प्रश्न 4: लोग पापी होते हैं लेकिन प्रभु यीशु को अपने पाप अर्पित करना हमेशा कारगर सिद्ध होता है। अगर हम प्रभु यीशु के सामने अपने पाप स्वीकार कर लें तो वो हमें क्षमा कर देंगे। हम प्रभु की नज़रों में पापरहित हैं, इसलिये हम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पा सकते हैं!
उत्तर: प्रभु यीशु ने इंसान के पापों को क्षमा कर दिया है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि इंसान के कोई पाप ही नहीं हैं। इसका मतलब ये नहीं कि इंसान को उसके पापों के नियंत्रण से आज़ादी मिल गई या वो पवित्र हो गया है। प्रभु यीशु इंसान के पापों को क्षमा कर देते हैं। यहां पर "पाप" से क्या मतलब है? यहां पर पाप का मतलब है व्यभिचार, चोरी आदि, कोई भी ऐसा कार्य जो परमेश्वर के नियमों, आदेशों का उल्लंघन करता हो, पाप है। ऐसा कोई भी कार्य जो परमेश्वर का विरोध करता हो, तिरस्कार करता हो या उन्हें परखता हो, वो भी पाप है। ईश-निंदा भी पाप है, ऐसा पाप जिसे क्षमा नहीं किया जा सकता। अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु ने पापबलि के रूप में मानवजाति की सेवा की थी। जिन लोगों ने प्रभु से प्रार्थना की और पश्चाताप किया उन्हें तिरस्कृत नहीं किया गया या मृत्युदंड नहीं दिया गया। यानी परमेश्वर उन्हें फिर पापी नहीं मानते। जिस व्यक्ति के पाप क्षमा कर दिए गए, वो सीधे ही प्रभु से प्रार्थना कर सकता है और उनका अनुग्रह पा सकता है। "पाप क्षमा कर दिए गए हैं" का सही अर्थ यही है। हालाँकि प्रभु यीशु की पाप-बलि के कारण लोगों के पापों को क्षमा कर दिया गया है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि उन्होंने पाप करना या परमेश्वर का विरोध करना छोड़ दिया। इंसान का पापी स्वभाव अभी भी कायम है, तभी वो परमेश्वर का विरोध करता है, धोखा देता है और उन्हें अपना शत्रु समझता है। ऐसे लोग स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के पात्र कैसे होंगे? जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने कहा है, "तुम लोगों जैसा पापी, जिसे परमेश्वर के द्वारा अभी-अभी छुड़ाया गया है, और जो परिवर्तित नहीं किया गया है, या सिद्ध नहीं बनाया गया है, क्या तुम परमेश्वर के हृदय के अनुसार हो सकते हो? तुम्हारे लिए, तुम जो कि अभी भी पुराने अहम् वाले हो, यह सत्य है कि तुम्हें यीशु के द्वारा बचाया गया था, और कि परमेश्वर द्वारा उद्धार की वजह से तुम्हें एक पापी के रूप में नहीं गिना जाता है, परन्तु इससे यह साबित नहीं होता है कि तुम पापपूर्ण नहीं हो, और अशुद्ध नहीं हो। यदि तुम्हें बदला नहीं गया तो तुम संत जैसे कैसे हो सकते हो? भीतर से, तुम अशुद्धता से घिरे हुए हो, स्वार्थी और कुटिल हो, मगर तब भी तुम यीशु के साथ अवतरण चाहते हो—क्या तुम इतने भाग्यशाली हो सकते हो? तुम परमेश्वर पर अपने विश्वास में एक कदम चूक गए हो: तुम्हें मात्र छुटकारा दिया गया है, परन्तु परिवर्तित नहीं किया गया है। तुम्हें परमेश्वर के हृदय के अनुसार होने के लिए, परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से तुम्हें परिवर्तित और शुद्ध करने का कार्य करना होगा; यदि तुम्हें सिर्फ छुटकारा दिया जाता है, तो तुम पवित्रता को प्राप्त करने में असमर्थ होंगे। इस तरह से तुम परमेश्वर के आशीषों में साझेदारी के अयोग्य होंगे, क्योंकि तुमने मनुष्य का प्रबंधन करने के परमेश्वर के कार्य के एक कदम का सुअवसर खो दिया है, जो कि परिवर्तित करने और सिद्ध बनाने का मुख्य कदम है। और इसलिए तुम, एक पापी