2. आशीष पाने के इरादे और प्रबल इच्छा का समाधान कैसे करें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

अधिकतर लोग शांति और अन्य लाभों के लिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। जब तक तुम्हारे लिए लाभप्रद न हो, तब तक तुम परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते, और यदि तुम परमेश्वर के अनुग्रह प्राप्त नहीं कर पाते, तो तुम खीज जाते हो। तुमने जो कहा, वो तुम्हारा असली आध्यात्मिक कद कैसे हो सकता है? जब अनिवार्य पारिवारिक घटनाओं, जैसे कि बच्चों का बीमार पड़ना, प्रियजनों का अस्पताल में भर्ती होना, फसल की ख़राब पैदावार, और परिवार के सदस्यों द्वारा उत्पीड़न, की बात आती है, तो ये अक्सर घटित होने वाले रोज़मर्रा के मामले भी तुम्हारे लिए बहुत अधिक हो जाते हैं। जब ऐसी चीजें होती हैं, तो तुम दहशत में आ जाते हो, तुम नहीं जानते कि क्या करना है—और अधिकांश समय तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो। तुम शिकायत करते हो कि परमेश्वर के वचनों ने तुमको धोखा दिया है, कि परमेश्वर के कार्य ने तुम्हारा उपहास किया है। क्या तुम लोगों के ऐसे ही विचार नहीं हैं? क्या तुम्हें लगता है कि ऐसी चीजें कभी-कभार ही तुम लोगों के बीच में होती हैं? तुम लोग हर दिन इसी तरह की घटनाओं के बीच रहते हुए बिताते हो। तुम लोग परमेश्वर में अपने विश्वास की सफलता के बारे में और परमेश्वर की इच्छा कैसे पूरी करें, इस बारे में ज़रा भी विचार नहीं करते। तुम लोगों का असली आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, यहाँ तक कि नन्हे चूज़े से भी छोटा। जब तुम्हारे पारिवारिक व्यवसाय में नुकसान होता है, तो तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो, जब तुम लोग स्वयं को परमेश्वर की सुरक्षा से रहित किसी परिवेश में पाते हो, तब भी तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो, यहाँ तक कि तुम तब भी शिकायत करते हो, जब तुम्हारे चूज़े मर जाते हैं या तुम्हारी बूढ़ी गाय बाड़े में बीमार पड़ जाती है। तुम तब शिकायत करते हो, जब तुम्हारे बेटे का शादी करने करने का समय आता है, लेकिन तुम्हारे परिवार के पास पर्याप्त धन नहीं होता; तुम मेज़बानी का कर्तव्य निभाना चाहते हो, लेकिन तुम्हारे पास पैसे नहीं होते, तब भी तुम शिकायत करते हो। तुम शिकायतों से लबालब भरे हो, और इस वजह से कभी-कभी सभाओं में भी नहीं जाते या परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते भी नहीं हो, कभी-कभी लंबे समय तक नकारात्मक भी हो जाते हो। आज तुम्हारे साथ जो कुछ भी होता है, उसका तुम्हारी संभावनाओं या भाग्य से कोई संबंध नहीं होता; ये चीजें तब भी होतीं, जब तुम परमेश्वर पर विश्वास न करते, मगर आज तुम उनका उत्तरदायित्व परमेश्वर पर डाल देते हो और जोर देकर कहते हो कि परमेश्वर ने तुम्हें बहिष्कृत कर दिया है। परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का क्या हाल है? क्या तुमने अपना जीवन सचमुच अर्पित किया है? यदि तुम लोगों ने अय्यूब के समान परीक्षण सहे होते, तो आज परमेश्वर का अनुसरण करने वाले तुम लोगों में से कोई भी अडिग न रह पाता, तुम सभी लोग नीचे गिर जाते। और, निस्संदेह, तुम लोगों और अय्यूब के बीच ज़मीन-आसमान का अंतर है। आज यदि तुम लोगों की आधी संपत्ति जब्त कर ली जाए, तो तुम लोग परमेश्वर के अस्तित्व को नकारने की हिम्मत कर लोगे; यदि तुम्हारा बेटा या बेटी तुमसे छीन लिया जाए, तो तुम चिल्लाते हुए सड़कों पर दौड़ोगे कि तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है; यदि आजीविका कमाने का तुम्हारा एकमात्र रास्ता बंद हो जाए, तो तुम परमेश्वर से उसके बारे में पूछताछ करने की कोशिश करोगे; तुम पूछोगे कि मैंने तुम्हें डराने के लिए शुरुआत में इतने सारे वचन क्यों कहे। ऐसा कुछ नहीं है, जिसे तुम लोग ऐसे समय में करने की हिम्मत न करो। यह दर्शाता है कि तुम लोगों ने वास्तव में कोई सच्ची अंतर्दृष्टि नहीं पाई है, और तुम्हारा कोई वास्तविक आध्यात्मिक कद नहीं है। इसलिए, तुम लोगों में परीक्षण अत्यधिक बड़े हैं, क्योंकि तुम लोग बहुत ज्यादा जानते हो, लेकिन तुम लोग वास्तव में जो समझते हो, वह उसका हज़ारवाँ हिस्सा भी नहीं है जिससे तुम लोग अवगत हो। मात्र समझने-बूझने पर मत रुको; तुम लोगों ने अच्छी तरह से देखा है कि तुम लोग वास्तव में कितना अभ्यास में ला सकते हो, पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी में से कितनी तुम्हारे कठोर परिश्रम के पसीने से अर्जित की गई है, और तुम लोगों ने अपने कितने अभ्यासों में अपने स्वयं के संकल्प को साकार किया है। तुम्हें अपने आध्यात्मिक कद और अभ्यास को गंभीरता से लेना चाहिए। परमेश्वर में अपने विश्वास में तुम्हें किसी के लिए भी मात्र ढोंग करने का प्रयास नहीं करना चाहिए—अंततः तुम सत्य और जीवन प्राप्त कर सकते हो या नहीं, यह तुम्हारी स्वयं की खोज पर निर्भर करता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (3)

इन दिनों, अधिकांश लोग इस तरह की स्थिति में हैं : आशीष प्राप्त करने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाना होगा और परमेश्वर के लिए कीमत चुकानी होगी। आशीष पाने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्याग देना चाहिए; मुझे उसके द्वारा सौंपा गया काम पूरा करना चाहिए, और मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से अवश्य निभाना चाहिए। इस दशा पर आशीष प्राप्त करने का इरादा हावी है, जो पूरी तरह से परमेश्वर से पुरस्कार पाने और मुकुट हासिल करने के उद्देश्य से अपने आपको उसके लिए खपाने का उदाहरण है। ऐसे लोगों के दिल में सत्य नहीं होता, और यह निश्चित है कि उनकी समझ केवल सिद्धांत के कुछ शब्दों से युक्त है, जिसका वे जहाँ भी जाते हैं, वहीं दिखावा करते हैं। उनका रास्ता पौलुस का रास्ता है। ऐसे लोगों का विश्वास निरंतर कठिन परिश्रम का कार्य है, और गहराई में उन्हें लगता है कि वे जितना अधिक करेंगे, परमेश्वर के प्रति उनकी निष्ठा उतनी ही अधिक सिद्ध होगी; वे जितना अधिक करेंगे, वह उनसे उतना ही अधिक संतुष्ट होगा; और जितना अधिक वे करेंगे, वे परमेश्वर के सामने मुकुट पाने के लिए उतने ही अधिक योग्य साबित होंगे, और उन्हें मिलने वाले आशीष उतने ही बड़े होंगे। वे सोचते हैं कि यदि वे पीड़ा सह सकें, उपदेश दे सकें और मसीह के लिए मर सकें, यदि वे अपने जीवन का त्याग कर सकें, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सभी कर्तव्य पूरे कर सकें, तो वे वो होंगे जिन्हें सबसे बड़े आशीष मिलते हैं, और उन्हें मुकुट प्राप्त होने निश्चित हैं। पौलुस ने भी यही कल्पना की थी और यही चाहा था। यही वह मार्ग है जिस पर वह चला था, और ऐसे ही विचार लेकर उसने परमेश्वर की सेवा करने का काम किया था। क्या इन विचारों और इरादों की उत्पत्ति शैतानी प्रकृति से नहीं होती? यह सांसारिक मनुष्यों की तरह है, जो मानते हैं कि पृथ्वी पर रहते हुए उन्हें ज्ञान की खोज करनी चाहिए, और उसे प्राप्त करने के बाद वे भीड़ से अलग दिखाई दे सकते हैं, पदाधिकारी बनकर हैसियत प्राप्त कर सकते हैं। वे सोचते हैं कि जब उनके पास हैसियत हो जाएगी, तो वे अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी कर सकते हैं और अपने व्यवसाय और पारिवारिक पेशे को समृद्धि के एक निश्चित स्तर पर ले जा सकते हैं। क्या सभी अविश्वासी इसी मार्ग पर नहीं चलते? जिन लोगों पर इस शैतानी प्रकृति का वर्चस्व है, वे अपने विश्वास में केवल पौलुस की तरह हो सकते हैं। वे सोचते हैं : “मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर सब-कुछ छोड़ देना चाहिए। मुझे परमेश्वर के समक्ष वफ़ादार होना चाहिए, और अंततः मुझे बड़े पुरस्कार और शानदार मुकुट मिलेंगे।” यह वही रवैया है, जो उन सांसारिक लोगों का होता है, जो सांसारिक चीजें पाने की कोशिश करते हैं। वे बिलकुल भी अलग नहीं हैं, और वे उसी प्रकृति के अधीन हैं। जब लोगों की शैतानी प्रकृति इस प्रकार की होगी, तो दुनिया में वे ज्ञान, शिक्षा, हैसियत प्राप्त करने और भीड़ से अलग दिखने की कोशिश करेंगे। यदि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे बड़े मुकुट और बड़े आशीष प्राप्त करने की कोशिश करेंगे। यदि परमेश्वर में विश्वास करते हुए लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो उनका इस मार्ग पर चलना निश्चित है। यह एक अडिग तथ्य है, यह एक प्राकृतिक नियम है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें

परमेश्वर का अनुसरण करने वाले बहुत सारे लोग केवल इस बात से मतलब रखते हैं कि आशीष कैसे प्राप्त किए जाएँ या आपदा से कैसे बचा जाए। जैसे ही परमेश्वर के कार्य और प्रबंधन का उल्लेख किया जाता है, वे चुप हो जाते हैं और उनकी सारी रुचि समाप्त हो जाती है। उन्हें लगता है कि इस प्रकार के उबाऊ मुद्दों को समझने से उनके जीवन के विकास में मदद नहीं मिलेगी या कोई लाभ प्राप्त नहीं होगा। परिणामस्वरूप, हालाँकि उन्होंने परमेश्वर के प्रबंधन के बारे में सुना होता है, वे इस पर बहुत कम ध्यान देते हैं। उन्हें यह इतना मूल्यवान नहीं लगता कि इसे स्वीकारा जाए, और वे इसे अपने जीवन के अंग के रूप में लेकर तो बिल्कुल भी नहीं समझते हैं। ऐसे लोगों का परमेश्वर का अनुसरण करने का केवल एक सरल उद्देश्य होता है, और वह उद्देश्य है आशीष प्राप्त करना। ऐसे लोग ऐसी किसी भी दूसरी चीज़ पर ध्यान देने की परवाह नहीं कर सकते जो इस उद्देश्य से सीधे संबंध नहीं रखती। उनके लिए, आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने से ज्यादा वैध उद्देश्य और कोई नहीं है—यह उनके विश्वास का असली मूल्य है। यदि कोई चीज़ इस उद्देश्य को प्राप्त करने में योगदान नहीं करती, तो वे उससे पूरी तरह से अप्रभावित रहते हैं। आज परमेश्वर में विश्वास करने वाले अधिकांश लोगों का यही हाल है। उनके उद्देश्य और इरादे न्यायोचित प्रतीत होते हैं, क्योंकि जब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते भी हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं और अपना कर्तव्य भी निभाते हैं। वे अपनी जवानी न्योछावर कर देते हैं, परिवार और आजीविका त्याग देते हैं, यहाँ तक कि वर्षों अपने घर से दूर व्यस्त रहते हैं। अपने परम उद्देश्य के लिए वे अपनी रुचियाँ बदल डालते हैं, अपने जीवन का दृष्टिकोण बदल देते हैं, यहाँ तक कि अपनी खोज की दिशा तक बदल देते हैं, किंतु परमेश्वर पर अपने विश्वास के उद्देश्य को नहीं बदल सकते। वे अपने आदर्शों के प्रबंधन के लिए भाग-दौड़ करते हैं; चाहे मार्ग कितना भी दूर क्यों न हो, और मार्ग में कितनी भी कठिनाइयाँ और अवरोध क्यों न आएँ, वे दृढ़ रहते हैं और मृत्यु से नहीं डरते। इस तरह से अपने आप को समर्पित रखने के लिए उन्हें कौन-सी ताकत बाध्य करती है? क्या यह उनका विवेक है? क्या यह उनका महान और कुलीन चरित्र है? क्या यह बुराई से बिल्कुल अंत तक लड़ने का उनका दृढ़ संकल्प है? क्या यह बिना प्रतिफल की आकांक्षा के परमेश्वर की गवाही देने का उनका विश्वास है? क्या यह परमेश्वर की इच्छा प्राप्त करने के लिए सब-कुछ त्याग देने की तत्परता के प्रति उनकी निष्ठा है? या यह अनावश्यक व्यक्तिगत माँगें हमेशा त्याग देने की उनकी भक्ति-भावना है? ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए, जिसने कभी परमेश्वर के प्रबंधन को नहीं समझा, फिर भी इतना कुछ देना एक चमत्कार ही है! फिलहाल, आओ इसकी चर्चा न करें कि इन लोगों ने कितना कुछ दिया है। किंतु उनका व्यवहार हमारे विश्लेषण के बहुत योग्य है। उनके साथ इतनी निकटता से जुड़े उन लाभों के अतिरिक्त, परमेश्वर को कभी नहीं समझने वाले लोगों द्वारा उसके लिए इतना कुछ दिए जाने का क्या कोई अन्य कारण हो सकता है? इसमें हमें पूर्व की एक अज्ञात समस्या का पता चलता है : मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य के संबंध के समान है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कार्य करता है। इस प्रकार के संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेनदेन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझदारी नहीं होती, केवल दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है। अब जबकि चीज़ें इस बिंदु तक आ गई हैं, तो कौन इस क्रम को उलट सकता है? और कितने लोग इस बात को वास्तव में समझने में सक्षम हैं कि यह संबंध कितना भयानक बन चुका है? मैं मानता हूँ कि जब लोग आशीष प्राप्त होने के आनंद में निमग्न हो जाते हैं, तो कोई यह कल्पना नहीं कर सकता कि परमेश्वर के साथ इस प्रकार का संबंध कितना शर्मनाक और भद्दा है।

परमेश्वर में मानवजाति के विश्वास के बारे में सबसे दुःखद बात यह है कि मनुष्य परमेश्वर के कार्य के बीच अपने खुद के प्रबंधन का संचालन करता है, जबकि परमेश्वर के प्रबंधन पर कोई ध्यान नहीं देता। मनुष्य की सबसे बड़ी असफलता इस बात में है कि जब वह परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और उसकी आराधना करने का प्रयास करता है, उसी समय कैसे वह अपनी आदर्श मंज़िल का निर्माण कर रहा होता है और इस बात की साजिश रच रहा होता है कि सबसे बड़ा आशीष और सर्वोत्तम मंज़िल कैसे प्राप्त किए जाएँ। यहाँ तक कि अगर कोई समझता भी है कि वह कितना दयनीय, घृणास्पद और दीन-हीन है, तो भी ऐसे कितने लोग अपने आदर्शों और आशाओं को तत्परता से छोड़ सकते हैं? और कौन अपने कदमों को रोकने और केवल अपने बारे में सोचना बंद कर सकने में सक्षम हैं? परमेश्वर को उन लोगों की ज़रूरत है, जो उसके प्रबंधन को पूरा करने के लिए उसके साथ निकटता से सहयोग करेंगे। उसे उन लोगों की ज़रूरत है, जो अपने पूरे तन-मन को उसके प्रबंधन के कार्य में अर्पित कर उसके प्रति समर्पित होंगे। उसे ऐसे लोगों की ज़रूरत नहीं है, जो हर दिन उससे भीख माँगने के लिए अपने हाथ फैलाए रहते हैं, और उनकी तो बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है, जो थोड़ा-सा देते हैं और फिर पुरस्कृत होने का इंतज़ार करते हैं। परमेश्वर उन लोगों से घृणा करता है, जो तुच्छ योगदान करते हैं और फिर अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट हो जाते हैं। वह उन निष्ठुर लोगों से नफरत करता है, जो उसके प्रबंधन-कार्य से नाराज़ रहते हैं और केवल स्वर्ग जाने और आशीष प्राप्त करने के बारे में बात करना चाहते हैं। वह उन लोगों से और भी अधिक घृणा करता है, जो उसके द्वारा मानवजाति के बचाव के लिए किए जा रहे कार्य से प्राप्त अवसर का लाभ उठाते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इन लोगों ने कभी इस बात की परवाह नहीं की है कि परमेश्वर अपने प्रबंधन-कार्य के माध्यम से क्या हासिल और प्राप्त करना चाहता है। उनकी रुचि केवल इस बात में होती है कि किस प्रकार वे परमेश्वर के कार्य द्वारा प्रदान किए गए अवसर का उपयोग आशीष प्राप्त करने के लिए कर सकते हैं। वे परमेश्वर के हृदय की परवाह नहीं करते, और पूरी तरह से अपनी संभावनाओं और भाग्य में तल्लीन रहते हैं। जो लोग परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य से कुढ़ते हैं और इस बात में ज़रा-सी भी रुचि नहीं रखते कि परमेश्वर मानवजाति को कैसे बचाता है और उसके इरादे क्या हैं, वे केवल वही कर रहे हैं जो उन्हें अच्छा लगता है और उनका तरीका परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य से अलग-थलग है। उनके व्यवहार को परमेश्वर द्वारा न तो याद किया जाता है और न ही अनुमोदित किया जाता है—परमेश्वर द्वारा उसे कृपापूर्वक देखे जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है

तुम लोगों की खोज में, तुम्हारी बहुत सी व्यक्तिगत अवधारणाएँ, आशाएँ और भविष्य होते हैं। वर्तमान कार्य तुम लोगों की हैसियत पाने की अभिलाषा और तुम्हारी अनावश्यक अभिलाषाओं की काट-छाँट करने के लिए है। आशाएँ, हैसियत और अवधारणाएँ सभी शैतानी स्वभाव के विशिष्ट प्रतिनिधित्व हैं। लोगों के हृदय में इन चीज़ों के होने का कारण पूरी तरह से यह है कि शैतान का विष हमेशा लोगों के विचारों को दूषित कर रहा है, और लोग शैतान के इन प्रलोभनों से पीछा छुड़ाने में हमेशा असमर्थ रहे हैं। वे पाप के बीच रह रहे हैं, मगर इसे पाप नहीं मानते, और अभी भी सोचते हैं : “हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए उसे हमें आशीष प्रदान करना चाहिए और हमारे लिए सब कुछ सही ढंग से व्यवस्थित करना चाहिए। हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए हमें दूसरों से श्रेष्ठतर होना चाहिए, और हमारे पास दूसरों की तुलना में बेहतर हैसियत और बेहतर भविष्य होना चाहिए। चूँकि हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए उसे हमें असीम आशीष देनी चाहिए। अन्यथा, इसे परमेश्वर पर विश्वास करना नहीं कहा जाएगा।” बहुत सालों से, जिन विचारों पर लोगों ने अपने अस्तित्व के लिए भरोसा रखा था, वे उनके हृदय को इस स्थिति तक दूषित कर रहे हैं कि वे विश्वासघाती, डरपोक और नीच हो गए हैं। उनमें न केवल इच्छा-शक्ति और संकल्प का अभाव है, बल्कि वे लालची, अभिमानी और स्वेच्छाचारी भी बन गए हैं। उनमें खुद से ऊपर उठने के संकल्प का सर्वथा अभाव है, बल्कि, उनमें इन अंधेरे प्रभावों की बाध्यताओं से पीछा छुड़ाने की लेश-मात्र भी हिम्मत नहीं है। लोगों के विचार और जीवन इतने सड़े हुए हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में उनके दृष्टिकोण अभी भी बेहद वीभत्स हैं। यहाँ तक कि जब लोग परमेश्वर में विश्वास के बारे में अपना दृष्टिकोण बताते हैं तो इसे सुनना मात्र ही असहनीय होता है। सभी लोग कायर, अक्षम, नीच और दुर्बल हैं। उन्हें अंधेरे की शक्तियों के प्रति क्रोध नहीं आता, उनके अंदर प्रकाश और सत्य के लिए प्रेम पैदा नहीं होता; बल्कि, वे उन्हें बाहर निकालने का पूरा प्रयास करते हैं। क्या तुम लोगों के वर्तमान विचार और दृष्टिकोण ठीक ऐसे ही नहीं हैं? “चूँकि मैं परमेश्वर पर विश्वास करता हूँ, इसलिए मुझ पर आशीषों की वर्षा होनी चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि मेरी हैसियत कभी न गिरे, यह अविश्वासियों की तुलना में अधिक बनी रहनी चाहिए।” तुम्हारा यह दृष्टिकोण कोई एक-दो वर्षों से नहीं है; बल्कि बरसों से है। तुम लोगों की लेन-देन संबंधी मानसिकता कुछ ज़्यादा ही विकसित है। यद्यपि आज तुम लोग इस चरण तक पहुँच गए हो, तब भी तुम लोगों ने हैसियत का राग अलापना नहीं छोड़ा, बल्कि लगातार इसके बारे में पूछताछ करते रहते हो, और इस पर रोज नज़र रखते हो, इस गहरे डर के साथ कि कहीकहीं किसी दिन तुम लोगों की हैसियत खो न जाए और तुम लोगों का नाम बर्बाद न हो जाए। लोगों ने सहूलियत की अपनी अभिलाषा का कभी त्याग नहीं किया। ... जितना अधिक तू इस तरह से तलाश करेगी उतना ही कम तू पाएगी। हैसियत के लिए किसी व्यक्ति की अभिलाषा जितनी अधिक होगी, उतनी ही गंभीरता से उसकी काट-छाँट की जाएगी और उसे उतने ही बड़े शोधन से गुजरना होगा। इस तरह के लोग निकम्मे होते हैं! उनकी अच्छी तरह से काट-छाँट करने और उनका न्याय करने की ज़रूरत है ताकि वे इन चीज़ों को पूरी तरह से छोड़ दें। यदि तुम लोग अंत तक इसी तरह से अनुसरण करोगे, तो तुम लोग कुछ भी नहीं पाओगे। जो लोग जीवन का अनुसरण नहीं करते वे रूपान्तरित नहीं किए जा सकते; जिनमें सत्य की प्यास नहीं है वे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते। तू व्यक्तिगत रूपान्तरण का अनुसरण करने और प्रवेश करने पर ध्यान नहीं देता; बल्कि तू हमेशा उन अनावश्यक अभिलाषाओं और उन चीज़ों पर ध्यान देती है जो परमेश्वर के लिए तेरे प्रेम को बाधित करती हैं और तुझे उसके करीब आने से रोकती हैं। क्या ये चीजें तुझे रूपान्तरित कर सकती हैं? क्या ये तुझे राज्य में ला सकती हैं? यदि तेरी खोज का उद्देश्य सत्य की तलाश करना नहीं है, तो तू इस अवसर का लाभ उठाकरइन चीज़ों को पाने के लिए फिर से दुनिया में लौट सकती है। अपने समय को इस तरह बर्बाद करना ठीक नहीं है—क्यों अपने आप को यातना देती है? क्या यह सच नहीं है कि तू सुंदर दुनिया में सभी प्रकार की चीजों का आनंद उठा सकती है? धन, सुंदर स्त्री-पुरुष, हैसियत, अभिमान, परिवार, बच्चे, इत्यादि—क्या तू दुनिया की इन बेहतरीन चीज़ों का आनंद नहीं उठा सकती? यहाँ एक ऐसे स्थान की खोज में इधर-उधर भटकना जहाँ तू खुश रह सके, उससे क्या फायदा? जब मनुष्य के पुत्र के पास ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ वह आराम करने के लिए अपना सिर रख सके, तो तुझे आराम के लिए जगह कैसे मिल सकती है? वह तेरे लिए आराम की एक सुन्दर जगह कैसे बना सकता है? क्या यह संभव है? मेरे न्याय के अतिरिक्त, आज तू केवल सत्य पर शिक्षाएँ प्राप्त कर सकती है। तू मुझ से आराम प्राप्त नहीं कर सकती और तू उस सुखद आशियाने को प्राप्त नहीं कर सकती जिसके बारे में तू दिन-रात सोचती रहती है। मैं तुझे दुनिया की दौलत प्रदान नहीं करूँगा। यदि तू सच्चे मन से अनुसरण करे, तो मैं तुझे समग्र जीवन का मार्ग देने, तुझे पानी में वापस आयी किसी मछली की तरह स्वीकार करने को तैयार हूँ। यदि तू सच्चे मन से अनुसरण नहीं करेगी, तो मैं यह सब वापस ले लूँगा। मैं अपने मुँह के वचनों को उन्हें देने को तैयार नहीं हूँ जो आराम के लालची हैं, जो बिल्कुल सूअरों और कुत्तों जैसे हैं!

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?

