पद-प्रतिष्ठा की बेड़ियों को तोड़कर मुझे बहुत हल्कापन महसूस होता है
मेरा नाम लियांग झी है। मैंने छ्ह वर्ष पहले परमेश्वर के अंत के दिनों के उद्धार को स्वीकार किया था। एक बार, हमारी कलीसिया के प्रजातांत्रिक चुनावों में, मुझे कलीसिया का अगुवा चुना गया। इस अनपेक्षित ख़बर से मेरे अंदर जोश पैदा हो गया। मैंने सोचा: "सारे भाई-बहनों में मेरा कलीसिया का अगुवा चुना जाना और तमाम कलीसिया के कामों के लिये उत्तरदायी होना दिखाता है कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ!" जब मैंने इस बारे में सोचा, तो मेरे दिल की गहराइयों में श्रेष्ठता का भाव जड़ें जमाने लगा। मैं सिर ऊँचा करके, अकड़कर चलने लगा। भाई-बहनों के साथ होने वाली सभाओं में भी मैं ऊर्जा से भरा रहता। लेकिन कुछ समय के बाद, मैंने गौर किया कि मैं जिस बहन के साथ काम करता था, उसके अंदर अच्छी कार्यक्षमता है, वह सत्य पर बहुत ही स्पष्टता से सहभागिता करती है। जब भाई-बहन कोई समस्या उसके सामने रखते थे, तो वह समस्या के मूल को पकड़ लेती थी और उनके साथ सहभागिता करती थी कि किस तरह से उस समस्या को दूर किया जा सकता है और वह उन्हें अभ्यास का मार्ग भी बताती थी। सभी भाई-बहन उसकी सहभागिता को सुनना चाहते थे। इस स्थिति को देखकर, मुझे उससे ईर्ष्या और जलन होने लगी। मैं इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं था कि वह मुझसे आगे निकल गई। मैं हर सभा से पहले, सावधानी से भाई-बहनों की स्थिति और समस्याओं से संबंधित तैयारी करने लगा, और दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगा कि मैं किस तरह उस बहन से अधिक विस्तृत रूप से, ज़्यादा प्रबुद्ध करने वाले तरीके से सहभागिता करूँ। मेरी सहभागिता के बाद, अगर मैं देखता कि सभी भाई-बहन स्वीकृति में अपना सिर हिला रहे हैं, तो मुझे बड़ी ख़ुशी और संतुष्टि का एहसास होता। लेकिन अगर भाई-बहनों की प्रतिक्रिया ठंडी होती, तो मैं बहुत दुखी और कुंठित हो जाता। बाद में, मुझे पता चला कि मैं जिस भाई के साथ काम करता था, उसे फ़िल्म निर्माण की काफ़ी अच्छी जानकारी है, वह कम्प्यूटर का भी अच्छा जानकार था। मैंने देखा कि फ़िल्म शूट करते समय जब भाई-बहनों को कोई समस्या आती थी, तो वो उसे ढूँढ़ते थे। मैं कलीसिया का प्रभारी तो था, लेकिन कोई मेरी राय नहीं लेता था—मुझे लगता था कि मैं गाड़ी के पाँचवां पहिया जिसकी किसी को ज़रूरत नहीं है। मैं वाकई बेचैन और नाख़ुश रहता। मुझे लगा: "जब भी कोई समस्या होती है, तो भाई-बहन उसे पकड़ते हैं, तो क्या उन्हें यह लगता है कि वह मुझसे ज़्यादा बेहतर है? अगर मैं फ़िल्म निर्माण भी सीख लूँ तो अच्छा रहेगा। इस तरह, जब भी भाई-बहनों को कोई समस्या पेश आएगी, तो वे मेरे पास आएँगे।" तो इस तरह, मैं सुबह से शाम तक, संबंधित जानकारी ढूँढ़ता और अध्ययन करता कि फ़िल्म कैसे बनाई जाती है। इधर मैं अपनी पद-प्रतिष्ठा के लिये जी-जान से लगा हुआ था, उधर कलीसिया के हर समूह के काम में, एक के बाद एक समस्याएँ खड़ी होती जा रही थीं। मैं चाहे कितनी भी सभाएँ या सहभागिता करता, लेकिन उसका कोई फ़ायदा नहीं हो रहा था। मैं इतने दबाव में आ गया कि साँस लेना भी मुश्किल हो रहा था, मेरा दिल दुखी था। मैंने सोचा: "भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे ये सोचेंगे कि अगुवा होने के बावजूद, मेरे अंदर काम करने का हुनर नहीं है, मैं इस काम को करने के काबिल नहीं हूँ? लगता है कि मैं अधिक समय तक अगुवा के पद नहीं टिक सकूँगा।" मैं इस पर जितना सोचता, उतना ही ज़्यादा मैं नकारात्मक होता जाता। मेरी स्थिति किसी पिचकी हुई फुटबॉल जैसी हो गई; पहले जैसी ऊर्जा ही नहीं रही। आख़िरकार, चूँकि मैं लगातार नकारात्मकता की स्थिति में जी रहा था, इसलिए अपने काम में भी ढीला पड़ गया था, मैंने पवित्र आत्मा के कार्य को गँवा दिया था। मैंने अपने कर्तव्य के निर्वाह में कुछ भी ऐसा हासिल नहीं किया था जो वास्तविक हो। अत: मुझे हटा दिया गया। उस समय, मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी सारी साख ख़त्म हो गई। जी चाहता था कि धरती फटे और मैं उसमें समा जाऊँ। साथ ही, मुझे यह लगा: "क्या भाई-बहन मेरी पीठ पीछे मुझे झूठा अगुवा कहेंगे, क्या यह कहेंगे कि मैं सिर्फ़ पद-प्रतिष्ठा और लाभ के पीछे भाग रहा था, मैंने कोई वास्तविक कार्य नहीं किया?" मैं इस पर जितना सोचता, मेरे दिल में उतनी ही गहरी टीस उठती, जैसे फटकार के ढेरों स्वर मेरे कानों में गूँज रहे हों ...
उस रात, मैं बिस्तर पर पड़ा करवटें बदलता रहा। नींद मेरी आँखों से कोसों दूर थी। मैं बार-बार बस प्रार्थना कर रहा था और मार्गदर्शन के लिये परमेश्वर को पुकार रहा था ... उसके बाद, मैंने परमेश्वर के ये वचन देखे जो कहते हैं: "तुम लोगों की खोज में, तुम्हारी बहुत सी व्यक्तिगत अवधारणाएँ, आशाएँ और भविष्य होते हैं। वर्तमान कार्य तुम लोगों की हैसियत पाने की अभिलाषा और तुम्हारी अनावश्यक अभिलाषाओं से निपटने के लिए है। आशाएँ, हैसियत और अवधारणाएँ सभी शैतानी स्वभाव के विशिष्ट प्रतिनिधित्व हैं। लोगों के हृदय में इन चीज़ों के होने का कारण पूरी तरह से यह है कि शैतान का विष हमेशा लोगों के विचारों को दूषित कर रहा है, और लोग शैतान के इन प्रलोभनों से पीछा छुड़ाने में हमेशा असमर्थ रहे हैं। वे पाप के बीच रह रहे हैं, मगर इसे पाप नहीं मानते, और अभी भी सोचते हैं: 'हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए उसे हमें आशीष प्रदान करना चाहिए और हमारे लिए सब कुछ सही ढंग से व्यवस्थित करना चाहिए। हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए हमें दूसरों से श्रेष्ठतर होना चाहिए, और हमारे पास दूसरों की तुलना में बेहतर हैसियत और बेहतर भविष्य होना चाहिए। चूँकि हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए उसे हमें असीम आशीष देनी चाहिए। अन्यथा, इसे परमेश्वर पर विश्वास करना नहीं कहा जाएगा।' ... अब तुम लोग अनुयायी हो, और तुम लोगों को कार्य के इस स्तर की कुछ समझ प्राप्त हो गयी है। लेकिन, तुम लोगों ने अभी तक हैसियत के लिए अपनी अभिलाषा का त्याग नहीं किया है। जब तुम लोगों की हैसियत ऊँची होती है तो तुम लोग अच्छी तरह से खोज करते हो, किन्तु जब तुम्हारी हैसियत निम्न होती है तो तुम लोग खोज नहीं करते। तुम्हारे मन में हमेशा हैसियत के आशीष होते हैं। ... जितना अधिक तू इस तरह से तलाश करेगी उतना ही कम तू पाएगी। हैसियत के लिए किसी व्यक्ति की अभिलाषा जितनी अधिक होगी, उतनी ही गंभीरता से उसके साथ निपटा जाएगा और उसे उतने ही बड़े शुद्धिकरण से गुजरना होगा। इस तरह के लोग निकम्मे होते हैं! उनके साथ अच्छी तरह से निपटने और उनका न्याय करने की ज़रूरत है ताकि वे इन चीज़ों को पूरी तरह से छोड़ दें। यदि तुम लोग अंत तक इसी तरह से अनुसरण करोगे, तो तुम लोग कुछ भी नहीं पाओगे। जो लोग जीवन का अनुसरण नहीं करते वे रूपान्तरित नहीं किए जा सकते; जिनमें सत्य की प्यास नहीं है वे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते। तू व्यक्तिगत रूपान्तरण का अनुसरण करने और प्रवेश करने पर ध्यान नहीं देती; बल्कि तू हमेशा उन अनावश्यक अभिलाषाओं और उन चीज़ों पर ध्यान देती है जो परमेश्वर के लिए तेरे प्रेम को बाधित करती हैं और तुझे उसके करीब आने से रोकती हैं। क्या ये चीजें तुझे रूपान्तरित कर सकती हैं? क्या ये तुझे राज्य में ला सकती हैं?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। "कुछ लोग हमेशा इस बात डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनकी प्रसिद्धि को चुरा लेंगे और उनसे आगे निकल जाएंगे, अपनी पहचान बना लेंगे जबकि उनको अनदेखा कर दिया जाएगा। इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह अपने से ज़्यादा सक्षम लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या ऐसा व्यवहार स्वार्थी और घिनौना नहीं है? यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुर्भावनापूर्ण है! सिर्फ़ खुद के बारे में सोचना, सिर्फ़ अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करना, दूसरों के कर्तव्यों पर कोई ध्यान नहीं देना, और सिर्फ़ अपने हितों के बारे में सोचना और परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचना—इस तरह के लोग बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर के पास उनके लिये कोई प्रेम नहीं है। अगर तुम वाकई परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार कर पाने में सक्षम होगे। अगर तुम किसी व्यक्ति की सिफ़ारिश करते हो, और वह व्यक्ति एक प्रतिभाशाली इंसान बन जाता है, जिससे परमेश्वर के घर में एक और प्रतिभाशाली व्यक्ति का प्रवेश होता है, तो क्या ऐसा नहीं है कि तुमने अपना काम अच्छी तरह पूरा किया है? तब क्या तुम अपने कर्तव्य के निर्वहन में वफ़ादार नहीं रहे हो? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है, यह एक तरह का विवेक और सूझ-बूझ है जो इंसानों में होनी चाहिए" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मेरे पद-प्रतिष्ठा, दौलत-शोहरत और लाभ के पीछे भागने वाले अंदरूनी सार को उजागर कर दिया था। मेरे अंदर भयंकर बेचैनी थी। जब से मैंने कलीसिया के अगुवा का पदभार ग्रहण किया था, तब से मैंने अपने आपको पूरे जोश से उस काम में खपाया था। इसलिये मैं स्वयं को एक ऐसा इंसान समझता था जो सत्य का अनुसरण करता है। लेकिन अब चूँकि मेरी सच्चाई मेरे आगे उजागर हो चुकी थी, परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का सामना करके, अंतत: मैंने परमेश्वर में अपनी आस्था की भ्रष्टता को देख लिया था। मैंने आत्म-मंथन किया कि मैं किस तरह जब भी भाई-बहनों के साथ मिलकर परमेश्वर के वचनों पर सहभागिता करता था, तो मैं यह सहभागिता परमेश्वर के उत्कर्ष के लिये या परमेश्वर की गवाही देने के लिये नहीं करता था, जिससे कि हर कोई परमेश्वर के वचनों के सत्य को समझ सके, परमेश्वर की इच्छा को जान सके कि परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिये किस प्रकार अभ्यास करना है। बल्कि, मैं अपनी सारी ऊर्जा इस काम में लगाता था कि मैं किस तरह उस बहन से बेहतर प्रदर्शन कर सकूँ, भाई-बहनों को अपनी बात से किस प्रकार सहमत करा सकूँ, उनसे अपनी सराहना करा सकूँ, ताकि उनके दिल में मेरी एक अच्छी छवि बन जाए, और आगे के लिये भी मेरा ओहदा पक्का हो जाए। जब मैंने देखा कि वह भाई पेशेवर रूप से मुझसे से ज़्यादा काबिल है और कोई समस्या आने पर सारे भाई-बहन उसके पास ही जाते हैं, वे लोग मेरी राय नहीं लेते, तो मेरे अंदर उसके प्रति ईर्ष्या का भाव पैदा हो जाता और मैं उसे बाहर कर देता। मुझे डर था कि वह कहीं उनका सारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करके मुझे शक्तिहीन न कर दे। इसलिये अपनी जगह पक्की करने के लिये मैंने फ़िल्म निर्माण के बारे में ज़्यादा ज्ञान अर्जित करने का विचार किया। कलीसिया में आने वाली समस्या को न सुलझा पाने पर, मैं न तो प्रार्थना करने के लिये परमेश्वर के समाने जाता, न मैंने परमेश्वर पर भरोसा करता। मैं भाई-बहनों के साथ मिलकर समस्या को सुलझाने के लिये सत्य की खोज भी नहीं करता। बल्कि मैं दिन-रात अपनी पद-प्रतिष्ठा के लाभ-हानि के विचारों में ही उलझा रहा। मुझे यही डर लगा रहता कि अगर मैंने ढंग से काम नहीं किया तो कहीं मैं अपना अगुवा का पद न गँवा दूँ। मैंने देखा कि मैं सत्य पर अमल करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिये अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं कर रहा था, अपना काम करते समय, मैं अपने स्वभाव में बदलाव लाने का प्रयास भी नहीं कर रहा था। बल्कि, मैं अपने काम को अपने करियर की तरह देख रहा था, इसे एक औज़ार की तरह देख रहा था जिसका इस्तेमाल करके मैं भीड़ में अलग दिखाई दूँ और नाम कमा सकूँ। मैं इसी उधेड़-बुन में लगा रहता था कि कैसे दिखावा करके अपने आपको साबित करूँ, लोगों से सम्मान और उनकी प्रशंसा प्राप्त करूँ, कैसे अपनी महत्वाकांक्षाओं और ख़्वाहिशों को पूरा करके, दूसरों से ऊँचा उठ जाऊँ। मैं अपने कर्तव्य के निर्वाह में अच्छे कर्मों का संचय नहीं कर रहा था, बल्कि मैं पूरी तरह से सिर्फ़ नाम, लाभ और पद-प्रतिष्ठा के लिये जी रहा था!
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ा जिनमें लिखा है: "मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंज़िल, उसकी आयु, वरिष्ठता, पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिल्कल भी तय नहीं करता बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम्हें यह अवश्य समझना चाहिए कि वे सब जो परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते हैं, दण्डित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, मैं उसकी इच्छा को समझ गया। जब परमेश्वर किसी के अंत को तय करता है, तो वह यह नहीं देखता कि उसकी पद-प्रतिष्ठा का स्तर कितना ऊँचा या नीचा है, वह कितना वरिष्ठ है, उसने परमेश्वर के लिये कितना काम किया है या उसने कितने दुख उठाए हैं। बल्कि, परमेश्वर किसी के अंत को इस आधार पर तय करता है कि वह सत्य पर अमल करता है या नहीं, वह सत्य को हासिल करता है या नहीं, उसका जीवन स्वभाव बदला है या नहीं। मैंने बरसों परमेश्वर में आस्था रखी लेकिन कभी भी वास्तव में सत्य पर अमल करने या परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का प्रयत्न नहीं किया। बल्कि, मैं लगातार शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा के पीछे भागता रहा, किन चीज़ों का अनुसरण करना चाहिए, इस पर मेरे विचार परमेश्वर की अपेक्षाओं के बिल्कुल विपरीत थे। इन तमाम बातों का परिणाम यह हुआ कि, परमेश्वर में बरसों आस्था रखने के बावजूद, मैं किसी भी सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाया, मेरा जीवन स्वभाव ज़रा-सा भी नहीं बदला। सभाओं में, मैं परमेश्वर के वचनों के अनुभवों या ज्ञान पर कभी नहीं बोल पाया, बल्कि मैं लोगों को बेवकूफ़ बनाने के लिये अक्सर सिद्धांतों और शब्दों पर उपदेश देता रहा। इस तरह मैंने पवित्र आत्मा के कार्य को गँवा दिया और मैं अपने कर्तव्यों के निर्वाह में कुछ भी हासिल नहीं कर पाया। अगर मैं गलत मार्ग पर चलना जारी रखता, तो आख़िरकार परमेश्वर द्वारा मुझे निष्कासित कर दिया जाता, और मैंने परमेश्वर द्वारा अपने उद्धार के अवसर को गँवा दिया होता। अब जब इन बातों पर सोचता हूँ, तो मुझे एहसास होता है कि मेरा हटाया जाना परमेश्वर का धार्मिक न्याय और ताड़ना है। परमेश्वर ने यह काम मेरी शोहरत और लाभ पाने के प्रयास की महत्वाकांक्षा और ख़्वाहिश से निपटने और इन्हें शुद्ध करने के लिये किया था। वह सत्य पर अमल करने के मार्ग पर मेरा मार्गदर्शन कर रहा था—परमेश्वर मुझे बचा रहा था! उस पल, मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गया, मैं प्रार्थना के लिये परमेश्वर के सामने आने से ख़ुद को रोक न पाया: "हे परमेश्वर, मैं आपके न्याय और ताड़ना के लिये आपको धन्यवाद देता हूँ, आपने मुझे एहसास कराया कि मैं गलत मार्ग पर जा रहा हूँ। आपने मुझे दृष्टि दी कि मैं यह देख सकूँ कि शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा के पीछे भागने के कितने ख़तरनाक नतीजे होते हैं। हे परमेश्वर, मैं आपकी शरण में लौट आना चाहता हूँ, मैं शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा का त्याग कर देना चाहता हूँ। मैं सत्य के अभ्यास के मार्ग पर चलने का चयन करता हूँ ताकि मैं आपके हृदय को सुख पहुँचा सकूँ।"
काफ़ी समय तक आध्यात्मिक भक्ति और आत्म-मंथन करने के बाद, धीरे-धीरे मेरी स्थिति में सुधार आने लगा। कलीसिया के अगुवा ने ऐसी व्यवस्था की कि मैं नए विश्वासियों का सिंचन करूँ। मैं परमेश्वर का बहुत कृतज्ञ था कि उसने मुझे अपने कर्तव्यों के निर्वाह के लिये एक अवसर प्रदान किया। मैंने मन ही मन संकल्प किया: "मैं अपने कर्तव्यों के निर्वाह के लिये इस अवसर का पूरा लाभ उठाऊँगा। मैं शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा के पीछे भागने की गलती को नहीं दोहराऊँगा।!" उसके बाद, मैं अपने काम के दौरान आने वाली समस्याओं पर, सभी भाई-बहनों से चर्चा करता, और उनके सुझावों को सुनकर उन्हें अपनाता। मेरे अंदर जब कभी शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा की लालसा सिर उठाती, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता, मैं अर्थपूर्ण ढंग से परमेश्वर के उन वचनों को पढ़ता जो इंसान के भ्रष्ट सार के न्याय से संबंधित होते। फिर मैं उन वचनों के अनुसार अभ्यास करता। कुछ समय तक इस अनुभव के बाद, मैंने कुछ हद तक शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा की लालसा का त्याग कर दिया था। लेकिन फिर भी, थोड़ी-बहुत समझ हासिल करके, शोहरत और लाभ के पीछे भागने वाली, दूसरों से ऊपर उठने के लिए संघर्ष करने वाली मेरी शैतानी प्रकृति में हमेशा के लिये सुधार नहीं किया जा सका था। पूरी तरह शुद्धिकरण और बदलाव से पहले, मुझे न्याय और ताड़ना से गुज़रने की ज़रूरत थी।
कई महीनों के बाद, मुझे उजागर करने और बचाने के लिये, परमेश्वर ने फिर से एक परिवेश की रचना की। चूँकि पिछले कुछ दिनों से, अधिक से अधिक लोग अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य की जाँच-पड़ताल कर रहे थे, उसे स्वीकार कर रहे थे, और नए विश्वासियों के सिंचन और समर्थन के काम की व्यस्तता बढ़ती जा रही थी, हमारी कलीसिया के अगुवा ने कहा हमें किसी नए समूह अगुवा को चुनना होगा जो इस काम के दायित्व को संभाल सके। जैसे ही मैंने लोगों को यह कहते सुना: "हमारे समूह के सात लोगों में, भाई झांग काम में शायद सबसे काबिल हैं। उनमें धार्मिकता की समझ है, वह सत्य पर बहुत ही व्यवहारिक तरीके से सहभागिता करते हैं, वह कलीसिया के कार्य को सक्रिय रूप से सुरक्षित रखने के योग्य हैं। उनके समूह अगुवा चुने जाने की संभावना सबसे ज़्यादा है", मैं मन ही मन संभावनाओं को तौलने लगा। लेकिन फिर मुझे याद आया कि कैसे पहले मैं कलीसिया का अगुवा हुआ करता था और कैसे भाई झांग कौन सा काम करेगा इस की व्यवस्था हमेशा मैं किया करता था। अगर इस बार उसे समूह अगुवा चुन लिया गया, तो फिर हमेशा मुझे वही करना पड़ेगा, जो वह कहेगा, और इससे यह ज़ाहिर हो जाएगा कि मेरा कद उससे छोटा है। फिर मैं लोगों से नज़रें कैसे मिलाऊँगा? यह सोचकर मैं बहुत परेशान हो गया। जिस दिन हमें अपना समूह अगुवा चुनना था, उस दिन मैं बेचैन हो गया, मेरा दिमाग लगातार संघर्ष कर रहा था। मैं किसे वोट दूँ? भाई झांग को? लेकिन जब मैंने यह सोचा कि कैसे भाई-बहन अपनी मुश्किलों पर चर्चा करने के लिए उसके पास जाते हैं, तो मुझे थोड़ी ईर्ष्या होने लगी। मेरी इच्छा नहीं हुई कि उसे वोट दूँ। तो क्या अपने आपको वोट दूँ? लेकिन मैं जानता था कि मैं भाई झांग जितना काबिल नहीं हूँ। लेकिन अगर बाकी भाई-बहनों ने मुझे वोट नहीं दिया, तो मैं समूह का अगुवा नहीं बन पाऊँगा। मेरा मन उस वक्त इतना ज़्यादा खिन्न हो गया कि मेरे दिमाग में एक दुष्ट विचार आया: "अगर मैं समूह का अगुवा नहीं बन सकता, तो तुम्हें भी नहीं बनने दूँगा।" इस तरह, मैंने भाई वू को वोट दे दिया। उसके साथ मेरी बनती तो थी लेकिन वह उतना योग्य नहीं था। लेकिन अंतत: भाई झांग को ही समूह का अगुवा चुना गया। मैं इस परिणाम से ख़ुश नहीं था, लेकिन मेरे मन को एक अजीब-सी बेचैनी ने घेर लिया। मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने कुछ ऐसा किया है जो ईमानदारी का काम बिल्कुल भी नहीं था। उस दिन घर लौटते समय, मैंने अपनी उन तमाम हरकतों और सोच पर आत्म-मंथन किया जो मैंने मतदान के दिन दिखाई थी। मैं भाई झांग को वोट देने को तैयार क्यों नहीं था? मुझे डर था कि भाई झांग मुझसे आगे निकल जाएगा। क्या मैं एक बार फिर से शोहरत और लाभ हासिल करने की उसी दशा में नहीं आ गया था? मैं बहुत दुखी हो गया। जब मुझे शोहरत और लाभ नहीं चाहिये, तो मैं क्यों हर बार ऐसी स्थिति आने पर, उन्हीं पुरानी हरकतों पर उतर आता हूँ? मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए उससे मुझे प्रबुद्ध करने, मेरा मार्गदर्शन करने को कहा ताकि मैं इस समस्या के मूल स्रोत का पता लगा सकूँ। घर आकर, मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा: "शैतान मनुष्य को मजबूती से अपने नियन्त्रण में रखने के लिए किस का उपयोग करता है? (प्रसिद्धि एवं लाभ का।) तो, शैतान मनुष्य के विचारों को नियन्त्रित करने के लिए प्रसिद्धि एवं लाभ का तब तक उपयोग करता है जब तक लोग केवल और केवल प्रसिद्धि एवं लाभ के बारे में सोचने नहीं लगते। वे प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए कठिनाइयों को सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए जो कुछ उनके पास है उसका बलिदान करते हैं, और प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते वे किसी भी प्रकार की धारणा बना लेंगे या निर्णय ले लेंगे। इस तरह से, शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनके पास इन्हें उतार फेंकने की न तो सामर्थ्य होती है न ही साहस होता है। वे अनजाने में इन बेड़ियों को ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पाँव घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते, मनुष्यजाति परमेश्वर को दूर कर देती है और उसके साथ विश्वासघात करती है, तथा निरंतर और दुष्ट बनती जाती है। इसलिए, इस प्रकार से एक के बाद दूसरी पीढ़ी शैतान के प्रसिद्धि एवं लाभ के बीच नष्ट हो जाती है। अब शैतान की करतूतों को देखने पर, क्या उसकी भयानक मंशाएँ बिलकुल ही घिनौनी नहीं हैं? हो सकता है कि आज तुम लोग अब तक शैतान की भयानक मंशाओं की वास्तविक प्रकृति को नहीं देख पा रहे हो क्योंकि तुम लोग सोचते हो कि प्रसिद्धि एवं लाभ के बिना कोई जी नहीं सकता है। तुम सोचते हो कि यदि लोग प्रसिद्धि एवं लाभ को पीछे छोड़ देते हैं, तो वे आगे के मार्ग को देखने में समर्थ नहीं रहेंगे, अपने लक्ष्यों को देखने में समर्थ नहीं रह जायेँगे, उनका भविष्य अंधकारमय, मद्धिम एवं विषादपूर्ण हो जाएगा। परन्तु, धीरे-धीरे तुम सभी लोग यह समझ जाओगे कि प्रसिद्धि एवं लाभ ऐसी भयानक बेड़ियाँ हैं जिनका उपयोग शैतान मनुष्य को बाँधने के लिए करता है। जब वो दिन आएगा, तुम पूरी तरह से शैतान के नियन्त्रण का विरोध करोगे और उन बेड़ियों का पूरी तरह से विरोध करोगे जिनका उपयोग शैतान तुम्हें बाँधने के लिए करता है। जब वह समय आएगा कि तुम उन सभी चीज़ों को फेंकने की इच्छा करोगे जिन्हें शैतान ने तुम्हारे भीतर डाला है, तब तुम शैतान से अपने आपको पूरी तरह से अलग कर लोगे और तुम सच में उन सब से घृणा करोगे जिन्हें शैतान तुम तक लाया है। केवल तभी मानवजाति के पास परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम और लालसा होगी" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)।
"जिस इंसान के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है, उसका व्यवहार किस तरह का होगा? (वे सिर्फ़ ऐसा काम नहीं करेंगे जो उनके मन मुताबिक हो या वे बेतुके ढंग से काम नहीं करेंगे।) तो फिर एक व्यक्ति को ऐसा क्या करना चाहिए जिससे कि वह अपनी मनमर्ज़ी से काम न करे? (उसके पास एक खोजी हृदय होना चाहिए।) कुछ लोग यह महसूस कर सकते हैं कि उनकी सोच गलत है, लेकिन वे दूसरों के सही सुझावों को भी सुनने के इच्छुक नहीं रहते हैं, यह सोचते हुए कि: 'मैं उससे बेहतर हूँ। अगर मैं अब उसके सुझाव को सुनता हूँ, तो ऐसा लगेगा कि वह मुझसे श्रेष्ठ है! नहीं, मैं इस मामले में उसकी बात नहीं सुन सकता। मैं यह काम सिर्फ़ अपने तरीके से करूंगा।' फिर वे दूसरे व्यक्ति को बाहर करने के लिए एक कारण और एक बहाना ढूंढ लेते हैं। अगर वे किसी व्यक्ति को अपने से बेहतर काम पाते हैं, तो वे उस व्यक्ति को दबाते हैं, उसके बारे में अफ़वाह फैलाना शुरू कर देते हैं, या किसी तरह के अनैतिक साधनों का प्रयोग करते हैं जिससे कि दूसरे व्यक्ति उसे अधिक महत्व न दे सकें, और यह कि कोई भी किसी दूसरे व्यक्ति से बेहतर नहीं है, तो यह अभिमान और दंभ के साथ-साथ धूर्तता, धोखेबाज़ी और कपट का भ्रष्ट स्वभाव है, और इस तरह के लोग अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। वे इसी तरह का जीवन जीते हैं और फिर भी यह सोचते हैं कि वे महान हैं और वे नेक हैं। लेकिन, क्या उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? सबसे पहले, इन बातों की प्रकृति के