क्या कड़ी मेहनत स्वर्ग के राज्य में प्रवेश दिला सकती है?

01 नवम्बर, 2020

मेरा जन्म एक कैथोलिक परिवार में हुआ था। हमारे पादरी हमेशा कहा करते थे कि हमें परमेश्वर के आदेशों का पालन करना चाहिए, एक-दूसरे से प्रेम करना चाहिए, सभाओं में शामिल होना चाहिए, और अच्छे कर्म करने चाहिए। उनका कहना था कि ऐसा करने वाले लोग ही निष्ठावान विश्वासी होते हैं, और जब प्रभु आयेगा, तो वह उन्हें स्वर्ग के राज्य में ले जाएगा। मैं अक्सर स्वयं को समझाती: "मुझे हमेशा परमेश्वर की बात माननी चाहिए, कलीसिया के सभी नियमों का पालन कर सक्रियता से अच्छे कर्म करने चाहिए, ताकि प्रभु मुझसे प्रेम करे और मेरे बारे में अच्छा सोचे, और जब वह वापस आये तो मुझे आशीष देकर अपने राज्य में ले जाए।"

कॉलेज में, मैंने अपनी पढ़ाई बीच में ही रोक दी, ताकि मुझे कलीसिया में सेवा करने के लिए ज़्यादा वक्त मिले। कलीसिया में आने वाले बाकी लोग जब कलीसिया में होते, प्रार्थना करते और सभाओं में शामिल होते, तो वे बहुत पवित्र लगते, मगर दूसरी जगह वे सिगरेट फूंकते, शराब पीते और असभ्य पार्टियों में ऐश करते। मुझे बहुत घृणा होती। मैं सोचती, "प्रभु हमें उससे प्रेम करना, ज़रूरतमंद लोगों की मदद करना, सभी सांसारिक प्रलोभनों से दूर रहना सिखाता है। ये लोग प्रभु में निष्ठापूर्वक विश्वास करते-से दिखाई दे सकते हैं, लेकिन वे उसके लिए वाकई कुछ भी नहीं करते। वे सांसारिक चीज़ों के लिए लार टपकाते हैं और सांसारिक सुखों के पीछे भागते हैं। क्या यह प्रभु की शिक्षाओं के खिलाफ नहीं है? मैं उन जैसी नहीं हो सकती। मैं प्रभु के लिए ज़्यादा अच्छे काम करूंगी, ताकि समय आने पर मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकूं।"

लेकिन समय बीतने के साथ, मैंने पाया कि मैं भी अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में परमेश्वर के आदेशों का पालन नहीं कर पा रही थी। जब कभी मैं कलीसिया के उन सुख-भोगी सदस्यों को खुश और आज़ाद ज़िंदगी जीते देखती, जबकि मैं मुश्किलों में घिरकर संघर्ष कर रही होती, तो मैं परमेश्वर को दोष दिये बिना नहीं रह पाती। प्रभु हमें दूसरों से भी खुद जैसा प्रेम करना सिखाता है, लेकिन मैं हमेशा लोगों से ईर्ष्या करती और उन्हें नीची नज़रों से देखती। मैं जब भी कुछ ग़लत करती, तो मेरा परिवार मुझे फटकारता, लेकिन मैं बहाने बनाती और उन पर नाराज़ होती। प्रभु हमें विनम्र और क्षमाशील होना सिखाता है, लेकिन मैं इसका पालन नहीं कर पाती थी। मैं वाकई दोषी महसूस करती थी, मानो मैं सिर्फ नाम के लिए ही विश्वासी थी। मैंने सोच-विचार करना शुरू किया: "मैं क्यों कभी भी अपने पापों से जीत नहीं पाती? हालांकि हर बार पाप करने के बाद मैं अपने पादरी के सामने उसे स्वीकार करती और उसकी भरपाई के लिए अच्छे कर्म करती, फिर भी मैं वही पाप बार-बार करती रहती। परमेश्वर मेरी जैसी आस्था को आशीष कैसे दे सकता है?" फिर मैं पादरी की हमेशा बतायी हुई उस बात को याद करती कि पाप करने के बाद हम उसके सामने स्वीकार कर लें, तो हमें क्षमा मिल जाएगी, अगर हम प्रभु के लिए काम करें और नेक कर्म करें, तो वह हम पर फिर से दया करेगा, आशीष देगा और हमें अपने राज्य में प्रवेश करने देगा। बाइबल में कहा गया है: "मैंने अच्छी लड़ाई लड़ी है, मैंने अपना रास्ता तय कर लिया है, मैंने अपनी आस्था बनाए रखी है। इसके आगे, मेरे लिए न्याय का मुकुट रखा है" (2 तीमुथियुस 4:7-8)। यह पढ़ कर मुझे सुकून मिलता। मैं सोचती कि अगर मैं सभाओं में अधिक जाया करूं, अपने पाप स्वीकार किया करूं और प्रभु के लिए खुद को खपाया करूं, तो परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने की आशा बनी रहेगी। इसलिए, मैं खुद को नेक कर्मों में व्यस्त रखने लगी। मैं रोगियों और कैदियों के पास जाती और एक अनाथालय में स्वयंसेवी का काम करती।

