आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु देह में लौट आया है। तो अब प्रभु कहाँ है? हमने उसे क्यों नहीं देखा है? देखना ही विश्वास करना है, इसलिए यह तथ्य कि हमने उसे नहीं देखा है, यह साबित करता है कि प्रभु अभी तक लौटा नहीं है। जब मैं इसे देखूँगी/देखूँगा, तभी मुझे विश्वास होगा।
संदर्भ के लिए बाइबल के पद:
"यीशु ने उससे कहा, 'मार्ग और सत्य और जीवन मैं ही हूँ; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता। यदि तुम ने मुझे जाना होता, तो मेरे पिता को भी जानते; और अब उसे जानते हो, और उसे देखा भी है।' फिलिप्पुस ने उससे कहा, 'हे प्रभु, पिता को हमें दिखा दे, यही हमारे लिये बहुत है।' यीशु ने उससे कहा, 'हे फिलिप्पुस, मैं इतने दिन से तुम्हारे साथ हूँ, और क्या तू मुझे नहीं जानता? जिसने मुझे देखा है उसने पिता को देखा है। तू क्यों कहता है कि पिता को हमें दिखा? क्या तू विश्वास नहीं करता कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में है? ये बातें जो मैं तुम से कहता हूँ, अपनी ओर से नहीं कहता, परन्तु पिता मुझ में रहकर अपने काम करता है। मेरा विश्वास करो कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में है; नहीं तो कामों ही के कारण मेरा विश्वास करो'" (यूहन्ना 14:6-11)।
"आठ दिन के बाद उसके चेले फिर घर के भीतर थे, और थोमा उनके साथ था; और द्वार बन्द थे, तब यीशु आया और उनके बीच में खड़े होकर कहा, 'तुम्हें शान्ति मिले।' तब उसने थोमा से कहा, 'अपनी उँगली यहाँ लाकर मेरे हाथों को देख और अपना हाथ लाकर मेरे पंजर में डाल, और अविश्वासी नहीं परन्तु विश्वासी हो।' यह सुन थोमा ने उत्तर दिया, 'हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर!' यीशु ने उससे कहा, 'तू ने मुझे देखा है, क्या इसलिये विश्वास किया है? धन्य वे हैं जिन्होंने बिना देखे विश्वास किया'" (यूहन्ना 20:26-29)।
"मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं; मैं उन्हें जानता हूँ, और वे मेरे पीछे पीछे चलती हैं" (यूहन्ना 10:27)।
"अत: विश्वास सुनने से और सुनना मसीह के वचन से होता है" (रोमियों 10:17)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
यीशु ने घोषणा की थी कि अंत के दिनों में मनुष्य को सत्य का आत्मा प्रदान किया जाएगा। अब अंत के दिन आ चुके हैं; क्या तुम जानते हो कि सत्य का आत्मा किस प्रकार वचनों को व्यक्त करता है? सत्य का आत्मा कहाँ प्रकट होकर कार्य करता है? नबी यशायाह की भविष्यवाणियों की पुस्तक में कभी भी यह उल्लेख नहीं किया गया कि नए नियम के युग में, यीशु नाम का बच्चा पैदा होगा; केवल यह लिखा था कि इम्मानुएल नाम का एक नर शिशु पैदा होगा। "यीशु" नाम का उल्लेख क्यों नहीं किया गया? पुराने नियम में कहीं भी उसका नाम नहीं दिखाई देता, तब भी तुम यीशु में विश्वास क्यों रखते हो? तुमने यीशु में विश्वास रखने से पहले निश्चित रूप से उसे अपनी आँखों से तो नहीं देखा था? या तुमने प्रकाशन प्राप्त करने पर विश्वास रखना प्रारम्भ किया? क्या परमेश्वर वास्तव में तुम पर ऐसा अनुग्रह दर्शाएगा? और तुम पर इस प्रकार के महान आशीष बरसाएगा? यीशु में तुम्हारी आस्था का आधार क्या है? तुम यह विश्वास क्यों नहीं करते कि आज परमेश्वर देहधारी हो गया है? तुम यह क्यों कहते हो कि तुम्हारे लिए परमेश्वर द्वारा प्रकाशन की अनुपस्थिति यह सिद्ध करती है कि वह देहधारी नहीं हुआ है? क्या परमेश्वर को अपना कार्य प्रारम्भ करने से पहले मनुष्य को सूचित करना चाहिए? क्या पहले उसे मनुष्य से अनुमोदन लेना चाहिए? यशायाह ने केवल यह घोषणा की थी कि चरणी में एक नर शिशु का जन्म होगा; उसने यह भविष्यवाणी नहीं की थी कि मरियम यीशु को जन्म देगी। मरियम से जन्मे यीशु पर तुम्हारे विश्वास का आधार क्या है? निश्चय ही तुम्हारा विश्वास भ्रमपूर्ण नहीं है!
