प्रश्न 1: हमने प्रभु में इतने वर्षों से विश्वास किया है। हालांकि हम प्रभु के लिए प्रवचन दे सकते हैं, कार्य कर सकते हैं, और कष्ट सह सकते हैं, फिर भी हम सदा झूठ बोल सकते हैं, छल कर सकते हैं और धोखा दे सकते हैं। हर दिन, हम अपने बचाव में बोलते हैं। अक्सर, हम घमंडी, हठी, दिखावटी होते हैं तथा दूसरों को नीचा दिखाते रहते हैं। हम देह के बंधन से छूटने में नाकाम, पाप और पश्चाताप की स्थिति में जीते हैं। प्रभु के वचन का अनुभव करना और पालन करना तो दूर, सदा से हम इसी स्थिति में रहे हैं। हमने प्रभु के वचन की किसी भी वास्तविकता को कभी नहीं जिया। हमारी स्थिति में, क्या हम स्वर्ग के राज्य में लाये भी जा सकेंगे?कुछ लोग कहते हैं, हम पाप जैसे भी करें, देह के बंधन में कैसे भी फंसे रहें, प्रभु हमें पापरहित ही देखते हैं। वे पौलुस के कथन के अनुसार चलते हैं: "और यह क्षण भर में, पलक मारते ही अन्तिम तुरही फूँकते ही होगा। क्योंकि तुरही फूँकी जाएगी और मुर्दे अविनाशी दशा में उठाए जाएँगे, और हम बदल जाएँगे" (1 कुरिन्थियों 15:52)। और मान लेते हैं कि जब प्रभु आएंगे, तो वे उसी क्षण हमारी छवि बदल देंगे और हमें स्वर्ग के राज्य में ले आएंगे। कुछ लोग इस तर्क को स्वीकार नहीं कर सकते। वे मानते हैं कि जो लोग विश्वास के कारण उद्धार प्राप्त करते हैं, लेकिन फिर भी निरंतर पाप करते रहते हैं, वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाने के योग्य नहीं हैं। यह मुख्य रूप से प्रभु यीशु के वचन पर आधारित है: "जो मुझ से, 'हे प्रभु! हे प्रभु!' कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है" (मत्ती 7:21)। "…इसलिये तुम पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ" (लैव्यव्यवस्था 11:45)। ये दो परस्पर विरोधी विचार हैं, जो कोई भी स्पष्ट रूप से नहीं कह सकता, कृपया हमारे लिए चर्चा करें।
उत्तर: अतीत में, हम पौलुस जैसे प्रेरितों के कथनों को परमेश्वर के वचन की तरह लेते थे और प्रभु में विश्वास के लिए पौलुस के कथन का पालन करते थे और उसी के अनुसार प्रभु के लिए कार्य करते थे। प्रभु के लौटने के मामले में भी हमने पौलुस के कथन को ही माना, परन्तु प्रभु यीशु के वचन को दूर रख दिया। आखिर क्या यह एक समस्या नहीं थी? जब हम परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तब हमें परमेश्वर के वचन को सुनना चाहिए या मनुष्य के? जहां तक बाइबल में पौलुस के कथन का प्रश्न है, वह परमेश्वर का वचन था या मनुष्य का? जहां तक यह अंतर जानने का प्रश्न है कि यह वचन परमेश्वर का है या मनुष्य का, तो आइए पहले इसे दूर रखें। परन्तु हम इतना निश्चित हो सकते हैं कि बाइबल में यहोवा और प्रभु यीशु के वचन परमेश्वर के वचन हैं। कोई इसको नकार नहीं सकता। पौलुस जैसे प्रेरितों के कथन निश्चय ही मनुष्य के कथन हैं। पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता के साथ भी, वे मनुष्य के कथन ही थे, परमेश्वर के वचन बिलकुल नहीं थे। क्योंकि न प्रभु यीशु ने और न ही पवित्र आत्मा ने गवाही दी थी कि पौलुस जैसे प्रेरितों के कथन परमेश्वर के वचन थे। प्रेरितों ने स्वयं भी नहीं कहा कि उन्होंने जो लिखा वह परमेश्वर का वचन था। क्या यह तथ्य नहीं है? बाइबल में मनुष्य के कथन, मनुष्य के ही कथन हैं और उनको परमेश्वर के वचन समझ कर उनको आधार की तरह उपयोग करना तो दूर, उनको परमेश्वर के वचन नहीं माना जा सकता, क्योंकि मनुष्य के कुछ कथन पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता से उपजे थे, जबकि कुछ और मनुष्य की इच्छा से मिश्रित थे। वे सत्य की अभिव्यक्ति नहीं थे। यदि हम मनुष्य के कथन को सत्य की तरह लेंगे, तो इससे उलझन पैदा होगी और मनुष्य कहीं नहीं पहुँच पायेगा। संपूर्ण धार्मिक समुदाय में हज़ारों संप्रदाय क्यों तैयार हुए? इसका मूल कारण यह है कि मनुष्य ने बाइबल में मनुष्य के कथन की परमेश्वर के वचन के रूप में व्याख्या कर ली है, जिससे ऐसी गंभीर उलझन पैदा हो गयी है। स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के विषय में हमें केवल प्रभु यीशु के वचन को ही अंतिम मान कर चलना होगा क्योंकि प्रभु यीशु देहधारी मसीह है। केवल प्रभु यीशु ही उद्धारक है। प्रभु यीशु का वचन ही सत्य है। प्रभु यीशु के वचन में ही अधिकार है। पौलुस केवल एक मनुष्य थे। वे मसीह नहीं थे। वे सत्य को अभिव्यक्त नहीं कर सकते थे। इसलिए उनके वचन का मनुष्य की इच्छा और कल्पना में मिश्रित हो जाना अपरिहार्य था। पौलुस अपने पत्रों को परमेश्वर का वचन बताना तो दूर, यह कहने का साहस भी नहीं कर पाए कि उनका कथन परमेश्वर से प्रेरित है। क्या पौलुस के कथन को परमेश्वर का वचन मानना बेतुका नहीं होगा? फिर हम परमेश्वर की इच्छा के आज्ञाकारी हों या स्वर्ग के राज्य में लाये जाने योग्य हों या नहीं, हमें सही उत्तर प्राप्त करने के लिए, आत्मविश्लेषण करने और सत्य की खोज करने के लिए, केवल प्रभु यीशु के वचन पर ही चलना होगा।
इसको और अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए, आइए सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के कुछ अंशों को पढ़ें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: ''आज, लोग यह विश्वास करते हैं कि बाइबल परमेश्वर है, और परमेश्वर बाइबल है। इस प्रकार वे यह भी विश्वास करते हैं कि बाइबल के सारे वचन सिर्फ वे वचन हैं जिन्हें परमेश्वर ने कहा था, और उन सभी को परमेश्वर के द्वारा बोला गया था। वे जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं वे यह भी मानते हैं कि यद्यपि पुराने और नए नियम की छियासठ पुस्तकों को लोगों के द्वारा लिखा गया था, फिर भी उन सभी को परमेश्वर की अभिप्रेरणा के द्वारा दिया गया था, और वे पवित्र आत्मा के कथनों के लिखित दस्तावेज़ हैं। यह लोगों का त्रुटिपूर्ण अनुवाद है, और यह तथ्यों से पूरी तरह मेल नहीं खाता है। वास्तव में, भविष्यवाणियों की पुस्तकों को छोड़कर, पुराने नियम का अधिकांश भाग ऐतिहासिक अभिलेख है। नए नियम के कुछ धर्मपत्र लोगों के व्यक्तिगत अनुभवों से आए हैं, और कुछ पवित्र आत्मा के प्रकाशन से आए हैं; उदाहरण के लिए, पौलुस के धर्मपत्र एक मनुष्य के कार्य से उदय हुए थे, वे सभी पवित्र आत्मा के प्रकाशन के परिणामस्वरूप थे, और वे कलीसिया के लिए लिखे गए थे, और वे कलीसिया के भाइयों एवं बहनों के लिए प्रोत्साहन और उत्साह के वचन हैं। वे पवित्र आत्मा के द्वारा बोले गए वचन नहीं थे - पौलुस पवित्र आत्मा के स्थान पर बोल नहीं सकता था, और न ही वह कोई पैग़म्बर था, और उसमें दिव्यदृष्टि तो बिलकुल नहीं थी। उसके धर्मपत्र इफिसुस, फिलेदिलफिया, गलातिया और अन्य कलीसियाओं के लिए लेखे गये थे। और इस प्रकार, नए नियम के पौलुस के धर्मपत्र वे धर्मपत्र हैं जिन्हें पौलुस ने कलीसियाओं के लिए लिखा था, और वे पवित्र आत्मा की अभिप्रेरणाएं नहीं हैं, न ही वे सीधे तौर पर पवित्र आत्मा के कथन