2017 में एक दिन, हमेशा की तरह मैं फेसबुक पर जाकर ख़बरों पर नज़र दौड़ाने लगी कि अचानक मैंने एक बहन बैटी द्वारा पोस्ट किया हुआ एक अंश देखा। "यद्यपि बहुत सारे लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन कुछ ही लोग समझते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप बनने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए। ... 'परमेश्वर में विश्वास' का अर्थ यह मानना है कि परमेश्वर है; यह परमेश्वर में विश्वास की सरलतम अवधारणा है। इससे भी बढ़कर, यह मानना कि परमेश्वर है, परमेश्वर में सचमुच विश्वास करने जैसा नहीं है; बल्कि यह मजबूत धार्मिक संकेतार्थों के साथ एक प्रकार का सरल विश्वास है। परमेश्वर में सच्चे विश्वास का अर्थ यह है: इस विश्वास के आधार पर कि सभी वस्तुओं पर परमेश्वर की संप्रभुता है, व्यक्ति परमेश्वर के वचनों और कार्यों का अनुभव करता है, अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करता है, परमेश्वर की इच्छा पूरी करता है और परमेश्वर को जान पाता है। केवल इस प्रकार की यात्रा को ही 'परमेश्वर में विश्वास' कहा जा सकता है। फिर भी लोग परमेश्वर में विश्वास को अकसर बहुत सरल और हल्के रूप में लेते हैं। परमेश्वर में इस तरह विश्वास करने वाले लोग, परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ गँवा चुके हैं और भले ही वे बिलकुल अंत तक विश्वास करते रहें, वे कभी परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं करेंगे, क्योंकि वे गलत मार्ग पर चलते हैं। आज भी ऐसे लोग हैं, जो परमेश्वर में शब्दशः और खोखले सिद्धांत के अनुसार विश्वास करते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर में उनके विश्वास में कोई सार नहीं है और वे परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं कर सकते। फिर भी वे परमेश्वर से सुरक्षा के आशीषों और पर्याप्त अनुग्रह के लिए प्रार्थना करते हैं। आओ रुकें, अपने हृदय शांत करें और खुद से पूछें: क्या परमेश्वर में विश्वास करना वास्तव में पृथ्वी पर सबसे आसान बात हो सकती है? क्या परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ परमेश्वर से अधिक अनुग्रह पाने से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता है? क्या परमेश्वर को जाने बिना उसमें विश्वास करने वाले या उसमें विश्वास करने के बावजूद उसका विरोध करने वाले लोग सचमुच उसकी इच्छा पूरी करने में सक्षम हैं?" (वचन देह में प्रकट होता है)। ये वचन बहुत ताज़ातरीन और नये लगे। इसमें तुरंत मेरा मन लग गया। मैंने पहले कभी इस अंश के अंत में पोस्ट किये गए प्रश्नों पर विशेष रूप से विचार नहीं किया था। मैंने सोचा: "ये तो कमाल का है! ये किसके वचन हैं? एक छोटा-सा अंश, जो पूरी तरह से प्रकट करता है कि परमेश्वर में आस्था के क्या मायने होते हैं और अपनी आस्था से हम क्या हासिल करने का लक्ष्य बनाते हैं।" मैंने इन वचनों के बारे में सोचा और अपनी ज़िंदगी में पहली बार अपनी आस्था पर ईमानदारी से गौर किया। मैंने अपनी वर्षों की आस्था के दौर को याद किया। मैंने कलीसिया की बहुत सारी गतिविधियों और समारोहों में भाग लिया था, कलीसिया के धार्मिक सेवाकार्यों में सक्रिय रही, समुदाय में अच्छे कर्म किये, थोड़े कष्ट सहे और इसकी कीमत भी चुकायी। लेकिन मैं ये चीज़ें इसलिए करती ताकि मुझे और मेरे परिवार को परमेश्वर का आशीष और उसका संरक्षण मिल सके, और खास तौर से मैं परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सकूं। मैं हमेशा सोचती कि ऐसी चीज़ों का अनुसरण करना मेरे लिए सही है, परमेश्वर मेरी आस्था से प्रसन्न होगा, मैं उसके वायदे और आशीष पा सकूंगी। लेकिन इन वचनों को पढ़ने के बाद, मुझे अपनी आस्था के एक गहरे अर्थ के बारे में कुछ पता चला। मैंने सक्रियता से नेक कर्म किये और खुद को नकारा, सिर्फ इसलिए कि मैं बदले में राज्य के आशीष पा सकूं, यह परमेशवर के लिए सच्चा प्रेम नहीं है। परमेश्वर ऐसी आस्था को कैसे सराह सकता है? फिर मैंने सोचा कि किस तरह मैंने करीब बीस वर्ष तक हमेशा कलीसिया की धार्मिक सेवाओं से जुड़ी रह कर प्रभु में विश्वास रखा। क्या मेरे तमाम कष्ट और त्याग किसी काम के नहीं रहे? मैं इन वचनों के बारे में जितना सोच-विचार करती, उतना ही मैं देखना चाहती कि बहन बैटी की फेसबुक टाइमलाइन में और क्या है, ताकि सारा कुछ मैं सीधे अपने दिमाग़ में भर लूं। मैंने उससे संपर्क किया और फिर हम ऑनलाइन इकट्ठा हुए। यह मुलाकात बहुत ही प्रबोधक थी।

मैंने उसे बताया कि इन वचनों को पढ़ कर मुझे कैसा लगा: "बैटी, तुमने ऑनलाइन जो पोस्ट किया, वह कमाल का है। इससे मैं समझ पायी कि मैं केवल आशीष पाने के लिए प्रभु में विश्वास रखती हूँ, यह प्रभु से सच्चा प्रेम करना नहीं है। लेकिन एक बात मुझे समझ नहीं आयी। बाइबल में कहा गया है, 'मैंने अच्छी लड़ाई लड़ी है, मैंने अपना रास्ता तय कर लिया है, मैंने अपनी आस्था बनाए रखी है। इसके आगे, मेरे लिए न्याय का मुकुट रखा है' (2 तीमुथियुस 4: 7-8)। मेरे पादरी हमेशा कहते हैं कि अगर हम अच्छे कार्य और कर्म करें, तो प्रभु हमें आशीष देगा और हम उसके राज्य में प्रवेश कर पायेंगे। मैंने अपनी आस्था के वर्षों के पूरे दौर में यही किया। क्या प्रभु इसे याद नहीं रखेगा? क्या मैं वाकई उसके राज्य में प्रवेश नहीं कर पाऊँगी?"

फिर बहन बैटी ने यह संगति साझा की: "हमेशा प्रभु के लिए पसीना बहाने, त्याग करने और नेक कर्म करने से प्रभु प्रसन्न होगा, और जब वह वापस आयेगा तो हमें अपने राज्य में आरोहित करेगा। दरअसल, यह बात पौलुस ने कही थी। प्रभु यीशु ने कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहा, न ही पवित्र आत्मा ने ऐसा कहा। ये वचन सिर्फ पौलुस के निजी दृष्टिकोण को प्रकट करते हैं, ये वो नहीं हैं जो प्रभु का इरादा था। मनुष्य के कथन सत्य नहीं होते। केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य होते हैं। जब परमेश्वर के राज्य में प्रवेश की बात हो, तो परमेश्वर के वचनों को प्रधानता देनी होगी। अगर हम मनुष्य के कथनों को मानें, तो मुमकिन है हम प्रभु के मार्ग से भटक जाएं! तो फिर कौन स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने में समर्थ होता है? प्रभु यीशु स्पष्ट रूप से बताता है: 'जो मुझे हे प्रभु, हे प्रभु, पुकारते हैं, उनमें से सभी स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करेंगे: बल्कि वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करेंगे जो स्वर्ग में रहने वाले मेरे परमपिता की इच्छा को मानते हैं' (मत्ती 7:21)। यह दिखाता है कि परमेश्वर राज्य में प्रवेश तय करते समय यह नहीं देखता कि हमने कितना त्याग किया है। बजाय इसके, वह देखता है कि हम उसकी इच्छा पूरी करते हैं या नहीं। इसका मतलब यह कि राज्य में प्रवेश के लिए लोगों को अपनी पापी प्रकृति से छुटकारा पाकर शुद्ध होना होगा, परमेश्वर के वचनों का पालन और उसका आज्ञापालन करना होगा, उससे प्रेम और उसकी आराधना करनी होगी। अगर हम खूब काम करें और ढेरों त्याग करें, मगर परमेश्वर के वचनों का पालन न कर सकें, अक्सर पाप करें और परमेश्वर का प्रतिरोध करें, तो हम दुष्कर्म करने वाले होंगे। इस प्रकार का इंसान राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता। प्रभु का प्रतिरोध करने वाले यहूदी फरीसी साल-दर-साल आराधना-स्थल में परमेश्वर की सेवा करते, परमेश्वर के सुसमाचार को दूर-दूर तक फैलाते। उन्होंने बहुत कष्ट सहे, ऊंची कीमत चुकायी। बाहर से, वे परमेश्वर के प्रति निष्ठावान दिखाई देते, लेकिन उन्हें सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान करने की ही परवाह होती। वे इंसानी परंपराओं और सिद्धांतों पर कायम रहते और उन्हीं का प्रचार करते, वे परमेश्वर की व्यवस्था और आदेशों को ठुकरा देते। उनकी सेवा पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध होती और वे परमेश्वर के मार्ग से भटक जाते। जब प्रभु यीशु अपना कार्य करने आया, तो फरीसी खुल कर उसके विरोध में एकजुट हो गये, अपने पदों की रक्षा की कोशिश में लगे रहे। उन्होंने प्रभु की बेतहाशा निंदा की और उसे बदनाम किया, लोगों को उसका अनुसरण करने से रोकने की भरसक कोशिश की। आखिरकार, उन्होंने प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ाने के लिए रोमन सरकार के साथ साँठ-गाँठ की, परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया और उससे दंड पाया। यह साबित करता है कि लोग भले ही कड़ी मेहनत करें, त्याग करें, मगर इसका यह मतलब नहीं कि वे परमेश्वर की इच्छा का पालन करते हैं। भले ही लोग परमेश्वर के लिए खुद को खपायें, जब तक उन्हें पाप से शुद्ध नहीं किया जाता, वे पाप करेंगे और परमेश्वर का प्रतिरोध करेंगे। फिर हम जैसे लोग भी हैं। हालांकि हम कड़ी मेहनत करते-से दयावान-से दिखाई देते हैं, हम कलीसिया आने वाले अपने साथियों की मदद भी करते हैं, मगर हमारा लक्ष्य आशीष पाकर परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना है। जब परमेश्वर हमें आशीष देता है, तो हम उसका धन्यवाद कर उसका गुणगान करते हैं। जब हम बीमार पड़ते हैं, या हमारे साथ कुछ बुरा घटता है, तो हम उसे दोष देकर उसको ग़लत समझते हैं, उसे धोखा भी दे सकते हैं। आम तौर पर, हम अपने त्याग और नेक कामों का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं, यह जताते हुए कि हम कितने दुख सह कर परमेश्वर के लिए काम करते हैं, ताकि लोग हमें आदर से देखें और हमारी आराधना करें, ताकि हमें शोहरत, लाभ और रुतबा हासिल हो। नापसंद लोगों और चीज़ों से सामना होने पर हम अपना आपा खो बैठते हैं, हम परमेश्वर के वचनों का पालन नहीं कर सकते। इससे हमें पता चलता है कि हम ये तमाम चीज़ें परमेश्वर के प्रति प्रेम के कारण या उसे संतुष्ट करने के लिए नहीं करते, बल्कि उससे सौदा करते हैं। हम बस अपनी महत्वाकांक्षाओं की तुष्टि के लिए परमेश्वर का इस्तेमाल कर उसे ठगते हैं। फिर हम स्वर्गिक पिता की इच्छा पूरी करने वाले लोग कैसे हो सकते हैं? बाइबल में कहा गया है: 'तुम पवित्र होगे, क्योंकि मैं पवित्र हूँ' (1 पतरस 1:16)। हम जानते हैं कि परमेश्वर पवित्र है, तो फिर परमेश्वर स्वर्ग के राज्य में हम जैसे गंदे लोगों की अगुआई कैसे कर सकता है? केवल अपनी पापी प्रकृति को उखाड़ फेंकने और आगे से परमेश्वर का विरोध न करने पर ही परमेश्वर हमारी तारीफ़ कर सकता है और हम उसके राज्य में प्रवेश के योग्य बन सकते हैं।"

उसकी बातें सुनते हुए, मैंने सोचा: "मैं सोचा करती थी कि नेक काम करके मैं राज्य में प्रवेश कर सकूंगी, लेकिन अब लगता है कि मेरी आस्था के अभ्यास का तरीक़ा परमेश्वर की इच्छा के विपरीत था। लोग सिर्फ़ शुद्ध होकर ही राज्य में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन मैं नहीं जानती कि शुद्ध कैसे बनूँ।" मैंने बहन बैटी को अपनी चिंता और अपने विचार बताये।

तो उसने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के कुछ उपयुक्त अंश मुझे पढ़ कर सुनाये। "तुम लोगों जैसा पापी, जिसे परमेश्वर के द्वारा अभी-अभी छुड़ाया गया है, और जो परिवर्तित नहीं किया गया है, या सिद्ध नहीं बनाया गया है, क्या तुम परमेश्वर के हृदय के अनुसार हो सकते हो? तुम्हारे लिए, तुम जो कि अभी भी पुराने अहम् वाले हो, यह सत्य है कि तुम्हें यीशु के द्वारा बचाया गया था, और कि परमेश्वर द्वारा उद्धार की वजह से तुम्हें एक पापी के रूप में नहीं गिना जाता है, परन्तु इससे यह साबित नहीं होता है कि तुम पापपूर्ण नहीं हो, और अशुद्ध नहीं हो। यदि तुम्हें बदला नहीं गया तो तुम संत जैसे कैसे हो सकते हो? भीतर से, तुम अशुद्धता से घिरे हुए हो, स्वार्थी और कुटिल हो, मगर तब भी तुम यीशु के साथ अवतरण चाहते हो—क्या तुम इतने भाग्यशाली हो सकते हो? तुम परमेश्वर पर अपने विश्वास में एक कदम चूक गए हो: तुम्हें मात्र छुटकारा दिया गया है, परन्तु परिवर्तित नहीं किया गया है। तुम्हें परमेश्वर के हृदय के अनुसार होने के लिए, परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से तुम्हें परिवर्तित और शुद्ध करने का कार्य करना होगा; यदि तुम्हें सिर्फ छुटकारा दिया जाता है, तो तुम पवित्रता को प्राप्त करने में असमर्थ होंगे। इस तरह से तुम परमेश्वर के आशीषों में साझेदारी के अयोग्य होंगे, क्योंकि तुमने मनुष्य का प्रबंधन करने के परमेश्वर के कार्य के एक कदम का सुअवसर खो दिया है, जो कि परिवर्तित करने और सिद्ध बनाने का मुख्य कदम है। और इसलिए तुम, एक पापी जिसे अभी-अभी छुटकारा दिया गया है, परमेश्वर की विरासत को सीधे तौर पर उत्तराधिकार के रूप में पाने में असमर्थ हो।" "यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया, फिर भी उसने केवल समस्त मानवजाति की मुक्ति का कार्य पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना; उसने मनुष्य को उसके समस्त भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, अब जबकि मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिया गया है, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए वापस देह में लौट आया है, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया है। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे" (वचन देह में प्रकट होता है)। फिर बहन बैटी ने संगति की, "अनुग्रह के युग में, प्रभु यीशु ने केवल छुटकारे का कार्य किया। उसका उद्धार स्वीकार करने के बाद, हमें सिर्फ पाप को स्वीकार कर प्रायश्चित करना होता है और हमारे पाप माफ़ कर दिये जाते हैं, फिर हम उसके द्वारा दिये गये अनुग्रह और आशीषों का आनंद उठा सकते हैं। यह सही है कि प्रभु यीशु हमारे पाप माफ़ करता है, लेकिन वह हमारी पापी प्रकृति और शैतानी स्वभाव से हमें मुक्त नहीं करता। शैतान द्वारा भ्रष्ट किये जाने के बाद, हम अहंकार, कपट, दुष्टता और कठोरता जैसे अपने भ्रष्ट स्वभाव के अधीन हो गये, इसलिए हम पाप और परमेश्वर का प्रतिरोध किये बिना रह नहीं सकते। दरअसल, हमारी शैतानी प्रकृति हमारे पापों की जड़ है, अगर हम इससे मुक्त न हो पाये, तो हम कभी भी परमेश्वर का प्रतिरोध करना बंद नहीं करेंगे, फिर हम कभी भी राज्य में प्रवेश के लायक नहीं होंगे। इसीलिए प्रभु ने कहा कि वह सत्य व्यक्त करते हुए, परमेश्वर के घर से शुरू करके न्याय का कार्य करने के लिए अंत के दिनों में वापस आयेगा, ताकि हमारे शैतानी स्वभाव को पूरी तरह से शुद्ध करके उसे बदल दे। तब हम पाप से मुक्त हो सकेंगे और परमेश्वर द्वारा पूरी तरह बचा कर प्राप्त किये जा सकेंगे। जैसी कि प्रभु ने भविष्यवाणी की है: 'जो मुझसे घृणा करता है, और मेरे वचनों को ग्रहण नहीं करता, उस पर भी फैसला देने वाला कोई है; मैंने जो वचन बोले हैं वही अंतिम दिन उसका फैसला करेंगे' (यूहन्ना 12:48)। 'मुझे तुमसे बहुत सारी बातें कहनी हैं: लेकिन अभी तुम उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकते। लेकिन जब वो, सत्य का आत्मा आएगा, तो वह तुम्हें सारे सत्य सिखाएगा। चूँकि वह अपनी ओर से बात नहीं करेगा; पर जो भी बातें वह सुनेगा वही बताएगा; जो घटित होने वाली चीजें हैं, वह तुम्हें दिखाएगा' (यूहन्ना 16:12-13)। केवल वापस आये हुए प्रभु के अंत के दिनों के न्याय-कार्य को स्वीकार करके, हम अपनी भ्रष्टता से शुद्ध हो सकेंगे। तभी हम परमेश्वर के वायदों को पाने और राज्य में प्रवेश करने योग्य बनेंगे।"

बहन बैटी की संगति ने सचमुच मेरी आँखें खोल दीं। इतने वर्षों से मैं पाप करके पादरी के सामने स्वीकार कर लेती और नेक काम करने के लिए कड़ी मेहनत करती रही, लेकिन मैं खुद को पाप करने से रोक नहीं पायी। अब मैं जान गयी हूँ कि प्रभु यीशु ने केवल छुटकारे का कार्य किया, प्रभु में विश्वास रखने पर सिर्फ हमारे पापों के लिए माफ़ी मिलती है, लेकिन हमारी पापी प्रकृति हमारे भीतर कायम रहती है। इसीलिए मैं अभी भी पाप करने और उसे स्वीकार करने के दुष्चक्र में ज़िंदगी गुज़ार रही थी। हमारे लिए अपनी भ्रष्टता से शुद्ध होने का एकमात्र तरीक़ा वापस आये हुए प्रभु के अंत के दिनों के न्याय-कार्य को स्वीकार करना है। तभी हम सही मायनों में परमेश्वर से प्रेम कर उसकी आज्ञा का पालन कर सकेंगे, परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। इस विचार ने मुझे बहुत प्रसन्न कर दिया। अब मुझे पाप से मुक्त होने और राज्य में प्रवेश करने की उम्मीद बंध गयी!

अगले दिन, बहन बैटी ने एक सस्वर पाठ बजा कर सुनाया, जिसका शीर्षक था, उद्धारकर्ता पहले ही एक "सफेद बादल" पर सवार होकर वापस आ चुका है। यह मेरे लिए वाकई प्रेरणादायक था और मुझे लगा कि इन वचनों में बहुत अधिकार है। उसने जोशीले ढंग से कहा, "हम सब जिस प्रभु की लालसा कर रहे थे, वह देहधारी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के रूप में वापस आ चुका है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कई सत्य व्यक्त करता है और परमेश्वर के घर से शुरू करके न्याय का कार्य करता है। कल हमने जो पढ़ा और आज जो सस्वर पाठ हमने सुना, वे सब स्वयं सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा बोले गये हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर आया और उसने सात मुहरों और छोटी सी पुस्तक को खोला। उसने उन सभी रहस्यों को प्रकट किया जिन्हें हम कभी नहीं समझ पाये, उसने पूरी तरह बचाये जाने और शुद्ध होने के लिए ज़रूरी सत्य हमें दिये। यह प्रकाशितवाक्य की इस भविष्यवाणी को पूरा करता है: 'जिसके पास कान है, वह सुन ले जो आत्मा कलीसियाओं को कहता है' (प्रकाशित-वाक्य 3:6)। आज हमारा परमेश्वर की वाणी को सुनना परमेश्वर के मार्गदर्शन से हुआ है, हम बहुत धन्य हैं!"

मैं प्रभु के वापस आ जाने का समाचार सुनकर उल्लास और रोमांच से भर उठी। यह साफ़ हो गया कि जो सस्वर पाठ मैंने सुना और पिछले दिन जो वचन मैंने पढ़े, वे सभी परमेश्वर के वचन थे। कोई आश्चर्य नहीं कि उनमें ज़बरदस्त अधिकार है! इस रहस्य को दूसरा कौन प्रकट कर सकता है कि प्रभु कैसे वापस आता है? परमेश्वर के सिवाय दूसरा कोई यह नहीं कर सकता। मुझे पूरा यकीन हो गया कि ये वचन परमेश्वर द्वारा बोले गये थे और प्रभु वाकई वापस आ चुका है। उस पल मैं बहुत जोश में आ गयी! मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मैं प्रभु की वापसी का स्वागत कर सकूंगी। मैंने खुद को बहुत भाग्यशाली महसूस किया! मेरे मन में सिर्फ एक ही सवाल था: "परमेश्वर इंसान को शुद्ध करने और उसे पूरी तरह से बचाने के लिए न्याय का कार्य कैसे करता है?"

