मैंने अपनी नकारात्मक भावना कैसे छोड़ी

24 नवम्बर, 2024

अक्टूबर 2022 में, शैली और मुझे कलीसिया अगुआ के रूप में चुना गया। चूँकि हमने अभ्यास करना शुरू ही किया था और कई कार्यों की हमें जानकारी नहीं थी, तो हम हमेशा मामलों पर एक-साथ चर्चा करते। कुछ समय बाद हमारे काम के कुछ परिणाम दिखने लगे। शैली मुझसे ज्यादा काबिल थी। जब भी अगुआ कोई सवाल पूछती, वह तुरंत जवाब देती। ज्यादातर समय, अगुआ भी उसकी बात मानती। परिणामस्वरूप, अगुआ बहुत से मामलों पर शैली से सुझाव माँगना ज्यादा पसंद करती, जबकि मैं एक तरफ निरर्थक-सी बैठी रहती। मैं मन ही मन सोचती, “शैली में काबिलियत है और अगुआ भी उसके बारे में अपेक्षाकृत ज्यादा अच्छी राय रखती है, जबकि मैं बिना कुछ बोले घंंटों बैठी रहती हूँ। अगुआ ने शायद मेरी योग्यता की कमी को समझ लिया है और सोचती है कि मैं केवल थोड़ा-बहुत सहायक कार्य ही कर सकती हूँ।” मैं थोड़ी निराश हो जाती, लेकिन फिर मुझे लगता कि चूँकि मैंने अभी अभ्यास करना शुरू ही किया है और मैं उतनी काबिल भी नहीं हूँ, तो किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए मेरा उपयोग न किया जाना एक सामान्य बात है। मैंने खुद को सांत्वना दी और मेरे मन से यह भावना निकल गई।

आगे चलकर, हमारे जिम्मे का काम काफी बढ़ गया। काम सौंपते समय अगुआ हम दोनों को बुलाती। लेकिन जब कुछ ज्यादा चुनौतीपूर्ण कार्यों के कार्यान्वयन की बात आती, तो अगुआ विशेष रूप से शैली से उन कामों का जायजा लेने की बात कहती और शायद ही कभी मेरे नाम का जिक्र करती। ज्यादा से ज्यादा, अगुआ इतना भर कह देती, “शैली, तुम और बाकी लोग इस कार्य को देख लेना।” ऊपर से तो मैं दिखाती कि मैं परवाह नहीं करती, लेकिन अंदर ही अंदर बेचैन हो जाती : “मुझे ही हमेशा अनदेखा किया जाता है, मैं ‘बाकियों’ का एक हिस्सा-मात्र हूँ। ऐसा लगता है जैसे अगुआ के लिए मेरा कोई वजूद ही नहीं है। लेकिन मैं कुछ कर नहीं सकती; आखिरकार, मैं शैली जितनी काबिल भी तो नहीं हूँ। ठीक है, बस उतना ही करूँगी जितना कर सकती हूँ।” इसके बाद, मैं कार्यों का जायजा लेने में ज्यादा निष्क्रिय होती चली गई और जिस काम के लिए शैली जिम्मेदार थी, उसमें मैं ज्यादा शामिल नहीं होना चाहती थी। जब वह मुझसे काम के बारे में चर्चा करने आती तो मैं आधे-अधूरे मन से जवाब देती। कभी-कभी सब लोग किसी समस्या पर सक्रिय रूप से चर्चा करते, और मैं एक बाहरी व्यक्ति की तरह महसूस करती, दिन-भर शायद ही कोई शब्द मेरे मुँह से निकलता। कभी-कभी मेरे पास कुछ विचार होते, लेकिन मुझे यकीन नहीं हो पाता था कि वे सही भी हैं या नहीं। अगर मैंने कुछ गलत बोल दिया, तो कहीं मैं मूर्ख तो नहीं कहलाऊँगी? बहुत सोच-विचार करने के बाद, मैंने तय किया कि नहीं बोलना है। इस तरह, मुझे निरंतर यही लगता कि मुझमें काबिलियत की कमी है और मैं ज्यादा उपयोगी नहीं हूँ, इसलिए मैं अब इतने सारे काम के लिए जिम्मेदार नहीं होना चाहती थी। फिर मैंने अपना ध्यान सिंचन-कार्य पर लगा दिया। उस समय, कलीसिया में सिंचन समूह के अगुआ की कमी थी, और मुझे बहन रोज़ का ख्याल आया, जो पहले नए विश्वासियों को सिंचित करने में कुछ परिणाम हासिल कर चुकी थी। लेकिन भाई-बहनों का कहना था कि वह अपने कर्तव्य का बोझ नहीं उठाती थी और समूह अगुआ बनने योग्य नहीं थी। मैं शैली के साथ इस पर चर्चा करना चाहती थी, लेकिन उसकी व्यस्तता को देखते हुए, मैंने उससे उस बात की चर्चा नहीं की, मुझे डर था कि कहीं वह यह न कहे कि मुझमें बहुत ही कम काबिलियत है क्योंकि मैं इस छोटे से काम को भी नहीं संभाल पाती। मैंने सोचा, “रोज़ काफी काबिल है और वह कुछ समस्याओं को सुलझाने के लिए संगति कर सकती है। भले ही अपने पति के दबाव के कारण शायद वह अब दायित्व न उठा पाए, फिर भी मेरी ओर से ज्यादा अनुवर्ती कार्रवाई और संगति से, काम में देरी नहीं होनी चाहिए।” इसलिए, मैंने रोज़ को सिंचन कार्य के समूह अगुआ के लिए चुन लिया। लेकिन कुछ दिनों बाद, मुझे पता चला कि रोज़ ने अपने पति के दबाव के कारण अपना कर्तव्य छोड़ दिया और घर चली गई। यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गई और सोचने लगी, “यही होना था। मैंने उसे चुना था। क्या इससे यह नहीं पता चलता कि मुझे इंसान की कोई पहचान नहीं है? एक छोटे से काम को भी स्वतंत्र रूप से करते हुए गलतियाँ करती हूँ, यह वाकई बहुत बुरी बात है; अगर इससे नए विश्वासियों को सिंचित करने में देरी हुई, तो मैं कलीसिया के काम को बाधित करूँगी।” सोच-सोचकर मुझे बहुत बुरा लग रहा था, मुझे यकीन होने लगा था कि मैं कुछ भी अच्छा नहीं कर सकती। चूँकि मुझमें काबिलियत और विवेक की कमी है, और चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाती, मुझे फौरन इस्तीफा दे देना चाहिए ताकि भाई-बहनों को और ज्यादा नुकसान न पहुँचे और कलीसिया के काम में देरी न हो। इसलिए, मैंने अपना त्यागपत्र लिखा और अगुआ और शैली को भेज दिया। कुछ समय बाद ही, शैली ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा : “परिस्थिति या कार्य का माहौल चाहे जैसा भी हो, लोग कभी-कभी गलतियाँ करते हैं, और ऐसे क्षेत्र भी हैं जहाँ उनकी काबिलियत, अंतर्दृष्टि और परिप्रेक्ष्य कम पड़ जाते हैं। यह सामान्य है, और तुम्हें इसे सही तरीके से संभालना सीखना होगा। चाहे तुम्हारा अभ्यास कुछ भी हो, हर हाल में तुम्हें उसका सही तरीके से और सक्रियता से सामना करना और संभालना चाहिए। थोड़ी-सी कठिनाई आने पर अवसादग्रस्त