मैंने जीवन के सही मार्ग पर चलना शुरू ही किया है
मैं एक गरीब किसान परिवार में पैदा हुई थी। मैं बचपन से ही समझदार रही हूँ, मैं कभी भी दूसरे बच्चों के साथ नहीं लड़ती थी और अपने माता-पिता का का कहा मानती थी, जिससे मैं बड़ों की नज़रों में एक "अच्छी लड़की" बन गयी थी। अन्य माता-पिता मेरे माता-पिता से बहुत ईर्ष्या करते थे, कहते थे कि इतनी अच्छी बेटी पा कर मेरे माता-पिता भाग्यशाली हैं। और इस तरह, मैं हर दिन अपने आस-पास के लोगों की प्रशंसाएँ सुनते हुए बड़ी हुई। जब मैं प्राथमिक विद्यालय में थी, तो मेरी पढ़ाई का रिकॉर्ड विशेष रूप से अच्छा था, और मैं परीक्षा में हमेशा प्रथम आती थी। एक बार, मैंने अपने शहर द्वारा आयोजित एक निबंध प्रतियोगिता में पूर्ण अंक प्राप्त किए थे, और अपने विद्यालय के लिए सम्मान जीता था। प्रधानाध्यापक ने मुझे न केवल पुरस्कार और प्रमाण पत्र से सम्मानित किया, बल्कि पूरे विद्यालय के सामने मेरी प्रशंसा की और छात्रों को मुझसे सीखने के लिए भी कहा। मैं अचानक विद्यालय की "मशहूर हस्ती" बन गई, और मेरे सहपाठियों ने मुझे "सदैव-विजयी सेनापति" का उपनाम दे दिया। मेरे शिक्षकों की प्रशंसा, मेरे सहपाठियों की ईर्ष्या, और मेरे माता-पिता के अत्यधिक स्नेह ने मेरे दिल में श्रेष्ठता का भाव ला दिया, मैं सभी के द्वारा प्रशंसा किए जाने का वास्तव में आनंद लेती थी। इस कारण, मैं दृढ़ता से विश्वास करती थी कि जीवन में सबसे बड़ी खुशी दूसरों से प्रशंसा पाना थी, और प्रसन्नता की भावना दूसरों की प्रशंसा पाने से ही आती थी। मैंने अपने मन में खुद से कहा: चाहे यह कितना भी मुश्किल और थकाऊ हो, मुझे प्रतिष्ठा और हैसियत हासिल करनी ही है, और दूसरों से हमेशा सम्मान पाना है। तब से, "एक मनुष्य जहां भी रहता है, एक नाम पीछे छोड़ जाता है वैसे ही जैसे हंस जहां भी उड़ता है अपनी बोली छोड़ जाता है" और "एक व्यक्ति को हमेशा अपने साथ के लोगों से बेहतर होने की कोशिश करनी चाहिए" जैसी अभ्युक्तियाँ मेरे जीवन के आदर्श वाक्य बन गयीं।
लेकिन, जब मैं 13 वर्ष की थी, तो मेरे पिता गंभीर रूप से बीमार हो गए और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया, जिससे हमारा पहले से ही गरीब परिवार क़र्ज़े में डूब गया। जब मैं अपने पिता को बीमारी की पीड़ा से कराहते और अपनी माँ को रोज़ी-रोटी के वास्ते काम करते-करते बुरी तरह से थक जते हुए देखती, तो मुझे इतना बुरा लगता था कि मैं चाहती थी कि मैं जल्दी से बड़ी हो जाऊँ ताकि मैं उनके दुःख और पीड़ा को साझा कर सकूँ। इसलिए मैंने यह सोचते हुए स्कूल छोड़ने का कठिन फैसला लिया: यदि मैं स्कूल नहीं भी जाती हूँ, तब भी मैं दूसरों से बेहतर ही रहूँगी। जब मैं बड़ी जाऊँगी, तब मैं एक मज़बूत और सफल महिला बनूँगी, और मैं तब भी एक बढ़िया जीवन जी सकूँगी! पढ़ाई में अव्वल होने के कारण, मैं अपने पड़ोस में एक "नन्ही मशहूर हस्ती" की तरह थी। इसलिए, जब मेरे विद्यालय छोड़ने का समाचार फैला तो सभी गाँववालों ने इस बारे में बातें करनी शुरू कर दीं, वे कहने लगे "यह लड़की बहुत मूर्ख है! स्कूल छोड़ने से उसका भविष्य बर्बाद हो जाएगा!" और "अशिक्षित लोगों का कोई सम्मान नहीं करता। वह अपनी सारी ज़िन्दगी कठिनाई और गरीबी से पीड़ित रहेगी!" च्ंकि बचपन से ही मैं प्रशंसा पाने की अभ्यस्त थी, इसलिए "चोट खाया मोर एक मुर्गी से तुच्छ है" जैसी उदास भावना अचानक मेरे मन में आ गई। मैं बाहर जाने से डरती थी, लोगों से मिलने से डरती थी, तुच्छ समझे जाने से डरती थी। इस तरह की पीड़ा से बचने के लिए, मैंने पूरे दो वर्षों तक अपने घर के बाहर कदम नहीं रखा, और मैं हर समय चुप रहती थी। इसके साथ ही, एक शक्तिशाली और सफल महिला बनने की मेरी इच्छा और भी अधिक मजबूत हो गई थी, इसलिए और दो वर्षों के बाद, मैंने बाहर जा कर कार्य करना शुरू कर दिया। मैंने बहुत सी नौकरियाँ कीं, किन्तु मैं जल्दी काम छोड़ देती थी क्योंकि हर बार मुझे महसूस होता था कि या तो नौकरी बहुत थकाने वाली और तनावपूर्ण है, या वेतन बहुत कम है या मालिक अच्छा नहीं है। बार-बार विफल होने के बाद, मैं पूरी तरह से हतोत्साहित हो गई थी और मुझे लगने लगा था कि एक मज़बूत और सफल महिला बनने का मेरा सपना वास्तविकता से बहुत दूर हो गया है।
2005 में, मुझे अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने का सौभाग्य मिला। तब से, मेरी जीवनशैली और यहाँ तक कि मेरा पूरा जीवन पूरी तरह से बदल गया है। परमेश्वर के वचन में मैंने देखा था: "मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों से नियंत्रित होता है। तुम स्वयं को नियंत्रित करने में असमर्थ हो : हमेशा अपनी ओर से भाग-दौड़ करते रहने और व्यस्त रहने के बावजूद मनुष्य स्वयं को नियंत्रित करने में अक्षम रहता है। यदि तुम अपने भविष्य की संभावनाओं को जान सकते, यदि तुम अपने भाग्य को नियंत्रित कर सकते, तो क्या तुम तब भी एक सृजित प्राणी होते?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना)। परमेश्वर के शक्तिशाली वचनों ने मेरे हृदय को गहराई से स्पर्श किया, मुझे यह समझाया कि हर किसी का भाग्य उसके हाथों में है, यह लोगों के द्वारा बिल्कुल भी नियंत्रित नहीं होता है, और चाहे कोई भी समय हो, लोग परमेश्वर की संप्रभुता और योजनाओं से बच नहीं सकते हैं, और लोगों को परमेश्वर के अधिकार के अधीन आज्ञाकारी होना चाहिए। यह एकमात्र तरीका है जिससे लोगों को अच्छा भाग्य मिल सकता है। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से, मुझे एहसास हुआ कि मैं जिस प्रकार के परिवार पैदा हुई थी, मैं जितनी सुसंस्कृत हूँ, मेरा जीवन में गरीबी है या अमीरी—ये सभी बातें परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत हैं। यह कुछ ऐसा नहीं है जिसे मेरा मन या योग्यताएँ बदल सकते हैं। मैंने यह मानते हुए एकनिष्ठता से एक मजबूत महिला बनने का प्रयास किया था कि मैं अपनी कोशिशों से अपना भाग्य बदल सकती हूँ। लेकिन बहुत-सी कठिनाई और दु:ख झेलने के बाद, मुझे अंतत: वो नहीं मिला जो मुझे चाहिए था। मैं जिस पीड़ा से गुज़री थी; क्या वो इस कारण नहीं थी क्योंकि मैं परमेश्वर कि संप्रभुता को नहीं जानती थी और भाग्य के विरुद्ध ढिठाई से संघर्ष कर रही थी? अब मैं जान गयी थी कि केवल परमेश्वर के सामने आने से और उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकारने और उनके प्रति समर्पित होने से ही मैं धीरे-धीरे करके पीड़ा से बच सकती हूँ। परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद, मैं अपने अनुभवों से अब और निराश नहीं थी, और मैं इस बारे में अब और परवाह नहीं करती थी कि अन्य लोगों का क्या कहन था। इसके बजाय, मैं उचित प्रकार से परमेश्वर पर विश्वास करने और सच्चाई का अनुसरण करने, और एक अर्थपूर्ण जीवन जीने के लिए दृढ़ संकल्प हो गई। उसके बाद, मैं हर दिन परमेश्वर के वचनों को पढ़ने में डटी रहती, और प्रार्थना करती, भजन गाती और बहनों और भाइयों के साथ सभाओं में भाग लेती थी। चूंकि मैं सत्यको औरों से जल्दी समझ लेती थी, और मेरे उत्साही प्रयासों के कारण मुझे उस बहन की सराहना मिली, जो मेरी सिंचाई कर रही थी, जिससे मैं अंदर-ही-अंदर झूठी प्रशंसा से भर गयी। कलीसिया में प्रवेश करने के बाद, मैंने कलीसिया के अगुआओं को कहते सुना कि मुझे उनके विकास के कार्य का केन्द्र होना चाहिए, इससे मेरी खुशी का ठिकाना न रहा यहाँ तक कि मेरे कदमों में अलग-सी स्फूर्ति आ गयी। इसलिए मैंने अपने आप से कहा: मुझे अवश्य अपने पूर्ण हृदय और आत्मा से प्रयास करना चाहिए! मैं कलीसिया के अगुआओं को निराश नहीं कर सकती हूँ। अगर यह बस मेरी अच्छी प्रतिष्ठा के लिए ही हो, तब भी मुझे कड़ी मेहनत करनी चाहिए ताकि मैं यहाँ उस प्रतिष्ठा और हैसियत को वापस पा सकूँ जो कि मुझे बाहर की दुनिया में मेरे हाथ से निकल गयी थी। उस समय, मैंने परमेश्वर की इच्छा के बारे में बिल्कुल भी परवाह नहीं करती थी। मेरे मन में ठीक मेरे सामने, चमकदार आभामण्डलों की तरह, प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और हैसियत लगातार मुझे आकर्षित कर रहे थे।
कुछ ही समय बाद, मैं कलीसिया में नए विश्वासियों को सींचने का कर्तव्य निभाने लगी। बहनों और भाइयों से उच्च प्रशंसा पाने के लिए, और "विकास कार्य का केन्द्र" खिताब के लायक ठहरने के लिए, मैंने सर्वोत्तम क्षमता से अपना कर्तव्य करने का मन बनाया। मैं सोचती थी कि जब तक बहन और भाई मुझे स्वीकृत करते हैं, तब तक परमेश्वर भी स्वाभाविक तौर पर मुझे पसंद करेगा। मेरी "कड़ी मेहनत और प्रयासों" के कारण, मैं अंततः कुछ समय के बाद बहनों और भाइयों की प्रशंसा और प्रोत्साहन अर्जित कर अपनी इच्छा को पूरा करने में सफल रही थी। मैं यह सोचे बिना न रह सकी: इतने सारे बहनों और भाइयों ने मुझे पसंद किया है इसका यह अर्थ अवश्य होना चाहिए कि मैं अन्य लोगों से बेहतर हूँ। यदि कलीसिया के अगुआओं को यह पता चल जाये, तो वे निश्चित रूप से मुझे पदोन्नत करेंगे और मुझे एक महत्वपूर्ण पद पर रखेंगे। तब, मेरा भविष्य निश्चित रूप से असीमित क्षमता से भर जाएगा। क्योंकि मैं आत्मतुष्टि और आत्मसंतोष में रहती थी, इसलिए मैंने अवचेतन रूप से अपने कर्तव्य को बेपरवाह ढंग से करना शुरू कर दिया और नए विश्वासियों को कर्मठता से सींचना बंद कर दिया। परिणामस्वरूप, नए विश्वासियों में से कुछ वास्तविक सिंचाई को प्राप्त करने में असमर्थ हो गए और नकारात्मकता और कमज़ोरी में जीने लगे। इस स्थिति के सामने मैं बहुत परेशान हो गयी और मैंने सोचा: आज मेरे पास जो "सम्मान" है उसे प्राप्त करने का मैंने एक लंबा सफर तय किया है। मैं नए विश्वासियों को इस तरह से रहने दे सकती हूँ? यदि कलीसिया के अगुआओं को पता चला, तो वे निश्चित रूप से कहेंगे कि मैं सक्षम नहीं हूँ यहाँ तक कि वे मेरे कर्तव्य पर भी रोक लगा सकते हैं। क्या तब यह मेरे लिए सब कुछ ख़त्म नहीं हो जाएगा? मुझे इस स्थिति को बदलने के लिए कुछ न कुछ करना ही चाहिए। बाद के दिनों में, मैं नए विश्वासियों को सहारा देने के लिए हर दिन बाहर चली जाती थी। कभी-कभी, किसी सभा के वास्ते, मैं कई पहाड़ियों पर चढ़ती और आने-जाने में तीन से चार घंटे तक पैदल चलती, किन्तु मुझे इसका बिल्कुल भी बुरा नहीं लगता था। एक महीने के बाद, मैं बुरी तरह थक गई थी, किन्तु क्योंकि मुझमें पवित्र आत्मा का कार्य नहीं था, इसलिए परमेश्वर के वचन का मेरा संवाद नीरस और रूखा था, और परिणामस्वरूप नए विश्वासियों की स्थिति में समय रहते सुधार नहीं हुआ। मैं इस बात से इतना परेशान हो गयी कि मुझे सिरदर्द हो गया, किन्तु मुझे अभी भी यह एहसास नहीं हुआ कि मुझे आत्म-चिंतन करने के लिए परमेश्वर के सामने आना चाहिए। मेरे कार्य की दीर्घकालिक प्रभावहीनता के कारण, जिसने नए विश्वासियों के जीवन को नुकसान पहूँचाया था, अंततः मेरा काम किसी और को दे दिया गया। जिस क्षण मैं घर वापस पहुँची वह आसमान से गिरने जैसा था। मेरा पूरा शरीर ढीला पड़ गयाऔर मुझे कमज़ोरी महसूस होती थी। मैं बीते समय के बारे में सोचने लगी कि पहले कितनी भाई-बहन मेरा आदर करते थे, और अब मैं इस हद तक पतित हो चुकी हूँ। यदि बहनों और भाइयों को पता चला तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मैं इस बारे में जितना अधिक सोचती, उतना ही अधिक मैं उनका सामना करने में असमर्थ महसूस करती, इसलिए मैं सभाओं के लिए जाने से मना कर देती और इसके बजाय हर दिन रोते हुए घर पर रहती। मैं अंदर से संताप से भर गयी थी। एक दिन, मैंने परमेश्वर के निम्नलिखित वचनों को देखा: "तुम लोगों की खोज में, तुम्हारी बहुत सी व्यक्तिगत अवधारणाएँ, आशाएँ और भविष्य होते हैं। वर्तमान कार्य तुम लोगों की हैसियत पाने की अभिलाषा और तुम्हारी अनावश्यक अभिलाषाओं से निपटने के लिए है। आशाएँ, हैसियत और अवधारणाएँ सभी शैतानी स्वभाव के विशिष्ट प्रतिनिधित्व हैं। ... बहुत सालों से, जिन विचारों पर लोगों ने अपने अस्तित्व के लिए भरोसा रखा था, वे उनके हृदय को इस स्थिति तक दूषित कर रहे हैं कि वे विश्वासघाती, डरपोक और नीच हो गए हैं। उनमें न केवल इच्छा-शक्ति और संकल्प का अभाव है, बल्कि वे लालची, अभिमानी और स्वेच्छाचारी भी बन गए हैं। उनमें ऐसे किसी भी संकल्प का सर्वथा अभाव है जो स्वयं को ऊँचा उठाता हो, बल्कि, उनमें इन अंधेरे प्रभावों की बाध्यताओं से पीछा छुड़ाने की लेश-मात्र भी हिम्मत नहीं है। लोगों के विचार और जीवन इतने सड़े हुए हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में उनके दृष्टिकोण अभी भी बेहद वीभत्स हैं। यहाँ तक कि जब लोग परमेश्वर में विश्वास के बारे में अपना दृष्टिकोण बताते हैं तो इसे सुनना मात्र ही असहनीय होता है। सभी लोग कायर, अक्षम, नीच और दुर्बल हैं। उन्हें अंधेरे की शक्तियों के प्रति क्रोध नहीं आता, उनके अंदर प्रकाश और सत्य के लिए प्रेम पैदा नहीं होता; बल्कि, वे उन्हें बाहर निकालने का पूरा प्रयास करते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। केवल परमेश्वर के वचनों के मर्मभेदी प्रकाशन के माध्यम से मैंने एहसास किया कि परमेश्वर में विश्वास को लेकर मेरा दृष्टिकोण बिल्कुल शुरुआत से ही ग़लत रहा था। मैं परमेश्वर में अपने विश्वास का उपयोग प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और हैसियत को प्राप्त करने के लिए करना चाहती थी जिसे मैं दुनिया में प्राप्त करने में असफल रही थी, और बेतुके ढंग से सोचती थी कि अगर मैं भाई-बहनों की प्रशंसा पाती रहूँगी तो मुझे चुनकर महत्वपूर्ण पद पर रखा जायेगा, और फिर परमेश्वर भी मुझे पसंद करेगा और मेरी प्रशंसा करेगा। इन विचारों के प्रभाव में, मैं कमज़ोर और घिनौनी बन गई। जब भाई-बहन मेरी प्रशंसा करते थे, तो मैं आत्मविश्वास से भर जाती थी, किन्तु एक बार जब मैंने इन चीजों को गँवा दिया, तो मैं तुरंत हतोत्साहित, निराश, नकारात्मक हो गई और सबसे दूर हो गयी। यह परमेश्वर पर विश्वास करना कैसे था? मैंने जिस सब में विश्वास किया वह थी प्रतिष्ठा, सम्पत्ति, और हैसियत! परमेश्वर का इरादा मुझे एक अद्भुत कार्य करने वाली प्रतिभा बनाने के लिए प्रशिक्षित करना नहीं था, और इसके अलावा यह व्यक्तिगत इच्छाओं को पूरा करने के लिए कर्तव्य को पूरा करने का फायदा उठाने देने के लिए नहीं था। बल्कि, परमेश्वर को आशा थी कि मैं, अपने कर्तव्यों को पूरा करने की प्रक्रिया में, अपनी कमियों की खोज कर सकती हूँ और परमेश्वर के वचनों और कार्य का अनुभव कर सकती हूँ, और इस प्रकार सत्य को अधिक समझ और प्राप्त कर सकती हूँ, और अंत में परमेश्वर द्वारा उद्धार प्राप्त कर सकती हूँ। साथ ही, ऐसा इसलिए भी था कि मैं परमेश्वर के नए विश्वासी बहनों और भाइयों को आपूर्ति करने के लिए अपने अनुभवों और सत्य की अपनी समझ का उपयोग कर सकूँ, और सच्चे मार्ग में नींव रखने में उनकी सहायता कर सकूँ ताकि वे जितनी जल्दी हो सके परमेश्वर पर विश्वास करने के सही मार्ग में प्रवेश कर सकें। लेकिन, मैंने कभी भी परमेश्वर के इरादों की खोज नहीं की क्योंकि मैंने हमेशा प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए, और अपनी स्वयं की महत्वाकांक्षाओं के लिए संघर्ष किया था। अंत में, मुझे पवित्र आत्मा का कार्य बिल्कुल भी प्राप्त नहीं हुआ, इसलिए मेरे बहुत प्रयास करने के बाद भी, मैं नए विश्वासियों को उचित प्रकार से सींचने में असमर्थ थी। जब मुझे मेरा कर्तव्य करने से रोक दिया गया, तो मैं अत्यधिक नकारात्मक हो गई थी और परमेश्वर के इरादों को ग़लत समझ बैठी, यह सोचती रही कि मुझे परमेश्वर द्वारा उद्धार प्राप्त करने की कोई आशा नहीं है। इसी समय मुझे अचानक परमेश्वर के वचनों की याद आई: "मुझे इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं है कि तुम्हारी मेहनत कितनी उत्कृष्ट है, तुम्हारी योग्यताएँ कितनी प्रभावशाली हैं, तुम कितनी निकटता से मेरा अनुसरण करते हो, तुम कितने प्रसिद्ध हो, या तुमने अपने रवैये में कितना सुधार किया है; जब तक तुम मेरी अपेक्षाएँ पूरी नहीं करते, तब तक तुम कभी मेरी प्रशंसा प्राप्त नहीं कर पाओगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे)। "लोग सचमुच खोजते हैं या नहीं यह इससे निर्धारित नहीं होता कि दूसरे उन्हें कैसे आंकते हैं या आसपास के लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं, बल्कि इससे निर्धारित होता है कि क्या पवित्र आत्मा उसके ऊपर कार्य करता है और क्या उन्होंने पवित्र आत्मा की उपस्थिति हासिल कर ली है। इसके अतिरिक्त यह इस बात पर निर्भर है कि क्या एक निश्चित अवधि तक पवित्र आत्मा के कार्य से गुज़रने के बाद उनके स्वभाव बदलते हैं और क्या उन्हें परमेश्वर का कोई ज्ञान मिला है ..." (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचनों में मुझे उसके इरादों और अपेक्षाओं की समझ मिली। बात ये थी कि मेरा पिछला विश्वास कि, एक उच्चतर हैसियत का मतलब एक अधिक आशाजनक भविष्य और परमेश्वर की ओर से अधिक प्रशंसा पाना है, एक सांसारिक दृष्टिकोण से परमेश्वर के कार्य को मापना था, जो इससे अधिक ग़लत नहीं हो सकता था। परमेश्वर जिस प्रकार किसी का अंत मापता और निर्धारित करता है वह उनकी हैसियत, वरिष्ठता, या उनके द्वारा किए गए कार्य की मात्रा पर आधारित नहीं होता है, बल्कि इस पर आधारित होता है कि उन्होंने सत्य प्राप्त किया है या नहीं और उन्होंने स्वभावात्माक परिवर्तन प्राप्त किया या नहीं। यदि किसी ने सत्य प्राप्त नहीं किया है या परमेश्वर के कार्य के माध्यम से स्वभाव संबंधी परिवर्तन प्राप्त नहीं किया है, तो फिर उनकी हैसियत कितनी ही ऊँची हो या कितने लोग उनका समर्थन करते हों सब अर्थहीन हो जाता है। वे न केवल परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं करेंगे, बल्कि वे परमेश्वर द्वारा घृणा पाएंगे, अस्वीकार और दण्डित भी किए जाएँगे। केवल अपने कर्तव्य को पूरा करते समय स्वयं को और परमेश्वर को जानने पर ध्यान देने से, और बहनों और भाइयों को सींचने और उनका समर्थन करने के लिए अपने वास्तविक अनुभवों का उपयोग करने से ही, वे वास्तविक समस्याओं को हल करने, भाई-बहनों का मार्गदर्शन करने का मार्ग ढूँढने, और अपने कार्य को प्रभावी बनाने में समर्थ होंगे। मेरे जैसा कोई व्यक्ति, जो कार्य करते समय अपना स्वयं का प्रवेश और परिवर्तन पाने की बिल्कुल भी कोशिश नहीं करता था, बल्कि बदले में आँखों पर पट्टी बाँध कर प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और हैसियत पाने की कोशिश करता था, अंततः केवल अधिक से अधिक बहनों और भाइयों को नुकसान पहूँचाता था, और अंत में उसे हटा दिया जाएगा। जब मैंने इसके बारे में सोचा, तो मैं समझ गई कि कलीसिया द्वारा मेरे कर्तव्य को रोकना, मेरे ग़लत इरादों, आकांक्षाओं और साथ ही मेरी भ्रष्ट प्रकृति को लक्षित करते हुए, परमेश्वर द्वारा बनाया गया एक परिवेश था, ताकि मैं आत्म-चिंतन कर सकूँ और स्वयं को जान सकूँ, अनुसरणों पर अपने ग़लत विचारों को बदल सकूँ, और जितनी जल्दी हो सके सत्य का अनुसरण करने के सही मार्ग पर चल सकूँ। उस पल में, मैंने परमेश्वर के प्रेम, देखभाल और विचार को वास्तव में महसूस किया, और परमेश्वर से प्रार्थना किए बिना न रह पायी: "हे परमेश्वर! मुझे अपना महान प्रेम प्रदान करने के लिए तेरा धन्यवाद। मैं तेरे इरादों को नहीं समझा करती थी और सोचती थी कि प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और हैसियत पाने से मुझे निश्चित रूप से तेरी सराहना मिलेगी। इसने मुझे अपने कार्य के दौरान सत्य में प्रवेश के बारे में बिल्कुल भी परवाह नहीं करने दी। मैंने बस आँखों में पट्टी बाँध कर प्रतिष्ठा और सम्पत्ति का पीछा किया, जो तेरी अपेक्षाओं के प्रतिकूल था। तेरे वचन की प्रबुद्धता से, अब मैं तेरी अपेक्षाओं को समझती हूँ। मैं तेरे कार्य के प्रत्यक्ष उल्लंघन में अब और कार्य नहीं करूँगी जैसा कि मैं पहले करती थी। मैं स्वभाव संबंधी बदलाव पाने की कोशिश करूँगी और सत्य का अनुसरण करने के सही मार्ग पर चलूँगी।"
कुछ ही समय बाद, नए विश्वासियों को सींचने के लिए कलीसिया ने फिर से मेरे लिए व्यवस्था की, और मुझे एक छोटी बहन के साथ रहने के लिए भी कहा। छोटी बहन का एक स्पष्ट और भावपूर्ण व्यक्तित्व था, इसलिए मैं सोचती थी: क्योंकि मैं अंतर्मुखी हूँ और मुझे ज्यादा बात करना पसंद नहीं है, जबकि छोटी बहन बहिर्मुखी है और बिना झिझक के बोलती है, इसलिए हम अपनी कमज़ोरियों को पूरा करने के लिए एक दूसरे के मजबूत बिन्दुओं से सीखने के लिए इस अवसर का उपयोग कर सकते हैं। मेरे ऐसा सोचने पर भी हमारी वास्तविक बातचीतों में अभी भी कुछ मतभेद और ग़लतफहमियाँ थी। इस स्थिति को बदलने के लिए, मैंने अधिक सतर्कता से बोलना और काम करना शुरू कर दिया, मैं डरती थी कि अधिक अप्रिय घटनाएँ हो सकती हैं। छोटी बहन आमतौर पर कार्य करने के लिए चली जाती थी। उसे हर समय इतना व्यस्त देखकर, मैंने उस पर एक अच्छा प्रभाव डालने और हमारे रिश्ते को बनाए रखने में सहायता करने के लिए घर के सभी दैनिक कार्यों का उत्तरदायित्व लेने का निर्णय लिया। मैंने कभी अपेक्षा नहीं की थी कि कई महीनों बाद, हमारा रिश्ता वास्तव में अधिक तनावपूर्ण हो गया, जो मुझे विशेष रूप से निराशाजनक और कष्टदायक लगा। लेकिन, मैंने आत्मनिरीक्षण नहीं किया और अपनी भ्रष्टता को नहीं पहचाना और यह सोचते हुए छोटी बहन पर ध्यान लगाने लगी कि उसके साथ रहना मुश्किल है और वो बहुत अविवेकी है। एक दिन, जब बहन कार्य से वापस आई और मुझे दैनिक कार्यों को करते देखा, तो उसने रूखेपन से कहा कि मैं सिर्फ जोश में ऐसा कर रही हूँ। यह सुनकर, अन्याय के कारण मैं अपने आँसुओं को बहने से रोक नहीं सकी। उस समय, मैं वास्तव में तुरंत छोड़कर जाना और कभी भी वापस नहीं आना चाहती थी। किन्तु फिर मैंने सोचा कि कैसे बहन मुझसे छोटी है, और वह लंबे समय से परमेश्वर पर विश्वास नहीं करती थी। यदि मैं अपने आप को एक तरफ नहीं रख सकी, और उसके विरुद्ध द्वेष पाले रहूँगी, तो कलीसिया के अगुआ और अन्य बहन और भाई मुझे कैसी नज़र से देखेंगे? वे कहेंगे कि मैंने छोटी बहन के लिए कोई प्यार नहीं दिखाया और मैं गैर-ज़िम्मेदार हूँ। मैं उनका सामना कैसे कर पाऊँगी? ऐसी स्थिति का सामना करते हुए, सच में मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। पीड़ा में, मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आयी: "हे परमेश्वर! मैं बहुत पीड़ा में हूँ। ऐसा लगता है जैसे भारी पत्थर मुझे नीचे दबा रहे हैं, जो मेरा बच निकलना असंभव बना रहा है। किन्तु मेरा विश्वास है कि मुझ पर पड़ी इस स्थिति में तेरे अच्छे इरादे अवश्य निहित होंगे। मैं केवल यह प्रार्थना करती हूँ कि तू मुझे प्रबुद्ध कर ताकि मैं तेरे इरादों को समझ सकूँ और उस सबक को सीख सकूँ जो मुझे सीखना चाहिए।" प्रार्थना के तुरंत बाद, एक बहन यूँही मुझे ढूँढते हुए आ गई, इसलिए मैंने अपना दिल खोलकर अपनी स्थिति के बारे में उससे संवाद किया। इसे सुनने के बाद, बहन ने कहा: "परमेश्वर का समस्त कार्य मानवजाति को बचाने के वास्ते है, और हम पर पड़ी सभी स्थितियाँ हमें सबक सिखाने के अभिप्राय से हैं। यदि हमारे अंदर ये नकारात्मक चीजें हैं, तो इसका अर्थ है कि हमारे अंदर अभी भी कुछ शैतानी विषैले पदार्थ हैं जिनसे परमेश्वर घृणा करता है। परमेश्वर इन स्थितियों के माध्यम से हमें शुद्ध करेगा और हमें बदलेगा ...।" बहन के चले जाने के बाद, मैं यह सोचते हुए बिस्तर में बेचैनी से उलटती-पलटती रही और सो नहीं सकी: परमेश्वर ने मुझमें किस चीज़ को शुद्ध किया और बदला है? इसलिए, मैंने उठकर परमेश्वर का वचन पढ़ा: "तुम किसी व्यक्ति की प्रकृति को और वह किससे संबंधित है इस बात को उसके जीवन के दृष्टिकोण और मूल्यों से जान सकते हो। शैतान राष्ट्रीय सरकारों और प्रसिद्ध एवं महान व्यक्तियों की शिक्षा और प्रभाव के माध्यम से लोगों को दूषित करता है। उनके शैतानी शब्द मनुष्य के जीवन-प्रकृति बन गए हैं। 