जब भी गंतव्य का जिक्र होता है, तुम लोग उसे विशेष गंभीरता से लेते हो; इतना ही नहीं, यह एक ऐसी चीज़ है, जिसके बारे में तुम सभी विशेष रूप से संवेदनशील हो। कुछ लोग तो एक अच्छा गंतव्य पाने के लिए परमेश्वर के सामने दंडवत करते हुए अपने सिर जमीन से लगने का भी इंतज़ार नहीं करते। मैं तुम्हारी उत्सुकता समझता हूँ, जिसे शब्दों में व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं है। यह इससे अधिक कुछ नहीं है कि तुम लोग अपनी देह विपत्ति में नहीं डालना चाहते, और भविष्य में चिरस्थायी सजा तो बिल्कुल भी नहीं भुगतना चाहते। तुम लोग केवल स्वयं को थोड़ा और उन्मुक्त, थोड़ा और आसान जीवन जीने देने की आशा करते हो। इसलिए जब भी गंतव्य का जिक्र होता है, तुम लोग खास तौर से बेचैन महसूस करते हो और अत्यधिक डर जाते हो कि अगर तुम लोग पर्याप्त सतर्क नहीं रहे, तो तुम परमेश्वर को नाराज़ कर सकते हो और इस प्रकार उस दंड के भागी हो सकते हो, जिसके तुम पात्र हो। अपने गंतव्य की खातिर तुम लोग समझौते करने से भी नहीं हिचकेहो, यहाँ तक कि तुममें से कई लोग, जो कभी कुटिल और चंचल थे, अचानक विशेष रूप से विनम्र और ईमानदार बन गए हैं; तुम्हारी ईमानदारी का दिखावा लोगों की मज्जा तक को कँपा देता है। फिर भी, तुम सभी के पास “ईमानदार” दिल हैं, और तुम लोगों ने लगातार बिना कोई बात छिपाए अपने दिलों के राज़ मेरे सामने खोले हैं, चाहे वह शिकायत हो, धोखा हो या भक्ति हो। कुल मिलाकर, तुम लोगों ने अपने अस्तित्व के गहनतम कोनों में पड़ी महत्वपूर्ण चीज़ें मेरे सामने खुलकर “कबूल” की हैं। बेशक, मैंने कभी इन चीज़ों पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि वे सब मेरे लिए बहुत आम हो गई हैं। लेकिन अपने अंतिम गंतव्य के लिए तुम लोग परमेश्वर का अनुमोदन पाने के लिए अपने सिर के बाल का एक रेशा भी गँवाने के बजाय आग के दरिया में कूद जाओगे। ऐसा नहीं है कि मैं तुम लोगों के साथ बहुत कट्टर हो रहा हूँ; बात यह है कि मैं जो कुछ भी करता हूँ, उसके रूबरू आने के लिए तुम्हारे हृदय के भक्ति-भाव में बहुत कमी है। तुम लोग शायद न समझ पाओ कि मैंने अभी क्या कहा है, इसलिए मैं तुम्हें एक आसान स्पष्टीकरण देता हूँ : तुम लोगों को सत्य और जीवन की ज़रूरत नहीं है; न ही तुम्हें अपने आचरण के सिद्धांतों की ज़रूरत है, मेरे श्रमसाध्य कार्य की तो निश्चित रूप से ज़रूरतनहीं है। इसके बजाय तुम लोगों को उन चीज़ों की ज़रूरत है, जो तुम्हारी देह से जुड़ी हैं—धन-संपत्ति, हैसियत, परिवार, विवाह आदि। तुम लोग मेरे वचनों और कार्य को पूरी तरह से ख़ारिज करते हो, इसलिए मैं तुम्हारे विश्वास को एक शब्द में समेट सकता हूँ : उथला। जिन चीज़ों के प्रति तुम लोग पूर्णतः समर्पित हो, उन्हें हासिल करने के लिए तुम किसी भी हद तक जा सकते हो, लेकिन मैंने पाया है कि तुम लोग परमेश्वर में अपने विश्वास से संबंधित मामलों में ऐसा नहीं करते। इसके बजाय, तुम सापेक्ष रूप से समर्पित हो, सापेक्ष रूप से ईमानदार हो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि जिनके दिल में पूर्ण निष्ठा का अभाव है, वे परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में असफल हैं। ध्यान से सोचो—क्या तुम लोगों के बीच कई लोग असफल हैं?

तुम लोगों को ज्ञात होना चाहिए कि परमेश्वर पर विश्वास में सफलता लोगों के अपने कार्यों का परिणाम होती है; जब लोग सफल नहीं होते, बल्कि असफल होते हैं, तो वह भी उनके अपने कार्यों के कारण ही होता है, उसमें किसी अन्य कारक की कोई भूमिका नहीं होती। मेरा मानना है कि तुम लोग ऐसी चीज़ प्राप्त करने के लिए सब-कुछ करोगे, जो परमेश्वर में विश्वास करने से ज्यादा मुश्किल होती है और जिसे पाने के लिए उससे ज्यादा कष्ट उठाने पड़ते हैं, और उसे तुम बड़ी गंभीरता से लोगे, यहाँ तक कि तुम उसमें कोई गलती बरदाश्त करने के लिए भी तैयार नहींहोंगे; इस तरह के निरंतर प्रयास तुम लोग अपने जीवन में करते हो। यहाँ तक कि तुम लोग उन परिस्थितियों में भी मेरी देह को धोखा दे सकते हो, जिनमें तुम अपने परिवार के किसी सदस्य को धोखा नहीं दोगे। यही तुम लोगों का अटल व्यवहार और तुम लोगों का जीवनसिद्धांत है। क्या तुम लोग अभी भी अपने गंतव्य की खातिर मुझे धोखा देने के लिए एक झूठा मुखौटा नहीं लगा रहे हो, ताकि तुम्हारा गंतव्य पूरी तरह से खूबसूरत हो जाए और तुम जो चाहते हो वह सब हो? मुझे ज्ञात है कि तुम लोगों की भक्ति वैसी ही अस्थायी है, जैसी अस्थायी तुम लोगों की ईमानदारी है। क्या तुम लोगों का संकल्प और वह कीमत जो तुम लोग चुकाते हो, भविष्य के बजाय वर्तमान क्षण के लिए नहीं हैं? तुम लोग केवल एक खूबसूरत गंतव्य सुरक्षित कर लेने के लिए एक अंतिम प्रयास करना चाहते हो, जिसका एकमात्र उद्देश्य सौदेबाज़ी है। तुम यह प्रयास सत्य के ऋणी होने से बचने के लिए नहीं करते, और मुझे उस कीमत का भुगतान करने के लिए तो बिल्कुल भी नहीं, जो मैंने अदा की है। संक्षेप में, तुम केवल जो चाहते हो, उसे प्राप्त करने के लिए अपनी चतुर चालें चलने के इच्छुक हो, लेकिन उसके लिए खुला संघर्ष करने के लिए तैयार नहीं हो। क्या यही तुम लोगों की दिली ख्वाहिश नहीं है? तुम लोगों को अपने को छिपाना नहीं चाहिए, न ही अपने गंतव्य को लेकर इतनी माथापच्ची करनी चाहिए कि न तो तुम खा सको, न सो सको। क्या यह सच नहीं है कि अंत में तुम्हारा परिणाम पहले ही निर्धारित हो चुका होगा? तुम लोगों में से प्रत्येक को अपना कर्तव्य खुले और ईमानदार दिलों के साथ निभाना चाहिए, और जो भी कीमत ज़रूरी हो, उसे चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए। जैसा कि तुम लोगों ने कहा है, जब दिन आएगा, तो परमेश्वर ऐसे किसी भी व्यक्ति के प्रति लापरवाह नहीं रहेगा, जिसने उसके लिए कष्ट उठाए होंगे या कीमत चुकाई होगी। इस प्रकार का दृढ़ विश्वास बनाए रखने लायक है, और यह सही है कि तुम लोगों को इसे कभी नहीं भूलना चाहिए। केवल इसी तरह से मैं तुम लोगों के बारे में निश्चिंत हो सकता हूँ। वरना तुम लोगों के बारे में मैं कभी निश्चिंत नहीं हो पाऊँगा, और तुम हमेशा मेरी घृणा के पात्र रहोगे। अगर तुम सभी अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुन सको और अपना सर्वस्व मुझे अर्पित कर सको, मेरे कार्य के लिए कोई कोर-कसर न छोड़ो, और मेरे सुसमाचार के कार्य के लिए अपनी जीवन भर की ऊर्जा अर्पित कर सको, तो क्या फिर मेरा हृदय तुम्हारे लिए अक्सर हर्ष से नहीं उछलेगा? इस तरह से मैं तुम लोगों के बारे में पूरी तरह से निश्चिंत हो सकूँगा, या नहीं? यह शर्म की बात है कि तुम लोग जो कर सकते हो, वह मेरी अपेक्षाओं का दयनीय रूप से एक बहुत छोटा-सा भाग है। ऐसे में, तुम लोग मुझसे वे चीज़ें पाने की धृष्टता कैसे कर सकते हो, जिनकी तुम आशा करते हो?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, गंतव्य के बारे में