न हो या नकारात्मक या दमित महसूस न करो, और नकारात्मक भावनाओं में मत डूबो। इन सबकी कोई जरूरत नहीं है, बात का बतंगड़ मत बनाओ। तुम्हें तुरंत आत्म-चिंतन करना चाहिए और यह निर्धारित करना चाहिए कि कहीं तुम्हारे पेशेवर कौशल में या तुम्हारे इरादों में कोई समस्या तो नहीं है। जाँच करो कि क्या तुम्हारे क्रियाकलापों में कोई अशुद्धियाँ हैं या कुछ धारणाएँ इसके लिए दोषी हैं। सभी पहलुओं पर चिंतन करो। यदि यह दक्षता की कमी से जुड़ी समस्या है, तो तुम सीखना जारी रख सकते हो, समाधान खोजने में मदद के लिए किसी को ढूँढो, या उसी क्षेत्र के लोगों से परामर्श करो। यदि कुछ गलत इरादे मौजूद हैं, ऐसी समस्या शामिल है जिसे सत्य का उपयोग करके हल किया जा सकता है, तो तुम परामर्श और संगति के लिए कलीसिया अगुआओं या सत्य समझने वाले किसी व्यक्ति को खोज सकते हो। तुम जिस अवस्था में हो, उसके बारे में उनसे बात करो और उन्हें इसे सुलझाने में तुम्हारी मदद करने दो। यदि यह धारणाओं से जुड़ी समस्या है, तो उनकी जाँच करने और उन्हें पहचानने के बाद, तुम उनका गहन-विश्लेषण करके उन्हें समझ सकते हो, फिर उनसे दूर होकर विद्रोह कर सकते हो। क्या इसमें बस इतना ही नहीं करना है? आने वाले दिन अभी भी तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं, कल सूरज फिर से उगेगा, और तुम्हें जीना होगा। क्योंकि तुम जिंदा हो, क्योंकि तुम इंसान हो, तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते रहना चाहिए। जब तक तुम जिंदा हो और तुम्हारे पास विचार हैं, तब तक तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने और उसे पूरा करने का प्रयास करते रहना चाहिए। यह एक ऐसा लक्ष्य है जो व्यक्ति के जीवन भर में अपरिवर्तित रहना चाहिए। चाहे जब भी हो, चाहे सामने कोई भी कठिनाई हो, चाहे किसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े, तुम्हें दमित महसूस नहीं करना चाहिए। यदि तुम दमित महसूस करते हो, तो तुम स्थिर हो जाओगे और पराजित हो जाओगे। किस तरह के लोग हमेशा दमित महसूस करते हैं? कमजोर और मूर्ख लोग अक्सर दमित महसूस करते हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (6))परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने अपने अंदर एक गर्मजोशी महसूस की। परमेश्वर ने कहा कि अपने कर्तव्य निभाते समय लोगों के सामने ऐसे दौर भी आते हैं जब सत्य की समझ न होने के कारण वे भ्रमित हो सकते हैं, गलतियाँ कर सकते हैं या सिद्धांतों का उल्लंघन कर सकते हैं। इसलिए जब ऐसी समस्याएँ आती हैं जिनसे काम को कुछ नुकसान होता है, या जब लोगों की काट-छाँट की जाती है, तो ये सभी बातें सामान्य हैं और उन्हें उसी ढंग से देखा जाना चाहिए। मुख्य बात है असफलताओं से सबक सीखना, आत्म-चिंतन करना, पश्चात्ताप करना और खुद को बदलना। अगर भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार काम करने से कार्य में हानि होती है, तो फिर व्यक्ति को भ्रष्ट स्वभावों के समाधान के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए। अगर कौशल की कमी के कारण कार्य अप्रभावी है, तो व्यक्ति को तुरंत सीखना चाहिए या किसी ज्यादा कुशल व्यक्ति से परामर्श लेना चाहिए। अगर केवल इन विचलनों या गलतियों के प्रकट होने के कारण, कोई सोचता है कि वह बेनकाब हो गया है और वह नकारात्मक हो जाता है, खुद को सीमित कर लेता है और अपना कर्तव्य भी नहीं निभाना चाहता, तो इससे पता चलता है कि वह मूर्ख और कमजोर है। मैंने रोज़ को चुनने के मुद्दों पर विचार किया और मुझे एहसास हुआ किया कि मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को लेकर बहुत चिंतित थी। शैली के साथ सहयोग करने के दौरान, मुझे यही लगता कि हर जगह वही छाई हुई है, इसलिए मैं स्वतंत्र रूप से कोई कार्य करके यह साबित करना चाहती थी कि मुझमें अभी भी काम करने की थोड़ी-बहुत काबिलियत है। इसलिए सिंचन समूह के अगुआ का चयन करने के मामले में, हालाँकि मुझमें स्पष्ट रूप से सिद्धांतों का अभाव था और मैं लोगों को पहचान नहीं पाती थी, चूँकि मुझे डर था कि अगर मैंने भाई-बहनों से पूछा, तो वे सोचेंगे कि मैं वाकई अयोग्य हूँ और इतना छोटा-सा काम भी नहीं संभाल पाती, तो मैंने अपने हिसाब से रोज़ को चुना। मैं लोगों को पहचान नहीं पाती थी और उन्हें चुनने और उपयोग करने में सिद्धांतों का पालन नहीं करती थी। दरअसल, परमेश्वर का घर काफी पहले संगति कर चुका है कि लोगों को चुनते और उपयोग करते समय, हमें उन लोगों से परामर्श करना और पूछना चाहिए जो उनकी पृष्ठभूमि जानते हैं ताकि चुने गए लोगों को विकसित करने से पहले यह सुनिश्चित हो सके कि उनमें दायित्व-बोध और थोड़ी-बहुत काबिलियत है, और अगर पता चलता है कि किसी व्यक्ति के साथ कोई समस्या है, तो हमें स्थिति को समझने के लिए तुरंत जांच करनी चाहिए। अगर हम उसे साफ तौर पर न समझ पाएँ, तो हमें किसी ऐसे व्यक्ति को खोजना चाहिए जो सत्य समझता हो। केवल इसी तरह से हमारा चयन और लोगों का उपयोग ज्यादा सटीक हो सकता है। लेकिन मैंने अपने घमंड और रुतबे की रक्षा के लिए, मनमर्जी से रोज़ को आगे बढ़ाया। मैं मनमाने ढंग से काम कर रही थी और काम के प्रति बेहद गैर-जिम्मेदार थी। अब जबकि काम में देरी हो चुकी थी, मुझे फौरन समस्या को हल करने के तरीकों के बारे में सोचना चाहिए, मुझे निराशा में डूबकर खुद को खारिज नहीं करना चाहिए। ऐसा करके मैं अपनी जिम्मेदारी से बच रही थी। मैं बहुत स्वार्थी थी!