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, वो मनुष्य, जिसने परमेश्वर को अपनी ही धारणाओं में सीमित कर दिया है, किस प्रकार उसके प्रकटनों को प्राप्त कर सकता है?
प्रभु यीशु ने थोमा से कहा : "तू ने मुझे देखा है, क्या इसलिये विश्वास किया है? धन्य वे हैं जिन्होंने बिना देखे विश्वास किया।" इन वचनों का तात्पर्य यह है कि प्रभु यीशु ने पहले ही उसकी निंदा कर दी थी। यह आशीष पाने या नहीं पाने की बात नहीं है। इसका संबंध इस तथ्य से है कि अगर तुम विश्वास नहीं करते हो, तो तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा; विश्वास करने पर ही तुम हासिल कर पाओगे। क्या तुम सिर्फ़ तभी किसी चीज़ पर विश्वास कर सकते हो जब परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से तुम्हारे सामने प्रकट होता है, तुम्हें उसे देखने देता है और तुम्हें समझाता है? एक मनुष्य होने के नाते, तुम्हारे पास कौन सी योग्यताएं हैं कि तुम परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से अपने सामने प्रकट होने के लिये कह सको? तुम्हारे पास कौन सी योग्यताएं हैं कि तुम परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से तुम्हारे जैसे भ्रष्ट मनुष्य से बात करने को मजबूर कर सको? इसके अलावा, तुम्हें कौन सी बात योग्य बनाती है जिससे कि परमेश्वर को तुम्हारे सामने सब कुछ स्पष्ट रूप से समझाना होगा, उसके बाद ही तुम उस पर विश्वास करोगे? अगर तुम विवेकशील हो, तो परमेश्वर द्वारा बोले गये इन वचनों को पढ़ते ही तुम विश्वास करने लगोगे। अगर तुम सचमुच विश्वास करते हो, तो इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर क्या करता या क्या कहता है। इसके बजाय, जब तुम देखोगे कि ये वचन सत्य हैं तो तुम सौ फ़ीसदी समझ जाओगे कि यह परमेश्वर द्वारा कहा गया या परमेश्वर द्वारा किया गया है। तुम पहले ही अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करने के लिये तैयार हो जाओगे। तुम्हें इस पर संदेह करने की ज़रूरत नहीं है।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही तुम स्वयं को जान सकते हो' से उद्धृत
प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ाए जाने से पहले थोमा ने हमेशा उसके मसीह होने पर संदेह किया था, और वह विश्वास करने में असमर्थ था। परमेश्वर पर उसका विश्वास जो कुछ वह अपनी आँखों से देख सका था, जो कुछ वह अपने हाथों से छू सका था, केवल उसके आधार पर ही स्थापित हुआ था। प्रभु यीशु को इस प्रकार के व्यक्तियों के विश्वास के बारे में अच्छी समझ थी। वे मात्र स्वर्गिक परमेश्वर पर विश्वास करते थे, और जिसे परमेश्वर ने भेजा था, उस पर या देहधारी मसीह पर बिलकुल भी विश्वास नहीं करते थे, न ही वे उसे स्वीकार करते थे। थोमा को प्रभु यीशु का अस्तित्व स्वीकार करवाने और उसका विश्वास दिलाने के लिए, और यह भी कि वह सचमुच देहधारी परमेश्वर है, उसने थोमा को अपना हाथ बढ़ाकर अपने पंजर को छूने दिया। क्या प्रभु यीशु के पुनरुत्थान के पहले और बाद में थोमा के संदेह करने में कुछ अंतर था? वह हमेशा संदेह करता था, और सिवाय प्रभु यीशु के आध्यात्मिक देह के व्यक्तिगत रूप से उसके सामने प्रकट होने और उसे अपने देह में कीलों के निशान छूने देने के, कोई उपाय नहीं था कि कोई उसके संदेहों का समाधान कर सके और उन्हें मिटा सके। इसलिए प्रभु यीशु द्वारा उसे अपने पंजर को छूने देने और कीलों के निशानों की मौज़ूदगी को वास्तव में महसूस करने देने के बाद से थोमा के संदेह गायब हो गए, और उसने सच में जान लिया कि प्रभु यीशु मरकर जी उठा है, और उसने स्वीकार किया और माना कि प्रभु यीशु सच्चा मसीह और देहधारी परमेश्वर है। यद्यपि इस समय थोमा ने अब और संदेह नहीं किया, किंतु उसने मसीह से मिलने का अवसर हमेशा के लिए गँवा दिया था। उसने उसके साथ रहने, उसका अनुसरण करने और उसे जानने का अवसर हमेशा के लिए गँवा दिया था। उसने स्वयं को प्रभु यीशु द्वारा पूर्ण बनाए जाने का अवसर गँवा दिया था। प्रभु यीशु के प्रकटन और उसके वचनों ने उन लोगों के विश्वास पर एक निष्कर्ष और एक निर्णय दे दिया, जो संदेहों से भरे हुए थे। उसने संदेह करने वालों को, उन लोगों को जो केवल स्वर्गिक परमेश्वर पर विश्वास करते थे और मसीह पर विश्वास नहीं करते थे, यह बताने के लिए अपने मूल वचनों और कार्यों का उपयोग किया : परमेश्वर ने उनके विश्वास की प्रशंसा नहीं की, न ही उसने उनके द्वारा संदेह करते हुए अनुसरण करने की प्रशंसा की। उनके द्वारा परमेश्वर और मसीह पर पूरी तरह से विश्वास करने का दिन ही परमेश्वर द्वारा अपना महान कार्य पूरा करने का दिन हो सकता था। निस्संदेह, यही वह दिन भी था, जब उनके संदेहों पर निर्णय दिया गया। मसीह के प्रति उनके रवैये ने उनका भाग्य निर्धारित कर दिया, और उनके अड़ियल संदेह का मतलब था कि उनके विश्वास ने उन्हें कोई फल प्रदान नहीं किया, और उनकी कठोरता का तात्पर्य था कि उनकी आशाएँ व्यर्थ थीं। चूँकि स्वर्गिक परमेश्वर पर उनका विश्वास भ्रांतियों पर पला था, और मसीह के प्रति उनका संदेह वास्तव में परमेश्वर के प्रति उनका वास्तविक रवैया था, इसलिए भले ही उन्होंने प्रभु यीशु के देह की कीलों के निशानों को छुआ था, फिर भी उनका विश्वास बेकार ही था और उनके परिणाम को बाँस की टोकरी से पानी खींचने के रूप में वर्णित किया जा सकता था—वह सब व्यर्थ था। जो कुछ प्रभु यीशु ने थोमा से कहा, वह उसका हर एक व्यक्ति से स्पष्ट रूप से कहने का भी तरीका था : पुनरुत्थित प्रभु यीशु ही वह प्रभु यीशु है, जिसने साढ़े तैंतीस वर्ष मानवजाति के बीच काम करते हुए बिताए थे। यद्यपि उसे सूली पर चढ़ा दिया गया था और उसने मृत्यु की छाया की घाटी का अनुभव किया था, और यद्यपि उसने पुनरुत्थान का अनुभव किया था, फिर भी उसमें किसी भी पहलू से कोई बदलाव नहीं हुआ था। यद्यपि अब उसके शरीर पर कीलों के निशान थे, और यद्यपि वह पुनरुत्थित हो गया था और क़ब्र से बाहर आ गया था, फिर भी उसका स्वभाव, मानवजाति की उसकी समझ, और मानवजाति के प्रति उसके इरादे ज़रा भी नहीं बदले थे। साथ ही, वह लोगों से कह रहा था कि वह सूली से नीचे उतर आया है, उसने पाप पर विजय पाई है, कठिनाइयों पर काबू पाया है, और मुत्यु पर जीत हासिल की है। कीलों के निशान शैतान पर उसके विजय के प्रमाण मात्र थे, संपूर्ण मानवजाति को सफलतापूर्वक छुड़ाने के लिए एक पापबलि होने के प्रमाण थे। वह लोगों से कह रहा था कि उसने पहले ही मानवजाति के पापों को अपने ऊपर ले लिया है और छुटकारे का अपना कार्य पूरा कर लिया है। जब वह अपने चेलों को देखने के लिए लौटा, तो उसने अपने प्रकटन के माध्यम से यह संदेश दिया : "मैं अभी भी जीवित हूँ, मैं अभी भी मौजूद हूँ; आज मैं वास्तव में तुम लोगों के सामने खड़ा हूँ, ताकि तुम लोग मुझे देख और छू सको। मैं हमेशा तुम लोगों के साथ रहूँगा।" प्रभु यीशु थोमा के मामले का उपयोग भविष्य के लोगों को यह चेतावनी देने के लिए भी करना चाहता था : यद्यपि तुम प्रभु यीशु पर अपने विश्वास में उसे न तो देख सकते हो और न ही छू सकते हो, फिर भी तुम अपने सच्चे विश्वास के कारण धन्य हो, और तुम अपने सच्चे विश्वास के कारण प्रभु यीशु को देख सकते हो, और इस प्रकार का व्यक्ति धन्य है।