फिर बहन बैटी ने मेरे प्रश्न के उत्तर में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। "अंत के दिनों में मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति समर्पण के लिए पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है" (वचन देह में प्रकट होता है)। इसे पढ़ने के बाद, बहन बैटी ने कहा, "अंत के दिनों में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर, अपने वचनों से इंसान का न्याय करने और उसे शुद्ध करने के लिए कार्य करता है। वह इंसान की विद्रोहशीलता और दुष्टता का न्याय करता है, हमारी परमेश्वर-प्रतिरोधी प्रकृति और भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करता है, हमारी आशीष पाने की इच्छा और हमारी मलिन आस्था का, परमेश्वर के बारे में हमारे ग़लत विचारों और तरह-तरह की धारणाओं का न्याय कर उन्हें उजागर करता है वह हमें यह भी दिखाता है कि हम ईमानदार कैसे बनें और उसकी इच्छा के अनुरूप सेवा कैसे करें, सही मायनों में उसकी आज्ञा का पालन और उससे प्रेम कैसे करें, उसकी इच्छा कैसे पूरी करें, आदि-आदि। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से गुज़र कर हम समझ पाते हैं कि हम शैतान द्वारा किस तरह भ्रष्ट किये गये हैं, कैसे हमारा कपट, अहंकार और दुष्टता, सब हमारे शैतानी स्वभाव से आता है। इसमें हम परमेश्वर के पवित्र, धार्मिक स्वभाव को देख पाते हैं, जो कोई अपमान सहन नहीं करता, तब हम खुद से घृणा करने लगते हैं, खेद महसूस करते हैं, और सत्य का अभ्यास करने लगते हैं। फिर हमारा जीवन-स्वभाव बदलने लगता है। यह सब परमेश्वर के वचनों के न्याय से हासिल होता है।" फिर बहन बैटी ने अपने अनुभवों को साझा किया। पहले अपनी आस्था में, वह हमेशा सोचा करती थी कि वह वह प्रभु से प्रेम करती है, क्योंकि वह उत्साह के साथ खुद को खपाती है, इसलिए वह अक्सर प्रार्थना करती, प्रभु से अनुग्रह और आशीष पाने के लिए विनती करती। उसका दृढ़ विश्वास था कि प्रभु के लिए उसने कष्ट उठाये हैं, इसलिए वह यकीनन राज्य में प्रवेश देकर उसे पुरस्कृत करेगा। परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर और उसके वचनों का न्याय पाकर, उसने जाना कि आस्था के बारे में उसके विचार ग़लत और मलिन हैं, तब जाकर उसे एहसास हुआ: उसने परमेश्वर के प्रति प्रेम के कारण या एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए विश्वास नहीं रखा था, बल्कि बदले में, आशीष पाने की अपनी इच्छा को संतुष्ट करने, और राज्य के आशीष पाने के लिए ऐसा किया था। यह परमेश्वर का इस्तेमाल करना था, उसके साथ सौदेबाजी थी। उसने सोचा, वह रत्ती-भर भी इंसानियत या समझ के बिना बेहद स्वार्थी थी, उसे इसका बहुत खेद हुआ और वह खुद से घृणा करने लगी। उसने परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप सत्य का अनुसरण करना शुरू किया और फिर आस्था के बारे में उसके ग़लत विचार ठीक हो गये। उसका धोखेबाज शैतानी स्वभाव भी बदलने लगा। उसने समझ लिया कि स्वयं को सही मायनों में जानने और अपनी भ्रष्टता से शुद्ध होने का एक ही रास्ता है, परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना।

बहन बैटी की संगति से, मैंने जाना कि परमेश्वर के लिए यह कितना व्यावहारिक है कि वह अंत के दिनों में सत्य व्यक्त करके अपना न्याय का कार्य करे और यह वास्तव में किस तरह से लोगों को बदल कर उन्हें शुद्ध कर सकता है। मैंने जाना कि हमारे लिए यह कितना ज़रूरी है कि परमेश्वर अंत के दिनों में, अपना न्याय का कार्य करे, अब हमें भ्रष्टता से मुक्त होने का रास्ता मिल गया है। मैं रोमांच से भर उठी। बाद की सभाओं में, बहन बैटी ने मुझे परमेश्वर के देहधारी होने का रहस्य बताया, उसने बताया कि किस तरह शैतान इंसान को भ्रष्ट करता है, किस तरह परमेश्वर एक बार में एक चरण पूरा करके इंसान को बचाता है, बाइबल की अंदरूनी कहानी क्या है, कैसी मंज़िलें इंसान की राह देख रही हैं, और भी बहुत कुछ। उसने मुझे वे सत्य बताये, जो मैंने परमेश्वर में आस्था रखने के अपने 20 वर्षों के दौरान कभी भी नहीं सुने थे। मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को जितना अधिक पढ़ा, उतना ही महसूस किया कि यह परमेश्वर की वाणी है। केवल देहधारी परमेश्वर ही ऐसे अधिकारपूर्ण और सामर्थ्यपूर्ण वचनों को व्यक्त कर सकता है। शैतान द्वारा इंसान की भ्रष्टता को परमेश्वर के सिवाय भला कौन उजागर कर सकता है? हमारी आस्था की ग़लतियों को कौन हमें दिखा सकता है, हमारी आस्था के लिए सही मार्ग भला हमें कौन बता सकता है? परमेश्वर की 6,000-वर्षीय योजना के रहस्यों को कौन प्रकट कर सकता है, और कौन हमें बता सकता है कि कौन-से मुकाम और कौन-सी मंजिलें हमारी राह देख रही हैं? मुझे यकीन हो गया कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही वापस आया हुआ प्रभु है—वह सचमुच अंत के दिनों का मसीह है! फिर मैंने खुशी से सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया। मुझे चुनने और बचाने के लिए मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ।

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