हैं। …जो कुछ भी उसने कहा था वह हितकारी था और लोगों के लिए लाभदायक एवं सही था, किन्तु यह पवित्र आत्मा के कथनों को दर्शाता नहीं था, और वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था। यह एक विचित्र समझ थी, और एक भयंकर ईश्वरीय निन्दा थी, क्योंकि लोग मनुष्य के अनुभवों के लिखित दस्तावेज़ को और मनुष्य की पत्रियों को पवित्र आत्मा के द्वारा कलीसियाओं को बोले गए वचनों के रूप में ले रहे थे! …उसकी पहचान मात्र कलीसिया के लिए काम करने वाले की थी, वह मात्र एक प्रेरित था जिसे परमेश्वर के द्वारा भेजा गया था; वह एक पैग़म्बर नहीं था, और न ही एक पूर्वकथन कहने वाला था। अतः उसके लिए, स्वयं उसका कार्य और भाइयों एवं बहनों का जीवन सब से अधिक महत्वपूर्ण था। इस प्रकार, वह पवित्र आत्मा के स्थान पर बोल नहीं सकता था। उसके वचन पवित्र आत्मा के वचन नहीं थे, और उन्हें परमेश्वर के वचन तो बिलकुल भी नहीं कहा जा सकता था, क्योंकि पौलुस परमेश्वर के एक जीवधारी से बढ़कर और कुछ नहीं था, और वह निश्चित तौर पर परमेश्वर का देहधारी नहीं था। उसकी पहचान यीशु के समान नहीं थी। यीशु के वचन पवित्र आत्मा के वचन थे, वे परमेश्वर के वचन थे, क्योंकि उसकी पहचान मसीह-परमेश्वर के पुत्र की थी। पौलुस उसके बराबर कैसे हो सकता है? यदि लोग धर्मपत्रों या पौलुस के वचनों को पवित्र आत्मा के कथनों के रूप में देखते हैं, और परमेश्वर के रूप में उसकी आराधना करते हैं, तो सिर्फ यह कहा जा सकता है कि वे बहुत ही अधिक अविवेकी हैं। और अधिक कड़े शब्दों में कहा जाए, तो यह ईश निन्दा नहीं है तो और क्या है? एक मनुष्य परमेश्वर के बदले में कैसे बात कर सकता है? और लोग उसके धर्मपत्रों के लिखित दस्तावेज़ों और उसकी कही बातों के सामने कैसे झुक सकते हैं जैसे मानो वह कोई "पवित्र पुस्तक" या 'स्वर्गीय पुस्तक' हो। क्या परमेश्वर के वचनों को एक मनुष्य के द्वारा सामान्य ढंग से बोला जा सकता है? एक मनुष्य परमेश्वर के बदले में कैसे बोल सकता है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बाइबल के विषय में (3))।
"परमेश्वर के वचन को मनुष्यों के वचन के रूप में नहीं कहा जा सकता है, और मनुष्य के वचन को परमेश्वर के वचन के रूप में तो बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता है। परमेश्वर के द्वारा उपयोग किया गया व्यक्ति देहधारी परमेश्वर नहीं है, और देहधारी परमेश्वर मनुष्य नहीं है जिसे परमेश्वर द्वारा उपयोग किया गया है; इसमें महत्वपूर्ण अंतर है। …देहधारी परमेश्वर के वचन एक नया युग आरंभ करते हैं, समस्त मानवजाति का मार्गदर्शन करते हैं, रहस्यों को प्रकट करते हैं, और एक नये युग में मनुष्य को दिशा दिखाते हैं। मनुष्य द्वारा प्राप्त की गई प्रबुद्धता मात्र एक आसान अभ्यास या ज्ञान है। वह समस्त मानवजाति को एक नये युग में मार्गदर्शन नहीं दे सकती है या स्वयं परमेश्वर के रहस्य को प्रकट नहीं कर सकती है। परमेश्वर आखिरकार परमेश्वर है, और मनुष्य मनुष्य ही है। परमेश्वर में परमेश्वर का सार है और मनुष्य में मनुष्य का सार है। यदि मनुष्य परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों को पवित्र आत्मा का साधारण प्रबुद्धता मानता है, और प्रेरितों एवं भविष्यद्वक्ताओं के वचनों को, परमेश्वर के व्यक्तिगत रूप में कहे गये वचन मानता है, तो तब मनुष्य गलत है। चाहे जो हो, तुम्हें सही को गलत नहीं बताना चाहिए, और ऊँचे को नीचा नहीं कहना चाहिए, या गंभीर को हल्का नहीं कहना चाहिए; चाहे जो हो, तुम्हें कभी भी जानबूझकर उसका खण्डन नहीं करना चाहिए जिसे तुम जानते हो कि सच है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना)।