परिप्रेक्ष्य से बोला जाये, तो क्या इस तरीके से काम करने वाले लोग बस अपनी मनमर्ज़ी से काम नहीं कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के परिवार के हितों पर विचार करते हैं? वे परमेश्वर के परिवार के कार्य को होने वाले नुकसान की परवाह किये बिना, सिर्फ़ अपनी खुद की भावनाओं के बारे में सोचते हैं और वे सिर्फ़ अपने लक्ष्यों को हासिल करने की बात सोचते हैं। इस तरह के लोग न केवल अभिमानी और आत्मतुष्ट हैं, बल्कि वे स्वार्थी और घिनौने भी हैं; वे परमेश्वर के इरादों की बिल्कुल भी परवाह नहीं करते, और निस्संदेह, इस तरह के लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता। यही कारण है कि वे वही करते हैं जो करना चाहते हैं और बेतुके ढंग से आचरण करते हैं, उनमें दोष का कोई बोध नहीं होता, कोई घबराहट नहीं होती, कोई भी भय या चिंता नहीं होती, और वे परिणामों पर भी विचार नहीं करते। वे परमेश्वर का भय नहीं मानते, वे अपने आपको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, और वे अपने हर पहलु को परमेश्वर से ऊंचा और सत्य से बड़ा मानते हैं। उनके दिलों में, परमेश्वर जिक्र करने के योग्य नहीं है और बिल्कुल महत्वहीन है, उनके दिलों में परमेश्वर का बिल्कुल भी कोई महत्व नहीं होता" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')।
जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, तो मैंने उन तमाम हरकतों पर विचार किया जो मैंने मतदान के दिन की थीं। मुझे अपने आप पर बहुत शर्म आई। मुझे यह बात समझ में आ गई कि मैं जिस शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा के पीछे भागता रहा हूँ, वे ऐसी अदृश्य बेड़ियाँ हैं जिन्हें शैतान हमें जकड़ने के लिये इस्तेमाल करता है। यह ऐसा तरीका है जिससे शैतान हमें धोखा देता है और भ्रष्ट करता है! मैंने उस समय को याद किया जब मैं परमेश्वर में आस्था नहीं रखता था, जब मैं शैतान के इन विचारों और दृष्टिकोण को "एक व्यक्ति जहां वह रहता है अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहां कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है," "पुरुषों को हमेशा अपने समकालीनों से बेहतर होने का प्रयत्न करना चाहिए," "तुम जितना अधिक सहोगे, उतना अधिक सफल होगे," और "आदमी ऊपर की ओर के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है"। को अपने जीवन का सूत्र-वाक्य और सच्ची उक्ति मानता था। मैं सत्ता और पद-प्रतिष्ठा के नशे में था। मैं शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा के पीछे भाग रहा था, दूसरों से ऊँचा उठना मेरा मकसद बन गया था और मैं इन्हीं के लिये संघर्ष कर रहा था, पूरे दम-ख़म से लड़ रहा था। शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा हासिल करने के लिये मैं हर तरह के दुख-तकलीफ़ झेलने को तैयार था। परमेश्वर में आस्था रखने के बाद से, शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा हासिल करने और दूसरों से ऊँचा उठने की फ़िराक में, मैं शैतान के इन विषों के सहारे जीना जारी रखे हुए था। लम्बे अरसे से यही चीज़ें मेरा जीवन बन चुकी थीं। इन चीज़ों के कारण मैं खुद को परमेश्वर से विद्रोह और उसका विरोध करने से रोक नहीं पा रहा था। मुझे अच्छी से तरह पता था कि समूह अगुवा के तौर पर भाई झांग कलीसिया के लिये बहुत लाभदायक सिद्ध होंगे, लेकिन उसकी काबिलियत की वजह से मैं उससे ईर्ष्या करने लगा था। मुझे डर था कि वह कहीं मुझसे आगे न निकल जाए।, इसलिये, अपनी पद-प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिये, मैंने भाई झांग को वोट देने के बजाय एक ऐसे अयोग्य व्यक्ति को समूह अगुवा के तौर पर चुने जाने के लिये अपना वोट दे दिया, भले ही इससे कलीसिया के काम को नुक्सान हो जाये। मैंने देखा कि मैं अपने कर्मों में परमेश्वर की छान-बीन को नकार रहा था, मेरा हृदय किंचित-मात्र भी परमेश्वर-भीरु नहीं था। जब भी कोई समस्या आती, तो मैं सबसे पहले अपनी पद-प्रतिष्ठा के बारे में सोचता था, मैं कलीसिया के काम की ज़रा भी चिंता नहीं कर रहा था—फिर ऐसे स्वार्थी और घृणा-योग्य व्यक्ति से परमेश्वर कैसे न चिढ़ेगा और कैसे नफ़रत न करेगा? मैंने परमेश्वर के इन वचनों पर विचार किया, "अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे," और मुझे लगा कि मैं एक बहुत ही ख़तरनाक स्थिति में हूँ। अगर मेरी हरकतें ऐसी ही रहीं, तो मैं एक ऐसा इंसान बन जाऊँगा जिससे परमेश्वर घृणा करता है, जिसे नकारता है, निष्कासित कर देता है। तभी मुझे उन फ़रीसियों की याद आई जो प्रभु यीशु के विरोधी थे। मंदिर में अपने ओहदे और सत्ता की रक्षा के लिये, उन लोगों ने प्रभु यीशु के प्रकटन की या उसके द्वारा व्यक्त सत्यों की ज़रा भी खोज नहीं की। बल्कि वे लोग प्रभु यीशु का विरोध और उसकी निंदा करने में ही लगे रहे। यहाँ तक कि उन्होंने उसे सूली पर चढ़ा दिया, जिसके कारण उन्हें परमेश्वर का दण्ड और शाप भोगना पड़ा। मैंने