सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मुझे शुद्धिकरण प्राप्त करने का मार्ग दिखाया
मैं रोज़ी-रोटी कमाने के इरादे से 2007 में अपने दम पर सिंगापुर आया। सिंगापुर का मौसम साल-भर गर्म रहता है। ड्यूटी के वक्त हर रोज़ मैं पसीने में तर-बतर रहता था। मेरी हालत खराब थी। इसके अलावा, यह जगह भी मेरे लिए अनजान थी, यहाँ न मेरा परिवार था, न यार-दोस्त। ज़िंदगी नीरस और उबाऊ लगती थी। अगस्त के महीने में एक दिन, काम से घर आते समय मुझे सुसमाचार का एक पन्ना मिला जिसमें लिखा था : "अब परमेश्वर जो सारे अनुग्रह का दाता है, जिसने तुम्हें मसीह में अपनी अनन्त महिमा के लिये बुलाया, तुम्हारे थोड़ी देर तक दु:ख उठाने के बाद आप ही तुम्हें सिद्ध और स्थिर और बलवन्त करेगा" (1 पतरस 5:10)। इन वचनों को पढ़कर दिल में एक उमंग-सी महसूस हुई। उसके बाद, मैं एक भाई के साथ कलीसिया गया। वहाँ जिस जोश से वहाँ के भाई-बहनों ने मेरा स्वागत किया और मेरा हाल-चाल पूछा, उससे मुझे एक ऐसे पारिवारिक स्नेह का एहसास हुआ जो मैंने काफी समय से महसूस नहीं किया था। मेरी आँखें भर आयीं। मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपने घर वापस आ गया हूँ। उसके बाद से तो, जैसे हर रविवार को कलीसिया जाना एक ज़रूरी क्रम बन गया।
दिसम्बर में बपतिस्मा लेकर, मैं औपचारिक रूप से आस्था के मार्ग में आ गया। कलीसिया की एक सेवा में, मैंने प्रचारक को मत्ती के अध्याय 18, पद 21-22 से पढ़ते सुना : "तब पतरस ने पास आकर उस से कहा, 'हे प्रभु, यदि मेरा भाई अपराध करता रहे, तो मैं कितनी बार उसे क्षमा करूँ? क्या सात बार तक?' यीशु ने उससे कहा, 'मैं तुझ से यह नहीं कहता कि सात बार तक वरन् सात बार के सत्तर गुने तक।'" सुनकर मैंने सोचा : "प्रभु यीशु द्वारा क्षमा और धैर्य इतना महान कैसे हो सकता है? वह लोगों को सात गुना सत्तर बार क्षमा करता है। अगर इंसान ऐसा कर पाता, तो कोई लड़ाई-झगड़ा ही न होता, केवल प्रेम और स्नेह होता!" प्रभु के वचनों ने मुझे भावुक कर दिया, और मैंने उसकी शिक्षाओं पर चलने का संकल्प किया।
दो-तीन साल बाद, मेरे बॉस ने मुझे निर्माण साइट के प्रबंधन का ज़िम्मा सौंप दिया। मैं अपने काम सारी ऊर्जा लगा दी और नियमित रूप से सभाओं में जाना बंद कर दिया। एक दिन मेरे मित्र ने मिस्टर ली नाम के एक बिज़निस फाइनेंसर से मेरा परिचय कराया और हमने मिलकर एक निर्माण कम्पनी खोल ली। मैं बहुत खुश था, मैंने तय कर लिया कि मैं इसमें जी-जान लगा दूँगा। मैं पैसे के फेर में ऐसा उलझा कि मैंने कलीसिया की सभाओं में जाना ही बंद कर दिया। मैं प्रोजेक्ट्स अच्छी तरह से पूरा करके अपनी काबिलियत के लिए लोगों की सराहना पाना चाहता था, इस चक्कर में मैं कर्मचारियों से ज़्यादा से ज़्यादा अपेक्षा करने लगा। अगर मुझे लगता कि उन्होंने कोई काम ठीक से नहीं किया है या मेरी उम्मीद के मुताबिक नहीं किया है, तो मैं उन्हें डाँट देता। मेरी फटकार से अक्सर टीम लीडर की आँखों में आँसू आ जाते। मुझे देखते ही कर्मचारी डरकर छुप जाते। जो लोग मेरे दोस्त हुआ करते थे, उनका रवैया भी मेरे प्रति थोड़ा ठंडा हो गया। अब वे लोग भी मुझ पर भरोसा नहीं करना चाहते थे। यह देखकर मैं बड़ा परेशान हो गया। प्रभु यीशु ने कहा है कि लोगों को सात गुना सत्तर बार क्षमा कर दिया जाए, और पड़ोसियों से भी अपनी ही तरह प्यार किया जाए। लेकिन मैंने तो इस बात पर ज़रा भी अमल नहीं किया, एक बार भी नहीं। यह ईसाई होना कैसे हुआ? मैं जानता था कि मैं पाप कर रहा हूँ, अक्सर प्रभु से प्रार्थना करता हूँ, अपने पापों को स्वीकार करता हूँ और प्रायश्चित करता हूँ। मैंने अपने आपको बदलने का निश्चय कर लिया। लेकिन जब कभी कोई बात हो जाती, तो न चाहते हुए भी मैं पाप कर बैठता। मैं वाकई परेशान हो गया।
अगस्त 2015 में, कम्पनी का काम ठीक नहीं चल रहा था, इसलिए हमें कारोबार बंद रोकना पड़ा और मैं घर वापस चला गया। खिन्नता और परेशानी की हालत में, मुझे दिन भर शराब और जुए की लत लग गयी। जब मेरी पत्नी ने मुझे शराब छोड़ने के लिए कहा, तो मैं उस पर चिल्ला पड़ा : "यह मेरा पैसा है, मैंने कमाया है, मैं इसे जैसे चाहूँ उड़ाऊँगा...." वो बेचारी कुछ नहीं कर पाती थी, बस बैठी-बैठी रोती रहती थी। मैं हर बार गुस्सा करके पछताता था और अपने आपसे नफरत करने लगता था। तब तक मैं पूरी तरह से एक ईसाई होने की शिष्टता खो चुका था; मेरा व्यवहार और आचरण पूरी तरह से किसी अविश्वासी की तरह हो गया था।
अपनी पीड़ा और बेबसी में, मैं सभाओं में शामिल होने के लिए वापस कलीसिया चला गया। उस दौरान, मैं लगातार प्रभु यीशु से प्रार्थना कर रहा था : "हे प्रभु! मैंने ऐसा बहुत कुछ किया है जो मैं नहीं करना चाहता था, मैंने लोगों का दिल दुखाने वाली बहुत-सी बातें कही हैं। मैं पाप में जी रहा हूँ और तेरे खिलाफ विद्रोह कर रहा हूँ। मैं हर बार पाप करके पछताता हूँ और अपने आपसे घृणा करता हूँ, लेकिन मैं खुद पर काबू नहीं रख पाता! मैं रात को अपने पापों को स्वीकार करता हूँ, मगर दिन होते ही फिर से अपने पुराने तौर-तरीकों पर आ जाता हूँ और फिर से पाप करने लगता हूँ। हे प्रभु! मैं तुझसे विनती करता हूँ कि तू मुझे बचा ले। मैं अपने पापों से छूटने के लिए क्या करूँ?"
