जीवन में प्रवेश I

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 374

सर्वशक्तिमान परमेश्वर, समस्त पदार्थों का मुखिया, अपने सिंहासन से अपनी राजसी शक्ति का निर्वहन करता है। वह समस्त ब्रह्माण्ड और सब वस्तुओं पर राज और सम्पूर्ण पृथ्वी पर हमारा मार्गदर्शन करता है। हम हर क्षण उसके समीप होंगे, और एकांत में उसके सम्मुख आयेंगे, एक पल भी नहीं खोयेंगे और हर समय कुछ न कुछ सीखेंगे। हमारे इर्द-गिर्द के वातावरण से लेकर लोग, विभिन्न मामले और वस्तुएँ, सबकुछ उसके सिंहासन की अनुमति से अस्तित्व में हैं। किसी भी वजह से अपने दिल में शिकायतें मत पनपने दो, अन्यथा परमेश्वर तुम्हें अनुग्रह प्रदान नहीं करेगा। बीमारी का होना परमेश्वर का प्रेम ही है और निश्चित ही उसमें उसके नेक इरादे निहित होते हैं। हालाँकि, हो सकता है कि तुम्हारे शरीर को कुछ पीड़ा सहनी पड़े, लेकिन कोई भी शैतानी विचार मन में मत लाओ। बीमारी के मध्य परमेश्वर की स्तुति करो और अपनी स्तुति के मध्य परमेश्वर में आनंदित हो। बीमारी की हालत में निराश न हो, खोजते रहो और हिम्मत न हारो, और परमेश्वर तुम्हें अपने प्रकाश से रोशन करेगा। अय्यूब का विश्वास कैसा था? सर्वशक्तिमान परमेश्वर एक सर्वशक्तिशाली चिकित्सक है! बीमारी में रहने का मतलब बीमार होना है, परन्तु आत्मा में रहने का मतलब स्वस्थ होना है। जब तक तुम्हारी एक भी सांस बाकी है, परमेश्वर तुम्हें मरने नहीं देगा।

पुनरुत्थित मसीह का जीवन हमारे भीतर है। निस्संदेह, परमेश्वर की उपस्थिति में हममें विश्वास की कमी रहती है : परमेश्वर हममें सच्चा विश्वास जगाये। परमेश्वर के वचन निश्चित ही मधुर हैं! परमेश्वर के वचन गुणकारी दवा हैं! वे दुष्टों और शैतान को शर्मिन्दा करते हैं! परमेश्वर के वचनों को समझने से हमें सहारा मिलता है। उसके वचन हमारे हृदय को बचाने के लिए शीघ्रता से कार्य करते हैं! वे शेष सब बातों को दूर कर सर्वत्र शान्ति बहाल करते हैं। विश्वास एक ही लट्ठे से बने पुल की तरह है : जो लोग घृणास्पद ढंग से जीवन से चिपके रहते हैं उन्हें इसे पार करने में परेशानी होगी, परन्तु जो आत्म बलिदान करने को तैयार रहते हैं, वे बिना किसी फ़िक्र के, मज़बूती से कदम रखते हुए उसे पार कर सकते हैं। अगर मनुष्य कायरता और भय के विचार रखते हैं तो ऐसा इसलिए है कि शैतान ने उन्हें मूर्ख बनाया है क्योंकि उसे इस बात का डर है कि हम विश्वास का पुल पार कर परमेश्वर में प्रवेश कर जायेंगे। शैतान अपने विचारों को हम तक पहुँचाने में हर संभव प्रयास कर रहा है। हमें हर पल परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह हमें अपने प्रकाश से रोशन करे, अपने भीतर मौजूद शैतान के ज़हर से छुटकारा पाने के लिए हमें हर पल परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए। हमें हमेशा अपनी आत्मा के भीतर यह अभ्यास करना चाहिए कि हम परमेश्वर के निकट आ सकें और हमें अपने सम्पूर्ण अस्तित्व पर परमेश्वर का प्रभुत्व होने देना चाहिए।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 375

जब लोगों में अपने साथ होने वाली चीजों के बारे में अंतर्दृष्टि की कमी होती है, और वे यह नहीं जानते कि क्या करना है, तो उन्हें पहले क्या करना चाहिए? उन्हें पहले प्रार्थना करनी चाहिए; प्रार्थना पहले आती है। तुम्हारे प्रार्थना करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम पवित्र हो, तुम्हारे पास परमेश्वर का कुछ भय मानने वाला दिल है, तुम जानते हो कि तुम्हें परमेश्वर की तलाश करनी चाहिए, और यह साबित करता है कि तुम परमेश्वर को पहले स्थान पर रखते हो। अगर तुम्हारे दिल में परमेश्वर है, अगर तुम्हारे दिल में परमेश्वर का स्थान है, और तुम परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम हो, तो तुम एक पवित्र ईसाई हो। कई बुजुर्ग विश्वासी हैं, जो प्रतिदिन एक ही समय और स्थान पर प्रार्थना में घुटने टेकते हैं और एक-दो घंटे उसी स्थिति में रहते हैं। लेकिन इन तमाम सालों में इस तरह घुटने टेकने से शायद ही उनकी पाप की कोई समस्या हल हुई हो। इस बात को फिलहाल एक तरफ रख देते हैं कि ऐसी प्रार्थना—धार्मिक समारोह की प्रार्थना—किसी काम की है या नहीं। कम से कम ये बुजुर्ग भाई-बहन थोड़े पवित्र हैं; इस मामले में वे युवाओं से काफी बेहतर हैं। अगर तुम परमेश्वर के सामने जीते हो और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हो, तो जब तुम्हें कुछ होता है तो पहली चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है प्रार्थना करना। प्रार्थना करने का मतलब यह नहीं कि कुछ बार-बार दोहराए जाने वाले शब्दों का जाप करो, और इससे ज्यादा कुछ नहीं—इससे समस्या का समाधान नहीं होगा। तुम्हें दिल से प्रार्थना करने का अभ्यास करना है। ऐसा आठ-दस बार करने के बाद, हो सकता है तुम्हें कुछ हासिल न हो, लेकिन निराश न होना, कोशिश करते रहना। जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो पहले प्रार्थना करो, पहले परमेश्वर को बताओ, परमेश्वर को स्थिति सँभालने दो, परमेश्वर को मदद करने दो, परमेश्वर को अगुआई और मार्गदर्शन करने दो; यह साबित करेगा कि तुम्हारे पास ऐसा दिल है जो परमेश्वर का भय मानता है, कि तुम परमेश्वर को पहले स्थान पर रखते हो। जब तुम्हें कुछ होता है या तुम किसी कठिनाई का सामना करते हो और नकारात्मक हो जाते हो, क्रोधित हो जाते हो, तो यह तुम्हारे हृदय में परमेश्वर की अनुपस्थिति का, तुम्हारे परमेश्वर का भय न मानने का प्रकटीकरण है। अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में तुम्हारे सामने जो भी कठिनाइयाँ आएँ, तुम्हें परमेश्वर के सामने आना चाहिए; पहली चीज जो तुम्हें करनी चाहिए वह है प्रार्थना में परमेश्वर के सामने घुटने टेकना, यही सबसे महत्वपूर्ण है। प्रार्थना का अर्थ है कि तुम्हारे हृदय में परमेश्वर का स्थान है। जब तुम कठिनाई में होते हो, तो परमेश्वर की ओर देखना और सत्य की खोज में परमेश्वर से प्रार्थना करना दर्शाता है कि तुम्हारे पास परमेश्वर का थोड़ा भय मानने वाला दिल है; अगर परमेश्वर तुम्हारे दिल में न होता तो तुम ऐसा न करते। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, लेकिन फिर भी परमेश्वर ने मुझे प्रबुद्ध नहीं किया!” तुम ऐसा नहीं कह सकते। तुम्हें पहले यह देखना चाहिए कि प्रार्थना करते समय तुम्हारी प्रेरणाएँ सही हैं या नहीं; अगर तुम वास्तव में सत्य की खोज करते हो, और अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करते हो, तो कोई निश्चित मामला हो सकता है जिसमें परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करे और जिसे तुम्हें समझने दे; कोई भी मामला हो, परमेश्वर तुम्हें समझा देगा। अगर परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध न करे, तो तुम अपने आप नहीं समझ पाओगे; चाहे तुम्हारे पास अंतर्दृष्टि हो या नहीं, और चाहे तुम्हारी क्षमता कैसी भी हो, कुछ चीजें हैं जो मनुष्य के विचार से परे हैं। जब तुम समझते भी हो, तो भी क्या यह तुम्हारे अपने दिमाग की उपज है? जब पवित्र आत्मा के कार्य के और परमेश्वर के इरादों की बात आती है, अगर तुम पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध नहीं किए जाते, तो तुम चाहे किसी से भी पूछो लेकिन उन्हें पता नहीं होगा; केवल जब स्वयं परमेश्वर तुम्हें बताता है कि इसका क्या अर्थ है, तभी तुम जानोगे। और इसलिए, जब तुम्हारे साथ कुछ होता है तो पहली चीज जो करनी है, वह है प्रार्थना करना। जब तुम प्रार्थना करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपने विचार, मत और दृष्टिकोण व्यक्त करने चाहिए, और आज्ञाकारिता की मानसिकता के साथ परमेश्वर से सत्य खोजना चाहिए; यही है जिसका तुम्हें अभ्यास करना चाहिए। बेमन से प्रार्थना करने का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, और तुम्हें यह शिकायत नहीं करनी चाहिए कि पवित्र आत्मा ने तुम्हें प्रबुद्ध नहीं किया है। मैंने पाया है कि परमेश्वर पर अपनी आस्था में कुछ लोग केवल धार्मिक अनुष्ठानों का पालन और धार्मिक कृत्य हैं; परमेश्वर का उनके हृदय में कोई स्थान नहीं होता, वे पवित्र आत्मा के कार्य को नकार तक देते हैं, और वे प्रार्थना भी नहीं करते, न ही वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, वे केवल सभा में जाते रहते हैं, और कुछ नहीं। क्या यही परमेश्वर पर आस्था है? अपने ढंग से विश्वास करने से परमेश्वर उनकी आस्था से गायब हो गया है, उनके दिलों में कोई परमेश्वर नहीं है, वे अब परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करना चाहते, वे अब परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए तैयार नहीं होते। ऐसा करते हुए, क्या वे अविश्वासी नहीं हो गए हैं? विशेष रूप से कुछ अगुआ और कार्यकर्ता अक्सर सामान्य मामले सँभालते हैं। वे जीवन में प्रवेश पर कभी ध्यान नहीं देते, बल्कि इन सामान्य मामलों को अपने कर्तव्य का कार्य मानते हैं; इससे वे अधिक से अधिक मुख्य लिपिक बनकर रह गए हैं, और अगुआओं और कार्यकर्ताओं के सार का कोई काम नहीं करते। नतीजतन, बीस-तीस वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी उनके पास बताने के लिए कोई जीवन-अनुभव नहीं होता, वे परमेश्वर के बारे में किसी भी सच्चे ज्ञान से रहित होते हैं, और केवल सिद्धांत के कुछ शब्दों की तोतारटंत कर सकते हैं। और ऐसा करते हुए, क्या वे नकली अगुआ नहीं बन गए हैं? ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर पर आस्था रखकर भी वे अपने उचित कर्तव्यों को नहीं निभाते या सत्य का अनुसरण नहीं करते। केवल सिद्धांत के शब्द समझने पर भरोसा करने से कुछ हल नहीं होगा। परीक्षा लिए जाने, विपदा झेलने या बीमार पड़ने पर परमेश्वर के बारे में शिकायत करना, सच्चा आत्मज्ञान न होना, अनुभव और गवाही से रहित होना—यह सब दर्शाता है कि लोगों ने परमेश्वर पर अपने विश्वास के वर्षों में सत्य का अनुसरण नहीं किया, कि वे केवल सतही चीजों में व्यस्त रहे, नतीजतन उन्होंने खुद को खो दिया है। लोग चाहे कितने ही वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास कर रहे हों, अगर उन्हें यह सुनिश्चित करना है कि वे गिरें नहीं, बुराई न करें, बाहर न निकाले जाएँ, तो उन्हें कम से कम कुछ सत्यों की समझ हासिल करनी चाहिए। कम से कम उनमें यह तो पाया जाना चाहिए। कुछ लोग उपदेश सुनते हुए उदासीन रहते हैं, और परमेश्वर के वचनों पर विचार नहीं करते, चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए वे सत्य की तलाश नहीं करते, वे केवल सिद्धांत के शब्द समझने से ही संतुष्ट रहते हैं, और मान लेते हैं कि उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया है—नतीजतन जब उनकी परीक्षा ली जाती है तो उन्हें कोई ज्ञान नहीं होता, उनके दिल उलाहनों और शिकायतों से भरे होते हैं जिन्हें बताने की वे हिम्मत नहीं करते, हालाँकि वे बताना चाहते हैं। ऐसे लोग बहुत दयनीय होते हैं, है न? बहुत-से लोग अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा लापरवाह और असावधान रहते हैं, जब उनकी काट-छाँट की जाती है और उनसे निपटा जाता है तो वे आत्मचिंतन नहीं करते या खुद को जानने की कोशिश नहीं करते, वे हमेशा खुद को सही ठहराते रहते हैं—नतीजतन वे हर तरह से खुद को अपमानित कर लेते हैं, उन्हें उजागर करके बाहर निकाल दिया जाता है, और वे कभी खुद को जानने में सक्षम नहीं होते। और ऐसी स्थिति में, उनके द्वारा कुछ सिद्धांत समझने का क्या अर्थ है? बिलकुल भी कोई अर्थ नहीं है। लोग चाहे कितने भी वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते हों, केवल सिद्धांत समझने और शब्दों और वाक्यांशों की तोतारटंत कर पाने का कोई फायदा नहीं; उन्होंने सत्य प्राप्त नहीं किया है, बल्कि भटक गए हैं। और इसलिए, जब तुम्हारे साथ कुछ हो जाता है और तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर उसके इरादे खोजते हो, तो अगर समस्या हल करनी है तो कुंजी है सत्य की समझ प्राप्त करना; यह सही मार्ग है, और तुम्हें इस तरह से अभ्यास करना कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 376

सभी चीजों में परमेश्वर की तरफ देखना और उस पर निर्भर रहना परम बुद्धिमानी है। आम लोग इस बात को नहीं समझते। सभी लोग सोचते हैं कि सभाओं में ज्यादा जाने, ज्यादा उपदेश सुनने, भाई-बहनों के साथ ज्यादा संगति करने, ज्यादा त्याग करने, ज्यादा कष्ट उठाने और ज्यादा कीमत चुकाने से उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति और उद्धार मिल जाएगा। उन्हें लगता है कि इस तरह से अभ्यास करना सबसे बड़ी समझदारी है, पर वे सबसे महत्वपूर्ण चीज को अनदेखा कर देते हैं : परमेश्वर की तरफ देखना और उस पर निर्भर रहना। वे तुच्छ मानवीय चालाकी को बुद्धिमानी समझते हैं और उस अंतिम प्रभाव की अनदेखी कर देते हैं जो उनके क्रियाकलापों से पड़ना चाहिए। यह एक भूल है। चाहे कोई कितना भी सत्य समझता हो या उसने कितने ही कर्तव्यों को पूरा किया हो, उन कर्तव्यों को पूरा करते समय उसने कितने ही अनुभव किये हों, उसका आध्यात्मिक कद कितना ही बड़ा या छोटा हो या वो किसी भी परिवेश में हो, लेकिन अपने हर काम में परमेश्वर की तरफ देखे बिना और उस पर भरोसा किए बिना उसका काम नहीं चल सकता। यही सर्वोच्च प्रकार की बुद्धि है। मैं इसे सर्वोच्च प्रकार की बुद्धि क्यों कहता हूँ? किसी ने कुछ सत्य समझ भी लिए हों तो क्या परमेश्वर पर भरोसा किए बिना काम चल सकता है? कुछ लोग बहुत वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं और उन्होंने बहुत-से परीक्षणों का अनुभव किया है, उनके पास कुछ व्यावहारिक अनुभव है, थोड़ा-बहुत सत्य समझते हैं, और सत्य का थोड़ा व्यावहारिक ज्ञान है, लेकिन वे नहीं जानते कि परमेश्वर पर भरोसा कैसे करना है और वे यह भी नहीं जानते कि परमेश्वर की तरफ देखकर उस पर भरोसा कैसे करना है। क्या ऐसे लोगों में बुद्धि होती है? ऐसे लोग सबसे ज़्यादा मूर्ख होते हैं, और खुद को चतुर समझते हैं; वे परमेश्वर का भय नहीं मानते और बुराई से दूर नहीं रहते। कुछ लोग कहते हैं, “मैं कई सत्य समझता हूँ और मेरे पास सत्य की वास्तविकता है। सैद्धांतिक तरीके से काम करना अच्छा होता है। मैं परमेश्वर के प्रति वफ़ादार हूँ और मैं जानता हूँ कि परमेश्वर के करीब कैसे जाना है। क्या इतना पर्याप्त नहीं है कि जब मुझ पर कोई विपत्ति आती है तो मैं सत्य का अभ्यास करता हूँ? परमेश्वर से प्रार्थना करने या परमेश्वर की तरफ देखने की कोई जरूरत नहीं है।” सत्य का अभ्यास करना सही है, लेकिन कई मौके और स्थितियाँ ऐसी होती हैं, जिनमें लोगों को पता नहीं चलता कि सत्य क्या है, या इस मामले में सत्य के कौन-से सिद्धांत लागू होते हैं। व्यावहारिक अनुभव वाले लोग यह जानते हैं। उदाहरण के तौर पर, जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आए, तो शायद तुम्हें यह पता न हो कि इस मुद्दे से कौन-सा सत्य जुड़ा हुआ है, या इस मुद्दे से जुड़े सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए या इसे कैसे लागू करना चाहिए। तुम्हें ऐसे मौकों पर क्या करना चाहिए? चाहे तुम्हें कितना भी व्यावहारिक अनुभव हो, तुम सभी स्थितियों में सत्य के सिद्धांतों को नहीं समझ सकते। चाहे तुमने कितने ही लंबे समय तक परमेश्वर पर विश्वास किया हो, चाहे तुमने कितनी ही चीज़ों का अनुभव किया हो, चाहे तुम कितनी ही काट-छाँट, निपटारे और अनुशासन से गुज़रे हो, अगर तुम सत्य को समझते भी हो तो भी क्या यह कहने का साहस कर सकते हो कि तुम ही सत्य हो? क्या तुम यह कहने का साहस कर सकते हो कि तुम सत्य के स्रोत हो? कुछ लोग कहते हैं, “मुझे वचन देह में प्रकट होता है पुस्तक के सभी जाने-माने कथन और अंश याद हैं। मुझे परमेश्वर पर भरोसा करने या परमेश्वर की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है। जब समय आएगा, मैं परमेश्वर के इन वचनों पर ही भरोसा करके आराम से काम चला लूँगा।” जिन वचनों को तुमने याद किया है, वे गतिहीन हैं, लेकिन जिन परिवेशों और अवस्थाओं का तुम सामना करते हो, वे गतिशील हैं। तुम धर्म-सिद्धांत के शब्द उगल सकते हो, लेकिन जब तुम्हारे साथ कुछ घटता है तो तुम उनके साथ कुछ नहीं कर सकते, जिससे साबित होता है कि तुम सत्य को नहीं समझते। तुम धर्म-सिद्धांत के शब्द बोलने में भले ही कितने ही माहिर क्यों न हो, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम सत्य को समझते हो, सत्य के अभ्यास में सक्षम होना तो दूर की बात है। इस तरह, यहाँ सीखने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण सबक है। और यह सबक क्या है? वो यह है कि लोगों को सभी बातों में परमेश्वर की ओर देखने की ज़रूरत है और ऐसा करके, लोग परमेश्वर पर भरोसा हासिल कर सकते हैं। परमेश्वर पर भरोसा रखने से ही लोगों को अनुसरण का मार्ग और पवित्र आत्मा का कार्य मिलेगा। अन्यथा, तुम सही तरीके से और सत्य का उल्लंघन किए बिना कोई काम कर तो सकते हो, लेकिन यदि तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते हो, तो तुम जो भी करोगे वह सिर्फ मनुष्य का सद्कर्म होगा, और यह परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकता। चूँकि लोगों को सत्य की इतनी उथली समझ होती है, इसलिए संभव है कि वे नियमों का पालन करें और विभिन्न परिस्थितियों का सामना होने पर एक ही सत्य का उपयोग करते हुए धर्म-सिद्धांतों के शब्दों से हठपूर्वक चिपके रहें। यह मुमकिन है कि वे कई मामलों को आम तौर पर सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप पूरा कर लें, लेकिन उसमें परमेश्वर के मार्गदर्शन को या पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं देखा जा सकता है। यहाँ पर एक गंभीर समस्या है, वो यह है कि लोग अपने अनुभव और उन्होंने जो नियम समझे हैं उन पर, और कुछ मानवीय कल्पनाओं पर निर्भर रहकर बहुत से काम करते हैं। परमेश्वर से सच्ची प्रार्थना हासिल करना और जो कुछ भी वे करते हैं उसमें सचमुच परमेश्वर की ओर देखना और उस पर भरोसा करना मुश्किल है। अगर कोई परमेश्वर की इच्छा को समझता भी है, तो भी परमेश्वर के मार्गदर्शन और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार काम करने का प्रभाव हासिल करना मुश्किल है। इसलिए मैं कहता हूँ कि सबसे बड़ी बुद्धिमानी परमेश्वर की तरफ देखना और सभी बातों में परमेश्वर पर भरोसा करना है।

लोग सभी चीजों में परमेश्वर की तरफ देखने और परमेश्वर पर निर्भर रहने का अभ्यास कैसे कर सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं, “मैं कमउम्र हूँ, मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है, और मुझे परमेश्वर में विश्वास करते थोड़ा ही समय हुआ है। मुझे नहीं पता कि कुछ घटने पर परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर निर्भर रहने का अभ्यास कैसे करें।” क्या यह एक समस्या है? परमेश्वर में विश्वास करने में बहुत-सी कठिनाइयाँ हैं, और तुम्हें बहुत-से क्लेशों, परीक्षणों और पीड़ाओं से गुजरना पड़ता है। इन कठिन घड़ियों को झेल पाने के लिए परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर निर्भर रहने की जरूरत पड़ती है। अगर तुम परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर निर्भर रहने का अभ्यास नहीं कर सकते, तो तुम कठिनाइयाँ झेल नहीं पाओगे, और परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर पाओगे। परमेश्वर की तरफ देखना और उस पर निर्भर रहना कोई खोखला धर्म-सिद्धांत नहीं है, न ही यह परमेश्वर में विश्वास करने का मंत्र है। बल्कि यह एक मुख्य सत्य है, ऐसा सत्य जो परमेश्वर में विश्वास करने और उसका अनुसरण करने के लिए तुम्हारे पास होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “तभी परमेश्वर की तरफ देखना और उस पर निर्भर रहना चाहिए जब कोई बड़ी घटना हो जाती है। उदाहरण के लिए, जब तुम क्लेशों, परीक्षणों, गिरफ्तारी और अत्याचार का सामना करते हो, या जब तुम अपने कर्तव्यों में कठिनाइयों का सामना करते हो, या जब तुम्हारी काट-छाँट और निपटारा होता है। व्यक्तिगत जीवन के छोटे-मोटे और मामूली मामलों के लिए परमेश्वर की तरफ देखने की जरूरत नहीं होती, क्योंकि परमेश्वर उनकी परवाह नहीं करता।” क्या यह वक्तव्य सही है? यह कतई सही नहीं है। यहाँ एक भटकाव है। बड़े मामलों में परमेश्वर की तरफ देखना जरूरी है, लेकिन क्या तुम जीवन के मामूली और छोटे मामलों को बिना सिद्धांतों के संभाल सकते हो? पहनावे और खानपान के मामलों में क्या तुम सिद्धांतों के बिना चल सकते हो? बिल्कुल नहीं। और लोगों और मसलों से निपटने के मामले में? बिल्कुल नहीं। रोजाना की जिंदगी और मामूली मामलों में भी तुम्हारे पास मनुष्य के समान जी सकने के सिद्धांत होने चाहिए। सिद्धांतों से जुड़ी समस्याएँ सत्य से जुड़ी समस्याएँ होती हैं। क्या लोग इन्हें अपने आप हल कर सकते हैं? निश्चित ही नहीं। इसलिए, तुम्हें परमेश्वर की तरफ देखना होगा और उस पर निर्भर रहना होगा। परमेश्वर की प्रबुद्धता और सत्य की समझ हासिल करने के बाद ही ये मामूली मामले सुलझाए जा सकते हैं। अगर तुम परमेश्वर की तरफ नहीं देखते और उस पर निर्भर नहीं रहते तो क्या तुम लोग समझते हो कि सिद्धांतों से जुड़े ये मामले सुलझाए जा सकते हैं? आसानी से तो बिल्कुल नहीं। यह कहा जा सकता है कि उन सभी मामलों में जिन्हें लोग साफ-साफ नहीं समझते, उन्हें सत्य को तलाशने की जरूरत होती है, उन्हें परमेश्वर की तरफ देखना चाहिए और उस पर निर्भर रहना चाहिए। मामला चाहे कितना भी बड़ा या छोटा हो, जिस भी समस्या को सत्य से सुलझाना होता है, उसमें परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर निर्भर रहने की जरूरत होती है। यह एक अनिवार्यता है। अगर लोग सत्य समझते भी हों, और खुद ही समस्याएँ सुलझा सकते हों, तो भी यह समझ और ये समाधान बहुत सीमित और सतही होते हैं। अगर लोग परमेश्वर की तरफ न देखें और उस पर निर्भर न करें तो उनका प्रवेश कभी भी अधिक गहरा नहीं होगा। उदाहरण के लिए, अगर तुम आज बीमार हो और इससे तुम्हारे कर्तव्य के निर्वाह पर असर पड़ता है, तो तुम्हें जरूरत है कि इस मामले में प्रार्थना करके यह कहो, “परमेश्वर, मैं आज ठीक महसूस नहीं कर रहा, मैं खा नहीं पा रहा और इससे मेरे कर्तव्य के निर्वाह पर असर पड़ रहा है। मुझे अपनी जाँच करनी है। मेरे बीमार होने का असली कारण क्या है? क्या अपने कर्तव्य में निष्ठावान न होने के कारण परमेश्वर मुझे अनुशासित कर रहा है? परमेश्वर, मैं तुमसे मुझे प्रबुद्ध करने और राह दिखाने की विनती करता हूँ।” तुम्हें इसी तरह पुकारना चाहिए। यह परमेश्वर की तरफ देखना हुआ। पर जब तुम परमेश्वर की तरफ देखते हो तो तुम औपचारिकताओं और नियमों के चक्कर में नहीं पड़ सकते। अगर तुम समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य को नहीं खोजते, तो तुम काम में देर करोगे। परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसकी ओर देखने के बाद भी तुम्हें अपना जीवन, अपना कर्तव्य निभाने में देरी किए बिना, वैसे ही जीना चाहिए, जैसे कि तुमसे अपेक्षित है। अगर तुम बीमार हो तो तुम्हें डॉक्टर के पास जाना चाहिए, जो कि उचित है। साथ ही, तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए, और समस्या को सुलझाने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए। इस तरह अभ्यास करना ही पूरी तरह उपयुक्त है। कुछ चीजों के लिए, अगर लोगों को उन्हें ठीक-से करना आता है, तो उन्हें ऐसा ही करना चाहिए। लोगों को इसी तरह सहयोग करना चाहिए। पर क्या इन मामलों में इच्छित प्रभाव और लक्ष्य को पूरी तरह हासिल किया जा सकता है, यह परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर भरोसा करने पर निर्भर करता है। जिन समस्याओं को लोग साफ-साफ समझ नहीं पाते और उनसे अच्छी तरह निपट नहीं पाते, उनके समाधान के लिए उनका परमेश्वर की तरफ देखना और सत्य की खोज करना और भी जरूरी है। सामान्य मानवता वाले हर इंसान में ऐसा कर पाने की क्षमता होनी चाहिए। परमेश्वर की तरफ देखने में कई सबक सीखने होते हैं। परमेश्वर की तरफ देखने की प्रक्रिया में तुम पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त कर सकते हो, और तुम्हें एक रास्ता मिलेगा, या अगर परमेश्वर के वचन तुम पर आते हैं तो तुम सहयोग करना जान जाओगे, या शायद परमेश्वर तुम्हारे लिए कुछ सबक सीखने की स्थितियाँ आयोजित करे, जिसके पीछे परमेश्वर के भले इरादे होंगे। परमेश्वर की तरफ देखने की प्रक्रिया में तुम्हें परमेश्वर का मार्गदर्शन और अगुआई दिखाई देगी, और इनसे तुम कई सबक सीख सकोगे और परमेश्वर की बेहतर समझ हासिल कर सकोगे। परमेश्वर की तरफ देखने का यह प्रभाव होता है। इसलिए, परमेश्वर की तरफ देखना एक ऐसा सबक है जिसे परमेश्वर के अनुयायियों को अवश्य सीखना चाहिए, और यह एक ऐसी चीज है जिसे वे जीवन भर अनुभव करते रहेंगे। बहुत-से लोगों को बहुत कम अनुभव होता है और वे परमेश्वर के क्रियाकलाप नहीं देख पाते, इसलिए वे सोचते हैं, “बहुत-सी ऐसी छोटी-छोटी चीजें हैं जो मैं खुद कर सकता हूँ, इसके लिए मुझे परमेश्वर की तरफ देखने की जरूरत नहीं है।” यह गलत है। कुछ छोटी चीजें बड़ी चीजों की तरफ ले जाती हैं, और कुछ छोटी चीजों में परमेश्वर की इच्छा छिपी होती है। बहुत-से लोग छोटी चीजों की अवहेलना करते हैं, और परिणामस्वरूप वे छोटे मामलों के कारण बड़ी विफलताओं के शिकार हो जाते हैं। जो लोग छोटे-बड़े सभी मामलों में सचमुच परमेश्वर का भय मानते हैं, वे परमेश्वर की तरफ देखेंगे, परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे, सब कुछ परमेश्वर को सौंप देंगे और फिर देखेंगे कि कैसे परमेश्वर उनकी अगुआई और मार्गदर्शन करता है। एक बार जब तुम्हें ऐसा अनुभव हो जाता है तो तुम सभी चीजों में परमेश्वर की तरफ देखने में सक्षम हो जाओगे, और तुम्हें इसका जितना ज्यादा अनुभव होगा, उतना ही तुम्हें सभी चीजों में परमेश्वर की तरफ देखना अत्यंत व्यावहारिक लगेगा। जब तुम किसी मामले में परमेश्वर की तरफ देखते हो, तो संभव है कि परमेश्वर तुम्हें कोई एहसास न करवाए, कोई स्पष्ट अर्थ न दे, और स्पष्ट निर्देश तो बिल्कुल ही न दे, पर वह तुम्हें मामले की सटीक प्रासंगिकता के साथ एक विचार समझाएगा, और यह परमेश्वर का एक अलग तरीके से तुम्हारा मार्गदर्शन करना और तुम्हें एक रास्ता देना है। अगर तुम इसका बोध कर सके, इसे समझ सके, तो तुम्हें लाभ होगा। हो सकता है तुम उस क्षण कुछ भी न समझ पाओ, पर तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करते और उसकी तरफ देखते रहना चाहिए। इसमें कुछ भी गलत नहीं है, और देर-सवेर तुम्हें प्रबुद्धता प्राप्त होगी। इस तरह अभ्यास करने का मतलब नियमों का पालन करना नहीं है। इसके बजाय, यह आत्मा की जरूरत को पूरा करना है, और लोगों को इसी तरह अभ्यास करना चाहिए। हो सकता है कि परमेश्वर की तरफ देखने और प्रार्थना करने के बाद तुम्हें हर बार प्रबुद्धता और मार्गदर्शन प्राप्त न हो, पर लोगों को इसी तरह अभ्यास करते रहना चाहिए, और अगर वे सत्य को समझना चाहते हैं तो उन्हें इसी तरह अभ्यास करने की जरूरत है। यह जीवन और आत्मा की सामान्य अवस्था है, और सिर्फ इसी तरीके से लोग परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बना सकते हैं, ताकि उनके दिल परमेश्वर के नजदीक हों। इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर की तरफ देखना, दिल में परमेश्वर के साथ सामान्य बातचीत है। भले ही तुम परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन प्राप्त कर सको या नहीं, तुम्हें सभी चीजों में परमेश्वर से प्रार्थना करना और उसकी तरफ देखना चाहिए। परमेश्वर के सामने जीने का यह एकमात्र तरीका भी है। जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, तो उन्हें हमेशा परमेश्वर की तरफ देखने की मनोस्थिति में होना चाहिए। सामान्य मानवता वाले लोगों की यही मनोस्थिति होनी चाहिए। कभी-कभी, परमेश्वर पर निर्भर होने का मतलब विशिष्ट वचनों का उपयोग करके परमेश्वर से कुछ करने को कहना, या उससे विशिष्ट मार्गदर्शन या सुरक्षा माँगना नहीं होता है। बल्कि, इसका मतलब है किसी समस्या का सामना करने पर, लोगों का उसे ईमानदारी से पुकारने में सक्षम होना। तो, जब लोग परमेश्वर को पुकारते हैं तो वह क्या कर रहा होता है? जब किसी के हृदय में हलचल होती है और वह सोचता है: “हे परमेश्वर, मैं यह खुद नहीं कर सकता, मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मैं कमज़ोर और नकारात्मक महसूस करता हूँ...,” जब उनके मन में यह विचार आता है, तो क्या परमेश्वर इसके बारे में जानता है? जब यह विचार लोगों के मन में उठता है, तो क्या उनके हृदय ईमानदार होते हैं? जब वे इस तरह से ईमानदारी से परमेश्वर को पुकारते हैं, तो क्या परमेश्वर उनकी मदद करने की सहमति देता है? इस तथ्य के बावजूद कि हो सकता है कि उन्होंने एक वचन भी नहीं बोला हो, वे ईमानदारी दिखाते हैं, और इसलिए परमेश्वर उनकी मदद करने की सहमति देता है। जब कोई विशेष रूप से कष्टमय कठिनाई का सामना करता है, जब ऐसा कोई नहीं होता जिससे वो सहायता मांग सके, और जब वह विशेष रूप से असहाय महसूस करता है, तो वह परमेश्वर में अपनी एकमात्र आशा रखता है। ऐसे लोगों की प्रार्थनाएँ किस तरह की होती हैं? उनकी मन:स्थिति क्या होती है? क्या वे ईमानदार होते हैं? क्या उस समय कोई मिलावट होती है? केवल तभी तेरा हृदय ईमानदार होता है, जब तुम परमेश्वर पर इस तरह भरोसा करते हो मानो कि वह अंतिम तिनका है जिसे तुमने कसकर पकड़ रखा है और यह उम्मीद करते हो कि वह तुम्हारी मदद करेगा। यद्यपि तुमने ज्यादा कुछ नहीं कहा होगा, लेकिन तुम्हारा हृदय पहले से ही द्रवित है। अर्थात्, तुम परमेश्वर को अपना ईमानदार हृदय देते हो, और परमेश्वर सुनता है। जब परमेश्वर सुनता है, तो वह तुम्हारी कठिनाइयों को देखता है, और वह तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, और तुम्हारी सहायता करेगा। मनुष्य का ह़दय कब सबसे ईमानदार होता है? मनुष्य का हृदय तब सबसे ज्यादा ईमानदार होता है जब कोई रास्ता न होने पर वह परमेश्वर की तरफ देखता है। परमेश्वर की तरफ देखने के लिए तुम्हारे पास जो सबसे महत्वपूर्ण चीज होनी चाहिए, वह है एक ईमानदार दिल। तुम्हें ऐसी अवस्था में होना चाहिए जहाँ तुम्हें सचमुच परमेश्वर की जरूरत हो। अर्थात, लोगों के दिल कम-से-कम ईमानदार तो होने चाहिए, न कि अनमने; उन्हें सिर्फ अपने मुँह ही नहीं हिलाने चाहिए, बल्कि उनका दिल भी प्रेरित होना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर से बात करते हुए सिर्फ खानापूर्ति करते हो, पर तुम्हारा दिल भाव-विह्वल नहीं होता, तो तुम्हारा अभिप्राय होता है कि “मैंने पहले ही अपनी योजनाएँ बना ली हैं, परमेश्वर, मैं बस तुम्हें सूचित कर रहा हूँ। भले ही तुम सहमत हो या नहीं, मैं उन्हीं के अनुसार चलूँगा। मैं सिर्फ खानापूर्ति कर रहा हूँ,” तो यह परेशानी की बात है। तुम परमेश्वर को धोखा दे रहे हो, उसके साथ खेल कर रहे हो, और यह परमेश्वर के प्रति अनादर की अभिव्यक्ति भी है। इसके बाद परमेश्वर तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करेगा? परमेश्वर तुम्हारी तरफ ध्यान नहीं देगा और तुम्हें एक तरफ रख देगा, और तुम पूरी तरह शर्मिंदा होकर रह जाओगे। अगर तुम सक्रियता से परमेश्वर को नहीं खोजते हो, और सत्य में प्रयास नहीं करते हो, तो तुम्हें बाहर कर दिया जाएगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर में विश्वास की शुरुआत संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों की असलियत को समझने से होनी चाहिए

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 377

सत्य स्वयं परमेश्वर का जीवन है; यह उसके स्वभाव, सार और स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है। अगर तुम कहते हो कि कुछ अनुभव और ज्ञान होने से तुम्हें सत्य मिल गया है, तो क्या तुमने पवित्रता प्राप्त कर ली है? तुम अभी भी भ्रष्टता क्यों दिखाते हो? तुम विभिन्न प्रकार के लोगों के बीच अंतर क्यों नहीं कर पाते? तुम परमेश्वर की गवाही क्यों नहीं दे पाते? अगर तुम कुछ सत्य समझते भी हो, तो भी क्या तुम परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के स्वभाव को जी सकते हो? तुम्हारे पास सत्य के किसी निश्चित पहलू के बारे में कुछ अनुभव और ज्ञान हो सकता है, और तुम अपने भाषण में उस पर थोड़ा प्रकाश डालने में सक्षम हो सकते हो, लेकिन तुम लोगों को जो प्रदान कर सकते हो, वह बेहद सीमित है और लंबे समय तक नहीं टिक सकता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि तुम्हारी समझ और तुम्हारे द्वारा प्राप्त किया गया प्रकाश सत्य के सार का प्रतिनिधित्व नहीं करते, और वे सत्य की संपूर्णता का प्रतिनिधित्व भी नहीं करते। वे सत्य के केवल एक पक्ष या एक छोटे-से पहलू का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे केवल एक स्तर हैं जिसे मनुष्य द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और जो अभी भी सत्य के सार से दूर है। यह थोड़ा-सा प्रकाश, प्रबुद्धता, अनुभव और ज्ञान कभी सत्य का स्थान नहीं ले सकता। भले ही सभी लोगों ने कुछ हद तक उत्पादक रूप से किसी सत्य का अनुभव किया हो, और उनके सभी अनुभव और ज्ञान एक साथ रख दिए जाएँ, फिर भी वह उस सत्य की एक भी पंक्ति की संपूर्णता और सार तक नहीं पहुँच पाएगा। जैसा कि अतीत में कहा गया है, “मैं इसे मानव-संसार के लिए एक कहावत के साथ सारांशित करता हूँ : मनुष्यों में, कोई भी ऐसा नहीं है जो मुझे प्रेम करता है।” यह वाक्य सत्य, जीवन का सच्चा सार, सबसे गहन चीज, और स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्ति है। तीन वर्षों के अनुभव के बाद तुम्हें थोड़ी सतही समझ हो सकती है, और सात-आठ वर्षों के बाद तुम्हें थोड़ी और समझ हो सकती है, लेकिन यह समझ कभी सत्य की इस पंक्ति का स्थान नहीं ले सकती। दो साल के बाद किसी और को थोड़ी समझ हो सकती है, या दस साल बाद कुछ और समझ हो सकती है, या जीवन भर के बाद उससे भी ज्यादा समझ हो सकती है, लेकिन तुम दोनों की संयुक्त समझ सत्य की इस पंक्ति का स्थान नहीं ले सकती। तुम दोनों के पास कितनी भी अंतर्दृष्टि, प्रकाश, अनुभव या ज्ञान हो, वे सत्य की इस पंक्ति का स्थान कभी नहीं ले सकते। कहने का तात्पर्य यह है कि मानव-जीवन हमेशा मानव-जीवन होता है, और तुम्हारा ज्ञान कैसे भी सत्य, परमेश्वर की इच्छा या परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप हो, वह सत्य का स्थान कभी नहीं ले सकता। लोगों के पास सत्य है, यह कहने का अर्थ यह होता है कि लोग वास्तव में सत्य को समझते हैं, परमेश्वर के वचनों की कुछ वास्तविकताओं को जीते हैं, परमेश्वर के बारे में कुछ वास्तविक ज्ञान रखते हैं, और परमेश्वर का उत्कर्ष कर सकते और उसकी गवाही दे सकते हैं। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि लोगों के पास पहले से ही सत्य है, क्योंकि सत्य बहुत गहन है। परमेश्वर के वचनों की सिर्फ एक पंक्ति का अनुभव करने में भी लोगों का पूरा जीवन लग सकता है, और कई जन्मों या हजारों वर्षों के अनुभव के बाद भी परमेश्वर के वचनों की एक भी पंक्ति का पूरी तरह से अनुभव नहीं किया जा सकता। यह स्पष्ट है कि सत्य को समझने और परमेश्वर को जानने की प्रक्रिया वास्तव में अंतहीन है, और इस बात की एक सीमा है कि लोग जीवन भर के अनुभव में कितना सत्य समझ सकते हैं। परमेश्वर के वचनों का शाब्दिक अर्थ समझते ही कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने सत्य पा लिया है। क्या यह बकवास नहीं है? प्रकाश और ज्ञान दोनों के संदर्भ में, बात गहराई की है। जीवन भर विश्वास रखकर सत्य की जिन वास्तविकताओं में इंसान प्रवेश कर सकता है, वे सीमित हैं। इसलिए, तुम्हारे पास कुछ ज्ञान और प्रकाश होने का यह मतलब नहीं कि तुम्हारे पास सत्य की वास्तविकताएँ हैं। मुख्य बात जो तुम्हें देखनी चाहिए, यह है कि वह प्रकाश और ज्ञान सत्य के सार को छूता है या नहीं। यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। कुछ लोगों को लगता है कि चूँकि वे प्रकाश डाल सकते हैं या उसकी थोड़ी सतही समझ प्रदान कर सकते हैं, इसलिए उनके पास सत्य है। इससे वे खुश हो जाते हैं, इसलिए वे दंभी और अहंकारी हो जाते हैं। वास्तव में वे अभी भी सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने से बहुत दूर होते हैं। लोगों के पास क्या सत्य हो सकता है? जिन लोगों के पास सत्य है, क्या वे कभी और कहीं भी गिर सकते हैं? जब लोगों के पास सत्य होता है, तो वे तब भी परमेश्वर की अवहेलना कैसे कर सकते हैं और कैसे उनको धोखा दे सकते हैं? अगर तुम दावा करते हो कि तुम्हारे पास सत्य है, तो यह साबित करता है कि तुम्हारे भीतर मसीह का जीवन है—तब तो यह भयानक है! तुम परमेश्वर बन गए, तुम मसीह बन गए? यह एक बेतुका बयान है, और पूरी तरह से लोगों के द्वारा अनुमानित है; यह मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं से संबंधित है, और परमेश्वर के साथ एक निभने योग्य स्थिति नहीं है।

जब लोग सत्य समझते हैं, और इसके साथ यों जीते हैं मानो यह उनका जीवन हो, तो इस जीवन का क्या तात्पर्य है? इसका अर्थ है कि सत्य ही उनके हृदय में सर्वोच्च स्थान रखता है इसका तात्पर्य है कि वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवनयापन करते हैं, इसका अर्थ है कि उन्हें परमेश्वर के वचनों का सच्चा ज्ञान है और सत्य की समझ है। जब लोगों के अंदर यह नया जीवन होता है, तो यह पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अभ्यास और अनुभव से हासिल होता है। यह परमेश्वर के वचनों के सत्य की बुनियाद पर बना होता है, और इसे सत्य के दायरे में रहते हुए हासिल किया जाता है। लोगों के जीवन में जो कुछ भी होता है, वह उनका सत्य का ज्ञान और अनुभव होता है, और इस आधार के साथ, उस दायरे से बाहर नहीं जाता; सत्य का जीवन प्राप्त करने की बात करते समय, इसी जीवन की चर्चा की जा रही है। परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुसार जीना, ऐसा नहीं है कि जीवन का सत्य लोगों के अंदर है, न ही ये बात है कि अगर सत्य उनके अंदर जीवन की तरह है, तो वे सत्य बन जाते हैं, और उनका आंतरिक जीवन सत्य का जीवन बन जाता है, यह तो और भी नहीं कहा जा सकता कि वे सत्य का जीवन हैं। आखिरकार, उनका जीवन इंसान का जीवन ही है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों पर निर्भर रहकर जी सको सत्य का ज्ञान रख सको, और अगर यह समझ तुम्हारे अंदर जड़ें जमा सके, यह तुम्हारा जीवन बन जाए, और अनुभव से जो सत्य तुमने पाया है, वह तुम्हारे अस्तित्व का आधार बन जाए, और अगर तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार जिओ, तो कोई इन्हें बदल नहीं सकता, शैतान तुम्हें न तो धोखा दे सकता है और न ही तुम्हें भ्रष्ट कर सकता है, तब तुम सत्य का जीवन पा लोगे। यानी, तुम्हारे जीवन में केवल सत्य होगा, अर्थात सत्य की तुम्हारी समझ, अनुभव और अंतर्दृष्टि होगी, और तुम चाहे कुछ भी करो, तुम इन्हीं चीजों के अनुसार जिओगे, तुम उनके दायरे से बाहर नहीं जाओगे। सत्य की वास्तविकता होने का यही अर्थ है, और अंत में परमेश्वर अपने कार्य से ऐसे ही लोगों को प्राप्त करना चाहता है। लेकिन लोग सत्य को चाहे जितनी अच्छी तरह से समझ लें, उनका सार तो फिर भी इंसान का सार ही होता है, इसकी तुलना परमेश्वर के सार से बिल्कुल नहीं की जा सकती। क्योंकि सत्य का उनका अनुभव हमेशा चलता रहता है, और चूँकि उनके लिए सत्य को पूरी तरह से जी पाना असंभव है, वे केवल उसी बेहद सीमित सत्य को ही जी सकते हैं जो मनुष्यों के लिए प्राप्य है, तो फिर वे परमेश्वर कैसे बन सकते हैं? ... अगर तुम्हें परमेश्वर के वचनों का थोड़ा-बहुत अनुभव है, और तुम सत्य के सच्चे अनुभव और समझ के अनुसार जी रहे हो, तब परमेश्वर के वचन धीरे-धीरे तुम्हारा जीवन बन जाते हैं। फिर भी, तुम यह नहीं कह सकते कि सत्य तुम्हारा जीवन है या तुम जो व्यक्त करते हो, वह सत्य है; अगर तुम्हारा यह विचार है, तो तुम गलत हो। यदि तुम्हारे पास केवल सत्य के किसी एक खास पहलू के अनुसार कुछ अनुभव है, तो क्या यह इस बात का प्रतिनिधित्व कर सकता है कि तुममें सत्य है? क्या इसे सत्य प्राप्त करना कहा जा सकता है? क्या तुम सत्य की पूरी व्याख्या कर सकते हो? क्या तुम सत्य से परमेश्वर के स्वभाव का और जो परमेश्वर के पास है और जो वह है, उसका पता लगा सकते हो? अगर ये परिणाम नहीं प्राप्त किए जाते, तो इससे साबित होता है कि केवल सत्य के किसी पहलू का अनुभव पा लेने को वास्तव में सत्य की समझ हासिल कर लेना या परमेश्वर को जान लेना नहीं माना जा सकता, इसे सत्य प्राप्त कर लेना तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति के पास सत्य के सिर्फ एक पहलू, एक दायरे का अनुभव होता है; इसे अपने सीमित दायरे में अनुभव करने से, तुम सत्य के विभिन्न पहलुओं को नहीं छू सकते। क्या लोग सत्य के मूल अर्थ को जी सकते हैं? तुम्हारा ज़रा-सा अनुभव किसके बराबर है? समुद्र तट पर रेत के एक कण के बराबर; महासागर में पानी की एक बूँद के बराबर। इसलिए, भले ही तुम्हारे अनुभव से प्राप्त समझ और अनुभूतियां कितनी भी अनमोल हों, फिर भी उन्हें सत्य नहीं माना जा सकता। उन्हें केवल सत्य के अनुरूप ही माना जा सकता है। सत्य परमेश्वर से आता है, और सत्य के आंतरिक अर्थ और वास्तविकताओं का दायरा बहुत व्यापक है जिसकी न कोई थाह पा सकता है और न ही खंडन कर सकता है। अगर तुम्हें सत्य और परमेश्वर की वास्तविक समझ है, तुम थोड़े-बहुत सत्य समझ लोगे, कोई भी इस वास्तविक समझ का खंडन नहीं कर पाएगा, और सत्य की वास्तविकताओं वाली गवाहियाँ हमेशा के लिए मान्य होती हैं। परमेश्वर उनकी प्रशंसा करता है जिनके पास सत्य की वास्तविकताएं होती हैं। अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करते हो और तुम्हारा परिवेश चाहे जैसा भी हो, तुम सत्य को अपने जीवन के रूप में स्वीकार कर सकते हो, तो तुम्हारे पास एक मार्ग होगा, तुम जीवित रह पाओगे और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करोगे। भले ही लोग जो थोड़ा-बहुत प्राप्त करते हैं वह सत्य के अनुरूप होता है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि यह सत्य है, यह तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया है। लोगों ने जो थोड़ा सा प्रकाश प्राप्त किया है वह केवल एक निश्चित दायरे में खुद के लिए या कुछ अन्य लोगों के लिए ही उपयुक्त है, वो एक अलग दायरे में उपयुक्त नहीं है। किसी व्यक्ति का अनुभव कितना भी गहन हो, लेकिन वो होता बहुत ही सीमित है, किसी व्यक्ति का अनुभव सत्य के दायरे की गहराई तक कभी नहीं पहुंच सकता। किसी व्यक्ति के प्रकाश और उसकी समझ की तुलना सत्य से कभी नहीं की जा सकती।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 378

अगर तुम सत्य का अभ्यास करना और उसे समझना चाहते हो, तो सबसे पहले अपनी रोज की जिंदगी में कुछ घटने पर तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए। इसका अर्थ है कि तुम्हें चीजों को परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर देखना चाहिए; जब समस्या का सार स्पष्ट हो जाएगा तो तुम्हारी समझ में आ जाएगा कि सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कैसे अभ्यास करना है। और अगर तुम हमेशा ही चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखोगे तो तुम्हें तुम्हारे आसपास घटने वाली हर चीज में परमेश्वर का हाथ—परमेश्वर का कर्म—नजर आने लगेगा। कुछ लोगों को लगता है कि उनके आसपास जो भी होता है, उसका परमेश्वर में उनकी आस्था या सत्य से कोई संबंध नहीं है; वे बस अपनी खुद की मर्जी से चलते हैं और शैतान के फलसफे के अनुसार व्यवहार करते हैं। क्या इस तरह वे कोई सबक सीख सकते हैं? बिल्कुल नहीं। इसी कारण से कुछ लोग परमेश्वर में दस या बीस वर्ष तक विश्वास करने के बाद भी सत्य या जीवन में प्रवेश के बारे में कुछ नहीं समझते। वे अपने रोज के जीवन में परमेश्वर को शामिल करने, या अपने आसपास घटने वाली चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखने में असमर्थ हैं; इसलिए जब भी उनके साथ कुछ होता है, वे इसकी सच्चाई को नहीं समझ पाते, न ही वे सत्य के सिद्धांतों के अनुसार इससे निपट पाते हैं। और इसलिए, ऐसे लोग जीवन में प्रवेश नहीं करते। कुछ लोग सभा में परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए सिर्फ अपने दिमाग को शामिल करते हैं; ऐसे अवसरों पर वे थोड़े-बहुत ज्ञान की बात कर सकते हैं, पर वे वास्तविक जीवन में अपने साथ होने वाली किसी भी चीज के साथ परमेश्वर के वचनों को लागू नहीं कर सकते, न ही वे जानते हैं कि सत्य का अभ्यास कैसे करना है, और इसलिए वे सोचते हैं कि उनके दैनिक जीवन में जो कुछ घटता है वह सत्य से जुड़ा नहीं होता, और उसका परमेश्वर के वचनों से कोई संबंध नहीं होता। परमेश्वर में अपनी आस्था में, ऐसा लगता है कि वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को सिर्फ ज्ञान का क्षेत्र मानकर चलते हैं, जिसका उनकी रोज की जिंदगी से कोई संबंध नहीं है, और जो उनके विचारों, उनके जीवन के लक्ष्यों, और जीवन में उनके संघर्ष से पूरी तरह कटा हुआ है। परमेश्वर में आस्था के ऐसे स्वरूप का क्या अर्थ है? क्या वे सत्य को समझ पाने और वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होंगे? जब वे परमेश्वर में इस तरह विश्वास करते हैं, तो क्या वे परमेश्वर के अनुयायी हैं? वे परमेश्वर में सचमुच विश्वास करने वाले लोग नहीं हैं, उनका अनुयायी होना तो दूर की बात है। परिवार, काम या कामकाज संबंधी संभावनाएं समेत अपने रोजाना के जीवन की सभी समस्याओं को वे ऐसी समस्याएँ मानते हैं जिनका सत्य से कोई संबंध नहीं होता, इसलिए वे इन्हें मानवीय उपायों से सुलझाने की कोशिश करते हैं। इस तरह के अनुभव से वे कभी भी सत्य प्राप्त नहीं कर पाएंगे, कभी भी यह नहीं समझ पाएंगे कि परमेश्वर लोगों में क्या करना चाहता है, और उनमें क्या परिणाम हासिल करना चाहता है। परमेश्वर लोगों को बचाने, उनके भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करके बदलने के लिए सत्य व्यक्त करता है, पर उन्हें यह पता ही नहीं है कि सिर्फ सत्य को स्वीकार करके और इसका अनुसरण करके ही वे अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर सकते हैं; उन्हें पता ही नहीं है कि अपने रोजाना के जीवन में परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास करके ही वे सत्य प्राप्त कर सकते हैं। क्या ऐसे लोग मंदबुद्धि और अज्ञानी नहीं हैं? क्या वे सबसे मूर्ख, हास्यास्पद लोग नहीं हैं? कुछ लोगों ने परमेश्वर में अपनी आस्था में कभी भी सत्य का अनुसरण नहीं किया। उन्हें लगता है कि परमेश्वर में आस्था का मतलब है प्रार्थना सभा में जाना, प्रार्थना करना, भजन गाना, परमेश्वर के वचन पढ़ना; वे धार्मिक अनुष्ठानों पर जोर देते हैं, और वे कभी परमेश्वर के वचनों का अभ्यास या अनुभव नहीं करते। धार्मिक दुनिया के लोग इसी तरीके से परमेश्वर में विश्वास करते हैं। और जब लोग परमेश्वर में आस्था जैसी इतनी महत्वपूर्ण चीज को धार्मिक विश्वास मानने लगते हैं, तो क्या वे गैर-विश्वासियों में शामिल नहीं हैं? क्या वे अविश्वासी नहीं हैं? सत्य के अनुसरण के लिए बहूत-सी प्रक्रियाओं का अनुभव करने की जरूरत होती है। इसका एक सरल पक्ष है, और इसका एक जटिल पक्ष भी है। सरल शब्दों में, हमें अपने आसपास होने वाली हर चीज़ में सत्य की खोज करनी चाहिए और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करना चाहिए। एक बार जब तुम ऐसा करना शुरू कर दोगे, तो तुम यह देखोगे कि तुम्हें परमेश्वर पर अपने विश्वास में कितना सत्य हासिल करने और उसका अनुसरण करने की जरूरत है, तुम जानोगे कि सत्य बहुत वास्तविक है और सत्य ही जीवन है। परमेश्वर मानवजाति को बचाता है ताकि मानवजाति सत्य को जीवन के रूप में प्राप्त कर सके। सारी सृजित मानवजाति को सत्य को जीवन के रूप में स्वीकार करना चाहिए, सिर्फ उन्हें ही नहीं जो कर्तव्यों को निभाते हैं, या जो अगुआ और कार्यकर्ता हैं, और या जो परमेश्वर की सेवा करते हैं। परमेश्वर के वचन समूची मानवजाति के लिए हैं, और परमेश्वर समूची मानवजाति से बात करता है। इसलिए सभी सृजित प्राणियों और समूची मानवजाति को परमेश्वर के वचनों और सत्य को स्वीकार करना चाहिए, सभी चीजों में सत्य की खोज करनी चाहिए, और फिर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, ताकि वे सत्य का अभ्यास और पालन करने में सक्षम हो सकें। अगर सिर्फ अगुआओं और कार्यकर्ताओं से सत्य का अभ्यास अपेक्षित हो, तो यह परमेश्वर की इच्छा के बिल्कुल विपरीत होगा, क्योंकि परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया सत्य समूची मानवजाति के लिए है, और इसे मानवजाति को बचाने के लिए व्यक्त किया जाता है, न कि सिर्फ कुछ लोगों को बचाने के लिए। अगर ऐसी बात होती तो परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचनों का थोड़ा अर्थ ही होता। क्या अब तुम लोगों के पास सत्य के अनुसरण का मार्ग है? सत्य का अनुसरण करते हुए सबसे पहले किस चीज का अभ्यास करना चाहिए? सबसे पहले तुम्हें परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और प्रवचन और संगति सुनने में ज्यादा समय बिताना चाहिए। जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आए, तो ज्यादा प्रार्थना करो, ज्यादा खोजो। जब तुम अधिक सत्य से युक्त हो जाओगे, जब तुम लोग तेजी से विकसित होगे और तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद होगा, तो तुम कोई कर्तव्य निभा पाओगे, कुछ काम हाथ में ले पाओगे, और इस तरह कुछ परीक्षणों और प्रलोभनों से गुजरने में सक्षम हो जाओगे। उस समय तुम महसूस करोगे कि तुमने वास्तव में कुछ सत्य समझ और पा लिए हैं, और तुम जानोगे कि परमेश्वर द्वारा कहे गए सभी वचन सत्य हैं, कि वे भ्रष्ट मानवजाति के उद्धार के लिए अत्यंत अनिवार्य सत्य हैं, और वे अनूठे सृष्टिकर्ता द्वारा प्रदान किए गए जीवन के सत्य हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण का महत्व और उसके अनुसरण का मार्ग

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 379

अगर परमेश्वर पर विश्वास करते हुए लोग बचाए जाना चाहते हैं, तो मुख्य यह है कि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है या नहीं, उनके हृदय में परमेश्वर का स्थान है या नहीं, वे परमेश्वर के सामने जीने और उसके साथ सामान्य संबंध बनाए रखने में सक्षम हैं या नहीं। अहम यह है कि लोग सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर की आज्ञाकारिता प्राप्त करने में सक्षम हैं या नहीं। बचाए जाने के लिए ऐसी शर्तें और मार्ग हैं। अगर तुम्हारा हृदय परमेश्वर के सामने जीने में सक्षम नहीं है, अगर तुम परमेश्वर से अक्सर प्रार्थना और संगति नहीं करते, और परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध खो देते हो, तो तुम कभी बचाए नहीं जाओगे, क्योंकि तुमने उद्धार का मार्ग अवरुद्ध कर दिया है। अगर तुम्हारा परमेश्वर के साथ कोई संबंध नहीं है, तो तुम मार्ग के अंत पर पहुँच गए हो। अगर तुम्हारे दिल में परमेश्वर नहीं है, तो यह दावा करना बेकार है कि तुम आस्था रखते हो, परमेश्वर में केवल नाममात्र का विश्वास रखना बेकार है। तुम धर्म-सिद्धांत के चाहे जितने शब्द बोलने में सक्षम हो, परमेश्वर में आस्था के लिए तुमने चाहे जितने भी कष्ट सहे हों, या तुम चाहे जितने भी प्रतिभाशाली हो, कोई फर्क नहीं पड़ता; अगर परमेश्वर तुम्हारे दिल में नहीं है, और तुम परमेश्वर का भय नहीं मानते, तो तुम परमेश्वर पर कैसे भी विश्वास रखो, कोई फर्क नहीं पड़ता। परमेश्वर कहेगा, “जा, मुझसे दूर हो जा, कुकर्मी।” तुम्हें एक कुकर्मी के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा। तुम परमेश्वर से असंबद्ध कर दिए जाओगे; वह तुम्हारा प्रभु या तुम्हारा परमेश्वर नहीं होगा। हालाँकि तुम स्वीकार करते हो कि परमेश्वर सभी पर शासन करता है, और स्वीकार करते हो कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, मगर तुम उसकी आराधना नहीं करते, उसकी संप्रभुता के प्रति समर्पित नहीं होते। तुम शैतान और दानवों का अनुसरण करते हो, केवल शैतान और दानव ही तुम्हारे प्रभु हैं। अगर सभी चीजों में तुम खुद पर भरोसा करते हो, और अपनी ही इच्छा का पालन करते हो, अगर तुम मानते हो कि तुम्हारा भाग्य तुम्हारे अपने हाथों में है, तो तुम खुद में ही विश्वास रखते हो। भले ही तुम परमेश्वर पर विश्वास करने और उसे स्वीकार करने का दावा करते हो, मगर परमेश्वर तुम्हें स्वीकार नहीं करता। तुम्हारा परमेश्वर के साथ कोई संबंध नहीं है, और इसलिए तुम अंततः परमेश्वर द्वारा घृणा और अस्वीकार किए जाने, दंडित किए जाने, और उसके द्वारा निकाल दिए जाने के लिए नियत हो; परमेश्वर तुम जैसे लोगों को नहीं बचाता। परमेश्वर में वास्तव में विश्वास करने वाले वही लोग होते हैं, जो परमेश्वर को उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करते हैं, जो यह स्वीकार करते हैं कि वह सत्य, मार्ग और जीवन है। वे उसके लिए खुद को ईमानदारी से खपाने और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने में सक्षम होते हैं; वे परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, वे उसके वचनों और सत्य का अभ्यास करते हैं, वे सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हैं। वे ऐसे लोग होते हैं जो परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का पालन करते हैं, और जो उसकी इच्छा का अनुसरण करते हैं। जब लोगों की परमेश्वर में ऐसी आस्था होती है, केवल तभी उन्हें बचाया जा सकता है; नहीं है, तो उनकी निंदा की जाएगी। क्या परमेश्वर में विश्वास रखनेवाले लोगों का खयाली पुलाव पकाना स्वीकार्य है? परमेश्वर में अपनी आस्था में, क्या लोग हमेशा अपनी धारणाओं और अस्पष्ट, अमूर्त कल्पनाओं से चिपके रहकर सत्य प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो उन्हें सत्य को स्वीकार करना चाहिए, उसमें ऐसा विश्वास रखना चाहिए जैसा वह कहे, उन्हें उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए; केवल तभी वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है—तुम कुछ भी करो, तुम्हें खयाली पुलाव नहीं पकाना चाहिए। इस विषय पर संगति करना लोगों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, है न? यह तुम लोगों के लिए एक चेतावनी है।

अब जबकि तुम लोगों ने ये संदेश सुन लिए हैं, तो तुम्हें सत्य समझ जाना चाहिए और इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि उद्धार में क्या शामिल है। लोग क्या पसंद करते हैं, किस चीज के लिए प्रयास करते हैं, किस चीज के प्रति जुनूनी होते हैं—इनमें से कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। जो सबसे महत्वपूर्ण है, वह है सत्य स्वीकारना। अंतिम विश्लेषण में, सत्य प्राप्त करने में सक्षम होना सबसे महत्वपूर्ण है, और सही मार्ग वह है जो तुम्हें परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने दे सकता है। अगर तुमने कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास किया है और हमेशा उन चीजों की खोज पर ध्यान केंद्रित किया है जिनका सत्य से कोई संबंध नहीं, तो तुम्हारी आस्था का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है। तुम परमेश्वर पर विश्वास करने और उसे स्वीकार करने का दावा कर सकते हो, लेकिन परमेश्वर तुम्हारा प्रभु नहीं है, वह तुम्हारा परमेश्वर नहीं है, तुम यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर तुम्हारे भाग्य को नियंत्रित करता है, तुम उस सबके प्रति समर्पित नहीं होते जिसकी परमेश्वर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है, तुम यह तथ्य स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर सत्य है—ऐसी स्थिति में तुम्हारी उद्धार की आशाएँ चूर-चूर हो गई हैं; अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर नहीं चल सकते, तो तुम विनाश के मार्ग पर चलते हो। अगर हर वह चीज, जिसका तुम अनुसरण करते हो, जिस पर ध्यान केंद्रित करते हो, जिसके बारे में प्रार्थना करते हो, और जिसके लिए अपील करते हो, परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं पर आधारित है, और अगर तुम्हें अधिकाधिक यह लगता है कि तुम सृष्टिकर्ता का आज्ञापालन और उसकी आराधना करते हो, और महसूस करते हो कि परमेश्वर तुम्हारा प्रभु, तुम्हारा परमेश्वर है, अगर तुम उस सबका पालन करने में अधिकाधिक प्रसन्न होते हो जिसका परमेश्वर तुम्हारे लिए आयोजन और व्यवस्था करता है, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता पहले से ज्यादा घनिष्ठ, ज्यादा सामान्य होता है, और अगर परमेश्वर के प्रति तुम्हारा प्रेम और अधिक शुद्ध और सच्चा होता है, तो परमेश्वर के बारे में तुम्हारी शिकायतें और गलतफहमियाँ, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी फालतू इच्छाएँ हमेशा कम होती जाएँगी, और तुम पूरी तरह से परमेश्वर का भय मानने लगोगे और बुराई से दूर हो जाओगे, जिसका अर्थ है कि तुम पहले से ही उद्धार के मार्ग पर कदम रख चुके होगे। हालाँकि उद्धार के मार्ग पर चलना परमेश्वर के अनुशासन, काट-छाँट, निपटान, न्याय और ताड़ना के साथ आता है, और इनके कारण तुम्हें बहुत पीड़ा होती है, लेकिन यह परमेश्वर का प्रेम है जो तुम पर आ रहा है। अगर परमेश्वर में विश्वास रखते हुए तुम केवल आशीष पाना चाहते हो, केवल हैसियत, प्रतिष्ठा और लाभ के पीछे दौड़ते हो, और कभी अनुशासित नहीं किए जाते, या काटे-छाँटे नहीं जाते, या न्याय और ताड़ना नहीं पाते, तो भले ही तुम्हारा जीवन आसान हो, लेकिन तुम्हारा हृदय परमेश्वर से और अधिक दूर होता जाएगा, तुम परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध खो दोगे, और तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करने के लिए भी तैयार नहीं होगे; तुम खुद अपना मालिक बनना चाहोगे—इन सबसे साबित होता है कि जिस मार्ग पर तुम चलते हो, वह उचित मार्ग नहीं है। अगर तुमने कुछ समय तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है और तुम्हें इसका अधिकाधिक एहसास होता है कि मानवजाति कितनी गहराई तक भ्रष्ट और परमेश्वर का विरोध करने में कितनी प्रवृत्त है, और अगर तुम इस बात से चिंतित रहते हो कि शायद किसी दिन तुम कुछ ऐसा कर दोगे जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है, और इस संभावना से डरते हो कि तुम परमेश्वर को अपमान कर दोगे और उसके द्वारा त्याग दिए जाओगे, और इस तरह तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर का प्रतिरोध करने से ज्यादा भयानक कुछ नहीं, तो तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होगा। तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर में विश्वास रखते समय लोगों को परमेश्वर से भटकना नहीं चाहिए; अगर वे परमेश्वर से भटक जाते हैं, अगर वे परमेश्वर के अनुशासन से, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से भटक जाते हैं, तो यह परमेश्वर की सुरक्षा और देखभाल खोने के बराबर है, परमेश्वर के आशीष खोने के बराबर है, और यह लोगों के लिए सब-कुछ खत्म हो जाना है; वे केवल और अधिक भ्रष्ट हो सकते हैं, वे धार्मिक जगत के लोगों की तरह हो जाएँगे, और उनके द्वारा अभी भी परमेश्वर पर विश्वास करते हुए परमेश्वर का विरोध करने की संभावना होगी—और इससे वे मसीह-विरोधी बन गए होंगे। अगर तुम इसे महसूस कर सकते हो, तो तुम परमेश्वर से प्रार्थना करोगे, “हे परमेश्वर! कृपया मेरा न्याय करो और मुझे ताड़ना दो। मैं विनती करता हूँ कि मैं जो कुछ भी करूँ, उसमें तुम मुझ पर नजर रखो। अगर मैं कुछ ऐसा करूँ, जो सत्य का उल्लंघन करता हो, तुम्हारी इच्छा का उल्लंघन करता हो, तो मेरा गंभीर रूप से न्याय कर मुझे दंडित करो—मैं तुम्हारे न्याय और ताड़ना के बिना नहीं रह सकता।” यह सही मार्ग है, जिस पर लोगों को परमेश्वर में अपनी आस्था में चलना चाहिए। तो इस मानक के अनुसार मापो : क्या तुम लोग यह कहने की हिम्मत करते हो कि तुमने उद्धार के मार्ग पर कदम रख दिया है? तुम लोग हिम्मत नहीं कर सकते, क्योंकि तुम अभी तक सत्य का अनुसरण करनेवाले लोगों में से एक नहीं बने हो, कई चीजों में तुम सत्य नहीं खोजते, और तुम निपटान और काट-छाँट स्वीकार कर उनके प्रति समर्पित होने में समर्थ नहीं हो—जो साबित करता है कि तुम लोग उद्धार के मार्ग पर चलने से बहुत दूर हो। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तो क्या उद्धार के मार्ग पर कदम रखना आसान है? दरअसल, यह आसान नहीं है। अगर लोगों ने परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव नहीं किया है, अगर उन्होंने परमेश्वर के अनुशासन, ताड़ना, निपटान और काट-छाँट का अनुभव नहीं किया है, तो उनके लिए सत्य का अनुसरण करने वाला इंसान बनना आसान नहीं है, और नतीजतन उनके लिए उद्धार की राह पर कदम रखना बहुत मुश्किल है। अगर, यह संदेश सुनने के बाद, तुम जान जाते हो कि यह सत्य है, फिर भी तुमने अभी तक सत्य का अनुसरण करके उद्धार प्राप्त करने के मार्ग पर कदम नहीं रखा है, तुम इसे कोई गंभीर चीज नहीं समझते, और महसूस करते हो कि देर-सबेर वह दिन आएगा जब तुम इसे कर लोगे—जल्दी क्या है—तो यह कैसा दृष्टिकोण है? ऐसा दृष्टिकोण रखने से तुम मुश्किल में हो, तुम्हें उद्धार के मार्ग पर कदम रखने में कठिनाई होगी। तो इस मार्ग पर कदम रखने में सक्षम होने के लिए तुम्हें कैसा संकल्प लेना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, “आह! अभी मैंने उद्धार के मार्ग पर कदम नहीं रखा—यह बहुत खतरनाक है! परमेश्वर कहता है कि लोगों को हर समय उसके सामने जीना चाहिए, अधिक प्रार्थना करनी चाहिए, और उनके दिल शांत होने चाहिए, उतावले नहीं—इसलिए मुझे यह सब अभी से अभ्यास में लाना शुरू कर देना चाहिए।” इस तरह से अभ्यास करना परमेश्वर में आस्था के सही रास्ते पर प्रवेश करना है; यह इतना सरल है। वे किस तरह के लोग होते हैं, जो परमेश्वर के वचन सुनते हैं, फिर उन्हें अमल में लाते हैं? क्या वे अच्छे लोग होते हैं? वे अच्छे लोग होते हैं—वे ऐसे लोग होते हैं, जो सत्य से प्रेम करते हैं। वे किस तरह के इंसान होते हैं, जो परमेश्वर के वचन सुनने के बाद सुन्न, उदासीन, जिद्दी बने रहते हैं—जो परमेश्वर के वचनों को हल्के में लेते हैं, और अनसुनी कर आँखें फेर लेते हैं? क्या वे भ्रमित नहीं हैं? लोग हमेशा पूछते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखते समय क्या बचाए जाने का कोई छोटा रास्ता है। मैं तुम्हें बताता हूँ कि कोई छोटा रास्ता नहीं है, और फिर मैं तुम लोगों को इस सरल मार्ग के बारे में बताता हूँ, लेकिन इसे सुनने के बाद तुम लोग इसे अमल में नहीं लाते—जो किसी अच्छी चीज के बारे में सुनकर भी उसे न पहचानने का मामला है। क्या ऐसे लोग बचाए जा सकते हैं? उनके लिए थोड़ी आशा हो, तो भी अधिक नहीं है; उद्धार बहुत कठिन होगा। हो सकता है एक दिन वे नींद से जागें, और मन-ही-मन सोचें, “मैं अब जवान नहीं रहा, और इन तमाम वर्षों में परमेश्वर में विश्वास रखते हुए मैंने अपने उचित कर्तव्य नहीं निभाए। परमेश्वर अपेक्षा रखता है कि लोग हर समय उसके सामने जियें, और मैं परमेश्वर के सामने नहीं जिया। मुझे जल्दी से प्रार्थना करनी चाहिए।” अगर वे अपने दिल से होश में आ जाएँ और अपने उचित कर्तव्य निभाना शुरू कर दें, तो बहुत देर नहीं हुई। लेकिन इसमें बहुत देर न करो; अगर तुम लोग सत्तर-अस्सी साल के होने की प्रतीक्षा करते हो, और तुम्हारा शरीर जवाब देने लगता है, तुममें कोई ऊर्जा नहीं बचती, तो क्या सत्य का अनुसरण करने में बहुत देर नहीं हो जाएगी? अगर तुम लोग अपने जीवन के सर्वश्रेष्ठ वर्ष व्यर्थ की बातों में बिता देते हो, और सत्य की खोज टाल देते हो या उससे चूक जाते हो, जोकि सबसे महत्वपूर्ण चीज है, तो क्या यह अत्यंत मूर्खतापूर्ण नहीं है? क्या इससे बढ़कर भी कोई मूर्खता है? बहुत-से लोग सच्चे मार्ग से अच्छी तरह परिचित हैं और फिर भी उसे स्वीकारने और उसका अनुसरण करने के लिए भविष्य की प्रतीक्षा करते हैं—वे सब मूर्ख हैं। वे नहीं जानते कि जीवन पाने से पहले सत्य के अनुसरण के लिए दशकों तक प्रयास करना पड़ता है। अगर वे बचाए जाने का सबसे अच्छा समय गँवा देते हैं, तो पछताने में बहुत देर हो जाएगी!

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर का भय मानकर ही इंसान उद्धार के मार्ग पर चल सकता है

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 380

कलीसिया का अगुआ होने के नाते तुम्‍हें समस्याएँ सुलझाने के लिए केवल सत्य का प्रयोग सीखने की आवश्‍यकता ही नहीं है, बल्कि प्रतिभाशाली लोगों का पता लगाने और उन्‍हें विकसित करना सीखने की आवश्‍यकता भी है, जिनसे तुम्‍हें बिल्कुल ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए या जिनका बिल्कुल दमन नहीं करना चाहिए। इस तरह के अभ्यास से कलीसिया के काम को लाभ पहुँचता है। अगर तुम अपने कार्यों में सहयोग के लिए सत्य के कुछ खोजी तैयार कर सको और सारा काम अच्‍छी तरह से करो, और अंत में, तुम सभी के पास अनुभवजन्‍य गवाहियाँ हों, तो तुम एक योग्य अगुआ या कार्यकर्ता होंगे। यदि तुम हर चीज़ सिद्धांतों के अनुसार संभाल सको, तो तुम अपनी निष्‍ठा को लेकर प्रतिबद्ध हो। कुछ लोग हमेशा इस बात से डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊपर हैं, अन्‍य लोगों को पहचान मिलेगी, जबकि उन्हें अनदेखा किया जाता है, और इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह प्रतिभाशाली लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या यह स्‍वार्थपूर्ण और घृणास्‍पद नहीं है? यह कैसा स्वभाव है? यह दुर्भावना है! जो लोग दूसरों के बारे में सोचे बिना या परमेश्‍वर के घर के हितों को ध्‍यान में रखे बिना केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, जो केवल अपनी स्‍वार्थपूर्ण इच्छाओं को संतुष्ट करते हैं, वे बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर में उनके लिए कोई प्र‍ेम नहीं होता। अगर तुम वाकई परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने में सक्षम होंगे। अगर तुम किसी अच्छे व्यक्ति की सिफ़ारिश करते हो और उसे प्रशिक्षण प्राप्‍त करने और कोई कर्तव्य निभाने देता है, और इस तरह एक प्रतिभाशाली व्यक्ति को परमेश्वर के घर में शामिल करते हो, तो क्या उससे तुम्‍हारा काम और आसान नहीं हो जाएगा? तब क्या यह तुम्‍हारा कर्तव्‍यनिष्‍ठा प्रदर्शित करना नहीं होगा? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है; अगुआ के रूप में सेवाएँ देने वालों के पास कम-से-कम इतनी अंतश्‍चेतना और समझ तो होनी ही चाहिए। जो लोग सत्य को अभ्‍यास में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार कर सकते हैं। परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार करने पर तुम्‍हारा हृदय निष्कपट हो जाएगा। यदि तुम हमेशा दूसरों को दिखाने के लिए ही काम करते हो, और हमेशा दूसरों की प्रशंसा और सराहना प्राप्त करना चाहता हो और परमेश्वर की पड़ताल स्वीकार नहीं करते, तब भी क्या तुम्‍हारे हृदय में परमेश्वर है? ऐसे लोगों के हृदय में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं होती। हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्‍हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्‍हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्‍हें परमेश्वर की इच्छा का ध्‍यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्‍हारे कर्तव्‍य निर्वहन मेंतुम अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम निष्‍ठावान रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्‍हें इन चीज़ों के बारे में अवश्‍य विचार करना चाहिए। अगर तुम इन पर बार-बार विचार करते हो और इन्हें समझ लेते हो, तो तुम्‍हारे लिए अपना कर्तव्‍य अच्‍छी तरह से निभाना आसान हो जाएगातुम। अगर तुम्‍हारे पास ज्यादा काबिलियत नहीं है, अगर तुम्‍हारा अनुभव उथला है, या अगर तुम अपने पेशेवर कार्य में दक्ष नहीं हो, तब तुम्‍हारेतुम्‍हारे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, हो सकता है कि तुम्‍हें अच्‍छे परिणाम न मिलें—पर तब तुमने अपना सर्वश्रेष्‍ठ दिया होगा। तुमतुम अपनी स्‍वार्थपूर्णइच्छाएँ या प्राथमिकताएँ पूरी नहीं करते। इसके बजाय, तुम लगातार कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हो। भले ही तुम्‍हें अपने कर्तव्‍य में अच्छे परिणाम प्राप्त न हों, फिर भी तुम्‍हारा दिल निष्‍कपट हो गया होगा; अगर इसके अलावा, इसके ऊपर से, तुम अपने कर्तव्य में आई समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो, तब तुम अपना कर्तव्‍य निर्वहन मानक स्तर का कर पाओगेऔर साथ ही, तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। किसी के पास गवाही होने का यही अर्थ है।

कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं, लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते। वे हमेशा देह के स्तर पर जीते हैं, दैहिक-सुखों की इच्‍छा करते हैं, हमेशा अपनी स्वार्थपूर्ण इच्‍छाओं को पूरा करते हैं। वे चाहे कितने भी वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करें, वे कभी भी सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं करेंगे। यह परमेश्वर को शर्मिंदा करने का संकेत है। तुम कहते हो, “मैंने परमेश्वर के प्रतिरोध जैसा कुछ नहीं किया। मैंने उसे शर्मिंदा कैसे कर दिया?” तुम्‍हारे सभी विचार और ख्याल दुष्टतापूर्ण हैं। तुम जो करते हो, उसके पीछे की मंशाएँ, लक्ष्‍य और उद्देश्‍य और तुम्‍हारे कार्यों के परिणाम हमेशा शैतान को संतुष्‍ट करते हैं, जिससे तुम उसके उपहास के पात्र बनते हो और उसे तुम्‍हारे विरुद्ध कुछ-न-कुछ जानकारी मिल ही जाती है। तुमने एक भी गवाही नहीं दी है जो एक ईसाई को देनी चाहिए। तुम शैतान के हो। तुम सभी चीज़ों में परमेश्वर का नाम बदनाम करते हो और तुम्‍हारे पास सच्ची गवाही नहीं है। क्या परमेश्वर तुम्‍हारे द्वारा किए गए कृत्यों को याद रखेगा? अंत में, परमेश्वर तुम्‍हारे सभी कृत्यों, व्‍यवहार और कर्तव्‍यों के बारे में क्या निष्कर्ष निकालेगा? क्या उसका कोई नतीजा नहीं निकलना चाहिए, किसी प्रकार का कोई वक्तव्य नहीं आना चाहिए? बाइबल में, प्रभु यीशु कहता है, “उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्‍टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्‍चर्यकर्म नहीं किए?’ तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ’” (मत्ती 7:22-23)। प्रभु यीशु ने ऐसा क्यों कहा? धर्मोपदेश देने, दुष्टात्माओं को निकालने और प्रभु के नाम पर इतने चमत्कार करने वालों में से इतने सारे लोग कुकर्मी क्यों हो गए? इसका कारण यह था कि उन्होंने प्रभु यीशु द्वारा व्यक्त किए गए सत्‍यों को स्वीकार नहीं किया, उन्‍होंने उसकी आज्ञाओं का पालन नहीं किया, और सत्य के लिए उनके दिल में कोई प्रेम नहीं था। वे सिर्फ प्रभु के लिए किए गए अपने काम, उठाए गए कष्टों और त्यागों के बदले में स्वर्ग के राज्य के आशीष चाहते थे। ऐसा करके, वे परमेश्‍वर के साथ एक सौदा करने की कोशिश कर रहे थे, और वे परमेश्वर का इस्तेमाल करने और परमेश्‍वर को धोखा देने की कोशिश कर रहे थे, इसलिए प्रभु यीशु उनसे नाराज था, उनसे घृणा करता था और उनकी कुकर्मियों के रूप में निंदा करता था। आज लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर रहे हैं, लेकिन कुछ अब भी नाम और हैसियत के पीछे भागते हैं, और हमेशा विशिष्ट दिखना चाहते हैं, हमेशा अगुआ और कार्यकर्ता बनना और नाम और हैसियत पाना चाहते हैं। हालांकि वे सभी कहते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, और वे परमेश्वर के लिए त्याग करते हैं और खपते हैं, पर वे अपनी प्रतिष्‍ठा, लाभ और हैसियत के लिए ही अपने कर्तव्य निभाते हैं और उनके सामने हमेशा निजी योजनाएँ रहती हैं। वे परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी या निष्ठावान नहीं हैं, वे थोड़ा भी आत्मचिंतन किए बिना अनियंत्रित रूप से बुरे कर्म कर सकते हैं, इसलिए वे कुकर्मी बन जाते हैं। परमेश्वर इन कुकर्मियों से घृणा करता है, और उन्हें बचाता नहीं है। वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों को अच्छे या बुरे के रूप में आंका जाता है? वह यह है कि वह अपने विचारों, भावात्‍मक अभिव्यक्तियों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य की वास्तविकता को जीने की गवाही रखता है या नहीं। यदि तुम्‍हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को कैसे देखता है? परमेश्‍वर के लिए, तुम्‍हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हराते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और उस अपमान से निशानों से भरे हुए हैं जो तुमने परमेश्‍वर का किया है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुमपरमेश्वर के लिये खुद को खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कररहे; बल्कि अपनेफायदे के लिए काम कर रहे हो। “अपने फायदे के लिए”, इसका क्या मतलब है? इसका सही-सही मतलब है, शैतान के फायदे के लिए काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, “हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।” परमेश्वर की नजर में तुम्‍हारे कार्यों को अच्‍छे कर्मों के रूप में नहीं देखा जाएगा, बल्कि उन्‍हें बुरे कर्म माना जाएगा। उन्‍हें न केवल परमेश्वर की स्वीकृति हासिल नहीं होगी—बल्कि उनकी निंदा भी की परमेश्‍वर में ऐसे विश्‍वास से कोई क्‍या हासिल करने की आशा कर सकता है? क्या इस तरह का विश्‍वास अंतत: व्‍यर्थ नहीं हो जाएगा?

अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्‍वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्‍हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियतकी स्थिरता या दूसरे लोग तुम्‍हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्‍हेंअपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्‍यों को दूर रखना चाहिए, तुम्‍हें परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगेकि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्‍ट व्‍यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्‍मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगेकि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्‍ट करने की तुम्‍हारी इच्छा घटती चली जाएगी। इस समय, भले ही तुम लोग कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हो, लेकिन सत्य का अनुसरण करने, सत्य का अभ्यास करने और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश से संबंधित सबकों में तुम्‍हारे प्रवेश, उनकी व्‍यावहारिक समझ और अनुभव में गहराई की कमी है, और तुम्हें उनका कोई सच्चा अनुभव या व्‍यावहारिक समझ नहीं है, इसलिए तुम सच्ची गवाही नहीं दे सकते। अब मैंने तुम लोगों को यह सरल-सा दृष्टिकोण बता दिया है: इस तरह के अभ्‍यास के साथ शुरुआत करो, और जब एक बार तुम कुछ समय तक ऐसा कर लोगे, तो तुम लोगों की आंतरिक अवस्‍था बदलने लगेगी और तुम्‍हें पता भी नहीं चलेगा। यह उस दुविधापूर्ण अवस्‍था, जिसमें तुम न तो परमेश्‍वर में बहुत अधिक विश्‍वास करने में रुचि रखते हो और न ही उस अवस्‍था से बहुत अधिक ऊबते हो, से उस अवस्‍था में बदल जाएगी जिसमें तुम्‍हें लगेगा कि परमेश्‍वर में विश्‍वास करना और एक ईमानदार इंसान होना अच्‍छी चीज़ें हैं, और जिसमें एक ईमानदार इंसान होने में तुम्‍हारी रुचि होगी और तुम्‍हें लगेगा कि इस तरह जीवन जीना अर्थपूर्ण और पुष्टिकर है। तुमस्थिर, शान्‍त और अपने हृदय में आनंद महसूस करोगे। तुम इस अवस्‍था में आ जाओगे। अपनी मंशाओं, हितों और स्‍वार्थपूर्ण इच्‍छाओं को छोड़ देने पर यह परिणाम प्राप्‍त होता है। यह उसका परिणाम है। यह आंशिक रूप से मानवीय सहयोग का परिणाम और आंशिक रूप से पवित्र आत्‍मा का कार्य है। पवित्र आत्मा लोगों के सहयोग के बिना कार्य नहीं करता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 381

स्वभाव में परिवर्तन के बारे में तुम लोग क्या जानते हो? स्वभाव में परिवर्तन और व्यवहार में परिवर्तन के सार भिन्न-भिन्न हैं, और अभ्यास में परिवर्तन भी अलग हैं—सार में वे सभी अलग-अलग हैं। अधिकांश लोग परमेश्वर पर अपने विश्वास में व्यवहार पर विशेष ज़ोर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनके व्यवहार में कुछ निश्चित परिवर्तन आते हैं। परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करने के बाद, वे धूम्रपान और मदिरापान बंद कर देते हैं, दूसरों से होड़ नहीं करते और नुकसान होने पर संयम रखते हैं। उनमें कुछ व्यवहार संबंधी परिवर्तन आते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद परमेश्वर के वचन पढ़कर उन्हें सत्य समझ आ गया है, उन्होंने पवित्र आत्मा के कार्य का अनुभव कर लिया है और उन्हें मन में सच्चा आनंद मिलता है, जिससे वे खास तौर पर उत्साहित हो जाते हैं, और कुछ भी ऐसा नहीं होता है जिसका वे त्याग नहीं कर सकते या जिसे वे सहन नहीं कर सकते। लेकिन फिर भी आठ-दस या बीस-तीस साल तक विश्वास करने के बाद भी, जीवन-स्वभावों में कोई परिवर्तन न होने के कारण, वे पुराने तौर-तरीके फिर से अपना लेते हैं; उनका अहंकार और घमंड बढ़कर और अधिक मुखर हो जाता है, वे सत्ता और मुनाफे के लिए होड़ करना शुरू कर देते हैं, वे कलीसिया के धन के लिए ललचाते हैं, वे उन लोगों से ईर्ष्या रखते हैं जिन्होंने परमेश्वर के घर का लाभ उठाया होता है। वे परमेश्वर के घर में परजीवी और कृमि बन जाते हैं और कुछ तो नकली अगुआ और मसीह-विरोधी के तौर पर उजागर करके त्याग दिए जाते हैं। और ये तथ्य क्या साबित करते हैं? महज व्यवाहारिक बदलाव देर तक नहीं टिकते हैं; अगर लोगों के जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं होता है, तो देर-सबेर वे अपना असली चेहरा दिखाएँगे। क्योंकि उनके व्यवहार में परिवर्तन का स्रोत उत्साह है और पवित्र आत्मा द्वारा उस समय किये गए कुछ कार्य का साथ पाकर, उनके लिए उत्साही बनना या अस्थायी दयालुता दिखाना बहुत आसान होता है। जैसा कि अविश्वासी लोग कहते हैं, “एक अच्छा कर्म करना आसान है; मुश्किल तो यह है कि जीवन भर अच्छे कर्म किए जाएँ।” लोग आजीवन अच्छे कर्म करने में असमर्थ क्यों होते हैं? क्योंकि प्रकृति से लोग दुष्ट, स्वार्थी और भ्रष्ट होते हैं। एक व्यक्ति का व्यवहार उसकी प्रकृति द्वारा निर्देशित होता है; जैसी भी उसकीप्रकृति होती है, वैसा ही उसका व्यवहार भी होता है, और केवल जो स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है वही वही व्यक्ति की प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता है। जो चीजें नकली हैं, वे टिक नहीं सकतीं। जब परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए कार्य करता है, यह मनुष्य को अच्छे व्यवहार का गुण देने के लिए नहीं होता—परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य लोगों के स्वभाव को रूपांतरित करना, उन्हें नए लोगों के रूप में पुनर्जीवित करना है। परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, परीक्षण, और मनुष्य का परिशोधन, ये सभी उसके स्वभाव को बदलने के वास्ते हैं, ताकि वह परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और धर्मनिष्ठा पा सके, और परमेश्वर की सामान्य ढंग से उपासना कर सके। यही परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य है। अच्छी तरह से व्यवहार करना परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के समान नहीं है, और यह मसीह के अनुरूप होने के बराबर तो और भी नहीं है। व्यवहार में परिवर्तन सिद्धांत पर आधारित होते हैं, और उत्साह से पैदा होते हैं; वे परमेश्वर के सच्चे ज्ञान पर या सत्य पर आधारित नहीं होते हैं, पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन पर आश्रित होना तो दूर की बात है। यद्यपि ऐसे मौके होते हैं जब लोग जो भी करते हैं, उसमें से कुछ पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध या मार्गदर्शित होता है, यह उसके जीवन की अभिव्यक्ति नहीं है। उन्होंने अभी तक सत्य की वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं किया है और उनके जीवन स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आया है। चाहे किसी व्यक्ति का व्यवहार कितना भी अच्छा हो, वह इसे साबित नहीं करता कि वे परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं, या वे सत्य का अभ्यास करते हैं। व्यवहार-जनित परिवर्तन का मतलब यह नहीं है कि जीवन स्वभाव में परिवर्तन आ गया और उन्हें जीवन की अभिव्यक्ति नहीं माना जा सकता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 382

यदि किसी व्यक्ति के व्यवहार में कई अच्छाइयाँ हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसमें सत्य की वास्तविकताएं हैं। केवल सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने से ही तुम सत्य की वास्तविकताएँ प्राप्त कर सकते हो। केवल परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से ही तुम सत्य की वास्तविकताएँ प्राप्त कर सकते हो। कुछ लोगों में उत्साह होता है, वे सिद्धांतों बोल सकते हैं, नियमों का पालन करते हैं, और कई अच्छे काम करते हैं, लेकिन उनके बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि उनमें थोड़ी-बहुत इंसानियत है। यह जरूरी नहीं कि जो लोग सिद्धांत बोल सकते हैं और हमेशा नियमों का पालन हैं, वे सत्य का अभ्यास भी करते हों। हालाँकि वे जो कुछ कहते हैं वह सही होता है और ऐसा लगता है वह समस्या-मुक्त है, लेकिन सत्य के सार से संबंधित मामलों में उनके पास कहने को कुछ नहीं होता। इसलिए, कोई कितने भी सिद्धांत बोले, इसका मतलब यह नहीं है कि उसे सत्य की समझ है, वह चाहे कितना भी सिद्धांत समझता हो, कोई समस्या नहीं सुलझा सकता। धार्मिक सिद्धांतकार बाइबल की व्याख्या कर सकते हैं, लेकिन अंत में, उन सभी का पतन हो जाता है, क्योंकि वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त संपूर्ण सत्य नहीं स्वीकारते। जिन लोगों ने अपने स्वभाव में परिवर्तन का अनुभव किया है, वे अलग हैं; उन्होंने सत्य समझ लिया है, वे सभी मुद्दों पर विवेकी होते हैं, वे जानते हैं कि कैसे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करना है, कैसे सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना है, कैसे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कार्य करना है, और वे उस भ्रष्टता की प्रकृति को समझते हैं जो वे प्रकट करते हैं। जब उनके अपने विचार और धारणाएँ प्रकट होती हैं, तो वे विवेकी बनकर देह की इच्छाओं को छोड़ सकते हैं। स्वभाव में परिवर्तन को इस प्रकार व्यक्त किया जाता है। जो लोग स्वभाव में परिवर्तन से गुज़रे हैं, उन लोगों की मुख्य अभिव्यक्ति यह है कि उन्होंने स्पष्ट रूप से सत्य समझ लिया है, और कार्य करते समय तो वे सापेक्ष सटीकता के साथ सत्य का अभ्यास करते हैं और वे अक्सर भ्रष्टता नहीं दिखाते। आम तौर पर, जिन लोगों का स्वभाव बदल गया है, वे खासकर तर्कसंगत और विवेकपूर्ण प्रतीत होते हैं, और सत्य की अपनी समझ के कारण, वे उतनी आत्म-तुष्टि और दंभ नहीं दिखाते। वे अपनी प्रकट हुई भ्रष्टता में से काफ़ी कुछ समझ-बूझ लेते हैं, इसलिए उनमें अभिमान उत्पन्न नहीं होता। मनुष्य का क्या स्थान है, कैसे उचित व्यवहार करना है, कैसे कर्तव्यनिष्ठ होना है, क्या कहना और क्या नहीं कहना है, और किन लोगों से क्या कहना और क्या करना है, इस बारे में उन्हें एक विवेकपूर्ण समझ होती है। इस प्रकार जिन लोगों का स्वभाव बदल गया है, वे अपेक्षाकृत तर्कसंगत होते हैं और सही मायनों में ऐसे लोग ही इंसानियत को जीते हैं। क्योंकि उन्हें सत्य की समझ होती है, वे हमेशा सत्य के अनुरूप बोलने और चीज़ों को देखने में समर्थ होते हैं और वे जो भी करते हैं, सैद्धांतिक रूप से करते हैं; वे किसी व्यक्ति, मामले या चीज़ के प्रभाव में नहीं होते, उन सभी का अपना दृष्टिकोण होता है और वे सत्य के सिद्धांत को कायम रख सकते हैं। उनका स्वभाव सापेक्षिक रूप से स्थिर होता है, वे असंतुलित नहीं होते, चाहे उनकी स्थिति कैसी भी हो, वे समझते हैं कि कैसे उन्हें अपने कर्तव्यों को सही ढंग से निभाना है और परमेश्वर की संतुष्टि के लिए कैसे व्यवहार करना है। जिन लोगों के स्वभाव वास्तव में बदल गए हैं वे इस पर ध्यान नहीं देते कि सतही तौर पर स्वयं को अच्छा दिखाने के लिए क्या किया जाए; परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए क्या करना है, इस पर उन्होंने आंतरिक स्पष्टता पा ली है। इसलिए, हो सकता है कि बाहर से वे इतने उत्साही न दिखें या ऐसा न लगे कि उन्होंने कुछ बड़ा किया है, लेकिन वो जो कुछ भी करते हैं वह सार्थक होता है, मूल्यवान होता है, और उसके परिणाम व्यावहारिक होते हैं। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं उनके अंदर निश्चित रूप से सत्य की बहुत-सी वास्तविकताएँ होती हैं, और इस बात की पुष्टि चीज़ों के बारे में उनके दृष्टिकोण और सैद्धांतिक कार्यों के आधार पर की जा सकती है। जिन लोगों ने सत्य प्राप्त नहीं किया है, उनके स्वभाव में बिलकुल कोई परिवर्तन नहीं हुआ होता है। स्वभाव में परिवर्तन कैसे लाया जाता है? मनुष्यों को शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किया गया है, वे सभी परमेश्वर का विरोध करते हैं, परमेश्वर का प्रतिरोध करना उन सभी की प्रकृति है। जिनकी प्रकृति परमेश्वर का प्रतिरोध करना है और जो परमेश्वर का विरोध करते हैं, परमेश्वर उन सभी को अपना आज्ञापालन करने और भय मानने वाला बनाकर बचा लेता है। स्वभाव में बदलाव युक्त व्यक्ति होने का यही अर्थ है। कोई व्यक्ति कितना भी भ्रष्ट क्यों न हो या उसके पास कितने भी भ्रष्ट स्वभाव हों, अगर वह सत्य स्वीकार सकता है, परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार सकता है, विभिन्न परीक्षण और शोधन स्वीकार सकता है, तो उसमें परमेश्वर की सच्ची समझ होगी, और साथ ही, वह स्पष्ट रूप से अपनी प्रकृति और सार भी देख पाएगा। जब वह स्वयं को वास्तव में जान लेगा, तो उसे स्वयं से और शैतान से घृणा हो जाएगी, वह शैतान को त्यागने को तैयार हो जाएगा और पूरी तरह से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करेगा। एक बार जब किसी व्यक्ति में यह दृढ़ संकल्प आ जाता है, तो वह सत्य का अनुसरण कर सकता है। यदि लोगों को परमेश्वर का सच्चा ज्ञान हो, यदि उनका शैतानी स्वभाव शुद्ध कर दिया जाए, और परमेश्वर के वचन उनके भीतर जड़ें जमा लेते हैं, और वे उनका जीवन और अस्तित्व का आधार बन जाते हैं, यदि वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीते हैं, पूरी तरह से बदलकर नए इंसान बन गए हैं—तो उसे उनके जीवन-स्वभाव में बदलाव माना जाता है। स्वभाव में बदलाव का मतलब परिपक्व और अनुभवी मानवता नहीं है, न ही यह है कि लोगों का बाहरी स्वभाव पहले की तुलना में विनम्र हो गया है, कि वे अभिमानी हुआ करते थे लेकिन अब तर्कसंगत ढंग से बोलते हैं, या वे पहले किसी की नहीं सुनते थे, लेकिन अब वे दूसरों की बात सुन सकते हैं; ऐसे बाहरी परिवर्तन स्वभाव के रूपान्तरण नहीं कहे जा सकते। बेशक स्वभाव के रूपांतरण में ये अभिव्यक्तियाँ शामिल हैं, लेकिन सर्वाधिक महत्व की बात यह है कि अंदर से उनका जीवन बदल गया है। यह पूरी तरह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के वचनों और सत्य ने उनमें अंदर जड़ें जमा ली हैं, उन पर उनका शासन हो गया है और वे उनका जीवन बन गए हैं। चीजों पर उनके विचार भी बदल गए हैं। वे पूरी तरह समझ सकते हैं कि दुनिया में क्या चल रहा है और मानवजाति के साथ क्या हो रहा है, कैसे शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है, कैसे बड़ा लाल अजगर परमेश्वर का विरोध करता है, वे बड़े लाल अजगर का सार देख सकते हैं। उन्हें बड़े लाल अजगर और शैतान से दिल से घृणा हो जाती है और वे पूरी तरह से परमेश्वर की ओर मुड़कर उसका अनुसरण करने लगते हैं। इसका अर्थ है कि उनका जीवन स्वभाव बदल गया है और उन्हें परमेश्वर ने प्राप्त कर लिया है। जीवन स्वभाव में परिवर्तन मौलिक परिवर्तन होता है, जबकि व्यवहार में परिवर्तन सतही होता है। जिन लोगों ने जीवन स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त कर लिया है, उन्हीं लोगों ने सत्य प्राप्त किया है और वही परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए गए हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 383

स्वभाव में रूपांतरण, व्यवहार में परिवर्तन नहीं होता, न ही यह झूठा बाह्य परिवर्तन होता है, यह एक अस्थायी जोशीला परिवर्तन भी नहीं होता। ये परिवर्तन कितने भी अच्छे क्यों न हों, वे जीवन स्वभाव में परिवर्तन का स्थान नहीं ले सकते, क्योंकि ये बाहरी परिवर्तन मानवीय प्रयासों से लाए जा सकते हैं, लेकिन जीवन स्वभाव में परिवर्तन केवल व्यक्ति के अपने प्रयासों से नहीं लाए जा सकते। इसके लिए परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन का अनुभव करना और साथ ही पवित्र आत्मा की पूर्णता आवश्यक है। हालाँकि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों का व्यवहार थोड़ा अच्छा होता है, लेकिन उनमें से कोई भी परमेश्वर का सच में आज्ञापालन नहीं करता, परमेश्वर से सच में प्रेम या उसकी इच्छा पूरी नहीं कर सकता। ऐसा क्यों है? क्योंकि ऐसा करने के लिए जीवन स्वभाव में बदलाव की आवश्यकता होती है, केवल व्यवहार में बदलाव बिल्कुल भी काफी नहीं होता। स्वभाव में बदलाव का मतलब है कि तुम्हारे अंदर सत्य का ज्ञान और अनुभव है, सत्य तुम्हारा जीवन बन गया है, यह तुम्हारे जीवन और तुम्हारी हर चीज को यह निर्देशित कर सकता और उन पर इसका प्रभुत्व हो सकता है। यह तुम्हारे जीवन स्वभाव में आया बदलाव है। जिन लोगों के लिए सत्य जीवन बन गया है, केवल उनका ही जीवन स्वभाव बदला है। हो सकता है पहले कुछ सत्य ऐसे रहे हों जिन्हें तुमने समझ तो लिया था, लेकिन उन्हें व्यवहार में नहीं ला पाए, लेकिन अब तुम सत्य के हर उस पहलू को जिन्हें तुम समझते हो, बिना बाधाओं या कठिनाई के अभ्यास में ला सकते हो। जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो, तो तुम खुद को शांति और प्रसन्नता से भरा महसूस करते हो, लेकिन यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते, तो तुम्हें पीड़ा का अनुभव होता है और तुम्हारी अंतरात्मा विचलित हो जाती है। तुम हर चीज में सत्य का अभ्यास कर सकते हो, परमेश्वर के वचनों के अनुसार जी सकते हो और जीने का आधार पा सकते हो। इसका मतलब है कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है। अब तुम आसानी से अपनी धारणाएँ, कल्पनाएँ, दैहिक प्राथमिकताएँ, लक्ष्य और ऐसी चीजें त्याग सकते हो जिन्हें तुम पहले नहीं छोड़ सकते थे। तुम्हें लगने लगता है कि परमेश्वर के वचन वास्तव में अच्छे हैं और सत्य का अभ्यास करना सबसे अच्छी बात है। इसका मतलब है कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है। स्वभाव में परिवर्तन बहुत सरल लगता है, पर वास्तव में यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें काफी अनुभव की जरूरत होती है। इस अवधि में, लोगों को कई कठिनाइयाँ सहनी होती हैं, अपनी देह को वश में कर, दैहिक-सुख त्यागने होते हैं, न्याय, ताड़ना, काट-छाँट, निपटारे, परीक्षणों और शोधन से गुजरना भी होता है, इसके अलावा, अपने हृदय में असफलताएँ, पतन, आंतरिक संघर्ष और पीड़ाएँ भी सहनी होती हैं। इन अनुभवों के बाद ही लोगों को अपनी प्रकृति की थोड़ी-बहुत समझ हो सकती है, लेकिन थोड़ी-बहुत समझ तुरंत पूरा परिवर्तन नहीं लाती; इससे पहले कि अंततः वे अपने भ्रष्ट स्वभाव से धीरे-धीरे छुटकारा पाने में समर्थ हों, उन्हें एक लंबे अनुभव से गुजरना होता है। इसीलिए अपने स्वभाव को बदलने में पूरा जीवन लग जाता है। उदाहरण के लिए, यदि तुम किसी मामले में भ्रष्टता दिखाते हो, तो क्या इसका एहसास होते ही, तुम तुरंत सत्य का अभ्यास कर सकते हो? नहीं। समझ के इस स्तर पर, तो दूसरे तुम्हारी काट-छाँट और निपटारा करते हैं, और तब परिवेश तुम्हें बाध्य करके सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करने के लिए मजबूर करता है। कभी-कभी तुम ऐसा करने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाते और तुम अपने आपसे कहते हो, “क्या मुझे इसे ऐसे ही करना पड़ेगा? मैं इसे अपने हिसाब से क्यों नहीं कर सकता? मुझे हमेशा सत्य का अभ्यास करने के लिए क्यों कहा जाता है? मैं यह नहीं करना चाहता, मैं इससे थक चुका हूँ!” परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए निम्न प्रक्रिया से गुजरना होता है : सत्य का अभ्यास करने का अनिच्छुक होने से लेकर सहर्ष सत्य का अभ्यास करने तक; नकारात्मकता और कमजोरी से लेकर सशक्त बनने और दैहिक-सुख त्याग पाने की क्षमता तक। जब लोग एक निश्चित बिंदु तक अनुभव कर लेते हैं और फिर कुछ परीक्षणों और शोधन से गुजरकर अंततः परमेश्वर की इच्छा और कुछ सत्य समझने लगते हैं, तब वे थोड़े खुश होकर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने को तैयार हो जाते हैं। शुरू में लोग सत्य पर अमल करने को तैयार नहीं होते। उदाहरण के तौर पर, पूरे समर्पण भाव से कर्तव्यों के निर्वहन को ही लो। तुम्हारे अंदर अपने कर्तव्यों को पूरा करने और परमेश्वर के प्रति वफादार होने की कुछ समझ है, और तुम्हें सत्य की भी थोड़ी समझ है, लेकिन तुम परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से समर्पित कब होगे? नाम और कर्म में तुम अपने कर्तव्यों का निर्वहन कब करोगे? इसमें प्रक्रिया की आवश्यकता है। इस प्रक्रिया के दौरान, तुम्हें कई कठिनाइयों को झेलना पड़ सकता है; शायद कुछ लोग तुम्हारे साथ निपटें, कुछ तुम्हारी आलोचना करें। सबकी आँखें तुम पर होंगी, तुम्हें परख रही होंगी, तब तुम्हें एहसास होगा कि तुम गलत हो, तुम ही हो जिसने अच्छा काम नहीं किया, कर्तव्य के निर्वहन में समर्पण की कमी को बर्दाश्त नहीं किया जाता, तुम लापरवाह या अन्यमनस्क नहीं हो सकते! पवित्र आत्मा तुम्हें भीतर से प्रबुद्ध करता है और जब तुम भूल करते हो, तो वह तुम्हें फटकारता है। इस प्रक्रिया के दौरान, तुम अपने बारे में कुछ बातें समझने लगागे और जान जाओगे कि तुममें बहुत सारी अशुद्धताएँ हैं, तुम्हारे अंदर निजी इरादे भरे पड़े हैं और अपने कर्तव्यों को पूरा करते समय तुम्हारे अंदर बहुत सारी अनियंत्रित इच्छाएँ होती हैं। जब तुम इन चीजों के सार को समझ जाते हो, तब अगर तुम परमेश्वर के समक्ष आकर उससे प्रार्थना कर सच्चा प्रायश्चित कर सकते हो, तो तुम उन भ्रष्ट चीजों से शुद्ध किए सकते हो। यदि इस तरह अपनी व्यावहारिक समस्याओं का समाधान करने के लिए तुम अक्सर सत्य की खोज करोगे, तो तुम आस्था के सही मार्ग पर कदम बढ़ा सकोगे; तुम्हें सच्चे जीवन-अनुभव होने लगेंगे और धीरे-धीरे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध होने लगेगा। तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव जितना शुद्ध किया जाएगा, तुम्हारा जीवन स्वभाव उतना ही रूपांतरित होगा।

हालाँकि अब बहुत से लोग अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं, लेकिन सार रूप में, ऐसे कितने लोग हैं जो बेमन से अपने कर्तव्य निभा रहे हैं? कितने लोग सत्य को स्वीकार कर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं? कितने लोग अपने स्वभाव में बदलाव आने के बाद परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं? इन बातों की जाँच करके, तुम जान सकते हो कि क्या कर्तव्यों का निर्वहन करने में क्या तुम मानक के अनुरूप हो, तुम यह भी स्पष्ट रूप से देख पाओगे कि तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव आया है या नहीं। स्वभाव में रूपांतरण लाना कोई आसान बात नहीं है; इसका मतलब महज व्यवहार में थोड़ा-सा बदलाव लाना और सत्य का थोड़ा ज्ञान हासिल कर लेना, सत्य के हर पहलू के बारे में अपने अनुभव पर थोड़ा बात कर लेना, या थोड़ा-सा बदल जाना, अनुशासित किए जाने के बाद थोड़ा-सा आज्ञाकारी हो जाना नहीं है। ये चीजें जीवन स्वभाव में रूपांतरण का अंग नहीं हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? भले ही तुम थोड़ा-बहुत बदल गए हो, लेकिन तुम अभी भी सही मायने में सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हो। तुम शायद इस तरह से व्यवहार इसलिए करते हो क्योंकि तुम अस्थायी तौर पर उपयुक्त परिवेश में हो और यह स्थिति तुम्हें अनुमति देती है या तुम्हारी वर्तमान परिस्थितियों ने तुम्हें इस तरह से व्यवहार करने के लिए मजबूर किया है। इसके अलावा, जब तुम्हारी मनोदशा अच्छी होती है, जब तुम्हारी स्थिति सामान्य होती है, और जब तुममें पवित्र आत्मा का कार्य होता है, तो तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो। लेकिन मान लो तुम किसी परीक्षण से गुजर रहे हो, तुम परीक्षणों के बीच अय्यूब की तरह कष्ट उठा रहे हो या तुम्हारे सामने मौत का परीक्षण है। अगर ऐसी स्थिति आए, तो क्या तुम तब भी सत्य का अभ्यास कर और दृढ़ता से गवाही दे पाओगे? क्या तुम पतरस की तरह यह कह सकते हो, “तुम्हें जानने के बाद अगर मैं मर भी जाऊं, तो मैं आनंद और प्रसन्नता के साथ ऐसा कैसे नहीं कर सकता?” पतरस ने किस चीज को महत्व दिया? पतरस ने आज्ञाकारिता को महत्व दिया, उसने परमेश्वर को जानने को सर्वाधिक मूल्यवान समझा, तभी वह मृत्युपर्यंत आज्ञापालन कर पाया। स्वभाव में परिवर्तन रातोंरात नहीं होता; इसमें जीवन भर का अनुभव लग जाता है। सत्य को समझना थोड़ा आसान होता है, लेकिन विभिन्न संदर्भों में सत्य का अभ्यास करना कठिन होता है। सत्य को व्यवहार में लाने में लोगों को हमेशा परेशानी क्यों होती है? वास्तव में, ये सभी कठिनाइयाँ सीधे तौर पर लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से जुड़ी होती हैं और ये सारी बाधाएँ भ्रष्ट स्वभावों से आती हैं। इसलिए, सत्य को व्यवहार में लाने में समर्थ होने के लिए तुम्हें बहुत कुछ भुगतना पड़ता है और कीमत चुकानी पड़ती है। यदि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट न होता, तो तुम्हें सत्य का अभ्यास करने के लिए कष्ट सहने और कीमत चुकाने की आवश्यकता न होती। क्या यह स्पष्ट तथ्य नहीं है? ऐसा लग सकता है जैसे तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो, लेकिन वास्तव में, तुम्हारे कृत्यों की प्रकृति यह नहीं दर्शाती कि तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो। परमेश्वर का अनुसरण करने में, कई लोग अपने परिवार और काम-धंधे का त्याग करके अपने कर्तव्य निभाने में सक्षम होते हैं, इसलिए वो मानते हैं कि वो सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। लेकिन वे कभी सच्ची अनुभवात्मक गवाही देने में सक्षम नहीं होते। यहाँ असल में क्या चल रहा है? मनुष्य की धारणाओं से उन्हें मापने पर वे सत्य का अभ्यास करते प्रतीत होते हैं, फिर भी परमेश्वर नहीं मानता कि वे जो कर रहे हैं, वह सत्य का अभ्यास करना है। अगर तुम्हारे कामों के पीछे व्यक्तिगत इरादे हों और वे दूषित हों, तो तुम सिद्धांतों से भटक सकते हो और यह नहीं कहा जा सकता कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो; यह सिर्फ एक तरह का आचरण है। वास्तव में, परमेश्वर तुम्हारे इस तरह के आचरण की निंदा करेगा; वह इसकी प्रशंसा नहीं करेगा या इसका स्मरणोत्सव नहीं मनाएगा। इसका सार और जड़ तक विश्लेषण करें तो, तुम ऐसे व्यक्ति हो जो बुराई करता है, और तुम्हारे ये बाहरी व्यवहार परमेश्वर का विरोध के तुल्य हैं। बाहर से तुम कुछ भी बाधित या अवरुद्ध नहीं कर रहे हो और तुमने वास्तविक क्षति नहीं पहुंचाई है। यह न्यायसंगत और उचित लगता है, लेकिन इसमें मानवीय संदूषण और इरादे हैं, और इसका सार बुराई करने और परमेश्वर का विरोध करने का है। इसलिए परमेश्वर के वचनों के प्रयोग से और अपने कृत्यों के पीछे के अभिप्रायों को देखकर तुम्हें निश्चित करना चाहिए कि क्या तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन हुआ है और क्या तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो। यह इस पर निर्भर नहीं करता कि तुम्हारे कृत्य इंसानी कल्पनाओं और विचारों के अनुरूप हैं या नहीं या वो तुम्हारी रुचि के उपयुक्त हैं या नहीं; ऐसी चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं। बल्कि, यह इस बात पर आधारित है कि परमेश्वर की नजरों में तुम उसकी इच्छा के अनुरूप चल रहे हो या नहीं, तुम्हारे कृत्यों में सत्य की वास्तविकता है या नहीं, और वे उसकी अपेक्षाओं और मानकों को पूरा करते हैं या नहीं। केवल परमेश्वर की अपेक्षाओं से तुलना करके अपने तुम्हें मापना ही सही है। स्वभाव में रूपांतरण और सत्य को अभ्यास में लाना उतना सहज और आसान नहीं है जैसा लोग सोचते हैं। क्या तुम लोग अब इस बात को समझ गए? क्या इसका तुम सबको कोई अनुभव है? जब समस्या के सार की बात आती है, तो शायद तुम लोग इसे नहीं समझ सकोगे; तुम्हारा प्रवेश बहुत ही उथला रहा है। तुम लोग सुबह से शाम तक भागते-दौड़ते हो, तुम लोग जल्दी उठते हो और देर से सोते हो, फिर भी तुम्हारा स्वभाव रूपांतरित नहीं हुआ है, और तुम इस बात को समझ नहीं सकते कि स्वभावगत रूपांतरण क्या है। इसका अर्थ है कि तुम्हारा प्रवेश बहुत ही उथला है, है न? भले ही तुम अधिक समय से परमेश्वर में आस्था रखते आ रहे हो, लेकिन हो सकता है कि तुम लोग स्वभाव में रूपांतरण के सार और उससे जुड़ी गहरी चीजों को महसूस न कर सको। क्या यह कहा जा सकता है कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है? तुम कैसे जानते हो कि परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा करता है या नहीं? कम से कम, तुम अपने हर काम में जबरदस्त दृढ़ता महसूस करोगे और तुम महसूस करोगे कि जब तुम अपने कर्तव्यों को पूरा कर रहे हो, परमेश्वर के घर में कोई काम कर रहे हो, या कोई आम काम, पवित्र आत्मा तुम्हारा मार्गदर्शन और प्रबोधन कर रहा है और तुममें कार्य कर रहा है। तुम्हारा आचरण परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होगा, और जब तुम्हारे पास कुछ हद तक अनुभव हो जाएगा, तो तुम महसूस करोगे कि अतीत में तुमने जो कुछ किया वह अपेक्षाकृत उपयुक्त था। लेकिन अगर कुछ समय तक अनुभव प्राप्त करने के बाद, तुम महसूस करो कि अतीत में तुम्हारे द्वारा किए गए कुछ काम उपयुक्त नहीं थे, तुम उनसे असंतुष्ट हो, और तुम्हें लगे कि वे सत्य के अनुरूप नहीं थे, तो इससे यह साबित होता है कि तुमने जो कुछ भी किया, वह परमेश्वर के विरोध में था। यह साबित करता है कि तुम्हारी सेवा विद्रोह, प्रतिरोध और मानवीय व्यवहार से भरी हुई थी और तुम अपने अंदर बदलाव लाने में पूरी तरह से नाकाम रहे हो।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 384

यह मापने में कि लोग परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकते हैं या नहीं, मुख्य बात यह देखना है कि वे परमेश्वर से असाधारण माँगें कर रहे हैं या नहीं, और उनके गुप्त अभिप्राय हैं या नहीं। अगर लोग हमेशा परमेश्वर से माँगें करते हैं, तो यह साबित करता है कि वे उसके आज्ञाकारी नहीं हैं। तुम्हारे साथ चाहे जो भी हो, यदि तुम इसे परमेश्वर से प्राप्त नहीं कर सकते, सत्य की तलाश नहीं कर सकते, हमेशा अपने व्यक्तिपरक तर्क से बात करते हो और हमेशा यह महसूस करते हो कि केवल तुम ही सही हो, और यहाँ तक कि अभी भी परमेश्वर पर संदेह करने में सक्षम हो कि परमेश्वर सत्य और धार्मिकता है, तो तुम मुश्किल में रहोगे। ऐसे लोग सबसे घमंडी एवं परमेश्वर के प्रति विद्रोही होते हैं। जो लोग हमेशा परमेश्वर से माँगते रहते हैं, वे कभी सच में आज्ञापालन नहीं कर सकते। अगर तुम परमेश्वर से माँग करते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम उससे सौदा कर रहे हो, तुम अपने ही विचार चुन रहे हो, और अपने विचारों के अनुसार ही कार्य कर रहे हो। इसमें तुम परमेश्वर को धोखा देते हो, और तुममें आज्ञाकारिता नहीं है। परमेश्वर से माँग करना नासमझी है; अगर तुम्हें सचमुच विश्वास है कि वह परमेश्वर है, तो तुम उससे माँग करने की हिम्मत नहीं करोगे, न ही तुम उससे माँग करने के योग्य होगे, चाहे वे माँगें उचित हों या न हों। अगर तुममें परमेश्वर के प्रति सच्चा विश्वास है, और तुम मानते हो कि वह परमेश्वर है, तो तुम्हारे पास उसकी आराधना करने और उसका आज्ञापालन करने के अलावा कोई विकल्प न होगा। आज, न सिर्फ लोग अपना विकल्प खुद चुनते हैं, बल्कि वे यह भी माँग करते हैं कि परमेश्वर उनके विचारों के अनुसार कार्य करे। वे न केवल परमेश्वर का आज्ञापालन न करने का विकल्प चुनते हैं, बल्कि वे परमेश्वर से भी कहते हैं कि वह उनका आज्ञापालन करे। क्या यह विवेकशून्यता नहीं है? इसलिए, मनुष्य में कोई सच्ची दृढ़ता न होती, कोई सारभूत विश्वास नहीं होता, वे कभी भी परमेश्वर की प्रशंसा नहीं पा सकते। जब लोग परमेश्वर से कम माँगें करने में सक्षम हो जाएँगे, तो उनका सच्चा विश्वास और उनकी आज्ञाकारिता बढ़ेगी, और उनकी तार्किक समझ भी अपेक्षाकृत सामान्य हो जाएगी। अक्सर ऐसा होता है कि लोग तर्क करने में जितने अधिक प्रवृत्त होते हैं, और जितना अधिक वे औचित्य बताते हैं, उतना ही अधिक कठिन उनसे निपटना होता है। न केवल उनकी बहुत-सी माँगें होती हैं, बल्कि उंगली पकड़ाओ तो सर पर चढ़ जाते हैं। एक क्षेत्र में संतुष्ट होने पर वे दूसरे क्षेत्र में माँग करने लगते हैं, उन्हें सभी क्षेत्रों में संतुष्ट होना होता है, वरना वे शिकायत करना शुरू कर देते हैं, और खुद से आशा रखना बंद कर देते हैं। बाद में वे कृतज्ञ और पछतावा महसूस करते हैं, फूट-फूटकर रोते हैं और मरना चाहते हैं। इसका क्या फायदा? क्या यह विवेकशून्यता नहीं है? समस्याओं की इस श्रृंखला को जड़ से मिटाना होगा। यदि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है और तुम इसे दूर नहीं करते, यदि तुम तब तक प्रतीक्षा करना चाहते हो जब तक कि तुम मुसीबत में न पड़ जाओ या इसे दूर करने के चक्कर में मुसीबत खड़ी न कर बैठो, तो तुम इस नुकसान की भरपाई कैसे करोगे? क्या यह बाद में विचार करना नहीं है? इसलिए, भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को पूरी तरह से हल करने के लिए तुम्हें तभी सत्य खोजना होगा जब वह पहली बार सामने आए। तुम्हें शुरू में ही भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कर लेना चाहिए, ताकि सुनिश्चित हो सके कि कोई गलती न हो और भविष्य में परेशानियाँ खड़ी न हों। यदि भ्रष्ट स्वभाव जड़ जमा ले और वह किसी का विचार या दृष्टिकोण बन जाए, तो फिर वह इंसान को बुराई करने के लिए निर्देशित कर सकेगा। इसलिए, आत्म-चिंतन और आत्म-ज्ञान का मुख्य उद्देश्य भ्रष्ट स्वभाव का पता लगाना और उसे हल करने के लिए शीघ्रता से सत्य की खोज करना है। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारी प्रकृति में क्या चीजें हैं, तुम्हें क्या पसंद है, तुम्हारा क्या लक्ष्य है और तुम क्या हासिल करना चाहते हो। ये जानने के लिए कि क्या ये चीजें परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हैं, तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार इन चीजों का विश्लेषण करना चाहिए और यह समझना चाहिए कि ये गलत क्यों हैं। इन चीजों को समझकर, तुम्हें विवेक की अनियमितता की समस्या अर्थात तर्कहीनता की समस्या को हल करना चाहिए। यह केवल भ्रष्ट स्वभाव की समस्या नहीं है, बल्कि विवेक की कमी की समस्या है। विशेष रूप से जहाँ लोगों के हित जुड़े हों, हितों से अभिभूत लोग विवेकहीन हो सकते हैं। यह एक मानसिक समस्या है और यह लोगों की घातक कमजोरी भी है। कुछ लोगों को लगता है कि उनमें कुछ काबिलियत और हुनर है, अलग दिखने के लिए वे हमेशा अगुआ बनना चाहते हैं, इसलिए वे परमेश्वर से उनका उपयोग करने की याचना करते हैं। यदि परमेश्वर उनका उपयोग नहीं करता, तो वे कहते हैं, “परमेश्वर मुझ पर कृपा क्यों नहीं कर रहा? परमेश्वर, अगर कुछ महत्वपूर्ण करने के लिए तुम मेरा इस्तेमाल करोगे, तो मैं तुम्हारे लिए खुद को खपाने का वादा करता हूँ!” क्या इस तरह का इरादा सही है? परमेश्वर के लिए खुद को खपाना अच्छी बात है, लेकिन परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की इच्छा के पीछे उनकी अपनी मंशाएँ होती हैं। वास्तव में वे अपनी हैसियत से प्यार करते हैं और इसी पर उनका ध्यान होता है। यदि लोग वास्तव में आज्ञाकारी हों, तो वे पूरे मन से परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हैं चाहे वह उनका उपयोग करे या न करे, वे परमेश्वर के लिए खुद को खपा सकते हैं चाहे उनके पास हैसियत हो या न हो। ऐसे लोगों को ही विवेकशील और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी माना जा सकता है। परमेश्वर के लिए खुद को खपाने को तैयार होना अच्छी बात है और परमेश्वर भी ऐसे लोगों का उपयोग करने को तैयार रहता है, लेकिन यदि वे सत्य से युक्त नहीं हैं, तो परमेश्वर किसी भी तरह उनका उपयोग नहीं कर सकता। यदि लोग सत्य के लिए प्रयास और सहयोग करने के इच्छुक हैं, तो एक प्रारंभिक चरण होना चाहिए। लोगों को जब सत्य की समझ हो जाती है और वे परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं तभी परमेश्वर औपचारिक रूप से उनका उपयोग कर सकता है। अभ्यास का यह चरण अपरिहार्य है। आज सभी अगुआ और कार्यकर्ता अभ्यास के इसी चरण में हैं। जब उन्हें जीवन का अनुभव हो जाएगा और वे सिद्धांत के अनुसार कार्य करने लगेंगे, तब वे परमेश्वर द्वारा उपयोग के लायक हो जाएँगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 385

एक सृजित प्राणी का अपने सृष्टिकर्ता के प्रति जो एकमात्र दृष्टिकोण होना चाहिए, वह है आज्ञाकारिता का, ऐसी आज्ञाकारिता जो बिना शर्त हो। यह ऐसी चीज़ है, जिसे आज कुछ लोग स्वीकार करने में असमर्थ हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और उसमें सत्य की वास्तविकता नहीं है। जब परमेश्वर ऐसी चीजें करता है जो तुम्हारी धारणाओं से उलट होती है, तो अगर तुम्हारे परमेश्वर को गलत समझने की संभावना है—तुम परमेश्वर की अवज्ञा कर सकते हो और उससे मुँह तक मोड़ सकते हो—तो फिर तुम परमेश्वर का आज्ञापालन कर पाने से बहुत दूर हो। हालाँकि मनुष्य को परमेश्वर के वचन द्वारा पोषण और सिंचन प्रदान किया जाता है, फिर भी मनुष्य वास्तव में एक ही लक्ष्य के लिए प्रयास कर रहा है, जो अंततः परमेश्वर के प्रति बिना शर्त पूर्ण समर्पण करने में सक्षम होना है, जिस बिंदु पर तुम, एक सृजित प्राणी के आवश्यक मानक तक पहुँच चुके होगे। कई बार ऐसा भी होता है जब परमेश्वर जानबूझकर तुम्हारी धारणाओं से उलट चीजें करता है, और जानबूझकर ऐसी चीजें करता है जो तुम्हारी इच्छा के विपरीत होती हैं, और जो सत्य और मानवीय भावनाओं के भी विपरीत प्रतीत हो सकती हैं, और तुम्हें नागवार लग सकती हैं; इन चीजों को स्वीकार करना तुम्हारे लिए मुश्किल हो सकता है, तुम उनका कोई मतलब नहीं समझ पाते, और चाहे तुम उनका कैसे भी विश्लेषण करो, तुम्हें वे गलत प्रतीत हो सकती हैं और शायद तुम उन्हें स्वीकार न कर पाओ, तुम्हें ऐसा लग सकता है कि परमेश्वर का ऐसा करना अनुचित था—पर दरअसल परमेश्वर ने यह जानबूझकर किया होता है। तो फिर ऐसी चीजें करने के पीछे परमेश्वर का क्या लक्ष्य होता है? यह तुम्हारी परीक्षा लेने और तुम्हें उजागर करने के लिए होता है, यह देखने के लिए कि तुम सत्य की खोज करने में सक्षम हो या नहीं, कि तुम सचमुच परमेश्वर के आज्ञाकारी हो या नहीं। परमेश्वर जो सब करता और अपेक्षा करता है, उसका कोई आधार न खोजो, उसका कारण न पूछो। परमेश्वर के साथ तर्क करने का कोई लाभ नहीं है। तुम्हें बस यह स्वीकार करना है कि परमेश्वर सत्य है, और तुम्हें पूर्ण आज्ञाकारिता में सक्षम होना है। तुम्हें यह स्वीकार करना है कि परमेश्वर तुम्हारा सृष्टिकर्ता और तुम्हारा परमेश्वर है। यह हर तर्क-वितर्क से ऊपर है, हर सांसारिक ज्ञान से ऊपर है, हर मानवीय नैतिकता, संहिता, विशेषज्ञता, फलसफे या पारंपरिक संस्कृति से ऊपर है—यह मानवीय भावनाओं, मानवीय धार्मिकता और तथाकथित मानवीय प्रेम से भी ऊपर है। यह हर चीज से ऊपर है। अगर यह तुम्हें स्पष्ट नहीं है तो देर-सवेर तुम्हारे साथ कुछ होगा और तुम गिर पड़ोगे। और कुछ नहीं तो तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर दोगे और भटकाव की राह पर चले जाओगे; अगर तुम आखिर में प्रायश्चित करने में सफल रहते हो, और परमेश्वर की मनोहरता को पहचान लेते हो, अपने अंदर परमेश्वर के कार्य के महत्व को पहचान लेते हो, तब भी तुम्हारे उद्धार की उम्मीद बाकी रहेगी—पर अगर तुम इसकी वजह से गिर पड़ते हो और वापस उठ नहीं पाते, तो तुम्हारे लिए कोई उम्मीद नहीं है। परमेश्वर लोगों का न्याय करे, उन्हें ताड़ना दे, शाप दे, ये सब उन्हें बचाने के लिए हैं, और उन्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें किस चीज से डरना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के ऐसा कहने से डरना चाहिए, “मैं तुमसे घृणा करता हूँ और तुम्हें अस्वीकार करता हूँ।” अगर परमेश्वर ऐसा कहता है तो तुम मुसीबत में हो : इसका मतलब है कि परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा, और तुम्हारे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। और इसलिए, परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने में लोगों को परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए। तुम कुछ भी करो, पर परमेश्वर के वचनों में मीन-मेख निकालते हुए यह न कहो, “न्याय और ताड़ना ठीक हैं, पर निंदा, शाप और विनाश—क्या इनका मतलब यह नहीं कि मेरे लिए सब खत्म हो चुका है? परमेश्वर का प्राणी होने का क्या अर्थ है? मैं अब से तुम्हारा प्राणी नहीं और तुम मेरे परमेश्वर नहीं होगे।” अगर तुम परमेश्वर को नकार दोगे, अपनी गवाही में डटकर नहीं खड़े रहोगे, तो परमेश्वर तुम्हें सचमुच अस्वीकार कर देगा। क्या तुम लोग यह जानते हो? लोग चाहे कितने ही समय से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हों, उन्होंने चाहे कितने ही रास्ते तय किए हों, कितना ही काम किया हो, कितने ही कर्तव्य निभाए हों, इस अवधि में उन्होंने जो कुछ भी किया है वह सब एक चीज की तैयारी के लिए है। वह क्या है? वे अंतत: परमेश्वर के प्रति संपूर्ण आज्ञाकारिता, बिना शर्त आज्ञाकारिता दिखाने में सक्षम होने की तैयारी करते रहे हैं। “बिना शर्त” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम कोई सफाई नहीं देते, और अपने वस्तुनिष्ठ कारणों की कोई बात नहीं करते, इसका अर्थ है कि तुम बाल की खाल नहीं निकालते; तुम परमेश्वर के प्राणी हो, तुम ऐसा करने के योग्य नहीं हो। जब तुम परमेश्वर के साथ बाल की खाल निकालते हो तो तुम अपनी जगह नहीं पहचान पाते, और जब तुम परमेश्वर के साथ तर्क करने की कोशिश करते हो—तो एक बार फिर तुम अपनी जगह नहीं पहचान पाते। परमेश्वर के साथ बहस मत करो, हमेशा कारण समझने की कोशिश न करो, आज्ञापालन से पहले समझने पर और समझ न आए तो आज्ञापालन न करने पर अड़े न रहो। जब तुम ऐसा करते हो तो तुम अपना स्थान पहचान नहीं पाते, जिसका मतलब है कि परमेश्वर के लिए तुम्हारी आज्ञाकारिता संपूर्ण नहीं है, यह सापेक्षिक और सशर्त आज्ञाकारिता है। वे लोग जो परमेश्वर के प्रति अपनी आज्ञाकारिता के लिए शर्तें रखते हैं, क्या परमेश्वर का सच्चा आज्ञापालन करने वाले लोग हैं? क्या तुम परमेश्वर से परमेश्वर की तरह व्यवहार कर रहे हो? क्या तुम परमेश्वर की सृष्टिकर्ता के रूप में आराधना करते हो? अगर नहीं, तो परमेश्वर तुम्हें अभिस्वीकृत नहीं करता। परमेश्वर के प्रति संपूर्ण और बिना शर्त आज्ञाकारिता हासिल करने के लिए तुम्हें क्या अनुभव करना चाहिए? और इसे कैसे अनुभव करना चाहिए? एक बात तो यह कि लोगों को परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए, उन्हें काट-छाँट और निपटारे को स्वीकार करना चाहिए। इसके साथ ही उन्हें परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करना चाहिए, और अपना कर्तव्य निभाते समय सत्य का अनुसरण करना चाहिए। उन्हें जीवन में प्रवेश और परमेश्वर की इच्छा को समझने से जुड़े सत्य के विभिन्न पहलुओं को समझना चाहिए। कई बार, यह लोगों की क्षमता से बाहर होता है, और उनमें सत्य को समझने के लिए ग्रहण करने की क्षमता की कमी होती है, और वे दूसरों के उनके साथ संगति करने या परमेश्वर द्वारा तैयार की गई विभिन्न स्थितियों से मिले सबक के बाद ही थोड़ा-बहुत समझ पाते हैं। पर तुम्हें यह बोध होना चाहिए कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की भावना होनी चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के साथ तर्क नहीं करना चाहिए या कोई शर्त नहीं रखनी चाहिए; परमेश्वर जो भी करता है वह वही होता है जो किया जाना चाहिए, क्योंकि वह सृष्टिकर्ता है; तुम परमेश्वर के एक प्राणी हो, और तुममें आज्ञाकारिता का रवैया होना चाहिए, तुम्हें हमेशा तर्क या शर्त की बात नहीं करनी चाहिए। अगर तुम्हारे अंदर आज्ञाकारिता के सबसे बुनियादी रवैये का भी अभाव है, और तुम परमेश्वर पर संदेह करने और उससे आशंकित होने की हद तक जा सकते हो, या अपने मन में यह सोच सकते हो, “मुझे यह देखना चाहिए कि क्या परमेश्वर मुझे सचमुच बचाएगा, कि क्या परमेश्वर सचमुच धार्मिक है। हर कोई कहता है कि परमेश्वर प्रेम है—तो ठीक है, मुझे यह देखना ही है कि परमेश्वर मेरे अंदर जो कुछ करता है उसमें क्या सचमुच प्रेम शामिल है, क्या यह सचमुच प्रेम है,” अगर तुम निरंतर यह जाँचते रहते हो कि परमेश्वर जो कुछ करता है वह तुम्हारी धारणाओं और रुचियों के अनुरूप है या नहीं, या जिसे तुम सत्य समझते हो उसके अनुरूप है या नहीं, तो तुम अपनी जगह नहीं पहचान पा रहे और तुम मुसीबत में हो : संभावना है कि तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर बैठोगे। आज्ञाकारिता से जुड़े सत्य बहुत अहम हैं, और किसी भी सत्य को सिर्फ दो-तीन वाक्यों में पूरी तरह और स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं किया जा सकता; वे सब लोगों की विभिन्न अवस्थाओं और भ्रष्टता से जुड़े हुए हैं। सत्य की वास्तविकता में प्रवेश एक या दो—या तीन या पाँच—वर्षों में हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिए बहुत-सी चीजों के अनुभव की, परमेश्वर के वचनों के बहुत-से न्याय और ताड़ना के अनुभव की, बहुत-सी काट-छाँट और निपटारे के अनुभव की, और अंतत: सत्य के अभ्यास की क्षमता हासिल करने की जरूरत होती है। इसके बाद ही सत्य का अनुसरण असरदार होगा, इसके बाद ही लोगों में सत्य की वास्तविकता आएगी। जिनके पास सत्य की वास्तविकता है, सिर्फ वही सच्चे अनुभव वाले लोग होते हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 386

परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते समय, चाहे तुम कितनी भी बार असफल हुए हो, गिरे हो, तुम्हारी काट-छाँट की गई हो या उजागर किए गए हो, ये बुरी चीजें नहीं हैं। भले ही तुम्हारी कैसी भी काट-छाँट या निपटारा किया गया हो, चाहे किसी अगुआ या कार्यकर्ता ने किया हो या तुम्हारे भाई-बहनों ने, ये सब अच्छी चीजें होती हैं। तुम्हें यह बात याद रखनी चाहिए : चाहे तुम्हें कितना भी कष्ट हो, तुम्हें असल में इससे लाभ होता है। कोई भी अनुभव वाला व्यक्ति इसकी पुष्टि कर सकता है। चाहे कुछ भी हो जाए, काट-छाँट, निपटारा और उजागर किया जाना हमेशा अच्छा होता है। यह कोई निंदा नहीं है। यह परमेश्वर का उद्धार है और तुम्हारे लिए स्वयं को जानने का सर्वोत्तम अवसर है। यह तुम्हारे जीवन अनुभव को गति दे सकता है। इसके बिना, तुम्हारे पास न तो अवसर होगा, न ही परिस्थिति, और न ही अपनी भ्रष्टता के सत्य की समझ तक पहुँचने में सक्षम होने के लिए कोई प्रासंगिक आधार होगा। अगर तुम सत्य को सचमुच समझते हो, और अपने दिल की गहराइयों में छिपी भ्रष्ट चीजों का पता लगाने में सक्षम हो, अगर तुम स्पष्ट रूप से उनकी पहचान कर सकते हो, तो यह अच्छी बात है, इससे जीवन में प्रवेश की एक बड़ी समस्या हल हो जाती है, और यह स्वभाव में बदलाव के लिए भी बहुत लाभदायक है। स्वयं को सही मायने में जानने में सक्षम होना, तुम्हारे लिए अपने तरीकों में बदलाव कर एक नया व्यक्ति बनने का सबसे अच्छा मौका है; तुम्हारे लिए यह नया जीवन पाने का सबसे अच्छा अवसर है। एक बार जब तुम सच में खुद को जान लोगे, तो तुम यह देख पाओगे कि जब सत्य किसी का जीवन बन जाता है, तो यह निश्चय ही अनमोल होता है, तुममें सत्य की प्यास होगी, तुम सत्य का अभ्यास करोगे और इसकी वास्तविकता में प्रवेश करोगे। यह कितनी बड़ी बात है! यदि तुम इस अवसर को थाम सको और ईमानदारी से मनन कर सको, तो कभी भी असफल होने या नीचे गिरने पर स्वयं के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकते हो, तब तुम नकारात्मकता और कमज़ोरी में भी फिर से खड़े हो सकोगे। एक बार जब तुम इस सीमा को लांघ लोगे, तो फिर तुम एक बड़ा कदम उठा सकोगे और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे।

यदि तुम परमेश्वर के शासन में विश्वास करते हो, तो तुम्हें यह विश्वास करना होगा कि हर दिन जो भी अच्छा-बुरा होता है, वो यूँ ही नहीं होता। ऐसा नहीं है कि कोई जानबूझकर तुम पर सख्त हो रहा है या तुम पर निशाना साध रहा है; यह सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और आयोजित है। परमेश्वर इन चीज़ों को किस लिए आयोजित करता है? यह तुम्हारी वास्तविकता प्रकट करने या तुम्हें उजागर करके बाहर निकालने के लिए नहीं है; तुम्हें उजागर करना अंतिम लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य तुम्हें पूर्ण बनाना और बचाना है। परमेश्वर तुम्हें पूर्ण कैसे बनाता है? वह तुम्हें कैसे बचाता है? वह तुम्हें तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से अवगत कराने और तुम्हें तुम्हारी प्रकृति, सार, तुम्हारे दोषों और कमियों से अवगत कराने से शुरुआत करता है। उन्हें साफ तौर पर समझकर और जानकर ही तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो और धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर सकते हो। यह परमेश्वर का तुम्हें एक अवसर प्रदान करना है। यह परमेश्वर की अनुकंपा है। तुम्हें यह जानना होगा कि इस अवसर को कैसे पाया जाए। तुम्हें परमेश्वर का विरोध नहीं करना चाहिए, उसके साथ लड़ाई में उलझना या उसे गलत नहीं समझना चाहिए। विशेष रूप से उन लोगों, घटनाओं और चीज़ों का सामना करते समय, जिनकी परमेश्वर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है, सदा यह मत सोचो कि चीजें तुम्हारे मन के हिसाब से नहीं हैं; हमेशा उनसे बच निकलने की मत सोचो, परमेश्वर को दोष मत दो या उसे गलत मत समझो। अगर तुम लगातार ऐसा कर रहे हो तो तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर रहे हो, और इससे तुम्हारे लिए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। ऐसी कोई भी समस्या आए जिसे तुम समझ न पाओ, तो तुम्हें समर्पण करना सीखना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी चाहिए। इस तरह, इससे पहले कि तुम जान पाओ, तुम्हारी आंतरिक स्थिति में एक बदलाव आएगा और तुम अपनी समस्या को हल करने के लिए सत्य की तलाश कर पाओगे। इस तरह तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर पाओगे। जब ऐसा होगा तो, तुम्हारे भीतर सत्य की वास्तविकता गढ़ी जायेगी, और इस तरह से तुम प्रगति करोगे और तुम्हारे जीवन की स्थिति का रूपांतरण होगा। एक बार जब ये बदलाव आएगा और तुममें सत्य की वास्तविकता होगी, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद होगा, और आध्यात्मिक कद के साथ जीवन आता है। यदि कोई हमेशा भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के आधार पर जीता है, तो फिर चाहे उसमें कितना ही उत्साह या ऊर्जा क्यों न हो, उसे आध्यात्मिक कद, या जीवन धारण करने वाला नहीं माना जा सकता है। परमेश्वर हर एक व्यक्ति में कार्य करता है, और इससे फर्क नहीं पड़ता है कि उसकी विधि क्या है, सेवा करने के लिए वो किस प्रकार के लोगों, चीज़ों या मामलों का प्रयोग करता है, या उसकी बातों का लहजा कैसा है, परमेश्वर का केवल एक ही अंतिम लक्ष्य होता है : तुम्हें बचाना। और वह तुम्हें कैसे बचाता है? वह तुम्हें बदलता है। तो तुम थोड़ी-सी पीड़ा कैसे नहीं सह सकते? तुम्हें पीड़ा तो सहनी होगी। इस पीड़ा में कई चीजें शामिल हो सकती हैं। सबसे पहले तो, जब लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार हैं, तो उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। जब परमेश्वर के वचन बहुत कठोर और मुखर होते हैं और लोग परमेश्वर के वचनों की गलत व्याख्या करते हैं—और धारणाएँ भी रखते हैं—तो यह भी पीड़ाजनक हो सकता है। कभी-कभी परमेश्वर लोगों की भ्रष्टता उजागर करने के लिए, और उनसे चिंतन करवाने के लिए कि वे खुद को समझें, उनके आसपास एक परिवेश बना देता है, और तब उन्हें कुछ पीड़ा भी होती है। कई बार जब लोगों की सीधी काट-छाँट, निपटारा और उन्हें उजागर किया जाता है, तब उन्हें पीड़ा सहनी ही चाहिए। यह ऐसा है, जैसे वे शल्यचिकित्सा से गुजर रहे हों—अगर कोई कष्ट नहीं होगा, तो कोई प्रभाव भी नहीं होगा। यदि जब भी तुम्हारी काट-छाँट होती है और किसी परिवेश द्वारा तुम्हें उजागर कर दिया जाता है, इससे तुम्हारी भावनाएँ जागती हैं और तुम्हारे अंदर जोश पैदा होता है, तो इस प्रक्रिया के माध्यम से तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करोगे और तुम्हारा आध्यात्मिक कद होगा। यदि, हर बार काटे-छांटे जाने, निपटारा किए जाने, और किसी परिवेश द्वारा उजागर किए जाने पर, तुम्हें थोड़ी-भी पीड़ा या असुविधा महसूस नहीं होती और कुछ भी महसूस नहीं होता, यदि तुम परमेश्वर के सामने उसकी इच्छा की तलाश नहीं करते, न प्रार्थना करते हो, न ही सत्य की खोज करते हो, तब तुम वास्तव में बहुत संवेदनहीन हो! यदि तुम्हारी आत्मा को कुछ महसूस नहीं होता, यदि इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, तो परमेश्वर तुममें कार्य नहीं करता। परमेश्वर कहेगा, “यह व्यक्ति ज़्यादा ही संवेदनहीन है, और बहुत गहराई से भ्रष्ट किया गया है। मैं चाहे जैसे उसे अनुशासित करूँ, उससे निपटूँ या उसे नियंत्रण में रखने की कोशिश करूँ, फिर भी मैं अभी तक उसके दिल को प्रेरित नहीं कर पाया हूँ, न ही मैं उसकी आत्मा को जगा पाया हूँ। यह व्यक्ति परेशानी में पड़ेगा; इसे बचाना आसान न होगा।” यदि परमेश्वर तुम्हारे लिए विशेष परिवेशों, लोगों, चीज़ों और वस्तुओं की व्यवस्था करता है, यदि वह तुम्हारी काट-छाँट और तुम्हारे साथ व्यवहार करता है और यदि तुम इससे सबक सीखते हो, यदि तुमने परमेश्वर के सामने आना सीख लिया है, तुमने सत्य की तलाश करना सीख लिया है, अनजाने में, प्रबुद्ध और रोशन हुए हो और तुमने सत्य को प्राप्त कर लिया है, यदि तुमने इन परिवेशों में बदलाव का अनुभव किया है, पुरस्कार प्राप्त किए हैं और प्रगति की है, यदि तुम परमेश्वर की इच्छा की थोड़ी-सी समझ प्राप्त करना शुरू कर देते हो और शिकायत करना बंद कर देते हो, तो इन सबका मतलब यह होगा कि तुम इन परिवेशों के परीक्षण के बीच में अडिग रहे हो, और तुमने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। इस तरह से तुमने इस कठिन परीक्षा को पार कर लिया होगा। इम्तिहान में खरे उतरने वालों को परमेश्‍वर किस नज़र से देखेगा? परमेश्‍वर कहेगा कि उनका हृदय सच्‍चा है और वे इस तरह का कष्‍ट सहन कर सकते हैं, और अंतर्मन में वे सत्‍य से प्रेम करते हैं और सत्‍य को पाना चाहते हैं। अगर परमेश्‍वर का तुम्‍हारे बारे में ऐसा आकलन है, तो क्‍या तुम कद-काठी वाले नहीं हो? फिर क्‍या तुम में जीवन नहीं है? और यह जीवन कैसे प्राप्‍त हुआ है? क्या यह परमेश्‍वर द्वारा प्रदत्त है? परमेश्वर तुम्हें कई तरह से आपूर्ति करता है और तुम्हें प्रशिक्षित करने के लिए विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का इस्तेमाल करता है। यह बिल्कुल ऐसा जैसे परमेश्‍वर खुद तुम्हें भोजन और जल प्रदान कर रहा हो, खुद खाने की विभिन्न वस्तुएँ तुम तक पहुँचा रहा हो ताकि तुम पेट भरकर खाओ और आनंदित रहो; तभी तुम मजबूती से खड़े हो सकते हो। इसी तरह से तुम्हें चीजों का अनुभव करना और समझना चाहिए; इसी तरह से तुम्हें परमेश्‍वर के पास से आने वाली हर चीज के प्रति समर्पित होना चाहिए। तुम्‍हारे पास इसी प्रकार की मनोदशा और रवैया होना चाहिए, और तुम्‍हें सत्‍य खोजना सीखना चाहिए। तुम्‍हें अपनी परेशानियों के लिए हमेशा बा‍हरी कारण नहीं खोजते रहना चाहिए और दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए, न ही लोगों में गलतियाँ खोजनी चाहिए; तुम्‍हें परमेश्‍वर की इच्छा की स्पष्ट समझ होनी चाहिए। बाहर से, ऐसा लग सकता है कि कुछ लोगों की तुम्‍हारे बारे में धारणाएं हैं या पूर्वाग्रह हैं, लेकिन तुम्‍हें इस रूप में चीज़ों को नहीं देखना चाहिए। अगर तुम इस तरह के दृष्टिकोण से चीज़ों को देखोगे, तो तुम केवल बहाने बनाओगे, और तुम कुछ भी प्राप्‍त नहीं कर सकोगे। तुम्‍हें चीज़ों को वस्‍तुगत ढंग से देखना चाहिए; और परमेश्वर से सब कुछ स्वीकार करना चाहिए। जब तुम चीजों को इस तरीके से देखते हो तो तुम्हारे लिए परमेश्वर के कार्य का आज्ञापालन करना आसान हो जाता है, और तुम सत्य को पाने और परमेश्वर की इच्छा को समझने में सक्षम हो जाते हो। जब तुम्‍हारे दृष्टिकोण और मनोदशा का परिशोधन हो जाएगा, तब तुम सत्‍य को प्राप्‍त कर सकोगे। तो, तुम ऐसा कर क्यों नहीं देते? तुम प्रतिरोध क्‍यों करते हो? अगर तुम प्रतिरोध करना बंद कर दोगे, तुम सत्‍य प्राप्‍त कर लोगे। अगर तुम प्रतिरोध करोगे, तब तुम कुछ भी प्राप्‍त नहीं कर सकोगे, और तुम परमेश्‍वर की भावनाओं को चोट पहुंचाओगे और उसे निराश करोगे। परमेश्‍वर क्यों निराश होगा? क्योंकि तुम सत्य नहीं स्वीकारते, तुम्हें उद्धार की कोई आशा नहीं होती, और परमेश्वर तुम्हें ग्रहण नहीं कर पाता, तो वह निराश कैसे नहीं होगा? जब तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते हो तो यह खुद परमेश्वर द्वारा तुम्हें परोसे गए भोजन को दूर हटाने के समान होता है। तुम कहते हो कि तुम्हें भूख नहीं है और तुम्हें इसकी जरूरत नहीं है; परमेश्‍वर तुम्‍हें खाने के लिए बार-बार प्रोत्साहित करने की कोशिश करता है, लेकिन तुम फिर भी खाना नहीं चाहते। इसके बजाय तुम भूखे रहना पसंद करोगे। तुम सोचते हो कि तुम्‍हारा पेट भरा है, जबकि वास्‍तव में तुम्‍हारे पास बिल्कुल कुछ भी नहीं है। ऐसे लोगों में समझ का बहुत अभाव होता है, और वे बहुत दंभी होते हैं; कोई अच्छी देखकर वे पहचान नहीं पाते कि वह अच्छी है, वे सभी लोगों में सबसे अधिक दरिद्र और दयनीय होते हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, मामलों और चीज़ों से सीखना चाहिए

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 387

अपने कार्य में, कलीसिया के अगुवाओं और कार्यकर्ताओं को दो सिद्धांतों पर ध्यान अवश्य देना चाहिए : एक यह कि उन्हें ठीक कार्य प्रबंधनों के द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार ही कार्य करना चाहिए, उन सिद्धांतों का कभी भी उल्लंघन नहीं करना चाहिए, और अपने कार्य को अपने विचारों या ऐसी किसी भी चीज़ के आधार पर नहीं करना चाहिए जिसकी वे कल्पना कर सकते हैं। जो कुछ भी वे करें, उन्हें कलीसिया के कार्य के लिए परवाह दिखानी चाहिए, और हमेशा परमेश्वर के घर के हित सबसे पहले रखने चाहिए। दूसरी बात, जो बेहद अहम है, वह यह है कि जो कुछ भी वे करें उसमें पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन का पालन करने के लिए ध्यान अवश्य केन्द्रित करना चाहिए, और हर काम परमेश्वर के वचनों का कड़ाई से पालन करते हुए करना चाहिए। यदि वे अभी भी पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के विरुद्ध जा सकते हैं, या वे जिद्दी बनकर अपने विचारों का पालन करते हैं और अपनी कल्पना के अनुसार कार्य करते हैं, तो उनके कृत्य को परमेश्वर के प्रति एक अति गंभीर विरोध माना जाएगा। प्रबुद्धता और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से निरंतर मुँह फेरना उन्हें केवल बंद गली की ओर ले जाएगा। यदि वे पवित्र आत्मा के कार्य को गँवा देते हैं, तो वे कार्य नहीं कर पाएँगे, और यदि वे कार्य करने का प्रबंध कर भी लेते हैं, तो वे कुछ पूरा नहीं कर पाएँगे। कार्य करते समय दो मुख्य सिद्धांत यह हैं जिनका पालन अगुआओं और कार्यकर्ताओ को करना चाहिए : एक है कार्य को ऊपर से प्राप्त कार्य प्रबंधनों के अनुसार सटीकता से करना, और साथ ही ऊपर से तय किये गए सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना। और दूसरा सिद्धांत है, पवित्र आत्मा द्वारा अंतर में दिये गए मार्गदर्शन का पालन करना। जब एक बार इन दोनों सिद्धांतों को अच्छी तरह से समझ लेंगे, तो वे आसानी से गलतियाँ नहीं करेंगे। कलीसिया का कार्य करने में तुम लोगों का अनुभव अभी भी सीमित है, जब तुम काम करते हो, तो वह बुरी तरह से तुम्हारे विचारों से दूषित होता है। कभी-कभी, हो सकता है कि तुम पवित्र आत्मा से आए, अपने भीतर के प्रबोधन और मार्गदर्शन को न समझ पाओ; और कभी, ऐसा लगता है कि तुम इसे समझ गये हो परन्तु संभव है कि तुम इसकी अनदेखी कर दो। तुम हमेशा मानवीय रीति से सोचते या निष्कर्ष निकालते हो, जैसा तुम्हें उचित लगता है वैसा करते हो और पवित्र आत्मा के इरादों की बिल्कुल भी परवाह नहीं करते हो। तुम अपने विचारों के अनुसार अपना कार्य करते हो, और पवित्र आत्मा के प्रबोधन को एक किनारे कर देते हो। ऐसी स्थितियां अक्सर होती हैं। पवित्र आत्मा का आन्तरिक मार्गदर्शन बिल्कुल भी लोकोत्तर नहीं है; वास्तव में यह बिल्कुल ही सामान्य है। यानी, अपने दिल की गहराई में तुम जानते हो कि कार्य करने का यही उपयुक्त और सर्वोत्तम तरीका है। ऐसा विचार वास्तव में बहुत ही स्पष्ट है; यह गंभीर सोच का परिणाम नहीं है, और कभी-कभी तुम पूरी तरह से नहीं समझ पाते कि तुम्हें इस तरह से कार्य क्यों करना चाहिए। यह पवित्र आत्मा का प्रबोधन ही होता है। ऐसा अक्सर अनुभवी लोगों के साथ होता है। पवित्र आत्मा वह करने के लिए तुम्हारा मार्गदर्शन करता है, जो सर्वाधिक उपयुक्त होता है। तुम इस बारे में नहीं सोचते, बल्कि तुम्हारे मन में ऐसा भाव आता है जो तुम्हें यह एहसास कराता है कि इसे करने का यही बेहतरीन तरीका है, और तुम कारण जाने बिना ही उसे उस ढंग से करना पसंद करते हो। यह पवित्र आत्मा से आ सकता है। इंसान के अपने विचार अक्सर सोचने-विचारने का परिणाम होते हैं और उनमें उनका मत शामिल होता है; वे केवल यही सोचते हैं कि इससे उन्हें क्या लाभ और फायदा है; इंसान जो भी कार्य करने का निर्णय लेता है, उसमें ये बातें होतीं हैं। लेकिन पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में ऐसी कोई मिलावट नहीं होती। पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और प्रबोधन पर सावधानीपूर्वक ध्यान देना बहुत आवश्यक है; विशेषकर तुम्हें मुख्य विषयों में बहुत सावधान रहना होगा ताकि इन्हें समझा जा सके। ऐसे लोग जो अपना दिमाग लगाना पसंद करते हैं, जो अपने विचारों पर ही कार्य करना पसंद करते हैं, बहुत संभव है कि वे ऐसे मार्गदर्शन और प्रबोधन में चूक जाएँ। उपयुक्त अगुआ और कर्मी ऐसे लोग होते हैं जिनमें पवित्र आत्मा का कार्य होता है, जो हर पल पवित्र आत्मा के कार्य पर ध्यान देते हैं, जो लोग पवित्र आत्मा की आज्ञा का पालन करते हैं, परमेश्वर का भय मानते हैं, परमेश्वर की इच्छा के प्रति सजग रहते हैं और बिना थके सत्य खोजते हैं। परमेश्वर को सन्तुष्ट करने के लिये और सही ढंग से उसकी गवाही देने के लिये तुम्हें अक्सर अपनी मंशाओं और अपने कर्तव्य में मिलावटी तत्वों पर आत्मचिंतन करना चाहिए, और फिर यह देखने का प्रयास करना चाहिये कि कार्य इंसानी विचारों से कितना प्रेरित है, और कितना पवित्र आत्मा के प्रबोधन से उत्पन्न हुआ है, और कितना परमेश्वर के वचन के अनुसार है। तुम्हें निरन्तर और सभी परिस्थितियों में अपनी कथनी और करनी पर विचार करते रहना चाहिये कि वे सत्य के अनुरूप हैं या नहीं। अक्सर इस तरह का अभ्यास करना तुम्हें परमेश्वर की सेवा के लिये सही रास्ते पर ले जाएगा। परमेश्वर के इरादों के अनुरूप उसकी सेवा करने के लिए, सत्य की वास्तविकताओं का होना आवश्यक है। सत्य को समझकर ही लोग भेद करने के काबिल बनते हैं और वे यह पहचानने के योग्य होते हैं कि उनके अपने विचारों से क्या उत्पन्न होता है और इंसानी मंशाओं से क्या उत्पन्न होता है। वे मानवीय अशुद्धता को पहचानने के योग्य हो जाते हैं, और यह भी पहचान पाते हैं कि सत्य के अनुसार कार्य करना क्या होता है। भेद कर पाने के बाद ही वे निश्चित हो सकते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर सकते और पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हो सकते हैं। सत्य की समझ के बिना लोगों के लिए भेद कर पाना असंभव है। एक नासमझ व्यक्ति शायद आजीवन परमेश्वर पर विश्वास करे, लेकिन यह नहीं समझ पाता कि अपनी भ्रष्टता को प्रकट करने का क्या अर्थ होता है या परमेश्वर का विरोध करने का क्या अर्थ होता है, क्योंकि वह सत्य नहीं समझता; उसके मन में वह विचार ही मौजूद नहीं है। सत्य बेहद निम्न क्षमता के लोगों की पहुँच से बाहर होता है; तुम उनके साथ किसी भी प्रकार से संगति करो, फिर भी वे नहीं समझते। ऐसे लोग संभ्रमित होते हैं। इस प्रकार के संभ्रमित लोग परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकते; वो छोटी-मोटी सेवा ही कर सकते हैं। अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अपने कर्तव्यों को अच्छे से निभाना है, तो उनकी क्षमता बहुत खराब नहीं होनी चाहिए। कम से कम, उनमें आध्यात्मिक चीजों की समझ होनी चाहिए और चीजों को विशुद्ध रूप से प्राप्त कर पाना चाहिए, ताकि वे आसानी से सत्य समझकर उसका अभ्यास कर सकें। कुछ लोगों का अनुभव बहुत उथला होता है, इसलिए कभी-कभी उनकी सत्य की समझ में विचलन होता है और वे गलतियाँ कर बैठते हैं। जब उनकी सत्य की समझ में विचलन होता है, तो वे गलती करने की ओर प्रवृत्त रहते हैं। जब उनकी सत्य की समझ में विचलन होता है, तो वे सत्य का अभ्यास करने योग्य नहीं होते। जब उनकी सत्य की समझ में विचलन होता है, तो संभव है कि वे नियमों का पालन करें और जब वे नियमों का पालन करते हैं, तो गलतियाँ करना आसान होता है और वे सत्य के अभ्यास के योग्य नहीं होते। जब समझ में विचलन होता है, तो मसीह-विरोधियों के हाथों धोखा खाना और उनके द्वारा उपयोग किया जाना भी आसान होता है। इसलिए, समझ में विचलन की वजह से बहुत-सी गलतियाँ हो सकती हैं। इसके परिणामस्वरूप, वे न केवल अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने में असफल हो जाएंगे, वे आसानी से भटक भी सकते हैं, जो परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को हानि पहुँचाता है। किसी का इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने का क्या मूल्य है? वे ऐसे लोग बन गए हैं जो बस कलीसिया के काम को बाधित और अस्तव्यस्त करते हैं। इन असफलताओं से सबक सीखना चाहिए। परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कार्य को करने के लिए, अगुआ और कार्यकर्ताओं को ये दो सिद्धांत समझने चाहिए : कर्तव्य निभाते समय ऊपर से दिए गये कार्य के प्रबंधनों का पालन कड़ाई से करना होगा, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार पवित्र आत्मा के किसी भी मार्गदर्शन पर ध्यान देना और उसका पालन करना होगा। जब इन दोनों सिद्धांतों को समझ लिया जाएगा, तभी कार्य प्रभावशाली होगा और परमेश्वर की इच्छा को सन्तुष्टि मिलेगीl

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 388

पतरस ने स्वयं को जानने का और यह देखने का प्रयत्न किया था कि परमेश्वर के वचनों के शुद्धिकरण से और परमेश्वर द्वारा उसके लिए उपलब्ध कराए गए विभिन्न परीक्षणों के भीतर उसमें क्या प्रकट हुआ था। जब वह वास्तव में खुद को समझने लगा, तो पतरस को एहसास हुआ कि मनुष्य कितनी गहराई तक भ्रष्ट हैं, वे परमेश्वर की सेवा करने की दृष्टि से कितने बेकार और अयोग्य हैं, और कि वे परमेश्वर के समक्ष जीने के लायक नहीं है। पतरस तब परमेश्वर के सामने दंडवत हो गया। इतना कुछ अनुभव करने के बाद, अंततः पतरस को लगा, “परमेश्वर को जानना सबसे मूल्यवान है! अगर मैं परमेश्वर को जानने से पहले मर गया, तो यह बहुत दयनीय होगा; परमेश्वर को जानना सबसे महत्त्वपूर्ण, सबसे अर्थपूर्ण बात है। यदि मनुष्य परमेश्वर को नहीं जानता, तो उसे जीने का हक नहीं है, वह पशु के समान ही है और उसके पास कोई जीवन नहीं है।” जब तक पतरस का अनुभव इस बिंदु तक पहुँचा, तब तक वह अपनी प्रकृति को जान गया था और उसने उसकी अपेक्षाकृत अच्छी समझ हासिल कर ली थी। हालाँकि वह शायद इसे उतनी अच्छी तरह नहीं समझा पाता जितनी स्पष्टता के साथ आजकल लोग समझाने में सक्षम होंगे, लेकिन वह निस्संदेह इस स्थिति में पहुँच गया था। इसलिए, सत्य न की खोज के मार्ग पर चलने और परमेश्वर से पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचनों के भीतर से अपने स्वभाव की गहरी समझ प्राप्त करने, और साथ ही अपनी प्रकृति के विभिन्न पहलुओं को समझने और शब्दों में उसका सटीक रूप से वर्णन करने, स्पष्ट और सादे ढंग से बोलने की जरूरत है। सही मायने में खुद को जानना यही है और केवल इसी तरीके से तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित परिणाम प्राप्त कर पाओगे। यदि तुम्हारा ज्ञान इस बिंदु तक नहीं पहुँचा है, फिर भी तुम खुद को समझने का दावा करते हो और कहते हो कि तुमने जीवन प्राप्त कर लिया है, तो क्या तुम केवल डींग नहीं मार रहे हो? तुम खुद को नहीं जानते, और न ही तुम यह जानते हो कि तुम परमेश्वर के सामने क्या हो, तुमने वास्तव में एक इंसान होने के मानक पूरे कर लिए हैं या नहीं, या तुम्हारे भीतर अभी भी कितने शैतानी तत्त्व हैं। तुम अभी भी इस बारे में अस्पष्ट हो कि तुम किससे संबंधित हो, और तुम्हारे पास कोई आत्म-ज्ञान नहीं है—फिर परमेश्वर के सामने तुम्हारे पास विवेक कैसे हो सकता है? जब पतरस जीवन की खोज कर रहा था, तो उसने खुद को समझने और अपने परीक्षणों के दौरान अपने स्वभाव को बदलने पर ध्यान केंद्रित किया, और उसने परमेश्वर को जानने का प्रयास किया। अंत में उसने सोचा, “लोगों को जीवन में परमेश्वर की समझ पाने की कोशिश करनी चाहिए; उसे जानना सबसे महत्त्वपूर्ण बात है। अगर मैं परमेश्वर को नहीं जानता, तो मरने पर मुझे शांति नहीं मिलेगी। परमेश्वर को जान लेने के बाद, अगर वह मुझे मरने देता है, तो मैं सर्वाधिक कृतज्ञ महसूस करूँगा। मैं जरा भी शिकायत नहीं करूँगा, और मेरा पूरा जीवन सफल हो चुका होगा।” पतरस समझ का यह स्तर हासिल करने या इस बिंदु पर पहुँचने में परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू करने के तुरंत बाद ही सक्षम नहीं हो गया था; बल्कि वह बहुत परीक्षणों से गुजरा। परमेश्वर को जानने का मूल्य समझ सकने से पहले उसके अनुभव को एक निश्चित मील-पत्थर तक पहुँचना पड़ा था, और उसे खुद को पूरी तरह से समझना पड़ा था। इसलिए, पतरस ने जो मार्ग अपनाया, वह सत्य का अनुसरण करने और पूर्ण किए जाने का मार्ग था। उसका विशिष्ट अभ्यास मुख्य रूप से इसी पहलू पर केंद्रित था।

परमेश्वर में अपनी आस्था में, अब तुम लोग किस मार्ग पर चल रहे हो? अगर तुम पतरस की तरह जीवन, अपनी समझ और परमेश्वर संबंधी ज्ञान की खोज नहीं करते, तो तुम पतरस के मार्ग पर नहीं चल रहे हो। इन दिनों, अधिकांश लोग इस तरह की स्थिति में हैं : आशीष प्राप्त करने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाना होगा और परमेश्वर के लिए कीमत चुकानी होगी। आशीष पाने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्याग देना चाहिए; मुझे उसके द्वारा सौंपा गया काम पूरा करना चाहिए, और मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से अवश्य निभाना चाहिए। इस दशा पर आशीष प्राप्त करने का इरादा हावी है, जो पूरी तरह से परमेश्वर से पुरस्कार पाने और मुकुट हासिल करने के उद्देश्य से अपने आपको उसके लिए खपाने का उदाहरण है। ऐसे लोगों के दिल में सत्य नहीं होता, और यह निश्चित है कि उनकी समझ केवल सिद्धांत के कुछ शब्दों से युक्त है, जिसका वे जहाँ भी जाते हैं, वहीं दिखावा करते हैं। उनका रास्ता पौलुस का रास्ता है। ऐसे लोगों का विश्वास निरंतर कठिन परिश्रम का कार्य है, और गहराई में उन्हें लगता है कि वे जितना अधिक करेंगे, परमेश्वर के प्रति उनकी निष्ठा उतनी ही अधिक सिद्ध होगी; वे जितना अधिक करेंगे, वह उनसे उतना ही अधिक संतुष्ट होगा; और जितना अधिक वे करेंगे, वे परमेश्वर के सामने मुकुट पाने के लिए उतने ही अधिक योग्य साबित होंगे, और उन्हें मिलने वाले आशीष उतने ही बड़े होंगे। वे सोचते हैं कि यदि वे पीड़ा सह सकें, उपदेश दे सकें और मसीह के लिए मर सकें, यदि वे अपने जीवन का त्याग कर सकें, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सभी कर्तव्य पूरे कर सकें, तो वे वो होंगे जिन्हें सबसे बड़े आशीष मिलते हैं, और उन्हें मुकुट प्राप्त होने निश्चित हैं। पौलुस ने भी यही कल्पना की थी और यही चाहा था। यही वह मार्ग है जिस पर वह चला था, और ऐसे ही विचार लेकर उसने परमेश्वर की सेवा करने का काम किया था। क्या इन विचारों और इरादों की उत्पत्ति शैतानी प्रकृति से नहीं होती? यह सांसारिक मनुष्यों की तरह है, जो मानते हैं कि पृथ्वी पर रहते हुए उन्हें ज्ञान की खोज करनी चाहिए, और उसे प्राप्त करने के बाद वे भीड़ से अलग दिखाई दे सकते हैं, पदाधिकारी बनकर हैसियत प्राप्त कर सकते हैं। वे सोचते हैं कि जब उनके पास हैसियत हो जाएगी, तो वे अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी कर सकते हैं और अपने व्यवसाय और पारिवारिक पेशे को समृद्धि के एक निश्चित स्तर पर ले जा सकते हैं। क्या सभी अविश्वासी इसी मार्ग पर नहीं चलते? जिन लोगों पर इस शैतानी प्रकृति का वर्चस्व है, वे अपने विश्वास में केवल पौलुस की तरह हो सकते हैं। वे सोचते हैं : “मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर सब-कुछ छोड़ देना चाहिए। मुझे परमेश्वर के समक्ष वफ़ादार होना चाहिए, और अंततः मुझे बड़े पुरस्कार और शानदार मुकुट मिलेंगे।” यह वही रवैया है, जो उन सांसारिक लोगों का होता है, जो सांसारिक चीजें पाने की कोशिश करते हैं। वे बिलकुल भी अलग नहीं हैं, और वे उसी प्रकृति के अधीन हैं। जब लोगों की शैतानी प्रकृति इस प्रकार की होगी, तो दुनिया में वे ज्ञान, शिक्षा, हैसियत प्राप्त करने और भीड़ से अलग दिखने की कोशिश करेंगे। यदि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे बड़े मुकुट और बड़े आशीष प्राप्त करने की कोशिश करेंगे। यदि परमेश्वर में विश्वास करते हुए लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो उनका इस मार्ग पर चलना निश्चित है। यह एक अडिग तथ्य है, यह एक प्राकृतिक नियम है। सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग जो मार्ग अपनाते हैं, वह पतरस के मार्ग से एकदम विपरीत होता है। तुम लोग फिलहाल किस मार्ग पर हो? हालाँकि तुमने पौलुस के मार्ग पर चलने की योजना नहीं बनाई होगी, लेकिन तुम्हारी प्रकृति ने यह तय कर दिया है कि तुम उसी मार्ग पर चल रहे हो, और न चाहते हुए भी तुम उसी दिशा में जा रहे हो। हालाँकि तुम पतरस के मार्ग पर चलना चाहते हो, लेकिन अगर तुम्हें यह स्पष्ट नहीं है कि यह कैसे करना है, तो तुम अनजाने में ही पौलुस के मार्ग पर चल दोगे : स्थिति की यही वास्तविकता है। इन दिनों वास्तव में पतरस के मार्ग पर कैसे चलना चाहिए? अगर तुम पतरस और पौलुस के मार्गों में अंतर न कर पाओ, या तुम उनसे बिलकुल परिचित नहीं हो, तो तुम पतरस के मार्ग पर चलने का चाहे कितना भी दावा करो, तुम्हारे वे शब्द बस खोखले ही हैं। पहले तो, तुम्हें इस बात का स्पष्ट पता होना चाहिए कि पतरस का मार्ग क्या है और पौलुस का मार्ग क्या है। जब तुम सचमुच समझ जाते हो कि पतरस का मार्ग ही जीवन के अनुसरण का मार्ग है, और वही पूर्णता का एकमात्र मार्ग है, तो तुम पतरस के मार्ग पर चल पाओगे, उसकी तरह अनुसरण कर पाओगे और उन सिद्धांतों का अभ्यास कर पाओगे जिनका अभ्यास उसने किया था। यदि तुम पतरस के मार्ग को नहीं समझते, तो तुम्हारे द्वारा लिए गए मार्ग का पौलुस का मार्ग होना निश्चित है, क्योंकि तुम्हारे लिए कोई दूसरा मार्ग नहीं होगा; तुम्हारे पास इस मामले में कोई विकल्प नहीं होगा। जो लोग सत्य नहीं समझते और जो उसका अनुसरण नहीं कर पाते, तो संकल्प के बावजूद, उन्हें पतरस के मार्ग पर चलना मुश्किल लगेगा। यह कहा जा सकता है कि यह परमेश्वर का अनुग्रह और उन्नयन है कि उसने अब तुम्हारे लिए उद्धार और पूर्णता का मार्ग प्रकट किया है। वही है जो पतरस के मार्ग पर तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा है। परमेश्वर के मार्गदर्शन और प्रबुद्धता के बिना कोई भी पतरस के मार्ग पर नहीं चल पाएगा, और पौलुस के विनाशकारी नक्शेकदम पर चलते हुए पौलुस के मार्ग पर आगे बढ़ना ही एकमात्र विकल्प होगा। उस समय पौलुस को यह नहीं लगा कि उस मार्ग पर चलना गलत है; वह पूरी तरह से मानता था कि यह सही है। उसने सत्य प्राप्त नहीं किया था, और उसके स्वभाव में कोई बदलाव आया था। वह खुद पर बहुत अधिक विश्वास करता था, और सोचता था कि उस तरह विश्वास करने में कोई समस्या नहीं है। आत्मविश्वास से भरकर और पूरी तरह से आश्वस्त होकर वह आगे बढ़ता रहा। उसे अंत तक होश नहीं आया। फिर भी वो यही सोचता रहा कि उसके लिए जीना ही मसीह है। इस प्रकार, पौलुस अंत तक उसी मार्ग पर चलता रहा, और अंततः जब उसे दंडित किया गया, तब तक उसके लिए सब-कुछ खत्म हो चुका था। पौलुस का मार्ग खुद को जानने का मार्ग नहीं था, स्वभाव में बदलाव लाने की खोज करने की तो बात ही छोड़ो। उसने कभी अपनी प्रकृति का विश्लेषण नहीं किया, न ही उसने इसका कोई ज्ञान प्राप्त किया कि वह क्या है। वह बस इतना जानता था कि वह यीशु के उत्पीड़न में मुख्य अपराधी है। लेकिन उसे अपनी प्रकृति की थोड़ी-सी भी समझ नहीं थी, और अपना काम खत्म करने के बाद पौलुस को लगा कि वह मसीह की तरह जी रहा है और उसे पुरस्कृत किया जाना चाहिए। पौलुस ने जो काम किया, वह केवल परमेश्वर के लिए प्रदान की गई सेवा थी। हालाँकि पौलुस को पवित्र आत्मा से कुछ प्रकाशन मिले थे, फिर भी व्यक्तिगत रूप से उसने सत्य या जीवन प्राप्त नहीं किया था। इसलिए उसे परमेश्वर द्वारा बचाया नहीं गया। बल्कि उसे परमेश्वर द्वारा दंडित किया गया। ऐसा क्यों कहा जाता है कि पतरस का मार्ग पूर्णता का मार्ग है? वह इसलिए, क्योंकि अपने अभ्यास में पतरस ने जीवन पर, परमेश्वर को जानने का प्रयास करने पर और खुद को जानने पर विशेष बल दिया। परमेश्वर के कार्य के अपने अनुभव से उसने खुद को जाना, मनुष्य की भ्रष्ट अवस्थाओं की समझ हासिल की, अपनी कमियों को जाना, और उस सबसे मूल्यवान चीज की खोज की, जिसका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। वह परमेश्वर से ईमानदारी से प्रेम कर पाया, उसने जाना कि परमेश्वर का ऋण कैसे चुकाया जाए, उसने कुछ सत्य हासिल किया, उसमें वह वास्तविकता थी जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है। अपने परीक्षणों के दौरान पतरस ने जो कुछ कहा, उन सबसे यह देखा जा सकता है कि वह निस्संदेह परमेश्वर की सबसे अधिक समझ रखने वाला व्यक्ति था। चूँकि उसे परमेश्वर के वचनों से इतना अधिक सत्य समझ में आ गया था, इसलिए उसका मार्ग और अधिक उज्ज्वल और परमेश्वर की इच्छा के और अधिक अनुरूप होता गया। यदि पतरस में यह सत्य न होता, तो उसने जो मार्ग अपनाया, वह इतना सही नहीं हो पाता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 389

पतरस कई वर्षों तक मेरे प्रति निष्ठावान था, किंतु वह कभी बड़बड़ाया नहीं और न ही उसे कोई शिकायत थी; यहाँ तक कि अय्यूब भी उसके बराबर नहीं था, और, युगों-युगों के दौरान सभी संत, पतरस से बहुत कमतर रहे हैं। उसने न केवल मुझे जानने की खोज की, बल्कि उस समय के दौरान मुझे जान भी पाया जब शैतान अपने कपटपूर्ण कुचक्र पूरे कर रहा था। इसके फलस्वरूप पतरस ने कई वर्षों तक सदैव मेरी इच्छा के अनुरूप रहते हुए मेरी सेवा की, और इसी कारण, वह शैतान द्वारा कभी शोषित नहीं किया गया था। पतरस ने अय्यूब की आस्था से सबक सीखे, साथ ही उसकी कमियों को भी स्पष्ट रूप से जाना। यद्यपि अय्यूब अत्यधिक आस्था से परिपूर्ण था, किंतु उसमें आध्यात्मिक क्षेत्र के विषयों के ज्ञान का अभाव था, इसलिए उसने कई वचन कहे जो वास्तविकता से मेल नहीं खाते थे; यह दर्शाता है कि अय्यूब का ज्ञान उथला था, और पूर्णता के अयोग्य था। इसलिए, पतरस ने हमेशा आत्मा की समझ प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित किया था, और हमेशा आध्यात्मिक क्षेत्र की गतिकी का अवलोकन करने पर ध्यान दिया था। परिणामस्वरूप, वह न केवल मेरी इच्छाओं के बारे में कुछ बातों को सुनिश्चित कर पाया, बल्कि उसे शैतान के कपटपूर्ण कुचक्रों का भी अल्पज्ञान था। इसके कारण, मेरे बारे में उसका ज्ञान युगों-युगों के दौरान किसी भी अन्य की अपेक्षा अधिकाधिक बढ़ता गया।

पतरस के अनुभव से, यह देख पाना कठिन नहीं है कि यदि मानव मुझे जानना चाहते हैं, तो उन्हें अपनी आत्माओं के भीतर ध्यानपूर्वक सोच-विचार करने पर ध्यान केंद्रित करना ही चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि तुम बाहर से मेरे प्रति एक निश्चित मात्रा में “समर्पित” रहो; यह चिंता का गौण विषय है। यदि तुम मुझे नहीं जानते हो, तो तुम जिस विश्वास, प्रेम और निष्ठा की बात करते हो वह सब केवल भ्रम हैं, वे व्यर्थ बकवाद हैं, और तुम निश्चित रूप से ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो मेरे सामने बड़ी-बड़ी डींगें हाँकता है किंतु स्वयं को भी नहीं जानता है। ऐसे में, तुम एक बार फिर शैतान के द्वारा फँसा लिए जाओगे और अपने आपको छुड़ा नहीं पाओगे; तुम तबाही के पुत्र और विनाश की वस्तु बन जाओगे। परंतु यदि तुम मेरे वचनों के प्रति उदासीन और बेपरवाह हो, तो तुम निस्संदेह मेरा विरोध करते हो। यह तथ्य है, और अच्छा होगा कि तुम आध्यात्मिक क्षेत्र के द्वार के आर-पार उन बहुत-सी और भिन्न-भिन्न आत्माओं को देखो जिन्हें मेरे द्वारा ताड़ना दी गई है। उनमें से कौन, मेरे वचनों के सम्मुख आने पर, निष्क्रिय, बेपरवाह और अस्वीकृति से भरा नहीं था? उनमें से कौन मेरे वचनों के बारे में दोषदर्शी नहीं था? उनमें से किसने मेरे वचनों में दोष ढूँढने की कोशिश नहीं की? उनमें से किसने मेरे वचनों का स्वयं को “बचाने” के लिए “रक्षात्मक हथियार” के रूप में उपयोग नहीं किया? उन्होंने मेरे वचनों की विषयवस्तु का उपयोग मुझे जानने के तरीक़े के रूप में नहीं, बल्कि खेलने के लिए मात्र खिलौनों की तरह किया। इसमें, क्या वे सीधे मेरा प्रतिरोध नहीं कर रहे थे? मेरे वचन कौन हैं? मेरा आत्मा कौन है? मैंने इतनी अधिक बार ऐसे प्रश्न तुम लोगों से पूछे हैं, फिर भी क्या कभी तुम लोग थोड़े भी उच्चतर और स्पष्ट हुए हो? क्या तुमने सच में कभी उनका अनुभव किया है? मैं तुम्हें एक बार फिर याद दिलाता हूँ : यदि तुम मेरे वचनों को नहीं जानते हो, न ही उन्हें स्वीकार करते हो, न ही उन्हें अभ्यास में लाते हो, तो तुम अपरिहार्य रूप से मेरी ताड़ना के लक्ष्य बनोगे! तुम निश्चित रूप से शैतान के शिकार बनोगे!

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 8

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 390

यद्यपि बहुत सारे लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन कुछ ही लोग समझते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप बनने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यद्यपि लोग “परमेश्वर” शब्द और “परमेश्वर का कार्य” जैसे वाक्यांशों से परिचित हैं, लेकिन वे परमेश्वर को नहीं जानते और उससे भी कम वे उसके कार्य को जानते हैं। तो कोई आश्चर्य नहीं कि वे सभी, जो परमेश्वर को नहीं जानते, उसमें अपने विश्वास को लेकर भ्रमित रहते हैं। लोग परमेश्वर में विश्वास करने को गंभीरता से नहीं लेते और यह सर्वथा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर में विश्वास करना उनके लिए बहुत अनजाना, बहुत अजीब है। इस प्रकार वे परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। दूसरे शब्दों में, यदि लोग परमेश्वर और उसके कार्य को नहीं जानते, तो वे उसके इस्तेमाल के योग्य नहीं हैं, और उसकी इच्छा पूरी करने के योग्य तो बिलकुल भी नहीं। “परमेश्वर में विश्वास” का अर्थ यह मानना है कि परमेश्वर है; यह परमेश्वर में विश्वास की सरलतम अवधारणा है। इससे भी बढ़कर, यह मानना कि परमेश्वर है, परमेश्वर में सचमुच विश्वास करने जैसा नहीं है; बल्कि यह मजबूत धार्मिक संकेतार्थों के साथ एक प्रकार का सरल विश्वास है। परमेश्वर में सच्चे विश्वास का अर्थ यह है : इस विश्वास के आधार पर कि सभी वस्तुओं पर परमेश्वर की संप्रभुता है, व्यक्ति परमेश्वर के वचनों और कार्यों का अनुभव करता है, अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करता है, परमेश्वर की इच्छा पूरी करता है और परमेश्वर को जान पाता है। केवल इस प्रकार की यात्रा को ही “परमेश्वर में विश्वास” कहा जा सकता है। फिर भी लोग परमेश्वर में विश्वास को अकसर बहुत सरल और हल्के रूप में लेते हैं। परमेश्वर में इस तरह विश्वास करने वाले लोग, परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ गँवा चुके हैं और भले ही वे बिलकुल अंत तक विश्वास करते रहें, वे कभी परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं करेंगे, क्योंकि वे गलत मार्ग पर चलते हैं। आज भी ऐसे लोग हैं, जो परमेश्वर में शब्दशः और खोखले सिद्धांत के अनुसार विश्वास करते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर में उनके विश्वास में कोई सार नहीं है और वे परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं कर सकते। फिर भी वे परमेश्वर से सुरक्षा के आशीषों और पर्याप्त अनुग्रह के लिए प्रार्थना करते हैं। आओ रुकें, अपने हृदय शांत करें और खुद से पूछें : क्या परमेश्वर में विश्वास करना वास्तव में पृथ्वी पर सबसे आसान बात हो सकती है? क्या परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ परमेश्वर से अधिक अनुग्रह पाने से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता है? क्या परमेश्वर को जाने बिना उसमें विश्वास करने वाले या उसमें विश्वास करने के बावजूद उसका विरोध करने वाले लोग सचमुच उसकी इच्छा पूरी करने में सक्षम हैं?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 391

मनुष्य ने जब पहली बार परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू किया था, तब से उसने क्या पाया है? तुमने परमेश्वर के बारे में क्या जाना है? परमेश्वर पर अपने विश्वास के कारण तुम कितने बदले हो? आज, तुम सभी लोग यह जानते हो कि परमेश्वर में मनुष्य का विश्वास सिर्फ आत्मा के उद्धार और देह के कल्याण के लिए नहीं है, और न ही यह परमेश्वर को प्रेम करने के माध्यम से उसके जीवन को समृद्ध बनाने इत्यादि के लिए है। वर्तमान स्थिति में, यदि तुम परमेश्वर से देह के कल्याण या क्षणिक आनंद के लिए प्रेम करते हो, तो भले ही, अंत में, परमेश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम अपने शिखर पर पहुँच जाए और तुम इससे ज़्यादा और कुछ न माँगो, लेकिन तुम्हारे द्वारा किया जाने वाला यह प्रेम अभी भी अशुद्ध प्रेम ही है, और यह परमेश्वर को प्रसन्न नहीं करता। जो लोग परमेश्वर के प्रति प्रेम का उपयोग अपने नीरस जीवन को समृद्ध बनाने और अपने हृदय के खालीपन को भरने के लिए करते हैं, वे उस तरह के लोग हैं जो आराम से जीने के लालची हैं, न कि वे, जो सच में परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हैं। इस प्रकार का प्रेम जबरदस्ती का प्रेम है, यह मानसिक संतुष्टि की खोज है, और परमेश्वर को इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। तो फिर, तुम्हारा प्रेम किस तरह का है? तुम परमेश्वर से किसलिए प्रेम करते हो? अभी तुम्हारे भीतर परमेश्वर के लिए कितना सच्चा प्रेम है? तुम लोगों में से अधिकांश का प्रेम उपर्युक्त प्रकार का है। इस प्रकार का प्रेम सिर्फ यथास्थिति बरकरार रख सकता है; यह अपरिवर्तनीयता प्राप्त नहीं कर सकता, न ही यह मनुष्य में जड़ें जमा सकता है। इस प्रकार का प्रेम सिर्फ ऐसे फूल की तरह होता है, जो खिलता है पर फल दिए बिना ही मुरझा जाता है। दूसरे शब्दों में, जब तुम परमेश्वर से इस तरीके से प्रेम कर लेते हो और तुम्हें इस मार्ग पर आगे ले जाने वाला कोई नहीं मिलता, तो तुम्हारा पतन हो जाएगा। यदि तुम परमेश्वर से सिर्फ परमेश्वर से प्रेम करने के समय ही प्रेम कर सकते हो, लेकिन बाद में तुम्हारा जीवन-स्वभाव अपरिवर्तित रहता है, तो फिर तुम अँधेरे के प्रभाव के कफन से बचने में असमर्थ रहोगे, और शैतान के बंधन और चालबाजी से खुद को मुक्त नहीं कर पाओगे। ऐसा कोई भी व्यक्ति परमेश्वर द्वारा पूरी तरह से प्राप्त नहीं किया जा सकता; अंततः उसकी आत्मा, प्राण और शरीर शैतान के ही रहेंगे। इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता। जो लोग परमेश्वर द्वारा पूरी तरह से प्राप्त नहीं किए जा सकते, वे सभी अपने मूल स्थान अर्थात् वापस शैतान के पास लौट जाएँगे, और वे परमेश्वर के दंड के अगले कदम को स्वीकार करने के लिए आग और गंधक की झील में डूब जाएँगे। परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाने वाले वे होते हैं, जो शैतान को त्याग देते हैं और उसके अधिकार-क्षेत्र से बच निकलते हैं। उन्हें राज्य के लोगों में आधिकारिक रूप से गिना जाता है। राज्य के लोग इसी तरह अस्तित्व में आते हैं। क्या तुम इस प्रकार के व्यक्ति बनना चाहते हो? क्या तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाना चाहते हो? क्या तुम शैतान के अधिकार-क्षेत्र से बचना और परमेश्वर के पास लौटना चाहते हो? अभी तुम शैतान के हो या राज्य के लोगों में गिने जाते हो? ये चीजें पहले से स्पष्ट होनी चाहिए और आगे किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विश्वासियों को क्या दृष्टिकोण रखना चाहिए

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 392

अतीत में, अनेक लोगों ने अनियंत्रित महत्वाकांक्षा और धारणाओं के साथ खोज की, उन्होंने अपनी आशाओं के परिणामस्वरूप खोज की। फिलहाल ऐसे मुद्दे एक तरफ़ रख देते हैं; अभी सबसे महत्वपूर्ण है अभ्यास का ऐसा तरीका खोजना, जो तुम लोगों में से प्रत्येक को परमेश्वर के सम्मुख सामान्य स्थिति बनाए रखने और धीरे-धीरे शैतान के प्रभाव की बेड़ियों से मुक्त होने में सक्षम करे, ताकि तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जा सको और पृथ्वी पर वैसे जियो, जैसे परमेश्वर तुमसे चाहता है। केवल इसी तरीके से तुम परमेश्वर के इरादे पूरे कर सकते हो। परमेश्वर में विश्वास तो बहुत लोग करते हैं, लेकिन वे न तो यह जानते हैं कि परमेश्वर क्या चाहता है और न ही यह कि शैतान क्या चाहता है। वे भेड़चाल चलते हुए उलझन भरे तरीके से विश्वास करते हैं, और इसलिए वे कभी एक सामान्य ईसाई जीवन नहीं जी पाए; इतना ही नहीं, उनके व्यक्तिगत संबंध भी कभी सामान्य नहीं रहे, परमेश्वर के साथ संबंध सामान्य होने की तो बात ही छोडो। इससे यह देखा जा सकता है कि मनुष्य की समस्याएँ और कमियाँ, और ऐसे दूसरे कारक जो परमेश्वर की इच्छा के आड़े आ सकते हैं, अनेक हैं। यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि मनुष्य अभी तक परमेश्वर में विश्वास करने के सही रास्ते पर नहीं आया है, न ही उसने मानव-जीवन के वास्तविक अनुभव में प्रवेश किया है। तो परमेश्वर में विश्वास करने के सही रास्ते पर आने का क्या अर्थ है? सही रास्ते पर आने का अर्थ है कि तुम हर वक्त परमेश्वर के सामने अपना हृदय शांत रख सकते हो और परमेश्वर के साथ सामान्य संवाद का आनंद ले सकते हो, इससे तुम्हें धीरे-धीरे यह पता लगने लगेगा कि मनुष्य में क्या कमी है और धीरे-धीरे परमेश्वर के बारे में अधिक गहरा ज्ञान होने लगेगा। इसके द्वारा तुम्हारी आत्मा प्रतिदिन नई अंतर्दृष्टि और प्रबुद्धता प्राप्त करती है; तुम्हारी लालसा बढ़ती है, तुम सत्य में प्रवेश करने की कोशिश करने लगते हो और हर दिन नया प्रकाश और नई समझ लेकर आता है। इस मार्ग पर चलकर तुम धीरे-धीरे शैतान के प्रभाव से मुक्त होते जाते हो और अपने जीवन में विकास करने लगते हो। ऐसे लोग सही रास्ते पर आ गए हैं। अपने वास्तविक अनुभवों का मूल्यांकन करो और उस मार्ग को जाँचो, जिसका तुमने परमेश्वर के विश्वास में अनुसरण किया है : जब तुम ऊपर किए गए वर्णन के बरक्स उन्हें पकड़ते हो, तो क्या तुम स्वयं को सही रास्ते पर पाते हो? तुम किन मामलों में शैतान की बेड़ियों और शैतान के प्रभाव से मुक्त हो चुके हो? यदि अभी तुम्हारा सही रास्ते पर आना बाकी है, तो शैतान के साथ तुम्हारे संबंध टूटे नहीं हैं। ऐसे में, क्या तुम्हारा परमेश्वर से प्रेम करने का प्रयास तुम्हें एक ऐसे प्रेम की ओर ले जाएगा, जो प्रामाणिक, अनन्य और शुद्ध हो? तुम कहते हो कि परमेश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम दृढ़ और हार्दिक है, फिर भी तुम शैतान की बेड़ियों से मुक्त नहीं हुए हो। क्या तुम परमेश्वर को मूर्ख बनाने की कोशिश नहीं कर रहे हो? यदि तुम ऐसी स्थिति प्राप्त करना चाहते हो, जिसमें परमेश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम बिना मिलावट के हो, और तुम परमेश्वर द्वारा पूरी तरह से प्राप्त किए जाना और राज्य के लोगों में गिने जाना चाहते हो, तो तुम्हें पहले खुद को परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते पर लाना होगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विश्वासियों को क्या दृष्टिकोण रखना चाहिए

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 393

सभी मनुष्यों के साथ एक आम समस्या यह है कि वे सत्य को समझते तो हैं लेकिन उसे अभ्यास में नहीं ला पाते। ऐसा इसलिए है कि एक तरफ वे इसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं हैं, तो दूसरी तरफ, उनकी सूझ-बूझ बहुत अपर्याप्त है; वे दैनिक जीवन की बहुत सारी कठिनाइयों के असली स्वरूप को देख नहीं पाते और नहीं जानते कि समुचित अभ्यास कैसे करें। चूँकि लोगों के अनुभव बहुत सतही हैं, उनकी क्षमता बेहद कमज़ोर है, सत्य की उनकी समझ सीमित है और वे दैनिक जीवन में आने वाली कठिनाइयों को हल करने में असमर्थ हैं। वे सिर्फ़ दिखावटी आस्था रखते हैं, और परमेश्वर को अपने रोज़मर्रा के जीवन में अंगीकार करने में असमर्थ हैं। तात्पर्य यह कि परमेश्वर परमेश्वर है, जीवन जीवन है, और मानो उनके जीवन के साथ परमेश्वर का कोई संबंध ही नहीं। ऐसा ही सभी सोचते हैं। इस तरह, यथार्थ में परमेश्वर में केवल विश्वास करने से ही वे परमेश्वर की पहुंच में नहीं आ जाते, और न ही उन्हें परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाता है। वास्तव में, ऐसा नहीं है कि परमेश्वर का वचन पूरी तरहअभिव्यक्त नहीं किया गया है, बल्कि उसके वचन को ग्रहण करने की लोगों की क्षमता ही बेहद सीमित है। कहा जा सकता है कि प्रायः कोई भी व्यक्ति परमेश्वर के मूल इरादों के अनुरूप नहीं चलता, बल्कि परमेश्वर में उनका विश्वास उनके अपने इरादों, पूर्व से चली आ रही उनकी अपनी धार्मिक अवधारणाओं, और कार्य करने के उनके अपने तरीकों पर आधारित होता है। कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो परमेश्वर के वचन को स्वीकार कर स्वयं में बदलाव लाते हैं और उसकी इच्छा के अनुसार कार्य करना शुरू करते हैं। बल्कि, वे अपनी ग़लत धारणाओं के साथ डटे रहते हैं। जब लोग परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करते हैं, तो वे धर्म के पारंपरिक नियमों के आधार पर ऐसा करते हैं, और उनका जीवन तथा दूसरों के साथ उनका व्यवहार पूरी तरह उनके अपने जीवन-दर्शन से संचालित होता है। कहा जा सकता है कि दस लोगों में से नौ के साथ ऐसा ही है। ऐसे लोग बहुत ही कम हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद कोई अलग योजना बनाते हैं और एक नई शुरुआत करते हैं। मानवजाति परमेश्वर के वचन को सत्य मानने में असफल रही है, या उसे सत्य के रूप में स्वीकार कर अभ्यास में नहीं ला सकी है।

उदाहरण के लिए, यीशु में विश्वास को ही लें। चाहे किसी ने अभी-अभी विश्वास करना शुरू किया हो या एक लम्बे समय से विश्वास करता आ रहा हो, इन सभी ने बस अपने भीतर मौजूद गुणों का उपयोग और प्राप्त क्षमताओं का प्रदर्शन किया। लोगों ने ये तीन शब्द “परमेश्वर में विश्वास” बस अपने जीवन में जोड़ लिए, लेकिन अपने स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं किया, और परमेश्वर में उनका विश्वास थोड़ा भी नहीं बढ़ा। उनकी तलाश न उत्साह से परिपूर्ण थी और न उदासीन। लोगों ने यह नहीं कहा कि वे अपने विश्वास को छोड़ देंगे, मगर उन्होंने अपना सब कुछ परमेश्वर को समर्पित भी नहीं किया। उन्होंने कभी परमेश्वर से सचुमच प्रेम किया ही नहीं, न ही कभी उसकी आज्ञा का पालन किया। परमेश्वर में उनका विश्वास असली और नकली का सम्मिश्रण था। अपने विश्वास के प्रति उनकी एक आंख खुली रही तो दूसरी बंद। वे अपने विश्वास को अभ्यास में लाने के प्रति गंभीर नहीं रहे। वे असमंजस की ऐसी ही स्थिति में बने रहे, और अंत में उन्हें एक संभ्रमित मौत का सामना करना पड़ा। इन सबके क्या मायने हैं? आज, व्यावहारिक परमेश्वर में विश्वास करने के लिए तुम्हें सही रास्ते पर कदम रखना होगा। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो तो तुम्हें सिर्फ़ परमेश्वर के आशीष की ही कामना नहीं करनी चाहिए, बल्कि परमेश्वर से प्रेम करने और परमेश्वर को जानने की कोशिश भी करनी चाहिए। परमेश्वर द्वारा प्रबुद्धता प्राप्त कर और अपनी व्यक्तिगत खोज के माध्यम से, तुम उसके वचनों को खा और पी सकते हो, परमेश्वर के बारे में सच्ची समझ विकसित कर सकते हो, और तुम परमेश्वर के प्रति एक सच्चा प्रेम अपने हृदयतल से आता महसूस कर सकते हो। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम बेहद सच्चा हो, और इसे कोई नष्ट नहीं कर सके या उसके लिए तुम्हारे प्रेम के मार्ग में कोई खड़ा नहीं हो सके, तब तुम परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में सही रास्ते पर हो। यह साबित करता है कि तुम परमेश्वर के हो, क्योंकि तुम्हारे हृदय पर परमेश्वर द्वारा कब्जा कर लिया गया है और अब कोई भी दूसरी चीज तुम पर कब्जा नहीं कर सकती है। तुम अपने अनुभव, चुकाए गए मूल्य, और परमेश्वर के कार्य के माध्यम से, परमेश्वर के लिए एक स्वेच्छापूर्ण प्रेम विकसित करने में समर्थ हो जाते हो। फिर तुम शैतान के प्रभाव से मुक्त हो जाते हो और परमेश्वर के वचन के प्रकाश में जीने लग जाते हो। तुम अंधकार के प्रभाव को तोड़ कर जब मुक्त हो जाते हो, केवल तभी यह माना जा सकता है कि तुमने परमेश्वर को प्राप्त कर लिया है। परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में, तुम्हें इस लक्ष्य की खोज की कोशिश करनी चाहिए। यह हर एक व्यक्ति का कर्तव्य है। किसी को भी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति दुविधा में नहीं रह सकते, और न ही इसे हल्के में ले सकते हो। तुम्हें हर तरह से और हर समय परमेश्वर के बारे में विचार करना चाहिए, और उसके लिए सब कुछ करना चाहिए। जब तुम कुछ बोलते या करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के घर के हितों को सबसे पहले रखना चाहिए। ऐसा करने से ही तुम परमेश्वर के हृदय को पा सकते हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें सत्य के लिए जीना चाहिए क्योंकि तुम्हें परमेश्वर में विश्वास है

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 394

परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में लोगों का सबसे बड़ा दोष यह है कि उनका विश्वास केवल शाब्दिक होता है, और परमेश्वर उनके रोजमर्रा के जीवन से पूरी तरह अनुपस्थित होता है। दरअसल सभी लोग परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास तो करते हैं, लेकिन परमेश्वर उनके दैनिक जीवन का हिस्सा नहीं होता। परमेश्वर से बहुत सारी प्रार्थनाएँ लोग अपने मुख से तो करते हैं, किन्तु उनके हृदय में परमेश्वर के लिए जगह बहुत थोड़ी होती है, और इसलिए परमेश्वर बार-बार मनुष्य की परीक्षा लेता है। चूँकि मनुष्य अशुद्ध है, इसलिए परमेश्वर के पास मनुष्य की परीक्षा लेने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है, ताकि वह शर्मिंदगी महसूस करे और इन परीक्षाओं से गुजरते हुए स्वयं को पहचान ले। अन्यथा, मानवजाति प्रधान दूत की वंशज बन जाएगी, और निरंतर और भ्रष्ट होती जाएगी। परमेश्वर में अपने विश्वास की प्रक्रिया में, हर व्यक्ति अपने बहुत सारे व्यक्तिगत इरादे और उद्देश्य छोड़ता चलता है, जैसे-जैसे वह परमेश्वर के निरंतर शुद्धिकरण से गुजरता है। अन्यथा, परमेश्वर के पास किसी भी व्यक्ति को उपयोग में लाने का कोई रास्ता नहीं होगा, और न ही वह लोगों के लिए अपेक्षित कार्य ही कर पाएगा। परमेश्वर सबसे पहले मनुष्य को शुद्ध करता है। इस प्रक्रिया में, मनुष्य स्वयं को जान सकता है, और परमेश्वर मनुष्य को बदल सकता है। इसके बाद ही परमेश्वर मनुष्य को उसके जीवन में अपनी उपस्थिति का बोध कराता है, और सिर्फ़ इसी ढंग से मनुष्य के हृदय को पूरी तरह से परमेश्वर की ओर मोड़ा जा सकता है। इसलिए, मैं कहता हूं कि परमेश्वर में विश्वास करना इतना आसान नहीं है जितना कि लोग कहते हैं। परमेश्वर की दृष्टि में, यदि तुम्हारे पास सिर्फ़ ज्ञान है किन्तु जीवन के रूप में उसका वचन नहीं है; यदि तुम केवल स्वयं के ज्ञान तक ही सीमित हो, और सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते या परमेश्वर के वचन को जी नहीं सकते, तो यह भी एक प्रमाण है कि तुम्हारे पास परमेश्वर से प्रेम करने वाला हृदय नहीं है, और यह दर्शाता है कि तुम्हारा हृदय परमेश्वर का नहीं है। परमेश्वर में विश्वास करके ही उसे जाना जा सकता है : यह अंतिम लक्ष्य है, मनुष्य की तलाश का अंतिम लक्ष्य। तुम्हें परमेश्वर के वचन को जीने का प्रयास करना चाहिए ताकि अपने अभ्यास में तुम्हें उनकी अनुभूति हो सके। यदि तुम्हारे पास सिर्फ़ सैद्धांतिक ज्ञान है, तो परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास बेकार हो जाएगा। यदि तुम इसे अभ्यास में लाते हो और उसके वचन को जीते हो तभी तुम्हारा विश्वास पूर्ण और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप माना जाएगा। इस क्षेत्र में, बहुत सारे लोग ज्ञान के बारे में बहुत सारी बातें कर सकते हैं, लेकिन मृत्यु के समय, उनकी आँखें आँसुओं से भर जाती हैं और अपना संपूर्ण जीवन नष्ट कर देने और बुढ़ापे तक अपने जीवन की निरर्थकता के कारण वे स्वयं से घृणा करने लग जाते हैं। वे केवल सिद्धांत समझते हैं, लेकिन सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते, न परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं, इसके बजाय वे बस यहाँ-वहाँ, मधुमक्खी की तरह दौड़ते-भागते रहते हैं; मौत के कगार पर पहुँचने के बाद ही वे अंततः देख पाते हैं कि वे परमेश्वर के सच्चे गवाह नहीं हैं, वे परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते। क्या तब बहुत देर नहीं हो गई होती है? फिर तुम वर्तमान समय का लाभ क्यों नहीं उठाते और उस सत्य की खोज क्यों नहीं करते जिसे तुम प्रेम करते हो? कल तक का इंतज़ार क्यों? यदि जीवन में तुम सत्य के लिए कष्ट नहीं उठाते हो, या इसे प्राप्त करने की कोशिश नहीं करते हो, तो क्या तुम मरने के समय पछताना चाहते हो? यदि ऐसा है, तो फिर परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो? वास्तव में, व्यक्ति अगर थोड़ा भी प्रयास करे तो बहुत सारी ऐसी चीजें हैं जिनमें वह सत्य को अभ्यास में ला सकता है और इस तरह परमेश्वर को संतुष्ट कर सकता है। मनुष्य का हृदय निरंतर राक्षसों के कब्ज़े में रहता है और इसलिए वह परमेश्वर के वास्ते कार्य नहीं कर पाता। बल्कि, वह देह के लिए निरंतर इधर-उधर भटकता रहता है और अंत में उसे कुछ भी हासिल नहीं होता। यही कारण है कि मनुष्य निरंतर समस्याओं और कठिनाइयों से घिरा रहता है। क्या ये शैतान की यातनाएँ नहीं हैं? क्या यह देह का भ्रष्ट हो जाना नहीं है? केवल दिखावटी प्रेम करके तुम्हें परमेश्वर को मूर्ख बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। बल्कि, तुम्हें ठोस कदम उठाना चाहिए। खुद को धोखा मत दो—ऐसा करने से क्या फायदा? अपनी देह की इच्छाओं के वास्ते जी कर और लाभ तथा प्रसिद्धि के लिए संघर्ष कर तुम क्या प्राप्त कर लोगे?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें सत्य के लिए जीना चाहिए क्योंकि तुम्हें परमेश्वर में विश्वास है

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 395

अब तुम लोगों को परमेश्वर के जन बनने की कोशिश करनी है, और तुम सब इस पूरे प्रवेश को सही रास्ते पर शुरू करोगे। परमेश्वर के जन होने का अर्थ है, राज्य के युग में प्रवेश करना। आज तुम आधिकारिक तौर पर राज्य के प्रशिक्षण में प्रवेश शुरू कर रहे हो और तुम लोगों के भावी जीवन अब पहले की तरह सुस्त और लापरवाह नहीं रहेंगे; इस तरह जीते हुए परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानक हासिल करना असंभव है। यदि तुम्हें यह तत्काल करने की कोई ज़रूरत महसूस नहीं होती, तो यह दिखाता है कि तुम खुद को सुधारने की कोई आकांक्षा नहीं रखते, तुम्हारा अनुसरण अव्यवस्थित और भ्रमित है और तुम परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में असमर्थ हो। राज्य के प्रशिक्षण में प्रवेश करने का अर्थ है, परमेश्वर के लोगों के जीवन की शुरुआत—क्या तुम इस तरह का प्रशिक्षण स्वीकार करने के लिए तैयार हो? क्या तुम तात्कालिकता महसूस करने के लिए तैयार हो? क्या तुम परमेश्वर के अनुशासन में जीने के लिए तैयार हो? क्या तुम परमेश्वर की ताड़ना के तहत जीने के लिए तैयार हो? जब परमेश्वर के वचन तुम पर आएँगेऔर तुम्हारी परीक्षा लेंगे, तब तुम क्या करोगे? और जब सभी तरह के तथ्यों से तुम्हारा सामना होगा, तो तुम क्या करोगे? अतीत में तुम्हारा ध्यान जीवन पर केंद्रित नहीं था; आज तुम्हें जीवन की वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान देना चाहिए और अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश करनी चाहिए। यही है जो राज्य के लोगों द्वारा हासिल किया जाना चाहिए। वो सभी जो परमेश्वर के लोग हैं, उनके पास जीवन होना चाहिए, उन्हें राज्य के प्रशिक्षण को स्वीकार करना चाहिए और अपने जीवन स्वभाव में परिवर्तन लाने की कोशिश करनीचाहिए। परमेश्वर राज्य के लोगों से यही अपेक्षा रखता है।

राज्य के लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ अपेक्षाएं इस प्रकार हैं :

1. उन्हें परमेश्वर के आदेशों को अवश्य स्वीकार करना होगा। इसका अर्थ है, उन्हें आखिरी दिनों के परमेश्वर के कार्य के दौरान कहे गए सभी वचन स्वीकार करने होंगे।

2. उन्हें राज्य के प्रशिक्षण में अवश्य प्रवेश करना होगा।

3. उन्हें प्रयास करना होगा कि परमेश्वर उनके दिलों को स्पर्श करे। जब तुम्हारा दिल पूरी तरह से परमेश्वर उन्मुख होजाता है और तुम्हारा जीवन सामान्य रूप से आध्यात्मिक होता है, तो तुम स्वतंत्रता के क्षेत्र में रहोगे, जिसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर के प्रेम की देख-रेख और उसकी सुरक्षा में जिओगे। जब तुम परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में रहते हो, तभी तुम परमेश्वर के होते हो।

4. उन्हें परमेश्वर द्वारा प्राप्त होना होगा।

5. उन्हें पृथ्वी पर परमेश्वर की महिमा की अभिव्यक्ति बनना होगा।

ये पाँचबातें तुम सबके लिए मेरे आदेश हैं। मेरे वचन परमेश्वर के लोगों से कहे जाते हैं और यदि तुम इन आदेशों को स्वीकार करने के इच्छुकनहीं हो, तो मैं तुम्हें मजबूर नहींकरूँगा—लेकिन अगर तुम सचमुच उन्हें स्वीकार करते हो, तो तुम परमेश्वर की इच्छा पर चलने में सक्षम होंगे होगे। आज तुम सभी परमेश्वर के आदेश स्वीकार करना शुरू करो और राज्य के लोग बनने की कोशिश करो और राज्य के लोगों के लिए आवश्यक मानक हासिल करने का प्रयास करो। यह प्रवेश का पहला चरण है। यदि तुम पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा पर चलना चाहते हो, तो तुम्हें इन पाँचआदेशों को स्वीकार करना होगा और यदि तुम ऐसाकर पाने में सक्षम रहे, तो तुम परमेश्वर की इच्छा के मुताबिक होंगे और परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हारा महान उपयोग करेगा। आज जो अत्यंत महत्वपूर्ण है, वह हैराज्य के प्रशिक्षण में प्रवेश। राज्य के प्रशिक्षण में प्रवेश में आध्यात्मिक जीवन शामिल है। इससे पहले आध्यात्मिक जीवन की कोई बात नहीं होती थी लेकिन आज, जैसे ही तुम राज्य के प्रशिक्षण में प्रवेश करना शुरू करते हो, तुम आधिकारिक तौर पर आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करते हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करो

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 396

आध्यात्मिक जीवन किस तरह का जीवन है? आध्यात्मिक जीवन वह है, जिसमें तुम्हारा मन पूरी तरह से परमेश्वर उन्मुख हो चुका होता है और परमेश्वर के प्रेम के प्रति सचेत रहने में सक्षम हो जाता है। यह वह है, जिसमें तुम परमेश्वर के वचनों में रहते हो और तुम्हारे मन में और कुछ भी नहीं होता और तुम आज परमेश्वर की इच्छा समझ सकते हो और अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए पवित्र आत्मा के प्रकाश से मार्गदर्शन प्राप्त करते हो। मनुष्य और परमेश्वर के बीच ऐसा जीवन आध्यात्मिक जीवन है। यदि तुम आज के प्रकाश का अनुसरण करने में असमर्थ हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध में एक दूरी शुरू हो गई है-हो सकता है कि यह संबंध शायद टूट भी चुका हो—और तुम एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन से रहित हो गए हो। परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध आज परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करने की नींव पर बनता है। क्या तुम्हारा जीवन सामान्य आध्यात्मिक जीवन है? क्या परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो, जो पवित्र आत्मा के कार्य का अनुसरण करता है? यदि तुम आज पवित्र आत्मा के प्रकाश का अनुसरण कर सकते हो और परमेश्वर की इच्छा को उसके वचनों के भीतर समझ सकते हो और इन वचनों में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम वह व्यक्ति हो, जो पवित्र आत्मा के प्रवाह का अनुसरण करता है। यदि तुम पवित्र आत्मा के प्रवाह का अनुसरण नहीं करते, तो तुम निस्संदेह सच्चाई का अनुसरण नहीं करते। जो खुद को सुधारने की इच्छा नहीं रखते, पवित्र आत्मा के उनके भीतर काम करने की कोई संभावना नहीं है, और नतीजतन ऐसे लोग कभी अपनी ताकत को नहीं जगा पाते और हमेशा निष्क्रिय रहते हैं। क्या तुम आज पवित्र आत्मा के प्रवाह का अनुसरण करते हो? क्या तुम पवित्र आत्मा के प्रवाह में हो? क्या तुम निष्क्रिय स्थिति से बाहर निकल आए हो? वो सभी जो परमेश्वर के वचनों में विश्वास करते हैं, जो परमेश्वर के कार्य को आधार के रूप में लेते हैं और आज पवित्र आत्मा के प्रकाश का अनुसरण करते हैं—वे सभी पवित्र आत्मा के प्रवाह में हैं। यदि तुम मानते हो कि परमेश्वर के वचन निस्संदेह सच्चे और सही हैं, और यदि तुम्हारा परमेश्वर के वचनों में विश्वास है, चाहे वह जो भी कहे, तो तुम वह व्यक्ति हो, जो परमेश्वर के कार्य में प्रवेश की पूरी कोशिश करता है और इस तरह तुम परमेश्वर की इच्छा पूरी करते हो।

पवित्र आत्मा के प्रवाह में प्रवेशके लिए तुम्हारा परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध होना आवश्यक है और तुम्हें सबसे पहले अपनी निष्क्रिय स्थिति से छुटकारा पाना होगा। कुछ लोग हमेशा भीड़ के पीछे चलते हैं और उनके दिल परमेश्वर से बहुत दूर भटकजाता है; ऐसे लोगों को खुद को सुधारने की कोई इच्छा नहीं होती और जिन मानकों का वे अनुसरण करते है, वे काफ़ी निम्न होतेहैं। केवल परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश और परमेश्वर द्वारा प्राप्त किया जाना ही परमेश्वर की इच्छा है। कुछ लोग ऐसे हैं, जो परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए केवल अपने अंतःकरण का उपयोग करते हैं, लेकिन इससे परमेश्वर की इच्छा पूरी नहीं होती; जितने तुम्हारे मानक ऊँचेहोंगे, उतने ही वो परमेश्वर की इच्छा के साथ सामंजस्य में होंगे। एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो सामान्य है और जो परमेश्वर के प्रति प्रेम का अनुसरण करता है, परमेश्वर के जन बनने के लिए राज्य में प्रवेश करना ही तुम सबका असली भविष्य है और यह ऐसा जीवन है, जो अत्यंत मूल्यवान और सार्थक है; कोई भी तुम लोगों से अधिक धन्य नहीं है। मैं यह क्यों कहता हूँ? क्योंकि जो लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, वो देह के लिए जीते हैं और वो शैतान के लिए जीते हैं, लेकिन आज तुम लोग परमेश्वर के लिए जीते हो और परमेश्वर की इच्छा पर चलने के लिए जीवित हो। यही कारण है कि मैं कहता हूँ कि तुम्हारे जीवन अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। केवल इसी समूह के लोग, जिन्हें परमेश्वर द्वारा चुना गया है, अत्यंत महत्वपूर्ण जीवन जीने में सक्षम हैं : पृथ्वी पर और कोई इतना मूल्यवान और सार्थकजीवन नहीं जी सकता। क्योंकि तुम परमेश्वर द्वारा चुने और पाले-पोसे गए हो और इसके अलावा, तुम सबके लिए परमेश्वर के प्रेम के कारण तुम लोगों ने सच्चे जीवन को समझ लिया है और यह जानते हो कि ऐसा जीवन कैसे जीना है, जो अत्यंत मूल्यवान हो। ऐसा इसलिए नहीं कि तुम सबका अनुसरण उत्तम है, बल्कि यह परमेश्वर के अनुग्रह के कारण है; यह परमेश्वर ही था, जिसने तम्हारी आत्माओं की आँखें खोलीं, और यह परमेश्वर की आत्मा ही थी, जिसने तुम्हारे दिलों को छू लिया और इस प्रकार तुम सभी को परमेश्वर के सामने आने का सौभाग्य प्रदान किया। यदि परमेश्वर की आत्मा ने तुम्हें प्रबुद्ध न किया होता, तो परमेश्वर के बारे में क्या सुंदर है, यह देखने में तुम असमर्थ होते, न ही तुम्हारे लिए परमेश्वर से प्रेम करना संभव होता। यह पूरी तरह से परमेश्वर की आत्मा द्वारा लोगों के दिलों को छू लेने के कारण ही है कि उनके दिल परमेश्वर उन्मुख हो चुके हैं। कभी-कभी, जब तुम परमेश्वर के वचनों का आनंद ले रहे होते हो, तुम्हारी आत्मा द्रवित हो जाती है और तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर से प्रेम किए बिना नहीं रह सकते, कि तुम्हारे भीतर काफ़ी ताकत है और ऐसा कुछ नहीं जिसे तुम छोड़ नहीं सकते। यदि तुम ऐसा महसूस करते हो, तो परमेश्वर की आत्मा ने तुम्हें स्पर्श कर लिया है, और तुम्हारा दिल पूरी तरह से परमेश्वर उन्मुख हो चुका है और तुम परमेश्वर से प्रार्थना करोगे और कहोगे : “हे परमेश्वर! हम वास्तव में तुम्हारे द्वारा पूर्वनिर्धारित और चुने गए हैं। तुम्हारी महिमा में मुझे गौरव मिलता है, और तुम्हारे लोगों में से एक होना मुझे महिमामयलगता है। तुम्हारी इच्छा पर चलने के लिए मैं कुछ भी व्यय कर दूंगा और कुछ भी दे दूंगा और अपने सभी वर्ष और पूरे जीवन के प्रयासों को तुम्हें समर्पित कर दूंगा।” जब तुम इस तरह प्रार्थना करते हो, तो तुम्हारे दिल में परमेश्वर के प्रति अनंत प्रेम और सच्ची आज्ञाकारिता होगी। क्या तुम्हें कभी ऐसा अनुभव हुआ है? यदि लोगों को अक्सर परमेश्वर की आत्मा द्वारा छुआ जाता है, तो वो अपनी प्रार्थनाओं में खुद को परमेश्वर के प्रति विशेष रूप से समर्पित करने के इच्छुकहोते हैं : “हे परमेश्वर! मैं तुम्हारी महिमा का दिन देखना चाहता हूँ, और तुम्हारे लिए जीना चाहता हूँ—तुम्हारे लिए जीने के मुकाबले कुछ भी ज्यादा योग्य या सार्थक नहीं है और मेरी शैतान और देह के लिए जीने की ज़रा भी इच्छा नहीं है। तुम आज मुझे तुम्हारे लिए जीने हेतु सक्षम बनाकर मुझे ऊपर उठाओबड़ा करो।” जब तुमने इस तरह प्रार्थना की है, तो तुम्हें महसूस होगा कि तुम परमेश्वर को अपना दिल दिए बिना नहीं रह सकते, कि तुम्हें परमेश्वर को पाना चाहिए और तुम जब तक जीवित हो, परमेश्वर को पाए बिना मर जाने से नफ़रत करोगे। ऐसी प्रार्थना करने के बाद, तुम्हारे भीतर एक अक्षय ताकत आएगी और तुम नहीं जान पाओगे कि यह कहां से आती है; तुम्हारे हृदय के अंदर असीम शक्ति होगी और तुम्हें आभास होगा कि परमेश्वर बहुत सुंदर है, और वह प्रेम करने के योग्य है। यह तब होगा जब तुम परमेश्वर द्वारा छू लिए जा चुके होंगे। जिन सभी लोगों को इस तरह का अनुभव हुआ है, वो सभी परमेश्वर द्वारा छू लिए गए हैं। जिन लोगों को परमेश्वर अक्सर स्पर्श करता है, उनके जीवन में परिवर्तन होते हैं, वो अपने संकल्प को बनाने में सक्षम होते हैं और परमेश्वर को पूरी तरह से प्राप्त करने के लिए तैयार होते हैं, उनके दिल में परमेश्वर के लिए प्रेम अधिक मज़बूत होता है, उनके दिल पूरी तरह से परमेश्वर उन्मुख होचुके होते हैं, उन्हें परिवार, दुनिया, उलझनों या अपने भविष्य की कोई परवाह नहीं होती और वो परमेश्वर के लिए जीवन भर के प्रयासों को समर्पित करने के लिए तैयार होते हैं। वे सभी जिन्हें परमेश्वर कीआत्मा ने छुआ है, वो ऐसे लोग होते हैं, जो सत्य का अनुसरण करते हैं और जो परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने की आशा रखते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करो

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 397

परमेश्वर का अनुसरण करने में प्रमुख महत्व इस बात का है कि हर चीज़ आज परमेश्वर के वचनों के अनुसार होनी चाहिए : चाहे तुम जीवन प्रवेश का अनुसरण कर रहे हो या परमेश्वर की इच्छा की पूर्ति, सब कुछ आज परमेश्वर के वचनों के आसपास ही केंद्रित होना चाहिए। यदि जो तुम संवाद और अनुसरण करते हो, वह आज परमेश्वर के वचनों के आसपास केंद्रित नहीं है, तो तुम परमेश्वर के वचनों के लिए एक अजनबी हो और पवित्र आत्मा के कार्य से पूरी तरह से परे हो। परमेश्वर ऐसे लोग चाहता है जो उसके पदचिह्नों का अनुसरण करें। भले ही जो तुमने पहले समझा था वह कितना ही अद्भुत और शुद्ध क्यों न हो, परमेश्वर उसे नहीं चाहता और यदि तुम ऐसी चीजों को दूर नहीं कर सकते, तो वो भविष्य में तुम्हारे प्रवेश के लिए एक भयंकर बाधा होंगी। वो सभी धन्य हैं, जो पवित्र आत्मा के वर्तमान प्रकाश का अनुसरण करने में सक्षम हैं। पिछले युगों के लोग भी परमेश्वर के पदचिह्नों पर चलते थे, फिर भी वो आज तक इसका अनुसरण नहीं कर सके; यह आखिरी दिनों के लोगों के लिए आशीर्वाद है। जो लोग पवित्र आत्मा के वर्तमान कार्य का अनुसरण कर सकते हैं और जो परमेश्वर के पदचिह्नों पर चलने में सक्षम हैं, इस तरह कि चाहे परमेश्वर उन्हें जहाँ भी ले जाए वो उसका अनुसरण करते हैं—ये वो लोग हैं, जिन्हें परमेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त है। जो लोग पवित्र आत्मा के वर्तमान कार्य का अनुसरण नहीं करते हैं, उन्होंने परमेश्वर के वचनों के कार्य में प्रवेश नहीं किया है और चाहे वो कितना भी काम करें या उनकी पीड़ा जितनी भी ज़्यादा हो या वो कितनी ही भागदौड़ करें, परमेश्वर के लिए इनमें से किसी बात का कोई महत्व नहीं और वह उनकी सराहना नहीं करेगा। आज वो सभी जो परमेश्वर के वर्तमान वचनों का पालन करते हैं, वो पवित्र आत्मा के प्रवाह में हैं; जो लोग आज परमेश्वर के वचनों से अनभिज्ञ हैं, वो पवित्र आत्मा के प्रवाह से बाहर हैं और ऐसे लोगों की परमेश्वर द्वारा सराहना नहीं की जाती। वह सेवा जो पवित्र आत्मा के वर्तमान कथनों से जुदा हो, वह देह और धारणाओं की सेवा है और इसका परमेश्वर की इच्छा के अनुसार होना असंभव है। यदि लोग धार्मिक धारणाओंमें रहते हैं, तो वो ऐसा कुछ भी करने में असमर्थ होते हैं, जो परमेश्वर की इच्छा के अनुकूल हो और भले ही वो परमेश्वर की सेवा करें, वो अपनी कल्पनाओं और धारणाओं के घेरे में ही सेवा करते हैं और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार सेवा करने में पूरी तरह असमर्थ होते हैं। जो लोग पवित्र आत्मा के कार्य का अनुसरण करने में असमर्थ हैं, वो परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते और जो परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते, वो परमेश्वर की सेवा नहीं कर सकते। परमेश्वर ऐसी सेवा चाहता है जो इच्छाके मुताबिक हो; वह ऐसी सेवा नहीं चाहता, जो धारणाओं और देह की हो। यदि लोग पवित्र आत्मा के कार्य के चरणों का पालन करने में असमर्थ हैं, तो वो धारणाओं के बीच रहते हैं। ऐसे लोगों की सेवा बाधा डालती है और परेशान करती है और ऐसी सेवा परमेश्वर के विरुद्ध चलती है। इस प्रकार, जो लोग परमेश्वर के पदचिह्नों पर चलने में असमर्थ हैं, वो परमेश्वर की सेवा करने में असमर्थ हैं; जो लोग परमेश्वर के पदचिह्नों पर चलने में असमर्थ हैं, वो निश्चित रूप से परमेश्वर का विरोध करते हैं और वो परमेश्वर के साथ सुसंगत होने में असमर्थ हैं। “पवित्र आत्मा के कार्य का अनुसरण” करने का मतलब है आज परमेश्वर की इच्छा को समझना, परमेश्वर की वर्तमान अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने में सक्षम होना, आज के परमेश्वर का अनुसरण और आज्ञापालन करने में सक्षम होना और परमेश्वर के नवीनतम कथनों के अनुसार प्रवेश करना। केवल यही ऐसा है, जो पवित्र आत्मा के कार्य का अनुसरण करता है और पवित्र आत्मा के प्रवाह में है। ऐसे लोग न केवल परमेश्वर की सराहना प्राप्त करने और परमेश्वर को देखने में सक्षम हैं बल्कि परमेश्वर के नवीनतम कार्य से परमेश्वर के स्वभाव को भी जान सकते हैं और परमेश्वर के नवीनतम कार्य से मनुष्य की अवधारणाओं और अवज्ञा को, मनुष्य की प्रकृति और सार को जान सकते हैं; इसके अलावा, वो अपनी सेवा के दौरान धीरे-धीरे अपने स्वभाव में परिवर्तन हासिल करने में सक्षम होते हैं। केवल ऐसे लोग ही हैं, जो परमेश्वर को प्राप्त करने में सक्षम हैं और जो सचमुच में सच्चा मार्ग पा चुके हैं। जिन लोगों को पवित्र आत्मा के कार्य से हटा दिया गया है, वो लोग हैं, जो परमेश्वर के नवीनतम कार्य का अनुसरण करने में असमर्थ हैं और जो परमेश्वर के नवीनतम कार्य के विरुद्ध विद्रोह करते हैं। ऐसे लोग खुलेआम परमेश्वर का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि परमेश्वर ने नया कार्य किया है और क्योंकि परमेश्वर की छवि उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं है—जिसके परिणामस्वरूप वो परमेश्वर का खुलेआम विरोध करते हैं और परमेश्वर पर निर्णय देते हैं, जिसके नतीजे में परमेश्वर उनसे घृणा करता है और उन्हें अस्वीकार कर देता है। परमेश्वर के नवीनतम कार्य का ज्ञान रखना कोई आसान बात नहीं है, लेकिन अगर लोगों में परमेश्वर के कार्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के कार्य की तलाश करने का ज्ञान है, तो उन्हें परमेश्वर को देखने का मौका मिलेगा, और उन्हें पवित्र आत्मा का नवीनतम मार्गदर्शन प्राप्त करने का मौका मिलेगा। जो जानबूझकर परमेश्वर के कार्य का विरोध करते हैं, वो पवित्र आत्मा के प्रबोधन या परमेश्वर के मार्गदर्शन को प्राप्त नहीं कर सकते; इस प्रकार, लोग परमेश्वर का नवीनतम कार्य प्राप्त कर पाते हैं या नहीं, यह परमेश्वर के अनुग्रह पर निर्भर करता है, यह उनके अनुसरण पर निर्भर करता है और यह उनके इरादोंपर निर्भर करता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करो

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 398

वो सभी धन्य हैं जो पवित्र आत्मा के वर्तमान कथनों का पालन करने में सक्षम हैं। इस बात से कोई फ़र्कनहीं पड़ता कि वो कैसे हुआ करते थे या उनके भीतर पवित्र आत्मा कैसे कार्य कियाकरती थी—जिन्होंने परमेश्वर का नवीनतम कार्य प्राप्त किया है, वो सबसे अधिक धन्य हैं और जो लोग आज नवीनतम कार्य का अनुसरण नहीं कर पाते, हटा दिए जाते हैं। परमेश्वर उन्हें चाहता है जो नई रोशनी स्वीकार करने में सक्षम हैं और वह उन्हें चाहता है जो उसके नवीनतम कार्य को स्वीकार करते और जान लेते हैं। ऐसा क्यों कहा गया है कि तुम लोगों को पवित्र कुँवारी होना चाहिए? एक पवित्र कुँवारी पवित्र आत्मा के कार्य की तलाश करने में और नई चीज़ों को समझने में सक्षम होती है, और इसके अलावा, पुरानी धारणाओं को भुलाकर परमेश्वर के आज के कार्य का अनुसरण करने में सक्षम होती है। इस समूह के लोग, जो आज के नवीनतम कार्य को स्वीकार करते हैं, परमेश्वर द्वारा युगों पहले ही पूर्वनिर्धारित किए जा चुके थे और वो सभी लोगों में सबसे अधिक धन्य हैं। तुम लोग सीधे परमेश्वर की आवाज़ सुनते हो और परमेश्वर की उपस्थिति का दर्शन करते हो और इस तरह समस्त स्वर्ग और पृथ्वी परऔर सारे युगों में, कोई भी तुम लोगों, लोगों के इस समूह से अधिक धन्य नहीं रहा है। यह सब परमेश्वर के कार्य के कारण है, परमेश्वर के पूर्व-निर्धारण और चयन के कारण और परमेश्वर के अनुग्रह के कारण है; अगर परमेश्वर ने बात न की होती और अपने वचन नहीं कहे होते, तो क्या तुम लोगों की परिस्थितियाँ वैसी होतीं जैसी आज हैं? इस प्रकार, सभी महिमा और प्रशंसा परमेश्वर की हो क्योंकि यह सब इसलिए है क्योंकि परमेश्वर तुम्हेंऊपर उठाता है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए क्या तुम अभी भी निष्क्रिय रह पाओगे? क्या तुम्हारी शक्ति अभी भी ऊपर उठने लायक नहीं होगी?

तुम्हारा परमेश्वर केन्याय, ताड़ना, प्रहार और शब्द-शोधन को स्वीकार करने में सक्षम होना और इसके अलावा, परमेश्वर के आदेशों को स्वीकार कर पाना, युगों से पहले ही परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित कर दिया था और इस प्रकार जब तुम्हें ताड़ना दी जाए तो तुम्हें बहुत व्यथित नहीं होना चाहिए। तुम लोगों में जो कार्य किया गया है और तुम्हें जो आशीर्वाद दिए गए हैं, उन्हें कोई नहीं ले सकता और जो तुम लोगों को दिया गया है, वह कोई भी नहीं ले जा सकता। धार्मिकलोग तुम लोगों के साथ तुलना में नहीं ठहर सकते। तुम लोगों के पास बाइबल में महान विशेषज्ञता नहीं है और तुम धार्मिक सिद्धांतों से सुसज्जित नहीं हो, पर चूँकि परमेश्वर ने तुम्हारे भीतर कार्य किया है, तुमने सारे युगों में अन्य किसी से ज़्यादा प्राप्त किया है—और इसलिए यह तुम्हारा सबसे बड़ा आशीर्वाद है। इस कारण तुम सभी को परमेश्वर के प्रति और अधिक समर्पित और अधिक निष्ठावान होना चाहिए। क्योंकि परमेश्वर तुम्हें ऊपर उठाता है, तुम्हें अपने प्रयासों को बढ़ाना चाहिए, और परमेश्वर के आदेश स्वीकार करने के लिए अपने आध्यात्मिक कद को तैयार रखना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर द्वारा दी गई जगह परदृढ़ खड़ा होना चाहिए, परमेश्वर के लोगों में से एक बनने की कोशिश करना, राज्य के प्रशिक्षण को स्वीकार करना, परमेश्वर द्वारा प्राप्त होना और अंततः परमेश्वर की एक गौरवपूर्ण गवाही बनना चाहिए। क्या ये संकल्प तुम्हारे पास हैं? यदि तुम्हारे पास ऐसे संकल्प हैं, तो अंततः तुम निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाओगे, और परमेश्वर के लिए एक शानदार गवाही बन जाओगे। तुम्हें यह समझना चाहिए कि प्रमुख आदेश परमेश्वर द्वारा प्राप्त किया जाना है और परमेश्वर के लिए एक शानदार गवाही बन जाना है। यही परमेश्वर की इच्छा है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करो

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 399

पवित्र आत्मा के वचन आज पवित्र आत्मा के कार्य का गतिविज्ञान हैं और इस दौरान पवित्र आत्मा द्वारा मनुष्य का निरंतर प्रबोधन, पवित्र आत्मा के कार्य की प्रवृत्ति है। और आज पवित्र आत्मा के कार्य की प्रवृत्ति क्या है? यह आज परमेश्वर के कार्य और एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन में लोगों का नेतृत्व करना है। सामान्य आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने के कई चरण हैं :

1. सबसे पहले, तुम्हें अपने मन को परमेश्वर के वचनों में लगाना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के अतीत के वचनों का अनुसरण नहीं करना चाहिए और न तो उनका अध्ययन करना चाहिए और न आज के वचनों से उनकी तुलना करनी चाहिए। इसके बजाय, तुम्हें पूरी तरह से परमेश्वर के वर्तमान वचनों में अपना मन लगाना चाहिए। अगर ऐसे लोग हैं, जो अभी भी अतीत काल में परमेश्वर के वचन, आध्यात्मिक किताबें या दूसरे प्रवचनों के विवरण पढ़ना चाहते हैं, जो आज पवित्र आत्मा के वचनों का पालन नहीं करते, तो वो सभी लोगों में सबसे अधिक मूर्ख हैं; परमेश्वर ऐसे लोगों से घृणा करता है। यदि तुम आज पवित्र आत्मा का प्रकाश स्वीकार करना चाहतेहो, तो फिर अपने मन को आज परमेश्वर के कथनों में लगाओ। यह पहली चीज़ है, जो तुम्हें हासिल करनी है।

2. तुम्हें आज परमेश्वर के बोले गए शब्दों के आधार पर प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करना और परमेश्वर से संवाद करना चाहिए और परमेश्वर के समक्ष अपने संकल्प करने चाहिए, इसकी स्थापना करते हुए कि तुम किन मानकों को पूरा करने की कोशिश करना चाहते हो।

3. पवित्र आत्मा के आज के कार्य की नींव पर तुम्हें सच्चाई में गहरे प्रवेश का अनुसरण करना चाहिए। अतीत के पुराने कथनों और सिद्धांतों को मत थामे रहो।

4. तुम्हें पवित्र आत्मा द्वारा स्पर्श किए जाने की और परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करने की कोशिशकरनी चाहिए।

5. जिस पथ पर आज पवित्र आत्मा चलती है, तुम्हें उसी पथ पर प्रवेश का अनुसरण करना चाहिए।

और तुम पवित्र आत्मा द्वारा स्पर्श किए जाने की कोशिश कैसे करते हो? अत्यंत महत्वपूर्ण है परमेश्वर के वर्तमान वचनों में जीना और परमेश्वर की अपेक्षाओं की नींव पर प्रार्थना करना। इस तरह प्रार्थना कर चुकने के बाद, पवित्र आत्मा द्वारा तुम्हें स्पर्श करना निश्चित है। यदि तुम आज परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों की नींव के आधार पर कोशिशनहीं करते, तो यह व्यर्थ है। तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए और कहना चाहिए : “हे परमेश्वर! मैं तुम्हारा विरोध करता हूँ और मैं तुम्हारा बहुत ऋणी हूँ; मैं बहुत ही अवज्ञाकारी हूँ और तुम्हें कभी भी संतुष्ट नहीं कर सकता। हे परमेश्वर, मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे बचा लो, मैं अंत तक तुम्हारी सेवा करना चाहता हूँ, मैं तुम्हारे लिए मर जाना चाहता हूँ। तुम मुझे न्याय और ताड़ना देते हो और मुझे कोई शिकायत नहीं है; मैं तुम्हारा विरोध करता हूँ और मैं मर जाने लायक हूँ ताकि मेरी मृत्यु में सभी लोग तुम्हारा धार्मिक स्वभाव देख सकें।” जब तुम इस तरह अपने दिल से प्रार्थना करते हो, तो परमेश्वर तुम्हारी सुनेगा और तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा; यदि तुम आज पवित्र आत्मा के वचनों के आधारपर प्रार्थना नहीं करते, तो पवित्र आत्मा द्वारा तुम्हें छूने की कोई संभावना नहीं है। यदि तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुसार और आज परमेश्वर जो करना चाहते हैं, उसके अनुसार प्रार्थना करते हो, तो तुम कहोगे “हे परमेश्वर! मैं तुम्हारे आदेशों को स्वीकार करना चाहता हूँ और तुम्हारे आदेशों के प्रति निष्ठा रखना चाहता हूँ, और मैं अपना पूरा जीवन तुम्हारी महिमा को समर्पित करने के लिए तैयार हूँ ताकि मैं जो कुछ भी करता हूँ वह परमेश्वर के लोगों के मानकों तक पहुँच सके। काश मेरा दिल तुम्हारे स्पर्श को पा ले। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी आत्मा सदैव मेरा प्रबोधन करे ताकि मैं जो कुछ भी करूँ वह शैतान को शर्मिंदा करे ताकि मैं अंततः तुम्हारे द्वारा प्राप्त किया जाऊँ।” यदि तुम इस तरह प्रार्थना करते हो, परमेश्वर की इच्छा के आसपास केंद्रित रहकर, तो पवित्र आत्मा अपरिहार्य रूप से तुम में कार्य करेगी। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि तुम्हारी प्रार्थनाओं में कितने शब्द हैं—कुंजी यह है कि तुम परमेश्वर की इच्छा समझते हो या नहीं। तुम सभी के पास निम्नलिखित अनुभव हो सकता है : कभी-कभी किसीसभा में प्रार्थना करते समय, पवित्र आत्मा के कार्य का गति-सिद्धांत अपने चरम बिंदु तक पहुँच जाता है, जिससे सभी की ताकत बढ़ती है। परमेश्वर के सामने पश्चाताप से अभिभूत होकर कुछ लोग फूट-फूटकर रोते हैं और प्रार्थना करते हुए आँसू बहाते हैं, तो कुछ लोग अपना संकल्प दिखाते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं। पवित्र आत्मा के कार्य से प्राप्त होने वाला प्रभाव ऐसा है। आज यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि सभी लोग परमेश्वर के वचनों में पूरी तरह अपना मन लगाएँ। उन शब्दों पर ध्यान न दो, जो पहले बोले गए थे; यदि तुम अभी भी उसे थामे रहोगे जो पहले आया था, तो पवित्र आत्मा तुम्हारे भीतर कार्य नहीं करेगी। क्या तुम देखते हो कि यह कितना महत्वपूर्ण है?

क्या तुम सब उस मार्ग को जानते हो, जिस पर पवित्र आत्मा आज चलतीहै? ऊपर दी गई विभिन्न बातें वो हैं, जो पवित्र आत्मा द्वारा आज और भविष्य में पूरी की जानी हैं; यही वो मार्ग हैं जिन्हें पवित्र आत्मा ने अपनाया है और यही वह प्रवेश है जिसका मनुष्य को अनुसरण करना चाहिए। जीवन में तुम्हारे प्रवेश में, कम से कम तुम्हें अपने दिल को परमेश्वर के वचनों में लगाना चाहिए और परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए; तुम्हारा दिल परमेश्वर के लिए तड़पनाचाहिए, तुम्हें सच्चाई में और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित उद्देश्यों में गहरे प्रवेश का अनुसरण करना चाहिए। जब तुम्हारे पास यह शक्ति होती है, तो इससे पता चलता है कि परमेश्वर तुम्हारा स्पर्श कर चुका है और तुम्हारा दिल परमेश्वर उन्मुख होना शुरू हो चुका है।

जीवन में प्रवेश का पहला कदम पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों में अपना मन लगाना है और दूसरा कदम पवित्र आत्मा द्वारा स्पर्श किए जाने को स्वीकार करना है। वह क्या प्रभाव है, जो पवित्र आत्मा द्वारा स्पर्श किए जाने को स्वीकार करने से मिलना है? यह है एक गहरे सत्य के लिए तड़प, खोज और अन्वेषण करना और सकारात्मक तरीके से परमेश्वर के साथ सहयोग के लिए सक्षमहोना। आज तुम परमेश्वर के साथ सहयोग करते हो, जिसका अर्थ है कि तुम्हारी खोज, तुम्हारी प्रार्थनाओं और परमेश्वर के वचनों से तुम्हारे समागम का एक उद्देश्य है और तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य करते हो—केवल यही है परमेश्वर के साथ सहयोग करना। यदि तुम केवल परमेश्वर को कार्य करने देने की बात करते हो, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं करते, न प्रार्थना करते हो और न ही खोज, तो क्या इसे सहयोग कहा जा सकता है? यदि तुम्हारे भीतर सहयोग का अंश तक नहीं और प्रवेश के लिए एक ऐसे प्रशिक्षण का अभाव है जिसका एक उद्देश्य हो, तो तुम सहयोग नहीं कर रहे हो। कुछ लोग कहते हैं : “सब कुछ परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण पर निर्भर करता है, यह सब स्वयं परमेश्वर द्वारा किया जाता है; अगर परमेश्वर ने ऐसा नहीं किया तो मनुष्य कैसे कर सकता था?” परमेश्वर का कार्य सामान्य है और ज़रा भी अलौकिक नहीं है और यह केवल तुम्हारी सक्रिय खोज के माध्यम से ही पवित्र आत्मा कार्य करती है क्योंकि परमेश्वर मनुष्य को मजबूर नहीं करता—तुम्हें परमेश्वर को कार्य करने का अवसर देना चाहिए और यदि तुम अनुसरण या प्रवेश नहीं करते और अगर तुम्हारे दिल में थोड़ी-सी भी उत्कंठा नहीं है, तो परमेश्वर के लिए कार्य करने की कोई संभावना नहीं है। तुम किस मार्ग द्वारा परमेश्वर का स्पर्श हासिल करने की तलाश कर सकते हो? प्रार्थना के माध्यम से और परमेश्वर के करीब आकर। मगर याद रखो, सबसे महत्वपूर्ण बात है, यह परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों की नींव पर खड़ा होना चाहिए। जब तुम परमेश्वर द्वारा अक्सर छू लिए जाते हो, तो तुम शरीर के गुलाम नहीं बनते : पति, पत्नी, बच्चे और धन—ये सब तुम्हें बेड़ियों में बांधने में असमर्थ रहते हैं और तुम केवल सत्य का अनुसरण करना और परमेश्वर के समक्ष जीना चाहते हो। इस समय, तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे, जो स्वतंत्रता के क्षेत्र में रहता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करो

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 400

परमेश्वर ने मनुष्य को पूर्णता प्रदान करने का निश्चय कर लिया है। वह चाहे जिस दृष्टिकोण से भी बोलता हो, सारी बातें लोगों को संपूर्ण बनाने के लिए हैं। आत्मा के दृष्टिकोण से बोले गये वचन समझने में लोगों को कठिनाई होती है और उन्हें उनपर अमल करने का मार्ग नहीं मिलता, क्योंकि मनुष्य की ग्राह्यता सीमित है। परमेश्वर के कार्य के विभिन्न प्रभाव होते हैं और उसके कार्य के प्रत्येक चरण का एक उद्देश्य है। साथ ही उसे अनिवार्यतः अलग-अलग दृष्टिकोण से बात करनी होगी, क्योंकि ऐसा करने पर ही वह मनुष्य को पूर्ण बना सकता है। यदि वह केवल पवित्रात्मा के दृष्टिकोण से अपनी बात बोले, तो परमेश्वर के इस चरण के कार्य का पूरा होना संभव नहीं होगा। उसके बात करने के ढंग से तुम जान सकते हो कि वह लोगों के इस समूह को पूर्ण करने के लिये दृढ़-संकल्पित है। यदि तुम परमेश्वर के द्वारा पूर्ण बनाए जाने की इच्छा रखते हो, तो तुम्हें पहला कदम क्या उठाना चाहिए? सबसे पहले तुम्हें परमेश्वर के काम के बारे में जानना चाहिए। अब परमेश्वर के कार्यों में नए-नए साधनों का उपयोग किया जा रहा है, युग रूपांतरित हो गया है, परमेश्वर के काम करने का तरीका भी बदल गया है, और उसके बोलने का ढंग अलग है। वर्तमान में न केवल परमेश्वर के कार्य के साधन बदले हैं, बल्कि युग भी बदल गया है। अभी राज्य का युग है और यह परमेश्वर से प्रेम करने का युग भी है। यह सहस्राब्दिक राज्य के युग—जो कि वचन का युग भी है—का पूर्वदर्शन है, अर्थात वह युग जिसमें परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए बहुत सारे तरीकों से बोलता है और मनुष्य को आपूरित करने के लिए विभिन्न दृष्टिकोण से बोलता है। जैसे-जैसे समय सहस्राब्दिक राज्य के युग में बदलेगा, परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिये वचन का उपयोग करना आरंभ करेगा, मनुष्य को जीवन की वास्तविकता में प्रवेश के योग्य बनाएगा और उन्हें सही मार्ग पर लाएगा। मनुष्य ने परमेश्वर के कार्य के बहुत से चरणों का अनुभव किया है और यह देखा है कि परमेश्वर का कार्य बिना बदले नहीं रहता। बल्कि यह कार्य लगातार विकसित और गहरा होता जाता है। लोगों द्वारा इतने लंबे समय तक अनुभव करने के बाद, परमेश्वर के कार्य ने निरंतर परिक्रमा की है और उसमें बार-बार बदलाव आया है। हालाँकि परिवर्तन चाहे जितना भी हो, वह मानवजाति तक उद्धार लाने के परमेश्वर के उद्देश्य से कभी नहीं भटकता है। दस हजार परिवर्तनों से गुजरने के बाद भी वह अपने मूल उद्देश्य से कभी नहीं भटकता है। परमेश्वर के कार्य करने का तरीका चाहे जैसे भी बदले, यह काम कभी सत्य या जीवन से अलग नहीं होता। कार्य करने की विधि में परिवर्तन में केवल कार्य के प्रारूप और परमेश्वर के बोलने के दृष्टिकोण में परिवर्तन शामिल हैं, उसके कार्य के केन्द्रीय उद्देश्य में परिवर्तन नहीं आया है। बोलने के स्वर और कार्य के माध्यम या साधनों में परिवर्तन का उद्देश्य कार्य में प्रभावशीलता लाना है। आवाज़ के स्तर पर परिवर्तन का अर्थ कार्य के उद्देश्य या सिद्धांत में परिवर्तन नहीं है। परमेश्वर में विश्वास रखने में मनुष्य का मूल उद्देश्य जीवन की तलाश है। यदि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो परंतु जीवन या सत्य या परमेश्वर के ज्ञान की खोज नहीं करते, तब परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास नहीं है! और क्या यह उचित है कि तुम अभी भी राज्य में राजा बनने के लिये प्रवेश करना चाहते हो? जीवन की खोज द्वारा परमेश्वर के लिए सच्चे प्रेम को प्राप्त करना ही वास्तविकता है; सत्य की तलाश और सत्य का अभ्यास—यह सब वास्तविकता है। परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हुए और इन वचनों का अनुभव करते हुए, तुम वास्तविक अनुभव के द्वारा परमेश्वर के ज्ञान को प्राप्त करोगे। यही सच्चे अर्थ में अनुसरण करना है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, राज्य का युग वचन का युग है

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 401

अभी राज्य का युग है। तुमने इस नए युग में प्रवेश किया है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुमने वास्तव में परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश किया है या नहीं और उसके वचन तुम्हारे जीवन की वास्तविकता बन चुके हैं या नहीं। परमेश्वर का वचन सभी को बताया गया है ताकि सभी लोग अंत में, वचन के संसार में जिएँ और परमेश्वर का वचन प्रत्येक व्यक्ति को भीतर से प्रबुद्ध और रोशन कर देगा। यदि इस दौरान, तुम परमेश्वर के वचन को पढ़ने में लापरवाह हो और उसके वचन में तुम्हारी रुचि नहीं है तो यह दर्शाता है कि तुम्हारी स्थिति में गड़बड़ी है। यदि तुम वचन के युग में प्रवेश करने में असमर्थ हो तो पवित्र आत्मा तुम में कार्य नहीं करता है; यदि तुम इस युग में प्रवेश कर चुके हो तो वह तुम में अपना काम करेगा। पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करने के लिए तुम वचन के युग की शुरुआत में क्या कर सकते हो? इस युग में, और तुम लोगों के बीच परमेश्वर इन तथ्यों को पूरा करेगा : कि प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर के वचन को जिएगा, सत्य को अभ्यास में लाएगा और ईमानदारीपूर्वक परमेश्वर से प्रेम करेगा; कि सभी लोग परमेश्वर के वचन को नींव के रूप में और अपनी वास्तविकता के रूप में ग्रहण करेंगे, उनके हृदय में परमेश्वर के प्रति आदर होगा; और परमेश्वर के वचन का अभ्यास करके लोग परमेश्वर के साथ मिलकर राजसी शक्तियों का उपयोग करेंगे। यही कार्य परमेश्वर को संपन्न करना है। क्या तुम परमेश्वर के वचन को पढ़े बिना रह सकते हो? ऐसे बहुत से लोग हैं जो महसूस करते हैं कि वे एक-दो दिन भी परमेश्वर के वचन को बिना पढ़े नहीं रह सकते। उन्हें परमेश्वर का वचन प्रतिदिन पढ़ना आवश्यक है, और यदि समय न मिले तो वचन को सुनना काफी है। यही अहसास पवित्र आत्मा मनुष्य को प्रदान करता है, और इसी प्रकार वह मनुष्य को प्रेरित करना शुरू करता है। अर्थात पवित्र आत्मा वचन के द्वारा मनुष्य को नियंत्रित करता है ताकि वे परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में प्रवेश कर सकें। यदि परमेश्वर के वचन को केवल एक दिन भी बिना खाए-पिए तुम्हें अंधकार और प्यास का अनुभव हो, तुम्हें यह असह्य लगता हो, तब ये बातें दर्शाती हैं कि पवित्र आत्मा तुम्हें प्रेरित कर रहा है और वह तुमसे विमुख नहीं हुआ है। तब तुम इस धारा में हो। किंतु यदि परमेश्वर के वचन को खाए-पिए बिना एक या दो दिन के बाद, तुम्हें कोई अंतर महसूस न हो या तुम्हें प्यास महसूस न हो, तुम थोड़ा भी विचलित महसूस न करो तो यह दर्शाता है कि पवित्र आत्मा तुमसे विमुख हो चुका है। इसका अर्थ है कि तुम्हारी भीतरी दशा सही नहीं है; तुमने वचन के युग में प्रवेश नहीं किया है और तुम उन लोगों में से हो जो पीछे छूट गए हैं। परमेश्वर मनुष्यों को नियंत्रित करने के लिए वचन का उपयोग करता है; तुम जब वचन को खाते-पीते हो तो तुम्हें अच्छा महसूस होता है, यदि अच्छा महसूस नहीं होता है, तब तुम्हारे पास कोई मार्ग नहीं है। परमेश्वर का वचन मनुष्यों का भोजन और उन्हें संचालित करने वाली शक्ति बन जाता है। बाइबल में लिखा है, “मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है, जीवित रहेगा” (मत्ती 4:4)। यही वह कार्य है जो परमेश्वर आज संपन्न करेगा। वह तुम लोगों को इस सत्य का अनुभव कराएगा। ऐसा कैसे होता था कि प्राचीन समय में लोग परमेश्वर का वचन बिना पढ़े बहुत दिन रहते थे, पर खाते-पीते और काम करते थे? अब ऐसा क्यों नहीं होता? इस युग में परमेश्वर सब मनुष्यों को नियंत्रित करने के लिए मुख्य रूप से वचन का उपयोग करता है। परमेश्वर के वचन के द्वारा मनुष्य का न्याय किया जाता है, उन्हें पूर्ण बनाया जाता है और तब अंत में राज्य में ले जाया जाता है। केवल परमेश्वर का वचन मनुष्य को जीवन दे सकता है, केवल परमेश्वर का वचन ही मनुष्य को ज्योति और अभ्यास का मार्ग दे सकता है, विशेषकर राज्य के युग में। यदि तुम परमेश्वर के वचन को खाते-पीते हो और परमेश्वर के वचन की वास्तविकता को नहीं छोड़ते तो परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाने का कार्य कर पाएगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, राज्य का युग वचन का युग है

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 402

जीवन की खोज कोई जल्दबाजी की चीज़ नहीं है; जीवन में विकास एक या दो दिन में नहीं आता। परमेश्वर का कार्य सामान्य और व्यावहारिक है और इसे एक आवश्यक प्रक्रिया से गुजरना होता है। देहधारी यीशु को क्रूस पर अपने कार्य को समाप्त करने में तेंतीस वर्ष और छः माह लगे, तो मनुष्य को शुद्ध करने और उसका जीवन रूपांतरित करने की बात करना कितना सटीक होगा, जो कि अतिशय मुश्किल कार्य है? एक सामान्य व्यक्ति बनाना, जो परमेश्वर को अभिव्यक्त करता हो, आसान काम नहीं है। यह विशेष रूप से बड़े लाल अजगर के देश में जन्मे लोगों के लिए और भी कठिन है, जिनकी क्षमता कम है, जिन्हें लंबे समय से परमेश्वर के वचन और कार्य की आवश्यकता है। इसलिए परिणाम पाने के लिए जल्दबाजी न करो। परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने के लिये तुम्हें पहले से ही सक्रिय होना होगा और परमेश्वर के वचनों पर अधिक से अधिक परिश्रम करना होगा। उसके वचनों को पढ़ने के बाद, तुम्हें इस योग्य हो जाना चाहिए कि तुम वास्तव में उन पर अमल करो, परमेश्वर के वचनों में ज्ञान, अंर्तदृष्टि, परख और बुद्धि को विकसित करते हुए। और इसके द्वारा तुम बदल जाओगे और तुम्हें महसूस भी नहीं होगा। यदि तुम परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना और पढ़ने का सिद्धांत बना लो, उसे जानने लगो, अनुभव करने लगो, अमल में लाने लगो तो तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम परिपक्वता हासिल कर लोगे। कुछ लोग कहते हैं कि वे परमेश्वर का वचन पढ़ने के बाद भी उस पर अमल नहीं कर पाते! तुम किस जल्दबाजी में हो? जब तुम एक निश्चित स्थिति तक पहुंच जाओगे तो तुम परमेश्वर के वचन पर अमल करने योग्य बन जाओगे। क्या चार या पांच वर्ष का बालक कहेगा कि वह अपने माता-पिता का सहयोग या आदर करने में असमर्थ है? तुम्हें जान लेना चाहिए कि तुम्हारी वर्तमान स्थिति क्या है, तुम जिनपर अमल कर सकते हो, अमल करो और परमेश्वर के प्रबंधन को बिगाड़ने वाले मत बनो। केवल परमेश्वर के वचनों को खाओ-पीओ और आगे बढ़ते हुए उन्हें अपना सिद्धांत बना लो। इस समय इस बारे में चिन्ता मत करो कि परमेश्वर तुम्हें पूर्ण कर सकता है या नहीं। अभी इस विषय में सोच-विचार मत करो। परमेश्वर के वचन जब तुम्हारे सामने आएँ तो केवल उन्हें खाओ-पीओ, परमेश्वर निश्चित ही तुम्हें पूरा करेगा। हालाँकि, परमेश्वर के वचन को खाने-पीने का एक नियम है। आँखें मूंद करके यह न करो, बल्कि एक ओर उन शब्दों को खोजो जिन्हें तुम्हें जानना चाहिए, अर्थात उन्हें जिनका संबंध दर्शन से है, और दूसरी ओर उसे खोजो जिस पर वास्तव में तुम्हें अमल करना चाहिए, अर्थात, जिसमें तुम्हें प्रवेश करना चाहिए। एक पहलू ज्ञान का है और दूसरा उसमें प्रवेश करने का। जब तुम इन दोनों को पा लेते हो, अर्थात जब तुम उसे समझ लेते हो जिसे तुम्हें जानना चाहिए और जिस पर अमल करना चाहिए, तब तुम सीख लोगे कि परमेश्वर के वचन को कैसे खाया और पिया जाता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, राज्य का युग वचन का युग है

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 403

आगे बढ़ने पर, परमेश्वर के वचन के बारे में बात करना तुम्हारी बातचीत का सिद्धांत होना चाहिए। आमतौर पर, जब तुम लोग आपस में मिलते हो, तुम लोगों को परमेश्वर के वचन के बारे में बातचीत करनी चाहिए, उसके वचन को बातचीत का विषय बनाना चाहिए; बात करना चाहिए कि परमेश्वर के वचन के बारे में तुम लोग क्या जानते हो, उसके वचन को अभ्यास में कैसे लाते हो और पवित्र आत्मा कैसे काम करता है। जबतक तुम परमेश्वर के वचन के बारे में सहभागिता करोगे, पवित्र आत्मा तुम्हें प्रकाशित करेगा। परमेश्वर के वचन के संसार को प्राप्त करने के लिए मनुष्य के सहयोग की आवश्यकता है। यदि तुम इसमें प्रवेश नहीं करते हो तो परमेश्वर अपना काम नहीं कर पाएगा। यदि तुम अपना मुँह बंद रखोगे और परमेश्वर के वचन के बारे में बातचीत नहीं करोगे तो वह तुम्हें रोशन नहीं कर पाएगा। जब भी तुम कोई दूसरा काम नहीं कर रहे, परमेश्वर के वचन के बारे में बात करो। व्यर्थ की बातें मत करो! अपने जीवन को परमेश्वर के वचन से भर जाने दो; तभी तुम एक समर्पित विश्वासी होते हो। कोई बात नहीं यदि तुम्हारी सहभागिता सतही है। सतह के बिना कोई गहराई नहीं हो सकती। एक प्रक्रिया का होना ज़रूरी है। अपने प्रशिक्षण द्वारा तुम पवित्र आत्मा से प्राप्त रोशनी को समझ लोगे और यह भी जान लोगे कि परमेश्वर के वचन को प्रभावी तरीके से कैसे खाएँ-पिएँ। इस प्रकार खोजबीन में कुछ समय देने के बाद तुम परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। केवल जब तुम सहयोग करने का संकल्प करोगे तभी पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करने में तुम समर्थ होगे।

परमेश्वर के वचन को खाने-पीने के सिद्धांत में से एक का संबंध ज्ञान से है और दूसरे का संबंध प्रवेश करने से है। तुम्हें कौन से वचन जानने चाहिए? तुम्हें दर्शन से जुड़े वचन जानने चाहिए (जैसे कि परमेश्वर का कार्य अब किस युग में प्रवेश कर चुका है, अब परमेश्वर क्या प्राप्त करना चाहता है, देहधारण क्या है और ऐसी अन्य बातें, ये सभी बातें दर्शन से संबंधित हैं)। उस मार्ग के क्या मायने हैं जिसमें मनुष्य को प्रवेश करना चाहिए? यह परमेश्वर के उन वचनों का उल्लेख करता है जिन पर मनुष्य को अमल करना और चलना चाहिए। परमेश्वर के वचन को खाने और पीने के ये दो पहलू हैं। अब से, तुम परमेश्वर के वचन को इसी तरह खाओ-पियो। यदि तुम्हें दर्शन के बारे में वचनों की स्पष्ट समझ है तो सब समय पढ़ते रहने की आवश्यकता नहीं है। मुख्य बात है प्रवेश करने से संबंधित वचनों को अधिक खाना और पीना, जैसे कि किस प्रकार परमेश्वर की ओर अपने हृदय को मोड़ना है, किस प्रकार परमेश्वर के समक्ष अपने हृदय को शांत करना है, कैसे देह का परित्याग करना है। यही सब है जिस पर तुम्हें अमल करना है। परमेश्वर के वचन को कैसे खाए-पिएँ यह जाने बिना असली सहभागिता संभव नहीं है। जब एक बार तुम जान लेते हो कि परमेश्वर के वचन को कैसे खाए-पिएँ और समझ लेते हो कि कुंजी क्या है तो सहभागिता तुम्हारे लिए आसान होगी। जो भी मामले उठेंगे, तुम उनके बारे में सहभागिता कर पाओगे और वास्तविकता को समझ लोगे। बिना वास्तविकता के परमेश्वर के वचन से सहभागिता करने का अर्थ है, तुम यह समझ पाने में असमर्थ हो कि कुंजी क्या है, यह बात दर्शाती है कि तुम परमेश्वर के वचन को खाना-पीना नहीं जानते। कुछ लोग परमेश्वर का वचन पढ़ते समय थकान का अनुभव करते हैं। यह दशा सामान्य नहीं है। वास्तव में सामान्य बात यह है कि परमेश्वर का वचन पढ़ते हुए तुम कभी थकते नहीं, सदैव उसकी भूख-प्यास बनी रहती है, तुम सदैव सोचते हो कि परमेश्वर का वचन भला है। और वह व्यक्ति जो सचमुच प्रवेश कर चुका है वह परमेश्वर के वचन को ऐसे ही खाता-पीता है। जब तुम अनुभव करते हो कि परमेश्वर का वचन सचमुच व्यावहारिक है और मनुष्य को इसमें प्रवेश करना ही चाहिए; जब तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर का वचन मनुष्य के लिए बेहद सहायक और लाभदायक है, यह मनुष्य के जीवन के लिए रसद है, यह पवित्र आत्मा है जो तुम्हें ऐसी भावना देता है, और तुम्हें प्रेरित करता है। यह बात साबित करती है कि पवित्र आत्मा तुम्हारे भीतर कार्य कर रहा है और परमेश्वर तुमसे विमुख नहीं हुआ है। यह जानकर कि परमेश्वर सदैव बातचीत करता है, कुछ लोग उसके वचनों से थक जाते हैं, वे सोचते हैं कि परमेश्वर के वचन को पढ़ने या न पढ़ने का कोई परिणाम नहीं होता। यह सामान्य दशा नहीं है। उनका हृदय वास्तविकता में प्रवेश करने की इच्छा नहीं करता, ऐसे लोगों में पूर्णता के लिए भूख-प्यास नहीं होती और न ही वे इसे महत्वपूर्ण मानते हैं। जब भी तुम्हें लगता है कि तुममें परमेश्वर के वचन की प्यास नहीं है तो यह संकेत है कि तुम्हारी दशा सामान्य नहीं है। अतीत में, परमेश्वर तुमसे कहीं विमुख तो नहीं हो गया, इसका पता इस बात से चलता था कि तुम्हारे भीतर शांति है या नहीं और तुम आनंद का अनुभव कर रहे या नहीं। अब, यह इस बात से पता चलता है कि तुममें वचन की प्यास है या नहीं। क्या उसके वचन तुम्हारी वास्तविकता हैं, क्या तुम निष्ठावान हो और क्या तुम वह करने योग्य हो जो तुम परमेश्वर के लिये कर सकते हो। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को परमेश्वर के वचन की वास्तविकता के द्वारा जाँचा-परखा जाता है। परमेश्वर अपने वचनों को सभी मनुष्यों की ओर भेजता है। यदि तुम उसे पढ़ने के लिए तैयार हो तो वह तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, यदि नहीं तो वह तुम्हें प्रबुद्ध नहीं करेगा। परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध करता है जो धार्मिकता के भूखे-प्यासे हैं और परमेश्वर को खोजते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर ने वचन पढ़ने के बाद भी उन्हें प्रबुद्ध नहीं किया। परमेश्वर के वचनों को तुमने कैसे पढ़ा था? यदि तुमने उसके वचनों को इस ढंग से पढ़ा जैसे किसी घुड़सवार ने घोड़े पर बैठे-बैठे फूलों को देखा और वास्तविकता को कोई महत्व नहीं दिया, तो परमेश्वर कैसे तुम्हें प्रबुद्ध कर सकता है? कैसे वह व्यक्ति जो परमेश्वर के वचन को संजो कर नहीं रखता परमेश्वर के द्वारा पूर्ण बनाया जा सकता है? यदि तुम परमेश्वर के वचन को सँजो कर नहीं रखते, तब तुम्हारे पास न तो सत्य होगा और न ही वास्तविकता होगी। यदि तुम उसके वचन को सँजो कर रखते हो, तब तुम सत्य का अभ्यास कर पाओगे; और तब ही तुम वास्तविकता को पाओगे। इसलिए स्थिति चाहे जो भी हो, तुम्हें परमेश्वर के वचन को खाना और पीना चाहिए, तुम चाहे व्यस्त हो या न हो, परिस्थितियां विपरीत हों या न हों, चाहे तुम परखे जा रहे हो या नहीं परखे जा रहे हो। कुल मिलाकर परमेश्वर का वचन मनुष्य के अस्तित्व का आधार है। कोई भी उसके वचन से विमुख नहीं हो सकता, उसके वचन को ऐसे खाना होगा जैसे वे दिन में तीन बार भोजन करते हैं। क्या परमेश्वर के द्वारा पूर्ण बनाया जाना और प्राप्त किया जाना इतना आसान हो सकता है? अभी तुम इसे समझो या न समझो, तुम्हारे भीतर परमेश्वर के कार्य को समझने की अंर्तदृष्टि हो या न हो, तुम्हें परमेश्वर के वचन को अधिक से अधिक खाना और पीना चाहिए। यह तत्परता और क्रियाशीलता के साथ प्रवेश करना है। परमेश्वर के वचन को पढ़ने के बाद, जिसमें प्रवेश कर सको उस पर अमल करने की तत्परता दिखाओ, तुम जो नहीं कर सकते, उसे कुछ समय के लिए दरकिनार कर दो। आरंभ में हो सकता है, परमेश्वर के बहुत से वचन तुम समझ न पाओ, पर दो या तीन माह बाद या फिर एक वर्ष के बाद तुम समझने लगोगे। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर एक या दो दिन में मनुष्य को पूर्ण नहीं कर सकता। अधिकतर समय, जब तुम परमेश्वर का वचन पढ़ते हो, तुम उस समय उसे नहीं समझ पाओगे। उस समय वह तुम्हें लिखित पाठ से अधिक प्रतीत नहीं होगा; केवल कुछ समय के अनुभव के बाद ही तुम उसे समझने योग्य बन जाओगे। परमेश्वर ने बहुत कुछ कहा है इसलिए उसके वचन को खाने-पीने के लिए तुम्हें अधिक से अधिक प्रयास करना चाहिए। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम समझने लगोगे, पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। जब पवित्र आत्मा मनुष्य को प्रबुद्ध करता है, तब अक्सर मुनुष्य को उसका ज्ञान नहीं होता। वह तुम्हें प्रबुद्ध करता है और मार्गदर्शन देता है जब तुम उसके प्यासे होते हो, उसे खोजते हो। पवित्र आत्मा जिस सिद्धांत पर कार्य करता है वह परमेश्वर के वचन पर केंद्रित होता है जिसे तुम खाते और पीते हो। वे सब जो परमेश्वर के वचन को महत्व नहीं देते और उसके प्रति सदैव एक अलग तरह का दृष्टिकोण रखते हैं—अपनी संभ्रमित सोच में यह विश्वास करते हुए कि वे वचन को पढ़ें या न पढ़ें कुछ फर्क नहीं पड़ता—ऐसे लोग हैं जो वास्तविकता नहीं जानते। ऐसे व्यक्ति में न तो पवित्र आत्मा का कार्य और न ही उसके द्वारा दी गई प्रबुद्धता दिखाई देती है। ऐसे व्यक्ति बस साथ-साथ चलते हैं, वे बिना उचित योग्यताओं के मात्र दिखावा करने वाले लोग हैं, जैसे कि एक नीतिकथा में[क] नैनगुओ थे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, राज्य का युग वचन का युग है

फुटनोट :

क. मूल पाठ में, “नीतिकथा में” यह वाक्यांश नहीं है।


परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 404

जब परमेश्वर बोलता है तब तुम्हें तुरंत उसके वचनों को ग्रहण करना और उन्हें खाना-पीना चहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितना समझते हो, अपना दृष्टिकोण यह रखो कि तुम वचन को खाने और पीने, उसे जानने और उसका अभ्यास करने पर अपना ध्यान केंद्रित करोगे। तुम्हें यही करना चाहिए। इस बात की चिंता न करो कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद कितना बड़ा हो जाएगा; केवल परमेश्वर के वचन को खाने और पीने पर ध्यान केंद्रित करो। इसी तरह से मनुष्य को परमेश्वर का सहयोग करना चाहिए। तुम्हारा आत्मिक जीवन मुख्यतः उस वास्तविकता में प्रवेश करना है, जहां तुम परमेश्वर के वचनों को खाओ-पिओ और उनका अभ्यास करो। तुम्हें अन्य किसी बात पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए। कलीसिया के अगुवाओं को इस बारे में सभी भाई-बहनों की अगुवाई करने में सक्षम होना चाहिए कि वे परमेश्वर के वचन को कैसे खाएँ-पिएँ। यह सभी कलीसिया के अगुवाओं की जिम्मेवारी है। वे चाहे युवा हों या वृद्ध, सभी को परमेश्वर के वचन को खाने-पीने को महत्व देना चाहिए और उन वचनों को अपने हृदय में रखना चाहिए। यदि तुम इस वास्तविकता में प्रवेश कर लेते हो तो तुम राज्य के युग में प्रवेश कर लोगे। आजकल बहुत से लोग हैं जो महसूस करते हैं कि वे परमेश्वर के वचन को खाए-पिए बिना नहीं रह सकते, और महसूस करते हैं कि समय के निरपेक्ष परमेश्वर का वचन नया है। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य सही मार्ग पर चलना आरंभ कर रहा है। परमेश्वर मनुष्यों में काम करने और उनकी आपूर्ति करने के लिए वचन का उपयोग करता है। जब सभी लोग परमेश्वर के वचन की लालसा और प्यास रखते हैं तो मानवजाति परमेश्वर के वचन के संसार में प्रवेश करती है।

परमेश्वर बहुत सारी बातें कह चुका है। तुम कितना जान पाए हो? तुम उनमें कितना प्रवेश कर पाए हो? यदि कलीसिया के अगुवाओं ने भाइयों और बहनों को परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में अगुवाई नहीं की है तो वे अपने कर्तव्य-पालन में चूक गए हैं और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में असफल हुए हैं! चाहे तुम्हारी समझ गहन हो या सतही, तुम्हारी समझ के स्तर की परवाह किए बिना, तुम्हें अवश्य ज्ञात होना चाहिए कि उसके वचनों को कैसे खाया और पिया जाए, तुम्हें उसके वचनों की ओर बहुत ध्यान अवश्य देना चाहिए और उन्हें खाने-पीने के महत्व और उसकी आवश्यकता को समझना चाहिए। परमेश्वर ने बहुत कुछ कह दिया है। यदि तुम उसके वचन को नहीं खाते-पीते, उसे खोजते नहीं या उस पर अमल नहीं करते तो यह नहीं माना जा सकता कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो। क्योंकि यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तो तुम्हें उसके वचन को खाना-पीना चाहिए, उसका अनुभव करना चाहिए और उसे जीना चाहिए। केवल यही परमेश्वर पर विश्वास करना है! यदि तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, परंतु उसके किसी वचन पर अमल नहीं कर सकते या वास्तविकता उत्पन्न नहीं कर सकते तो यह नहीं माना जा सकता कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो। ऐसा करना “भूख शांत करने के लिए रोटी की खोज” करने जैसा है। बिना किसी वास्तविकता के केवल छोटी-छोटी बातों की गवाही, अनुपयोगी और सतही मामलों पर बातें करना, परमेश्वर पर विश्वास करना नहीं है, और तुमने बस परमेश्वर पर विश्वास करने के सही तरीके को नहीं समझा है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को क्यों अधिक से अधिक खाना-पीना चाहिए? यदि तुम परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते नहीं और केवल स्वर्ग की ऊँचाई चढ़ना चाहते हो तो क्या यह विश्वास माना जाएगा? परमेश्वर में विश्वास रखने वाले का पहला कदम क्या होता है? परमेश्वर किस मार्ग से मनुष्य को पूर्ण बनाता है? क्या परमेश्वर के वचन को बिना खाए-पिए तुम पूर्ण बनाए जा सकते हो? क्या परमेश्वर के वचन को बिना अपनी वास्तविकता बनाए, तुम परमेश्वर के राज्य के व्यक्ति माने जा सकते हो? परमेश्वर में विश्वास रखना वास्तव में क्या है? परमेश्वर में विश्वास रखने वालों का कम-से-कम बाहरी तौर पर आचरण अच्छा होना चाहिए; और सबसे महत्वपूर्ण बात है परमेश्वर के वचन के अधीन रहना। किसी भी परिस्थिति में तुम उसके वचन से विमुख नहीं होगे। परमेश्वर को जानना और उसकी इच्छा को पूरा करना, सब उसके वचन के द्वारा हासिल किया जाता है। सभी देश, संप्रदाय, धर्म और प्रदेश भी भविष्य में वचन के द्वारा जीते जाएँगे। परमेश्वर सीधे बात करेगा, सभी लोग अपने हाथों में परमेश्वर का वचन थामकर रखेंगे; इसके द्वारा लोग पूर्ण बनाए जाएँगे। परमेश्वर का वचन सब तरफ फैलता जाएगा : इंसान परमेश्वर के वचन बोलेगा, परमेश्वर के वचन के अनुसार आचरण करेगा, और अपने हृदय में परमेश्वर का वचन रखेगा, भीतर और बाहर पूरी तरह परमेश्वर के वचन में डूबा रहेगा। इस प्रकार मानवजाति को पूर्ण बनाया जाएगा। परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने वाले और उसकी गवाही देने में सक्षम लोग वे हैं जिन्होंने परमेश्वर के वचन को वास्तविकता के रूप में अपनाया है।

वचन के युग अर्थात सहस्राब्दिक राज्य के युग में प्रवेश करना वह कार्य है जो अभी पूरा किया जा रहा है। अब से परमेश्वर के वचन के बारे में सहभागिता करने का अभ्यास करो। केवल परमेश्वर के वचन को खाने-पीने और अनुभव करने से ही तुम परमेश्वर के वचन को जीने में समर्थ होगे। दूसरे लोगों को आश्वस्त करने के लिए तुम्हें कुछ व्यावहारिक अनुभव पेश करने होंगे। यदि तुम परमेश्वर के वचन की वास्तविकता को नहीं जी सकते तो किसी को भी यकीन नहीं दिलाया जा सकता! परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने वाले सभी लोग वे हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता को जी सकते हैं। यदि तुम परमेश्वर की गवाही देने के लिए इस वास्तविकता को पेश नहीं कर सकते तो यह दर्शाता है कि पवित्र आत्मा ने तुममें काम नहीं किया है और तुम पूर्ण नहीं बनाए गए हो। यह परमेश्वर के वचन का महत्व है। क्या तुम्हारे पास ऐसा हृदय है जो परमेश्वर के वचन की प्यास रखता हो? जो परमेश्वर के वचन के प्यासे हैं, उनमें सत्य की प्यास है और केवल ऐेसे ही लोगों को परमेश्वर का अशीष प्राप्त है। भविष्य में, परमेश्वर सभी पंथों और संप्रदायों से बहुत सारी अन्य बातें भी कहेगा। वह सबसे पहले तुम लोगों के बीच बोलता और अपनी वाणी सुनाता है और तुम्हें पूरा करता है और उसके बाद वह नास्तिकों के बीच अपनी बात रखता है और उन्हें जीतता है। वचन के द्वारा सभी लोग ईमानदारी से और पूरी तरह से कायल किए जाएँगे। परमेश्वर के वचन के द्वारा और उसके प्रकाशनों के द्वारा मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में कमी आती है, उसमें इंसानियत का प्रकटन होता है और मनुष्य के विद्रोही स्वभाव में कमी आती है। वचन मनुष्य में अधिकार के साथ काम करता है और परमेश्वर की ज्योति के भीतर मनुष्य को जीतता है। परमेश्वर वर्तमान युग में जो कार्य करता है, साथ ही उसके कार्य के निर्णायक मोड़, ये सब कुछ परमेश्वर के वचन के भीतर मिल सकते हैं। यदि तुम उसके वचन को नहीं पढ़ते तो तुम कुछ नहीं समझोगे। उसके वचन को खाने-पीने से, भाइयों और बहनों के साथ सहभागिता करके और अपने वास्तविक अनुभव से परमेश्वर के वचन का तुम्हारा ज्ञान व्यापक हो जाएगा। केवल इसी प्रकार से तुम सचमुच वास्तविक जीवन में उसे जी सकते हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, राज्य का युग वचन का युग है

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 405

मैंने पहले कहा है कि “वे सब, जो संकेत और चमत्कार देखने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, त्याग दिए जाएँगे; ये वे लोग नहीं हैं, जो पूर्ण बनाए जाएँगे।” मैंने बहुत-से वचन कहे हैं, फिर भी मनुष्य को इस कार्य का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं है, और इस बिंदु तक आकर, लोग अभी भी संकेतों और चमत्कारों के बारे में पूछते हैं। क्या परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास संकेतों और चमत्कारों की खोज से अधिक कुछ नहीं, या यह जीवन प्राप्त करने के उद्देश्य से है? यीशु ने भी बहुत-से वचन कहे थे और उनमें से कुछ अभी भी पूरे होने शेष हैं। क्या तुम कह सकते हो कि यीशु परमेश्वर नहीं है? परमेश्वर ने गवाही दी कि वह मसीहा और परमेश्वर का प्यारा पुत्र है। क्या तुम इस बात से इनकार कर सकते हो? आज परमेश्वर केवल वचन कहता है, और यदि तुम इसे पूरी तरह से नहीं जानते, तो तुम अडिग नहीं रह सकते। तुम उसमें इसलिए विश्वास करते हो क्योंकि वह परमेश्वर है, या फिर तुम उसमें इस आधार पर विश्वास करते हो कि उसके वचन पूरे होते हैं या नहीं? क्या तुम संकेतों और चमत्कारों पर विश्वास करते हो, या तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो? आज वह संकेत और चमत्कार नहीं दिखाता—क्या वह वास्तव में परमेश्वर है? यदि उसके द्वारा कहे गए वचन पूरे नहीं होते, तो क्या वह वास्तव में परमेश्वर है? क्या परमेश्वर का सार इस बात से निश्चित होता है कि उसके द्वारा कहे गए वचन पूरे होते हैं या नहीं? ऐसा क्यों है कि कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करने से पहले सदैव उसके द्वारा कहे गए वचनों के पूरे होने की प्रतीक्षा करते हैं? क्या इसका अर्थ यह नहीं कि वे परमेश्वर को नहीं जानते? ऐसी धारणाएँ रखने वाले लोग परमेश्वर को नकारते हैं। वे परमेश्वर को मापने के लिए धारणाओं का उपयोग करते हैं; यदि परमेश्वर के वचन पूरे हो जाते हैं तो वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और यदि वचन पूरे नहीं होते तो वे उसमें विश्वास नहीं करते; और वे सदैव संकेतों और चमत्कारों की खोज करते रहते हैं। क्या ये लोग आधुनिक युग के फरीसी नहीं हैं? तुम अडिग रहने में समर्थ हो या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम वास्तविक परमेश्वर को जानते हो या नहीं—यह महत्वपूर्ण है! परमेश्वर के वचनों की जितनी अधिक वास्तविकता तुममें होगी, परमेश्वर की वास्तविकता का तुम्हारा ज्ञान उतना ही अधिक होगा, और परीक्षणों के दौरान उतना ही अधिक अडिग रहने में तुम समर्थ होगे। जितना अधिक तुम संकेत और चमत्कार देखने पर ध्यान दोगे, उतना ही कम तुम अडिग रहने में समर्थ होगे और परीक्षणों के बीच गिर जाओगे। संकेत और चमत्कार बुनियाद नहीं हैं; केवल परमेश्वर की वास्तविकता ही जीवन है। कुछ लोग उन प्रभावों को नहीं जानते, जो परमेश्वर के कार्य के द्वारा प्राप्त किए जाते हैं। वे परमेश्वर के कार्य के ज्ञान की खोज न करते हुए भ्रांति में अपने दिन व्यतीत करते हैं। उनकी खोज का उद्देश्य सदैव परमेश्वर से केवल अपनी इच्छाएँ पूरी करवाना होता है, और केवल तभी वे अपने विश्वास में गंभीर होते हैं। वे कहते हैं कि यदि परमेश्वर के वचन पूरे होंगे, तो वे जीवन की खोज करेंगे, किंतु यदि उसके वचन पूरे नहीं होते, तब उनके द्वारा जीवन की खोज किए जाने की कोई संभावना नहीं है। मनुष्य सोचता है कि परमेश्वर पर विश्वास करने का अर्थ संकेत और चमत्कार देखने और स्वर्ग तथा तीसरे स्वर्ग तक आरोहण करने की कोशिश करना है। उनमें से कोई यह नहीं कहता कि परमेश्वर पर उसका विश्वास वास्तविकता में प्रवेश करने की खोज करना, जीवन की खोज करना, और परमेश्वर द्वारा जीते जाने की खोज करना है। ऐसी खोज का क्या मूल्य है? वे लोग, जो परमेश्वर के ज्ञान और उसकी संतुष्टि की खोज नहीं करते, वे लोग हैं जो परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते, और जो ईशनिंदा करते हैं!

क्या अब तुम लोग समझते हो कि परमेश्वर पर विश्वास करना क्या होता है? क्या संकेत और चमत्कार देखना परमेश्वर पर विश्वास करना है? क्या इसका अर्थ स्वर्ग पर आरोहण करना है? परमेश्वर पर विश्वास ज़रा भी आसान नहीं है। उन धार्मिक अभ्यासों को निकाल दिया जाना चाहिए; रोगियों की चंगाई और दुष्टात्माओं को निकालने का अनुसरण करना, प्रतीकों और चमत्कारों पर ध्यान केंद्रित करना और परमेश्वर के अनुग्रह, शांति और आनंद का अधिक लालच करना, देह के लिए संभावनाओं और आराम की तलाश करना—ये धार्मिक अभ्यास हैं, और ऐसे धार्मिक अभ्यास एक अस्पष्ट प्रकार का विश्वास हैं। आज परमेश्वर में वास्तविक विश्वास क्या है? यह परमेश्वर के वचन को अपने जीवन की वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना, और परमेश्वर का सच्चा प्यार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचन से परमेश्वर को जानना है। स्पष्ट कहूँ तो : परमेश्वर में विश्वास इसलिए है, ताकि तुम परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सको, उससे प्रेम कर सको, और वह कर्तव्य निभा सको, जिसे परमेश्वर के एक प्राणी द्वारा निभाया जाना चाहिए। यही परमेश्वर पर विश्वास करने का लक्ष्य है। तुम्हें परमेश्वर की मनोहरता का और इस बात का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि परमेश्वर आदर के कितने योग्य है, कैसे अपने द्वारा सृजित प्राणियों में परमेश्वर उद्धार का कार्य करता है और उन्हें पूर्ण बनाता है—ये परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास की एकदम अनिवार्य चीज़ें हैं। परमेश्वर पर विश्वास मुख्यतः देह-उन्मुख जीवन से परमेश्वर से प्रेम करने वाले जीवन में बदलना है; भ्रष्टता के भीतर जीने से परमेश्वर के वचनों के जीवन के भीतर जीना है; यह शैतान के अधिकार-क्षेत्र से बाहर आना और परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में जीना है; यह देह की आज्ञाकारिता को नहीं, बल्कि परमेश्वर की आज्ञाकारिता को प्राप्त करने में समर्थ होना है; यह परमेश्वर को तुम्हारा संपूर्ण हृदय प्राप्त करने और तुम्हें पूर्ण बनाने देना है, और तुम्हें भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से मुक्त करने देना है। परमेश्वर में विश्वास मुख्यतः इसलिए है, ताकि परमेश्वर का सामर्थ्य और महिमा तुममें प्रकट हो सके, ताकि तुम परमेश्वर की इच्छा पर चल सको, और परमेश्वर की योजना संपन्न कर सको, और शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दे सको। परमेश्वर पर विश्वास संकेत और चमत्कार देखने की इच्छा के इर्द-गिर्द नहीं घूमना चाहिए, न ही यह तुम्हारी व्यक्तिगत देह के वास्ते होना चाहिए। यह परमेश्वर को जानने की कोशिश के लिए, और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने, और पतरस के समान मृत्यु तक परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम होने के लिए, होना चाहिए। यही परमेश्वर में विश्वास करने के मुख्य उद्देश्य हैं। व्यक्ति परमेश्वर के वचन को परमेश्वर को जानने और उसे संतुष्ट करने के उद्देश्य से खाता और पीता है। परमेश्वर के वचन को खाना और पीना तुम्हें परमेश्वर का और अधिक ज्ञान देता है, जिसके बाद ही तुम उसका आज्ञा-पालन कर सकते हो। केवल परमेश्वर के ज्ञान के साथ ही तुम उससे प्रेम कर सकते हो, और यह वह लक्ष्य है, जिसे मनुष्य को परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में रखना चाहिए। यदि परमेश्वर पर अपने विश्वास में तुम सदैव संकेत और चमत्कार देखने का प्रयास कर रहे हो, तो परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास का यह दृष्टिकोण गलत है। परमेश्वर पर विश्वास मुख्य रूप से परमेश्वर के वचन को जीवन की वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना है। परमेश्वर का उद्देश्य उसके मुख से निकले वचनों को अभ्यास में लाने और उन्हें अपने भीतर पूरा करने से हासिल किया जाता है। परमेश्वर पर विश्वास करने में मनुष्य को परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में समर्थ होने, और परमेश्वर के प्रति पूर्ण आज्ञाकारिता के लिए प्रयास करना चाहिए। यदि तुम बिना शिकायत किए परमेश्वर का आज्ञापालन कर सकते हो, परमेश्वर की इच्छाओं के प्रति विचारशील हो सकते हो, पतरस का आध्यात्मिक कद प्राप्त कर सकते हो, और परमेश्वर द्वारा कही गई पतरस की शैली ग्रहण कर सकते हो, तो यह तब होगा जब तुम परमेश्वर पर विश्वास में सफलता प्राप्त कर चुके होगे, और यह इस बात का द्योतक होगा कि तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त कर लिए गए हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के वचन के द्वारा सब-कुछ प्राप्त हो जाता है

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