एक सभा में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो मेरे लिए बहुत उपयोगी था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “अगर तुम दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति हो, अगर तुम उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को उठा सकते हो जो लोगों को वहन करने चाहिए, वे चीजें जो सामान्य मानवता वाले लोगों को हासिल करनी चाहिए, और वे चीजें जो वयस्कों को अपने अनुसरण के उद्देश्यों और लक्ष्यों के रूप में हासिल करनी चाहिए, और अगर तुम अपनी जिम्मेदारियाँ उठा सकते हो, तो तुम चाहे जो भी कीमत चुकाओ और चाहे जितना भी दर्द सहो, तुम शिकायत नहीं करोगे, और जब तक तुम इसे परमेश्वर की अपेक्षाओं और इरादों के रूप में पहचानते हो, तुम किसी भी पीड़ा को सहन करने में सक्षम होगे और अपना कर्तव्य अच्छे से निभा पाओगे। उस समय तुम्हारी मानसिक स्थिति कैसी होगी? वह अलग होगी; तुम अपने दिल में शांति और स्थिरता महसूस करोगे और आनंद अनुभव करोगे। देखो, सिर्फ सामान्य मानवता को जीने की कोशिश करने और उन जिम्मेदारियों, दायित्वों और मिशन का अनुसरण करने से, जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोगों को वहन करना और हाथ में लेना चाहिए, लोग अपने दिलों में शांति और खुशी महसूस करते हैं और आनंद अनुभव करते हैं। वे उस बिंदु तक भी नहीं पहुँचे, जहाँ वे सिद्धांतों के अनुसार मामलों का संचालन कर सत्य प्राप्त कर रहे हों, और उनमें पहले से ही कुछ बदलाव आ चुका हो। ऐसे लोग वे होते हैं, जिनमें जमीर और विवेक होता है; वे ईमानदार लोग हैं, जो किसी भी कठिनाई पर काबू पा सकते हैं और कोई भी कार्य कर सकते हैं। वे मसीह के अच्छे सैनिक हैं, वे प्रशिक्षण से गुजरे हैं और कोई भी कठिनाई उन्हें हरा नहीं सकती। मुझे बताओ, तुम लोग इस तरह के आचरण के बारे में क्या सोचते हो? क्या इन लोगों में धैर्य नहीं है? (है।) उनमें धैर्य है और लोग उनकी प्रशंसा करते हैं। क्या ऐसे लोग अब भी दमित महसूस करेंगे? (नहीं।) तो फिर उन्होंने इन दमनात्मक भावनाओं को कैसे बदला? किस कारण से ये दमन की भावनाएँ उन्हें न तो परेशान करेंगी और न ही उन तक पहुँचेंगी? (इसलिए कि वे सकारात्मक चीजों को पसंद करते हैं और अपने कर्तव्यों का बोझ उठाते हैं।) यह सही है, यह अपना उचित कार्य करने के बारे में है। ... अगर व्यक्ति अपना उचित कार्य करे और सही मार्ग पर चले, तो ये भावनाएँ उत्पन्न ही नहीं होंगी। अगर वे कभी-कभी अस्थायी विशेष परिस्थितियों के कारण दमनात्मक भावनाएँ अनुभव करते भी हैं, तो वे सिर्फ अस्थायी मनोदशाएँ होंगी, क्योंकि जीवन का सही तरीका और अस्तित्व पर सही दृष्टिकोण रखने वाले लोग इन नकारात्मक भावनाओं पर तुरंत काबू पा लेंगे। नतीजतन, तुम बार-बार खुद को दमन की भावनाओं में फँसा हुआ नहीं पाओगे। इसका मतलब यह है कि दमन की ऐसी भावनाएँ तुम्हें परेशान नहीं करेंगी। तुम अस्थायी तौर पर खराब मनोदशाओं का अनुभव कर सकते हो, लेकिन तुम उनमें फँसोगे नहीं। यह सत्य का अनुसरण करने के महत्व पर प्रकाश डालता है। अगर तुम अपना उचित कार्य करना चाहते हो, अगर तुम वे जिम्मेदारियाँ उठाते हो जो वयस्कों को उठानी चाहिए, और एक सामान्य, अच्छा, सकारात्मक और सक्रिय जीवन जीना चाहते हो, तो तुममें ये नकारात्मक भावनाएँ विकसित नहीं होंगी। ये दमनात्मक भावनाएँ तुम्हें ढूँढ़ नहीं पाएँगी या तुमसे चिपक नहीं पाएँगी(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे बहुत शर्म आई। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि वयस्क और जो लोग उचित कार्य संभालते हैं, वे सही मामलों पर पूरा ध्यान देते हैं। वे हर दिन, अपने कर्तव्यों से जुड़ी बातों के बारे में सोचते हैं, जैसे कि अपने कर्तव्यों को अच्छे से कैसे निभाएं, उनके कर्तव्यों में अभी भी क्या समस्याएं हैं, अपना काम बेहतर तरीके से कैसे करें, वगैरह। भले ही उनके कर्तव्यों में कुछ विचलन या गलतियाँ हो जाएँ, असफलताओं का सामना करना पड़ जाए और वे कुछ समय के लिए कमजोर या निराश हो जाएँ, लेकिन वे हमेशा नकारात्मक भावनाओं में नहीं रहते, बल्कि वे अपनी समस्याओं को हल करने के लिए सक्रिय रूप से सत्य खोजते हैं। लेकिन मैं अभी भी एक ऐसे बेकार व्यक्ति की तरह थी जो जिम्मेदारियाँ नहीं उठा सकता था। कुछ असफलताओं का सामना कर, मैं नकारात्मक हो गई और हार मान ली, मुझमें एक वयस्क जितना धैर्य नहीं था। इसके अतिरिक्त, इससे यह भी उजागर हुआ कि हाल ही में मुझे जो करना चाहिए था उस पर मैं ध्यान देने में विफल रही। कलीसिया का काम संभालने के बाद से, यह देखकर कि मेरी सहयोगी बहन कई पहलुओं में मुझसे बेहतर है, मुझे लगा कि मुझमें काबिलियत की कमी है और मेरी सराहना नहीं की जा रही। इसलिए मैं अपनी काबिलियत साबित करना चाह रही थी। जब अगुआ हमारे साथ सभाएँ करती, तो मैं लगातार उसके हाव-भाव पर गौर करती और उसके लहजे से यह अंदाजा लगाने की कोशिश करती कि वह मुझे महत्व देती है या नहीं। अगर अगुआ विशेष रूप से मुझसे कोई काम करने को कहती, तो मुझे खुशी होती, मुझे लगता कि अगुआ मुझे महत्व देती है, और मुझे अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा मिलती। लेकिन अगर अगुआ मुख्य जिम्मेदारियाँ मेरी सहयोगी बहन को सौंपती, तो मुझे लगता कि मैं महत्वहीन हूँ। प्रतिष्ठा और रुतबा पाने की मेरी इच्छा पूरी न होने पर मैं दुखी हो जाती। मैं भाई-बहनों के साथ सहयोग तो करती, पर मेरा मन अपने कर्तव्यों पर न रहता बल्कि इस पर रहता कि वे मेरी बात से कितने सहमत हैं। जब कभी मैं कोई अपना दृष्टिकोण सामने रखती और किसी से प्रतिक्रिया न मिलती, तो मैं असहज हो जाती। अगर वे कोई उलटे ही सुझाव देते तो मैं और भी ज्यादा नकारात्मक हो जाती और मान बैठती कि मुझमें ही काबिलियत की कमी है, चर्चा में भाग लेने की भी इच्छा न होती। विशेषकर रोज़ के मामले में, विवेक की कमी के बावजूद मैं मनमाने ढंगे से लापरवाही से काम करती, और गलती करने के बाद आत्म-चिंतन न करती, बल्कि नकारात्मक भावनाओं में पड़कर इस्तीफा देना चाहती। यह सब