ii. प्रभु यीशु ने फरीसियों को शाप क्यों दिया था, और फरीसियों का सार क्या था

बाइबल से उद्धृत वचन

“तब यरूशलेम से कुछ फरीसी और शास्त्री यीशु के पास आकर कहने लगे, ‘तेरे चेले पूर्वजों की परम्पराओं को क्यों टालते हैं, कि बिना हाथ धोए रोटी खाते हैं?’ उसने उनको उत्तर दिया, ‘तुम भी अपनी परम्पराओं के कारण क्यों परमेश्‍वर की आज्ञा टालते हो? क्योंकि परमेश्‍वर ने कहा है, “अपने पिता और अपनी माता का आदर करना”, और “जो कोई पिता या माता को बुरा कहे, वह मार डाला जाए।” पर तुम कहते हो कि यदि कोई अपने पिता या माता से कहे, “जो कुछ तुझे मुझ से लाभ पहुँच सकता था, वह परमेश्‍वर को भेंट चढ़ाया जा चुका”, तो वह अपने पिता का आदर न करे, इस प्रकार तुम ने अपनी परम्परा के कारण परमेश्‍वर का वचन टाल दिया। हे कपटियो, यशायाह ने तुम्हारे विषय में यह भविष्यद्वाणी ठीक ही की है : “ये लोग होठों से तो मेरा आदर करते हैं, पर उनका मन मुझ से दूर रहता है। और ये व्यर्थ मेरी उपासना करते हैं, क्योंकि मनुष्यों की विधियों को धर्मोपदेश करके सिखाते हैं”’” (मत्ती 15:1-9)

“हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करते हो, न तो स्वयं ही उसमें प्रवेश करते हो और न उस में प्रवेश करनेवालों को प्रवेश करने देते हो। (हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम विधवाओं के घरों को खा जाते हो, और दिखाने के लिए बड़ी देर तक प्रार्थना करते रहते हो : इसलिये तुम्हें अधिक दण्ड मिलेगा।)

“हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम एक जन को अपने मत में लाने के लिये सारे जल और थल में फिरते हो, और जब वह मत में आ जाता है तो उसे अपने से दूना नारकीय बना देते हो।

“हे अंधे अगुवो, तुम पर हाय! जो कहते हो कि यदि कोई मन्दिर की शपथ खाए तो कुछ नहीं, परन्तु यदि कोई मन्दिर के सोने की सौगन्ध खाए तो उससे बंध जाएगा। हे मूर्खो और अंधो, कौन बड़ा है; सोना या वह मन्दिर जिससे सोना पवित्र होता है? फिर कहते हो कि यदि कोई वेदी की शपथ खाए तो कुछ नहीं, परन्तु जो भेंट उस पर है, यदि कोई उसकी शपथ खाए तो बंध जाएगा। हे अंधो, कौन बड़ा है; भेंट या वेदी जिससे भेंट पवित्र होती है? इसलिये जो वेदी की शपथ खाता है, वह उसकी और जो कुछ उस पर है, उसकी भी शपथ खाता है। जो मन्दिर की शपथ खाता है, वह उसकी और उसमें रहनेवाले की भी शपथ खाता है। जो स्वर्ग की शपथ खाता है, वह परमेश्‍वर के सिंहासन की और उस पर बैठनेवाले की भी शपथ खाता है।

“हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम पोदीने, और सौंफ, और जीरे का दसवाँ अंश तो देते हो, परन्तु तुम ने व्यवस्था की गम्भीर बातों को अर्थात् न्याय, और दया, और विश्‍वास को छोड़ दिया है; चाहिये था कि इन्हें भी करते रहते और उन्हें भी न छोड़ते। हे अंधे अगुवो, तुम मच्छर को तो छान डालते हो, परन्तु ऊँट को निगल जाते हो।

“हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम कटोरे और थाली को ऊपर ऊपर से तो मांजते हो परन्तु वे भीतर अन्धेर और असंयम से भरे हुए हैं। हे अंधे फरीसी, पहले कटोरे और थाली को भीतर से मांज कि वे बाहर से भी स्वच्छ हों।

“हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम चूना फिरी हुई कब्रों के समान हो जो ऊपर से तो सुन्दर दिखाई देती हैं, परन्तु भीतर मुर्दों की हड्डियों और सब प्रकार की मलिनता से भरी हैं। इसी रीति से तुम भी ऊपर से मनुष्यों को धर्मी दिखाई देते हो, परन्तु भीतर कपट और अधर्म से भरे हुए हो।

“हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम भविष्यद्वक्‍ताओं की कब्रें सँवारते और धर्मियों की कब्रें बनाते हो, और कहते हो, ‘यदि हम अपने बापदादों के दिनों में होते तो भविष्यद्वक्‍ताओं की हत्या में उनके साझी न होते।’ इससे तो तुम अपने पर आप ही गवाही देते हो कि तुम भविष्यद्वक्‍ताओं के हत्यारों की सन्तान हो। अत: तुम अपने बापदादों के पाप का घड़ा पूरी तरह भर दो। हे साँपो, हे करैतों के बच्‍चो, तुम नरक के दण्ड से कैसे बचोगे? इसलिये देखो, मैं तुम्हारे पास भविष्यद्वक्‍ताओं और बुद्धिमानों और शास्त्रियों को भेजता हूँ; और तुम उनमें से कुछ को मार डालोगे और क्रूस पर चढ़ाओगे, और कुछ को अपने आराधनालयों में कोड़े मारोगे और एक नगर से दूसरे नगर में खदेड़ते फिरोगे। जिससे धर्मी हाबिल से लेकर बिरिक्याह के पुत्र जकरयाह तक, जिसे तुम ने मन्दिर और वेदी के बीच में मार डाला था, जितने धर्मियों का लहू पृथ्वी पर बहाया गया है वह सब तुम्हारे सिर पर पड़ेगा। मैं तुम से सच कहता हूँ, ये सब बातें इस समय के लोगों पर आ पड़ेंगी” (मत्ती 23:13-36)

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

क्या तुम लोग कारण जानना चाहते हो कि फरीसियों ने यीशु का विरोध क्यों किया? क्या तुम फरीसियों के सार को जानना चाहते हो? वे मसीहा के बारे में कल्पनाओं से भरे हुए थे। इससे भी ज़्यादा, उन्होंने केवल इस पर विश्वास किया कि मसीहा आएगा, फिर भी जीवन सत्य का अनुसरण नहीं किया। इसलिए, वे आज भी मसीहा की प्रतीक्षा करते हैं क्योंकि उन्हें जीवन के मार्ग के बारे में कोई ज्ञान नहीं है, और नहीं जानते कि सत्य का मार्ग क्या है? तुम लोग क्या कहते हो, ऐसे मूर्ख, हठधर्मी और अज्ञानी लोग परमेश्वर का आशीष कैसे प्राप्त करेंगे? वे मसीहा को कैसे देख सकते हैं? उन्होंने यीशु का विरोध किया क्योंकि वे पवित्र आत्मा के कार्य की दिशा नहीं जानते थे, क्योंकि वे यीशु द्वारा बताए गए सत्य के मार्ग को नहीं जानते थे और इसके अलावा क्योंकि उन्होंने मसीहा को नहीं समझा था। और चूँकि उन्होंने मसीहा को कभी नहीं देखा था और कभी मसीहा के साथ नहीं रहे थे, उन्होंने मसीहा के बस नाम के साथ चिपके रहने की ग़लती की, जबकि हर मुमकिन ढंग से मसीहा के सार का विरोध करते रहे। ये फरीसी सार रूप से हठधर्मी एवं अभिमानी थे और सत्य का पालन नहीं करते थे। परमेश्वर में उनके विश्वास का सिद्धांत था : इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा उपदेश कितना गहरा है, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा अधिकार कितना ऊँचा है, जब तक तुम्हें मसीहा नहीं कहा जाता, तुम मसीह नहीं हो। क्या यह सोच हास्यास्पद और बेतुकी नहीं है?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जब तक तुम यीशु के आध्यात्मिक शरीर को देखोगे, परमेश्वर स्वर्ग और पृथ्वी को नया बना चुका होगा

फरीसियों को जिस धर्मशास्त्र और मत में एक प्रकार के ज्ञान के रूप में महारत हासिल थी उसका उपयोग उन्होंने लोगों की निंदा करने और उन्हें सही या गलत आँकने के औज़ार के रूप में किया। इसका उपयोग उन्होंने प्रभु यीशु पर भी किया—और इस तरह प्रभु यीशु की निंदा की गई। उनके द्वारा लोगों का मूल्यांकन, और उनके साथ उनका व्यवहार कभी भी उनके सार पर या इस बात पर आधारित नहीं था कि उन्होंने जो कुछ कहा वह सही था या गलत, उनके वचनों का स्रोत या उत्पत्ति तो दूर की बात थी। उन्होंने केवल उन्ही कड़े शब्दों और सिद्धांतों के आधार पर लोगों की निंदा की और उन्हें आँका, जिसमें उन्हें महारत हासिल थी। और इसीलिए, इन फरीसियों ने यह जानते हुए भी कि प्रभु यीशु ने जो कुछ किया वह पाप नहीं था, और कानून का उल्लंघन नहीं था, उसकी निंदा की, क्योंकि प्रभु यीशु ने जो कहा वह उनकी महारत वाले ज्ञान और विद्या तथा उनके द्वारा प्रतिपादित धर्मशास्त्र के मत के विपरीत लग रहा था। और फरीसी इन शब्दों और वाक्यांशों के ऊपर अपनी पकड़ ढीली नहीं करना चाहते थे, वे इस ज्ञान से चिपट गए थे और इसे छोडना नहीं चाहते थे। अंत में एकमात्र संभावित परिणाम क्या रहा? उन्होंने इस बात को स्वीकार नहीं किया कि प्रभु यीशु मसीहा हैं जो आएंगे, या प्रभु यीशु ने जो कहा उसमें सत्य था, यह मानना तो दूर की बात थी कि प्रभु यीशु ने जो किया वह सत्य के अनुरूप था। उन्होंने प्रभु यीशु की निंदा करने के लिए कुछ निराधार आरोप ढूँढ निकाले—लेकिन वास्तव में, क्या वे अपने हृदय में इस बात को जानते थे कि उन्होंने जिन पापों के लिए उसकी निंदा की, क्या वे जायज़ थे? वे जानते थे। फिर भी उन्होंने इस तरह उसकी निंदा क्यों की? (वे इस बात पर विश्वास नहीं करना चाहते थे कि उनके मन में जो उच्च और शक्तिशाली परमेश्वर है वह प्रभु यीशु हो सकता है, एक साधारण मनुष्य के पुत्र की इस छवि वाला।) वे इस तथ्य को स्वीकार नहीं करना चाहते थे। और इसे स्वीकार करने से इनकार की उनकी प्रकृति क्या थी? क्या इसमें परमेश्वर से तर्क करने की कोशिश नहीं की गई थी? उनका मतलब यह था, “क्या परमेश्वर ऐसा कर सकता है? यदि परमेश्वर देहधारण करता, तो उसने निश्चित रूप से किसी प्रतिश्ठित वंश में जन्म लिया होता। इसके अलावा, उसे शास्त्रियों और फरीसियों का संरक्षण स्वीकार करना चाहिए, इस ज्ञान को सीखना चाहिए, और पवित्र ग्रंथ को खूब पढ़ना चाहिए। इस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद ही वह ‘देहधारी’ की उपाधि ग्रहण कर सकता है।” उनका विश्वास था कि, सबसे पहले, तुम इस प्रकार योग्य नहीं हो, इसलिए तुम परमेश्वर नहीं हो; दूसरे, इस ज्ञान के बिना तुम परमेश्वर का कार्य नहीं कर सकते, तुम्हारा परमेश्वर होना तो दूर की बात रही; तीसरे, तुम मंदिर के बाहर काम नहीं कर सकते—तुम अब मंदिर में नहीं हो, तुम हमेशा पापियों के बीच रहते हो, इसलिए तुम जो काम करते हो वह परमेश्वर के कार्य क्षेत्र से परे है। उनकी निंदा का आधार कहाँ से आया? पवित्र ग्रंथ से, मनुष्य के मन से, और उस धर्मशास्त्रीय शिक्षा से जो उन्होंने प्राप्त की थी। क्योंकि वे धारणाओं, कल्पनाओं, और ज्ञान के घमंड में डूबे हुए थे, इसलिए वे इस ज्ञान को सही, सत्य और मूल आधार मान रहे थे, और यह कि परमेश्वर कभी भी इन चीज़ों के विरुद्ध नहीं जा सकता। क्या उन्होंने सत्य की तलाश की? नहीं की। उन्होंने केवल खुद की धारणाओं और कल्पनाओं, और ख़ुद के अनुभवों को खंगाला, और इनका उपयोग उन्होंने परमेश्वर को परिभाषित करने और यह निर्धारित करने के लिए किया कि वह सही है या गलत। इसका अंतिम परिणाम क्या निकला? उन्होंने परमेश्वर के कार्य की निंदा की और उसे क्रूस पर चढ़ा दिया।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग तीन)

फरीसी लोग धर्म-सिद्धांत का प्रचार करने और नारे लगाने में सर्वश्रेष्ठ थे। वे अक्सर नुक्कड़ों पर खड़े होकर चिल्लाते थे, “हे शक्तिशाली परमेश्वर!” या “पूज्य परमेश्वर!” दूसरों को वे विशेष रूप से पवित्र लगते थे, उन्होंने कानून के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया था, लेकिन क्या परमेश्वर ने उनकी सराहना की? नहीं की। उसने उनकी निंदा कैसे की? उन्हें पाखंडी फरीसी की उपाधि देकर। पहले जमाने में फरीसी इस्रायल में एक सम्मानित वर्ग होता था, तो यह नाम अब एक बिल्ला क्यों बन गया है? ऐसा इसलिए है क्योंकि फरीसी लोग एक खास किस्म के व्यक्ति के परिचायक बन गये हैं। इस प्रकार के व्यक्ति की क्या विशेषताएँ होती हैं? वे झूठ बोलने में, बनने-ठनने में और दिखावा करने में कुशल हैं; वे महान कुलीनता, पवित्रता, ईमानदारी और पारदर्शी शालीनता का दिखावा करते हैं, और वे जो नारे लगाते हैं वे अच्छे तो लगते हैं, लेकिन पता चलता है, वे बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं। उनका व्यवहार कितना अच्छा है? वे धर्मग्रंथ पढ़ते हैं और उपदेश देते हैं; वे दूसरों को नियम-कानून का पालन करना और परमेश्वर का विरोध न करना सिखाते हैं। यह सब अच्छा व्यवहार है। वे जो कुछ भी कहते हैं वह अच्छा लगता है, लेकिन, दूसरे लोगों के पीछे मुड़ते ही, वे चुपचाप चढ़ावा चुरा लेते हैं। प्रभु यीशु ने कहा कि वे “मच्छर को तो छान डालते हैं, परन्तु ऊँट को निगल जाते हैं” (मत्ती 23:24)। इसका मतलब यह है कि उनका सारा व्यवहार सतही तौर पर अच्छा लगता है—वे दिखावटी नारे लगाते हैं, वे ऊँचे-ऊँचे सिद्धांत बघारते हैं, और उनकी बातें सुखद लगती हैं, फिर भी उनके कर्म गड़बड़झाला हैं, और पूरी तरह से परमेश्वर के प्रतिरोधी हैं। उनका बाहरी व्यवहार सब दिखावा है, सब कपटपूर्ण है; उनके हृदय में न तो सत्य के लिए, न ही सकारात्मक चीजों के लिए जरा भी प्यार है। वे सत्य से घृणा करते हैं, सकारात्मक चीजों से घृणा करते हैं, और जो कुछ परमेश्वर से आता है उससे घृणा करते हैं। उन्हें क्या पसंद है? क्या उन्हें निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद है? (नहीं।) तुम कैसे बता सकते हो कि उन्हें ये चीजें पसंद नहीं हैं? (प्रभु यीशु ने स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाया, जिसे उन्होंने स्वीकारने से ही मना नहीं किया, बल्कि इसकी निंदा भी की।) यदि वे इसकी निंदा न करते, तो क्या यह बताना संभव होता? नहीं। प्रभु यीशु के प्रकटन और कार्य ने सभी फरीसियों को उजागर कर दिया, और प्रभु यीशु की निंदा और प्रतिरोध करने के कारण ही अन्य लोग उनके पाखंड को देख पाए। यदि प्रभु यीशु का प्रकटन और कार्य न होता, तो फरीसियों को कोई नहीं समझ पाता, और फरीसियों के सिर्फ बाहरी आचरण को देखकर तो लोगों को ईर्ष्या भी होती। लोगों का विश्वास जीतने के लिए झूठे सद्व्यवहार का सहारा लेकर क्या फरीसियों ने बेईमानी और मक्कारी नहीं की? क्या ऐसे मक्कार लोग सत्य से प्रेम कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं कर सकते। अच्छा आचरण दिखाने के पीछे उनका क्या उद्देश्य था? एक उद्देश्य तो लोगों को ठगना ही था। दूसरा, लोगों को धोखा देकर उनका दिल जीतना था, ताकि लोग उनके बारे में अच्छा सोचें और उनका आदर करें। और अंततः, वे पुरस्कृत होना चाहते थे। यह कैसा घोटाला था! क्या ये कुशल चालें थीं? क्या ऐसे लोगों को निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद थी? बिल्कुल भी नहीं। उन्हें सिर्फ पद, प्रसिद्धि और लाभ से प्यार था, और वे सिर्फ पुरस्कार और ताज चाहते थे। उन्होंने कभी भी उन वचनों का अभ्यास नहीं किया जो परमेश्वर ने लोगों को सिखाए थे, और उन्होंने कभी भी सत्य वास्तविकताओं को थोड़ा-सा भी नहीं जिया। उनका सारा ध्यान अच्छे आचरण के जरिये छद्मवेश धारण करने और अपने पाखंडी तरीकों से लोगों को धोखा देकर और उनके दिल जीतकर अपनी पद-प्रतिष्ठा बचाने पर था, जिसका उपयोग वे फिर पूँजी जुटाने और रोजी-रोटी कमाने के लिए करते थे। क्या यह घिनौना नहीं है? उनके इस आचरण से तुम समझ सकते हो कि वे अपने सार रूप में सत्य से प्रेम नहीं करते थे, क्योंकि उन्होंने कभी इसका अभ्यास नहीं किया। कौन-सी चीज ये दर्शाती है कि वे सत्य का अभ्यास नहीं करते थे? सबसे बड़ी बात है : प्रभु यीशु छुटकारे का कार्य करने आया, और प्रभु यीशु के सभी वचन सत्य हैं और उनमें अधिकार है। फरीसियों ने इस पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की? भले ही उन्होंने माना कि प्रभु यीशु के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है, लेकिन उन्होंने इन्हें स्वीकार करना तो दूर रहा, इनकी निंदा और भर्त्सना की। ऐसा क्यों किया? ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते थे, और अपने हृदय में वे सत्य से त्रस्त थे और उससे घृणा करते थे। उन्होंने स्वीकार किया कि प्रभु यीशु ने जो कुछ भी कहा वह सही था, कि उसके शब्दों में अधिकार और सामर्थ्य थी, कि वह किसी भी तरह से गलत नहीं था, और उसका विरोध करके उन्हें कोई लाभ नहीं था। परन्तु वे प्रभु यीशु की निंदा करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मिलकर चर्चा की और षड्यंत्र रचकर कहा, “उसे सलीब पर चढ़ा दो। वह रहेगा या हम,” और इस तरह फरीसियों ने प्रभु यीशु का अनादर किया। उस समय न कोई सत्य को समझ पाया, और न ही कोई प्रभु यीशु को देहधारी परमेश्वर के रूप में पहचान सकता था। हालाँकि, एक मनुष्य के दृष्टिकोण से, प्रभु यीशु ने कई सत्य व्यक्त किए, राक्षसों को बाहर निकाला और रोगियों को ठीक किया। उसने कई चमत्कार किए, पाँच रोटियों और दो मछलियों से 5,000 लोगों का पेट भरा, कई सारे अच्छे कर्म किए और लोगों पर इतना अधिक अनुग्रह बरसाया। ऐसे नेक और धार्मिक लोग बहुत ही कम हैं, तो फरीसी प्रभु यीशु की निंदा क्यों करना चाहते थे? वे उसे सलीब पर चढ़ाने के लिए इतने आमादा क्यों थे? उन्होंने प्रभु यीशु के बजाय एक अपराधी को रिहा करना पसंद किया, यह दर्शाता है कि धार्मिक दुनिया के फरीसी कितने दुष्ट और दुर्भावनाग्रस्त थे। वे बहुत दुष्ट थे! फरीसियों के दुष्ट विश्वासघाती चेहरे और उनके दिखावटी, बाहरी परोपकारी चेहरे के बीच इतना बड़ा अंतर था कि बहुत से लोग यह समझ नहीं पाए कि कौन-सा असली है और कौन-सा नकली, लेकिन प्रभु यीशु के प्रकटन और कार्य ने उन सबको उजागर कर दिया। फरीसी आम तौर पर खुद को इतनी अच्छी तरह छिपाते थे और बाहर से इतने धर्मात्मा लगते थे कि किसी ने भी कल्पना नहीं की होगी कि वे इतनी क्रूरता से प्रभु यीशु का विरोध और उत्पीड़न कर सकते हैं। यदि तथ्य उजागर नहीं हुए होते तो कोई भी उनकी असलियत नहीं जान पाता। देहधारी परमेश्वर की सत्य की अभिव्यक्ति मनुष्य के बारे में इतना खुलासा करती है!

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

बाइबल में फरीसियों द्वारा स्वयं यीशु और उसके द्वारा की गई चीज़ों का मूल्यांकन इस प्रकार था : “... वे कहते थे, कि उसका चित्त ठिकाने नहीं है। ... उसमें शैतान है, और वह दुष्टात्माओं के सरदार की सहायता से दुष्टात्माओं को निकालता है” (मरकुस 3:21-22)। शास्त्रियों और फरीसियों द्वारा यीशु की आलोचना उनके द्वारा दूसरे लोगों के शब्दों को दोहराना भर नहीं था, न ही वह कोई निराधार अनुमान था—वह तो उनके द्वारा प्रभु यीशु के बारे में उसके कार्यों को देख-सुनकर निकाला गया निष्कर्ष था। यद्यपि उनका निष्कर्ष प्रकट रूप में न्याय के नाम पर निकाला गया था और लोगों को ऐसा दिखता था, मानो वह तथ्यों पर आधारित हो, किंतु जिस हेकड़ी के साथ उन्होंने प्रभु यीशु की आलोचना की थी, उस पर काबू रखना स्वयं उनके लिए भी कठिन था। प्रभु यीशु के प्रति उनकी घृणा की उन्मत्त ऊर्जा ने उनकी अपनी खतरनाक महत्वाकांक्षाओं और उनके दुष्ट शैतानी चेहरे, और साथ ही परमेश्वर का विरोध करने वाली उनकी द्वेषपूर्ण प्रकृति को भी उजागर कर दिया था। उनके द्वारा प्रभु यीशु की आलोचना करते हुए कही गई ये बातें उनकी जंगली महत्वाकांक्षाओं, ईर्ष्या, और परमेश्वर तथा सत्य के प्रति उनकी शत्रुता की कुरूप और द्वेषपूर्ण प्रकृति से प्रेरित थीं। उन्होंने प्रभु यीशु के कार्यों के स्रोत की खोज नहीं की, न ही उन्होंने उसके द्वारा कही या की गई चीज़ों के सार की खोज की। बल्कि उन्होंने उसके कार्य पर आँख मूँदकर, सनक भरे आवेश में और सोचे-समझे द्वेष के साथ आक्रमण किया और उसे बदनाम किया। वे यहाँ तक चले गए कि उसके आत्मा, अर्थात् पवित्र आत्मा, जो कि परमेश्वर का आत्मा है, को भी जानबूझकर बदनाम कर दिया। “उसका चित्त ठिकाने नहीं है,” “शैतान” और “दुष्टात्माओं का सरदार” कहने से उनका यही आशय था। अर्थात्, उन्होंने कहा कि परमेश्वर का आत्मा शैतान और दुष्टात्माओं का सरदार है। उन्होंने देह का वस्त्र पहने परमेश्वर के देहधारी आत्मा के कार्य को पागलपन कहा। उन्होंने न केवल शैतान और दुष्टात्माओं का सरदार कहकर परमेश्वर के आत्मा की ईशनिंदा की, बल्कि परमेश्वर के कार्य की भी निंदा की और प्रभु यीशु मसीह पर दोष लगाया और उसकी ईशनिंदा की। उनके द्वारा परमेश्वर के प्रतिरोध और ईशनिंदा का सार पूरी तरह से शैतान और दुष्टात्माओं द्वारा किए गए परमेश्वर के प्रतिरोध और ईशनिंदा के समान था। वे केवल भ्रष्ट मनुष्यों का प्रतिनिधित्व ही नहीं करते थे, बल्कि इससे भी बढ़कर, वे शैतान के मूर्त रूप थे। वे मानवजाति के बीच शैतान के लिए एक माध्यम थे, और वे शैतान के सह-अपराधी और अनुचर थे। उनकी ईशनिंदा और उनके द्वारा प्रभु यीशु मसीह की अवमानना का सार हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ उनका संघर्ष, परमेश्वर के साथ उनकी प्रतिस्पर्धा और उनके द्वारा परमेश्वर की कभी न खत्म होने वाली परीक्षा था। उनके द्वारा परमेश्वर के प्रतिरोध और उसके प्रति उनके शत्रुतापूर्ण रवैये के सार ने, और साथ ही उनके वचनों और उनके विचारों ने सीधे-सीधे परमेश्वर के आत्मा की ईशनिंदा की और उसे क्रोधित किया। इसलिए, जो कुछ उन्होंने कहा और किया था, उसके आधार पर परमेश्वर ने एक उचित न्याय का निर्धारण किया, और परमेश्वर ने उनके कर्मों को पवित्र आत्मा के विरुद्ध पाप ठहराया। यह पाप इस लोक और परलोक, दोनों में अक्षम्य है, जैसा कि पवित्रशास्त्र के निम्नलिखित अंश से प्रमाणित होता है : “मनुष्य द्वारा की गई पवित्र आत्मा की निंदा क्षमा न की जाएगी” और “जो कोई पवित्र आत्मा के विरोध में कुछ कहेगा, उसका अपराध न तो इस लोक में और न परलोक में क्षमा किया जाएगा।”

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

यहूदी फरीसी यीशु को दोषी ठहराने के लिए मूसा की व्यवस्था का उपयोग करते थे। उन्होंने उस समय के यीशु के साथ अनुकूल होने की कोशिश नहीं की, बल्कि कर्मठतापूर्वक व्यवस्था का इस हद तक अक्षरशः पालन किया कि—यीशु पर पुराने विधान की व्यवस्था का पालन न करने और मसीहा न होने का आरोप लगाते हुए—निर्दोष यीशु को सूली पर चढ़ा दिया। उनका सार क्या था? क्या यह ऐसा नहीं था कि उन्होंने सत्य के साथ अनुकूलता के मार्ग की खोज नहीं की? उनके दिमाग़ में पवित्रशास्त्र का एक-एक वचन घर कर गया था, जबकि मेरी इच्छा और मेरे कार्य के चरणों और विधियों पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। वे सत्य की खोज करने वाले लोग नहीं, बल्कि सख्ती से पवित्रशास्त्र के वचनों से चिपकने वाले लोग थे; वे परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग नहीं, बल्कि बाइबल में विश्वास करने वाले लोग थे। दरअसल वे बाइबल की रखवाली करने वाले कुत्ते थे। बाइबल के हितों की रक्षा करने, बाइबल की गरिमा बनाए रखने और बाइबल की प्रतिष्ठा बचाने के लिए वे यहाँ तक चले गए कि उन्होंने दयालु यीशु को सूली पर चढ़ा दिया। ऐसा उन्होंने सिर्फ़ बाइबल का बचाव करने के लिए और लोगों के हृदय में बाइबल के हर एक वचन की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए किया। इस प्रकार उन्होंने अपना भविष्य त्यागने और यीशु की निंदा करने के लिए उसकी मृत्यु के रूप में पापबलि देने को प्राथमिकता दी, क्योंकि यीशु पवित्रशास्त्र के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था। क्या वे लोग पवित्रशास्त्र के एक-एक वचन के नौकर नहीं थे?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें मसीह के साथ अनुकूलता का तरीका खोजना चाहिए

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धार्मिक फरीसियों के सार को कैसे समझें

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यीशु के प्रति फ़रीसियों के विरोध का मूल कारण

वे सभी जो बाइबल का उपयोग परमेश्वर की निंदा के लिए करते हैं, फरीसी हैं

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परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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प्रश्न 1: सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है," तो मुझे वह याद आया जो प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)। हम पहले से ही जानते हैं कि प्रभु यीशु जीवन के सजीव जल का स्रोत हैं, और अनन्‍त जीवन का मार्ग हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और प्रभु यीशु समान स्रोत हों? क्या उनके कार्य और वचन दोनों पवित्र आत्मा के कार्य और वचन हैं? क्या उनका कार्य एक ही परमेश्‍वर करते हैं?

उत्तर: दोनों बार जब परमेश्‍वर ने देह धारण की तो अपने कार्य में, उन्होंने यह गवाही दी कि वे सत्‍य, मार्ग, जीवन और अनन्‍त जीवन के मार्ग हैं।...

5. पुराने और नए दोनों नियमों के युगों में, परमेश्वर ने इस्राएल में काम किया। प्रभु यीशु ने भविष्यवाणी की कि वह अंतिम दिनों के दौरान लौटेगा, इसलिए जब भी वह लौटता है, तो उसे इस्राएल में आना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु पहले ही लौट चुका है, कि वह देह में प्रकट हुआ है और चीन में अपना कार्य कर रहा है। चीन एक नास्तिक राजनीतिक दल द्वारा शासित राष्ट्र है। किसी भी (अन्य) देश में परमेश्वर के प्रति इससे अधिक विरोध और ईसाइयों का इससे अधिक उत्पीड़न नहीं है। परमेश्वर की वापसी चीन में कैसे हो सकती है?

संदर्भ के लिए बाइबल के पद :"क्योंकि उदयाचल से लेकर अस्ताचल तक जाति-जाति में मेरा नाम महान् है, और हर कहीं मेरे नाम पर धूप और शुद्ध भेंट...

प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

उत्तर: हम परमेश्वर की वाणी कैसे सुनते हैं? हममें कितने भी गुण हों, हमें कितना भी अनुभव हो, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। प्रभु यीशु में विश्वास...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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