iv. मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर को कार्य के तीन चरण क्यों पूरे करने चाहिए

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

मेरी संपूर्ण प्रबंधन योजना, छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना, के तीन चरण या तीन युग हैं : आरंभ में व्यवस्था का युग; अनुग्रह का युग (जो छुटकारे का युग भी है); और अंत के दिनों का राज्य का युग। इन तीनों युगों में मेरे कार्य की विषयवस्तु प्रत्येक युग के स्वरूप के अनुसार अलग-अलग है, परंतु प्रत्येक चरण में यह कार्य मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप है—या, ज्यादा सटीक रूप में, यह शैतान द्वारा उस युद्ध में चली जाने वाली चालों के अनुसार किया जाता है, जो मैं उससे लड़ रहा हूँ। मेरे कार्य का उद्देश्य शैतान को हराना, अपनी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता व्यक्त करना, शैतान की सभी चालों को उजागर करना और परिणामस्वरूप समस्त मानवजाति को बचाना है, जो शैतान की सत्ता के अधीन रहती है। यह मेरी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता दिखाने के लिए और शैतान की असहनीय विकरालता प्रकट करने के लिए है; इससे भी अधिक, यह सृजित प्राणियों को अच्छे और बुरे के बीच अंतर करने देने के लिए है, यह जानने देने के लिए कि मैं सभी चीजों का संप्रभु हूँ, यह देखने देने के लिए कि शैतान मानवजाति का शत्रु है, अधम है, दुष्ट है; और उन्हें पूरी निश्चितता के साथ अच्छे और बुरे, सत्य और झूठ, पवित्रता और मलिनता के बीच का अंतर बताने देने के लिए है, और यह भी कि क्या महान है और क्या हेय है। इस तरह, अज्ञानी मानवजाति मेरी गवाही देने में समर्थ हो जाएगी कि वह मैं नहीं हूँ जो मानवजाति को भ्रष्ट करता है, और केवल मैं—सृष्टिकर्ता—ही मानवजाति को बचा सकता हूँ, लोगों को उनके आनंद की वस्तुएँ प्रदान कर सकता हूँ; और उन्हें पता चल जाएगा कि मैं सभी चीजों का संप्रभु हूँ और शैतान मात्र उन प्राणियों में से एक है, जिनका मैंने सृजन किया है और जिसने बाद में मुझसे विश्वासघात किया। मेरी छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना तीन चरणों में विभाजित है, और मैं इस तरह इसलिए कार्य करता हूँ, ताकि सृजित प्राणियों को मेरी गवाही देने, मेरी इच्छा समझ पाने, और मैं ही सत्य हूँ यह जान पाने के योग्य बनाने का प्रभाव प्राप्त कर सकूँ।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, छुटकारे के युग के कार्य के पीछे की सच्ची कहानी

परमेश्वर के 6,000 वर्षों के प्रबधंन-कार्य को तीन चरणों में बाँटा जाता है : व्यवस्था का युग, अनुग्रह का युग और राज्य का युग। कार्य के ये तीनों चरण मानव-जाति के उद्धार के वास्ते हैं, अर्थात् ये उस मानव-जाति के उद्धार के लिए हैं, जिसे शैतान द्वारा बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया गया है। किंतु, साथ ही, वे इसलिए भी हैं, ताकि परमेश्वर शैतान के साथ युद्ध कर सके। इस प्रकार, जैसे उद्धार के कार्य को तीन चरणों में बाँटा जाता है, ठीक वैसे ही शैतान के साथ युद्ध को भी तीन चरणों में बाँटा जाता है, और परमेश्वर के कार्य के ये दो पहलू एक-साथ संचालित किए जाते हैं। शैतान के साथ युद्ध वास्तव में मानव-जाति के उद्धार के वास्ते है, और चूँकि मानव-जाति के उद्धार का कार्य कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे एक ही चरण में सफलतापूर्वक पूरा किया जा सकता हो, इसलिए शैतान के साथ युद्ध को भी चरणों और अवधियों में बाँटा जाता है, और मनुष्य की आवश्यकताओं और मनुष्य में शैतान की भ्रष्टता की सीमा के अनुसार शैतान के साथ युद्ध छेड़ा जाता है। कदाचित् मनुष्य अपनी कल्पना में यह विश्वास करता है कि इस युद्ध में परमेश्वर शैतान के विरुद्ध शस्त्र उठाएगा, वैसे ही, जैसे दो सेनाएँ आपस में लड़ती हैं। मनुष्य की बुद्धि मात्र यही कल्पना करने में सक्षम है; यह अत्यधिक अस्पष्ट और अवास्तविक सोच है, फिर भी मनुष्य यही विश्वास करता है। और चूँकि मैं यहाँ कहता हूँ कि मनुष्य के उद्धार का साधन शैतान के साथ युद्ध करने के माध्यम से है, इसलिए मनुष्य कल्पना करता है कि युद्ध इसी तरह से संचालित किया जाता है। मनुष्य के उद्धार के कार्य के तीन चरण हैं, जिसका तात्पर्य है कि शैतान को हमेशा के लिए पराजित करने हेतु उसके साथ युद्ध को तीन चरणों में विभाजित किया गया है। किंतु शैतान के साथ युद्ध के समस्त कार्य की भीतरी सच्चाई यह है कि इसके परिणाम कार्य के अनेक चरणों में हासिल किए जाते हैं : मनुष्य को अनुग्रह प्रदान करना, मनुष्य के लिए पापबलि बनना, मनुष्य के पापों को क्षमा करना, मनुष्य पर विजय पाना और मनुष्य को पूर्ण बनाना। वस्तुतः शैतान के साथ युद्ध करना उसके विरुद्ध हथियार उठाना नहीं है, बल्कि मनुष्य का उद्धार करना है, मनुष्य के जीवन में कार्य करना है, और मनुष्य के स्वभाव को बदलना है, ताकि वह परमेश्वर के लिए गवाही दे सके। इसी तरह से शैतान को पराजित किया जाता है। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को बदलने के माध्यम से शैतान को पराजित किया जाता है। जब शैतान को पराजित कर दिया जाएगा, अर्थात् जब मनुष्य को पूरी तरह से बचा लिया जाएगा, तो अपमानित शैतान पूरी तरह से लाचार हो जाएगा, और इस तरह से, मनुष्य को पूरी तरह से बचा लिया जाएगा। इस प्रकार, मनुष्य के उद्धार का सार शैतान के विरुद्ध युद्ध है, और यह युद्ध मुख्य रूप से मनुष्य के उद्धार में प्रतिबिंबित होता है। अंत के दिनों का चरण, जिसमें मनुष्य को जीता जाना है, शैतान के साथ युद्ध का अंतिम चरण है, और यह शैतान की सत्ता से मनुष्य के संपूर्ण उद्धार का कार्य भी है। मनुष्य पर विजय का आंतरिक अर्थ मनुष्य पर विजय पाने के बाद शैतान के मूर्त रूप—मनुष्य, जिसे शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है—का अपने जीते जाने के बाद सृष्टिकर्ता के पास वापस लौटना है, जिसके माध्यम से वह शैतान से विद्रोह कर पूरी तरह से परमेश्वर के पास वापस लौट जाएगा। इस तरह मनुष्य को पूरी तरह से बचा लिया जाएगा। और इसलिए, विजय का कार्य शैतान के विरुद्ध युद्ध में अंतिम कार्य है, और शैतान की पराजय के वास्ते परमेश्वर के प्रबंधन में अंतिम चरण है। इस कार्य के बिना मनुष्य का संपूर्ण उद्धार अंततः असंभव होगा, शैतान की संपूर्ण पराजय भी असंभव होगी, और मानव-जाति कभी भी अपनी अद्भुत मंज़िल में प्रवेश करने या शैतान के प्रभाव से छुटकारा पाने में सक्षम नहीं होगी। परिणामस्वरूप, शैतान के साथ युद्ध की समाप्ति से पहले मनुष्य के उद्धार का कार्य समाप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि परमेश्वर के प्रबधंन के कार्य का केंद्रीय भाग मानव-जाति के उद्धार के वास्ते है। आदिम मानव-जाति परमेश्वर के हाथों में थी, किंतु शैतान के प्रलोभन और भ्रष्टता की वजह से, मनुष्य को शैतान द्वारा बाँध लिया गया और वह इस दुष्ट के हाथों में पड़ गया। इस प्रकार, परमेश्वर के प्रबधंन-कार्य में शैतान पराजित किए जाने का लक्ष्य बन गया। चूँकि शैतान ने मनुष्य पर कब्ज़ा कर लिया था, और चूँकि मनुष्य वह पूँजी है जिसे परमेश्वर संपूर्ण प्रबंधन पूरा करने के लिए इस्तेमाल करता है, इसलिए यदि मनुष्य को बचाया जाना है, तो उसे शैतान के हाथों से वापस छीनना होगा, जिसका तात्पर्य है कि मनुष्य को शैतान द्वारा बंदी बना लिए जाने के बाद उसे वापस लेना होगा। इस प्रकार, शैतान को मनुष्य के पुराने स्वभाव में बदलावों के माध्यम से पराजित किया जाना चाहिए, ऐसे बदलाव, जो मनुष्य की मूल विवेक-बुद्धि को बहाल करते हैं। और इस तरह से मनुष्य को, जिसे बंदी बना लिया गया था, शैतान के हाथों से वापस छीना जा सकता है। यदि मनुष्य शैतान के प्रभाव और बंधन से मुक्त हो जाता है, तो शैतान शर्मिंदा हो जाएगा, मनुष्य को अंततः वापस ले लिया जाएगा, और शैतान को हरा दिया जाएगा। और चूँकि मनुष्य को शैतान के अंधकारमय प्रभाव से मुक्त किया जा चुका है, इसलिए एक बार जब यह युद्ध समाप्त हो जाएगा, तो मनुष्य इस संपूर्ण युद्ध में जीत के परिणामस्वरूप प्राप्त हुआ लाभ बन जाएगा, और शैतान वह लक्ष्य बन जाएगा जिसे दंडित किया जाएगा, जिसके पश्चात् मानव-जाति के उद्धार का संपूर्ण कार्य पूरा कर लिया जाएगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना

आरंभ में, व्यवस्था के पुराने विधान के युग के दौरान मनुष्य का मार्गदर्शन करना एक बच्चे के जीवन का मार्गदर्शन करने जैसा था। आरंभिक मानवजाति यहोवा की नवजात थी; वे इस्राएली थे। उन्हें इस बात की समझ नहीं थी कि परमेश्वर का भय कैसे मानें या पृथ्वी पर कैसे रहें। दूसरे शब्दों में, यहोवा ने मानवजाति का सृजन किया, अर्थात् उसने आदम और हव्वा का सृजन किया, किंतु उसने उन्हें यह समझने की क्षमताएँ नहीं दीं कि यहोवा का भय कैसे मानें या पृथ्वी पर यहोवा की व्यवस्था का अनुसरण कैसे करें। यहोवा के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन के बिना कोई इसे सीधे नहीं जान सकता था, क्योंकि आरंभ में मनुष्य के पास ऐसी क्षमताएँ नहीं थीं। मनुष्य केवल इतना ही जानता था कि यहोवा परमेश्वर है, किंतु जहाँ तक इस बात का संबंध है कि उसका भय कैसे मानना है, किस प्रकार का आचरण उसका भय मानना कहा जा सकता है, किस प्रकार