इसलिए था क्योंकि मैं अपने कर्तव्यों का पालन करते समय सही काम नहीं करती थी, बल्कि हमेशा प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागती थी। मेरी निगाहें और सोच सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे पर ही केंद्रित रहती थी। जब मुझे लोगों से प्रशंसा न मिलती तो मैं नकारात्मक और दुखी हो जाती, यहाँ तक कि कलीसिया के काम को भी दर-किनार कर देती। ऐसे में मैं अपना कर्तव्य बिल्कुल भी अच्छे से न निभा पाती। परमेश्वर को इस रवैये से घृणा है। मुझे याद आया परमेश्वर ने कहा था : “खासकर जो वर्तमान में परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, क्या उनके पास दमित महसूस करने का समय होता है? बिल्कुल समय नहीं होता। तो उन लोगों के साथ क्या मामला है, जो दमित महसूस करते हैं, जिनकी मनोदशा खराब हो जाती है, और अपने साथ थोड़ी अप्रिय घटना होने पर जो निराश या उदास महसूस करते हैं? वह मामला यह है कि वे खुद को सही चीजों में व्यस्त नहीं रखते और निष्क्रिय रहते हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। मैंने देखा कि मेरे आस-पास के सभी भाई-बहन अपने-अपने कर्तव्यों में व्यस्त रहते हैं जबकि मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की चिंताओं में ही उलझी रहती हूँ, इन मुद्दों को हल करने के लिए सत्य नहीं खोजती, बल्कि और ज्यादा नकारात्मक और प्रतिरोधी बनती जा रही हूँ, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं सत्य का अनुसरण करने वाली इंसान नहीं हूँ। विशेष रूप से तब जब मुझे ख्याल आया कि शैली ने कहा था कि जिस सुसमाचार कार्य के लिए वह जिम्मेदार है, उसके परिणाम अच्छे नहीं आए, और हर कोई मुश्किलों में है, और वह उम्मीद कर रही थी कि इन मुश्किलों को हम मिल-जुलकर और एकमत होकर दूर कर लेंगे, तो मन ही मन मुझे बहुत अपराध-बोध और ग्लानि हुई। परमेश्वर ने हमारे लिए कलीसिया के काम की खातिर जिम्मेदार होने के लिए मिलकर सहयोग करने के लिए वातावरण की व्यवस्था की, लेकिन अपने कर्तव्यों को अच्छे से कैसे निभाऊं इस पर ध्यान देने के बजाय, मैं अपने क्षुद्र विचारों में खोई हुई थी, नकारात्मक होकर पीछे हट गई थी और इस्तीफा देना चाहती थी। मुझमें मानवता नहीं थी! मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं बहुत स्वार्थी हूँ। अभी कलीसिया के काम में बहुत सारी कठिनाइयाँ हैं, फिर भी मैंने उचित मामलों पर ध्यान न देकर हर दिन बहन के साथ प्रतिस्पर्धा की। जब मैं उससे बेहतर नहीं बन सकी, तो मैं नकारात्मक हो गई। ऐसा लगा जैसे मैं किसी भी सकारात्मक अनुसरण से रहित अंदर से एक गंदा नाला हूँ। मैं न केवल खुद को कष्ट दे रही हूँ बल्कि कलीसिया के काम में भी देरी कर रही हूँ। अब मुझे अपनी समस्याएँ समझ में आ गई हैं। हालाँकि मुझमें कोई बहुत काबिलियत नहीं है, फिर भी मुझे बहन के साथ सहयोग करते हुए सौहार्दपूर्ण ढंग से काम करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। कम से कम मुझे अपने रवैये के कारण काम में देरी नहीं करनी चाहिए। हे परमेश्वर, तू मेरे हृदय की जांच कर; मैं पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ!” उसके बाद, अपने कर्तव्य-निर्वहन के प्रति मेरा रवैया और ज्यादा सक्रिय हो गया। मैंने शैली के साथ काम में आने वाली समस्याओं पर सक्रिय रूप से चर्चा करते हुए उन्हें हल करना शुरू कर दिया। कुछ कठिन कार्यों के लिए जिनसे मैं डरती थी, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती और जितना हो सके उनमें भाग लेती। जब मैं दूसरों के कार्यों में कठिनाइयाँ देखती, और ज्यादा सहायता न कर पाती, तो उन्हें हल करने में सहयोग के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढती जिसे सत्य की समझ हो। कभी-कभी भले ही अगुआ ने किसी काम का जायजा लेने का जिम्मा विशेष रूप से शैली को सौंपा हो और मेरा नाम शामिल न किया हो, तब भी अगर शैली मुझसे बात करती, तो मैं उसमें भाग लेती और सुझाव देती और इस बात की परवाह न करती कि अगुआ इस पर गौर करेगी या नहीं। मैंने परमेश्वर के सामने कार्य करने का अभ्यास किया, प्रत्येक कार्य को कर्तव्यनिष्ठा से करने पर ध्यान दिया, और यह माना कि सत्य का अभ्यास कर परमेश्वर को संतुष्ट करना ही महत्वपूर्ण है। जब मैंने सचेत होकर अपने इरादों के खिलाफ विद्रोह किया और हर दिन अपने कर्तव्यों पर दिल लगाया, तो मुझे दृढ़ता का एहसास हुआ और मैं अपनी नकारात्मक भावनाओं से थोड़ा बाहर आने लगी।

कुछ समय बाद, मुझे काट-छाँट का सामना करना पड़ा और वापस नकारात्मक भावनाओं में डूब गई। उस समय, अगुआ ने मुझसे कुछ सामग्री व्यवस्थित करने के लिए कहा। अनुभव की कमी के कारण, मैंने उसे करने में भाई-बहनों का सहयोग लिया। जब हमने मसौदा तैयार कर लिया तो इसे पढ़कर अगुआ को अच्छा लगा, लेकिन कुछ स्थानों पर कुछ विवरण जोड़ने का सुझाव दिया। मुझे यह देखकर खुशी हुई कि कोई बड़ी समस्या नहीं है और सोचा कि यह कार्य अच्छे से हुआ है, अतिरिक्त विवरण जोड़ना आसान होगा, और केवल थोड़ी और सामग्री जोड़ना संतोषजनक होगा। इसलिए मैंने भाई-बहनों के साथ सिद्धांतों पर संगति नहीं की। अप्रत्याशित रूप से, और सामग्री जोड़ने के बाद, अगुआ को नई सामग्री काफी उबाऊ और असंगत लगी, जिससे सामग्री खराब हो गई। उसने पूछा कि क्या हमने ध्यानपूर्वक विचार किया है और स्पष्ट रूप से समझ लिया है कि समस्या क्या है। फिर उसने दूसरों से सामग्रियों को पुनर्व्यवस्थित करने को कहा। यह सुनकर, मैं दंग रह गई, “मैं इसे अच्छे से करना चाहती थी, लेकिन इसका अंजाम ऐसा क्यों हुआ?” इस पर विचार किया, तो लगा कि इसकी वजह मेरी कम काबिलियतऔर सत्य की उथली समझ है। मुझे लगा कि मैं कुछ सामान्य मामले संभाल सकती हूँ, लेकिन जब बात उस काम की आई जिसके लिए सत्य की समझ चाहिए थी, तो मैं उसके लिए तैयार नहीं थी। अब ऐसा नहीं था कि मैं जानबूझकर पीछे हटना चाहती थी; मेरे पास इच्छाशक्ति तो थी लेकिन योग्यता नहीं थी। उसके बाद, मैं काम में सहयोग करने में झिझकने लगी। जब मैं काम में कुछ समस्याएँ देखती, तो उनका जिक्र करना चाहती लेकिन फिर यह सोचकर चुप रह जाती “कि अपनी कम काबिलियत के चलते, क्या मैं समस्याओं का पता भी लगा सकती हूँ? क्या मैं इस काम के योग्य हूँ? मुझमें काबिलियत की कमी है और मैं चीजों को समझ नहीं पाती हूँ, वरना काम इतने बुरे ढंग से न किया गया होता; इसलिए, बेहतर होगा कि मैं दूसरों के लिए समस्याएँ न बताऊँ।” परिणामस्वरूप, मैं फिर से नकारात्मक भावनाओं में डूबकर अपने कर्तव्यों के प्रति निष्क्रिय हो गई अपने भविष्य और संभावनाओं को लेकर लगातार चिंतित रहती और अपने मन को शांत न कर पाती।