2016 को नए साल के दिन, मैं अमेरिका गया। न्यूयॉर्क में मैं पैसा कमाने आया था। मैं अपने खाली समय में कलीसिया जाने लगा। मैं प्रार्थना समूह में भी शामिल हो गया। मैं अन्य भाई-बहनों के साथ मिलकर बाइबल पढ़ता और प्रार्थना करता। इस तरह से, बहन किंगलियान से मेरा परिचय हो गया। एक दिन, बहन किंगलियान ने मुझे फोन करके कहा कि एक अच्छी खबर है और मुझे बताना चाहती है। मैंने पूछा, "क्या अच्छी खबर है?" उसने कहा, "एक मिशनरी आ रही है। आप उसे सुनना चाहेंगे?" मैंने कहा, "वाह! कहाँ है?" फिर उसने मुझे अपने घर आने का समय बता दिया।
मैं उस दिन बहन किंगलियान के घर गया। वहाँ कई भाई-बहन थे। सभा के बाद, हमने एक-दूसरे का अभिवादन किया और हम लोग बाइबल पर चर्चा करने लगे। बहन झाओ की सहभागिता बहुत ही प्रबुद्ध करने वाली थी। उससे मुझे काफी लाभ हुआ। उसके बाद मैंने उससे लगातार पाप करने और उसे स्वीकार करने वाली बात बतायी, उसे यह भी बताया कि मैं इस बात से दुखी हूँ कि इस पाप से मुक्त नहीं हो पा रहा हूँ। मैंने इसमें उसकी मदद माँगी। सहभागिता में उसने कहा कि प्रभु में आस्था रखना शुरू करने के बावजूद, हम लोग पाप करते रहते हैं। हम लोग दिन में पाप करते हैं और रात को उसे स्वीकार कर लेते हैं और यह कभी न खत्म होना वाला जीवन-चक्र चलता ही रहता है। हम लोग इससे निकल नहीं पाते हैं और मैं अकेला ही इसका शिकार नहीं हूँ। यह समस्या सभी विश्वासियों की है। उसके बाद बहन झाओ ने हमें परमेश्वर के वचनों के सस्वर पाठ की एक वीडियो दिखायी जिसके वचन इस प्रकार थे : "मनुष्य के स्वभाव में बदलाव आना चाहिये और यह बदलाव उसके सार के ज्ञान से शुरू होकर उसकी सोच, स्वभाव, और मानसिक दृष्टिकोण तक जाना चाहिये—मौलिक परिवर्तन होना चाहिये। केवल इसी ढंग से मनुष्य के स्वभाव में सच्चे बदलाव आ सकेंगे। मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव शैतान के द्वारा उसे जहर देने और रौंदे जाने के कारण उपजा है, उस प्रबल नुकसान से जिसे शैतान ने उसकी सोच, नैतिकता, अंतर्दृष्टि, और समझ को पहुँचाया है। ऐसा इसलिये है क्योंकि मनुष्य की मौलिक चीजें शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दी गईं हैं, और पूरी तरह से उसके विपरीत हैं जैसा परमेश्वर ने मूल रूप से इंसान को बनाया था, कि मनुष्य परमेश्वर का विरोध करता है और सत्य को नहीं समझता। इस प्रकार, मनुष्य के स्वभाव में बदलाव उसकी सोच, अंतर्दृष्टि और समझ में बदलाव के साथ शुरू होना चाहिए जो परमेश्वर और सत्य के बारे में उसके ज्ञान को बदलेगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)।
मैं वाकई भावुक होकर सोचने लगा, "क्या यह मेरे बारे में ही बात नहीं कर रहे हैं? मैं लोगों को नीची नज़र से देखता था, बात-बात पर उन्हें डाँटता था, उन पर चिल्लाता था। मेरे अंदर न नैतिकता है, न विवेक है। मैं अपनी पावन शिष्टता खो चुका हूँ।" ये वचन मुझे अंदर तक चुभ गए। ऐसी बातें मैंने पहले कभी नहीं पढ़ी थीं, न ही मैंने किसी प्रचारक को ऐसा उपदेश देते सुना था। मैं अपने पापों से परेशान हो चुका था, लेकिन उसके बावजूद पाप के बंधन से मुक्त नहीं हो पाया था। इन वचनों ने मुझे पाप छोड़ देने का मार्ग दिखाया। मैं चकित रह गया : कितने खूबसूरत ढंग से बात कही गयी है। इन्हें कौन लिख सकता है?