निश्चित रूप से, प्रभु के अनेक विश्वासी प्रभु के प्रकट होने की प्रतीक्षा करते समय पौलुस के कथन का अनुसरण करते हैं: "और यह क्षण भर में, पलक मारते ही अन्तिम तुरही फूँकते ही होगा। क्योंकि तुरही फूँकी जाएगी और मुर्दे अविनाशी दशा में उठाए जाएँगे, और हम बदल जाएँगे" (1 कुरिन्थियों 15:52)। यह बहुत ही बेतुकी और निरर्थक बात है। क्योंकि मनुष्य के कथन परमेश्वर के वचन का प्रतिनिधित्व नहीं करते, और मनुष्य के कथन में मानवीय इरादे मिश्रित होते हैं। भले ही उसके कुछ अर्थ परमेश्वर के वचन से थोड़े-बहुत मेल खाते हों, वह बिलकुल भी परमेश्वर का वचन नहीं है। क्या प्रभु यीशु ने पौलुस के इस कथन जैसी कोई बात कही थी? क्या नबियों ने इस तरह के कथन कहे थे? क्या पवित्र आत्मा ने गवाही दी थी कि पौलुस के पत्र परमेश्वर के वचन हैं? क्या पवित्र आत्मा के प्रकाशित वाक्यों में मनुष्य से कहा गया है कि वह प्रभु यीशु के दूसरे आगमन पर उनसे मिलने के लिए पौलुस के कथन पर चले? बिलकुल नहीं! हम न तो ऐसा तथ्य पाते हैं न गवाही। तो, पौलुस के कथन को केवल संदर्भ के रूप में लिया जा सकता है, एक आधार के रूप में नहीं। हमारा स्वर्गारोहण करने और हमें स्वर्ग के राज्य में ले जाए जाने के लिए प्रभु की प्रतीक्षा के मामले में, यदि हम अपनी कपोल-कल्पना से चिपके हुए, प्रभु के वचन को आधार मानने की बजाय पौलुस के कथन पर चलें, और प्रभु के आने और तत्क्षण हमारी छवियाँ बदल देने की प्रतीक्षा करें, तो गलतियाँ करना बहुत आसान होगा और हम प्रभु द्वारा त्याग दिए जाने का खतरा मोल लेंगे। दरअसल, अंत के दिनों में लौटने पर प्रभु यीशु किस प्रकार का कार्य करेंगे, प्रभु मनुष्य को किस प्रकार पवित्रता में बदल देंगे, इन सब के बारे में बाइबल में भविष्यवाणी की जा चुकी है।
"क्योंकि वह समय आ पहुँचा है कि पहले परमेश्वर के लोगों का न्याय किया जाए" (1 पतरस 4:17)।
"यदि कोई मेरी बातें सुनकर न माने, तो मैं उसे दोषी नहीं ठहराता; क्योंकि मैं जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं, परन्तु जगत का उद्धार करने के लिये आया हूँ। जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहरानेवाला तो एक है: अर्थात् जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा" (यूहन्ना 12:47-48)।
"मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा, क्योंकि वह अपनी ओर से न कहेगा परन्तु जो कुछ सुनेगा वही कहेगा, और आनेवाली बातें तुम्हें बताएगा" (यूहन्ना 16:12-13)।
"मैं यह विनती नहीं करता कि तू उन्हें जगत से उठा ले; परन्तु यह कि तू उन्हें उस दुष्ट से बचाए रख। …सत्य के द्वारा उन्हें पवित्र कर: तेरा वचन सत्य है। …और उनके लिये मैं अपने आप को पवित्र करता हूँ, ताकि वे भी सत्य के द्वारा पवित्र किये जाएँ" (यूहन्ना 17:15, 17, 19)।
