सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति को सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए?

14 मार्च, 2021

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

सत्य के अभ्यास में सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है? क्या यह महत्वपूर्ण नहीं कि तुम सबसे पहले इसके सिद्धांतों को समझो? सिद्धांत क्या हैं? सिद्धांत सत्य का व्यावहारिक पहलू हैं। जब तुम परमेश्वर के वचनों का एक वाक्य पढ़ते हो, तो तुम्हें लगता है कि यह सत्य है, पर तुम इसके भीतर के सिद्धांतों को नहीं समझ पाते हो; तुम्हें लगता है कि वाक्य सही है, पर तुम्हें यह नहीं मालूम होता कि यह किस तरह से व्यावहारिक है, या यह किस अवस्था को संबोधित करने के लिए है। तुम इसके सिद्धांतों या इसके अभ्यास के मार्ग को नहीं समझ पाते। तुम्हारे लिए तुम्हारे द्वारा महसूस किया गया यह सत्य केवल मत है। परंतु एक बार जब तुम उस वाक्य की सत्य-वास्तविकता को समझ लेते हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं को भी जान लेते हो—अगर तुम सचमुच इन चीजों को समझते हो, मूल्य चुकाने और इन्हें अभ्यास में लाने में सक्षम हो जाते हो—तो तुम उस सत्य को प्राप्त कर लोगे। जब तुम थोड़ा-थोड़ा करके उस सत्य को प्राप्त कर लेते हो तो तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव खत्म हो जाता है और वह सत्य तुम्हारे भीतर काम करने लगता है। जब तुम सत्य की वास्तविकता को अभ्यास में लाने में सक्षम हो जाते हो और जब एक व्यक्ति के रूप में अपने कर्तव्य का पालन, तुम्हारा हर कृत्य और तुम्हारा आचरण इस सत्य के अभ्यास के सिद्धांतों पर आधारित हो जाता है, तो क्या तुममें एक बदलाव नहीं आ जाता? सबसे बढ़कर, तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाते हो जिसके अंदर सत्य-वास्तविकता होती है। क्या जिस व्यक्ति में सत्य-वास्तविकता होती है, वह उस व्यक्ति के समान नहीं है जो सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है? और क्या जो व्यक्ति सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है वह उस व्यक्ति के समान नहीं है जिसमें सत्य है? क्या जिस व्यक्ति में सत्य है वह भी परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप आचरण करने में सक्षम नहीं है? इस तरह ये चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं।

— परमेश्‍वर की संगति से उद्धृत

इस पर ध्यान दिए बगैर कि तुमने सत्य की वास्तविकता के कौन से पहलू को सुना है, यदि तुम इसके विरुद्ध अपने आप को सँभालते हो, यदि तुम इन वचनों को अपने जीवन में कार्यान्वित करते हो, और उन्हें अपने स्वयं के अभ्यास में शामिल करते हो, तो तुम निश्चित रूप से कुछ हासिल करोगे, और निश्चित रूप से बदल जाओगे। यदि तुम इन वचनों को पेट में ठूँस लेते हो, और उन्हें अपने मस्तिष्क में याद कर लेते हो, तो तुम कभी भी नहीं बदलोगे। उपदेश सुनते समय, तुम्हें इस प्रकार विचार करना चाहिए : "ये वचन किस प्रकार की अवस्था का उल्लेख कर रहे हैं? ये सार के किस पहलू का उल्लेख कर रहे हैं? सत्य के इस पहलू को मुझे किन मामलों में लागू करना चाहिए? जब भी मैं सत्य के इस पहलू से संबंधित कुछ कार्य करता हूँ, तो क्या मैं सत्य के अनुसार अभ्यास कर रहा होता हूँ? और जब मैं इसका अभ्यास कर रहा होता हूँ, तो क्या मेरी अवस्था इन वचनों के अनुसार होती है? अगर नहीं है, तो क्या मुझे खोज, संगति या प्रतीक्षा करनी चाहिए?" क्या तुम अपने जीवन में इस तरीके से अभ्यास करते हो? अगर नहीं करते, तो तुम्हारा जीवन परमेश्वरविहीन और सत्य से रहित है। तुम शब्दों और सिद्धांतों के अनुसार जीवन जीते हो या अपने हितों, विश्वास और उत्साह के अनुसार जीवन जीते हो। जिन लोगों में वास्तविकता के रूप में सत्य नहीं है, उनमें कोई वास्तविकता नहीं है और जिन लोगों में अपनी वास्तविकता के रूप में परमेश्वर के वचन नहीं हैं, उन्होंने परमेश्वर के वचनों में प्रवेश नहीं किया है। क्या तुम लोग मेरी बातों को समझ रहे हो? अगर समझ रहे हो तो बहुत अच्छी बात है—लेकिन तुमने उन्हें चाहे कितना भी समझा हो, जो कुछ सुना है, उसे चाहे कितना भी ग्रहण किया हो, महत्वपूर्ण बात यह है कि तुमने जो कुछ भी समझा है, तुम उसे अपने जीवन में उतार पाओ और अभ्यास में ला पाओ। तभी तुम्हारा आध्यात्मिक विकास होगा और तभी तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन होगा।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास' से उद्धृत

सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करना कोई मामूली बात नहीं है। मुख्य बात है सत्य खोजने पर ध्यान देना और सत्य को अमल में लाना। इन बातों को तुम्हें हर दिन अपने दिल में बैठाना ज़रूरी है। चाहे कोई भी समस्या आए, हमेशा अपने हितों की ही सुरक्षा मत करो; बल्कि सत्य की खोज करना सीखो और आत्म-चिंतन करो। तुम्हारे अंदर कोई भी भ्रष्टता क्यों न हो, लेकिन तुम उन्हें अनियंत्रित नहीं छोड़ सकते; अगर तुम आत्म-चिंतन करके अपनी भ्रष्टता के सार को पहचान सको तो यह सबसे अच्छा है। अगर तुम हर स्थिति में इस बात पर विचार करो कि अपने भ्रष्ट स्वभाव को कैसे दूर किया जाए, सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए और सत्य-सिद्धांत क्या हैं, तो तुम सीख जाओगे कि अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य का उपयोग कैसे किया जाए। ऐसा करके, तुम धीरे-धीरे वास्तविकता में प्रवेश करोगे। अगर तुम्‍हारा हृदय इस तरह के विचारों से भरा हुआ है कि ऊँचा पद कैसे हासिल किया जाए, या दूसरे लोगों के सामने ऐसा क्‍या किया जाए जिससे वे तुम्‍हारी सराहना करने लगें, तो तुम ग़लत मार्ग पर हो। इसका मतलब है कि तुम शैतान के लिए काम कर रहे हो; तुम उसकी सेवा में लगे हुए हो। अगर तुम्‍हारा हृदय इस तरह के विचारों से भरा हुआ है कि तुम कैसे अपने को इस तरह बदल लो कि तुम अधिक-से-अधिक मनुष्‍य जैसा स्‍वरूप हासिल कर सको, अगर तुम परमेश्‍वर के प्रयोजनों के अनुरूप हो, उसके प्रति स्‍वयं को समर्पित कर सकते हो, उसके प्रति श्रद्धा रखने में और अपने हर कृत्‍य में संयम बरतने सक्षम हो, और उसके परीक्षण को पूरी तरह स्‍वीकार कर सकते हो, तो तुम्‍हारी हालत उत्‍तरोत्‍तर सुधरती जाएगी। परमेश्‍वर के समक्ष जीने वाला व्‍यक्ति होने का अर्थ यही है। वैसे, मार्ग दो हैं : एक जो महज़ आचरण पर, अपनी महत्‍त्‍वाकांक्षाओं, आकांक्षाओं, प्रयोजनों, और योजनाओं को पूरा करने पर बल देता है; यह शैतान के समक्ष और उसके अधिकार-क्षेत्र के अधीन जीना है। दूसरा मार्ग इस पर बल देता है कि परमेश्‍वर की इच्‍छा को किस तरह सन्‍तुष्‍ट किया जाए, सत्‍य की वास्‍तविकता में कैसे प्रवेश किया जाए, परमेश्‍वर के समक्ष समर्पण कैसे किया जाए, कैसे उसको लेकर किसी भी तरह की ग़लतफ़हमियाँ न पाली जाएँ या अवज्ञाएँ न की जाएँ, यह सब इसलिए ताकि परमेश्‍वर के प्रति श्रद्धा अर्जित की जा सके और अपने कर्तव्‍य का ठीक से पालन किया जा सके। परमेश्‍वर के समक्ष जीने का यही अर्थ है।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य का अभ्यास करके ही कोई सामान्य मानवता से युक्त हो सकता है' से उद्धृत

जो लोग वास्तव में खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं वे उसके सामने अपना पूरा अस्तित्व रख देते हैं; वे वास्तव में उसके सभी कथनों का पालन करते हैं, और उसके वचनों को अभ्यास में लाने में सक्षम होते हैं। वे परमेश्वर के वचनों को अपने अस्तित्व की नींव बनाते हैं, और परमेश्वर के वचनों में अभ्यास करने के हिस्सों को गंभीरता तलाश करने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोग वास्तव में परमेश्वर के सामने रहते हैं। यदि तुम जो करते हो वह तुम्हारे जीवन के लिए लाभदायक है, और उसके वचनों को खाने और पीने के द्वारा, तुम अपनी आंतरिक आवश्यकताओं और कमियों को पूरा कर सकते हो ताकि तुम्हारा जीवन स्वभाव रूपान्तरित हो जाए, तो यह परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करेगा। यदि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करते हो, यदि तुम देह को संतुष्ट नहीं करते हो, बल्कि उसकी इच्छा को संतुष्ट करते हो, तो यह उसके वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना है। जब तुम परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में अधिक यथार्थता से प्रवेश करने के बारे में बात करते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर सकते हो। केवल इस प्रकार के व्यावहारिक कार्यों को ही उसके वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना कहा जा सकता है। यदि तुम इस वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम हो, तो तुममें सत्य होगा। यह वास्तविकता में प्रवेश करने की शुरुआत है; तुम्हें पहले यह प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए और केवल उसके बाद ही तुम गहरी वास्तविकताओं में प्रवेश कर पाओगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर से सचमुच प्रेम करने वाले लोग वे होते हैं जो परमेश्वर की व्यावहारिकता के प्रति पूर्णतः समर्पित हो सकते हैं

जबसे लोगों ने परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू किया है, उन्होंने कई ग़लत इरादों को प्रश्रय दिया है। जब तुम सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहे होते हो, तो तुम ऐसा महसूस करते हो कि तुम्हारे सभी इरादे सही हैं, किंतु जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है, तो तुम देखोगे कि तुम्हारे भीतर बहुत-से गलत इरादे हैं। इसलिए, जब परमेश्वर लोगों को पूर्ण बनाता है, तो वह उन्हें महसूस करवाता है कि उनके भीतर कई ऐसी धारणाएँ हैं, जो परमेश्वर के बारे में उनके ज्ञान को अवरुद्ध कर रही हैं। जब तुम पहचान लेते हो कि तुम्हारे इरादे ग़लत हैं, तब यदि तुम अपनी धारणाओं और इरादों के अनुसार अभ्यास करना छोड़ पाते हो, और परमेश्वर के लिए गवाही दे पाते हो और अपने साथ घटित होने वाली हर बात में अपनी स्थिति पर डटे रहते हो, तो यह साबित करता है कि तुमने देह के विरुद्ध विद्रोह कर दिया है। जब तुम देह के विरुद्ध विद्रोह करते हो, तो तुम्हारे भीतर अपरिहार्य रूप से एक संघर्ष होगा। शैतान लोगों से अपना अनुसरण करवाने की कोशिश करेगा, उनसे देह की धारणाओं का अनुसरण करवाने की कोशिश करेगा और देह के हितों को बनाए रखेगा—किंतु परमेश्वर के वचन भीतर से लोगों को प्रबुद्ध करेंगे और उन्हें रोशनी प्रदान करेंगे, और उस समय यह तुम पर निर्भर करेगा कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो या शैतान का। परमेश्वर लोगों से मुख्य रूप से उनके भीतर की चीज़ों से, उनके उन विचारों और धारणाओं से, जो परमेश्वर के मनोनुकूल नहीं हैं, निपटने के लिए सत्य को अभ्यास में लाने के लिए कहता है। पवित्र आत्मा लोगों के हृदय में स्पर्श करता है और उन्हें प्रबुद्ध और रोशन करता है। इसलिए जो कुछ होता है, उस सब के पीछे एक संघर्ष होता है : हर बार जब लोग सत्य को अभ्यास में लाते हैं या परमेश्वर के लिए प्रेम को अभ्यास में लाते हैं, तो एक बड़ा संघर्ष होता है, और यद्यपि अपने देह से सभी अच्छे दिखाई दे सकते हैं, किंतु वास्तव में, उनके हृदय की गहराई में जीवन और मृत्यु का संघर्ष चल रहा होता है—और केवल इस घमासान संघर्ष के बाद ही, अत्यधिक चिंतन के बाद ही, जीत या हार तय की जा सकती है। कोई यह नहीं जानता कि रोया जाए या हँसा जाए। क्योंकि मनुष्यों के भीतर के अनेक इरादे ग़लत हैं, या फिर चूँकि परमेश्वर का अधिकांश कार्य उनकी धारणाओं के विपरीत होता है, इसलिए जब लोग सत्य को अभ्यास में लाते हैं, तो पर्दे के पीछे एक बड़ा संघर्ष छिड़ जाता है। इस सत्य को अभ्यास में लाकर, पर्दे के पीछे लोग अंततः परमेश्वर को संतुष्ट करने का मन बनाने से पहले उदासी के असंख्य आँसू बहा चुके होंगे। यह इसी संघर्ष के कारण है कि लोग दुःख और शुद्धिकरण सहते हैं; यही असली कष्ट सहना है। जब संघर्ष तुम्हारे ऊपर पड़ता है, तब यदि तुम सचमुच परमेश्वर की ओर खड़े रहने में समर्थ होते हो, तो तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे। सत्य का अभ्यास करते हुए व्यक्ति का अपने अंदर पीड़ा सहना अपरिहार्य है; यदि, जब वे सत्य को अभ्यास में लाते हैं, उस समय उनके भीतर सब-कुछ ठीक होता, तो उन्हें परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने की आवश्यकता न होती, और कोई संघर्ष न होता और वे पीड़ित न होते। ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोगों के भीतर कई ऐसी चीज़ें हैं, जो परमेश्वर के द्वारा उपयोग में लाए जाने योग्य नहीं हैं, और चूँकि देह का बहुत विद्रोही स्वभाव है, इसलिए लोगों को देह के विरुद्ध विद्रोह करने के सबक को अधिक गहराई से सीखने की आवश्यकता है। इसी को परमेश्वर पीड़ा कहता है, जिसमें से उसने मनुष्य को अपने साथ गुज़रने के लिए कहा है। जब कठिनाइयों से तुम्हारा सामना हो, तो जल्दी करो और परमेश्वर से प्रार्थना करो : "हे परमेश्वर! मैं तुझे संतुष्ट करना चाहता हूँ, मैं तेरे हृदय को संतुष्ट करने के लिए अंतिम कठिनाई सहना चाहता हूँ, और चाहे मैं कितनी भी बड़ी असफलताओं का सामना करूँ, मुझे तब भी तुझे संतुष्ट करना चाहिए। यहाँ तक कि यदि मुझे अपना संपूर्ण जीवन भी त्यागना पड़े, मुझे तब भी तुझे संतुष्ट करना चाहिए!" इस संकल्प के साथ, जब तुम इस प्रकार प्रार्थना करोगे, तो तुम अपनी गवाही में अडिग रह पाओगे। हर बार जब लोग सत्य को अभ्यास में लाते हैं, हर बार जब वे शुद्धिकरण से गुज़रते हैं, हर बार जब उन्हें आजमाया जाता है, और हर बार जब परमेश्वर का कार्य उन पर आता है, तो उन्हें चरम पीड़ा सहनी होगी। यह सब लोगों के लिए एक परीक्षा है, और इसलिए इन सबके भीतर एक संघर्ष होता है। यही वह वास्तविक मूल्य है, जो वे चुकाते हैं। परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़ना तथा अधिक दौड़-भाग उस क़ीमत का एक भाग है। यही है, जो लोगों को करना चाहिए, यही उनका कर्तव्य और उनकी ज़िम्मेदारी है, जो उन्हें पूरी करनी चाहिए, किंतु लोगों को अपने भीतर की उन बातों को एक ओर रखना चाहिए, जिन्हें एक ओर रखे जाने की आवश्यकता है। यदि तुम ऐसा नहीं करते, तो चाहे तुम्हारी बाह्य पीड़ा कितनी भी बड़ी क्यों न हों, और चाहे तुम कितनी भी भाग-दौड़ क्यों न कर लो, सब व्यर्थ रहेगा! कहने का अर्थ है कि, केवल तुम्हारे भीतर के बदलाव ही निर्धारित कर सकते हैं कि तुम्हारी बाहरी कठिनाई का कोई मूल्य है या नहीं। जब तुम्हारा आंतरिक स्वभाव बदल जाता है और तुम सत्य को अभ्यास में ले आते हो, तब तुम्हारी समस्त बाहरी पीड़ाओं को परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त हो जाएगा; यदि तुम्हारे आंतरिक स्वभाव में कोई बदलाव नहीं हुआ है, तो चाहे तुम कितनी भी पीड़ा क्यों न सह लो या तुम बाहर कितनी भी दौड़-भाग क्यों न कर लो, परमेश्वर की ओर से कोई अनुमोदन नहीं होगा—और ऐसी कठिनाई व्यर्थ है जो परमेश्वर द्वारा अनुमोदित नहीं है। इसलिए, तुम्हारे द्वारा जो क़ीमत चुकाई गई है, वह परमेश्वर द्वारा अनुमोदित की जाती है या नहीं, यह इस बात से निर्धारित होता है कि तुम्हारे भीतर कोई बदलाव आया है या नहीं, और कि परमेश्वर की इच्छा की संतुष्टि, परमेश्वर का ज्ञान और परमेश्वर के प्रति वफादारी प्राप्त करने के लिए तुम सत्य को अभ्यास में लाते हो या नहीं, और अपने इरादों और धारणाओं के विरुद्ध विद्रोह करते हो या नहीं। चाहे तुम कितनी भी भाग-दौड़ क्यों न करो, यदि तुमने कभी अपने इरादों के विरुद्ध विद्रोह करना नहीं जाना, बल्कि केवल बाहरी कार्यकलापों और जोश की खोज करना ही जानते हो, और कभी अपने जीवन पर ध्यान नहीं देते, तो तुम्हारी कठिनाई व्यर्थ रही होगी। यदि, किसी निश्चित परिवेश में, तुम्हारे पास कुछ है जो तुम कहना चाहते हो, किंतु अंदर से तुम महसूस करते हो कि यह कहना सही नहीं है, कि इसे कहने से तुम्हारे भाइयों और बहनों को लाभ नहीं होगा, और यह उन्हें ठेस पहुँचा सकता है, तो तुम इसे नहीं कहोगे, भीतर ही भीतर कष्ट सहना पसंद करोगे, क्योंकि ये वचन परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में अक्षम हैं। उस समय तुम्हारे भीतर एक संघर्ष होगा, किंतु तुम पीड़ा सहने और उस चीज़ को छोड़ने की इच्छा करोगे जिससे तुम प्रेम करते हो, तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए इस कठिनाई को सहने की इच्छा करोगे, और यद्यपि तुम भीतर कष्ट सहोगे, लेकिन तुम देह को बढ़ावा नहीं दोगे, और इससे परमेश्वर का हृदय संतुष्ट हो जाएगा, और इसलिए तुम्हें भी अंदर सांत्वना मिलेगी। यही वास्तव में क़ीमत चुकाना है, और परमेश्वर द्वारा वांछित क़ीमत है। यदि तुम इस तरीके से अभ्यास करोगे, तो परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें आशीष देगा; यदि तुम इसे प्राप्त नहीं कर सकते, तो चाहे तुम कितना ही अधिक क्यों न समझते हो, या तुम कितना अच्छा क्यों न बोल सकते हो, यह सब कुछ व्यर्थ होगा! यदि परमेश्वर से प्रेम करने के मार्ग पर तुम उस समय परमेश्वर की ओर खड़े होने में समर्थ हो, जब वह शैतान के साथ संघर्ष करता है, और तुम शैतान की ओर वापस नहीं जाते, तब तुमने परमेश्वर के लिए प्रेम प्राप्त कर लिया होगा, और तुम अपनी गवाही में दृढ़ खड़े रहे होगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है