बहन झाओ ने मुझे बताया कि यह परमेश्वर का वचन है, प्रभु यीशु पहले ही आ चुका है, और वह इस समय अपने वचनों द्वारा अंत के दिनों में इंसान का न्याय करने और उसे शुद्ध करने का कार्य कर रहा है। मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। कौन विश्वासी है जो उसके वापस आने की कामना नहीं कर रहा? अचानक प्रभु यीशु के लौट कर आने की बात सुनकर, मैं इतने जोश में आ गया कि दुविधा में पड़ गया : क्या प्रभु सचमुच लौट आया है? मैंने उत्सुकता से उसे अपनी सहभागिता जारी रखने के लिए कहा। बहन झाओ ने कहा, "प्रभु यीशु वाकई लौट आया है, और वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर है—अंत के दिनों का देहधारी मसीह। उसने इंसान को शुद्ध करने और बचाने के लिए सारे सत्य व्यक्त किए हैं, और परमेश्वर के घर से शुरू होने वाला न्याय का कार्य आरंभ किया है। वह हम इंसानों को, जो अपनी शैतानी प्रकृति से बंधे हुए पाप में जी रहे हैं और स्वयं उससे निकलने में असमर्थ हैं, शैतान के कब्ज़े से पूरी तरह बचाएगा। अंतत: हम पूर्ण उद्धार पाकर परमेश्वर को प्राप्त हो जाएँगे। अनुग्रह के युग में, प्रभु यीशु ने केवल छुटकारे का कार्य किया था; उसने हमें पाप से छुड़ाया और हमें पाप-मुक्त कर दिया था ताकि हम व्यवस्था के अंतर्गत तिरस्कृत न हों। हालाँकि प्रभु ने हमें पाप-मुक्त कर दिया था, लेकिन उसने हमारी शैतानी प्रकृति और शैतानी स्वभावों को क्षमा नहीं किया था। इंसान के अंदर अहंकार, धूर्तता, स्वार्थ, लालच, द्वेष और अन्य भ्रष्ट स्वभाव अभी भी मौजूद हैं। ये चीज़ें अंतर में गहरी उतर जाती हैं और पाप से भी अधिक अड़ियल होती हैं। इसकी वजह मात्र इतनी है कि इन शैतानी स्वभावों और शैतानी प्रकृति को दूर नहीं किया गया है और हम न चाहते हुए भी पाप करते रहते हैं। हम लोग ऐसे पाप भी करते हैं जो नियमों के उल्लंघन से भी अधिक गंभीर होते हैं। अगर उस समय के फ़रीसियों की बात की जाए, तो क्या इंसान की पापी प्रकृति का दूर नहीं होना ही कारण नहीं था जो उन्होंने इस हद तक प्रभु का विरोध और निंदा की कि उसे सूली पर चढ़ा दिया? दरअसल, हम सबको इस बात की गहरी समझ है क्योंकि हम स्वयं इन भ्रष्ट स्वभावों के कब्ज़े में हैं। इसलिए, हम अक्सर झूठ बोलते हैं, कपटपूर्ण काम करते हैं, अहंकारी और दंभी हैं, अपनी श्रेष्ठता दिखाते हुए लोगों को डाँटते-फटकारते हैं। हम अच्छी तरह जानते हैं कि प्रभु हमसे अपेक्षा करता है कि हम लोगों को माफ कर दें और अपने पड़ोसी से अपनी तरह ही प्रेम करें, लेकिन हम इस बात को अमल में नहीं लाते। लोग एक-दूसरे के खिलाफ साज़िश रचते हैं, दौलत-शोहरत के लिए लड़ते-झगड़ते हैं और एक-दूसरे के साथ तालमेल नहीं बैठा पाते। जब कभी हम बीमार पड़ जाते हैं, प्राकृतिक या इंसान की पैदा की हुई आपदाओं का शिकार हो जाते हैं, तो हम लोग परमेश्वर को दोष देते हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर को नकार देते हैं या उसे धोखा दे देते हैं। इन बातों से साफ ज़ाहिर है कि अगर हमने अपनी शैतानी प्रकृति और शैतानी स्वभावों को दूर नहीं किया, तो हम लोग पाप करने और उसे स्वीकार करने, फिर स्वीकार करने और पाप करने के दुष्चक्र से कभी नहीं निकल पाएँगे। इसलिए, इंसान को पाप से पूरी तरह से बचाने के वास्ते परमेश्वर के लिए यह आवश्यक है कि वह हमारी पापपूर्ण प्रकृति को दूर करने की खातिर न्याय और शुद्धिकरण-कार्य के चरण को पूरा करे। मात्र इसी तरीके से हम लोग परमेश्वर द्वारा शुद्ध किए और पूरी तरह से बचाए जा सकते हैं और उसे प्राप्त हो सकते हैं। आइए आप की समझ के लिए सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से कुछ और चुने हुए अंश पढ़ें।"
बहन झाओ ने परमेश्वर के वचनों की पुस्तक खोली और पढ़ने लगी : "यद्यपि मनुष्य को छुटकारा दिया गया है और उसके पापों को क्षमा किया गया है, फिर भी इसे केवल इतना ही माना जा सकता है कि परमेश्वर मनुष्य के अपराधों का स्मरण नहीं करता है और मनुष्य के अपराधों के अनुसार मनुष्य से व्यवहार नहीं करता है। हालाँकि, जब मनुष्य जो देह में रहता है, जिसे पाप से मुक्त नहीं किया गया है, वह भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को अंतहीन रूप से प्रकट करते हुए, केवल पाप करता रह सकता है। यही वह जीवन है जो मनुष्य जीता है, पाप और क्षमा का एक अंतहीन चक्र। अधिकांश मनुष्य दिन में सिर्फ इसलिए पाप करते हैं ताकि शाम को स्वीकार कर सकें। इस प्रकार, भले ही पापबलि मनुष्य के लिए सदैव प्रभावी है, फिर भी यह मनुष्य को पाप से बचाने में समर्थ नहीं होगी। उद्धार का केवल आधा कार्य ही पूरा किया गया है, क्योंकि मनुष्य में अभी भी भ्रष्ट स्वभाव है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))। "यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया है, उसने केवल समस्त मानवजाति के छुटकारे के कार्य को पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना, और मनुष्य को उसके भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। शैतान के प्रभाव से मनुष्य को पूरी तरह बचाने के लिये यीशु को न केवल पाप-बलि के रूप में मनुष्यों के पापों को लेना आवश्यक था, बल्कि मनुष्य को उसके स्वभाव, जिसे शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया था, से पूरी तरह मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़े कार्य करने की आवश्यकता थी" ("वचन देह में प्रकट होता है" के लिए प्रस्तावना)। "परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने के कार्य की वजह से मनुष्य के पापों को क्षमा किया गया था, परन्तु मनुष्य पुराने, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव में जीवन बिताता रहा। ऐसा होने के कारण, मनुष्य को भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से पूरी तरह से बचाया जाना चाहिए ताकि मनुष्य का पापी स्वभाव पूरी तरह से दूर किया जाए और वो फिर कभी विकसित न हो, जो मनुष्य के स्वभाव को बदलने में सक्षम बनाये। इसके लिए मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह जीवन में उन्नति के पथ को, जीवन के मार्ग को, और अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के मार्ग को समझे। साथ ही इसके लिए मनुष्य को इस मार्ग के अनुरूप कार्य करने की आवश्यकता है ताकि मनुष्य के स्वभाव को धीरे-धीरे बदला जा सके और वह प्रकाश की चमक में जीवन जी सके, और वो जो कुछ भी करे वह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार हो, ताकि वो अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर कर सके, और शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो सके, और उसके परिणामस्वरूप पाप से पूरी तरह से ऊपर उठ सके। केवल तभी मनुष्य पूर्ण उद्धार प्राप्त करेगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))। बहन झाओ ने सहभागिता में कहा : "अब चूँकि हमने परमेश्वर के वचन पढ़ लिए हैं, हम समझ गए हैं कि हम लोग हमेशा शैतानी प्रकृति के चंगुल में क्यों फँसे रहते हैं और पाप से निकल क्यों नहीं पाते, है न? अनुग्रह के युग में, परमेश्वर ने केवल छुटकारे का कार्य ही किया था, उसने अंत के समय का न्याय, शुद्धिकरण और इंसान को पूरी तरह से बचाने का कार्य नहीं किया। इसलिए हम लोग कैसे भी अपने पापों को स्वीकार लें और प्रायश्चित कर लें, कैसे भी स्वयं पर विजय पाने का प्रयास कर लें, कैसे भी उपवास और प्रार्थना कर लें, हम लोग पाप-मुक्त नहीं हो पाएँगे। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर हम अपनी पापपूर्ण प्रकृति के चंगुल से निकलना चाहते हैं, तो मात्र प्रभु यीशु के छुटकारे के कार्य से गुज़रना पर्याप्त नहीं है। हमें लौटकर आए प्रभु यीशु के द्वारा किए जाने वाले न्याय के कार्य को स्वीकारना होगा। क्योंकि परमेश्वर अपना अंत के दिनों का न्याय का कार्य करते समय, परमेश्वर का विरोध करने और उसे धोखा वाली इंसान की शैतानी प्रकृति का न्याय करने और उसे उजागर करने के लिए सत्य के बहुत से पहलुओं को व्यक्त करता है। वह परमेश्वर के धार्मिक, पवित्र और अपमान न किए जाने योग्य स्वभाव को प्रकट करता है। इससे इंसान परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना के द्वारा शैतान के हाथों अपनी गहरी भ्रष्टता की सच्चाई को साफ तौर पर देख सकता है, वह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देख सकता है जो इंसान द्वारा अपमान को सहन नहीं करता, वह परमेश्वर-भीरू हृदय विकसित कर सकता है। इस तरह यह इंसान को रूपांतरित करता है, इंसान के शैतानी स्वभाव को शुद्ध करके उसे शैतान के प्रभाव से बचाता है। परमेश्वर के प्रतापी, रोषपूर्ण न्याय और ताड़ना में हम परमेश्वर को रूबरू देखते हैं। परमेश्वर के वचन दुधारी-तलवार की तरह,हमारे दिलों को वेधते हैं, ये हमारे परमेश्वर-विरोधी और परमेश्वर को धोखा देने वाली शैतानी प्रकृति को प्रकट करते हैं, साथी ही ये हमारे दिलों के ऐसे गहरे गुप्त स्थानों में समाए भ्रष्ट स्वभावों को भी प्रकट करते हैं जिनका पता लगाना का हमारे पास कोई तरीका नहीं है। ये हमें यह भी दिखाते हैं कि हमारी प्रकृति का सार अहंकार,दंभ, स्वार्थ, नीचता, बहानेबाज़ी और कपट जैसे शैतानी स्वभावों से भरा हुआ है, हमारे अंदर ज़रा-सी भी इंसानियत नहीं है और हम शैतान का मूर्त रूप हैं। तब जाकर हम लोग परमेश्वर के आगे दंडवत करते हैं, अपने आपसे घृणा करने और स्वयं को धिक्कारने लगते हैं। उसी समय, हमें यह भी बोध होता है कि परमेश्वर के सारे वचन सत्य हैं, ये परमेश्वर के समस्त स्वभाव का प्रकटन हैं और इस बात का भी कि परमेश्वर का जीवन क्या है। हम देखते हैं कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव अपमान सहन नहीं करता, और परमेश्वर का पवित्र सार दूषित नहीं होगा। परिणामस्वरूप हमारे दिल में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा पैदा होगी; हम लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करने के लिए जी-जान से सत्य का अनुसरण करने लगते हैं। जैसे-जैसे हम सत्य को समझेंगे, वैसे-वैसे हम अपनी शैतानी प्रकृति और स्वभाव को अधिकाधिक जानेंगे, और ज़्यादा से ज़्यादा विवेक हासिल करेंगे। परमेश्वर के बारे में हमारा ज्ञान भी बढ़ेगा। धीरे-धीरे हमारे अंदर का भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध होगा और हम पाप के बंधन से मुक्त हो जाएँगे। हम सच्ची मुक्ति पा लेंगे और परमेश्वर के सामने आज़ादी से रहेंगे। अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य से इंसान को यही प्रतिफल प्राप्त होता है। इस तरह यह देखा जा सकता है कि अनुग्रह के युग में 'छुटकारे' का कार्य और अंत के दिनों में 'इंसान की पाप-मुक्ति' का कार्य दो अलग-अलग कार्य के चरण हैं। 'छुटकारा' यानी प्रभु यीशु ने इंसान के पापों को अपने ऊपर लेकर उसे अपने पापों का दंड भुगतने से बचा लिया था। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि इंसान पापरहित है, इसके ये मायने तो बिल्कुल नहीं हैं कि इंसान अब कभी पाप करेगा ही नहीं या वह पूरी तरह से शुद्ध हो गया है। जबकि 'इंसान की पाप-मुक्ति' का अर्थ है इंसान की पापपूर्ण प्रकृति को उजागर करना ताकि अब हम भ्रष्ट प्रकृति पर निर्भर हुए बिना जी सकें, हम अपने जीवन स्वभाव में बदलाव ला कर पूरी तरह शुद्ध हो सकें। इसलिए, परमेश्वर के अंत के दिनों के न्याय-कार्य को स्वीकार करके ही हमारा भ्रष्ट स्वभाव पूरी तरह से दूर हो सकता है, हम अपने आपको शैतान के प्रभाव से निकाल सकते हैं और बचाए जा सकते हैं, परमेश्वर के राज्य में ले जाए जा सकते हैं और परमेश्वर की प्रतिज्ञाएँ और आशीष प्राप्त कर सकते हैं।"
परमेश्वर के वचन और बहनों की सहभागिता सुनकर, मुझे लगा कि यह पूरी तरह से वास्तविकता के अनुरूप है और व्यवहारिक है। मैंने बरसों की अपनी आस्था पर विचार किया : मैं न केवल अक्सर झूठ बोलता था और छल करता था, बल्कि मैं बेहद अहंकारी, स्वच्छंद, रूखा और विपरीत-बुद्धि और उद्दंड था। मेरे लिए काम करने वाले लोग मुझसे डरते थे और मुझसे दूर-दूर रहते थे। यहाँ तक कि मेरी पत्नी और बेटी भी मुझसे थोड़ा-बहुत खौफ खाते थे। कोई मुझसे खुलकर बात नहीं करना चाहता था। मेरा ऐसा कोई मित्र नहीं था जिससे मैं दिल की बात कह सकूँ। यह पीड़ादायक था। मैं बेबसी में जी रहा था। हालाँकि मैं बाइबल पढ़ता था और प्रार्थना करता था, प्रभु के आगे अपने पापों को स्वीकारता था, स्वयं से नफरत भी करता था, लेकिन उसके बावजूद वही तुच्छ हरकतें करता था। मैं स्वयं को ज़रा भी नहीं बदल पाया। मेरे जैसे पाप-कर्म में लिप्त रहने और प्रभु का विरोध करने वाले इंसान को परमेश्वर के अंत के दिनों के न्याय-कार्य की बहुत आवश्यकता है! प्रभु यीशु अब लौट आया है—वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर है। आज, परमेश्वर की वाणी को सुनने का अवसर मिलना और यह पता लगना कि सत्य प्रदान करने, न्याय का कार्य करने, शुद्धिकरण करने और इंसान को बचाने के लिए प्रभु यीशु फिर आया है, मैं वाकई अपने आपको बहुत भाग्यशाली मानता हूँ! उस बहन ने मेरी तड़प देखकर, मुझे परमेश्वर के वचनों की पुस्तक परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं की एक प्रति मुझे दे दी। मैंने प्रसन्नता से स्वीकार कर ली और संकल्प किया कि मैं सचमुच सर्वशक्तिमान परमेश्वर में अपनी आस्था का अभ्यास करूँगा!
अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकारने के बाद मैंने परमेश्वर के बहुत से वचन पढ़े। मैंने परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के बारे में, देहधारण के रहस्य, परमेश्वर के नाम के मायने और पवित्र बाइबल की अंदरूनी कहानी के बारे में पढ़ा और यह भी पढ़ा कि मसीह का राज्य कैसे साकार होता है, हर किस्म के व्यक्ति का अंतिम परिणाम और उसकी मंज़िल कैसे तय होती है, साथ ही सत्य के अनेक पहलुओं के बारे में भी पढ़ा, जिससे धीरे-धीरे मुझमें थोड़ी समझ विकसित हुई, मेरे अंदर परमेश्वर के प्रति और भी अधिक आस्था बढ़ी।
पहले, जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े जो इंसान को बेरहमी से उजागर करते हैं, तो मैं परेशान और बेचैन हो गया और उनके बारे में मेरी धारणा बन गयी; मुझे लगा कि परमेश्वर के वचन बहुत कठोर हैं। क्या वह थोड़ा शालीन नहीं हो सकता था? अगर परमेश्वर इंसान का न्याय इस ढंग से करेगा, तो क्या इंसान निंदित नहीं हो रहा? फिर उसे सचमुच कैसे बचाया जा सकता है? मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : "अंत के दिनों में, मसीह मनुष्य को सिखाने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है, मनुष्य के सार को उजागर करता है, और उसके वचनों और कर्मों का विश्लेषण करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर का आज्ञापालन करना चाहिए, हर व्यक्ति जो परमेश्वर के कार्य को करता है, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मानवता से, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धि और उसके स्वभाव इत्यादि को जीना चाहिए। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खासतौर पर, वे वचन जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार से परमेश्वर का तिरस्कार करता है इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार से मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध दुश्मन की शक्ति है। अपने न्याय का कार्य करने में, परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता है; बल्कि वह लम्बे समय तक इसे उजागर करता है, इससे निपटता है, और इसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने की इन विधियों, निपटने, और काट-छाँट को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसे मनुष्य बिल्कुल भी धारण नहीं करता है। केवल इस तरीके की विधियाँ ही न्याय समझी जाती हैं; केवल इसी तरह के न्याय के माध्यम से ही मनुष्य को वश में किया जा सकता है और परमेश्वर के प्रति समर्पण में पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इसके अलावा मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)। "परमेश्वर के द्वारा मनुष्य की सिद्धता किसके द्वारा पूरी होती है? उसके धर्मी स्वभाव के द्वारा। परमेश्वर के स्वभाव में मुख्यतः धार्मिकता, क्रोध, भव्यता, न्याय और शाप शामिल है, और उसके द्वारा मनुष्य की सिद्धता प्राथमिक रूप से न्याय के द्वारा होती है। कुछ लोग नहीं समझते, और पूछते हैं कि क्यों परमेश्वर केवल न्याय और शाप के द्वारा ही मनुष्य को सिद्ध बना सकता है। वे कहते हैं, 'यदि परमेश्वर मनुष्य को शाप दे, तो क्या वह मर नहीं जाएगा? यदि परमेश्वर मनुष्य का न्याय करे, तो क्या वह दोषी नहीं ठहरेगा? तब वह कैसे सिद्ध बनाया जा सकता है?' ऐसे शब्द उन लोगों के होते हैं जो परमेश्वर के कार्य को नहीं जानते। परमेश्वर मनुष्य की अवज्ञाकारिता को शापित करता है, और वह मनुष्य के पापों को न्याय देता है। यद्यपि वह बिना किसी संवेदना के कठोरता से बोलता है, फिर भी वह उन सबको प्रकट करता है जो मनुष्य के भीतर होता है, और इन कठोर वचनों के द्वारा वह उन सब बातों को प्रकट करता है जो मूलभूत रूप से मनुष्य के भीतर होती हैं, फिर भी ऐसे न्याय के द्वारा वह मनुष्य को शरीर के सार का गहरा ज्ञान प्रदान करता है, और इस प्रकार मनुष्य परमेश्वर के समक्ष आज्ञाकारिता के प्रति समर्पित होता है। मनुष्य का शरीर पाप का है, और शैतान का है, यह अवज्ञाकारी है, और परमेश्वर की ताड़ना का पात्र है—और इसलिए, मनुष्य को स्वयं का ज्ञान प्रदान करने के लिए परमेश्वर के न्याय के वचनों का उस पर पड़ना आवश्यक है और हर प्रकार का शोधन होना आवश्यक है; केवल तभी परमेश्वर का कार्य प्रभावशाली हो सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर अंत के दिनों में अपना न्याय-कार्य सत्य को व्यक्त करके करता है, और वह इंसान के परमेश्वर-विरोधी भ्रष्ट स्वभावों,शैतान प्रकृति और दुष्ट कर्मों का कठोरता से न्याय करता है, उन्हें उजागर करता है और उनकी निंदा करता है। वह ऐसा इसलिए करता है ताकि हम अपनी भ्रष्टता के सत्य को अच्छी तरह से देखें,अपने भ्रष्ट स्वभावों के सार को पूरी तरह से समझें और हम अपनी शैतानी प्रकृति और भ्रष्टता के सार के मूल को जानें। हमारे पास स्वयं से घृणा करने और देह-सुख का त्याग करने का यही एकमात्र तरीका है। इसके अलावा, चूँकि परमेश्वर अपने न्याय और ताड़ना के द्वारा अपना धार्मिक, प्रतापी और रोषपूर्ण स्वभाव ज़ाहिर करता है, हम उसकी धार्मिकता और पवित्रता को देख पाते हैं, साथ ही हम साफ तौर पर अपनी मलिनता, कुरूपता और दुष्टता को देख पाते हैं। परमेश्वर ऐसा इसलिए भी करता है ताकि हम अपनी शैतानी प्रकृति और अपनी भ्रष्टता के सत्य को जान पाएँ। अगर परमेश्वर इतनी कठोरता से इंसान का न्याय न करता, अगर परमेश्वर सही जगह पर चोट करके इंसान की भ्रष्टता को उजागर न करता, अगर वह अपने धार्मिक और प्रतापी स्वभाव को प्रकट न करता, तो शैतान द्वारा बुरी तरह से भ्रष्ट हो चुके हम इंसान कभी भी आत्म-मंथन न कर पाते या स्वयं को न जान पाते। हम अपनी भ्रष्टता या अपनी शैतानी प्रकृति के सत्य को जान पाने के काबिल न हो पाते। अगर ऐसा होता, तो हम अपनी पापपूर्ण प्रकृति से मुक्त होकर शुद्ध कैसे होते? परमेश्वर के कठोर वचनों द्वारा हासिल परिणामों से हम देख सकते हैं कि उनमें इंसान के लिए परमेश्वर का प्रेम और इंसान को बचाने के लिए उसके द्वारा की गयी कड़ी मेहनत छिपी हुई है। मैं परमेश्वर के वचनों को जितना पढ़ता हूँ, उतना ही मुझे महसूस होता है कि परमेश्वर का न्याय-कार्य कितना अद्भुत है! परमेश्वर का न्याय-कार्य बहुत ही व्यवहारिक है! परमेश्वर का कठोर न्याय ही इंसान को शुद्ध, रूपांतरित कर सकता है और उसे बचा सकता है। हमें अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय-कार्य की ही आवश्यकता है!