'स्वर्ग उन लोगों को नष्ट कर देता है जो स्वयं के लिए नहीं हैं' एक प्रसिद्ध शैतानी कहावत है जिसे हर किसी में डाल दिया गया है और यह मनुष्य का जीवन बन गया है। जीने के लिए दर्शन के कुछ अन्य शब्द भी हैं जो इसी तरह के हैं। ... अभी भी लोगों के जीवन में, और उनके आचरण और व्यवहार में कई शैतानी विष उपस्थित हैं—उनमें बिलकुल भी कोई सत्य नहीं है। उदाहरण के लिए, उनके जीवन दर्शन, काम करने के उनके तरीके, और उनकी सभी कहावतें बड़े लाल अजगर के विष से भरी हैं, और ये सभी शैतान से आते हैं। इस प्रकार, सभी चीजें जो लोगों की हड्डियों और रक्त में बहें, वह सभी शैतान की चीज़ें हैं" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर मनन किया, तो मैं सोच में डूब गई: इन पिछले कुछ महीनों में, मैं ऐसे अवसाद और दर्द में क्यों रही हूँ? शैतान का कौन सा विष मेरे व्यवहार पर हावी हो रहा है? परमेश्वर द्वारा प्रबुद्धता केकारण, मुझे लगा कि मेरा हृदय, धीरे-धीरे अंदर से उज्ज्वल हो रहा है, मुझे यह एहसास हुआ कि मेरे हमेशा से प्रतिष्ठा और हैसियत पर ध्यान देने का कारण "एक मनुष्य जहां भी रहता है, एक नाम पीछे छोड़ जाता है वैसे ही जैसे हंस जहां भी उड़ता है अपनी बोली छोड़ जाता है", "एक वृक्ष अपनी छाल के लिए जीता है; एक मनुष्य अपने चेहरे के लिए जीता है" और "एक व्यक्ति को हमेशा अपने साथ के लोगों से बेहतर होने की कोशिश करनी चाहिए" जैसे शैतान के विषों का प्रभाव और भ्रम था। यह इन विषैले पदार्थों का प्रभाव ही था जिसके कारण मैंने सम्मान और घमंड के बारे में और साथ ही दूसरों की मुझे लेकर जो राय है उसके बारे में इतनी परवाह की। मैंने जो कुछ भी किया और कहा वह अन्य लोगों के हृदयों में अपनी छवि और हैसियत को बनाए रखने के लिए था। जैसे ही कोई चीज़ मेरे सम्मान या घमंड पर चोट करती, तो मुझे पीड़ा और संताप होता। यह सब दुःख और कटुता शैतान की वजह से थी। मुझे याद आया कि छोटी बहन के साथ रहना शुरू करने के बाद से, एक अच्छी छाप छोड़ने के लिए मैं हमेशा सावधानी से उसके साथ पेश आई, मुझे डर था कि यदि मैंने कुछ ग़लत कहा या किया तो मैं ग़लत छाप छोड़ूँगी। इसलिए मैं चापलूसी करते हुए रह रही थी और एक मूर्ख की तरह काम कर रही थी। जब छोटी बहन ने मेरे साथ व्यवहार किया, तो मैंने इस अवसर का उपयोग स्वयं को जानने के लिए नहीं किया, बल्कि बहन के विरुद्ध राय और पूर्वाग्रहों से भरी थी क्योंकि मैं शर्मिंदा नहीं होना चाहती थी, यहाँ तक कि इस परिवेश से बच निकलना चाहती थी। अपनी छवि और सम्मान को बचाने के लिए, मैंने छोटी बहन के साथ तब भी स्पष्ट होने का साहस नहीं किया जब मैंने उसे कभी-कभी थोड़ी सी भ्रष्टता प्रकट करते हुए या सत्य के असंगत कामों को करते देखा, मैं डरती थी कि मैं उसका अपमान कर दूँगी जिससे हमारे रिश्ते में अधिकाधिक मनमुटाव हो जाएगा। ... शैतान के इन विषैले पदार्थों ने, हालाँकि, मुझे अधिकाधिक पाखंडी और चालाक बना दिया, जिससे मेरी जिंदगी बहुत थकाऊ और दुःखद बन गई। मैं वास्तव में कामना करती थी कि मैं इस अंधकारमय पिंजरे को तोड़ कर बाहर आ सकूँ और अपने नकली चेहरे को फेंक पाऊँ, ताकि मैं पूर्ण स्वतंत्रता और राहत के साथ जी सकूँ। किन्तु मैं इसे अपने दम पर नहीं कर सकती थी, इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेक कर अपना हृदय उसके सामने उँड़ेल दिया: "हे परमेश्वर! मैं प्रशंसा और प्रतिष्ठा को एक प्रकार के आनंद के रूप में माना करती थी। अब मुझे समझ आया है कि मैं ग़लत थी। इन चीजों का अनुसरण करना अद्भुत आनंद नहीं बल्कि पीड़ा, अवसाद, दासता, और अवरोध है। अब मैं यह भी स्पष्ट रूप से समझती हूँ कि यह शैतान के फ़लसफ़े थे जिसके कारण मैं प्रतिष्ठा, सम्पत्ति, और हैसियत, और साथ ही सम्मान और घमंडके पीछे भागती थी। ये मुझे धोखा देते थे और नियंत्रित करते थे। मेरी समस्त पीड़ा शैतान की वजह से है। हे परमेश्वर! मैं वास्तव में शैतान के फ़लसफ़े के अनुसार अब और जीना नहीं चाहती हूँ। मैं तेरे द्वारा उद्धार पाने के लिए प्रार्थता करती हूँ; मुझे अभ्यास का सही मार्ग दिखा, और मुझे शैतान के फन्दे को तोड़ कर बाहर निकलने और तेरी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने के लिए आत्मविश्वास और सामर्थ्य प्रदान कर।" प्रार्थना के बाद, मुझे अभूतपूर्व राहत महसूस हुई। साथ ही, मुझे एहसास हुआ था कि मैं केवल सत्य की खोज के माध्यम से अपने भ्रष्ट स्वभाव को हल कर सकती हूँ। उसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचन के निम्नलिखित अंश को देखा: "अगर तुम लोगों के साथ अपने संबंधों पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, लेकिन परमेश्वर के साथ एक उचित संबंध बनाए रखते हो, अगर तुम अपना हृदय परमेश्वर को देने और उसकी आज्ञा का पालने करने के लिए तैयार हो, तो स्वाभाविक रूप से सभी लोगों के साथ तुम्हारे संबंध सही हो जाएँगे। इस तरह से, ये संबंध शरीर के स्तर पर स्थापित नहीं होते, बल्कि परमेश्वर के प्रेम की बुनियाद पर स्थापित होते हैं। इनमें शरीर के स्तर पर लगभग कोई अंत:क्रिया नहीं होती, लेकिन आत्मा में संगति, आपसी प्रेम, आपसी सुविधा और एक-दूसरे के लिए प्रावधान की भावना रहती है। यह सब ऐसे हृदय की बुनियाद पर होता है, जो परमेश्वर को संतुष्ट करता हो। ये संबंध मानव जीवन-दर्शन के आधार पर नहीं बनाए रखे जाते, बल्कि परमेश्वर के लिए दायित्व वहन करने के माध्यम से बहुत ही स्वाभाविक रूप से बनते हैं। इसके लिए मानव-निर्मित प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। तुम्हें बस परमेश्वर के वचन के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की आवश्यकता है। क्या तुम परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होने के लिए तैयार हो? ... क्या तुम अपना हृदय पूरी तरह से परमेश्वर को देने और लोगों के बीच अपनी स्थिति की परवाह न करने के लिए तैयार हो?