहीं बढ़ पाए, अगर तुम इस तरह के सत्यों को पूरी तरह से स्वीकार करने और उनमें प्रवेश करने में असमर्थ हुए, तो तुम कभी भी परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाओगे, और इस तरह तुम परमेश्वर के आयोजनों का पूरी तरह से पालन करने में असमर्थ रहोगे, और इसलिए तुम हमेशा परमेश्वर को आजमाओगे और उसके साथ तर्क करोगे, और हमेशा महसूस करोगे कि तुम्हारे तर्क सत्य से ऊपर और चर्चा योग्य हैं, और तुम्हें लगेगा कि बहुत-से लोग तुम्हारा समर्थन करेंगे। अगर बहुत-से लोग तुम्हारा समर्थन करें भी, तो भी वे सब भ्रष्ट मानवजाति के हैं, और वे सत्य नहीं हैं; अगर पूरी मानवजाति भी तुम्हारा समर्थन करे और परमेश्वर का विरोध करने में तुम्हारा साथ दे, फिर भी परमेश्वर गलत नहीं होगा, मानवजाति हीगलत होगी। क्या यह कोई सूत्र है, कोई नियम है, कोई वक्तव्य है? (नहीं।) यह सत्य है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति जो प्रवृत्ति होनी चाहिए मनुष्य की