के मन के साथ व्यक्ति को उसका भय मानना है, या उसके प्रति भय में क्या चढ़ाना है, मनुष्य को इसका बिल्कुल भी पता नहीं था। मनुष्य केवल इतना ही जानता था कि उस चीज का आनंद कैसे लिया जाए, जिसका यहोवा द्वारा सृजित सभी चीजों के बीच आनंद लिया जा सकता है, किंतु पृथ्वी पर किस तरह का जीवन परमेश्वर के सृजित प्राणी के योग्य है, मनुष्य को इसका कोई आभास नहीं था। किसी के द्वारा निर्देशित किए बिना, किसी के द्वारा अपना व्यक्तिगत रूप से मार्गदर्शन किए बिना, यह मानवजाति अपने लिए उपयुक्त जीवन उचित प्रकार से कभी न जी पाती, बल्कि केवल शैतान द्वारा गुप्त रूप से बंदी बना ली गई होती। यहोवा ने मानवजाति का सृजन किया, अर्थात्, उसने मानवजाति के पूर्वजों, हव्वा और आदम, का सृजन किया, किंतु उसने उन्हें और कोई बुद्धि या ज्ञान प्रदान नहीं किया। यद्यपि वे पहले से ही पृथ्वी पर रह रहे थे, किंतु वे समझते लगभग कुछ नहीं थे। और इसलिए, मानवजाति का सृजन करने का यहोवा का कार्य केवल आधा ही समाप्त हुआ था, पूरा नहीं। उसने केवल मिट्टी से मनुष्य का एक नमूना बनाया था और उसे अपनी साँस दे दी थी, किंतु परमेश्वर का भय मानने की पर्याप्त इच्छा प्रदान किए बिना। आरंभ में मनुष्य के पास परमेश्वर का भय मानने या उससे डरने वाल हृदय नहीं था। मनुष्य केवल इतना ही जानता था कि उसके वचनों को कैसे सुनना है, किंतु पृथ्वी पर जीवन के बुनियादी ज्ञान और मानव-जीवन के सामान्य नियमों से वह अनभिज्ञ था। और इसलिए, यद्यपि यहोवा ने पुरुष और स्त्री का सृजन किया और सात दिन की परियोजना पूरी कर दी, किंतु उसने किसी भी प्रकार से मनुष्य के सृजन को पूरा नहीं किया, क्योंकि मनुष्य केवल एक भूसा था, और उसमें मनुष्य होने की वास्तविकता का अभाव था। मनुष्य केवल इतना ही जानता था कि यह यहोवा है, जिसने मानवजाति का सृजन किया है, किंतु उसे इस बात का कोई आभास नहीं था कि यहोवा के वचनों और व्यवस्थाओं का पालन कैसे किया जाए। और इसलिए, मानवजाति के सृजन के बाद, यहोवा का कार्य अभी पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुआ था। उसे अभी भी मनुष्यों को अपने सामने लाने के लिए उनका पूरी तरह से मार्गदर्शन करना था, ताकि वे धरती पर एक-साथ रहने और उसका भय मानने में समर्थ हो जाएँ, और ताकि वे उसके मार्गदर्शन से धरती पर एक सामान्य मानव-जीवन के सही रास्ते पर प्रवेश करने में समर्थ हो जाएँ। केवल इसी रूप में मुख्यतः यहोवा के नाम से संचालित कार्य पूरी तरह से संपन्न हुआ था; अर्थात्, केवल इसी रूप में दुनिया का सृजन करने का यहोवा का कार्य पूरी तरह से समाप्त हुआ था। और इसलिए, मानवजाति का सृजन करने के बाद उसे पृथ्वी पर हजारों वर्षों तक मानवजाति के जीवन का मार्गदर्शन करना पड़ा, ताकि मानवजाति उसके आदेशों और व्यवस्थाओं का पालन करने और पृथ्वी पर एक सामान्य मानव-जीवन की सभी गतिविधियों में भाग ले पाने में समर्थ हो जाए। केवल तभी यहोवा का कार्य पूर्णतः पूरा हुआ था।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)

अनुग्रह के युग में मनुष्य पहले ही शैतान द्वारा भ्रष्ट किया जा चुका था, इसलिए समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाने का कार्य पूरा करने के लिए भरपूर अनुग्रह, अनंत सहनशीलता और धैर्य, और उससे भी बढ़कर, मानवजाति के पापों का प्रायश्चित करने के लिए पर्याप्त बलिदान की आवश्यकता थी, ताकि परिणाम हासिल किया जा सके। अनुग्रह के युग में मानवजाति ने जो देखा, वह मानवजाति के पापों के प्रायश्चित के लिए मेरा बलिदान मात्र था : यीशु। वे केवल इतना ही जानते थे कि परमेश्वर दयावान और सहनशील हो सकता है, और उन्होंने केवल यीशु की दया और करुणामय प्रेम ही देखा था। ऐसा पूरी तरह से इसलिए था, क्योंकि वे अनुग्रह के युग में जन्मे थे। इसलिए, इससे पहले कि उन्हें छुटकारा दिलाया जा सके, उन्हें कई प्रकार के अनुग्रह का आनंद उठाना था, जो यीशु ने उन्हें प्रदान किए थे; ताकि वे उनसे लाभान्वित हो सकें। इस तरह, उनके द्वारा अनुग्रह का आनंद उठाने के माध्यम से उनके पापों को क्षमा किया जा सकता था, और यीशु की सहनशीलता और धैर्य का आनंद उठाने के माध्यम से उनके पास छुटकारा पाने का एक अवसर भी हो सकता था। केवल यीशु की सहनशीलता और धैर्य के माध्यम से ही उन्होंने क्षमा पाने का अधिकार जीता और यीशु द्वारा दिए गए अनुग्रह की प्रचुरता का आनंद उठाया। जैसा कि यीशु ने कहा था : मैं धार्मिकों को नहीं बल्कि पापियों को छुटकारा दिलाने, पापियों को उनके पापों के लिए क्षमा करवाने के लिए आया हूँ। यदि यीशु मनुष्य के अपराधों के लिए उनका न्याय करने, उन्हें शाप देने और