बाइबल में दर्ज ये वचन, जिन्हें प्रभु यीशु ने तब कहा था जब वह थोमा के सामने प्रकट हुआ था, अनुग्रह के युग में सभी लोगों के लिए बड़े सहायक हैं। थोमा के सामने उसका प्रकटन और उससे कहे गए उसके वचनों का भविष्य की पीढ़ियों के ऊपर एक गहरा प्रभाव पड़ा है; उनका सार्वकालिक महत्व है। थोमा उस प्रकार के व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है, जो परमेश्वर पर विश्वास तो करते हैं, मगर उस पर संदेह भी करते हैं। वे शंकालु प्रकृति के होते हैं, उनका हृदय कुटिल होता है, वे विश्वासघाती होते हैं, और उन चीज़ों पर विश्वास नहीं करते, जिन्हें परमेश्वर संपन्न कर सकता है। वे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और उसकी संप्रभुता पर विश्वास नहीं करते, न ही वे देहधारी परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। किंतु प्रभु यीशु का पुनरुत्थान उनके इन लक्षणों के लिए एक चुनौती था, और इसने उन्हें अपने संदेह की खोज करने, अपने संदेह को पहचानने और अपने विश्वासघात को स्वीकार करने, और इस प्रकार प्रभु यीशु के अस्तित्व और पुनरुत्थान पर सचमुच विश्वास करने का एक अवसर भी प्रदान किया। थोमा के साथ जो कुछ हुआ, वह बाद की पीढ़ियों के लिए एक चेतावनी और सावधानी थी, ताकि अधिक लोग अपने आपको थोमा के समान शंकालु न होने के लिए सचेत कर सकें, और यदि वे खुद को संदेह से भरेंगे, तो वे अंधकार में डूब जाएँगे। यदि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, किंतु बिलकुल थोमा के समान इस बात की पुष्टि, सत्यापन और अनुमान करने के लिए कि परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं, हमेशा प्रभु के पंजर को छूना और उसके कीलों के निशानों को महसूस करना चाहते हो, तो परमेश्वर तुम्हें त्याग देगा। इसलिए प्रभु यीशु लोगों से अपेक्षा करता है कि वे थोमा के समान न बनें, जो केवल उसी बात पर विश्वास करते हैं जिसे वे अपनी आँखों से देख सकते हैं, बल्कि शुद्ध और ईमानदार व्यक्ति बनें, परमेश्वर के प्रति संदेहों को आश्रय न दें, बल्कि केवल उस पर विश्वास करें और उसका अनुसरण करें। इस प्रकार के लोग धन्य हैं। यह लोगों से प्रभु यीशु की एक बहुत छोटी अपेक्षा है, और यह उसके अनुयायियों के लिए एक चेतावनी है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III
क्या तुम लोग कारण जानना चाहते हो कि फरीसियों ने यीशु का विरोध क्यों किया? क्या तुम फरीसियों के सार को जानना चाहते हो? वे मसीहा के बारे में कल्पनाओं से भरे हुए थे। इससे भी ज़्यादा, उन्होंने केवल इस पर विश्वास किया कि मसीहा आएगा, फिर भी जीवन-सत्य की खोज नहीं की। इसलिए, वे आज भी मसीहा की प्रतीक्षा करते हैं क्योंकि उन्हें जीवन के मार्ग के बारे में कोई ज्ञान नहीं है, और नहीं जानते कि सत्य का मार्ग क्या है? तुम लोग क्या कहते हो, ऐसे मूर्ख, हठधर्मी और अज्ञानी लोग परमेश्वर का आशीष कैसे प्राप्त करेंगे? वे मसीहा को कैसे देख सकते हैं? उन्होंने यीशु का विरोध किया क्योंकि वे पवित्र आत्मा के कार्य की दिशा नहीं जानते थे, क्योंकि वे यीशु द्वारा बताए गए सत्य के मार्ग को नहीं जानते थे और इसके अलावा क्योंकि उन्होंने मसीहा को नहीं समझा था। और चूँकि उन्होंने मसीहा को कभी नहीं देखा था और कभी मसीहा के साथ नहीं रहे थे, उन्होंने मसीहा के नाम के साथ व्यर्थ ही चिपके रहने की ग़लती की, जबकि हर मुमकिन ढंग से मसीहा के सार का विरोध करते रहे। ये फरीसी सार रूप से हठधर्मी एवं अभिमानी थे और सत्य का पालन नहीं करते थे। परमेश्वर में उनके विश्वास का सिद्धांत था : इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा उपदेश कितना गहरा है, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा अधिकार कितना ऊँचा है, जब तक तुम्हें मसीहा नहीं कहा जाता, तुम मसीह नहीं हो। क्या ये दृष्टिकोण हास्यास्पद और बेतुके नहीं हैं? मैं तुम लोगों से आगे पूछता हूँ : क्या तुम लोगों के लिए वो ग़लतियां करना बेहद आसान नहीं, जो बिल्कुल आरंभ के फरीसियों ने की थीं, क्योंकि तुम लोगों के पास यीशु की थोड़ी-भी समझ नहीं है? क्या तुम सत्य का मार्ग जानने योग्य हो? क्या तुम सचमुच विश्वास दिला सकते हो कि तुम मसीह का विरोध नहीं करोगे? क्या तुम पवित्र आत्मा के कार्य का अनुसरण करने योग्य हो? यदि तुम नहीं जानते कि तुम मसीह का विरोध करोगे या नहीं, तो मेरा कहना है कि तुम पहले ही मौत की कगार पर जी रहे हो। जो लोग मसीहा को नहीं जानते थे, वे सभी यीशु का विरोध करने, यीशु को अस्वीकार करने, उसे बदनाम करने में सक्षम थे। जो लोग यीशु को नहीं समझते, वे सब उसे अस्वीकार करने एवं उसे बुरा-भला कहने में सक्षम हैं। इसके अलावा, वे यीशु के लौटने को शैतान द्वारा किए गए धोखे की तरह देखने में सक्षम हैं और अधिकांश लोग देह में लौटे यीशु की निंदा करेंगे। क्या इस सबसे तुम लोगों को डर नहीं लगता? जिसका तुम लोग सामना करते हो, वह पवित्र आत्मा के ख़िलाफ़ निंदा होगी, कलीसियाओं के लिए कहे गए पवित्र आत्मा के वचनों का विनाश होगा और यीशु द्वारा व्यक्त किए गए समस्त वचनों को ठुकराना होगा। यदि तुम लोग इतने संभ्रमित हो, तो यीशु से क्या प्राप्त कर सकते हो?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जब तक तुम यीशु के आध्यात्मिक शरीर को देखोगे, परमेश्वर स्वर्ग और पृथ्वी को नया बना चुका होगा
अय्यूब कान की श्रवणशक्ति से परमेश्वर के बारे में सुनता है
अय्यूब 9:11 देखो, वह मेरे सामने से होकर तो चलता है परन्तु मुझको नहीं दिखाई पड़ता; और आगे को बढ़ जाता है, परन्तु मुझे सूझ ही नहीं पड़ता है।
अय्यूब 23:8-9 देखो, मैं आगे जाता हूँ परन्तु वह नहीं मिलता; मैं पीछे हटता हूँ, परन्तु वह दिखाई नहीं पड़ता; जब वह बाईं ओर काम करता है, तब वह मुझे दिखाई नहीं देता; वह दाहिनी ओर ऐसा छिप जाता है, कि मुझे वह दिखाई ही नहीं पड़ता।
अय्यूब 42:2-6 मैं जानता हूँ कि तू सब कुछ कर सकता है, और तेरी युक्तियों में से कोई रुक नहीं सकती। तू ने पूछा, "तू कौन है जो ज्ञानरहित होकर युक्ति पर परदा डालता है?" परन्तु मैं ने तो जो नहीं समझता था वही कहा, अर्थात् जो बातें मेरे लिये अधिक कठिन और मेरी समझ से बाहर थीं जिनको मैं जानता भी नहीं था। तू ने कहा, "मैं निवेदन करता हूँ सुन, मैं कुछ कहूँगा, मैं तुझ से प्रश्न करता हूँ, तू मुझे बता।" मैं ने कानों से तेरा समाचार सुना था, परन्तु अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं; इसलिये मुझे अपने ऊपर घृणा आती है, और मैं धूल और राख में पश्चाताप करता हूँ।
यद्यपि परमेश्वर ने अय्यूब पर अपने को प्रकट नहीं किया है, फिर भी अय्यूब परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास करता है
इन वचनों का ज़ोर किस बात पर है? क्या तुम में से किसी ने अहसास किया कि यहाँ एक तथ्य है? पहला, अय्यूब कैसे जानता था कि परमेश्वर है? फिर, वह कैसे जानता था कि स्वर्ग और पृथ्वी तथा सभी चीज़ें परमेश्वर द्वारा शासित होती हैं? एक अंश है जो इन दोनों प्रश्नों का उत्तर देता है : "मैं ने कानों से तेरा समाचार सुना था, परन्तु अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं; इसलिये मुझे अपने ऊपर घृणा आती है, और मैं धूल और राख में पश्चाताप करता हूँ" (अय्यूब 42:5-6)। इन वचनों से हमें पता चलता है कि परमेश्वर को अपनी आँखों से देखा होने के बजाय, अय्यूब ने किंवदंती से परमेश्वर के बारे में जाना था। यह इन्हीं परिस्थितियों के अंतर्गत था कि उसने परमेश्वर का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना आरंभ किया, जिसके बाद उसने अपने जीवन में, और सभी चीज़ों के बीच, परमेश्वर के अस्तित्व की पुष्टि की। यहाँ एक अकाट्य तथ्य है—वह तथ्य क्या है? परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करने में समर्थ होने के बावज़ूद, अय्यूब ने परमेश्वर को कभी देखा नहीं था। इसमें, क्या वह आज के लोगों के समान नहीं था? अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था, जिसका निहितार्थ है कि यद्यपि उसने परमेश्वर के बारे में सुना था, फिर भी वह नहीं जानता था कि परमेश्वर कहाँ है, या परमेश्वर किसके समान है, या परमेश्वर क्या कर रहा है। ये सब व्यक्तिपरक कारक हैं; तटस्थ भाव से कहें, तो यद्यपि वह परमेश्वर का अनुसरण करता था, फिर भी परमेश्वर कभी उसके सामने प्रकट नहीं हुआ या परमेश्वर ने उससे कभी बात नहीं की। क्या यह तथ्य नहीं है? यद्यपि परमेश्वर ने अय्यूब से बात नहीं की थी, या उसे कोई आदेश नहीं दिए थे, फिर भी अय्यूब ने सभी चीज़ों के बीच, और उन किंवदंतियों में जिनके माध्यम से अय्यूब ने अपने कान की श्रवणशक्ति से परमेश्वर के बारे में सुना था, परमेश्वर का अस्तित्व देखा था और उसकी संप्रभुता को निहारा था, जिसके पश्चात उसने परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का जीवन प्रारंभ किया था। ऐसे थे वे उद्गम और प्रक्रिया जिनके द्वारा अय्यूब ने परमेश्वर का अनुसरण किया था। ...
परमेश्वर में अय्यूब का विश्वास इस तथ्य से डोलता नहीं है कि परमेश्वर उससे छिपा हुआ है
पवित्र शास्त्र के नीचे लिखे अंश में, फिर अय्यूब कहता है, "देखो, मैं आगे जाता हूँ परन्तु वह नहीं मिलता; मैं पीछे हटता हूँ, परन्तु वह दिखाई नहीं पड़ता; जब वह बाईं ओर काम करता है, तब वह मुझे दिखाई नहीं देता; वह दाहिनी ओर ऐसा छिप जाता है, कि मुझे वह दिखाई ही नहीं पड़ता" (अय्यूब 23:8-9)। इस वृतांत में, हमें पता चलता है कि अय्यूब के अनुभवों में, परमेश्वर पूरे समय उससे छिपा रहा था; परमेश्वर उसके सामने खुलकर प्रकट नहीं हुआ था, न ही उसने खुलकर उससे कोई वचन कहे थे, फिर भी अपने हृदय में, अय्यूब को परमेश्वर के अस्तित्व के बारे में पूरा विश्वास था। वह हमेशा यही मानता था कि शायद परमेश्वर उसके आगे-आगे चल रहा है, या शायद उसके बगल में कुछ कर रहा है, और यह कि यद्यपि वह परमेश्वर को देख नहीं सकता था, किंतु परमेश्वर उसके बगल में था और उसकी सभी चीज़ों को शासित कर रहा था। अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था, परंतु वह अपने विश्वास के प्रति सच्चा रह पाता था, जो कोई अन्य व्यक्ति नहीं कर पाता था। दूसरे लोग ऐसा क्यों नहीं कर पाते थे? ऐसा इसलिए था क्योंकि परमेश्वर ने अय्यूब से बात नहीं की या उसके सामने प्रकट नहीं हुआ, और यदि उसने सच्चे अर्थ में विश्वास नहीं किया होता, तो वह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर न तो आगे बढ़ा सकता था, न ही उसे दृढ़ता से थामे रह सकता था। क्या यह सच नहीं है? जब तुम अय्यूब को ये वचन कहते पढ़ते हो तब तुम कैसा महसूस करते हो? क्या तुम्हें लगता है कि अय्यूब की पूर्णता और खरापन, और परमेश्वर के समक्ष उसकी धार्मिकता सच हैं, और परमेश्वर की ओर से की गई कोई अतिशयोक्ति नहीं हैं? परमेश्वर ने अय्यूब के साथ भले ही अन्य लोगों के समान ही व्यवहार किया था, और उसके सामने प्रकट नहीं हुआ या उससे बात नहीं की थी, तब भी अय्यूब अपनी सत्यनिष्ठा को दृढ़ता से थामे रहा था, तब भी परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास करता था, और इससे बढ़कर, वह परमेश्वर को नाराज़ करने के अपने भय के फलस्वरूप परमेश्वर के समक्ष बारंबार होमबलि चढ़ाता था और प्रार्थना करता था। परमेश्वर को देखे बिना परमेश्वर का भय मानने की अय्यूब की क्षमता में, हम देखते हैं कि वह सकारात्मक चीज़ों से कितना प्रेम करता था, और उसका विश्वास कितना दृढ़ और वास्तविक था। इसलिए कि परमेश्वर उससे छिपा हुआ था उसने परमेश्वर के अस्तित्व को नकारा नहीं, न ही इसलिए कि उसने उसे कभी देखा नहीं था उसने अपना विश्वास खोया और परमेश्वर को त्यागा। इसके बजाय, सभी चीज़ों पर शासन करने के परमेश्वर के छिपे हुए कार्य के बीच, उसने परमेश्वर के अस्तित्व का अहसास किया था, और परमेश्वर की संप्रभुता और सामर्थ्य को महसूस किया था। इसलिए कि परमेश्वर उससे छिपा हुआ था उसने खरा होना नहीं छोड़ा, न ही इसलिए कि परमेश्वर उसके सामने प्रकट नहीं हुआ था उसने परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग त्यागा। अय्यूब ने कभी नहीं कहा कि अपना अस्तित्व सिद्ध करने के लिए परमेश्वर उसके सामने खुलकर प्रकट हो, क्योंकि उसने सभी चीज़ों के बीच परमेश्वर की संप्रभुता के दर्शन पहले ही कर लिए थे, और वह विश्वास करता था कि उसने वे आशीष और अनुग्रह प्राप्त कर लिए थे जिन्हें अन्य लोगों ने प्राप्त नहीं किया था। यद्यपि परमेश्वर उससे छिपा रहा, फिर भी परमेश्वर में अय्यूब का विश्वास कभी डगमगाया नहीं था। इस प्रकार, उसने वह फसल काटी जो अन्य किसी ने नहीं काटी थी : परमेश्वर की स्वीकृति और परमेश्वर का आशीष।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II
चूँकि हम परमेश्वर के पदचिह्नों की खोज कर रहे हैं, इसलिए हमारा कर्तव्य बनता है कि हम परमेश्वर की इच्छा, उसके वचन और कथनों की खोज करें—क्योंकि जहाँ कहीं भी परमेश्वर द्वारा बोले गए नए वचन हैं, वहाँ परमेश्वर की वाणी है, और जहाँ कहीं भी परमेश्वर के पदचिह्न हैं, वहाँ परमेश्वर के कर्म हैं। जहाँ कहीं भी परमेश्वर की अभिव्यक्ति है, वहाँ परमेश्वर प्रकट होता है, और जहाँ कहीं भी परमेश्वर प्रकट होता है, वहाँ सत्य, मार्ग और जीवन विद्यमान होता है। परमेश्वर के पदचिह्नों की तलाश में तुम लोगों ने इन वचनों की उपेक्षा कर दी है कि "परमेश्वर सत्य, मार्ग और जीवन है।" और इसलिए, बहुत-से लोग सत्य को प्राप्त करके भी यह नहीं मानते कि उन्हें परमेश्वर के पदचिह्न मिल गए हैं, और वे परमेश्वर के प्रकटन को तो बिलकुल भी स्वीकार नहीं करते। कितनी गंभीर ग़लती है! परमेश्वर के प्रकटन का समाधान मनुष्य की धारणाओं से नहीं किया जा सकता, और परमेश्वर मनुष्य के आदेश पर तो बिलकुल भी प्रकट नहीं हो सकता। परमेश्वर जब अपना कार्य करता है, तो वह अपनी पसंद