जब कुछ लोगों को अगुआ के रूप में उनके पद से बरखास्त कर दिया जाता है और वे ऊपरवाले को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें फिर से विकसित या इस्तेमाल नहीं किया जाएगा तो वे अत्यंत दुखी हो जाते हैं और फूट-फूट कर रोते हैं, मानो उन्हें हटाया जा रहा हो—यह कैसी समस्या है? क्या उन्हें फिर से विकसित या उपयोग न किए जाने का यह मतलब है कि उन्हें हटाया जा रहा है? क्या इसका यह मतलब है कि वे तब उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते? क्या प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा उनके लिए वास्तव में इतने महत्वपूर्ण हैं? यदि वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हैं तो उन्हें अपनी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा खोने पर आत्म-चिंतन करना चाहिए और सच्चा पश्चात्ताप महसूस करना चाहिए; उन्हें सत्य का अनुसरण करने का मार्ग चुनना चाहिए, नया पृष्ठ खोलना चाहिए और इतना परेशान नहीं होना चाहिए या रोना-धोना नहीं चाहिए। यदि वे अपने दिलों में यह जानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के घर ने इसलिए बरखास्त किया है कि वे वास्तविक कार्य नहीं करते और सत्य का अनुसरण नहीं करते, और वे परमेश्वर के घर को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें फिर से पदोन्नत नहीं किया जाएगा, तो फिर उन्हें शर्मिंदा महसूस करना चाहिए, कि वे परमेश्वर के ऋणी हैं और उन्होंने परमेश्वर को निराश किया है; उन्हें पता होना चाहिए कि वे परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने योग्य नहीं हैं और इस तरह से उन्हें थोड़ा विवेकशील माना जा सकता है। लेकिन जब वे यह सुनते हैं कि परमेश्वर का घर उन्हें फिर से विकसित या इस्तेमाल नहीं करेगा तो वे निराश और परेशान हो जाते हैं, और यह दर्शाता है कि वे प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भाग रहे हैं और वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हैं। आशीष के लिए उनकी इच्छा इतनी प्रबल है और वे रुतबे को इतना अधिक सँजोते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें बरखास्त कर दिया जाना चाहिए और उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों पर आत्म-चिंतन कर इन्हें समझना चाहिए। उन्हें पता होना चाहिए कि वे जिस मार्ग पर चल रहे हैं वह गलत है, कि वे रुतबा, प्रसिद्धि और लाभ के पीछे भागकर किसी मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहे हैं, कि न केवल परमेश्वर उन्हें इसकी अनुमति नहीं देगा, बल्कि वे उसके स्वभाव को भी नाराज करेंगे, और यदि वे तमाम तरह की बुराई करते हैं तो उन्हें परमेश्वर दंडित भी करेगा। क्या तुम लोगों के साथ भी यह समस्या नहीं है? यदि मैं अब यह कहूँ कि तुम्हारे पास कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है तो क्या तुम लोग दुखी नहीं होगे? (हाँ।) जब कुछ लोग किसी उच्च-स्तर के अगुआ को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है तो उन्हें लगता है कि वे सत्य को समझने में सक्षम नहीं हैं, कि परमेश्वर यकीनन उन्हें नहीं चाहता है, कि उन्हें आशीष मिलने की कोई आशा नहीं है; लेकिन दुखी महसूस करने के बावजूद वे सामान्य रूप से अपना कर्तव्य करने में सक्षम होते हैं—ऐसे लोगों के पास थोड़ी समझ होती है। जब कुछ लोग किसी को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है, तो वे निराश हो जाते हैं और आगे अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हैं। वे सोचते हैं, “तुम कहते हो कि मुझे कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है—क्या इसका मतलब यह नहीं हुआ कि मुझे आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं है? चूँकि मुझे भविष्य में कोई आशीष नहीं मिलेगा तो मैं अभी भी किस लिए विश्वास कर रहा हूँ? मैं सेवा करने के लिए मजबूर होना स्वीकार नहीं करूँगा। अगर बदले में कुछ नहीं मिलना है तो तुम्हारे लिए मेहनत कौन करेगा? मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ!” क्या ऐसे लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक होता है? वे परमेश्वर से इतना अनुग्रह प्राप्त करते हैं और फिर भी वे इसका बदला चुकाना नहीं जानते और वे सेवा करना भी नहीं चाहते। ऐसे लोग खत्म हो जाते हैं। वे अंत तक सेवा भी नहीं कर पाते और उन्हें परमेश्वर में कोई सच्ची आस्था नहीं होती है; वे छद्म-विश्वासी हैं। यदि उनके पास परमेश्वर के लिए एक ईमानदार दिल और परमेश्वर में सच्ची आस्था है, तो उनका मूल्यांकन चाहे कैसे भी किया जाए, यह उन्हें खुद को और अधिक सच्चे और सटीक रूप से जानने में सक्षम ही करेगा—उन्हें इस मामले को सही तरीके से देखना चाहिए और इसका असर परमेश्वर का अनुसरण करने या अपना कर्तव्य निभाने पर नहीं पड़ने देना चाहिए। अगर वे आशीष प्राप्त न भी कर पाएँ, तो भी उन्हें अंत तक परमेश्वर के लिए सेवा करने को तैयार रहना चाहिए, और बिना किसी शिकायत के ऐसा करने में खुश होना चाहिए और हर चीज में परमेश्वर को उन्हें आयोजित करने देना चाहिए—केवल तभी वे अंतरात्मा और विवेक वाले व्यक्ति होंगे। किसी व्यक्ति को आशीष मिलता है या वह विपत्ति झेलता है, यह परमेश्वर के हाथ में है, परमेश्वर इस पर संप्रभु है और वही इसकी व्यवस्था करता है, और यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे लोग माँग सकें या जिसे हासिल करने के लिए प्रयास कर सकें। बल्कि यह इस बात पर निर्भर है कि वह व्यक्ति परमेश्वर के वचनों का आज्ञापालन कर सकता है या नहीं, सत्य को स्वीकार कर सकता है या नहीं और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है या नहीं—परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार प्रतिफल देगा। यदि किसी में इतनी-सी भी ईमानदारी है और वह अपने वांछित कर्तव्य में अपनी पूरी शक्ति जुटाकर लगा देता है तो यह पर्याप्त है, और वह परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष अर्जित करेगा। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य पर्याप्त रूप से नहीं निभाता और हर प्रकार की बुराई भी करता है, फिर भी परमेश्वर से आशीष प्राप्त करना चाहता है तो क्या उसका इस तरह पेश आना समझ-बूझ की बेहद कमी नहीं है? यदि तुम्हें लगता है कि तुमने पर्याप्त रूप से अच्छा कार्य नहीं किया है, कि तुमने बहुत प्रयास किया है किंतु अभी भी तुम मामलों को सिद्धांतों के साथ नहीं सँभाल पाए हो और तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर के ऋणी हो, फिर भी वह तुम्हें आशीष देता है और तुम पर अनुग्रह दिखाता है, तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि परमेश्वर तुम पर कृपा कर रहा है? यदि परमेश्वर तुम्हें आशीष देना चाहता है, तो यह ऐसी चीज है जिसे कोई नहीं छीन सकता। तुम्हें यह लग सकता है कि तुमने बहुत अच्छा नहीं किया है लेकिन परमेश्वर का मूल्यांकन कहता है कि तुम ईमानदार हो और तुमने अपना सब कुछ दिया है और वह तुम पर अनुग्रह करना और तुम्हें आशीष देना चाहता है। परमेश्वर कुछ भी गलत नहीं करता और तुम्हें उसकी धार्मिकता की प्रशंसा करनी चाहिए। परमेश्वर चाहे जो कुछ करे, यह हमेशा सही होता है, और भले ही तुम यह मानकर परमेश्वर के कार्यों के बारे में धारणाएँ पाल लो कि उसका कार्य मानवीय भावनाओं के प्रति विचारशील नहीं होता है, कि यह तुम्हें पसंद नहीं है, फिर भी तुम्हें परमेश्वर की प्रशंसा करनी चाहिए। तुम्हें ऐसा क्यों करना चाहिए? तुम लोग इसका कारण नहीं जानते, है न? इसे समझाना वास्तव में बहुत आसान है : इसका कारण यह है कि परमेश्वर परमेश्वर है और तुम मनुष्य हो; वह सृष्टिकर्ता है, तुम एक सृजित प्राणी हो। तुम यह माँग करने के योग्य नहीं हो कि परमेश्वर एक निश्चित ढंग से कार्य करे या वह तुम्हारे साथ एक निश्चित ढंग से व्यवहार करे, जबकि परमेश्वर तुमसे माँग करने के योग्य है। आशीष, अनुग्रह, पुरस्कार, मुकुट—ये सभी चीजें कैसे और किसे दी जाती हैं, यह परमेश्वर पर निर्भर करता है। यह परमेश्वर पर क्यों निर्भर करता है? ये चीजें परमेश्वर की हैं; ये मनुष्य और परमेश्वर के साझे स्वामित्व वाली ऐसी संपत्तियाँ नहीं हैं कि इन्हें उनमें समान रूप से बाँटा जा सके। ये परमेश्वर की हैं और परमेश्वर जिन लोगों को इन्हें देने का वादा करता है, उन्हें ही ये चीजें देता है। यदि परमेश्वर ये चीजें तुम्हें देने का वादा नहीं करता तो भी तुम्हें उसके प्रति समर्पण करना चाहिए। यदि तुम इस कारण परमेश्वर पर विश्वास करना बंद कर देते हो तो इससे कौन-सी समस्याएँ हल होंगी? क्या तुम एक सृजित प्राणी होना बंद कर दोगे? क्या तुम परमेश्वर की संप्रभुता से बच सकते हो? परमेश्वर अभी भी सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है और यह एक अपरिवर्तनीय तथ्य है। परमेश्वर की पहचान, स्थिति और सार को कभी भी मनुष्य की पहचान, स्थिति और सार के बराबर नहीं माना जा सकता, न ही इन चीजों में कभी कोई बदलाव होगा—परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा और मनुष्य हमेशा मनुष्य रहेगा। यदि कोई व्यक्ति इसे समझने में सक्षम है तो फिर उसे क्या करना चाहिए? उसे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए—यह चीजों को करने का सबसे तर्कसंगत तरीका है, और इसके अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं है जिसे चुना जा सकता हो। यदि तुम समर्पण नहीं करते तो तुम विद्रोही हो और यदि तुम अवज्ञाकारी हो और बहस करते हो, तो तुम घोर विद्रोही बन रहे हो और तुम्हें नष्ट कर दिया जाना चाहिए। परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर पाना दर्शाता है कि तुम्हारे पास समझ-बूझ है; यही रवैया लोगों के पास होना चाहिए और केवल यही रवैया सृजित प्राणियों के पास होना चाहिए।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं

मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते, और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि और हैसियत को अपनी आशीषों की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत खो गई, तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी, और यह उन्हें अपना जीवन खोने जैसा लगता है। वे सोचते हैं, “मुझे सावधान रहना है, मुझे लापरवाह नहीं होना चाहिए! परमेश्वर के घर, भाई-बहनों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। मैं उनमें से किसी पर भरोसा नहीं कर सकता। जिस व्यक्ति पर तुम सबसे ज्यादा भरोसा कर सकते हो और जो सबसे ज्यादा विश्वसनीय है, वह तुम खुद हो। अगर तुम अपने लिए योजनाएँ नहीं बना रहे, तो तुम्हारी परवाह कौन करेगा? तुम्हारे भविष्य पर कौन विचार करेगा? कौन इस पर विचार करेगा कि तुम्हें आशीष मिलेंगे या नहीं? इसलिए, मुझे अपने लिए सावधानीपूर्वक योजनाएँ बनानी होंगी और गणनाएँ करनी होंगी। मैं गलती नहीं कर सकता या थोड़ा भी लापरवाह नहीं हो सकता, वरना अगर कोई मेरा फायदा उठाने की कोशिश करेगा तो मैं क्या करूँगा?” इसलिए, वे परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से सतर्क रहते हैं, और डरते हैं कि कोई उन्हें पहचान लेगा या उनकी असलियत जान लेगा, और फिर उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा और आशीष पाने का उनका सपना नष्ट हो जाएगा। वे सोचते हैं कि उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बरकरार रखना चाहिए, क्योंकि उन्हें लगता है कि आशीष प्राप्त करने की उनकी यही एकमात्र आशा है। मसीह-विरोधी आशीष पाने को स्वर्ग से भी अधिक धन्य, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो शायद ही उल्लेखनीय हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे परमेश्वर द्वारा आशीष पाने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का मार्ग रखते हैं। इसलिए जब उनका कर्तव्य समायोजित किया जाता है, अगर यह पदोन्नति हो, तो मसीह-विरोधी सोचेगा कि उन्हें धन्य होने की आशा है। अगर यह पदावनति हो, टीम-अगुआ से सहायक टीम-अगुआ के रूप में, या सहायक टीम-अगुआ से नियमित समूह-सदस्य के रूप में, तो वे इसके एक बड़ी समस्या होने की भविष्यवाणी करते हैं और उन्हें आशीष पाने की अपनी आशा दुर्बल लगती है। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? क्या यह उचित दृष्टिकोण है? बिल्कुल नहीं। यह दृष्टिकोण बेतुका है! कोई व्यक्ति परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करता है या नहीं, यह इस बात पर आधारित नहीं है कि वह क्या काम करता है, बल्कि इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उसमें सत्य है, क्या वह वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करता है, क्या वह निष्ठावान है। ये बातें बेहद महत्वपूर्ण हैं।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब कोई रुतबा या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं

आशीषों के अनुसरण को उचित उद्देश्य मानना किस तरह से गलत है? यह पूरी तरह से सत्य का विरोधी है, और लोगों को बचाने के परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं है। चूँकि आशीष प्राप्त करना लोगों के अनुसरण के लिए उचित उद्देश्य नहीं है, तो फिर उचित उद्देश्य क्या है? सत्य का अनुसरण, स्वभाव में बदलावों का अनुसरण, और परमेश्वर के सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना : ये वे उद्देश्य हैं, जिनका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो, काट-छाँट किए जाने कारण तुम धारणाएँ और गलतफहमियाँ पाल लेते हो, और समर्पण में असमर्थ हो जाते हो। तुम समर्पण क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि तुम्हें लगता है कि तुम्हारी मंजिल या आशीष पाने के तुम्हारे सपने को चुनौती दी गई है। तुम नकारात्मक और परेशान हो जाते हो, और अपने कर्तव्य-पालन से छुटकारा पाने का प्रयास करते हो। इसका क्या कारण है? तुम्हारे अनुसरण में कोई समस्या है। तो इसे कैसे हल किया जाना चाहिए? यह अनिवार्य है कि तुम ये गलत विचार तुरंत त्याग दो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या हल करने के लिए तुरंत सत्य की खोज करो। तुम्हें खुद से कहना चाहिए, “मुझे छोड़कर नहीं जाना चाहिए, मुझे अभी भी एक सृजित प्राणी का कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए और आशीष पाने की अपनी इच्छा एक तरफ रख देनी चाहिए।” जब तुम आशीष पाने की इच्छा छोड़ देते हो और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, तो तुम्हारे कंधों से एक भार उतर जाता है। और क्या तुम अभी भी नकारात्मक हो पाओगे? हालाँकि अभी भी ऐसे अवसर आते हैं जब तुम नकारात्मक हो जाते हो, लेकिन तुम इसे खुद को बाधित नहीं करने देते, और अपने दिल में प्रार्थना करते और लड़ते रहते हो, और आशीष पाने और मंजिल हासिल करने के अनुसरण का उद्देश्य बदलकर सत्य के अनुसरण को लक्ष्य बनाते हो, और मन ही मन सोचते हो, “सत्य का अनुसरण एक सृजित प्राणी का कर्तव्य है। आज कुछ सत्यों को समझना—इससे बड़ी कोई फसल नहीं है, यह सबसे बड़ा आशीष है। भले ही परमेश्वर मुझे न चाहे, और मेरी कोई अच्छी मंजिल न हो, और आशीष पाने की मेरी आशा चकनाचूर हो गई है, फिर भी मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाऊँगा, मैं इसके लिए बाध्य हूँ। कोई भी वजह मेरे कर्तव्य-प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करेगी, वह मेरे द्वारा परमेश्वर के आदेश की पूर्ति को प्रभावित नहीं करेगी; मैं इसी सिद्धांत के अनुसार आचरण करता हूँ।” और इसमें, क्या तुमने दैहिक विवशताएँ पार नहीं कर लीं? कुछ लोग कह सकते हैं, “अच्छा, अगर मैं अभी भी नकारात्मक हूँ तो क्या?” तो इसे हल करने के लिए दोबारा सत्य की तलाश करो। तुम चाहे कितनी बार भी नकारात्मकता में पड़ो, अगर तुम उसे हल करने के लिए बस सत्य की तलाश करते रहते हो, और सत्य के लिए प्रयत्नशील रहते हो, तो तुम धीरे-धीरे अपनी नकारात्मकता से बाहर निकल आओगे। और एक दिन, तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे भीतर आशीष पाने की इच्छा नहीं है और तुम अपने गंतव्य और परिणाम से बाधित नहीं हो, और तुम इन चीजों के बिना अधिक आसान और स्वतंत्र जीवन जी रहे हो। तुम महसूस करोगे कि तुमने जो जीवन पहले जिया था, जब हर दिन तुम आशीष और अपना गंतव्य पाने के उद्देश्य से जीते थे, वह थका देने वाला था। हर दिन आशीष पाने के लिए बोलना, काम करना और दिमाग चलाना—और इससे तुम्हें क्या मिलेगा? ऐसे जीवन का क्या मूल्य है? तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया, बल्कि अपने सर्वोत्तम दिन तुच्छ बातों में व्यतीत कर दिए। अंत में, तुमने कोई सत्य प्राप्त नहीं किया, और तुम किसी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बोलने में असमर्थ रहे। तुमने खुद को मूर्ख बना लिया, पूरी तरह से बदनाम और असफल हो गए। और असल में इसका क्या कारण है? वह यह है कि आशीष पाने का तुम्हारा इरादा बहुत मजबूत था, तुम्हारे परिणाम और गंतव्य ने तुम्हारे दिल पर कब्जा कर लिया था और तुम्हें बहुत कसकर बाँध लिया था। लेकिन जब वह दिन आएगा, जब तुम अपनी संभावनाओं और भाग्य के बंधन से निकल जाओगे, तो तुम सब-कुछ पीछे छोड़कर परमेश्वर का अनुसरण करने में सक्षम हो जाओगे। तुम इन चीजों को पूरी तरह से कब छोड़ पाओगे? जैसे-जैसे तुम्हारा जीवन-प्रवेश निरंतर गहराता जाएगा, तुम अपने स्वभाव में बदलाव हासिल करोगे, और तभी तुम उन्हें पूरी तरह से छोड़ने में सक्षम होगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अभ्यास में ही होता है जीवन-प्रवेश

परमेश्वर पर विश्वास करते हुए लोग भविष्य के लिए आशीष पाने में लगे रहते हैं; यही उनकी आस्‍था का लक्ष्‍य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन उनकी प्रकृति की भ्रष्टता परीक्षणों और शोधन के माध्यम से दूर की जानी चाहिए। तुम जिन-जिन पहलुओं में शुद्ध नहीं हो और भ्रष्टता दिखाते हो, उन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाकर उसमें परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपनी भ्रष्टता को जान जाओ। अंततः तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करने से बेहतर मर जाना पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों का कई वर्षों तक शोधन न हो, अगर वे एक हद तक पीड़ा न सहें, तो वे अपनी सोच और हृदय में देह की भ्रष्टता के बंधन तोड़ने में सक्षम नहीं होंगे। जिन किन्हीं पहलुओं में लोग अभी भी अपनी शैतानी प्रकृति के बंधन में जकड़े हैं और जिन भी पहलुओं में उनकी अपनी इच्छाएँ और मांगें बची हैं, उन्हीं पहलुओं में उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। केवल दुख भोगकर ही सबक सीखे जा सकते हैं, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर की इच्छा समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्य कष्टदायक परीक्षणों से गुजरकर समझ में आते हैं। कोई भी व्यक्ति आरामदायक और सहज परिवेश या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना अनुग्रह का आनंद लेने से ताल्लुक नहीं रखता, बल्कि उसके प्रति तुम्हारे प्रेम के लिए कष्ट सहने से ताल्लुक रखता है। चूँकि तुम परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हो, इसलिए तुम्हें उसकी ताड़ना का भी आनंद लेना चाहिए; तुम्हें इस सबका अनुभव करना चाहिए। तुम अपने अंदर परमेश्वर की प्रबुद्धता अनुभव कर सकते हो, और तुम यह भी अनुभव कर सकते हो कि वह कैसे तुम्हारी काट-छाँट करता है और कैसे तुम्हारा न्याय करता है। इस प्रकार तुम्हारा अनुभव व्यापक होगा। परमेश्वर ने तुम पर न्याय और ताड़ना का कार्य किया है। परमेश्वर के वचन ने तुम्हारी काट-छाँट की है, लेकिन इतना ही नहीं; इसने तुम्हें प्रबुद्ध और रोशन भी किया है। जब तुम नकारात्मक और कमजोर होते हो, तो परमेश्वर तुम्हारी चिंता करता है। यह सब कार्य तुम्हें यह ज्ञात कराने के लिए है कि मनुष्य से संबंधित सब-कुछ परमेश्वर के आयोजनों के अंतर्गत है। तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर पर विश्वास करना कष्ट सहने या उसके लिए कई चीजें करने से ताल्लुक रखता है; तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर में विश्वास का प्रयोजन तुम्हारी देह की शांति के लिए है, या इसलिए है कि तुम्हारी जिंदगी में सब-कुछ ठीक रहे, या इसलिए कि तुम आराम से रहो और हर चीज में सहज रहो। परंतु इनमें से कोई भी प्रयोजन ऐसा नहीं है, जिसे लोगों को परमेश्वर पर अपने विश्वास के साथ जोड़ना चाहिए। अगर तुम इन प्रयोजनों के लिए विश्वास करते हो, तो तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है, और तुम्हें पूर्ण बनाया जाना बिलकुल संभव नहीं है। परमेश्वर के क्रियाकलाप, परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, उसकी बुद्धि, उसके वचन, और उसकी अद्भुतता और अगाधता ही वे सब चीजें हैं, जिन्हें लोगों को समझना चाहिए। यह समझ होने पर, तुम्हें इसका उपयोग अपने हृदय को व्यक्तिगत माँगों, आशाओँ और धारणाओं से छुटकारा दिलाने के लिए करना चाहिए। केवल इन चीजों को दूर करके ही तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित शर्तें पूरी कर सकते हो, और केवल ऐसा करके ही तुम जीवन प्राप्त कर सकते हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो। परमेश्वर पर विश्वास करने का प्रयोजन उसे संतुष्ट करना और उसके द्वारा अपेक्षित स्वभाव को जीना है, ताकि अयोग्य लोगों के इस समूह के माध्यम से उसके क्रियाकलाप और उसकी महिमा प्रकट हो सके। परमेश्वर पर विश्वास करने का यही सही दृष्टिकोण है और यही वह लक्ष्य भी है, जिसे तुम्हें पाना चाहिए। परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में तुम्हारा सही दृष्टिकोण होना चाहिए और तुम्हें परमेश्वर के वचनों को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने की आवश्यकता है और तुम्हें सत्य को जीने, और विशेष रूप से पूरे ब्रह्मांड में उसके व्यावहारिक कर्मों, उसके अद्भुत कर्मों को देखने, और साथ ही देह में उसके द्वारा किए जाने वाले व्यावहारिक कार्य को देखने में सक्षम होना चाहिए। अपने वास्तविक अनुभवों द्वारा लोग इस बात को समझ सकते हैं कि कैसे परमेश्वर उन पर अपना कार्य करता है और उनके प्रति उसकी क्या इच्छा है। इस सबका प्रयोजन लोगों का भ्रष्ट शैतानी स्वभाव दूर करना है। अपने भीतर की सारी अशुद्धता और अधार्मिकता बाहर निकाल देने, अपने गलत इरादे छोड़ देने और परमेश्वर में सच्चा विश्वास विकसित करने के बाद—केवल सच्चे विश्वास के साथ ही तुम परमेश्वर से सच्चा प्रेम कर सकते हो। तुम केवल अपने विश्वास की बुनियाद पर ही परमेश्वर से सच्चा प्रेम कर सकते हो। क्या तुम परमेश्वर पर विश्वास किए बिना उसके प्रति प्रेम प्राप्त कर सकते हो? चूँकि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, इसलिए तुम इसके बारे में नासमझ नहीं हो सकते। कुछ लोग जैसे ही यह देखते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास उनके लिए आशीष लाएगा, उनमें जोश भर जाता है, परंतु जैसे ही वे देखते हैं कि उन्हें शोधन सहने पड़ेंगे, उनकी सारी ऊर्जा खो जाती है। क्या यह परमेश्वर पर विश्वास करना है? अंततः, अपने विश्वास में तुम्हें परमेश्वर के सामने पूर्ण और चरम समर्पण हासिल करना होगा। तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो परंतु फिर भी उससे माँगें करते हो, तुम्हारी कई धार्मिक धारणाएँ हैं जिन्हें तुम छोड़ नहीं सकते, तुम्हारे व्यक्तिगत हित हैं जिन्हें तुम त्याग नहीं सकते, और फिर भी देह के आशीष खोजते हो और चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हारी देह को बचाए, तुम्हारी आत्मा की रक्षा करे—ये सब गलत दृष्टिकोण वाले लोगों के व्यवहार हैं। यद्यपि धार्मिक विश्वास वाले लोगों का परमेश्वर पर विश्वास होता है, फिर भी वे अपना स्वभाव बदलने का प्रयास नहीं करते और परमेश्वर संबंधी ज्ञान की खोज नहीं करते, बल्कि केवल अपनी देह के हितों की ही तलाश करते हैं। तुम लोगों में से कइयों के विश्वास ऐसे हैं, जो धार्मिक आस्थाओं की श्रेणी में आते हैं; यह परमेश्वर पर सच्चा विश्वास नहीं है। परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए लोगों के पास उसके लिए पीड़ा सहने वाला हृदय और स्वयं को त्याग देने की इच्छा होनी चाहिए। जब तक वे ये दो शर्तें पूरी नहीं करते, तब तक परमेश्वर पर उनका विश्वास मान्य नहीं है, और वे स्वभाव में बदलाव हासिल करने में सक्षम नहीं होंगे। जो लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर संबंधी ज्ञान की तलाश करते हैं, और जीवन की खोज करते हैं, केवल वे ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा

मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर

सृजित प्राणी के रूप में मनुष्य को सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और दूसरे विकल्पों को छोड़कर परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढने चाहिए या वह नहीं ढूँढना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है। यदि तुम जिसकी खोज करते हो वह सत्य है, तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह सत्य है, और यदि तुम जो प्राप्त करते हो वह तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन है, तो तुम जिस पथ पर क़दम रखते हो वह सही पथ है। यदि तुम जिसे खोजते हो वह देह के आशीष हैं, और तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह तुम्हारी अपनी अवधारणाओं का सत्य है, और यदि तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होता है, और तुम देहधारी परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी समर्पित नहीं हो, और तुम अभी भी अस्पष्टता में जीते हो, तो तुम जिसकी खोज कर रहे हो वह निश्चय ही तुम्हें नरक ले जाएगा, क्योंकि जिस पथ पर तुम चल रहे हो वह विफलता का पथ है। तुम्हें पूर्ण बनाया जाएगा या हटा दिया जाएगा यह तुम्हारे अपने अनुसरण पर निर्भर करता है, जिसका तात्पर्य यह भी है कि सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है

तुम्हारा गंतव्य और तुम्हारी नियति तुम लोगों के लिए बहुत अहम हैं—वे गंभीर चिंता के विषय हैं। तुम मानते हो कि अगर तुम अत्यंत सावधानी से कार्य नहीं करते, तो इसका अर्थ यह होगा कि तुम्हारा कोई गंतव्य नहीं होगा, कि तुमने अपना भाग्य बिगाड़ लिया है। लेकिन क्या तुम लोगों ने कभी सोचा है कि अगर कोई मात्र अपने गंतव्य के लिए प्रयास करता है, तो वह व्यर्थ ही परिश्रम करता है? ऐसे प्रयास सच्चे नहीं हैं—वे नकली और कपटपूर्ण हैं। यदि ऐसा है, तो जो लोग केवल अपने गंतव्य के लिए कार्य करते हैं, वे अपनी अंतिम पराजय की दहलीज पर हैं, क्योंकि परमेश्वर में व्यक्ति के विश्वास की विफलता धोखे के कारण होती है। मैं पहले कह चुका हूँ कि मुझे चाटुकारिता या खुशामद या अपने साथ उत्साह के साथ व्यवहार किया जाना पसंद नहीं है। मुझे ऐसे ईमानदार लोग पसंद हैं, जो मेरे सत्य और अपेक्षाओं का सामना कर सकें। इससे भी अधिक मुझे तब अच्छा लगता है, जब लोग मेरे हृदय के प्रति अत्यधिक चिंता या आदर का भाव दिखाते हैं, और जब वे मेरी खातिर सब-कुछ छोड़ देने में सक्षम होते हैं। केवल इसी तरह से मेरे हृदय को सुकून मिल सकता है। इस समय, तुम लोगों के विषय में ऐसी कितनी चीज़ें हैं, जो मुझे नापसंद हैं? तुम लोगों के विषय में ऐसी कितनी चीज़ें हैं, जो मुझे पसंद हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि तुम लोगों में से किसी ने भी कुरूपता की वे सभी विभिन्न अभिव्यक्तियाँ महसूस न की हों, जो तुम लोगों ने अपने गंतव्य की खातिर प्रदर्शित की हैं?

अपने दिल में मैं ऐसे किसी भी दिल के लिए हानिकारक नहीं होना चाहता, जो सकारात्मक है और ऊपर उठने की आकांक्षा रखता है, और ऐसे किसी व्यक्ति की ऊर्जा कम करने की इच्छा तो मैं बिल्कुल भी नहीं रखता, जो निष्ठा से अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहा है। फिर भी, मुझे तुम लोगों में से प्रत्येक को तुम्हारी कमियों और तुम्हारे दिलों के गहनतम कोनों में मौजूद गंदी आत्मा की याद ज़रूर दिलानी होगी। मैं ऐसा इस उम्मीद में करता हूँ कि तुम लोग मेरे वचनों के रूबरू आने के लिए अपना सच्चा हृदय अर्पित करने में सक्षम होगे, क्योंकि मुझे सबसे ज्यादा घृणा लोगों द्वारा मेरे साथ किए जाने वाले धोखे से है। मैं केवल यह उम्मीद करता हूँ कि मेरे कार्य के अंतिम चरण में तुम लोग अपनेसर्वोत्कृष्ट निष्पादन में सक्षमहोंगे, और कि तुम स्वयंको पूरे मन से समर्पित करोगे, अधूरे मन से नहीं। बेशक, मैं यह उम्मीद भी करता हूँ कि तुम लोगों को सर्वोत्तम गंतव्य प्राप्त हो सके। फिर भी, मेरे पास अभी भी मेरी अपनी आवश्यकता है, और वह यह कि तुम लोग मुझे अपनी आत्मा और अंतिम भक्ति समर्पित करने में सर्वोत्तम निर्णय करो। अगर किसी की भक्ति एकनिष्ठ नहीं है, तो वह व्यक्ति निश्चित रूप से शैतान की सँजोई हुई संपत्ति है, और मैं आगे उसे इस्तेमाल करने के लिए नहीं रखूँगा, बल्कि उसे उसके माता-पिता द्वारा देखे-भाले जाने के लिए घर भेज दूँगा। मेरा कार्य तुम लोगों के लिए एक बड़ी मदद है; मैं तुम लोगों से केवल एक ईमानदार और ऊपर उठने का आकांक्षी हृदय पाने की उम्मीद करता हूँ, लेकिन मेरे हाथ अभी तक खाली हैं। इस बारे में सोचो : अगर मैं किसी दिन इतना दुखी हुआकि उसे शब्दों में बयान न कर सकूँ, तो फिर तुम लोगों के प्रति मेरा रवैया क्या होगा? क्या मैं तब भी तुम्हारे प्रति वैसा ही सौम्य रहूँगा, जैसा अब हूँ? क्या मेरा हृदय तब भी उतना ही शांत होगा, जितना अब है? क्या तुम लोग उस व्यक्ति की भावनाएँ समझते हो, जिसने कड़ी मेहनत से खेत जोता हो और उसे फसल की कटाई में अन्न का एक दाना भी नसीब न हुआ हो? क्या तुम लोग यह समझते हो कि आदमी को बड़ा आघात लगने पर उसके दिल को कितनी भारी चोट पहुँचती है? क्या तुम लोग उस व्यक्ति की कड़वाहटका अंदाज़ालगा सकते हो, जो कभी आशा से भरा हो, पर जिसे ख़राब शर्तों पर विदा होना पड़ा हो? क्या तुम लोगों ने उस व्यक्ति का क्रोध निकलते देखा है, जिसे उत्तेजित किया गया हो? क्या तुम लोग उस व्यक्ति की बदला लेने की आतुरता जान सकते हो, जिसके साथ शत्रुता और धोखे का व्यवहार किया गया हो? अगर तुम इन लोगों की मानसिकता समझ सकते हो, तो मैं सोचता हूँ, तुम्हारे लिए यह कल्पना करना कठिन नहीं होना चाहिए कि अपने प्रतिशोध के समय परमेश्वर का रवैया क्या होगा! अंत में, मुझे उम्मीद है कि तुम सब अपने गंतव्य के लिए गंभीर प्रयास करोगे; हालाँकि, अच्छा होगा कि तुम अपने प्रयासों में कपटपूर्ण साधन न अपनाओ, अन्यथा मैं अपने दिल में तुमसे निराश बना रहूँगा। और यह निराशा कहाँ ले जाती है? क्या तुम लोग स्वयं को ही बेवकूफ नहीं बना रहे हो? जो लोग अपने गंतव्य के विषय में सोचते हैं, पर फिर भी उसे बरबाद कर देते हैं, वे बचाए जाने के बहुत कम योग्य होते हैं। यहाँ तक कि अगर वहउत्तेजित और क्रोधित भी हो जाए, तो ऐसे व्यक्ति पर कौन दया करेगा? संक्षेप में, मैं अभी भी तुम लोगों के लिए ऐसे गंतव्य की कामना करता हूँ, जो उपयुक्त और अच्छा दोनों हो, और उससे भी बढ़कर, मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम लोगों में से कोई भी विपत्ति में नहीं फँसेगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, गंतव्य के बारे में

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पिछला: 22. धार्मिक जगत की धारणा कि: “परमेश्वर त्रिरूपी है”

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प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

उत्तर: हम परमेश्वर की वाणी कैसे सुनते हैं? हममें कितने भी गुण हों, हमें कितना भी अनुभव हो, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। प्रभु यीशु में विश्वास...

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