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का एक स्पष्ट तरीका दिखाया, और यह एक ईमानदार व्यक्ति होने और प्रतिष्ठा और सम्पत्ति की या लोगों के हृदयों में अपनी छवि और हैसियत बनाए रखने की अब और चिंता न करने का अभ्यास करना था। इसके बजाय, मुझे अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित कर देना चाहिए, हर चीज़ में परमेश्वर के वचनों का उत्कर्ष करना और उनकी गवाही देनी चाहिए, सत्य का अभ्यास और परमेश्वर का आज्ञापालन करना चाहिए। इस तरह, मैं परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता बनाने में समर्थ हो जाऊँगी। परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध होने पर अन्य लोगों के साथ संबंध स्वाभाविक रूप से सामान्य हो जाते हैं। इसलिए, मैंने मन में परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करने और धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने का फैसला किया। तब से, मैं अक्सर सजगता से छोटी बहन के साथ संवाद करती थी और उसके साथ मिल कर परमेश्वर के वचनों को पढ़ती थी। यदि हमें अपने कर्तव्यों को करने में ऐसी समस्याएँ आती जिनका हम समाधान नहीं कर सकती थीं, तो हम मिलजुल कर परमेश्वर से प्रार्थना करतीं और परमेश्वर के वचनों में जवाब ढूँढ़ती थी। हमारी एक दूसरे के साथ अच्छी तरह से पटती थी। मुझे पता भी नहीं चला और मेरे शरीर का बोझ, मेरे हृदय का अवसाद सब उड़ गया, और मेरे चेहरे पर एक लंबे समय से प्रतीक्षित मुस्कान उभर गई। परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने से मिली राहत और खुशी का मैंने वास्तव में अनुभव किया था। मुझे बचाने के लिए मैं ईमानदारी से परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ।
पीड़ादायक शुद्धिकरण के कुछ महीनों के बाद, मुझे अंततः समझ में आ गया कि क्यों परमेश्वर हमें अन्य लोगों के साथ संबंध बनाए रखने के लिए जीवन के फ़लसफ़े का उपयोग नहीं करने देता। इसका कारण यह है कि जीवन के सभी फ़लसफ़े और तथाकथित अभ्युक्तियाँ वे विषैले पदार्थ है जिन्हें शैतान लोगों में डालता है, और लोगों को बाध्य करने और नुकसान पहूँचाने के लिए शैतान के द्वारा उपयोग किए गए उपकरण हैं। ये शैतानी फ़लसफ़े केवल लोगों में फूट, संघर्ष और मृत्यु उत्पन्न करवा सकते हैं, और लोगों के लिए केवल अवसाद और पीड़ा ला सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि शैतान स्वयं ही भ्रष्टता और फूट है, और केवल परमेश्वर के वचन और लोगों से उसकी अपेक्षा ही उन्हें एक-दूसरे के साथ शांति बनाये रखने में सक्षम बना सकते हैं। केवल परमेश्वर के वचनों में रह कर और उसके वचनों के अनुसार कार्य करके ही लोग शैतान के अंधकारमय प्रभावों को तोड़ कर बाहर निकल सकते हैं और परमेश्वर के सामने पूर्ण स्वतंत्रता और राहत के साथ जी सकते हैं। साथ ही, मैंने यह भी देखा कि मेरा छोटी बहन के साथ रहना परमेश्वर के द्वारा एक अद्भुत व्यवस्था थी, जो कि मेरे अंदर शैतान के गहरे जड़ जमाए विषैले पदार्थों और मेरी व्यावहारिक आवश्यकताओं को लक्षित करने के लिए बनाई गई थी। यदि परमेश्वर ने इस तरह से कार्य नहीं किया होता, तो मैंने कभी भी उस नुकसान को नहीं पहचाना होता जो "एक मनुष्य जहां भी रहता है, एक नाम पीछे छोड़ जाता है, वैसे ही जैसे हंस जहां भी उड़ता है अपनी बोली छोड़ जाता है" और "एक वृक्ष अपनी छाल के लिए जीता है; एक मनुष्य अपने चेहरे के लिए जीता है" जैसे शैतानी विषैले पदार्थों ने मुझे पहुँचाया था। मैं अभी भी इन विषैले पदार्थों की सकारात्मक चीजों के रूप में पूजा कर रही होती, जिसने मुझे अधिकाधिक अहंकारी और भ्रष्ट बना दिया होता, और अंततः अधमता और विनाश की ओर आगे बढ़ा दिया होता। ये परिस्थितियाँ और परीक्षण निश्चित रूप से मेरे लिए परमेश्वर द्वारा महान उद्धार थे!
बाद में, मुझे कलीसिया की अगुआ के रूप में चुना गया। जब शुरुआत में मेरा मुद्दों से सामना होता, तो मैं अक्सर बहनों और भाइयों के सुझावों को सुनती, और इस बात की परवाह नहीं करती थी कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचेंगे। किन्तु प्रतिष्ठा और सम्पत्ति का अनुसरण करने की मेरी इच्छा को फिर से पाँव फैलाने में ज़्यादा समय नहीं लगा। चूँकि मैंने इस कर्तव्य को पूरा करना कलीसिया के अन्य अगुआ की अपेक्षा जल्दी शुरू कर दिया, इसलिए जब कोई समस्या होती तो भाई-बहन स्वाभाविक रूप से मेरे पास अधिक आते थे। धीरे-धीरे, मैंने भावनाओं में बहना शुरू कर दिया और सोचने लगी कि मैं उस बहन से अधिक बेहतर हूँ। जब मैं उस बहन के साथ सभा में होती, तो मैं दिखावा करने के लिए हमेशा कुछ महत्वपूर्ण प्रतीत होने वाले सिद्धांतों के बारे में बात करती और भाई-बहनों से सम्मान और प्रशंसा प्राप्त करती, और साथ ही उन्हें यह महसूस करवाती मैं उससे बेहतर हूँ। एक बार, एक छोटी सी सामूहिक-सभा के दौरान, उस बहन के थोड़ी देर संवाद करने के बाद मेरे मन में एक विचार आया: मुझे और अधिक संवाद करना चाहिए, अन्यथा बहनों और भाइयों को लगेगा कि मैं उसके जितनी अच्छी नहीं हूँ। इसलिए, जब एक विराम आया तो मैंने टाँग अड़ाई और बिना रुके संवाद करना आरंभ कर दिया। जैसे ही मैं इसे और विस्तार से बताने लगी, तभी मेरे बगल के एक भाई ने मुझे बाधित किया: "हम सिर्फ़ खोखले सिद्धांतों के बारे में बात नहीं कर सकते हैं। हमें कुछ व्यावहारिक अनुभवों और ज्ञान का संवाद करना चाहिए ताकि भाई-बहनों को आपूर्ति की जाए।" भाई के वचनों को सुनने के बाद, मुझे महसूस हुआ मानो कि जैसे मुझे सार्वजनिक रूप से थप्पड़ मारा गया हो। अपने लाल चेहरे के साथ, मैंने सोचा: मैंने तो कुछ अतिरिक्त वचन कहने का मन बनाया था ताकि भाई-बहन मुझे ऊंचा समझें, किन्तु अब यह मेरे लिए बहुत शर्मनाक हो गया है! उस वक्त, मैं बस धरती में समा जाना चाहती थी। जैसे ही मैं अंदर से संतप्त महसूस कर रही थी, तभी भाई ने परमेश्वर के वचन से एक अंश को पढ़ा: "कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जा कर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है जब लोग उन्हें सुनते हैं, उनकी आराधना करते हैं और उनके चारों ओर घूमते हैं। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के मन में उनकी एक हैसियत हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें: उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह इस बात को दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिमाग में एक हैसियत प्राप्त करना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। परमेश्वर के न्याय का हर वचन मेरे हृदय में चुभती हुई एक सुई की तरह था, जो मुझे और भी शर्मिंदा कह रहा था। मैंने स्मरण किया कि परमेश्वर पर मेरे विश्वास करने से पहले, मैं विशेष रूप से हर किसी के द्वारा प्रशंसा पाने का आनन्द लेती थी, और अलग दिखाई देने और एक मज़बूत सफल महिला बनने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगाती थी। इस सपने के चकनाचूर होने के बाद, मैं सोचती थी कि मैं कलीसिया में प्रतिष्ठा, सफलता और हैसियत का अपना सपना पूरा कर सकती हूँ। विशेष रूप से इस दौरान, मैं भीतर-ही भीतर उस बहन के साथ मुक़ाबला कर रही थी ताकि भाई-बहन मेरा सम्मान करें। ऊपर से, मैं हैसियत के लिए एक व्यक्ति से मुक़ाबला कर रही थी, किन्तु सार रूप में, मैं परमेश्वर के चुने लोगों के लिए परमेश्वर के साथ मुक़ाबला कर रही थी। इसका कारण यह है कि जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, उन्हें परमेश्वर का सम्मान करना चाहिए, उसकी आराधना करनी चाहिए, और अपने हृदयों में उसे एक स्थान देना चाहिए। इसके बजाय, मैं बहनों और भाइयों के हृदयों में एक जगह बनाना चाहती थी, और उनसे अपना सम्मान करवाना और अपनी आराधना करवाना चाहती थी। क्या यह परमेश्वर का खुल्लम-खुल्ला प्रतिरोध नहीं है? केवल तथ्यों से सामने ही मैं यह देखने में समर्थ थी कि मेरी प्रकृति परमेश्वर के विरूद्ध है। यदि मैं परमेश्वर की ताड़ना और न्याय का अनुभव नहीं करती हूँ और अपने स्वभाव में कोई परिवर्तन प्राप्त नहीं करती हूँ, तो भले ही बाहर से मैं पूरी तरह से परमेश्वर के लिए पूरी भावना और सक्रियता से खुद को खपाती हुई दिखाई दूँ, लेकिन मैं वास्तव में दुष्टता और परमेश्वर का विरोध कर रही हूँ। साथ ही, मैंने स्पष्ट रूप से देखा कि शैतान विभिन्न तरीकों से विषैले पदार्थों को मानवजाति के मन और आत्माओं में दाल कर, उनसे प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और हैसियत के लिए छीना-झपटी करवा कर उन्हें भ्रष्ट करता है, और इसके माध्यम से उन्हें धीरे-धीरे परमेश्वर से भटकाता है, इसके द्वारा परमेश्वर के साथ विश्वासघात करवाता है और अंत में उन्हें घसीट कर नरक में ले आता है। इस बारे में सोचकर, मैं डरने लगी, और मैंने अपने अंधेपन और मूर्खता से, अपनी गहरी भ्रष्टता और शैतान के उन विषैले पदार्थों से घृणा करनी भी शुरू कर दी, जिन्होंने मेरे अंदर गहरी जड़ें जमा ली थीं। यदि मैं प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और हैसियत के प्रभुत्व के अधीन नहीं होती, तो मैं किसी भी व्यक्ति, घटना, या चीज़ के नियंत्रण के अधीन नहीं हुई होती, और एक सृजित प्राणी के रूप में केवल अपने कर्तव्य को पूरा करने के माध्यम से परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा रखती। यदि मैं प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और हैसियत के द्वारा नियंत्रित नहीं हुई होती, तो अपने कर्तव्य को पूरा करने के माध्यम से, मैंने परमेश्वर का उत्कर्ष करने, परमेश्वर का गवाह बनने, और सामने बहनों और भाइयों को उसके सामने लाने पर ध्यान केंद्रित किया होता। यदि मैं प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और हैसियत से नियंत्रित नहीं की गई होती, तो मैं, सत्य द्वारा लायी गई राहत और खुशी का आनंद लेने में असमर्थ रहते हुए हर दिन अवसाद और संताप में नहीं जीती। यदि मैं प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और हैसियत के द्वारा नियंत्रित नहीं हुई होती, तो मैंने भाई-बहनों के साथ सामान्य संबंध स्थापित कर लिए होते और दूसरों का भरोसा और प्रशंसा पाने के लिए उन्हें धोखा देने हेतु एक मुखौटे का उपयोग करने के बजाय भावनाओं में एक दूसरे का समर्थन और सहायता की होती। ... यह शैतान के विषैले पदार्थों के कारण था, जिसने मुझे उस दिन तक नुकसान पहूँचाया था। शैतान वास्तव में बहुत घृणित और अत्यंत दुष्ट है। यह पूरी तरह से एक आत्मा को निगलने वाला राक्षस है! परमेश्वर द्वारा प्रबुद्धता और मार्गदर्शन के तहत, मैंने अपने देह-सुखों को त्यागने और सत्य का अभ्यास करने की इच्छा और साहस को विकसित किया। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की: "हे परमेश्वर! यह प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और हैसियत द्वारा पहुंचाया गया नुकसान है जिसने मुझे आज की स्थिति में डाल दिया है। इन चीजों के पीछे भागने के लिए, मैंने बार-बार तेरी अवहेलना और विरोध करते हुए तेरी अपेक्षाओं को त्याग दिया और तुझे दुःखी और अप्रसन्न किया। अब मैं अपने हृदय की गहराई से इन चीज़ों से नफ़रत करती हूँ। मैं उन्हें छोड़ दूँगी और उनका पूरी तरह से परित्याग कर दूँगी। तू मेरा भविष्य के मार्ग में मार्गदर्शन कर।" तब से, मैंने खुद को बहुत कम महत्व दिया, और सभाओं के दौरान मैं अपने वास्तविक अनुभवों के बारे में बात करने पर ध्यान देने लगी। जब भाई-बहनों को समस्याएँ होतीं, तो मैं उन लोगों के साथ उस समय के बारे में संवाद करने के लिए अपने हृदय को खोल देती थी जब मैं स्वयं वास्तव में समस्याओं से घिरी थी और मुझे परमेश्वर के वचनों की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन मिला, ताकि वे परमेश्वर के इरादों को समझ सकें और परमेश्वर के प्रेम को पहचान सकें। जब मैंने इस तरह से कार्य किया, तो मुझे अपने हृदय के अंदर सहजता और रोशनी महसूस हयी, जिससे हर दिन विशेष रूप से संतुष्टिदायक हो गया।