एक सृजित प्राणी का अपने सृष्टिकर्ता के प्रति जो एकमात्र दृष्टिकोण होना चाहिए, वह है आज्ञाकारिता का, ऐसी आज्ञाकारिता जो बिना शर्त हो। यह ऐसी चीज़ है, जिसे आज कुछ लोग स्वीकार करने में असमर्थ हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और उसमें सत्य की वास्तविकता नहीं है। जब परमेश्वर ऐसी चीजें करता है जो तुम्हारी धारणाओं से उलट होती है, तो अगर तुम्हारे परमेश्वर को गलत समझने की संभावना है—तुम परमेश्वर की अवज्ञा कर सकते हो और उससे मुँह तक मोड़ सकते हो—तो फिर तुम परमेश्वर का आज्ञापालन कर पाने से बहुत दूर हो। हालाँकि मनुष्य को परमेश्वर के वचन द्वारा पोषण और सिंचन प्रदान किया जाता है, फिर भी मनुष्य वास्तव में एक ही लक्ष्य के लिए प्रयास कर रहा है, जो अंततः परमेश्वर के प्रति बिना शर्त पूर्ण समर्पण करने में सक्षम होना है, जिस बिंदु पर तुम, एक सृजित प्राणी के आवश्यक मानक तक पहुँच चुके होगे। कई बार ऐसा भी होता है जब परमेश्वर जानबूझकर तुम्हारी धारणाओं से उलट चीजें करता है, और जानबूझकर ऐसी चीजें करता है जो तुम्हारी इच्छा के विपरीत होती हैं, और जो सत्य और मानवीय भावनाओं के भी विपरीत प्रतीत हो सकती हैं, और तुम्हें नागवार लग सकती हैं; इन चीजों को स्वीकार करना तुम्हारे लिए मुश्किल हो सकता है, तुम उनका कोई मतलब नहीं समझ पाते, और चाहे तुम उनका कैसे भी विश्लेषण करो, तुम्हें वे गलत प्रतीत हो सकती हैं और शायद तुम उन्हें स्वीकार न कर पाओ, तुम्हें ऐसा लग सकता है कि परमेश्वर का ऐसा करना अनुचित था—पर दरअसल परमेश्वर ने यह जानबूझकर किया होता है। तो फिर ऐसी चीजें करने के पीछे परमेश्वर का क्या लक्ष्य होता है? यह तुम्हारी परीक्षा लेने और तुम्हें उजागर करने के लिए होता है, यह देखने के लिए कि तुम सत्य की खोज करने में सक्षम हो या नहीं, कि तुम सचमुच परमेश्वर के आज्ञाकारी हो या नहीं। परमेश्वर जो सब करता और अपेक्षा करता है, उसका कोई आधार न खोजो, उसका कारण न पूछो। परमेश्वर के साथ तर्क करने का कोई लाभ नहीं है। तुम्हें बस यह स्वीकार करना है कि परमेश्वर सत्य है, और तुम्हें पूर्ण आज्ञाकारिता में सक्षम होना है। तुम्हें यह स्वीकार करना है कि परमेश्वर तुम्हारा सृष्टिकर्ता और तुम्हारा परमेश्वर है। यह हर तर्क-वितर्क से ऊपर है, हर सांसारिक ज्ञान से ऊपर है, हर मानवीय नैतिकता, संहिता, विशेषज्ञता, फलसफे या पारंपरिक संस्कृति से ऊपर है—यह मानवीय भावनाओं, मानवीय धार्मिकता और तथाकथित मानवीय प्रेम से भी ऊपर है। यह हर चीज से ऊपर है। अगर यह तुम्हें स्पष्ट नहीं है तो देर-सवेर तुम्हारे साथ कुछ होगा और तुम गिर पड़ोगे। और कुछ नहीं तो तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर दोगे और भटकाव की राह पर चले जाओगे; अगर तुम आखिर में प्रायश्चित करने में सफल रहते हो, और परमेश्वर की मनोहरता को पहचान लेते हो, अपने अंदर परमेश्वर के कार्य के महत्व को पहचान लेते हो, तब भी तुम्हारे उद्धार की उम्मीद बाकी रहेगी—पर अगर तुम इसकी वजह से गिर पड़ते हो और वापस उठ नहीं पाते, तो तुम्हारे लिए कोई उम्मीद नहीं है। परमेश्वर लोगों का न्याय करे, उन्हें ताड़ना दे, शाप दे, ये सब उन्हें बचाने के लिए हैं, और उन्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें किस चीज से डरना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के ऐसा कहने से डरना चाहिए, “मैं तुमसे घृणा करता हूँ और तुम्हें अस्वीकार करता हूँ।” अगर परमेश्वर ऐसा कहता है तो तुम मुसीबत में हो : इसका मतलब है कि परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा, और तुम्हारे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। और इसलिए, परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने में लोगों को परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए। तुम कुछ भी करो, पर परमेश्वर के वचनों में मीन-मेख निकालते हुए यह न कहो, “न्याय और ताड़ना ठीक हैं, पर निंदा, शाप और विनाश—क्या इनका मतलब यह नहीं कि मेरे लिए सब खत्म हो चुका है? परमेश्वर का प्राणी होने का क्या अर्थ है? मैं अब से तुम्हारा प्राणी नहीं और तुम मेरे परमेश्वर नहीं होगे।” अगर तुम परमेश्वर को नकार दोगे, अपनी गवाही में डटकर नहीं खड़े रहोगे, तो परमेश्वर तुम्हें सचमुच अस्वीकार कर देगा। क्या तुम लोग यह जानते हो? लोग चाहे कितने ही समय से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हों, उन्होंने चाहे कितने ही रास्ते तय किए हों, कितना ही काम किया हो, कितने ही कर्तव्य निभाए हों, इस अवधि में उन्होंने जो कुछ भी किया है वह सब एक चीज की तैयारी के लिए है। वह क्या है? वे अंतत: परमेश्वर के प्रति संपूर्ण आज्ञाकारिता, बिना शर्त आज्ञाकारिता दिखाने में सक्षम होने की तैयारी करते रहे हैं। “बिना शर्त” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम कोई सफाई नहीं देते, और अपने वस्तुनिष्ठ कारणों की कोई बात नहीं करते, इसका अर्थ है कि तुम बाल की खाल नहीं निकालते; तुम परमेश्वर के प्राणी हो, तुम ऐसा करने के योग्य नहीं हो। जब तुम परमेश्वर के साथ बाल की खाल निकालते हो तो तुम अपनी जगह नहीं पहचान पाते, और जब तुम परमेश्वर के साथ तर्क करने की कोशिश करते हो—तो एक बार फिर तुम अपनी जगह नहीं पहचान पाते। परमेश्वर के साथ बहस मत करो, हमेशा कारण समझने की कोशिश न करो, आज्ञापालन से पहले समझने पर और समझ न आए तो आज्ञापालन न करने पर अड़े न रहो। जब तुम ऐसा करते हो तो तुम अपना स्थान पहचान नहीं पाते, जिसका मतलब है कि परमेश्वर के लिए तुम्हारी आज्ञाकारिता संपूर्ण नहीं है, यह सापेक्षिक और सशर्त आज्ञाकारिता है। वे लोग जो परमेश्वर के प्रति अपनी आज्ञाकारिता के लिए शर्तें रखते हैं, क्या परमेश्वर का सच्चा आज्ञापालन करने वाले लोग हैं? क्या तुम परमेश्वर से परमेश्वर की तरह व्यवहार कर रहे हो? क्या तुम परमेश्वर की सृष्टिकर्ता के रूप में आराधना करते हो? अगर नहीं, तो परमेश्वर तुम्हें अभिस्वीकृत नहीं करता। परमेश्वर के प्रति संपूर्ण और बिना शर्त आज्ञाकारिता हासिल करने के लिए तुम्हें क्या अनुभव करना चाहिए? और इसे कैसे अनुभव करना चाहिए? एक बात तो यह कि लोगों को परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए, उन्हें काट-छाँट और निपटारे को स्वीकार करना चाहिए। इसके साथ ही उन्हें परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करना चाहिए, और अपना कर्तव्य निभाते समय सत्य का अनुसरण करना चाहिए। उन्हें जीवन में प्रवेश और परमेश्वर की इच्छा को समझने से जुड़े सत्य के विभिन्न पहलुओं को समझना चाहिए। कई बार, यह लोगों की क्षमता से बाहर होता है, और उनमें सत्य को समझने के लिए ग्रहण करने की क्षमता की कमी होती है, और वे दूसरों के उनके साथ संगति करने या परमेश्वर द्वारा तैयार की गई विभिन्न स्थितियों से मिले सबक के बाद ही थोड़ा-बहुत समझ पाते हैं। पर तुम्हें यह बोध होना चाहिए कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की भावना होनी चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के साथ तर्क नहीं करना चाहिए या कोई शर्त नहीं रखनी चाहिए; परमेश्वर जो भी करता है वह वही होता है जो किया जाना चाहिए, क्योंकि वह सृष्टिकर्ता है; तुम परमेश्वर के एक प्राणी हो, और तुममें आज्ञाकारिता का रवैया होना चाहिए, तुम्हें हमेशा तर्क या शर्त की बात नहीं करनी चाहिए। अगर तुम्हारे अंदर आज्ञाकारिता के सबसे बुनियादी रवैये का भी अभाव है, और तुम परमेश्वर पर संदेह करने और उससे आशंकित होने की हद तक जा सकते हो, या अपने मन में यह सोच सकते हो, “मुझे यह देखना चाहिए कि क्या परमेश्वर मुझे सचमुच बचाएगा, कि क्या परमेश्वर सचमुच धार्मिक है। हर कोई कहता है कि परमेश्वर प्रेम है—तो ठीक है, मुझे यह देखना ही है कि परमेश्वर मेरे अंदर जो कुछ करता है उसमें क्या सचमुच प्रेम शामिल है, क्या यह सचमुच प्रेम है,” अगर तुम निरंतर यह जाँचते रहते हो कि परमेश्वर जो कुछ करता है वह तुम्हारी धारणाओं और रुचियों के अनुरूप है या नहीं, या जिसे तुम सत्य समझते हो उसके अनुरूप है या नहीं, तो तुम अपनी जगह नहीं पहचान पा रहे और तुम मुसीबत में हो : संभावना है कि तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर बैठोगे। आज्ञाकारिता से जुड़े सत्य बहुत अहम हैं, और किसी भी सत्य को सिर्फ दो-तीन वाक्यों में पूरी तरह और स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं किया जा सकता; वे सब लोगों की विभिन्न अवस्थाओं और भ्रष्टता से जुड़े हुए हैं। सत्य की वास्तविकता में प्रवेश एक या दो—या तीन या पाँच—वर्षों में हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिए बहुत-सी चीजों के अनुभव की, परमेश्वर के वचनों के बहुत-से न्याय और ताड़ना के अनुभव की, बहुत-सी काट-छाँट और निपटारे के अनुभव की, और अंतत: सत्य के अभ्यास की क्षमता हासिल करने की जरूरत होती है। इसके बाद ही सत्य का अनुसरण असरदार होगा, इसके बाद ही लोगों में सत्य की वास्तविकता आएगी। जिनके पास सत्य की वास्तविकता है, सिर्फ वही सच्चे अनुभव वाले लोग होते हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

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संदर्भ के लिए बाइबल के पद :"क्योंकि उदयाचल से लेकर अस्ताचल तक जाति-जाति में मेरा नाम महान् है, और हर कहीं मेरे नाम पर धूप और शुद्ध भेंट...

प्रश्न 1: सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है," तो मुझे वह याद आया जो प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)। हम पहले से ही जानते हैं कि प्रभु यीशु जीवन के सजीव जल का स्रोत हैं, और अनन्‍त जीवन का मार्ग हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और प्रभु यीशु समान स्रोत हों? क्या उनके कार्य और वचन दोनों पवित्र आत्मा के कार्य और वचन हैं? क्या उनका कार्य एक ही परमेश्‍वर करते हैं?

उत्तर: दोनों बार जब परमेश्‍वर ने देह धारण की तो अपने कार्य में, उन्होंने यह गवाही दी कि वे सत्‍य, मार्ग, जीवन और अनन्‍त जीवन के मार्ग हैं।...

प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

उत्तर: हम परमेश्वर की वाणी कैसे सुनते हैं? हममें कितने भी गुण हों, हमें कितना भी अनुभव हो, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। प्रभु यीशु में विश्वास...

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