जिसे अभी-अभी छुटकारा दिया गया है, परमेश्वर की विरासत को सीधे तौर पर उत्तराधिकार के रूप में पाने में असमर्थ हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पदवियों और पहचान के सम्बन्ध में)। प्रभु यीशु के छुटकारे के कार्य ने सिर्फ लोगों के पापों को क्षमा किया; उनके दूषित स्वभाव को ठीक नहीं किया। इंसान के अंदर का अहंकार, स्वार्थ, लालच, छल और उसके शैतानी स्वभाव के दूसरे पहलू अभी भी कायम हैं। इस दूषित स्वभाव की पैठ पाप से भी गहरी है; ये पाप से भी ज़्यादा अड़ियल है। ये हमारे पाप और परमेश्वर के विरोध का मूल है। अगर इस शैतानी स्वभाव को ठीक नहीं किया गया, तो इंसान पाप और परमेश्वर का विरोध करता रहेगा और उन्हें अपनी कल्पनाओं और धारणाओं के मुताबिक परखता और तिरस्कृत करता रहेगा। जब उन्हें दुख और अत्याचर भोगने पड़ते हैं तो वो परमेश्वर को नकार सकते हैं, बल्कि यहूदा की तरह उन्हें धोखा भी देते हैं। जब उनके पास सामर्थ्य होती है तो वो परमेश्वर के विरोध में स्वतंत्र राज्य खड़ा कर सकते हैं। कुछ लोग परमेश्वर की भेंटों को चुरा लेते हैं और उनके स्वभाव को ठेस पहुँचाते हैं; उन्हें तिरस्कृत कर मिटा दिया जाएगा। धार्मिक समुदाय में अब बहुत से पादरी और अगुवा प्रभु यीशु के वचनों का पालन नहीं करते। वो लोग अपनी मान्यताओं के अनुसार बाइबल की व्याख्या करते हैं। वो बाइबल में इंसानों के वचनों को परमेश्वर के वचन मानते हैं। प्रभु यीशु के वचनों की गवाही देने की बजाय वो इंसानों के वचनों का गुणगान करते हैं। इस कारण आस्थावान भी इंसानों को पूजते हैं, उनका अनुसरण करते हैं, और उनके दिल में प्रभु यीशु के लिये कोई जगह नहीं होती है। ऐसे विश्वासी धार्मिक अगुवों के चंगुल में फंसकर रह जाते हैं। ये बात तब और भी सही साबित होती है जब प्रभु यीशु अपना न्याय का कार्य करने लौटकर आते हैं। ऐसे पादरी और अगुवा परमेश्वर के कार्य का न तो अनुसरण करते हैं और न पढते हैं। बल्कि वो उनके कार्य का तिरस्कार करते है, उन्हें परखते हैं और ईश-निन्दा करते हैं। वो लोग विश्वासियों को धोखा देने के लिये झूठ बोलते हैं और कलीसिया बंद करवा देते हैं। वो लोग खुले तौर पर परमेश्वर को अपना दुश्मन कहते हैं और उनके स्वभाव को ठेस पहुँचाते हैं। ये परमेश्वर का सबसे गंभीर विरोध है। एक ऐसा पाप है जिसे माफ नहीं किया जा सकता। परमेश्वर के विरोध में उनका ये बर्ताव फरीसियों के प्रभु यीशु के विरोध से भी ज़्यादा कट्टर है! इसलिये, अगर लोगों के परमेश्वर-विरोधी स्वभाव को सुधारा नहीं गया, अगर उनके शैतानी दूषित स्वभाव को साफ नहीं किया गया, तो फिर उनका ये दुष्ट बर्ताव किसी भी हद तक जा सकता है। ऐसे लोग परमेश्वर के राज्य में कैसे जा सकते हैं? इसलिये, इंसान को बचाने के लिये उनकी प्रबंधन योजना और दूषित लोगों की असल ज़रूरतों के अनुसार, अंत के दिनों में परमेश्वर सत्य के बहुत से अलग-अलग पहलुओं को व्यक्त करते हैं, और अपना कार्य करते हैं जिससे बाइबल की यह भविष्यवाणी, "न्याय परमेश्वर के धाम से आरंभ होना चाहिये" पूरी होती है, उस समस्या को सुलझाने के लिये कि दूषित इंसान अपने शैतानी स्वभाव के चंगुल में होता है। और उस तरह से इंसान धीरे-धीरे अपने दूषित शैतानी स्वभाव से आज़ाद होता जाएगा, परमेश्वर से विद्रोह और उनका विरोध करना बंद कर देगा, और सही मायनों में परमेश्वर की आज्ञा को मानने और उनकी आराधना करने लगेगा। तभी वो निर्मल होगा और स्वर्ग के राज्य में जा पाएगा।
"मर्मभेदी यादें" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश