1. परमेश्वर पर अपने विश्वास में नए कार्य के प्रति लोगों के विरोध का स्रोत जानना
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :
मनुष्य द्वारा परमेश्वर के विरोध का कारण, एक ओर तो मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है, दूसरी ओर, परमेश्वर के प्रति अज्ञानता, उन सिद्धांतों की जिनसे परमेश्वर कार्य करता है और मनुष्य के लिए उसकी इच्छा की समझ की कमी है। ये दोनों पहलू मिलकर परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध के इतिहास को बनाते हैं। नौसिखिए विश्वासी परमेश्वर का विरोध करते हैं क्योंकि ऐसा विरोध उनकी प्रकृति में बसा होता है, जबकि कई वर्षों से विश्वास रखने वाले लोगों में परमेश्वर का विरोध, उनके भ्रष्ट स्वभाव के अलावा, परमेश्वर के प्रति उनकी अज्ञानता का परिणाम है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं
परमेश्वर का कार्य निरंतर आगे बढ़ता रहता है। यद्यपि उसके कार्य का प्रयोजन नहीं बदलता, लेकिन जिन तरीकों से वह कार्य करता है, वे निरंतर बदलते रहते हैं, जिसका अर्थ यह हुआ कि जो लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, वे भी निरंतर बदलते रहते हैं। परमेश्वर जितना अधिक कार्य करता है, मनुष्य का परमेश्वर का ज्ञान उतना ही अधिक होता है। परमेश्वर के कार्य के कारण मनुष्य के स्वभाव में तदनुरूप बदलाव आता है। लेकिन चूँकि परमेश्वर का कार्य हमेशा बदलता रहता है, इसलिए पवित्र आत्मा के कार्य को न समझने वाले और सत्य को न जानने वाले बेतुके लोग परमेश्वर का विरोध करने वाले लोग बन जाते हैं। परमेश्वर का कार्य कभी भी मनुष्यों की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता, क्योंकि उसका कार्य हमेशा नया होता है और कभी भी पुराना नहीं होता, न ही वह कभी पुराने कार्य को दोहराता है, बल्कि पहले कभी नहीं किए गए कार्य के साथ आगे बढ़ता जाता है। चूँकि परमेश्वर अपने कार्य को दोहराता नहीं और मनुष्य परमेश्वर द्वारा अतीत में किए गए कार्य के आधार पर ही उसके आज के कार्य का आकलन करता है, इस कारण परमेश्वर के लिए नए युग के कार्य के प्रत्येक चरण को करना लगातार अत्यंत कठिन हो गया है। मनुष्य के सामने बहुत अधिक मुश्किलें हैं! मनुष्य की सोच बहुत ही रूढ़िवादी है! कोई भी मनुष्य परमेश्वर के कार्य को नहीं जानता, फिर भी हर कोई उसे सीमा में बांध देता है। जब मनुष्य परमेश्वर से दूर जाता है, तो वह जीवन, सत्य और परमेश्वर की आशीषों को खो देता है, फिर भी मनुष्य न तो सत्य, और न ही जीवन को स्वीकार करता है, परमेश्वर द्वारा मानवजाति को प्रदान किए जाने वाले अधिक बड़े आशीषों को तो बिल्कुल ग्रहण नहीं करता। सभी मनुष्य परमेश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं, फिर भी परमेश्वर के कार्य में किसी भी बदलाव को सहन नहीं कर पाते। जो लोग परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार नहीं करते, उन्हें लगता है परमेश्वर का कार्य अपरिवर्तनशील है, और परमेश्वर का कार्य हमेशा ठहरा रहता है। उनके विश्वास के अनुसार, परमेश्वर से जो कुछ भी शाश्वत उद्धार प्राप्त करने के लिए आवश्यक है, वह है व्यवस्था का पालन करना, अगर वे पश्चाताप करेंगे और अपने पापों को स्वीकार करेंगे, तो परमेश्वर की इच्छा हमेशा संतुष्ट रहेगी। वे इस विचार के हैं कि परमेश्वर केवल वही हो सकता है जो व्यवस्था के अधीन है और जिसे मनुष्य के लिए सलीब पर चढ़ाया गया था; उनका यह भी विचार है कि परमेश्वर न तो बाइबल से बढ़कर होना चाहिए और न ही वो हो सकता है। उनके इन्हीं विचारों ने उन्हें पुरानी व्यवस्था से दृढ़ता से बाँध रखा है और मृत नियमों में जकड़ कर रखा है। ऐसे लोग तो और भी हैं जो यह मानते हैं कि परमेश्वर का नया कार्य जो भी हो, उसे भविष्यवाणियों द्वारा सही साबित किया जाना ही चाहिए और कार्य के प्रत्येक चरण में, जो भी "सच्चे" मन से उसका अनुसरण करते हैं, उन्हें प्रकटन भी अवश्य दिखाया जाना चाहिए; अन्यथा वह कार्य परमेश्वर का कार्य नहीं हो सकता। परमेश्वर को जानना मनुष्य के लिए पहले ही आसान कार्य नहीं है। मनुष्य के बेतुके हृदय और उसके आत्म-महत्व एवं दंभी विद्रोही स्वभाव को देखते हुए, परमेश्वर के नए कार्य को ग्रहण करना मनुष्य के लिए और भी अधिक कठिन है। मनुष्य न तो परमेश्वर के कार्य पर ध्यान से जाँच करता है और न ही इसे विनम्रता से स्वीकार करता है; बल्कि मनुष्य परमेश्वर से प्रकाशन और मार्गदर्शन का इंतजार करते हुए, तिरस्कार का रवैया अपनाता है। क्या यह ऐसे मनुष्य का व्यवहार नहीं है जो परमेश्वर का विरोधी और उससे विद्रोह करने वाला है? इस प्रकार के मनुष्य कैसे परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त कर सकते हैं?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, वो मनुष्य, जिसने परमेश्वर को अपनी ही धारणाओं में सीमित कर दिया है, किस प्रकार उसके प्रकटनों को प्राप्त कर सकता है?
क्योंकि परमेश्वर के कार्य में हमेशा नई प्रगति होती रहती है, कुछ ऐसा कार्य है जो नए कार्य के सामने आने पर अप्रचलित और पुराना हो जाता है। ये विभिन्न प्रकार के नए और पुराने कार्य परस्पर विरोधी नहीं हैं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं; हर अगला कदम पिछले कदम का अनुसरण करता है। क्योंकि नया कार्य हो रहा है, इसलिए पुरानी चीजें निस्संदेह समाप्त कर देनी चाहिए। उदाहरण के लिए, लंबे समय से चली आ रही कुछ प्रथाओं और पारंपरिक कहावतों ने, मनुष्य के कई सालों के अनुभवों और शिक्षाओं के साथ मिलकर, मनुष्य के दिमाग में अनेक तरह और रूपों की धारणाएं बना दी हैं। मनुष्य द्वारा इस प्रकार की धारणाएं बनाए जाने में और भी अधिक सकारात्मक भूमिका इस बात की रही है कि प्राचीन समय के पारंपरिक सिद्धांतों का वर्षों से विस्तार हुआ है, जबकि परमेश्वर ने अभी तक अपना वास्तविक चेहरा और निहित स्वभाव मनुष्य के सामने पूरी तरह से प्रकट नहीं किया है। ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर में मनुष्य के विश्वास में, विभिन्न धारणाओं का प्रभाव रहा है जिसके कारण लोगों में परमेश्वर के बारे में सभी प्रकार की धारणात्मक समझ निरंतर उत्पन्न और विकसित होती रही है, जिससे कई ऐसे धार्मिक लोग जो परमेश्वर की सेवा करते हैं, उसके शत्रु बन गए हैं। इसलिए, लोगों की धार्मिक धारणाएं जितनी अधिक मजबूत होती हैं, वे परमेश्वर का विरोध उतना ही अधिक करते हैं, और वे परमेश्वर के उतने ही अधिक दुश्मन बन जाते हैं। परमेश्वर का कार्य हमेशा नया होता है और कभी भी पुराना नहीं होता है, और वह कभी भी सिद्धांत नहीं बनता है, बल्कि निरंतर बदलता रहता है और उसका कम या ज्यादा नवीकरण होता रहता है। इस तरह कार्य करना स्वयं परमेश्वर के निहित स्वभाव की अभिव्यक्ति है। यह परमेश्वर के कार्य का निहित नियम भी है, और उन उपायों में से एक है जिनके माध्यम से परमेश्वर अपना प्रबंधन निष्पादित करता है। यदि परमेश्वर इस प्रकार से कार्य न करे, तो मनुष्य बदल नहीं पाएगा या परमेश्वर को जान नहीं पाएगा, और शैतान पराजित नहीं होगा। इसलिए, उसके कार्य में निरंतर परिवर्तन होता रहता है जो अनिश्चित दिखाई देता है, परंतु वास्तव में ये निश्चित अवधियों में होने वाले परिवर्तन हैं। हालाँकि, मनुष्य जिस प्रकार से परमेश्वर में विश्वास करता है, वह बिल्कुल भिन्न है। वह पुराने, परिचित धर्म सिद्धांतों और पद्धतियों से चिपका रहता है, और वे जितने पुराने होते हैं, उसे उतने ही प्रिय लगते हैं। मनुष्य का मूर्ख दिमाग, जो पत्थर के समान अपरिवर्तनशील है, परमेश्वर के इतने सारे अकल्पनीय नए कार्यों और वचनों को कैसे स्वीकार कर सकता है? हमेशा नया बने रहने वाले और कभी पुराना न पड़ने वाले परमेश्वर से मनुष्य घृणा करता है; वह हमेशा ही केवल उस पुराने परमेश्वर को पसंद करता है जिसके दाँत लंबे और बाल सफेद हैं, और जो अपनी जगह से चिपका रहता है। इस प्रकार, क्योंकि परमेश्वर और मनुष्य, दोनों की अपनी-अपनी पसंद है, मनुष्य परमेश्वर का बैरी बन गया है। इनमें से बहुत से विरोधाभास आज भी मौजूद हैं, एक ऐसे समय में जब परमेश्वर लगभग छह हजार सालों से नया कार्य करता आ रहा है। तो वे किसी भी इलाज से परे हैं। ... परमेश्वर का इरादा हमेशा यही रहा है कि उसके कार्य नए और जीवित रहें, पुराने या मृत नहीं, और जिन बातों को वह मनुष्य को दृढ़ता से थामे रखने के लिए कहता है वे युगों और कालों में विभाजित हैं, न कि अनंत और स्थिर हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह परमेश्वर ही है जो मनुष्य को जीवित और नया बनने के योग्य बनाता है, न कि शैतान जो मनुष्य को मृत और पुराना बने रहने देना चाहता है। क्या तुम लोग अभी भी यह नहीं समझते हो? तुममें परमेश्वर के बारे में धारणाएं हैं और तुम उन्हें छोड़ पाने में सक्षम नही हो, क्योंकि तुम संकीर्ण दिमाग के हो। ऐसा इसलिए नहीं है कि परमेश्वर के कार्य के भीतर अत्यंत कम समझने योग्य है, और न ही इसलिए कि परमेश्वर का कार्य मानवीय इच्छाओं के अनुरूप नहीं है; ऐसा इसलिए भी नहीं है कि परमेश्वर अपने कर्तव्यों के प्रति हमेशा बेपरवाह रहता है। तुम अपनी धारणाओं को इसलिए नहीं छोड़ पाते हो क्योंकि तुम्हारे अंदर आज्ञाकारिता की अत्यधिक कमी है, और क्योंकि तुममें परमेश्वर द्वारा सृजित प्राणी की थोड़ी सी भी समानता नहीं है; ऐसा इसलिए नहीं है कि परमेश्वर तुम्हारे लिए चीजों को कठिन बना रहा है। यह सब कुछ तुम्हारे ही कारण हुआ है और इसका परमेश्वर के साथ कोई संबंध नहीं है; सारे कष्ट और दुर्भाग्य मनुष्य ने ही पैदा किए हैं। परमेश्वर की सोच हमेशा अच्छी होती है : वह तुम्हें धारणाएँ बनाने देना नहीं चाहता, बल्कि वह चाहता है कि युगों के बदलने के साथ-साथ तुम भी बदल जाओ और नए होते जाओ। फिर भी तुम नहीं जानते कि तुम्हारे लिए क्या अच्छा है, और तुम हमेशा परख या विश्लेषण कर रहे होते हो। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुम्हारे लिए चीजें मुश्किल बना रहा है, बल्कि तुममें परमेश्वर के लिए आदर नहीं है, और तुम्हारी अवज्ञा बहुत ज्यादा है। एक अदना-सा सृजित प्राणी पूर्व में परमेश्वर द्वारा प्रदत्त किसी चीज के एक महत्त्वहीन-से हिस्से को लेकर और पलटकर उसी से परमेश्वर पर प्रहार करने का साहस करता है—क्या यह मनुष्य द्वारा अवज्ञा नहीं है? यह कहना उचित होगा कि परमेश्वर के सामने अपने विचारों को व्यक्त करने में मनुष्य पूरी तरह से अयोग्य है, और वह अपनी व्यर्थ की, बदबूदार, सड़ी-गली, अलंकृत भाषा के साथ, अपनी इच्छानुसार प्रदर्शन करने में तो और भी अयोग्य है—उन घिसी-पिटी धारणाओं का तो कहना ही क्या। क्या वे और भी बेकार नहीं हैं?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो परमेश्वर के आज के कार्य को जानते हैं केवल वे ही परमेश्वर की सेवा कर सकते हैं
तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम लोग परमेश्वर के कार्य का विरोध इसलिए करते हो, या आज के कार्य को मापने के लिए अपनी ही धारणाओं का इसलिए उपयोग करते हो, क्योंकि तुम लोग परमेश्वर के कार्य के सिद्धांतों को नहीं जानते हो, और क्योंकि तुम पवित्र आत्मा के कार्य के प्रति लापरवाही बरतते हो। तुम लोगों का परमेश्वर के प्रति विरोध और पवित्र आत्मा के कार्य में अवरोध तुम लोगों की धारणाओं और तुम लोगों के अंतर्निहित अहंकार के कारण है। ऐसा इसलिए नहीं है कि परमेश्वर का कार्य गलत है, बल्कि इसलिए है कि तुम लोग प्राकृतिक रूप से अत्यंत अवज्ञाकारी हो। परमेश्वर में विश्वास हो जाने के बाद भी, कुछ लोग यकीन से यह भी नहीं कह सकते हैं कि मनुष्य कहाँ से आया, फिर भी वे पवित्र आत्मा के कार्यों के सही और गलत होने के बारे में बताते हुए सार्वजनिक भाषण देने का साहस करते हैं। यहाँ तक कि वे उन प्रेरितों को भी व्याख्यान देते हैं जिनके पास पवित्र आत्मा का नया कार्य है, उन पर टिप्पणी करते हैं और बेमतलब बोलते रहते हैं; उनकी मानवता बहुत ही निम्न है, और उनमें बिल्कुल भी समझ नहीं होती है। क्या वह दिन नहीं आएगा जब इस प्रकार के लोग पवित्र आत्मा के कार्य के द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाएँगे, और नरक की आग द्वारा भस्म कर दिए जाएँगे? वे परमेश्वर के कार्यों को नहीं जानते हैं, फिर भी उसके कार्य की आलोचना करते हैं और परमेश्वर को यह निर्देश देने की कोशिश करते हैं कि कार्य किस प्रकार किया जाए। इस प्रकार के अविवेकी लोग परमेश्वर को कैसे जान सकते हैं? मनुष्य खोजने और अनुभव करने की प्रक्रिया के दौरान ही परमेश्वर को जान पाता है; न कि अपनी सनक में उसकी आलोचना करने के द्वारा मनुष्य पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता के माध्यम से परमेश्वर को जान पाया है। परमेश्वर के बारे में लोगों का ज्ञान जितना अधिक सही होता जाता है, उतना ही कम वे उसका विरोध करते हैं। इसके विपरीत, लोग परमेश्वर के बारे में जितना कम जानते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का विरोध करने की संभावना रहती है। तुम लोगों की धारणाएँ, तुम्हारी पुरानी प्रकृति, और तुम्हारी मानवता, चरित्र और नैतिक दृष्टिकोण वह पूँजी है जिससे तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो, और जितना अधिक तुम्हारी नैतिकता जितनी भ्रष्ट होगी, तुम्हारे गुण जितने तुच्छ और तुम्हारी मानवता जितनी निम्न होगी, उतना ही अधिक तुम परमेश्वर के शत्रु बन जाते हो। जो लोग प्रबल धारणाएँ रखते हैं और आत्मतुष्ट स्वभाव के होते हैं, वे देहधारी परमेश्वर के प्रति और भी अधिक शत्रुतापूर्ण होते हैं; इस प्रकार के लोग मसीह-विरोधी हैं। यदि तुम्हारी धारणाओं में सुधार न किया जाए, तो वे सदैव परमेश्वर की विरोधी रहेंगी; तुम कभी भी परमेश्वर के अनुकूल नहीं होगे, और सदैव उससे दूर रहोगे।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है
क्या तुम लोग कारण जानना चाहते हो कि फरीसियों ने यीशु का विरोध क्यों किया? क्या तुम फरीसियों के सार को जानना चाहते हो? वे मसीहा के बारे में कल्पनाओं से भरे हुए थे। इससे भी ज़्यादा, उन्होंने केवल इस पर विश्वास किया कि मसीहा आएगा, फिर भी जीवन का सत्य अनुसरण नहीं किया। इसलिए, वे आज भी मसीहा की प्रतीक्षा करते हैं क्योंकि उन्हें जीवन के मार्ग के बारे में कोई ज्ञान नहीं है, और नहीं जानते कि सत्य का मार्ग क्या है? तुम लोग क्या कहते हो, ऐसे मूर्ख, हठधर्मी और अज्ञानी लोग परमेश्वर का आशीष कैसे प्राप्त करेंगे? वे मसीहा को कैसे देख सकते हैं? उन्होंने यीशु का विरोध किया क्योंकि वे पवित्र आत्मा के कार्य की दिशा नहीं जानते थे, क्योंकि वे यीशु द्वारा बताए गए सत्य के मार्ग को नहीं जानते थे और इसके अलावा क्योंकि उन्होंने मसीहा को नहीं समझा था। और चूँकि उन्होंने मसीहा को कभी नहीं देखा था और कभी मसीहा के साथ नहीं रहे थे, उन्होंने मसीहा के बस नाम के साथ चिपके रहने की ग़लती की, जबकि हर मुमकिन ढंग से मसीहा के सार का विरोध करते रहे। ये फरीसी सार रूप से हठधर्मी एवं अभिमानी थे और सत्य का पालन नहीं करते थे। परमेश्वर में उनके विश्वास का सिद्धांत था : इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा उपदेश कितना गहरा है, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा अधिकार कितना ऊँचा है, जब तक तुम्हें मसीहा नहीं कहा जाता, तुम मसीह नहीं हो। क्या यह सोच हास्यास्पद और बेतुकी नहीं है? मैं तुम लोगों से आगे पूछता हूँ : क्या तुम लोगों के लिए वो ग़लतियां करना बेहद आसान नहीं, जो बिल्कुल आरंभ के फरीसियों ने की थीं, क्योंकि तुम लोगों के पास यीशु की थोड़ी-भी समझ नहीं है? क्या तुम सत्य का मार्ग जानने योग्य हो? क्या तुम सचमुच विश्वास दिला सकते हो कि तुम मसीह का विरोध नहीं करोगे? क्या तुम पवित्र आत्मा के कार्य का अनुसरण करने योग्य हो? यदि तुम नहीं जानते कि तुम मसीह का विरोध करोगे या नहीं, तो मेरा कहना है कि तुम पहले ही मौत की कगार पर जी रहे हो। जो लोग मसीहा को नहीं जानते थे, वे सभी यीशु का विरोध करने, यीशु को अस्वीकार करने, उसे बदनाम करने में सक्षम थे। जो लोग यीशु को नहीं समझते, वे सब उसे अस्वीकार करने एवं उसे बुरा-भला कहने में सक्षम हैं। इसके अलावा, वे यीशु के लौटने को शैतान द्वारा किए गए धोखे की तरह देखने में सक्षम हैं और अधिकांश लोग देह में लौटे यीशु की निंदा करेंगे। क्या इस सबसे तुम लोगों को डर नहीं लगता? जिसका तुम लोग सामना करते हो, वह पवित्र आत्मा के ख़िलाफ़ निंदा होगी, कलीसियाओं के लिए कहे गए पवित्र आत्मा के वचनों का विनाश होगा और यीशु द्वारा व्यक्त किए गए समस्त वचनों को ठुकराना होगा। यदि तुम लोग इतने संभ्रमित हो, तो यीशु से क्या प्राप्त कर सकते हो? यदि तुम हठपूर्वक अपनी ग़लतियां मानने से इनकार करते हो, तो श्वेत बादल पर यीशु के देह में लौटने पर तुम लोग उसके कार्य को कैसे समझ सकते हो? मैं तुम लोगों को यह बताता हूँ : जो लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, फिर भी अंधों की तरह श्वेत बादलों पर यीशु के आगमन का इंतज़ार करते हैं, निश्चित रूप से पवित्र आत्मा के ख़िलाफ़ निंदा करेंगे और ये वे वर्ग हैं, जो नष्ट किए जाएँगे। तुम लोग सिर्फ़ यीशु के अनुग्रह की कामना करते हो और सिर्फ़ स्वर्ग के सुखद क्षेत्र का आनंद लेना चाहते हो, जब यीशु देह में लौटा, तो तुमने यीशु के कहे वचनों का कभी पालन नहीं किया और यीशु द्वारा व्यक्त किए सत्य को कभी ग्रहण नहीं किया। यीशु के एक श्वेत बादल पर लौटने के तथ्य के बदले तुम लोग क्या दोगे? क्या यह वही ईमानदारी है, जिसमें तुम लोग बार-बार पाप करते हो और फिर बार-बार उनकी स्वीकारोक्ति करते हो? श्वेत बादल पर लौटने वाले यीशु को तुम बलिदान में क्या अर्पण करोगे? क्या ये कार्य के वे वर्ष हैं, जिनके ज़रिए तुम स्वयं अपनी बढ़ाई करते हो? लौटकर आए यीशु को तुम लोगों पर विश्वास कराने के लिए तुम लोग किस चीज को थामकर रखोगे? क्या वह तुम लोगों का अभिमानी स्वभाव है, जो किसी भी सत्य का पालन नहीं करता?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जब तक तुम यीशु के आध्यात्मिक शरीर को देखोगे, परमेश्वर स्वर्ग और पृथ्वी को नया बना चुका होगा
परमेश्वर के प्रति मनुष्य के विरोध और उसकी विद्रोहशीलता का स्रोत शैतान द्वारा उसकी भ्रष्टता है। शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिए जाने के कारण मनुष्य की अंतरात्मा सुन्न हो गई है, वह अनैतिक हो गया है, उसके विचार पतित हो गए हैं, और उसका मानसिक दृष्टिकोण पिछड़ा हुआ है। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने से पहले मनुष्य स्वाभाविक रूप से परमेश्वर का अनुसरण करता था और उसके वचनों को सुनने के बाद उनका पालन करता था। उसमें स्वाभाविक रूप से सही समझ और विवेक था, और उसमें सामान्य मानवता थी। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद उसकी मूल समझ, विवेक और मानवता मंद पड़ गई और शैतान द्वारा बिगाड़ दी गई। इस प्रकार, उसने परमेश्वर के प्रति अपनी आज्ञाकारिता और प्रेम खो दिया है। मनुष्य की समझ पथभ्रष्ट हो गई है, उसका स्वभाव जानवरों के स्वभाव के समान हो गया है, और परमेश्वर के प्रति उसकी विद्रोहशीलता और भी अधिक बढ़ गई है और गंभीर हो गई है। लेकिन मनुष्य इसे न तो जानता है और न ही पहचानता है, बस आँख मूँदकर विरोध और विद्रोह करता है। मनुष्य का स्वभाव उसकी समझ, अंतर्दृष्टि और अंत:करण की अभिव्यक्तियों में प्रकट होता है; और चूँकि उसकी समझ और अंतर्दृष्टि सही नहीं हैं, और उसका अंत:करण अत्यंत मंद पड़ गया है, इसलिए उसका स्वभाव परमेश्वर के प्रति विद्रोही है। ...
मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के प्रकटीकरण का स्रोत उसका मंद अंत:करण, उसकी दुर्भावनापूर्ण प्रकृति और उसकी विकृत समझ से अधिक किसी में नहीं है; यदि मनुष्य का अंत:करण और समझ फिर से सामान्य हो पाएँ, तो फिर वह परमेश्वर के सामने उपयोग करने के योग्य बन जाएगा। यह सिर्फ इसलिए है, क्योंकि मनुष्य का अंत:करण हमेशा सुन्न रहा है, और मनुष्य की समझ, जो कभी सही नहीं रही, लगातार इतनी मंद होती जा रही है कि मनुष्य परमेश्वर के प्रति अधिक से अधिक विद्रोही होता जा रहा है, इस हद तक कि उसने यीशु को क्रूस पर चढ़ा दिया और अंत के दिनों के देहधारी परमेश्वर को अपने घर में प्रवेश देने से इनकार करता है, और परमेश्वर के देह पर दोष लगाता है, और परमेश्वर के देह को तुच्छ समझता है। यदि मनुष्य में थोड़ी-सी भी मानवता होती, तो वह परमेश्वर द्वारा धारित देह के साथ इतना निर्मम व्यवहार न करता; यदि उसे थोड़ी-सी भी समझ होती, तो वह देहधारी परमेश्वर के देह के साथ अपने व्यवहार में इतना शातिर न होता; यदि उसमें थोड़ा-सा भी विवेक होता, तो वह देहधारी परमेश्वर को इस ढंग से "धन्यवाद" न देता। मनुष्य देहधारी परमेश्वर के युग में जीता है, फिर भी वह इतना अच्छा अवसर दिए जाने के लिए परमेश्वर को धन्यवाद देने में असमर्थ है, और इसके बजाय परमेश्वर के आगमन को कोसता है, या परमेश्वर के देहधारण के तथ्य को पूरी तरह से अनदेखा कर देता है, और प्रकट रूप से उसके विरोध में है और उससे ऊबा हुआ है। मनुष्य परमेश्वर के आगमन को चाहे जैसा समझे, परमेश्वर ने, संक्षेप में, हमेशा धैर्यपूर्वक अपना कार्य जारी रखा है—भले ही मनुष्य ने परमेश्वर के प्रति थोड़ा-सा भी स्वागत करने वाला रुख नहीं अपनाया है, और उससे अंधाधुंध अनुरोध करता रहता है। मनुष्य का स्वभाव अत्यंत शातिर बन गया है, उसकी समझ अत्यंत मंद हो गई है, और उसका अंत:करण उस दुष्ट द्वारा पूरी तरह से रौंद दिया गया है और वह बहुत पहले से मनुष्य का मौलिक अंत:करण नहीं रहा है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है