बार-बार परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करने और उसके द्वारा व्यवहार और काँट-छाँट किए जाने के बाद, मुझे अपने शैतानी स्वभाव का कुछ वास्तविक ज्ञान होना आरंभ हुआ। जब कभी भी मैं प्रतिष्ठा, सम्पत्ति, हैसियत और सम्मान जैसी चीज़ों को सामने पाती, तो मैं सजगता से परमेश्वर से प्रार्थना करती और उसके साथ सहयोग करती, और अपनी देह-सुख को छोड़ देती और सत्य का अभ्यास करती। एक बार, पड़ोसी कलीसिया की एक बहन अच्छी हालत में नहीं थी। यह सुनकर, हम बार-बार उसके साथ संवाद करने के लिए जाते और दिल से बातचीत करते। कुछ समय के बाद, उसकी स्थिति में सुधार हो गया और उसने सुसमाचार के कार्य में सक्रिय रूप से सहयोग करना आरंभ कर दिया। जिन नए विश्वासियों में वह लायी गयी थी उनमें से एक महिला थी जो वास्तव में सत्य के लिए भूखी थी और उसने बहुत तेजी से प्रगति भी की थी। इसलिए हम नए विश्वासियों के लिए उसे एक कलीसिया के अगुआ के रूप में विकसित करना चाहते थे। इस समय, पड़ोसी कलीसिया ने यह अनुरोध करते हुए हमें लिखा कि वो बहन वहाँ अपना कर्तव्य करने के लिए आ जाए। मैं अंदर से बहुत अनिच्छुक थी, किन्तु फिर मुझे दूसरा विचार आया: सारी कलीसियाएँ एक संपूर्ण इकाई हैं। परमेश्वर जो चाहता है वह है एक सामूहिक अभिव्यक्ति। चाहे नयी विश्वासी किसी भी कलीसिया में जाये, जब तक वह अपने कर्तव्य को पूरा कर सकती है, तब तक यह परमेश्वर के हृदय को सुख देगा। क्या मेरी पिछली सोच अभी भी प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और हैसियत के लिए नहीं थी? क्या मैं अभी भी अपनी व्यक्तिगत छवि और चेहरे पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रही थी? इसने मुझे परमेश्वर के इन वचनों की याद दिला दी: "क्रूर मानवजाति! साँठ-गाँठ और साज़िश, एक-दूसरे से छीनना और हथियाना, प्रसिद्धि और संपत्ति के लिए हाथापाई, आपसी कत्लेआम—यह सब कब समाप्त होगा? परमेश्वर द्वारा बोले गए लाखों वचनों के बावजूद किसी को भी होश नहीं आया है। लोग अपने परिवार और बेटे-बेटियों के वास्ते, आजीविका, भावी संभावनाओं, हैसियत, महत्वाकांक्षा और पैसों के लिए, भोजन, कपड़ों और देह-सुख के वास्ते कार्य करते हैं। पर क्या कोई ऐसा है, जिसके कार्य वास्तव में परमेश्वर के वास्ते हैं? यहाँ तक कि जो परमेश्वर के लिए कार्य करते हैं, उनमें से भी बहुत थोड़े ही हैं, जो परमेश्वर को जानते हैं। कितने लोग अपने स्वयं के हितों के लिए काम नहीं करते? कितने लोग अपनी हैसियत बचाए रखने के लिए दूसरों पर अत्याचार या उनका बहिष्कार नहीं करते?" ("वचन देह में प्रकट होता है" में "दुष्टों को निश्चय ही दण्ड दिया जायेगा")। सही है! मेरे आचरण और व्यवहार को देखो। मैं हमेशा प्रतिष्ठा और सम्पत्ति के पीछे भागती थी, जो कि परमेश्वर के लिए नहीं था। मैं कितनी स्वार्थी थी! मैंने परमेश्वर द्वारा उत्कर्ष और उसकी दयालुता का आनंद लिया, किन्तु मैंने प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और हैसियत प्राप्त करने के लिए हर दिन कड़ी मेहनत से प्रयास किया और अपने दिमाग को खंगाल डाला। भले ही मैं परमेश्वर के नाम पर विश्वास करती थी, किन्तु मैं परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं के अनुसार कार्य नहीं करती थी, और सार रूप में परमेश्वर का आज्ञापालन बिल्कुल नहीं करती थी। क्या मनुष्य परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास करता है, इसकी माप परमेश्वर मनुष्य के बाहरी व्यवहार या दूसरों के मूल्यांकन के आधार पर नहीं करता है, बल्कि यह इस बात पर आधारित होता है कि जब उसके कोई घटना होती है तो क्या वह उन चीजों को अपने हृदय से निकाल सकता है जो परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं हैं, क्या वह कलीसिया के सर्वोत्तम हितों के बारे में सोच सकता है, और क्या वह हर चीज़ में परमेश्वर को संतुष्ट कर सकता है और उससे प्रेम कर सकता है। परमेश्वर के इरादों को समझने के बाद, मेरा हृदय अचानक प्रफुल्लित हो गया, और मैंने तुरंत इस नयी विश्वासी को पड़ोसी कलीसिया में स्थानांतरित कर दिया।
कई वर्षों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के बाद, मैं और अधिक स्पष्ट रूप से समझ गई: प्रतिष्ठा, सम्पत्ति, और हैसियत लोगों को बेवकूफ़ बनाने के लिए शैतान द्वारा उपयोग की जाने वाली चालें और उन्हें बाँधने के लिए जंजीरें हैं। केवल इसके अधिकार क्षेत्र में रहने वाले लोग, किसी भी स्वतंत्रता के बिना, इसके द्वारा बाध्य किए और मूर्ख ही बनाए जा सकते हैं। दूसरी ओर, परमेश्वर का वचन सत्य, मार्ग और जीवन है। परमेश्वर के वचन के अधीन रहने वाले लोग प्रकाश और परमेश्वर की आशीष में रहते हैं। जब तक मनुष्य परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने और परमेश्वर के कहे अनुसार सत्य का अभ्यास करने का कुछ प्रयास करता है तब तक वह परमेश्वर के सामने रहने की राहत और स्वतंत्रता का अनुभव करने में समर्थ होगा। उस दर्द और पीड़ा को देखकर जो प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और हैसियत मेरे लिए लाई थी, फिर उद्धार का कार्य देखने पर जो परमेश्वर ने मुझ पर किया है, मैं सचमुच परमेश्वर के प्रति सराहना और कृतज्ञता महसूस करती हूँ। प्रतिष्ठा, सम्पत्ति और हैसियत के बंधन से मुझे बचाने के लिए, परमेश्वर ने विभिन्न परिवेशों, लोगों, चीज़ों और घटनाओं की विस्तृत रूप से व्यवस्था की, और अपने व्यावहारिक कार्य का उपयोग करके, मुझे जीवन के सही मार्ग पर चलने दिया, कदम-दर-कदम मेरी अगुआई और मेरा मार्गदर्शन किया। हर परिवेश और हर प्रकटीकरण सब परमेश्वर द्वारा विस्तृत रूप से नियोजित थी, और प्रत्येक के पीछे परमेश्वर का मेरे लिए महान प्रेम निहित है। बार-बार ताड़ना और न्याय का सामना करने के बाद, मैंने धीरे-धीरे अपनी भ्रष्टता की वास्तविकता को देखा। मुझे परमेश्वर के व्यावहारिक कार्य का ज्ञान भी मिला, मैंने परमेश्वर की पवित्रता, महानता और निःस्वार्थता को देखा, और मानवजाति को बचाने में परमेश्वर के विचार और देखभाल को गहराई से महसूस किया। अपने भविष्य के अनुभवों में, मैं परमेश्वर की ताड़ना और न्याय, उसके परीक्षणों और शुद्धिकरणों को स्वीकार करने के लिए और अधिक इच्छुक रहूँगी, ताकि मेरे भ्रष्ट स्वभाव को यथशीघ्र पूरी तरह से शुद्ध किया जा सके और बदला जा सके, और ताकि मैं असल में एक अर्थपूर्ण और मूल्यवान जीवन जी सकूँ!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?