फिर एक दिन सभा में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे अपनी अवस्था सुधारने में मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “शायद प्रतिदिन होने वाली सभी चीज़ें, चाहे वे बड़ी हों या छोटी, जो तुम्हारे संकल्प को डगमगा सकती हैं, तुम्हारे दिल पर कब्ज़ा कर सकती हैं, या कर्तव्य निभाने की तुम्हारी क्षमता और आगे की प्रगति को बाधित कर सकती हैं, परिश्रमयुक्त उपचार माँगती हैं; तुम्हें उनकी सावधानीपूर्वक जाँच करनी चाहिए और सत्य का पता लगाया जाना चाहिए। जैसे-जैसे तुम अनुभव करते हो, तुम्हें इन सभी चीजों का समाधान करना चाहिए। कुछ लोग नकारात्मक होकर शिकायत करने लगते हैं, जब मुश्किलें आती हैं तो वे अपने कर्तव्य छोड़ भागते हैं और प्रत्येक नाकामयाबी के बाद वे घिसटकर वापस अपने पैरों पर उठ खड़े होने में असमर्थ होते हैं। ये सभी लोग मूर्ख हैं, जो सत्य से प्रेम नहीं करते, और वे जीवन भर के विश्वास के बाद भी उसे हासिल नहीं करेंगे। ऐसे मूर्ख अंत तक अनुसरण कैसे कर सकते थे? यदि तुम्हारे साथ एक ही बात दस बार होती है, लेकिन तुम उससे कुछ हासिल नहीं करते, तो तुम एक औसत दर्जे के, निकम्मे व्यक्ति हो। दक्ष और सच्ची काबिलियत वाले जिन लोगों के पास आध्यात्मिक समझ होती है, वे सत्य के अन्वेषक होते हैं; यदि उनके साथ कुछ दस बार घटित होता है, तो शायद उनमें से आठ मामलों में वे कुछ प्रबोधन प्राप्त करने, कुछ सबक सीखने, कुछ सत्य समझने और कुछ प्रगति कर पाने में समर्थ होंगे। जब चीज़ें दस बार किसी मूर्ख पर पड़ती हैं—किसी ऐसे पर जिसे आध्यात्मिक समझ नहीं होती है—तो इससे एक बार भी उनके जीवन को लाभ नहीं होगा, एक बार भी यह उन्हें नहीं बदलेगा, और न ही एक बार भी यह उनके बदसूरत चेहरे को जानने का कारण बनेगा, और ऐसे में यही उनके लिए अंत है। हर बार जब उनके साथ कुछ घटित होता है, तो वे गिर पड़ते हैं, और हर बार जब वे गिर पड़ते हैं, तो उन्हें समर्थन और दिलासा देने के लिए किसी और की ज़रूरत होती है; बिना सहारे और दिलासे के वे उठ नहीं सकते, और हर बार जब कुछ होता है, तो उन्हें गिरने और अपमानित होने का खतरा होता है। तो क्या उनके लिए यही अंत नहीं है? क्या ऐसे निकम्मे लोगों के बचाए जाने का कोई और आधार बचा है? परमेश्वर द्वारा मानवजाति का उद्धार उन लोगों का उद्धार है, जो सत्य से प्रेम करते हैं, उनके उस हिस्से का उद्धार है, जिसमें इच्छा-शक्ति और संकल्प हैं, और उनके उस हिस्से का उद्धार है, जो उनके दिल में सत्य और इंसाफ के लिए तड़पता है। किसी व्यक्ति का संकल्प उसके दिल का वह हिस्सा है, जो धार्मिकता, भलाई और सत्य के लिए तरसता है, और विवेक से युक्त होता है। परमेश्वर लोगों के इस हिस्से को बचाता है, और इसके माध्यम से, वह उनके भ्रष्ट स्वभाव को बदलता है, ताकि वे सत्य को समझ सकें और हासिल कर सकें, ताकि उनकी भ्रष्टता परिमार्जित हो सके, और उनका जीवन-स्वभाव रूपांतरित किया जा सके। यदि तुम्हारे भीतर ये चीज़ें नहीं हैं, तो तुमको बचाया नहीं जा सकता। ... कुछ लोगों को लगता है कि उनमें बहुत कम काबिलियत है और उनमें समझने की क्षमता नहीं है, इसलिए वे खुद को सीमित कर लेते हैं, उन्हें लगता है कि वे चाहे कितना भी सत्य का अनुसरण कर लें, परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते। वे सोचते हैं कि चाहे वे कितनी भी कोशिश कर लें, सब बेकार है, और इसमें बस इतना ही है, इसलिए वे हमेशा नकारात्मक होते हैं, परिणामस्वरूप, बरसों परमेश्वर में विश्वास रखकर भी, उन्हें सत्य प्राप्त नहीं होता। सत्य का अनुसरण करने के लिए कड़ी मेहनत किए बिना, तुम कहते हो कि तुम्हारी क्षमता बहुत खराब है, तुम हार मान लेते हो और हमेशा एक नकारात्मक स्थिति में रहते हो। नतीजतन उस सत्य को नहीं समझते जिसे तुम्हें समझना चाहिए या जिस सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो, उसका अभ्यास नहीं करते—क्या तुम अपने लिए बाधा नहीं बन रहे हो? यदि तुम हमेशा यही कहते रहो कि तुममें पर्याप्त क्षमता नहीं है, क्या यह अपनी जिम्मेदारी से बचना और जी चुराना नहीं है? यदि तुम कष्ट उठा सकते हो, कीमत चुका सकते हो और पवित्र आत्मा का कार्य को प्राप्त कर सकते हो, तो तुम निश्चित ही कुछ सत्य समझकर कुछ वास्तविकताओं में प्रवेश कर पाओगे। यदि तुम परमेश्वर से उम्मीद न करो, उस पर निर्भर न रहो और बिना कोई प्रयास किए या कीमत चुकाए, बस हार मान लेते हो और समर्पण कर देते हो, तो तुम किसी काम के नहीं हो, तुममें अंतरात्मा और विवेक का एक कण भी नहीं है। चाहे तुम्हारी क्षमता खराब हो या अत्युत्तम हो, यदि तुम्हारे पास थोड़ा-सा भी जमीर और विवेक है, तो तुम्हें वह ठीक से पूरा करना चाहिए, जो तुम्हें करना है और जो तुम्हारा ध्येय है; पलायनवादी होना एक भयानक बात है और परमेश्वर के साथ विश्वासघात है। इसे सही नहीं किया जा सकता। सत्य का अनुसरण करने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है, और जो लोग बहुत अधिक नकारात्मक या कमज़ोर होते हैं, वे कुछ भी संपन्न नहीं करेंगे। वे अंत तक परमेश्वर में विश्वास नहीं कर पाएँगे, और, यदि वे सत्य को प्राप्त करना चाहते हैं और स्वभावगत बदलाव हासिल करना चाहते हैं, तो उनके लिए अभी भी उम्मीद कम है। केवल वे, जो दृढ़-संकल्प हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, ही उसे प्राप्त कर सकते हैं और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जा सकते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने उन्हें अपने आपसे जोड़ा। मुझे एहसास हुआ कि जब असफलताओं और नाकामियों का सामना करना पड़ता है, तो मैं विशेष रूप से कमजोर और नकारात्मक हो जाती हूँ, और लगता है जैसे मैं क्षत-विक्षत कागज का कोई टुकड़ा हूँ। मेरे मन में पहली प्रतिक्रिया हमेशा यह होती थी, “इसे दूसरों को करने दो,” या “मेरी काबिलियत बहुत कम है,” और फिर हल करने के लिए मैं उस काम को दूसरों पर डाल देती। ऐसा करके मुझे लगता कि मैं समझदार और आत्म-जागरूक हूँ, लेकिन असल में, मैं खुद को सीमित कर हार मान रही थी। इससे पता चलता था कि मैं सत्य अस्वीकार कर रही हूँ या सत्य से प्रेम नहीं कर रही। जब हम असफलताओं और नाकामियों का सामना करते हैं, तो परमेश्वर चाहता है कि हम समस्याओं को हल करने और प्रगति करने के लिए सत्य खोजें। परमेश्वर हमारी इच्छा और धार्मिकता की लालसा के जरिए हमें पूर्ण बनाता है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं और काबिलियत रखते हैं वे सक्रिय होते हैं। वे असफलताओं के अनुभवों को सारांशित करने, अपनी कमी की जांच करने में अच्छे होते हैं और खोज के जरिए कुछ सत्य समझ सकते हैं, अपने बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त कर जीवन में प्रगति कर सकते हैं। इस बार, जब मुझे काट-छाँट का सामना करना पड़ा, तो मैंने अपनी असफलता के कारणों का विश्लेषण नहीं किया बल्कि बहाने बनाये। मुझे लगा इसकी वजह यह नहीं है कि मैं अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाना चाहती, बल्कि यह है कि काबिलियत में कमी के कारण मुझे अपना कर्तव्य निभाने में बहुत सारी समस्याएँ आईं। आशय यह था कि मैं अपनी क्षमताओं के अनुसार अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर चुकी थी और आत्म-चिंतन करने के लिए कुछ नहीं था। लेकिन अगर बारीकी से जांच की जाए, तो क्या यह सच है कि मुझे वाकई कोई समस्या नहीं थी? जब अगुआ ने कहा कि सामग्रियों में विवरण का अभाव है, तो मैंने विचार नहीं किया और न ही खोज की, बल्कि अपनी कल्पना के आधार पर बहुत सारी अनावश्यक सामग्री जोड़ दी, संशोधित सामग्रियों को बेहद लंबा और तुच्छ बना दिया। मैंने सिद्धांत नहीं खोजे या यह नहीं सोचा कि बेहतर परिणाम कैसे हासिल करूँ; मैंने बस यंत्रवत् नियमों का पालन किया। यह दृष्टिकोण अपने कर्तव्य को बेमन से निभाना था। मुझे फौरन अपने दृष्टिकोण की समीक्षा कर इसे सुधारना चाहिए। एक तो पहले ही मुझमें काबिलियत की कमी थी, और अगर मुझमें सक्रिय मानसिकता का भी अभाव रहा और कठिनाइयों का सामना करने पर मैं निष्क्रिय होकर पीछे हट गई, तो मेरे लिए सुधार करना कठिन होगा।

फिर मैंने विचार किया, असफलताओं और नाकामियों का सामना करने पर मैं हमेशा बचना क्यों चाहती हूँ। बहुत सोचने के बाद, मुझे यह कारण समझ में आया कि मैं प्रतिष्ठा और रुतबे की बहुत ज्यादा चिंता करती हूँ और परमेश्वर में आस्था के जिस मार्ग पर चल रही हूँ वह सही नहीं है। मुझे एक अंश याद आया जहाँ परमेश्वर मसीह-विरोधियों का गहन-विश्लेषण करता है। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है, और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी लोग जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का होता है, और कुछ नहीं। मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : ‘मेरे रुतबे का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे अच्छी प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरा रुतबा बढ़ेगा?’ यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; वे अन्यथा इन समस्याओं पर विचार नहीं करेंगे। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिलकुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर कहता है कि मसीह-विरोधी सामान्य लोगों की तुलना में अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को ज्यादा महत्व देते हैं, प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनके जीवन का लक्ष्य होता है और उनके हर कार्य का प्रारंभिक बिंदु और मकसद होता है। जब लोग उन्हें सम्मान से देखते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं, तो वे अपने कर्तव्य निभाने के लिए प्रेरित होते हैं और कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। लेकिन जब उन्हें लोगों से प्रशंसा नहीं मिलती तो वे नकारात्मक और सुस्त हो जाते हैं, उन्हें यहाँ तक लगने लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखना और अपने कर्तव्यों का पालन करना व्यर्थ है। अनुसरण के संबंध में मेरे विचार भी मसीह-विरोधियों जैसे ही थे। जब हर कोई मेरी राय मानता और अपनाता था तो मैं सक्रिय होकर कुछ काम कर लेती थी। लेकिन जब मेरी सहकर्मी बहन को ज्यादा महत्व दिया जाता था और मुझे हमेशा नजरअंदाज कर दिया जाता था तो मैं बहुत अनमनी और निराश हो जाती थी कोई काम करने का मन ही न करता। जब मुझे और अधिक असफलताओं का सामना करना पड़ा तो मैंने खुद को नाकाबिल और कार्य के अयोग्य मानकर और भी सीमित कर लिया मैं भाग जाना चाहती थी। मुझे हमेशा यही लगता कि मैं इसलिए इस्तीफा देना चाहती हूँ क्योंकि मैं इस काम के काबिल नहीं हूँ, और इससे पता चलता था कि मुझमें आत्म-जागरूकता है, लेकिन असल में, इसकी वजह यह थी कि मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बहुत ज्यादा महत्व देती थी। मैं जानती थी कि यह कार्य करने से मेरे लिए सिर उठाकर चलना मुश्किल हो जाएगा, और अगर मैं यह कार्य करती रही, तो शायद असफल होकर कई बार उजागर हो जाऊँगी, और बाकी लोग मेरी सारी सच्चाई जान जाएँगे। इसलिए मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बनाए रखने के लिए कोई सरल-सा कार्य लेना चाहती थी। इस सबके दौरान, चाहे कोई कर्तव्य चुनना हो या यह चुनना हो कि कहाँ अध्ययन या काम करना है, मेरी पहली कसौटी यही होती थी कि क्या उससे मेरी छवि अच्छी दिखेगी और क्या मैं सबसे अलग दिखूँगी। कॉलेज के लिए आवेदन करते समय भी, एक अच्छे विषय