1. मानवजाति को प्रबंधित करने का काम क्या है?

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :

मानवजाति के प्रबंधन का कार्य तीन चरणों में बंटा हुआ है, जिसका अर्थ यह है कि मानवजाति को बचाने का कार्य तीन चरणों में बंटा हुआ है। इन चरणों में संसार की रचना का कार्य समाविष्ट नहीं है, बल्कि ये व्यवस्था के युग, अनुग्रह के युग और राज्य के युग के कार्य के तीन चरण हैं। संसार की रचना करने का कार्य संपूर्ण मानवजाति को उत्पन्न करने का कार्य था। यह मानवजाति को बचाने का कार्य नहीं था, और मानवजाति को बचाने के कार्य से कोई संबंध नहीं रखता है, क्योंकि जब संसार की रचना हुई थी तब मानवजाति शैतान के द्वारा भ्रष्ट नहीं की गई थी, और इसलिए मानवजाति के उद्धार का कार्य करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। मानवजाति को बचाने का कार्य शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट किए जाने के बाद ही आरंभ हुआ, और इसलिए मानवजाति के प्रबंधन का कार्य भी मानवजाति के भ्रष्ट हो जाने पर ही आरम्भ हुआ। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर का मनुष्य के प्रबंधन का कार्य मनुष्य को बचाने के कार्य के परिणामस्वरूप आरंभ हुआ, और यह संसार की रचना के कार्य से उत्पन्न नहीं हुआ। मानवजाति के स्वभाव के भ्रष्ट हो जाने के बाद ही प्रबंधन का कार्य अस्तित्व में आया, और इसलिए मानवजाति के प्रबंधन के कार्य में चार चरणों या चार युगों की बजाय तीन भागों का समावेश है। परमेश्वर के मानवजाति को प्रबंधित करने के कार्य का उल्लेख करने का केवल यही सही तरीका है। जब अंतिम युग समाप्त होगा, तब तक मानवजाति को प्रबंधित करने का कार्य पूर्ण समाप्ति तक पहुँच चुका होगा। प्रबंधन के कार्य के समापन का अर्थ है कि समस्त मानवजाति को बचाने का कार्य पूरी तरह से समाप्त हो गया होगा, और यह चरण मानवजाति के लिए खत्म हो चुका होता। समस्त मानवजाति को बचाने के कार्य के बिना, मानवजाति के प्रबंधन के कार्य का कोई अस्तित्व नहीं होता, न ही कार्य के तीन चरण होते। यह निश्चित रूप से मानवजाति की नैतिक चरित्रहीनता की वजह से था, और क्योंकि मानवजाति को उद्धार की इतनी अधिक आवश्यकता थी, कि यहोवा ने संसार का सृजन पूरा किया और व्यवस्था के युग का कार्य आरम्भ कर दिया। केवल तभी मानवजाति के प्रबंधन का कार्य आरम्भ हुआ, जिसका अर्थ है कि केवल तभी मानवजाति को बचाने का कार्य आरम्भ हुआ। "मानवजाति का प्रबंधन करने" का अर्थ पृथ्वी पर नव-सृजित मानवजाति (कहने का अर्थ है, कि ऐसी मानवजाति जो अभी तक भ्रष्ट नहीं हुई थी) के जीवन का मार्गदर्शन करना नहीं है। बल्कि, यह उस मानवजाति के उद्धार का कार्य है जिसे शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है, जिसका अर्थ है, कि यह इस भ्रष्ट मानवजाति को बदलने का कार्य है। "मानवजाति के प्रबंधन" का यही अर्थ है। मानवजाति को बचाने के कार्य में संसार की रचना करने का कार्य सम्मिलित नहीं है, और इसलिए मानवजाति के प्रबंधन का कार्य संसार की रचना करने के कार्य को भी समाविष्ट नहीं करता है, बल्कि केवल इस कार्य के उन तीन चरणों को ही समाविष्ट करता है जो संसार की रचना से अलग हैं। मानवजाति के प्रबंधन के कार्य को समझने के लिए कार्य के तीन चरणों के इतिहास के बारे में अवगत होना आवश्यक है—बचाए जाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को इससे अवगत अवश्य होना चाहिए।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है