अपनी अहंकारी और बेहद दंभी प्रकृति के कारण, जब मैं दूसरों से बातचीत करता था, तो मैं उन्हें नीचा दिखाने वाले अंदाज़ में भाषण देने लगता था, और अपने काम-काज में भी मैं मनमर्ज़ी चलाता था। लोग मेरी बात मानें, यह मुझे अच्छा लगता था। मुझे दिखावा करने की भी आदत थी। मैंने सभाओं में कई बार सहभागिता दी कि किस तरह मैंने अपनी कार्य-इकाई में समस्याओं को सुलझाया, जो कर्मचारी मेरे निर्देशों का पालन नहीं करते थे, उन्हें मैंने कैसे फटकारा और अपने वश में किया, साथ ही यह भी बताया कि मेरी पत्नी और बेटी भी वही करती थीं जो मैं कहता था। खासतौर से जब मैं परमेश्वर के वचनों पर सहभागिता साझा करता था, तो इस तरह की बातें किया करता था, "मेरा मानना है कि परमेश्वर के वचनों के इस अंश के ये मायाने हैं," और "मैं ऐसा सोचता हूँ।" एक भाई ने देखा कि मैं अनजाने में ही अपना अहंकारी और दंभी स्वभाव दिखा रहा हूँ। एक सभा में उसने इस बात की ओर इशारा कर दिया, और कहा कि इस तरह बोलना और काम करना अहंकार, दंभ और विवेकशून्यता की अभिव्यक्ति है। अगर इस तरह से मुझे किसी ने पहले उजागर कर दिया होता, जहाँ इतने सारे लोग इस बात का मज़ा लेते, तो मैं अड़ जाता और तुरंत उसकी बात का खंडन कर देता। लेकिन उस समय, मैंने बिना तर्क किए या अपनी बात को सही ठहराने की कोशिश किए बिना, मैंने शांत रहना ही बेहतर समझा, क्योंकि मेरे मन में धर्मोपदेश के ये वचन आए : "किसी भी मामले का सामना करते समय अगर आप हमेशा 'मेरे ख्याल से' कहते हैं, तो खैर, सबसे अच्छा है कि आप अपने विचारों को जाने दें। मैं आपसे निवेदन करता हूं कि अपने विचारों को छोड़ दें और सत्य की खोज करें। परमेश्वर के वचनों का परीक्षण करें। आपके 'विचार' सत्य नहीं है! ... आप बहुत ज्यादा हठी और स्वार्थी हैं! सत्य के सामने, आप अपनी खुद की अवधारणा व भ्रम को छोड़ तक नहीं सकते और इसे मना भी नहीं कर सकते हैं। आप थोड़ा सा भी परमेश्वर का पालन नहीं करना चाहते हैं! वे लोग जो सच में सत्य को खोजते हैं और जिनका दिल सच में परमेश्वर का आदर करता है, उनमें से जो अब भी 'मेरे ख्याल से' बोलते हैं? इस कहावत को पहले ही दूर कर दिया गया है। यह शैतानी प्रवृत्ति को प्रकट करना है" (जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति)। इस सहभागिता ने मुझे याद दिला दिया कि जब कभी कोई मामला मेरे सामने आता है, तो "मेरा ख्याल है," "मैं तो यही मानता हूँ," और "मेरा विश्वास है" जैसे शब्द मेरी ज़बान पर रहते थे, जो हमेशा "मैं," से शुरू होते थे और हर बात पर अंतिम निर्णय मेरा ही होता था। मेरा मानना था कि मैं चीज़ों के स्वभाव को स्वयं जान सकता हूँ और समस्या से निपट सकता हूँ। अपने आपको हमेशा इतना ऊँचा दर्जा देना, क्या ठीक अहंकारी स्वभाव को प्रकट करना नहीं है? उस भाई ने मेरे स्वभाव की ओर इशारा करके जो कुछ कहा, वह सब सच था और मुझे उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। जिन बातों में मेरा यकीन था, वे मेरी धारणाओं और कल्पनाओं से निकल रही थीं, वे शैतान से आयी थीं, और वे निश्चित रूप सच नहीं थीं। मैंने उन बातों पर विचार किया कि चाहे घर की बात हो, कार्य-स्थल की या सहकर्मियों के बीच की, मैं हमेशा ऐसे बर्ताव करता था जैसे मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ। अगर कोई मेरी बात न मानता या मेरे विचारों से अलग जा कर कोई काम करता, तो मैं नाराज़ होकर उसकी आलोचना करता। ऐसी बातें कहने का मतलब था कि मेरे दिल में परमेश्वर की कोई जगह नहीं है, मैं परमेश्वर को महान नहीं समझता, बल्कि स्वयं को महान समझता हुँ। आमतौर पर मैं इसी तरह बातचीत करता था और पेश आता था जिससे यह साबित होता था कि मेरा स्वभाव बेहद अहंकारी है!
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "अगर तुम्हारे भीतर वाकई सत्य है, तो जिस मार्ग पर तुम चलते हो वह स्वाभाविक रूप से सही मार्ग होगा। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुममें अहंकार और दंभ हुआ, तो तुम परमेश्वर की अवहेलना करने से खुद को रोकना असंभव पाओगे; तुम्हें महसूस होगा कि तुम उसकी अवहेलना करने के लिए मज़बूर किये गये हो। तुम ऐसा जानबूझ कर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, यह आपसे स्वयं की प्रशंसा करवाएगा, यह आपसे निरंतर आपको दिखावे में रखवाएगा और अंततः यह आपको परमेश्वर के स्थान पर बैठाएगा और स्वयं के लिए गवाही दिलवाएगा। अंत में आप आराधना किए जाने हेतु सत्य में अपने स्वयं के विचार, अपनी सोच, और अपनी स्वयं की अवधारणाएँ बनाएँगे। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं! उनके बुरे कर्मों के समाधान के लिए, पहले उन्हें अपने स्वभाव की समस्या को हल करना होगा। स्वभाव में बदलाव किए बिना, इस समस्या को मौलिक रूप से हल करना संभव नहीं है" ("मसीह की बातचीतों के अभिलेख" में "केवल सत्य की खोज करके ही तू अपने स्वभाव में परिवर्तन को प्राप्त कर सकता है")। परमेश्वर द्वारा बोला गया हर वचन सत्य है—मैं पूरी तरह से आश्वस्त था। मैंने इस बात पर विचार किया कि मैं निर्माण साइट पर, अपने सहकर्मियों के आस-पास, और जब मैं घर पर होता था, तो किस तरह लोगों को नीचा दिखाते हुए भाषण दिया करता था। मैं ये सब मैं ही था जिस पर मेरी शैतानी और अहंकारी प्रकृति का कब्ज़ा था; यह इसलिए नहीं था कि मैं क्रोधी व्यक्ति हूँ या मैं गुस्सैल हूँ या मुझमें आत्म-संयम की