उनके प्रति असहिष्णुता का स्वभाव लाया होता, तो मनुष्य को छुटकारा पाने का अवसर कभी न मिला होता, और वह हमेशा के लिए पापी रह गया होता। यदि ऐसा हुआ होता, तो छह-हज़ार-वर्षीय प्रबंधन योजना व्यवस्था के युग में ही रुक गई होती, और व्यवस्था का युग छह हज़ार वर्ष लंबा हो गया होता। मनुष्य के पाप अधिक विपुल और अधिक गंभीर हो गए होते, और मानवजाति के सृजन का कोई अर्थ न रह जाता। मनुष्य केवल व्यवस्था के अधीन यहोवा की सेवा करने में ही समर्थ हो पाता, परंतु उसके पाप प्रथम सृजित मनुष्यों से अधिक बढ़ गए होते। यीशु ने मनुष्यों को जितना अधिक प्रेम किया और उनके पापों को क्षमा करते हुए उन पर पर्याप्त दया और करुणामय प्रेम बरसाया, उतना ही अधिक उन्होंने यीशु द्वारा बचाए जाने और खोए हुए मेमने कहलाने की पात्रता हासिल की जिन्हें यीशु ने बड़ी कीमत देकर वापस खरीदा। शैतान इस काम में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था, क्योंकि यीशु अपने अनुयायियों के साथ इस तरह व्यवहार करता था, जैसे कोई स्नेहमयी माता अपने शिशु को अपने आलिंगन में लेकर करती है। वह उन पर क्रोधित नहीं हुआ या उसने उनका तिरस्कार नहीं किया, बल्कि वह सांत्वना से भरा हुआ था; वह उनके बीच कभी भी क्रोध से नहीं भड़का; बल्कि उनके पाप सहन किए और उनकी मूर्खता और अज्ञानता के प्रति आँखें मूँद लीं, और यहाँ तक कहा कि “दूसरों को सत्तर गुना सात बार क्षमा करो।” इस प्रकार उसके हृदय ने दूसरों के हृदयों को रूपांतरित कर दिया, और केवल इसी तरह से लोगों ने उसकी सहनशीलता के माध्यम से अपने पापों के लिए क्षमा प्राप्त की।

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यीशु द्वारा छुटकारा दिलाए बिना मानवजाति हमेशा के लिए पाप में रह रही होती और पाप की संतान और दुष्टात्माओं की वंशज बन जाती। इस तरह चलते हुए समस्त पृथ्वी शैतान का निवास-स्थान, उसके रहने की जगह बन जाती। परंतु छुटकारे के कार्य के लिए मानवजाति के प्रति दया और करुणामय प्रेम दर्शाने की ज़रूरत थी; केवल इस तरीके से ही मानवजाति क्षमा प्राप्त कर सकती थी और अंततः पूर्ण किए जाने और परमेश्वर द्वारा पूरी तरह से प्राप्त किए जाने का अधिकार जीत सकती थी। कार्य के इस चरण के बिना छह-हज़ार-वर्षीय प्रबंधन योजना आगे न बढ़ पाती। यदि यीशु को सलीब पर न चढ़ाया गया होता, यदि उसने केवल लोगों को चंगा ही किया होता और उनकी दुष्टात्माओं को निकाला ही होता, तो लोगों को उनके पापों के लिए पूर्णतः क्षमा नहीं किया जा सकता था। जो साढ़े तीन साल यीशु ने पृथ्वी पर कार्य करते हुए व्यतीत किए, उनमें उसने छुटकारे के अपने कार्य में से केवल आधा ही किया था; फिर, सलीब पर चढ़ाए जाने और पापमय देह के समान बनकर, शैतान को सौंपे जाकर उसने सलीब पर चढ़ाए जाने का काम पूरा किया और मानवजाति की नियति वश में कर ली। केवल शैतान के हाथों में सौंपे जाने के बाद ही उसने मानवजाति को छुटकारा दिलाया। साढ़े तैंतीस सालों तक उसने पृथ्वी पर कष्ट सहा; उसका उपहास उड़ाया गया, उसकी बदनामी की गई और उसे त्याग दिया गया, यहाँ तक कि उसके पास सिर रखने की भी जगह नहीं थी, आराम करने की कोई जगह नहीं थी और बाद में उसे सलीब पर चढ़ा दिया गया, उसका संपूर्ण अस्तित्व—एक निष्कलंक और निर्दोष शरीर—सलीब पर चढ़ा दिया गया। उसने हर संभव कष्ट सहे। जो सत्ता में थे, उन्होंने उसका मज़ाक उड़ाया और उसे चाबुक मारे, यहाँ तक कि सैनिकों ने उसके मुँह पर थूक भी दिया; फिर भी वह चुप रहा और अंत तक सहता रहा, बिना किसी शर्त के समर्पण करते हुए उसने मृत्यु के क्षण तक कष्ट सहा, जिसके पश्चात उसने पूरी मानवजाति को छुटकारा दिला दिया। केवल तभी उसे आराम करने की अनुमति दी गई। यीशु ने जो कार्य किया, वह केवल अनुग्रह के युग का प्रतिनिधित्व करता है; वह व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व नहीं करता, न ही वह अंत के दिनों के कार्य की जगह ले सकता है। यही अनुग्रह के युग, दूसरे युग, जिससे मानवजाति गुज़री है—छुटकारे के युग—में यीशु के कार्य का सार है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, छुटकारे के युग के कार्य के पीछे की सच्ची कहानी

यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया, फिर भी उसने केवल समस्त मानवजाति के छुटकारे का कार्य पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना; उसने मनुष्य को उसके समस्त भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, अब जबकि मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिया गया है, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए वापस देह में लौट आया है, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया है। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना

अंत के दिनों का कार्य वचन बोलना है। वचनों के माध्यम से मनुष्य में बड़े परिवर्तन किए जा सकते हैं। इन वचनों को स्वीकार करने पर लोगों में अब जो परिवर्तन हुए हैं, वे उन परिवर्तनों से बहुत अधिक बड़े हैं, जो चिह्न और चमत्कार स्वीकार करने पर अनुग्रह के युग में लोगों में हुए थे। क्योंकि अनुग्रह के युग में हाथ रखकर और प्रार्थना करके दुष्टात्माओं को मनुष्य से निकाला जाता था, परंतु मनुष्य के भीतर का भ्रष्ट स्वभाव तब भी बना रहता था। मनुष्य को उसकी बीमारी से चंगा कर दिया जाता था और उसके पाप क्षमा कर दिए जाते थे, किंतु जहाँ तक इस बात का संबंध था कि मनुष्य को उसके भीतर के शैतानी स्वभावों से कैसे मुक्त किया जाए, तो यह कार्य अभी किया जाना बाकी था। मनुष्य को उसके विश्वास के कारण केवल बचाया गया था और उसके पाप क्षमा किए गए थे, किंतु उसका पापी स्वभाव उसमें से नहीं निकाला गया था और वह अभी भी उसके अंदर बना हुआ था। मनुष्य के पाप देहधारी परमेश्वर के माध्यम से क्षमा किए गए थे, परंतु इसका अर्थ यह नहीं था कि मनुष्य के भीतर कोई पाप नहीं रह गया था। पापबलि के माध्यम से मनुष्य के पाप क्षमा किए जा सकते हैं, परंतु मनुष्य इस समस्या को हल करने में पूरी तरह असमर्थ रहा है कि वह आगे कैसे पाप न करे और कैसे उसका भ्रष्ट पापी स्वभाव पूरी तरह से मिटाया और रूपांतरित किया जा सकता है। मनुष्य के पाप क्षमा कर दिए गए थे और ऐसा परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने के कार्य की वजह से हुआ था, परंतु मनुष्य अपने पुराने, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव में जीता रहा। इसलिए मनुष्य को उसके भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से पूरी तरह से बचाया जाना आवश्यक है, ताकि उसका पापी स्वभाव पूरी तरह से मिटाया जा सके और वह फिर कभी विकसित न हो पाए, जिससे मनुष्य का स्वभाव रूपांतरित होने में सक्षम हो सके। इसके लिए मनुष्य को जीवन में उन्नति के मार्ग को समझना होगा, जीवन के मार्ग को समझना होगा, और अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के मार्ग को समझना होगा। साथ ही, इसके लिए मनुष्य को इस मार्ग के अनुरूप कार्य करने की आवश्यकता होगी, ताकि उसका स्वभाव धीरे-धीरे बदल सके और वह प्रकाश की चमक में जी सके, ताकि वह जो कुछ भी करे, वह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार हो, ताकि वह अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर कर सके और शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो सके, और इसके परिणामस्वरूप पाप से पूरी तरह से ऊपर उठ सके। केवल तभी मनुष्य पूर्ण उद्धार प्राप्त करेगा। जिस समय यीशु अपना कार्य कर रहा था, उसके बारे में मनुष्य का ज्ञान तब भी अनिश्चित और अस्पष्ट था। मनुष्य ने हमेशा उसे दाऊद का पुत्र माना, और उसके एक महान नबी और उदार प्रभु होने की घोषणा की, जिसने मनुष्य को पापों से छुटकारा दिलाया। कुछ लोग अपने विश्वास के बल पर केवल उसके वस्त्र के किनारे को छूकर ही चंगे हो गए; अंधे देख सकते थे, यहाँ तक कि मृतक भी जिलाए जा सकते थे। कितु मनुष्य अपने भीतर गहराई से जड़ जमाए हुए भ्रष्ट शैतानी स्वभाव का पता लगाने में असमर्थ रहा, न ही वह यह जानता था कि उसे कैसे दूर किया जाए। मनुष्य ने बहुत अनुग्रह प्राप्त किया, जैसे देह की शांति और खुशी, एक व्यक्ति के विश्वास करने पर पूरे परिवार को आशीष, बीमारी से चंगाई, इत्यादि। शेष मनुष्य के भले कर्म और उसकी ईश्वर के अनुरूप दिखावट थी; यदि कोई इनके आधार पर जी सकता था, तो उसे एक स्वीकार्य विश्वासी माना जाता था। केवल ऐसे विश्वासी ही मृत्यु के बाद स्वर्ग में प्रवेश कर सकते थे, जिसका अर्थ था कि उन्हें बचा लिया गया है। परंतु अपने जीवन-काल में इन लोगों ने जीवन के मार्ग को बिल्कुल नहीं समझा था। उन्होंने सिर्फ इतना किया कि अपना स्वभाव बदलने के किसी मार्ग को अपनाए बिना बस एक निरंतर चक्र में पाप किए और उन्हें स्वीकार कर लिया : अनुग्रह के युग में मनुष्य की स्थिति ऐसी थी। क्या मनुष्य ने पूर्ण उद्धार पा लिया है? नहीं! इसलिए, उस चरण का कार्य पूरा हो जाने के बाद भी न्याय और ताड़ना का कार्य बाकी रह गया था। यह चरण वचन के माध्यम से मनुष्य को शुद्ध बनाने और उसके परिणामस्वरूप उसे अनुसरण हेतु एक मार्ग प्रदान करने के लिए है। यह चरण फलदायक या अर्थपूर्ण न होता, यदि यह दुष्टात्माओं को निकालने के साथ जारी रहता, क्योंकि यह मनुष्य की पापपूर्ण प्रकृति को दूर करने में असफल रहता और मनुष्य केवल अपने पापों की क्षमा पर आकर रुक जाता। पापबलि के माध्यम से मनुष्य के पाप क्षमा किए गए हैं, क्योंकि सलीब पर चढ़ने का कार्य पहले ही पूरा हो चुका है और परमेश्वर ने शैतान को जीत लिया है। किंतु मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव अभी भी उसके भीतर बना रहने के कारण वह अभी भी पाप कर सकता है और परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है, और परमेश्वर ने मानवजाति को प्राप्त नहीं किया है। इसीलिए कार्य के इस चरण में परमेश्वर मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करने के लिए वचन का उपयोग करता है और उससे सही मार्ग के अनुसार अभ्यास करवाता है। यह चरण पिछले चरण से अधिक अर्थपूर्ण और साथ ही अधिक लाभदायक भी है, क्योंकि अब वचन ही है जो सीधे तौर पर मनुष्य के जीवन की आपूर्ति करता है और मनुष्य के स्वभाव को पूरी तरह से नया होने में सक्षम बनाता है; कार्य का यह चरण कहीं अधिक विस्तृत है। इसलिए, अंत के दिनों में देहधारण ने परमेश्वर के देहधारण के महत्व को पूरा किया है और मनुष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन-योजना का पूर्णतः समापन किया है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4)

कार्य के तीनों चरण परमेश्वर के प्रबंधन का मुख्य केंद्र हैं और उनमें परमेश्वर का स्वभाव और स्वरूप अभिव्यक्त होते हैं। जो लोग परमेश्वर के कार्य के तीनों चरणों के बारे में नहीं जानते हैं वे यह जानने में अक्षम हैं कि परमेश्वर कैसे अपने स्वभाव को अभिव्यक्त करता है, न ही वे परमेश्वर के कार्य की बुद्धिमत्ता को जानते है। वे उन अनेक मार्गों से, जिनके माध्यम से परमेश्वर मानवजाति को बचाता है, और संपूर्ण मानवजाति के लिए उसकी इच्छा से भी अनभिज्ञ रहते हैं। कार्य के तीनों चरण मानवजाति को बचाने के कार्य की पूर्ण अभिव्यक्ति हैं। जो लोग कार्य के तीन चरणों के बारे में नहीं जानते, वे पवित्र आत्मा के कार्य के विभिन्न तरीकों और सिद्धांतों से अनभिज्ञ रहेंगे; और वे लोग जो सख्ती से केवल उस सिद्धांत से चिपके रहते हैं जो कार्य के किसी एक चरण से बचा रह जाता है, ऐसे लोग होते हैं जो परमेश्वर को केवल सिद्धांत तक सीमित कर देते हैं, और परमेश्वर में जिनका विश्वास अस्पष्ट और अनिश्चित होता है। ऐसे लोग परमेश्वर के उद्धार को कभी भी प्राप्त नहीं करेंगे। केवल परमेश्वर के कार्य के तीन चरण ही परमेश्वर के स्वभाव की संपूर्णता को पूरी तरह से अभिव्यक्त कर सकते हैं और संपूर्ण मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के ध्येय को, और मानवजाति के उद्धार की संपूर्ण प्रक्रिया को पूरी तरह से अभिव्यक्त कर सकते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि परमेश्वर ने शैतान को हरा दिया है और मानवजाति को जीत लिया है, यह परमेश्वर की जीत का प्रमाण है और परमेश्वर के संपूर्ण स्वभाव की अभिव्यक्ति है। जो लोग परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों में से केवल एक चरण को ही समझते हैं, वे परमेश्वर के स्वभाव को केवल आंशिक रूप से ही जानते हैं। मनुष्य की धारणा में, कार्य के इस अकेले चरण का सिद्धांत बन जाना आसान है, इस बात की संभावना बन जाती है कि मनुष्य परमेश्वर के बारे में निश्चित नियम स्थापित कर लेगा, और परमेश्वर के स्वभाव के इस अकेले भाग का परमेश्वर के संपूर्ण स्वभाव के प्रतिनिधि के रूप में उपयोग करेगा। इसके अलावा, यह विश्वास करते हुए कि यदि परमेश्वर एक बार ऐसा था तो वह हर समय वैसा ही बना रहेगा, और कभी भी नहीं बदलेगा, मनुष्य की अधिकांश कल्पनाएँ अंदर-ही-अंदर इस तरह से मिश्रित रहती हैं कि वह परमेश्वर के स्वभाव, अस्तित्व और बुद्धि, और साथ ही परमेश्वर के कार्य के सिद्धांतों को, सीमित मापदंडों के भीतर कठोरता से कैद कर देता है। केवल वे लोग ही जो कार्य के तीनों चरणों को जानते और समझते हैं, परमेश्वर को पूरी तरह से और सही ढ़ंग से जान सकते हैं। कम से कम, वे परमेश्वर को इस्राएलियों या यहूदियों के परमेश्वर के रूप में परिभाषित नहीं करेंगे और उसे ऐसे परमेश्वर के रूप में नहीं देखेंगे जिसे मनुष्यों के वास्ते सदैव के लिए सलीब पर चढ़ा दिया जाएगा। यदि कोई परमेश्वर को उसके कार्य के केवल एक चरण के माध्यम से जानता है, तो उसका ज्ञान बहुत अल्प है और समुद्र में एक बूँद से ज्यादा नहीं है। यदि नहीं, तो कई पुराने धर्म-रक्षकों ने परमेश्वर को जीवित सलीब पर क्यों चढ़ाया होता? क्या ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि मनुष्य परमेश्वर को निश्चित मापदंडों के भीतर सीमित कर देता है?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है

कार्य का अंतिम चरण अकेला नहीं होता है, बल्कि यह उस संपूर्ण का हिस्सा है जो पिछले दो चरणों के साथ मिलकर बनता है, कहने का अर्थ है कि कार्य के तीनों चरणों में से केवल एक को करके उद्धार के समस्त कार्य को पूरा करना असंभव है। भले ही कार्य का अंतिम चरण मनुष्य को पूरी तरह से बचाने में समर्थ है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल इसी एक चरण को इसी के दम पर करना आवश्यक है, और यह कि कार्य के पिछले दो चरण मनुष्यों को शैतान के प्रभाव से बचाने के लिए आवश्यक नहीं हैं। इन तीन चरणों में से किसी भी एक चरण को ही एकमात्र ऐसा दर्शन नहीं ठहराया जा सकता है जिसे समस्त मानवजाति को जानना होगा, क्योंकि उद्धार के कार्य की संपूर्णता कार्य के तीन चरण हैं न कि उनमें से कोई एक चरण। जब तक उद्धार का कार्य पूर्ण नहीं होगा तब तक परमेश्वर का प्रबंधन का कार्य पूरी तरह से समाप्त नहीं हो पाएगा। परमेश्वर का अस्तित्व, स्वभाव और बुद्धि उद्धार के कार्य की संपूर्णता में व्यक्त होते हैं, वे मनुष्य पर बिल्कुल आरंभ में प्रकट नहीं होते हैं, बल्कि उद्धार के कार्य में धीरे-धीरे व्यक्त किए जाते हैं। उद्धार के कार्य का प्रत्येक चरण परमेश्वर के स्वभाव के एक भाग को और उसके अस्तित्व के एक भाग को व्यक्त करता है; कार्य का कोई एक चरण प्रत्यक्षतः और पूर्णतः परमेश्वर के अस्तित्व की संपूर्णता को व्यक्त नहीं कर सकता है। इसलिए, उद्धार का कार्य केवल तभी पूरी तरह से संपन्न हो सकता है जब कार्य के ये तीनों चरण पूरे हो जाते हैं, और इसीलिए परमेश्वर की संपूर्णता का मनुष्य का ज्ञान परमेश्वर के कार्य के तीनों चरणों से अलग नहीं किया जा सकता। कार्य के एक चरण से मनुष्य जो प्राप्त करता है वह सिर्फ परमेश्वर का वह स्वभाव है जो उसके कार्य के सिर्फ एक भाग में व्यक्त होता है। यह उस स्वभाव और अस्तित्व का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है जो इससे पहले या बाद के चरणों में व्यक्त होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मानवजाति को बचाने का कार्य सीधे एक ही अवधि के दौरान या एक ही स्थान पर समाप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि भिन्न-भिन्न समयों और स्थानों पर मनुष्य के विकास के स्तरों के अनुसार यह धीरे-धीरे अधिक गहरा होता जाता है। यह वह कार्य है जो चरणों में किया जाता है, और एक ही चरण में पूरा नहीं होता है। इसलिए, परमेश्वर की संपूर्ण बुद्धि एक अकेले चरण के बजाय तीन चरणों में एक ठोस रूप लेती है। उसका संपूर्ण अस्तित्व और उसकी संपूर्ण बुद्धि इन तीन चरणों में व्यक्त होते हैं, और प्रत्येक चरण में उसके अस्तित्व का समावेश है और प्रत्येक चरण उसके कार्य की बुद्धिमत्ता का अभिलेख है। मनुष्य को इन तीन चरणों में व्यक्त परमेश्वर के संपूर्ण स्वभाव को जानना चाहिए। परमेश्वर के अस्तित्व का यह सब कुछ समस्त मानवजाति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यदि लोगों को परमेश्वर की आराधना करते समय यह ज्ञान न हो, तो वे उन लोगों से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं हैं जो बुद्ध की पूजा करते हैं। मनुष्यों के बीच परमेश्वर का कार्य मनुष्यों से छिपा नहीं है, और उन सभी को यह जानना चाहिए जो परमेश्वर की आराधना करते हैं। चूँकि परमेश्वर ने मनुष्यों के बीच उद्धार के कार्य के तीन चरणों को पूरा कर लिया है, इसलिए मनुष्य को कार्य के इन तीन चरणों के दौरान परमेश्वर के पास क्या है और वह क्या है इसकी अभिव्यक्ति को जानना चाहिए। यह काम मनुष्य को अवश्य करना चाहिए। परमेश्वर मनुष्य से जो कुछ छिपाता है वह ऐसी चीज है जिसे मनुष्य प्राप्त करने में अक्षम है और जिसे मनुष्य को नहीं जानना चाहिए, जबकि परमेश्वर मनुष्य को जो कुछ दिखाता है वह ऐसी चीज है जिसे मनुष्य को जानना चाहिए, और जो मनुष्य के पास होना चाहिए। कार्य के तीनों चरणों में से प्रत्येक चरण पूर्ववर्ती चरण की बुनियाद पर पूरा किया जाता है; इसे स्वतंत्र रूप से, उद्धार के कार्य से पृथक नहीं किया जाता है। यद्यपि किए गए कार्य और युग में काफी बड़े अंतर हैं, पर इसके मूल में मानवजाति का उद्धार ही है, और उद्धार के कार्य का प्रत्येक चरण पिछले चरण से ज्यादा गहरा होता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है

छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन-योजना कार्य के तीन चरणों में विभाजित है। कोई भी एक चरण अकेला तीनों युगों के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, बल्कि संपूर्ण कार्य के केवल एक भाग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। यहोवा नाम परमेश्वर के संपूर्ण स्वभाव का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। यह तथ्य कि उसने व्यवस्था के युग में अपना कार्य किया था, यह प्रमाणित नहीं करता कि परमेश्वर केवल व्यवस्था के अंतर्गत ही परमेश्वर हो सकता है। यहोवा ने मनुष्य से मंदिर और वेदियाँ बनाने के लिए कहते हुए उसके लिए व्यवस्थाएँ निर्धारित कीं और उसे आज्ञाएँ दीं; जो कार्य उसने किया, वह केवल व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व करता है। उसके द्वारा किया गया यह कार्य यह प्रमाणित नहीं करता कि केवल वही परमेश्वर, परमेश्वर है जो मनुष्य से व्यवस्था बनाए रखने के लिए कहता है, या वह बस मंदिर में परमेश्वर है, या बस वेदी के सामने परमेश्वर है। ऐसा कहना झूठ होगा। व्यवस्था के अधीन किया गया कार्य केवल एक युग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। इसलिए, यदि परमेश्वर ने केवल व्यवस्था के युग में ही कार्य किया होता, तो मनुष्य ने यह कहते हुए परमेश्वर को निम्नलिखित परिभाषा में सीमित कर दिया होता, “परमेश्वर मंदिर में ही परमेश्वर है और परमेश्वर की सेवा करने के लिए हमें याजकीय वस्त्र पहनने चाहिए और मंदिर में प्रवेश करना चाहिए।” यदि अनुग्रह के युग का कार्य कभी न किया जाता और व्यवस्था का युग ही वर्तमान समय तक जारी रहता, तो मनुष्य यह नहीं जान पाता कि परमेश्वर दयालु और प्रेमपूर्ण भी है। यदि व्यवस्था के युग में कोई कार्य न किया जाता और केवल अनुग्रह के युग में ही कार्य किया जाता, तो मनुष्य बस इतना ही जान पाता कि परमेश्वर मनुष्य को छुटकारा दे सकता है और उसके पाप क्षमा कर सकता है। वह केवल इतना ही जान पाता कि परमेश्वर पवित्र और निर्दोष है, और वह मनुष्य के लिए अपना बलिदान करने और सलीब पर चढ़ने में सक्षम है। मनुष्य केवल इतना ही जान पाता और उसे अन्य किसी चीज़ की कोई समझ न होती। अतः प्रत्येक युग परमेश्वर के स्वभाव के एक भाग का प्रतिनिधित्व करता है। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि व्यवस्था के युग में किन पहलुओं का प्रतिनिधित्व किया जाता है, अनुग्रह के युग में किन पहलुओं का, और इस वर्तमान युग में किन पहलुओं का : केवल तीनों युगों को पूर्ण एक में मिलाने पर ही वे परमेश्वर के स्वभाव की समग्रता को प्रकट कर सकते हैं। केवल इन तीनों चरणों को जान लेने के बाद ही मनुष्य इसे पूरी तरह से समझ सकता है। तीनों चरणों में से एक भी चरण छोड़ा नहीं जा सकता। कार्य के इन तीनों चरणों को जान लेने के बाद ही तुम परमेश्वर के स्वभाव को उसकी संपूर्णता में देखोगे। यह तथ्य कि परमेश्वर ने व्यवस्था के युग में अपना कार्य किया, यह प्रमाणित नहीं करता कि वह केवल व्यवस्था के अधीन ही परमेश्वर है, और इस तथ्य का कि उसने छुटकारे का कार्य किया, यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर सदैव मानवजाति को छुटकारा देगा। ये सभी मनुष्य द्वारा निकाले गए निष्कर्ष हैं। अनुग्रह के युग के समाप्ति पर आ जाने पर तुम यह नहीं कह सकते कि परमेश्वर केवल सलीब से ही सबंध रखता है, और केवल सलीब ही परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले उद्धार का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसा करना परमेश्वर को परिभाषित करना होगा। वर्तमान चरण में परमेश्वर मुख्य रूप से वचन का कार्य कर रहा है, परंतु इससे तुम यह नहीं कह सकते कि परमेश्वर मनुष्य के प्रति कभी दयालु नहीं रहा है और वह बस ताड़ना और न्याय लाया है। अंत के दिनों का कार्य यहोवा और यीशु के कार्य को और उन सभी रहस्यों को प्रकट करता है, जिन्हें मनुष्य द्वारा समझा नहीं गया था, ताकि मानवजाति की मंज़िल और अंत प्रकट किया जा सके और मानवजाति के बीच उद्धार का समस्त कार्य समाप्त हो सके। अंत के दिनों में कार्य का यह चरण सभी चीज़ों को समाप्ति की ओर ले आता है। मनुष्य द्वारा समझे न गए सभी रहस्यों को प्रकट किया जाना आवश्यक है, ताकि मनुष्य उन्हें उनकी गहराई तक जान सकें और उनके हृदयों में उनकी एक पूरी तरह से स्पष्ट समझ उत्पन्न हो सके। केवल तभी मानवजाति को प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। केवल छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन-योजना पूर्ण होने के बाद ही मनुष्य परमेश्वर का स्वभाव उसकी संपूर्णता में समझ पाएगा, क्योंकि तब उसकी प्रबंधन-योजना समाप्ति पर आ गई होगी।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4)

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