वाला विश्वविद्यालय था और दूसरा उसके मुकाबले थोड़ा कमजोर। लेकिन दूसरे विश्वविद्यालय के शिक्षक आवेदन करने के लिए मुझे बार-बार बुला रहे थे और मुझे लगा कि यहाँ मेरी कद्र होगी। आखिरकार, मैंने कमजोर विषय वाला विश्वविद्यालय चुना। विश्वविद्यालय के दौरान भी मैंने ऐसा ही किया। मैंने उन विषयों में ज्यादा मेहनत करती जहाँ शिक्षक मेरी कद्र करते थे और उन विषयों से बचती रही जहाँ मेरी कद्र नहीं हो रही थी। जीवनभर, मैंने चीजों का मूल्यांकन इस आधार पर किया कि क्या वे मुझे प्रतिष्ठा और रुतबा दिला सकती हैं। मुझे ऐसी जगहें पसंद आतीं जहाँ मुझे महत्व दिया जाता हो और मेरी अलग पहचान होती और मैं उन जगहों से दूर रहती जहाँ मेरी उपेक्षा या अपमान होता। अब मुझे एहसास हुआ कि प्रतिष्ठा और रुतबे के प्रति मेरी चाह बहुत गहरी थी, और वह मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुकी थी, मैं लगातार उसकी रक्षा करना चाहती थी। उदाहरण के लिए, अब मैं स्पष्ट रूप से जान गई थी कि एक अगुआ होने का मतलब बहुत कुछ उजागर होना और काट-छाँट होना है, जो सत्य सिद्धांतों की मेरी समझ और मेरे जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद है। लेकिन अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बनाए रखने के लिए मैंने अपने कर्तव्य का त्याग करने तक पर विचार किया। मैंने सत्य से ज्यादा प्रतिष्ठा और रुतबे को महत्व देती हूँ, और सत्य से विमुख होने का स्वभाव प्रकट करती हूँ। अगर मैं इसी तरह अनुसरण करती रही तो आखिरकार मुझे हासिल क्या होगा? मैं अपने कौशल का प्रयोग नहीं कर पाऊँगी या अपने जीवन में कोई प्रगति नहीं कर पाऊँगी, और अंत में, मैं बस एक ऐसी बेकार व्यक्ति बन कर रह जाऊंगी जिसे परमेश्वर तुच्छ समझकर हटा देता है। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागकर मैं कहीं नहीं पहुँच पाऊँगी, मुझे इस स्थिति से निकलकर सत्य की तलाश करनी चाहिए और प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना छोड़ देना चाहिए।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अभ्यास करने का तरीका पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “परमेश्वर में विश्वास करते समय ध्यान देने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है? चाहे किसी की काबिलियत ऊँची हो या नीची, चाहे उनमें आध्यात्मिक समझ हो या न हो, या उन्हें किस प्रकार की काट-छाँट का सामना करना पड़ता हो—इसमें से कुछ भी अहम नहीं है। आजकल महत्वपूर्ण बात क्या है? महत्वपूर्ण यह है कि तुम लोग सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश कैसे करते हो। ऐसा करने के लिए किसी के पास सबसे बुनियादी चीज क्या होनी चाहिए? उनका हृदय सच्चा होना चाहिए। ईमानदार होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जब तुम पर मुसीबत आए तो तुम धूर्त न बनो, अपने हितों के बारे में न सोचो, दूसरों के साथ मिलकर साजिश और षड्यंत्र न रचो, और परमेश्वर के साथ कपटी खेल न खेलो। यदि तुम परमेश्वर को धोखा दे सकते हो और तुममें उसके प्रति ईमानदारी की कमी है, तो तुम्हारा काम तमाम हो चुका है, और परमेश्वर तुमको नहीं बचाएगा, तो सत्य समझने का मतलब क्या रह गया? तुम्हारे पास आध्यात्मिक समझ हो सकती है, तुम अच्छी काबिलियत वाले हो सकते हो, अच्छा भाषण दे सकते हो, और चीजें जल्दी समझने में सक्षम हो सकते हो, निष्कर्ष निकाल सकते हो, और परमेश्वर जो कुछ भी कहता है उसे समझ सकते हो, पर मुसीबत आने पर अगर तुम परमेश्वर के साथ कपटी खेल खेलते हो, तो यह शैतानी स्वभाव है और यह बहुत खतरनाक है। तुम्हारी काबिलियत चाहे कितनी ही अच्छी क्यों न हो, यह किसी काम की नहीं है, और परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहेगा। परमेश्वर कहेगा, ‘तुम अच्छा बोलते हो, तुम्हारी काबिलियत अच्छी है, हाजिर-जवाब हो और आध्यात्मिक समझ वाले हो, पर तुममें बस एक ही समस्या है—तुम सत्य से प्रेम नहीं करते।’ जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते वे दुखदायी हैं, और परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता। अच्छे हृदय के बिना व्यक्ति को त्याग दिया जाएगा, ठीक वैसे जैसे बाहर से अच्छे रखरखाव के साथ दिखने वाली कार इंजन खराब होने पर पूरी तरह त्याग दी जाती है। लोग भी ऐसे ही होते हैं : चाहे तुम्हारी काबिलियत कितनी भी अच्छी लगती हो, तुम कितने ही चतुर, वाक्पटु, या सक्षम हो, या समस्याओं से निपटने में कितने भी अच्छे क्यों न हो, सब बेकार है, और यह मुख्य बात नहीं है। तो मुख्य बात क्या है? यह कि क्या किसी का हृदय सत्य से प्रेम करता है। मुख्य यह सुनना नहीं है कि वे कैसे बोलते हैं, बल्कि यह देखना है कि वे कैसे कार्य करते हैं। परमेश्वर इस बात पर ध्यान नहीं देता कि उसके सामने होने पर तुम क्या कहते हो या क्या वादा करते हो। परमेश्वर य देखता है कि तुम जो कर रहे हो उसमें सत्य वास्तविकता है या नहीं, लेकिन इसकी परवाह नहीं करता कि तुम्हारे कार्य कितने ऊँचे, रहस्यमय या प्रबल हैं; भले ही तुम कोई छोटी चीज करो, अगर परमेश्वर तुम्हारे कार्यों में ईमानदारी देखता है, तो वह कहेगा, ‘यह व्यक्ति ईमानदारी से मुझ पर विश्वास करता है। इसने कभी अतिशयोक्ति नहीं की। यह अपने पद के अनुसार आचरण करता है। और भले ही उसने परमेश्वर के घर के लिए कोई बड़ा योगदान न दिया हो, और उसकी क्षमता खराब हो, फिर भी वह जो कुछ करता है, उस सबमें दृढ़ रहता है; उसमें ईमानदारी है।’ इस ‘ईमानदारी’ में क्या शामिल है? इसमें परमेश्वर के प्रति भय और समर्पण शामिल है, साथ ही सच्ची आस्था और प्रेम शामिल है; इसमें वह सब-कुछ शामिल है, जो परमेश्वर देखना चाहता है। दूसरों की नजर में ऐसे लोग मामूली हो सकते हैं, ये वे व्यक्ति हो सकते हैं जो खाना बनाते हैं या सफाई करते हैं, ऐसे व्यक्ति जो साधारण काम करते हैं। ऐसे लोग दूसरों के लिए मामूली होते हैं, उन्होंने कुछ भी बड़ा हासिल नहीं किया होता, और उनके पास कुछ भी बहुमूल्य, सराहनीय या ईर्ष्यायोग्य नहीं होता—वे सिर्फ आम लोग होते हैं। और फिर भी, जो कुछ परमेश्वर चाहता है, वह उनमें पाया जाता है, वह सब उनमें जिया जाता है, और वे सब कुछ परमेश्वर को दे देते हैं। तुम लोगों के विचार से परमेश्वर और क्या चाहता है? परमेश्वर संतुष्ट है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मैं इस बात को बहुत महत्व देती थी कि किसी व्यक्ति में काबिलियत और प्रतिभा हैं या नहीं, और यह मानती थी कि परमेश्वर के घर में केवल काबिलियत रखने वाले लोगों का ही भरपूर उपयोग किया जा सकता है। जब बार-बार मुझमें काबिलियत की कमी और चीजों को स्पष्ट रूप से न देख पाने का खुलासा हुआ, तो मैं नकारात्मक हो गई और मैंने खुद को सीमित कर लिया, मैं उन कार्यों को भी नहीं कर पा रही थी जिनमें मैं सक्षम थी। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं समझ गई कि विश्वासियों को अपनी काबिलियत के स्तर पर ध्यान नहीं देना चाहिए, या उनमें वाक्पटुता या तेज दिमाग है या नहीं—परमेश्वर इन चीजों को महत्व नहीं देता। परमेश्वर इंसान का दिल देखता है, वह देखता है कि विश्वासी में परमेश्वर और कलीसिया के काम के प्रति सच्चा दिल है या नहीं। परमेश्वर ने मुझे जो काबिलियत और वाक्पटुता दी है उससे यह तय नहीं होता कि मैं अपने कर्तव्य अच्छे से निभा सकती हूँ या नहीं। अगर मैं वाक्पटु और योग्य हूँ लेकिन अपनी जिम्मेदारियों से जी चुराती हूँ और अपने वास्तविक अभ्यास में बेईमानी करती हूँ, तो फिर चाहे मुझमें कितनी भी काबिलियत क्यों न हो, मैं एक ऐसी इंसान हूँ जिससे परमेश्वर घृणा करता है। काबिलियत लोगों को उनके कर्तव्य-निर्वहन में सहायता अवश्य कर सकती है, लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण है सत्य और अपने कर्तव्यों के प्रति इंंसान का रवैया, क्या उस इंसान का हृदय सक्रिय और सत्य-प्रेमी है, क्या वह असफल और उजागर होने पर सत्य खोज सकता है, क्या वह अपने अनुभवों से सीखकर जीवन में विकास कर सकता है—ये वे चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर महत्व देता है। पहले कुछ प्रतिभाशाली और योग्य लोग कलीसिया के अगुआ के रूप में कार्य करते थे, लेकिन कई अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते थे। कुछ समय बाद वे आराम और सहूलियत चाहने लगे, वे वास्तविक कार्य नहीं करते थे या प्रसिद्धि और लाभ के लिए लड़ते हुए कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा करने लगे और अंततः हटा दिए गए। लेकिन कुछ साधारण से दिखने वाले लोग भी थे जिनमें औसत काबिलियत थी, कोई प्रतिभा नहीं थी, फिर भी उन्होंने व्यावहारिक रूप से अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया, हर चीज में सिद्धांतों की खोज की, और अपने कर्तव्य निभाने में प्रगति की, उन्हें न तो बदला गया, न हटाया गया। इससे पता चलता है कि परमेश्वर धार्मिक है, और वह किसी व्यक्ति पर उसकी काबिलियत के आधार पर फैसला नहीं सुनाता, बल्कि इस बात को महत्व देता है कि क्या वह इंसान सत्य का अनुसरण और अभ्यास करता है और क्या वह हर काम को व्यावहारिक तरीके से और जिम्मेदारी से कर पाता है। इस बात को समझकर मैंने मन ही मन अपने आप से कहा कि अब से, मैं अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करूँगी और निष्ठापूर्वक कार्य करूँगी, और अगर मुझे कोई काम सौंपा जाता है, तो उसे ईमानदारी और जिम्मेदारी से करूँगी, यथासंभव प्रयास करूँगी, और एक ऐसी व्यावहारिक और विश्वसनीय व्यक्ति बनूँगी जो अपने उचित काम पर ध्यान दे।

फिर मैं हर असफलता से सबक सीखने पर ध्यान देने लगी, और जब भी मैं उजागर होती तो अपनी मानसिकता बदलती। पहले, जब भी मुझे विफलता या काट-छाँट का सामना करना पड़ता था, तो मैं सोचती थी, “अरे, अगुआ ने मेरे बारे में सब जान लिया होगा,” या “हर एक को यही लगेगा कि मुझमें काबिलियत की कमी है।” जब मैं इसमें डूब जाती तो बहुत निराश हो जाती। फिर मैंने विचार करना शुरू किया, मुझे क्यों उजागर किया जा रहा है, मैं अपनी किन समस्याओं का पता लगा सकती हूँ और किन कमियों को दूर कर सकती हूँ। इस नई मानसिकता के साथ, मैं अपने दिल में सही मामलों पर ज्यादा ध्यान देने लगी। बाद में कुछ समय तक मुझे बार-बार काट-छाँट का सामना करना पड़ा, कभी-कभी काम करने में कम दक्षता की वजह से, कभी-कभी कार्यों को निपटाने में सिद्धांतों को न समझ पाने के कारण, और कभी-कभी किसी विशेष मामले पर एकतरफा दृष्टिकोण रखने और सही समझ की कमी की वजह से। तो, मैंने अपनी समस्याओं पर विचार किया, और अगर इनका संबंध मेरे कौशल से था तो मैंने अपनी कार्यकुशलता सुधारने के तरीके खोजे और अगर यह समझ से जुड़ा हुआ मुद्दा होता, तो मैं अपनी समस्याओं पर विचार करती, इस बात की जाँच करती कि समझ में क्या गलती है, और फिर उन भाई-बहनों से खोजती जो सत्य समझते थे और जिनके पास अनुभव था। जब मैंने इस प्रकार विचार किया, तो काट-छाँट के प्रति मेरा रवैया सुधर गया। हालाँकि मुझे अब भी कभी-कभी निराशा होती है, लेकिन मैं अब उसमें फंसती नहीं, और हर दिन, अपना कर्तव्य निभाते समय मेरा मन अब उतना बोझिल नहीं रहता, और मेरे सामने जो परिस्थितियाँ आती हैं, मैं सामान्य रूप से उनका अनुभव कर सकती हूँ।

जब उस समय पर विचार करती हूँ, जब मैं नकारात्मकता में फंस गई थी, मुसीबत और थकान में डूबी रहती थी, उस वक्त अगर परमेश्वर के वचनों का मार्गदर्शन न होता, तो मैं उस नकारात्मक भावना को नहीं त्याग पाती, और परमेश्वर से दूर रहकर पतित होती रहती, यहां तक कि अपने वर्तमान कर्तव्य भी गँवा बैठती। तहे-दिल से, मैं परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ, क्योंकि मेरे सबसे कमजोर क्षणों में थी तो उसने मेरे आस-पास के लोगों के माध्यम से मुझे चेताया, और अपने वचनों का उपयोग करके मेरा मार्गदर्शन किया, और इस नकारात्मक भावना को त्यागने में मेरी मदद की। अब से, मैं बस शांत रहना चाहती हूँ और अपनी सर्वोत्तम क्षमताओं का इस्तेमाल कर अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ।

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