463 बदली नहीं हैं परमेश्वर की उम्मीदें इंसान के लिये
1
जब इसहाक को पेश किया बलिदान के लिये अब्राहम ने,
तो देखी परमेश्वर ने आज्ञाकारिता और ईमानदारी उसकी,
कामयाब रहा वो परमेश्वर के इम्तहान में।
परमेश्वर का विश्वासपात्र बनने, उसे जानने की योग्यता से
अभी भी दूर था मगर वो।
देख नहीं सका परमेश्वर का स्वभाव वो।
परमेश्वर से एक मन होने से, उसकी इच्छा पूरी करने से, बहुत दूर था वो।
बनाया जब से इंसान को उसने,
वफ़ादार विजेताओं का समूह बनाना चाहा परमेश्वर ने,
अपने साथ चलने को जो जानता हो उसके स्वभाव को।
बदली नहीं उसकी ये चाहत कभी।
रही है ये सदा वैसे ही। उसकी उम्मीदें रहीं वैसे ही।
2
मन ही मन बेचैन और अकेला, उदास रहा है परमेश्वर।
उसकी प्रबंधन योजना पूरी हो इसलिये,
उसका अपनी योजना को जल्दी सामने लाना ज़रूरी था।
उसकी इच्छा जल्दी पूरी हो इसलिये,
उसका सही लोगों को चुनना, हासिल करना ज़रूरी था।
परमेश्वर की ये तीव्र इच्छा बदली नहीं है आज भी।
बनाया जब से इंसान को उसने,
वफ़ादार विजेताओं का समूह बनाना चाहा परमेश्वर ने,
अपने साथ चलने को जो जानता हो उसके स्वभाव को।
बदली नहीं उसकी ये चाहत कभी।
रही है ये सदा वैसे ही। उसकी उम्मीदें रहीं वैसे ही।
3
कितना भी करना पड़े इंतज़ार उसे,
रास्ता आगे का कितना भी मुश्किल हो,
इच्छित लक्ष्य कितने भी दूर हों,
हारा नहीं परमेश्वर कभी, बदली नहीं अपनी अपेक्षा उसने।
मज़बूत हैं इंसान के लिये उम्मीदें उसकी।
कह चुका वो बात अपनी,
क्या समझते हो उसकी किसी इच्छा को तुम लोग?
एहसास फिलहाल तुम्हारा गहरा न हो,
हो जाएगा वक्त के साथ ये गहरा मगर।
बनाया जब से इंसान को उसने,
वफ़ादार विजेताओं का समूह बनाना चाहा परमेश्वर ने,
अपने साथ चलने को जो जानता हो उसके स्वभाव को।
बदली नहीं उसकी ये चाहत कभी।
रही है ये सदा वैसे ही। उसकी उम्मीदें रहीं वैसे ही।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II से रूपांतरित