साफ़ तौर पर समझ लिया था कि यदि कोई परमेश्वर में आस्था तो रखता है, लेकिन वह सत्य की खोज पर ध्यान नहीं देता, सत्य में प्रवेश नहीं करता, बल्कि वह लगातार शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा के पीछे भागता है, तो वह व्यक्ति परमेश्वर की अवज्ञा करने वाले फ़रीसियों की राह पर ही चल रहा है! ये सारी बातें सोचकर, मुझे गलत राह पर चलने का डर सताने लगा, और मैंने उसी वक्त तय किया कि मैं अपने आपको शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा के बंधन से मुक्त कर लूँगा, सत्य की राह पर चलूँगा और निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य का निर्वाह करके, परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त करूँगा।
उसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों की शरण ली और ये वचन पढ़े: "जो लोग सत्य को व्यवहार में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की जाँच को स्वीकार कर सकते हैं। जब तुम परमेश्वर की जाँच को स्वीकार करते हो, तो तुम्हें गलती का एहसास होता है। यदि तुम हमेशा दूसरों को दिखाने के लिए ही काम करते हो और परमेश्वर की जाँच को स्वीकार नहीं करते, तो क्या तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है? इस तरह के लोगों के हृदय में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं होती। हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, और अपनी स्वयं की हैसियत, प्रतिष्ठा और साख पर विचार मत कर। इंसान के हितों पर गौर मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा के बारे में मननशील होना चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, क्या तूने वफादार होने के लिए अपना अधिकतम किया है, क्या अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास किया है और अपना सर्वस्व दिया है, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन चीज़ों पर बार-बार विचार कर, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा। ... इसके साथ ही, यदि तुम अपनी ज़िम्मेदारियों को निभा सको, अपने दायित्वों और कर्तव्यों को पूरा कर सको, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत अभिलाषाओं और इरादों को त्याग सको, परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रख सको, और परमेश्वर तथा उसके घर के हितों को सर्वोपरि रख सको, तो इस तरह से कुछ समय अनुभव करने के बाद, तुम पाओगे कि यह जीने का एक अच्छा तरीका है। नीच या निकम्मा व्यक्ति बने बिना, यह सरलता और नेकी से जीना है, न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है, एक संकुचित मन वाले या ओछे व्यक्ति की तरह नहीं। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही जीना और काम करना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को पूरा करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। इन वचनों ने मुझे मेरे लक्ष्य दिखाए, इंसान बनने के लिये मुझे दिशा दिखाई। मेरा दिल रोशनी से भर गया था, मैं जान गया था कि मुझे परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कैसे अभ्यास करना है। उसके बाद, मैंने आगे बढ़कर भाई झांग से खुलकर बात की, उसे मैंने बताया कि कैसे मैं लगातार शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा के पीछे भागने की मानसिकता में जी रहा था, कैसे मैं उससे ईर्ष्या रखता था। मैंने उसे वोट के समय की अपनी घृणित मंशा भी बताई। ये सब सुनकर भी, उसने मुझे नीची नज़रों से नहीं देखा, बल्कि उसने मेरी दशा से जुड़े सत्यों पर मुझसे सहभागिता की। उसने भी खुलकर अपने अनुभवों और समझ पर मुझसे चर्चा की। इस सहभागिता के बाद, हम दोनों में जो मनमुटाव था, वह समाप्त हो गया। मुझे अत्यंत उन्मुक्तता और हल्केपन का एहसास हुआ। उसके बाद, अपने काम के दौरान जब कभी मुझे किसी समस्या का सामना करना पड़ता या मुझे कुछ समझ में न आता, तो मैं भाई झांग के पास जाकर उससे सलाह लेता। वह भी तसल्ली से मेरे साथ तब तक सहभागिता करता, जब तक कि मेरा समाधान न हो जाता। मैं इस तरह से परमेश्वर के वचनों का जितना अधिक अभ्यास करता, परमेश्वर के साथ मेरे संबंध उतने ही प्रगाढ़ होते जाते। भाई-बहनों के साथ भी मेरे संबंध मज़बूत हो रहे थे। अपने कर्तव्यों के निर्वाह में भी मैं अच्छे परिणाम हासिल करता जा रहा था। मैं इस बात को अच्छी तरह से समझ गया कि शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा का त्याग करके, परमेश्वर के वचनों के सहारे जीकर, परमेश्वर की शरण में जाकर, और अपने कर्तव्यों का निर्वाह करके, इंसान परमेश्वर का आशीष प्राप्त कर लेता है, वह दिल में शांति और सुकून के साथ, सच्चा और सम्मानित जीवन जी सकता है, और परमेश्वर के साथ उसके संबंध निकट से निकटतर होते चले जाते हैं।
अक्टूबर 2017 में, कलीसिया में फिर से वार्षिक चुनाव हुए, और मुझे कलीसिया के अगुवा के प्रत्याशी के तौर पर खड़ा किया गया। मैंने जब यह समाचार सुना, तो मेरे अंदर उतना जोश नहीं था, जितना पहले हुआ करता था। बल्कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिये मैंने अपनी मानसिक दशा को व्यवस्थित किया। अब मेरे लिये चुनाव लड़ने का मतलब कलीसिया के अगुवा का पद हासिल करना नहीं रह गया था, बल्कि यह मेरे लिये इस प्रक्रिया के भाग के तौर पर अपने दायित्वों का निर्वाह करना, सत्य की खोज करना था, अगुवाओं का चयन करने के लिये कलीसिया के सिद्धांतों के अनुरूप अगुवा के रूप में एक सही व्यक्ति का चयन करना था। अगर मैं अगुवा चुना गया, तो मेरी इच्छा मात्र इतनी थी कि मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिये सच्चे मन और व्यवस्थित रूप से एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वाह करूँ; मैं वैसा नहीं बनना चाहता था जैसा मैं पहले कभी था, कि शोहरत और लाभ के पीछे भागकर परमेश्वर को दुखी करूँ। यदि मेरा चयन नहीं हुआ, तो मैं परमेश्वर को दोष नहीं दूँगा, बल्कि परमेश्वर से सहयोग करता रहूँगा, अपनी पूरी योग्यता से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करूँगा, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति पूरी तरह से समर्पित रहूँगा। चूँकि मैं परमेश्वर की ही एक रचना हूँ, इसलिये जो भी कार्य मुझे दिया जाए उसे करना मेरी ज़िम्मेदारी है। मुझे उस कार्य को पूरे दिलो-जान से करना चाहिए। जब वोट गिने गए और परिणाम आया, तो मुझे पता चला कि मुझे कलीसिया के अगुवा के तौर पर चुन लिया गया है। लेकिन मैं कोई ख़ुशी से उछलने नहीं लगा, न ही मैंने स्वयं को दूसरे भाई-बहनों से कोई बहुत श्रेष्ठ या बेहतर समझा। बल्कि, मुझे ऐसा लगा जैसे कि यह एक आदेश और एक दायित्व है, मुझे ऐसा लगा जैसे परमेश्वर ने मेरे कंधों पर अपनी आशाएँ टिका दी हैं। मुझे पता था कि मुझे पूरी मेहनत से सत्य का अनुसरण करना है, परमेश्वर सहयोग करना है, और उसकी संतुष्टि के लिये अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना है, और यह सुनिश्चित करना है कि वह जो प्यार और उद्धार मुझे प्रदान कर रहा है, मैं उस पर खरा उतरूँ।
परमेश्वर के वचन कहते हैं: "अपने जीवन में, यदि मनुष्य शुद्ध होकर अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहता है, यदि वह एक सार्थक जीवन बिताना चाहता है, और एक प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाना चाहता है, तो उसे परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करना चाहिए, और उसे परमेश्वर के अनुशासन और प्रहार को अपने-आपसे दूर नहीं होने देना चाहिए, ताकि वह खुद को शैतान की चालाकी और प्रभाव से मुक्त कर सके, और परमेश्वर के प्रकाश में जीवन बिता सके। यह जान लो कि परमेश्वर की ताड़ना और न्याय प्रकाश है, मनुष्य के उद्धार का प्रकाश है, और मनुष्य के लिए इससे बेहतर कोई आशीष, अनुग्रह या सुरक्षा नहीं है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान')।
अपने व्यवहारिक अनुभवों से मैंने वास्तव में इस बात को जाना कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना ऐसी रोशनी है, जो हमें बचाती है। वे ही परमेश्वर का परम प्रेम हैं। परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, परिष्करण और अनुशासन के कारण ही मैं साफ़ तौर पर उस नुक्सान को देख पाया जो मुझे शोहरत और लाभ की वजह से हो रहा था। इन्हीं वचनों ने मेरे अंदर सत्य का अनुशीलन करने के लिये साहस और संकल्प का संचार किया था। शोहरत, लाभ और पद-प्रतिष्ठा का त्याग करके, मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने सिर्फ़ पद-प्रतिष्ठा का ही त्याग नहीं किया, बल्कि मैं शैतान की ज़ंजीरों से भी आज़ाद हो गया हूँ। अपनी आत्मा की अनंत गहराइयों में, मुझे अभूतपूर्व शांति और आनंद की अनुभूति हुई, एक प्रकाश और मुक्ति की अनुभूति हुई। हालाँकि आज भी, कभी-कभी मेरे अंदर शोहरत और लाभ की लालसा सिर उठाती है, लेकिन अब मैं न इसके कब्ज़े में हूँ, न इसके बंधन में। अपने अनुभवों से, मैंने सीखा है कि, सत्य का अभ्यास करके, इंसान अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभावों को दूर कर सकता है। इंसान जितना अधिक सत्य का अभ्यास करेगा, उतना ही अधिक वह मनुष्य के समान जीवन जी सकता है और परमेश्वर से आशीषित हो सकता है। मुझे वास्तव में यह एहसास हुआ कि परमेश्वर ने जो भी छोटेछोटे कार्य मुझ पर किये, उन सबके लिये परमेश्वर कष्टपूर्वक कीमत चुका रहा था। परमेश्वर द्वारा मेरा उद्धार बहुत ही व्यवहारिक है। उसका प्रेम बहुत ही महान और वास्तविक है! आज से, मेरी चाहत है कि मैं और भी अधिक परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करूँ, सत्य का अनुशीलन करूँ ताकि मैं जल्दी से जल्दी अपने शैतानी स्वभावों का परित्याग कर सकूँ, और एक सच्चे इंसान की तरह जीवन जी सकूँ ताकि परमेश्वर के दिल को शांति मिले। मुझे बचाने के लिये परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?