और अपनी योजनाएँ बनाता है; इसके अलावा, उसके अपने उद्देश्य और अपने तरीके हैं। वह जो भी कार्य करता है, उसके बारे में उसे मनुष्य से चर्चा करने या उसकी सलाह लेने की आवश्यकता नहीं है, और अपने कार्य के बारे में हर-एक व्यक्ति को सूचित करने की आवश्यकता तो उसे बिलकुल भी नहीं है। यह परमेश्वर का स्वभाव है, जिसे हर व्यक्ति को पहचानना चाहिए। यदि तुम लोग परमेश्वर के प्रकटन को देखने और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करने की इच्छा रखते हो, तो तुम लोगों को पहले अपनी धारणाओं को त्याग देना चाहिए। तुम लोगों को यह माँग नहीं करनी चाहिए कि परमेश्वर ऐसा करे या वैसा करे, तुम्हें उसे अपनी सीमाओं और अपनी धारणाओं तक सीमित तो बिलकुल भी नहीं करना चाहिए। इसके बजाय, तुम लोगों को यह पूछना चाहिए कि तुम्हें परमेश्वर के पदचिह्नों की तलाश कैसे करनी है, तुम्हें परमेश्वर के प्रकटन को कैसे स्वीकार करना है, और तुम्हें परमेश्वर के नए कार्य के प्रति कैसे समर्पण करना है। मनुष्य को ऐसा ही करना चाहिए। चूँकि मनुष्य सत्य नहीं है, और उसके पास भी सत्य नहीं है, इसलिए उसे खोजना, स्वीकार करना और आज्ञापालन करना चाहिए।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 1: परमेश्वर के प्रकटन ने एक नए युग का सूत्रपात किया है
ऐसी चीज़ की जाँच-पड़ताल करना कठिन नहीं है, परंतु इसके लिए हममें से प्रत्येक को इस सत्य को जानने की ज़रूरत है: जो देहधारी परमेश्वर है, उसके पास परमेश्वर का सार होगा और जो देहधारी परमेश्वर है, उसके पास परमेश्वर की अभिव्यक्ति होगी। चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया है, इसलिए वह उस कार्य को सामने लाएगा, जो वह करना चाहता है, और चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया है, इसलिए वह उसे अभिव्यक्त करेगा जो वह है और वह मनुष्य के लिए सत्य को लाने, उसे जीवन प्रदान करने और उसे मार्ग दिखाने में सक्षम होगा। जिस देह में परमेश्वर का सार नहीं है, वह निश्चित रूप से देहधारी परमेश्वर नहीं है; इसमें कोई संदेह नहीं। अगर मनुष्य यह पता करना चाहता है कि क्या यह देहधारी परमेश्वर है, तो इसकी पुष्टि उसे उसके द्वारा अभिव्यक्त स्वभाव और उसके द्वारा बोले गए वचनों से करनी चाहिए। इसे ऐसे कहें, व्यक्ति को इस बात का निश्चय कि यह देहधारी परमेश्वर है या नहीं और कि यह सही मार्ग है या नहीं, उसके सार से करना चाहिए। और इसलिए, यह निर्धारित करने की कुंजी कि यह देहधारी परमेश्वर की देह है या नहीं, उसके बाहरी स्वरूप के बजाय उसके सार (उसका कार्य, उसके कथन, उसका स्वभाव और कई अन्य पहलू) में निहित है। यदि मनुष्य केवल उसके बाहरी स्वरूप की ही जाँच करता है, और परिणामस्वरूप उसके सार की अनदेखी करता है, तो इससे उसके अनाड़ी और अज्ञानी होने का पता चलता है। बाहरी स्वरूप सार का निर्धारण नहीं कर सकता; इतना ही नहीं, परमेश्वर का कार्य कभी भी मनुष्य की अवधारणाओं के अनुरूप नहीं हो सकता। क्या यीशु का बाहरी रूपरंग मनुष्य की अवधारणाओं के विपरीत नहीं था? क्या उसका चेहरा और पोशाक उसकी वास्तविक पहचान के बारे में कोई सुराग देने में असमर्थ नहीं थे? क्या आरंभिक फरीसियों ने यीशु का ठीक इसीलिए विरोध नहीं किया था क्योंकि उन्होंने केवल उसके बाहरी स्वरूप को ही देखा, और उसके द्वारा बोले गए वचनों को हृदयंगम नहीं किया?
— "वचन देह में प्रकट होता है" की 'प्रस्तावना' से उद्धृत
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?