इन पदों से हम देखते हैं कि, अंत के दिनों में प्रभु का लौटना, सत्य को व्यक्त करने, परमेश्वर के घर से आरंभ कर न्याय कार्य करने, और हर सत्य को समझने और उसमें प्रवेश करने में मनुष्य का मार्गदर्शन करने के लिए है। परमेश्वर के वचन के न्याय का अनुभव कर के ही हम सत्य को समझ सकेंगे, शुद्धिकरण प्राप्त कर सकेंगे, और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के योग्य बन पायेंगे। और इसलिए पौलुस ने जो कहा था, "और यह क्षण भर में, पलक मारते ही अन्तिम तुरही फूँकते ही होगा। क्योंकि तुरही फूँकी जाएगी और मुर्दे अविनाशी दशा में उठाए जाएँगे, और हम बदल जाएँगे" (1 कुरिन्थियों 15:52)। यह कथन गलत है; यह मनुष्य को भ्रमित करने वाला है। ऐसे बहुतेरे लोग हैं, जो प्रभु में विश्वास करते हैं, जो इस तरह प्रभु के आने, उनकी छवियाँ बदल देने और उन्हें स्वर्ग के राज्य में ले आने के लिए प्रतीक्षा करते हैं। वे प्रभु के वचन का बिलकुल भी पालन नहीं करते और नहीं जानते कि परमेश्वर की इच्छा पर कैसे चलें। वे बस प्रभु के लिए समय देने और कार्य करने के अपने स्वयं के उत्साह पर चलते रहते हैं, हर दिन पाप और पश्चाताप करने की स्थितियों में जीते हैं, सचमुच पश्चाताप किये बिना या पापी प्रवृत्ति के बंधन और चंगुल से छूटे बिना। ये लोग प्रभु के प्रकटन और अवतरण की प्रतीक्षा करने के लिए पौलुस के कथन पर ही चल रहे हैं। क्या यह व्यावहारिक है? क्या प्रभु ऐसा कर सकते हैं? क्या आप सब कहेंगे कि पौलुस की इस "भविष्यवाणी" में हमारे लिए जीवन में प्रवेश करने से जुड़े कुछ लाभ हैं? यदि हम सब पौलुस के इस कथन पर चल कर प्रभु के आने की प्रतीक्षा करें, तो क्या प्रभु ने अपनी भविष्यवाणी में जो कहा था, वह साकार हो जाएगा? "आधी रात को धूम मची: 'देखो, दूल्हा आ रहा है! उससे भेंट करने के लिये चलो'" (मत्ती 25:6)। "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं; मैं उन्हें जानता हूँ, और वे मेरे पीछे पीछे चलती हैं" (यूहन्ना 10:27)। यह भविष्यवाणी कैसे पूरी हो पायेगी? वे कौन हैं, जो अब भी सक्रियता से सच्चे मार्ग को खोज कर उसका अध्ययन करने, परमेश्वर के पदचिह्नों को खोजने, और परमेश्वर की वाणी को सुनने की क्षमता रखते हैं?
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य का अनुभव करते समय, हम सब एक तथ्य को देखते हैं, कि परमेश्वर ने महाविपत्ति से पहले सचमुच में विजयी लोगों का एक समूह बनाया है। महाविपत्ति अब बहुत समीप है। परमेश्वर के प्रकटन और अंत के दिनों के उनके कार्य से लेकर महाविपत्ति के आने तक, लगभग तीस वर्षों की एक अवधि है। हालांकि यह अवधि बहुत लंबी नहीं है, परंतु यह वैसी भी नहीं है, जिसे लेकर पौलुस ने कहा था कि पलक झपकते ही, मनुष्य को पवित्रता में बदल दिया जाएगा। पौलुस का यह अस्पष्ट कथन लोगों को अलौकिक लगता है, जिसमें परमेश्वर की वाणी सुनने और भोज के लिए स्वर्गारोहित होने की प्रभु यीशु की भविष्यवाणी के बारे में नहीं बताया गया था। प्रभु यीशु की भविष्यवाणियाँ विशेष रूप से व्यावहारिक, सत्य और पूरी तरह तथ्यों के अनुरूप हैं। भविष्यवाणियों के साकार होने पर ही हम उन्हें समझ पाते हैं। जब सर्वशक्तिमान परमेश्वर प्रकट होते हैं और कार्य करना और बोलना शुरू करते हैं, बहुत-से लोग परमेश्वर की वाणी सुनते हैं और सर्वशक्तिमान परमेश्वर की ओर चले जाते हैं। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के उनके अनुभव की प्रक्रिया, प्रकाशित वाक्यों की पुस्तक की भविष्यवाणियों को पूरी तरह साकार करती है: "धन्य वे हैं, जो मेम्ने के विवाह के भोज में बुलाए गए हैं" (प्रकाशितवाक्य 19:9)। परन्तु पौलुस की "भविष्यवाणी" कभी साकार नहीं हुई। इसके अलावा, पौलुस एक नबी नहीं थे। उनकी तथाकथित "भविष्यवाणी" शायद मनुष्य के विचारों और कल्पनाओं से उपजी थी। प्रभु यीशु की भविष्यवाणियाँ साकार हो रही हैं, परंतु पौलुस के कथन कभी सच नहीं हुए। उन दोनों में इतना बड़ा अंतर है! मनुष्य के कथन और परमेश्वर के वचन में यही अंतर है। इसलिए, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के लिए पौलुस के कथन हमारे लिए आधार नहीं बन सकते। मुझे डर है कि यदि हमारे धर्म के लोग पौलुस के कथन पर चलें, और प्रभु के लौट कर आने और तत्क्षण उनकी छवि बदल कर स्वर्ग के राज्य में ले जाए जाने की प्रतीक्षा करें, तो वे मूर्ख कुंवारे बन जायेंगे, जिनको प्रभु त्याग देंगे।
हम सब यह देख सकते हैं। जब बाइबल की भविष्यवाणियाँ साकार होती हैं, तब अधिकतर विश्वासी उनको देख सकते हैं। परंतु हमारे लिए यह देखने का कोई रास्ता नहीं है कि पौलुस के वचन कैसे सच हुए। यह क्या समस्या है? यह कहना पर्याप्त होगा कि पौलुस का कथन कदापि परमेश्वर द्वारा प्रेरित नहीं था। इसको कदापि परमेश्वर का वचन नहीं माना जा सकता। हम सब देख सकते हैं कि प्रभु यीशु का हर वचन साकार हो रहा है, कोई भी साकार होने से नहीं बचा। क्या यह तथ्य नहीं है? सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने अंत के दिनों में आकर अनेक सत्य व्यक्त किये हैं, जिनको "वचन देह में प्रकट होता है" में दर्ज किया गया है। "वचन देह में प्रकट होता है" प्रकाशित हो चुकी है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अनेक वचनों को पढ़ने के बाद ही, अनेक संप्रदायों और वर्गों की अनेक अच्छी भेड़ों और प्रधान भेड़ों ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन को सत्य और परमेश्वर की वाणी पाया है, इसलिए वे सब सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। ये ऐसी बुद्धिमान कुंवारियां हैं, जिनको महाविपत्ति से पहले परमेश्वर के सिंहासन के सामने लाया जाता है। वे सब मेमने के विवाह भोज में शामिल होते हैं। यह प्रभु यीशु की भविष्यवाणियों को पूरा करता है: "मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा…" (यूहन्ना 16:12-13)। "आधी रात को धूम मची: 'देखो, दूल्हा आ रहा है! उससे भेंट करने के लिये चलो'" (मत्ती 25:6)। "देख, मैं द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूँ; यदि कोई मेरा शब्द सुनकर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके पास भीतर आकर उसके साथ भोजन करूँगा और वह मेरे साथ" (प्रकाशितवाक्य 3:20)। क्या आप सबने देखा है कि प्रभु यीशु की भविष्यवाणियाँ पूरी तरह साकार हो चुकी हैं? प्रभु का बोला हुआ कोई भी वचन, नबियों द्वारा सूचित परमेश्वर का कोई भी वचन बिना किसी अपवाद के साकार किया जाएगा। यह खाली नहीं जाएगा। जैसा कि प्रभु यीशु ने कहा था, "आकाश और पृथ्वी टल जाएँगे, परन्तु मेरी बातें कभी न टलेंगी" (मत्ती 24:35)। अब पौलुस के कथनों को देखें, इनमें से कौन-सा कथन सच हुआ है? पौलुस द्वारा बोले गए कथन परमेश्वर द्वारा प्रेरित थे या नहीं, परमेश्वर के वचन थे या नहीं, यह सब अब स्पष्ट है न? यदि हम केवल पौलुस के कथन पर चलें, और प्रभु की वाणी को खोजने और सुनने या परमेश्वर के कार्य के पदचिह्नों को खोजने की बजाय, हम जिद करके, प्रभु के बादलों पर आकर तत्क्षण हमारी छवियों को बदल देने की प्रतीक्षा करें, तो क्या आप सबको नहीं लगता कि हम मूर्ख कुंवारियां हैं? क्या ऐसे लोग प्रभु से मिल सकते हैं और परमेश्वर के समक्ष लाये जा सकते हैं?
"बदलाव की घड़ी" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश