परमेश्वर में विश्वास और धर्म में विश्वास के बीच क्या अंतर है?

14 मार्च, 2021

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

धर्म में विश्‍वास क्‍या है? परमेश्‍वर में विश्‍वास क्‍या है? क्‍या दोनों में फर्क है? धर्म के सर्वसामान्‍य, प्रमुख लक्षण क्‍या हैं? लोग धर्म में विश्‍वास को आमतौर पर किस तरह परिभाषित करते हैं? धर्म में विश्‍वास आचरण में परिवर्तनों से बनता है—दूसरों से लड़ने, दूसरों को कोसने, दुष्‍कर्म करने, दूसरों का शोषण करने, दूसरों का फायदा उठाने और क्षुद्र चोरी-चकारियाँ करने जैसे आचरणों में परिवर्तन से बनता है। यह मुख्यत: आचरण में परिवर्तनों से सम्‍बन्‍ध रखता है। जब लोग धर्म में विश्‍वास करते हैं, तो वे सद्वयवहार करने की, भला इंसान बनने की कोशिश करते हैं; ये बाह्य आचरण हैं। लेकिन एक मानसिक अवलंब के रूप में धर्म क्‍या है? मानसिक क्षेत्र के बारे में क्‍या कहा जाएगा? आस्‍थावान व्‍यक्ति के पास एक मानसिक अवलंब होता है। इसलिए धर्म में विश्‍वास को इस तरह परिभाषित किया जा सकता है : सदाचारी होना, और मानसिक अवलंब का होना—और कुछ नहीं। जब इस तरह के ब्‍यौरों का सवाल उठता है कि जिसमें वे विश्‍वास करते हैं उसका क्‍या वास्‍तव में अस्तित्‍व है और वह ठीक-ठीक क्‍या है तथा वह उनसे क्‍या माँग करता है, तो लोग अनुमानों और कल्‍पनाओं का सहारा लेने लगते हैं। इस तरह के आधार से युक्त विश्‍वास को धर्म में विश्‍वास कहा जाता है। धर्म में विश्‍वास का मुख्‍यत: मतलब होता है आचरण में परिवर्तन लाने का प्रयास करना और एक मानसिक अवलंब का होना, लेकिन क्‍या इसके लिए व्‍यक्ति के जीवन के मार्ग में किसी तरह का परिवर्तन अनिवार्य होता है? उसमें न तो व्‍यक्ति के जीवन के मार्ग, ध्‍येय या दिशा में रत्ती-भर परिवर्तन होता है, न ही जीवन को जीने के उसके आधार में कोई परिवर्तन होता है। और परमेश्‍वर में विश्‍वास क्‍या है? स्‍वयं में विश्वास रखने के लिए परमेश्‍वर क्‍या परिभाषित करता है और क्‍या अपेक्षा करता है? (उसकी संप्रभुता में विश्‍वास।) यह उसके अस्तित्‍व में विश्‍वास करना और उसकी संप्रभुता में विश्‍वास करना है—यह मूलभूत है। जो लोग परमेश्‍वर में विश्‍वास करते हैं उनसे परमेश्‍वर क्या अपेक्षा रखता है? वह किस चीज़ से सम्‍बन्ध रखता है? (ईमानदार होना, सामान्‍य मनुष्‍यता रखना, सत्‍य की खोज करना, स्‍वभाव में रूपांतरण का प्रयास करना और परमेश्‍वर को जानने की कोशिश करना।) और क्‍या लोगों से उनकी बातों और बाह्य आचरण के संदर्भ में भी कुछ अपेक्षित होता है? (हमारे बाह्य आचरण के संदर्भ में, हमसे धर्मनिष्‍ठ होने, लंपट न होने और सामान्‍य मनुष्‍यता की राह पर चलने की अपेक्षा की जाती है।) बाहरी तौर पर, तुमसे अपेक्षा की जाती है कि तुममें बुनियादी संतोचित विनय हो और तुम सामान्‍य मनुष्‍यता की राह पर चलो। और परमेश्‍वर में विश्‍वास करने की क्‍या परिभाषा है? परमेश्‍वर में विश्‍वास करना परमेश्‍वर के वचनों के प्रति आज्ञाकारी होना है; यह परमेश्‍वर द्वारा बोले गये वचनों के अनुरूप होना, उनके अनुरूप जीना, अपने कर्तव्‍यों का पालन करना और सामान्‍य मनुष्‍यता से संबंधित सारी गतिविधियों में शामिल होना है। इसका अभिप्राय यह है कि परमेश्‍वर में विश्‍वास करना परमेश्‍वर का अनुसरण करना है, परमेश्‍वर तुमसे जो कराना चाहता है वह करना और उस तरह का जीवन जीना है जैसा परमेश्‍वर चाहता है कि तुम जियो। परमेश्‍वर में विश्‍वास करना उसकी बतायी राह पर चलना है। और ऐसा करने में, क्‍या लोगों के जीवन का ध्‍येय और दिशा उन लोगों के जीवन के ध्‍येय और दिशा से पूरी तरह भिन्‍न नहीं होते जो धर्म में विश्‍वास करते हैं? परमेश्‍वर में विश्‍वास के लिए क्‍या अनिवार्य है? लोगों को सामान्‍य मनुष्‍यता की राह पर चलना चाहिए; उन्‍हें परमेश्‍वर के वचनों की आज्ञा माननी चाहिए, भले ही परमेश्‍वर उनसे कुछ भी करने को क्‍यों न कहे; और उन्‍हें परमेश्‍वर के वचनों के अनुरूप अभ्‍यास करना चाहिए। ये सारी चीजे़ं परमेश्‍वर के वचनों में शामिल हैं। परमेश्‍वर के वचन क्‍या हैं? (सत्‍य।) सत्‍य परमेश्‍वर में विश्‍वास का अंग है; वह जीवन का स्रोत और सही मार्ग है; वह उस मार्ग का हिस्‍सा है जिसे लोग अपने जीवन में अपनाते हैं; क्‍या धर्म में विश्‍वास में इनमें से कोई भी चीज़ शामिल है? नहीं। धर्म में विश्‍वास करने के लिए महज़ बाहरी स्‍तर पर अच्‍छा आचरण करना, खुद को संयमित रखना, नियमों का पालन करना, और एक मानसिक अवलंब का होना भर काफी है। अगर लोग अच्‍छा आचरण करते हैं और उनके पास एक मानसिक संबल और अवलंब है, तो क्‍या उनके जीवन का मार्ग बदल जाता है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, ‘‘धर्म में विश्‍वास करना और परमेश्‍वर में विश्‍वास करना एक ही बात है।’’ तो क्‍या वे परमेश्‍वर का अनुसरण करते हैं? धर्म में विश्‍वास महज़ आचरण-जन्य बदलाव की कोशिश है, जो एक मानसिक अवलंब तलाशने से ज्‍़यादा कुछ नहीं है और उसमें कोई सत्य शामिल नहीं होता। परिणामस्‍वरूप, इन लोगों के स्‍वभाव में कोई बदलाव नहीं आ सकता। वे सत्‍य को अमल में लाने में या किसी तरह का तात्विक परिवर्तन लाने में अक्षम होते हैं, उन्हें परमेश्‍वर का सच्‍चा ज्ञान नहीं होता। जब कुछ लोग धर्म में विश्‍वास करते हैं, तो उनका आचरण चाहे कितना ही अच्‍छा क्‍यों न हो, उनका मानसिक अवलंब चाहे कितना ही मज़बूत क्‍यों न हो, क्‍या वे परमेश्‍वर का अनुसरण करते हैं? (नहीं।) फिर वे किसका अनुसरण करते हैं? वे शैतान का अनुसरण करते हैं। और वे जिस तरह का जीवन जीते हैं, जिन चीज़ों की तलाश, आकांक्षा, अभ्‍यास करते हैं और अपने जीवन के लिए जिन चीज़ों पर निर्भर करते हैं, उनका आधार क्‍या होता है? वह आधार पूरी तरह से शैतान का भ्रष्‍ट स्‍वभाव और उसका सार होता है। वे स्‍वयं जिस तरह का आचरण करते हैं और जिस तरह दूसरों से बर्ताव करते हैं, वह शैतान की जीवन-शैली के तर्क और फलसफे के अनुरूप होता है; उनकी हर बात एक झूठ होती है, उसमें सत्‍य का रत्ती-भर भी अंश नहीं होता; उनके शैतानी स्‍वभाव में तनिक भी बदलाव नहीं आया होता, और वे शैतान का ही अनुसरण करते हैं। उनकी जीवन-दृष्टि, मूल्‍य, स्थितियों से पेश आने के उनके तौर-तरीके और उनके कार्यकलापों के सिद्धान्‍त, सभी कुछ उनकी शैतानी प्रकृति की अभिव्‍यक्तियाँ होते हैं; उनके बाहरी आचरण में सिर्फ एक छोटा-सा बदलाव आता है; उनके जीवन के मार्ग में, उनके जीने के ढंग में या उनके दृष्टिकोण में ज़रा-सा भी परिवर्तन नहीं आता। अगर तुम लोग परमेश्‍वर में सच्‍चा विश्‍वास करते हो, तो परमेश्‍वर में कई वर्षों तक विश्‍वास करने के बाद तुम में वास्‍तव में क्‍या परिवर्तन आया है? तुम्‍हारे जीवन की बुनियाद परिवर्तन की प्रक्रिया से गुज़रती है। तुम्‍हारे जीने का आधार क्‍या है? तुम हर रोज़ जो कुछ करते और कहते हो, वह किस चीज़ से संचालित होता है? वह सब किस चीज़ पर आधारित होता है? (वह सब परमेश्‍वर के वचनों और सत्‍य पर आधारित होता है।) उदाहरण के लिए, तुम शायद अब झूठ नहीं बोलते—इसका क्‍या आधार है? तुम अब उस तरह बात क्‍यों नहीं करते? (क्‍योंकि परमेश्‍वर को यह अच्‍छा नहीं लगता।) तुम उस तरह नहीं बोलते या आचरण नहीं करते, तो इसका एक आधार है और वह आधार है परमेश्‍वर का वचन, वह जो परमेश्‍वर चाहता है और सत्‍य। इसलिए, क्‍या इस तरह के व्‍यक्ति के जीवन का मार्ग वही रह जाता है? सारांश यह है : धर्म में विश्‍वास क्‍या है? और परमेश्‍वर में विश्‍वास क्‍या है? जब लोग धर्म में विश्‍वास करते हैं, तो वे शैतान का अनुसरण करते हैं; जब वे परमेश्‍वर में विश्‍वास करते हैं, तो वे परमेश्‍वर का अनुसरण करते हैं। यही अंतर है। आज, तुम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हो; तुम धर्म में विश्वास करते हो, या परमेश्वर में? इसमें अंतर क्या है? यह किस पर निर्भर करता है? यह उस मार्ग पर निर्भर करता है जिस पर तुम चलते हो। यदि तुम अच्छे व्यवहार की, एक मनोवैज्ञानिक बैसाखी की, नियमों के अनुपालन की, और निजी लाभ के लिए साज़िशों की तलाश करते हो और यदि तुम ज़रा भी सत्य की तलाश नहीं करते हो, बल्कि केवल एक ऐसा व्यक्ति बनने की कोशिश करते हो जो भला नज़र आता हो, और तुम्हारे प्रकृति-सार, या भ्रष्ट स्वभाव में थोड़ा-सा भी बदलाव नहीं होता है, तो तुम धर्म में विश्वास करते हो। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे उन सभी सच्चाइयों को स्वीकार करने में सक्षम होते हैं जिन्हें परमेश्वर व्यक्त करता है; वे सत्य के अनुसार स्वयं पर आत्म-चिंतन कर स्वयं को जानने में और वास्तव में पश्चाताप करने में सक्षम होते हैं, और अंततः, वे परमेश्वर के वचनों के द्वारा जीने में, परमेश्वर का आज्ञा-पालन करने में, और परमेश्वर की उपासना करने में सक्षम हो जाते हैं—केवल ऐसे लोग ही परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखते हैं।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'धर्म में विश्‍वास से कभी उद्धार नहीं होगा' से उद्धृत

परमेश्वर में विश्वास के वर्णन का सबसे सरल तरीका है इस भरोसे का होना कि एक परमेश्वर है, और इस आधार पर, उसका अनुसरण करना, उसका आज्ञा-पालन करना, उसके प्रभुत्व, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना, उसके वचनों को सुनना, उसके वचनों के अनुसार जीवन जीना, हर चीज़ को उसके वचनों के अनुसार करना, एक सच्चा सृजित प्राणी बनना, और उसका भय मानना और बुराई से दूर रहना; केवल यही परमेश्वर में सच्चा विश्वास होता है। परमेश्वर के अनुसरण का यही अर्थ होता है। तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन, अपने हृदय में, तुम परमेश्वर के वचनों को स्वीकार नहीं करते, और तुम उसके प्रभुत्व, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार नहीं करते हो। यदि परमेश्वर जो करता है उसके बारे में तुम हमेशा अवधारणाएँ रखते हो, और तुम हमेशा वह जो करे उसे ग़लत समझते हो, और इसके बारे में शिकायत करते हो; यदि तुम हमेशा असंतुष्ट रहते हो, और वह जो भी करे उसे तुम हमेशा अपनी ही अवधारणाओं और कल्पनाओं का उपयोग करके मापते और उनसे पेश आते हो; अगर तुम्हारे पास हमेशा अपनी ही समझ होती है—तो यह परेशानी का कारण होगा। तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर रहे हो, और तुम्हारे पास वास्तव में उसका अनुसरण करने का कोई मार्ग नहीं है। परमेश्वर में विश्वास करना ऐसा नहीं होता है।

यथार्थ में, परमेश्वर में विश्वास क्या होता है? क्या धर्म में विश्वास परमेश्वर में विश्वास के बराबर होता है? जब लोग धर्म को मानते हैं, तो वे शैतान का अनुसरण करते हैं। केवल जब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तभी वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, और केवल वे जो मसीह का अनुसरण करते हैं, वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं। क्या जो कभी भी परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार नहीं करता, एक ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो परमेश्वर में विश्वास करता हो? यह किसी काम का नहीं होता, चाहे वो कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता रहा हो। कोई व्यक्ति जो हमेशा अपने विश्वास में धार्मिक अनुष्ठान में संलग्न रहता है, लेकिन सत्य का अभ्यास नहीं करता है, वह परमेश्वर में विश्वास नहीं करता है, और परमेश्वर उसे स्वीकार नहीं करता है। परमेश्वर किस आधार पर तुम्हें स्वीकार करता है? वह तुम्हें इस बात के आधार पर स्वीकार करता है कि क्या तुम सभी मामलों में उसकी अपेक्षाओं के अनुसार काम करते हो। उसकी स्वीकृति उसके वचनों के अनुसार दी जाती है, न कि इस आधार पर कि तुम्हारे बाह्य व्यवहार में कितने बदलाव हुए हैं, या तुम उसके लिए भाग-दौड़ करने में कितना समय लगाते हो, बल्कि इस आधार पर कि तुम किस राह पर चलते हो, और क्या तुम सत्य की तलाश करते हो। ऐसे कई लोग हैं जो कहते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और जो परमेश्वर के लिए प्रशंसा के शब्द बोलते हैं—लेकिन, वे दिल से परमेश्वर के द्वारा कहे गए वचनों से प्रेम नहीं करते, और न ही उन्हें सत्य में दिलचस्पी होती है। अपने दिलों में वे हमेशा यह मानते हैं कि केवल अगर वे शैतान के दर्शन और बाहरी दुनिया के विभिन्न सिद्धांतों द्वारा जीते हैं, तभी वे सामान्य होंगे, और खुद को बचाने में सक्षम होंगे, और यह कि केवल इस तरह से रहने से ही, इस दुनिया में उनके जीवन का कोई मोल होगा। क्या यह ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर में विश्वास करता है और उसका अनुसरण करता है? प्रसिद्ध, महान विभूतियों की सभी बातें सुनने में विशेष रूप से दार्शनिक लगती हैं और लोगों को धोखा देने में विशेष रूप से सक्षम होती हैं। यदि तुम उन्हें सत्य मानते हो और सूत्रवाक्यों की तरह उनका पालन करते हो, लेकिन, जब सवाल आता है परमेश्वर के वचनों का, परमेश्वर के सबसे सामान्य वचनों का, जो यह चाहते हैं कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनो, कि तुम अपने स्वयं के आवंटित स्थान पर निष्ठापूर्वक संलग्न रहो और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाओ, और तुम स्थिर बने रहो—तब तुम उनका अभ्यास करने में असमर्थ रहते हो, और तुम उन्हें सच्चाई के रूप में नहीं मानते हो, तो तुम परमेश्वर के कोई अनुयायी नहीं हो। तुम यह कह सकते हो कि तुमने उसके वचनों का अभ्यास किया है, लेकिन क्या होगा यदि परमेश्वर तुम पर सच के लिए दबाव डाले और पूछे : "तुमने किसका अभ्यास किया है? उन वचनों को किसने कहा था जिनका तुम अभ्यास करते हो? उन सिद्धांतों का आधार क्या है जिनका तुम पालन करते हो?" यदि वह आधार परमेश्वर के वचन नहीं, तो ये शैतान के शब्द हैं; जिन्हें तुम जी रहे हो, वे शैतान के शब्द हैं, तुम फिर भी यह कहते हो कि तुम सत्य का अभ्यास करते हो और परमेश्वर को संतुष्ट करते हो, क्या यह उसके खिलाफ़ निंदा नहीं है? परमेश्वर कहता है कि लोगों को ईमानदार होना चाहिए, फिर भी ऐसे लोग हैं जो इस बात पर विचार नहीं करते कि ईमानदार होने में क्या शामिल है, कैसे उन्हें ईमानदारी का अभ्यास करना है, या उन चीज़ों में से जिन्हें वे जी रहे हैं और प्रकट करते हैं, कौन-सी ईमानदार नहीं हैं, और कौन-सी हैं। वे परमेश्वर के वचनों में सत्य के सार पर विचार नहीं करते हैं, लेकिन अविश्वासियों की एक पुस्तक ढूँढ लेते हैं और, इसे पढ़कर, वे कहते हैं, "ये अच्छे शब्द हैं—परमेश्वर के वचनों से भी बेहतर। ‘निष्कपट लोग हमेशा जीतते हैं’—क्या ये ठीक वैसा नहीं जैसा कि परमेश्वर ने कहा है? यह भी सच ही है!" इस तरह, वे इन वचनों का पालन करते हैं। जब वे इन वचनों का पालन करते हैं तो वे कैसे जीते हैं? क्या वे सच्चाई की वास्तविकता को जीने में सक्षम होते हैं? क्या ऐसे कई लोग हैं? वे थोड़ा ज्ञान प्राप्त करते हैं, कुछ किताबें पढ़ लेते हैं, और थोड़ी अंतर्दृष्टि प्राप्त करते हैं, और वे कोई प्रसिद्ध उक्ति या लोकप्रिय कहावत सुनते हैं और इन्हें सत्य मान लेते हैं। वे इन वचनों के अनुसार कार्य करते हैं, और उन्हें अपने कर्तव्यों और परमेश्वर में विश्वास के अपने जीवन पर लागू करते हैं, और यहाँ तक ​​कि वे सोचते हैं कि यह परमेश्वर को संतुष्ट करता है। क्या यह हाथ की सफ़ाई नहीं है? क्या यह प्रवंचना नहीं है? यह ईश-निन्दा है! लोगों में इसकी बहुतायत है। वे मधुर लगने वाले, सही प्रतीत होने वाले लोक-सिद्धांतों का पालन करते हैं, मानो वे ही सत्य हों। वे परमेश्वर के वचनों को एक तरफ़ रख देते हैं और उनकी ओर कोई ध्यान नहीं देते हैं, और, चाहे वे उन्हें जितनी भी बार पढ़ लें, वे उन्हें गंभीरता से नहीं लेते हैं या उन्हें सच्चाई नहीं मानते। क्या ऐसा करने वाला वो है जो परमेश्वर पर विश्वास करता है? क्या वह परमेश्वर का अनुसरण करता है? ऐसा व्यक्ति धर्म को मानता है; ऐसे लोग शैतान का अनुसरण करते हैं! वे दिल से सोचते हैं कि शैतान द्वारा कहे गए शब्दों में दर्शन होता है, कि इन शब्दों में गहरा अर्थ होता है, कि वे आधिकारिक शब्द हैं, बुद्धिमत्तापूर्ण कथन हैं, और, चाहे वे लोग और कुछ भी त्याग दें, वे इन शब्दों की कभी उपेक्षा नहीं कर सकते। ऐसा करना तो, उनके लिए, जैसे कि अपने जीवन को गंवाना, या उनके दिलों को खोद निकालना होगा। यह किस तरह का व्यक्ति है? यह वो व्यक्ति है जो शैतान का अनुसरण करता है।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'धर्म में विश्‍वास से कभी उद्धार नहीं होगा' से उद्धृत

क्या तुम लोगों में कोई ऐसे हैं जो धर्म में विश्वास करते हैं? क्या जो लोग धर्म में विश्वास करते हैं, वे अविश्वासी होते हैं? (नहीं।) तो, "धर्म में विश्वास" किसे संदर्भित करता है? वे सभी जो सत्य की तलाश नहीं करते हैं, जो केवल अच्छे व्यवहार और नियमों के अनुपालन पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, और जिनके स्वभाव में ज़रा-सा भी परिवर्तन नहीं हुआ है, वे धर्म में विश्वास करते हैं। धर्म में विश्वास करने वालों में क्या विशिष्टता होती है? (वे केवल बाहरी कार्यों की और अच्छा व्यवहार करते हुए दिखने की परवाह करते हैं।) वे जिस तरह कार्य करते हैं, उसके सिद्धांत और आधार क्या होते हैं? (जीने के लिए शैतानी दर्शन।) जीने के लिए शैतानी दर्शन और शैतानी भ्रष्ट स्वभाव क्या होते हैं? धूर्तता और शठता; खुद को ही कानून मानना; अहंकार और दंभ; हमेशा अंत तक अपनी ही बात रखना, कभी सत्य की खोज नहीं करना और कभी अपने भाई-बहनों के साथ सहभागिता नहीं करना; काम करते समय, हमेशा अपने स्वार्थ, स्वाभिमान, अपनी प्रतिष्ठा, और अपने प्रभाव के बारे में सोचना—यही, कुल मिलाकर, शैतान का अनुसरण करना है, और ये एक शैतानी स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ होती हैं। यदि कोई परमेश्वर में विश्वास तो करता है लेकिन उसके वचनों पर ध्यान नहीं देता है, सत्य को स्वीकार नहीं करता, या उसकी व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण नहीं करता; यदि वह केवल कुछ अच्छे व्यवहारों का प्रदर्शन करता है, लेकिन देह की इच्छाओं का त्याग करने में असमर्थ है, और अपने अभिमान या स्वार्थ को बिल्कुल भी नहीं त्यागता है; यदि, दिखावे भर के लिए वह अपना कर्तव्य तो निभाता है, फिर भी वह अपने शैतानी स्वभाव के द्वारा जीता है, और उसने शैतान के दर्शन और अस्तित्व के तौर-तरीकों को उसने ज़रा-भी नहीं छोड़ा है, और वह बदलता नहीं है—तो वह संभवतः परमेश्वर में कैसे विश्वास कर सकता है? वह धर्म में आस्था होती है। इस तरह के लोग सतही रूप से चीज़ों को त्यागते हैं और अपने आप को खपाते हैं, लेकिन जिस मार्ग पर वे चलते हैं और जो कुछ वे करते हैं उसका स्रोत और उसकी प्रेरणा, परमेश्वर के वचनों या सत्य पर आधारित नहीं होती; इसके बजाय, वे निरंतर स्वयं अपनी ही कल्पनाओं, इच्छाओं और व्यक्तिपरक मान्यताओं के अनुसार कार्य करते रहते हैं, और शैतान के दर्शन और स्वभाव ही लगातार उनके अस्तित्व और काम के आधार बने रहते हैं। उन मामलों में जिनकी सच्चाई वे नहीं समझते, वे उसकी तलाश नहीं करते हैं; उन मामलों में जिनकी सच्चाई वे नहीं समझते, वे उसका अभ्यास नहीं करते हैं, न तो वे परमेश्वर को महान मानकर उसे ऊँचा उठाते हैं, न ही सत्य को संजोते हैं। हालाँकि नाम के लिए वे परमेश्वर के अनुयायी होते हैं, यह केवल कहने के लिए होता है; उनके कामों का सार उनके भ्रष्ट स्वभावों की अभिव्यक्ति के अलावा और कुछ नहीं होता है। इस बात का कोई संकेत नहीं मिलता है कि उनका उद्देश्य और इरादा सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के वचनों के अनुसार काम करने का है। जो लोग अपने हितों को ही सब से ऊपर मानते हैं, जो पहले अपनी ही इच्छाओं और इरादों को पूरा करते हैं—क्या वे लोग वो हैं जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं? (नहीं।) और क्या वे लोग जो परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, अपने स्वभावों में बदलाव ला सकते हैं? (नहीं।) और यदि वे अपने स्वभावों को बदल नहीं सकते, तो क्या वे दयनीय नहीं हैं? ... ज्यादातर लोगों के पास जब कोई समस्या नहीं होती है, जब उनके साथ सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा होता है, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर शक्तिशाली और धार्मिक है, और मनोहर है। जब परमेश्वर उनका परीक्षण करता है, उनके साथ निपटता है, उन्हें प्रताड़ित करता है, और अनुशासित करता है, जब वह उन्हें अपने स्वार्थों को अलग कर देने के लिए, देह-सुख का त्याग करने और सत्य का अभ्यास करने के लिए कहता है, जब परमेश्वर उन पर कार्य करता है, और उनके भाग्य और उनके जीवन को आयोजित और शासित करता है, वे विद्रोही बन जाते हैं, और अपने और परमेश्वर के बीच अलगाव पैदा करते हैं; वे अपने और परमेश्वर के बीच टकराव और एक खाई पैदा कर लेते हैं। ऐसे समय में, उनके दिलों में, परमेश्वर ज़रा भी मनोहर नहीं होता; वह बिलकुल भी शक्तिशाली नहीं होता, क्योंकि वह जो करता है, उससे उनकी इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती है। परमेश्वर उन्हें दुखी करता है; वह उन्हें परेशान करता है; वह उनके लिए कष्ट और पीड़ा लाता है; वह उन्हें अशांत महसूस कराता है। इसलिए वे परमेश्वर के प्रति बिलकुल ही समर्पण नहीं करते, इसके बजाय, वे उसके प्रति विद्रोह करते हैं और उसे नकारते हैं। ऐसा करके क्या वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के मार्ग पर चल रहे हैं? क्या वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं? नहीं। इसलिए, चाहे परमेश्वर के कार्य के बारे में तुम्हारी कितनी भी धारणाएँ और कल्पनाएँ हों, और चाहे तुमने पहले अपनी मर्जी के मुताबिक जैसे भी काम किया हो और परमेश्वर के खिलाफ़ जैसे भी बग़ावत की हो, अगर तुम वास्तव में सत्य की तलाश करते हो, और परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करते हो, और परमेश्वर के वचनों द्वारा काट-छाँट और निपटने को स्वीकार करते हो; अगर, हर चीज़ में जिसे परमेश्वर आयोजित करता है, तुम उसके तरीके का पालन करने में सक्षम होते हो, परमेश्वर के वचनों को मानते हो, उसकी इच्छा की तलाश करते हो, उसके वचनों और उसकी इच्छा के अनुसार अभ्यास करते हो, समर्पण की कोशिश करने में सक्षम होते हो, और अपनी समस्त इच्छाओं, अभिलाषाओं, विचारों, अभिप्रेरणाओं, और परमेश्वर के प्रति अपने विरोध को दूर कर सकते हो—केवल तभी तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो! तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन तुम जो भी करते हो, वह सब अपनी मर्जी के मुताबिक़ करते हो। तुम्हारी हर क्रिया में, तुम्हारे अपने उद्देश्य, तुम्हारी अपनी योजनाएँ होती हैं; तुम इसे परमेश्वर पर नहीं छोड़ देते। तो क्या परमेश्वर अभी भी तुम्हारा परमेश्वर है? यदि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है, तो, जब तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तब क्या ये खोखले शब्द नहीं होते हैं? क्या ऐसे शब्द लोगों को बेवकूफ़ बनाने की कोशिश नहीं हैं? तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन तुम्हारे सारे कार्य और व्यवहार, जीवन पर तुम्हारा दृष्टिकोण, तुम्हारे मूल्य, और तुम्हारे दृष्टिकोण और सिद्धांत जिनके साथ तुम मुद्दों के साथ पेश आते और उन्हें संभालते हो, वे सभी शैतान से आते हैं—तुम यह सब पूरी तरह से शैतान के सिद्धांतों और तर्क के अनुसार संभालते हो। तो, क्या तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो?

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'धर्म में विश्‍वास से कभी उद्धार नहीं होगा' से उद्धृत

क्यों यहोवा पर विश्वास करने वालों को परमेश्वर कौन-सा नाम देता है? यहूदी धर्म। वे एक प्रकार का धार्मिक समूह बन गए। और परमेश्वर उन लोगों को कैसे परिभाषित करता है जो यीशु पर विश्वास करते हैं? (ईसाई धर्म।) परमेश्वर की नज़रों में, यहूदी धर्म और ईसाई धर्म धार्मिक समूह हैं। परमेश्वर उन्हें इस प्रकार क्यों परिभाषित करता है? उन सभी के बीच जो परमेश्वर द्वारा परिभाषित इन धार्मिक निकायों के सदस्य हैं, क्या कोई ऐसा है जो परमेश्वर से डरता है और बुराई से दूर रहता है, परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करता है, और परमेश्वर की इच्छा पूरी करता है? (नहीं।) यह इस बात को स्पष्ट करता है। परमेश्वर की नज़रों में, क्या वे सभी लोग जो परमेश्वर का नाममात्र के लिए अनुसरण करते हैं, ऐसे लोग होते हैं जिन्हें परमेश्वर विश्वासियों के रूप में होना स्वीकार करता है? क्या उन सभी का परमेश्वर के साथ कोई संबंध हो सकता है? क्या वे सभी परमेश्वर के उद्धार के लिए लक्ष्य हो सकते हैं? (नहीं।) तो क्या ऐसा दिन आएगा जब तुम लोग उसमें बदल जाओगे जिसे परमेश्वर धार्मिक समूह के रूप में देखता है? (यह संभव है।) एक धार्मिक समूह के रूप में देखा जाना, यह अचिंतनीय प्रतीत होता है। यदि लोग परमेश्वर की नज़र में एक धार्मिक समूह का हिस्सा बन जाते हैं, तो क्या वे उसके द्वारा बचाए जाएंगे? क्या वे परमेश्वर के घर के हैं? (नहीं वे नहीं।) तो सारांश करने का प्रयास करो: ये लोग, जो नाममात्र के लिए सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन जिन्हें परमेश्वर एक धार्मिक समूह का हिस्सा मानता है—वे किस रास्ते पर चलते हैं? क्या ऐसा कहा जा सकता है कि ये लोग कभी भी उसके परमेश्वर में विश्वास करने के मार्ग का अनुसरण या उसकी आराधना नहीं करते हुए और उसका त्याग करते हुए, विश्वास के झंडे को लहराने के मार्ग पर चलते हैं? अर्थात्, वे परमेश्वर पर विश्वास करने के मार्ग पर चलते हैं लेकिन परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं करते और उसे त्याग देते हैं; उनका मार्ग ऐसा है जिसमें वे विश्वास तो परमेश्वर पर करते हैं लेकिन शैतान की पूजा करते हैं, वे हैवान की आराधना करते हैं, वे अपने स्वयं के प्रबंधन को अंजाम देने, और अपना राज्य स्थापित करने की कोशिश करते हैं। क्या यही इसका सार है? क्या इस तरह के लोगों का मनुष्य के उद्धार की परमेश्वर की प्रबंधन योजना से कोई संबंध है? (नहीं।) चाहे कितने भी लोग परमेश्वर में विश्वास क्यों न करें, जैसे ही उनके विश्वासों को परमेश्वर द्वारा धर्म या समूह के रूप में परिभाषित किया जाता है, तब परमेश्वर ने निर्धारित किया है कि उन्हें बचाया नहीं जा सकता। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? किसी गिरोह या लोगों की भीड़ में जो परमेश्वर के कार्य और मार्गदर्शन से रहित हैं और जो उसकी आराधना बिल्कुल भी नहीं करते हैं, वे किसकी आराधना करते हैं? वे किसका अनुसरण करते हैं? रूप और नाम में, वे एक इंसान का अनुसरण करते हैं, लेकिन वास्तव में वे किसका अनुसरण करते हैं? अपने हृदय में वे परमेश्वर को स्वीकार करते हैं, लेकिन वास्तव में, वे मानवीय हेरफेर, व्यवस्थाओं और नियंत्रण के अधीन हैं। वे शैतान, हैवान का अनुसरण करते हैं; वे उन ताक़तों का अनुसरण करते हैं जो परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं, जो परमेश्वर की दुश्मन हैं। क्या परमेश्वर इस तरह के लोगों के झुण्ड को बचाएगा? (नहीं।) क्यों? क्या वे पश्चाताप करने में सक्षम हैं? (नहीं।) वे मानव उद्यमों को चलाते हुए, अपने स्वयं के प्रबंधन का संचालन करते हुए विश्वास का झंडा लहराते हैं, और मनुष्यजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन योजना के विपरीत चलते हैं। उनका अंतिम परिणाम परमेश्वर द्वारा नफ़रत और अस्वीकृत किया जाना है; परमेश्वर इन लोगों को संभवतः नहीं बचा सकता है, वे संभवतः पश्चाताप नहीं कर सकते है, वे पहले से ही शैतान के द्वारा पकड़ लिए गए हैं—वे पूरी तरह से शैतान के हाथों में हैं। तुमने कितने वर्ष परमेश्वर में विश्वास किया है, क्या तुम्हारी आस्था में इसका असर इस बात पर पड़ता है कि परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा करता है या नहीं? क्या तुम्हारे रस्मों और विनियमों के पालन करने का कुछ महत्व है? क्या परमेश्वर लोगों के अभ्यास के तौर-तरीकों को देखता है? क्या वह देखता है कि वहाँ कितने लोग हैं? उसने मानवजाति के एक हिस्से को चुना है; वह कैसे मापता है कि उन्हें बचाया जा सकता है और बचाया जाना चाहिए? उसका यह निर्णय उन मार्गों पर आधारित होता है जिन पर ये लोग चलते हैं। अनुग्रह के युग में, हालांकि परमेश्वर द्वारा लोगों को बताए गए सत्य आज की तरह इतने अधिक नहीं थे और इतने विशिष्ट नहीं थे, वह फिर भी उस समय लोगों को पूर्ण बना सका और तब भी उनका उद्धार संभव था। और इसलिए इस युग के लोग, जिन्होंने बहुत से सत्य सुने हैं, और जो परमेश्वर की इच्छा को समझ पाये हैं, अगर वे परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने में असमर्थ हैं और उद्धार के मार्ग पर चलने में असमर्थ हैं, तो उनका अंतिम परिणाम क्या होगा? उनका अंतिम परिणाम उन्हीं के समान होगा जो ईसाई और यहूदी धर्म को मानते हैं; कोई अंतर नहीं होगा। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है! चाहे तूने कितने भी धर्मोपदेश सुने हों, और तू कितने सत्यों को समझ चुका हो, यदि अंततः तू अभी भी लोगों का अनुसरण करता है और शैतान का अनुसरण करता है, और अंततः, तू अभी भी परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने में अक्षम हैं और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में असमर्थ है, तो इस तरह के लोगों से परमेश्वर द्वारा नफ़रत की जाएगी और उन्हें अस्वीकार कर दिया जाएगा। हर पहलू से, ये लोग जो परमेश्वर द्वारा नफ़रत और अस्वीकृत किए जाते हैं वे पत्रों और सिद्धांतों के बारे में ज्यादा बात कर सकते हैं, और बहुत से सत्य समझते हैं और फिर भी वे परमेश्वर की आराधना करने में असमर्थ होते हैं; वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में असमर्थ हैं, और परमेश्वर के प्रति पूर्ण आज्ञाकारी होने में असमर्थ हैं। परमेश्वर की नज़रों में, परमेश्वर उन्हें धर्म के रूप में, मनुष्य मात्र के एक समूह के रूप में, एक इंसानों का गिरोह और शैतान के लिए एक निवास स्थान के रूप में परिभाषित करता है। उन्हें सामूहिक रूप से शैतान का गिरोह कहा जाता है, और परमेश्वर उनसे पूरी तरह से घृणा करता है।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'यदि तू हर समय परमेश्वर के सामने रह सकता है केवल तभी तू उद्धार के पथ पर चल सकता है' से उद्धृत

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