प्रबंधन-कार्य केवल मानवजाति के कारण ही घटित हुआ, जिसका अर्थ है कि वह केवल मानवजाति के अस्तित्व के कारण ही उत्पन्न हुआ। मानवजाति से पहले, या शुरुआत में, जब स्वर्ग और पृथ्वी तथा समस्त वस्तुओं का सृजन किया गया था, कोई प्रबंधन नहीं था। यदि, परमेश्वर के संपूर्ण कार्य में, मनुष्य के लिए लाभकारी कोई अभ्यास न होता, अर्थात् यदि परमेश्वर भ्रष्ट मानवजाति से उचित अपेक्षाएँ न करता (यदि परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य में मनुष्य के अभ्यास हेतु कोई उचित मार्ग न होता), तो इस कार्य को परमेश्वर का प्रबंधन नहीं कहा जा सकता था। यदि परमेश्वर के कार्य की संपूर्णता में केवल भ्रष्ट मानवजाति को यह बताना शामिल होता कि वह किस प्रकार अपने अभ्यास को करे, और परमेश्वर अपने किसी भी उद्यम को कार्यान्वित न करता, और अपनी सर्वशक्तिमत्ता या बुद्धि का लेशमात्र भी प्रदर्शन न करता, तो मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ चाहे कितनी भी ऊँची क्यों न होतीं, चाहे परमेश्वर कितने भी लंबे समय तक मनुष्यों के बीच क्यों न रहता, मनुष्य परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कुछ भी नहीं जानता; यदि ऐसा होता, तो इस प्रकार का कार्य परमेश्वर का प्रबंधन कहलाने के योग्य बिलकुल भी नहीं होता। सरल शब्दों में कहें तो, परमेश्वर के प्रबंधन का कार्य, और परमेश्वर के मार्गदर्शन के अंतर्गत उन लोगों द्वारा किया गया संपूर्ण कार्य, जिन्हें परमेश्वर द्वारा प्राप्त कर लिया गया है, ही परमेश्वर द्वारा किया गया कार्य है। ऐसे कार्य को संक्षेप में प्रबंधन कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में, मनुष्यों के बीच परमेश्वर का कार्य, और साथ ही परमेश्वर का अनुसरण करने वाले सभी लोगों द्वारा उसका सहयोग सम्मिलित रूप से प्रबंधन कहा जाता है। यहाँ, परमेश्वर का कार्य दर्शन कहलाता है, और मनुष्य का सहयोग अभ्यास कहलाता है। परमेश्वर का कार्य जितना अधिक ऊँचा होता है (अर्थात् दर्शन जितने अधिक ऊँचे होते हैं), परमेश्वर का स्वभाव मनुष्य के लिए उतना ही अधिक स्पष्ट किया जाता है, उतना ही अधिक वह मनुष्य की धारणाओं के विपरीत होता है, और उतना ही ऊँचा मनुष्य का अभ्यास और सहयोग हो जाता है। मनुष्य से अपेक्षाएँ जितनी अधिक ऊँची होती हैं, उतना ही अधिक परमेश्वर का कार्य मनुष्य की धारणाओं के विपरीत होता है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य के परीक्षण और वे मानक भी, जिन्हें पूरे करने की उससे अपेक्षा की जाती है, अधिक ऊँचे हो जाते हैं। इस कार्य के समापन पर समस्त दर्शनों को पूरा कर लिया गया होगा, और वह, जिसे अभ्यास में लाने की मनुष्य से अपेक्षा की जाती है, परिपूर्णता की पराकाष्ठा पर पहुँच चुका होगा। यह वह समय भी होगा, जब प्रत्येक प्राणी को उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा, क्योंकि जिस बात को जानने की मनुष्य से अपेक्षा की जाती है, उसे मनुष्य को दिखाया जा चुका होगा। इसलिए, जब दर्शन सफलता के अपने चरम बिंदु पर पहुँच जाएँगे, तो कार्य तदनुसार अपने अंत तक पहुँच जाएगा, और मनुष्य का अभ्यास भी अपने चरम पर पहुँच जाएगा। मनुष्य का अभ्यास परमेश्वर के कार्य पर आधारित है, और परमेश्वर का प्रबंधन केवल मनुष्य के अभ्यास और सहयोग के कारण ही पूरी तरह से व्यक्त होता है। मनुष्य परमेश्वर के कार्य की प्रदर्शन-वस्तु और परमेश्वर के संपूर्ण प्रबंधन-कार्य का लक्ष्य है, और साथ ही परमेश्वर के संपूर्ण प्रबंधन का उत्पाद भी है। यदि परमेश्वर ने मनुष्य के सहयोग के बिना अकेले ही कार्य किया होता, तो ऐसा कुछ भी न होता, जो उसके संपूर्ण कार्य को स्फटिक की तरह ठोस बनाने का कार्य करता, और तब परमेश्वर के प्रबंधन का जरा-सा भी महत्व न होता। अपने कार्य के अतिरिक्त, केवल अपने कार्य को व्यक्त करने, और अपनी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को प्रमाणित करने के लिए उपयुक्त लक्ष्य चुनकर ही परमेश्वर अपने प्रबंधन का उद्देश्य हासिल कर सकता है, और शैतान को पूरी तरह से हराने के लिए इस संपूर्ण कार्य का उपयोग करने का उद्देश्य प्राप्त कर सकता है। इसलिए मनुष्य परमेश्वर के प्रबंधन के कार्य का एक अपरिहार्य अंग है, और मनुष्य ही वह एकमात्र प्राणी है जो परमेश्वर के प्रबंधन को सफल करवा सकता है और उसके चरम उद्देश्य को प्राप्त करवा सकता है; मनुष्य के अतिरिक्त अन्य कोई जीवन-रूप ऐसी भूमिका नहीं निभा सकता। यदि मनुष्य को परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य का सच्चा स्फटिकवत् ठोस रूप बनना है, तो भ्रष्ट मानवजाति की अवज्ञा को पूरी तरह से दूर करना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य को विभिन्न समयों के लिए उपयुक्त अभ्यास दिया जाए और परमेश्वर मनुष्यों के बीच तदनुरूप कार्य करे। केवल इसी तरह से अंततः ऐसे लोगों का समूह प्राप्त किया जाएगा, जो प्रबंधन-कार्य का स्फटिकवत् ठोस रूप हैं। मनुष्यों के बीच परमेश्वर का कार्य सिर्फ अकेले परमेश्वर के कार्य के माध्यम से स्वयं परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकता; हासिल किए जाने के लिए ऐसी गवाही को जीवित मनुष्यों की भी आवश्यकता होती है जो उसके कार्य के लिए उपयुक्त हों। परमेश्वर पहले इन लोगों पर कार्य करेगा, तब उनके माध्यम से उसका कार्य व्यक्त होगा, और इस प्रकार उसकी इच्छा की ऐसी गवाही प्राणियों के बीच दी जाएगी, और इसमें परमेश्वर अपने कार्य के लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा। परमेश्वर शैतान को पराजित करने के लिए अकेले कार्य नहीं करता, क्योंकि वह समस्त प्राणियों के बीच अपने लिए सीधे गवाही नहीं दे सकता। यदि वह ऐसा करता, तो मनुष्य को पूर्ण रूप से आश्वस्त करना असंभव होता, इसलिए मनुष्य को जीतने के लिए परमेश्वर को उस पर कार्य करना होगा, केवल तभी वह समस्त प्राणियों के बीच गवाही प्राप्त करने में समर्थ होगा। यदि मनुष्य के सहयोग के बिना सिर्फ परमेश्वर ही कार्य करता, या मनुष्य को सहयोग करने की आवश्यकता न होती, तो मनुष्य कभी परमेश्वर के स्वभाव को जानने में समर्थ न होता, और वह सदा के लिए परमेश्वर की इच्छा से अनजान रहता; परमेश्वर के कार्य को तब परमेश्वर के प्रबंधन का कार्य न कहा जा सकता। यदि परमेश्वर के कार्य को समझे बिना केवल मनुष्य स्वयं ही प्रयास, खोज और कठिन परिश्रम करता, तो मनुष्य चालबाजी कर रहा होता। पवित्र आत्मा के कार्य के बिना मनुष्य जो कुछ करता है, वह शैतान का होता है, वह विद्रोही और कुकर्मी होता है; भ्रष्ट मानवजाति द्वारा जो कुछ किया जाता है, उस सबमें शैतान प्रदर्शित होता है, और उसमें ऐसा कुछ भी नहीं होता जो परमेश्वर के साथ संगत हो, और जो कुछ मनुष्य करता है, वह शैतान की अभिव्यक्ति होता है। जो कुछ भी कहा गया है, उसमें से कुछ भी दर्शनों और अभ्यास से अलग नहीं है। दर्शनों की बुनियाद पर मनुष्य अभ्यास, और आज्ञाकारिता का मार्ग पाता है, ताकि वह अपनी धारणाओं को एक ओर रख सके और वे चीज़ें प्राप्त कर सके, जो अतीत में उसके पास नहीं थीं। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि मनुष्य उसके साथ सहयोग करे, कि मनुष्य उसकी आवश्यकताओं के प्रति पूरी तरह से समर्पित हो जाए, और मनुष्य स्वयं परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य को देखने, परमेश्वर के सर्वशक्तिमान सामर्थ्य का अनुभव करने और परमेश्वर के स्वभाव को जानने की माँग करता है। संक्षेप में, ये ही परमेश्वर के प्रबंधन हैं। मनुष्य के साथ परमेश्वर का मिलन ही प्रबंधन है, और यह महानतम प्रबंधन है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास

परमेश्वर का प्रबंधन ऐसा है : मनुष्य को शैतान के हवाले करना—मनुष्य, जो नहीं जानता कि परमेश्वर क्या है, सृष्टिकर्ता क्या है, परमेश्वर की आराधना कैसे करें, या परमेश्वर के प्रति समर्पित होना क्यों आवश्यक है—और शैतान को उसे भ्रष्ट करने देना। कदम-दर-कदम, परमेश्वर तब मनुष्य को शैतान के हाथों से बचाता है, जबतक कि मनुष्य पूरी तरह से परमेश्वर की आराधना नहीं करने लगता और शैतान को अस्वीकार नहीं कर देता। यही परमेश्वर का प्रबंधन है। यह किसी मिथक-कथा जैसा और अजीब लग सकता है। लोगों को यह किसी मिथक-कथा जैसा इसलिए लगता है, क्योंकि उन्हें इसका भान नहीं है कि पिछले हज़ारों सालों में मनुष्य के साथ कितना कुछ घटित हुआ है, और यह तो वे बिलकुल भी नहीं जानते कि इस ब्रह्मांड और नभमंडल में कितनी कहानियाँ घट चुकी हैं। इसके अलावा, यही कारण है कि वे उस अधिक आश्चर्यजनक, अधिक भय-उत्प्रेरक संसार को नहीं समझ सकते, जो इस भौतिक संसार से परे मौजूद है, परंतु जिसे देखने से उनकी नश्वर आँखें उन्हें रोकती हैं। वह मनुष्य को अबोधगम्य लगता है, क्योंकि मनुष्य को परमेश्वर द्वारा मानवजाति के उद्धार या परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य की महत्ता की समझ नहीं है, और वह यह नहीं समझता कि परमेश्वर अंततः मनुष्य को कैसा देखना चाहता है। क्या वह उसे शैतान द्वारा बिलकुल भी भ्रष्ट न किए गए आदम और हव्वा के समान देखना चाहता है? नहीं! परमेश्वर के प्रबंधन का उद्देश्य लोगों के एक ऐसे समूह को प्राप्त करना है, जो उसकी आराधना करे और उसके प्रति समर्पित हो। हालाँकि ये लोग शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जा चुके हैं, परंतु वे अब शैतान को अपने पिता के रूप में नहीं देखते; वे शैतान के घिनौने चेहरे को पहचानते हैं और उसे अस्वीकार करते हैं, और वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने के लिए उसके सामने आते हैं। वे जान गए हैं कि क्या बुरा है और वह उससे कितना विषम है जो पवित्र है, और वे परमेश्वर की महानता और शैतान की दुष्टता को भी पहचान गए हैं। इस प्रकार के मनुष्य अब शैतान के लिए कार्य नहीं करेंगे, या शैतान की आराधना नहीं करेंगे, या शैतान को प्रतिष्ठापित नहीं करेंगे। इसका कारण यह है कि यह एक ऐसे लोगों का समूह है, जो सचमुच परमेश्वर द्वारा प्राप्त कर लिए गए हैं। यही परमेश्वर द्वारा मानवजाति के प्रबंधन की महत्ता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है

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प्रश्न 1: सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है," तो मुझे वह याद आया जो प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)। हम पहले से ही जानते हैं कि प्रभु यीशु जीवन के सजीव जल का स्रोत हैं, और अनन्‍त जीवन का मार्ग हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और प्रभु यीशु समान स्रोत हों? क्या उनके कार्य और वचन दोनों पवित्र आत्मा के कार्य और वचन हैं? क्या उनका कार्य एक ही परमेश्‍वर करते हैं?

उत्तर: दोनों बार जब परमेश्‍वर ने देह धारण की तो अपने कार्य में, उन्होंने यह गवाही दी कि वे सत्‍य, मार्ग, जीवन और अनन्‍त जीवन के मार्ग हैं।...

प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

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