कमी है। मुझे इस बात का भरोसा था कि मैं काबिल और प्रतिभाशाली इंसान हूँ और मेरे अंदर कमाने का सामर्थ्य है, जिन्होंने मेरे अहंकार को पोसा और जो मेरे जीवन का चलन बन गयीं, इसलिए मैंने खुद को दूसरों से बेहतर समझा। मैंने हर किसी को नीची नज़रों से देखा, मुझे लगा कि मैं हर किसी से बेहतर हूँ और हमेशा दूसरों पर रोब जमाता रहा। मैंने अपने पाप का मूल पा लिया था। मैंने अपने शैतानी और भ्रष्ट स्वभाव को दूर न करने के भयंकर दुष्परिणाम देख लिए थे। मैंने स्वयं को सुधारने का प्रयास किया और इंसान का न्याय करने और उसकी अहंकारी प्रकृति को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों को पढ़ा और अपने आपसे तुलना करते हुए आत्म-चिंतन किया। परमेश्वर के न्याय करने और प्रकट करने वाले वचनों, साथ ही सभाओं में भाई-बहनों की सहभागिता के द्वारा मुझे अपनी अहंकारी प्रकृति का सतही ज्ञान होने लगा। मैंने जाना कि वास्तव में मैं दूसरों से बेहतर नहीं हूँ, मुझे जो योग्यता और धन-दौलत प्राप्त हुई है, वह सब परमेश्वर की देन है। इसलिए मेरे पास ऐसा कुछ नहीं जिसका मैं अहंकार करूँ। अगर परमेश्वर ने मुझे बुद्धि और ज्ञान न दिया होता, अगर परमेश्वर ने मुझे आशीष न दिया होता, तो मैं स्वयं पर निर्भर रहकर क्या कर पाता? दुनिया में इतने प्रतिभाशाली लोग हैं; वे इतनी मेहनत और भाग-दौड़ करके भी आजीवन खाली हाथ क्यों रह जाते हैं? मुझे परमेश्वर के वचनों में अपनी अहंकारी प्रकृति को दूर करने का मार्ग भी मिल गया, जिसके मुताबिक मुझे भाई-बहनों के संग काट-छाँट और निपटाए जाने को और ज़्यादा स्वीकारना था, परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शुद्धिकरण को और अधिक स्वीकारना था, परमेश्वर के वचनों की रोशनी में आत्म-मंथन और आत्म-ज्ञान प्राप्त करना था, स्वयं से घृणा करनी थी और शैतानी स्वभाव के अनुसार काम करने के बजाय परमेश्वर के वचनों के अनुरूप कार्य करना था। उसके पश्चात मुझे न्याय और ताड़ना दिए जाने के, काट-छाँट और निपटाए जाने के बहुत से अनुभव हुए, मैंने विध्न और असफलताओं के अनेक अनुभव किए। धीरे-धीरे मुझे अपनी शैतानी प्रकृति और भ्रष्ट सार का गहरा ज्ञान होगा गया। मुझे परमेश्वर की महानता, धार्मिकता और पवित्रता की भी सतही समझ होती गयी। मैंने परमेश्वर की धार्मिकता और पवित्रता को जितना जाना, उतना ही मैंने अपनी मलिनता, नीचता, तुच्छता और दयनीयता को देखा। जिन चीज़ों को पहले मैं बहुत महत्वपूर्ण मानता था या जिन्हें लेकर मैं शेखी बघारता था, मुझे महसूस हुआ कि वे निरर्थक हैं। इससे पहले कि मैं जान पाता, मेरा अहंकारी स्वभाव बदलने लगा। अगर भाई-बहनों, सहकर्मियों या परिवारजनों में से किसी की भी बात मुझे सही लगती, तो मैं उसे मान लेता। अब मैं लोगों से उन्हें नीचा दिखाने वाले अंदाज़ में बात नहीं करता था, बल्कि मैं उनके साथ विनम्रता से पेश आता था और अपनी मनमर्ज़ी नहीं चलाता था। अगर कोई समस्या आती, तो मैं दूसरों से चर्चा करता था, और जिसका सुझाव सही होता था, उसके अनुसार कार्य करता था। धीरे-धीरे अपने आस-पास के लोगों के साथ मेरे संबंध सामान्य होने लगे। मुझे अपने दिल में सुकून और आनंद का एहसास होने लगा, मुझे लगा कि आखिरकार मैं थोड़ा-बहुत इंसानियत का जीवन जीने लगा हूँ।
लगातार परमेश्वर के वचनों को पढ़कर और कलीसियाई जीवन जी कर, मुझे इस बात का बहुत अधिक एहसास हुआ कि वाकई यह कितनी बड़ी बात है कि मैं परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर पाया। मैंने सचमुच अनुभव किया कि मेरे पास अपनी भ्रष्टता को दूर करने का और कोई तरीका नहीं था। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना से ही धीरे-धीरे मुझमें बदलाव आया और मैं शुद्ध हुआ। मैं देखता हूँ कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया में, सत्य का अनुसरण करने के लिए भाई-बहन मेहनत कर रहे हैं और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर रहे हैं। जब कभी किसी में भ्रष्टता प्रकट होती है, तो दूसरे लोग इस बारे में उसे बताकर एक-दूसरे की मदद करते हैं। हम लोग आत्म-चिंतन करते हैं, परमेश्वर के वचनों की रोशनी में स्वयं को जानते हैं और अपनी भ्रष्टता को दूर करने के लिए सत्य की खोज करते हैं। हर कोई ईमानदार, पवित्र और साफदिल का बनने का अभ्यास करता है; जो भी सहभागिता सत्य के अनुरूप होती है, हम लोग उसे स्वीकार करते हैं और उसके प्रति समर्पित होते हैं। इस तरह हमारे भ्रष्ट स्वभावों में अधिकाधिक बदलाव आता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सचमुच इंसान को शुद्ध और परिवर्तित कर सकते हैं। देहधारी परमेश्वर हमारे बीच आया है, वह हमारा न्याय करने और हमें शुद्ध करने के लिए निजी तौर पर अपने वचन व्यक्त करता है। वह हमारे पापों को दूर करने और हमें पूरी तरह से बचाने के लिए राह दिखाता है। हम बहुत ही भाग्यशाली हैं! उन सभी सच्चे विश्वासियों का विचार करते हुए जो अधीरता से उसकी वापसी का इंतज़ार कर रहे हैं, जो पाप-बंधन से मुक्त होने और शुद्ध किए जाने के लिए तड़प रहे हैं, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और संकल्प किया : "मैं तेरा राज्य सुसमाचार लोगों में प्रचारित करना चाहता हूँ ताकि वे मेरी तरह बन सकें, तेरे पदचिह्नों पर चल सकें और शुद्धिकरण व पूर्ण उद्धार के मार्ग पर आगे बढ़ सकें!"
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?