सारांश में, अपने विश्वास में पतरस के मार्ग को अपनाने का अर्थ है, सत्य को खोजने के मार्ग पर चलना, जो वास्तव में स्वयं को जानने और अपने स्वभाव को बदलने का मार्ग भी है। केवल पतरस के मार्ग पर चलने के द्वारा ही कोई परमेश्वर के द्वारा सिद्ध बनाए जाने के मार्ग पर होगा। किसी को भी इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि वास्तव में कैसे पतरस के मार्ग पर चलना है साथ ही कैसे इसे अभ्यास में लाना है। सबसे पहले, किसी को भी अपने स्वयं के इरादों, अनुचित कार्यों, और यहाँ तक कि अपने परिवार और अपनी स्वयं की देह की सभी चीज़ों को एक ओर रखना होगा। एक व्यक्ति को पूर्ण हृदय से समर्पित अवश्य होना चाहिए, अर्थात्, स्वयं को पूरी तरह से परमेश्वर के वचन के प्रति समर्पित करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, सत्य की खोज पर ध्यान लगाना, और परमेश्वर के वचनों में उसके इरादों की खोज पर अवश्य ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, और हर चीज़ में परमेश्वर की इच्छा को समझने का प्रयास करना चाहिए। यह अभ्यास की सबसे बुनियादी और प्राणाधार पद्धति है। यह वही था जो पतरस ने यीशु को देखने के बाद किया था, और केवल इस तरह से अभ्यास करने से ही कोई सबसे अच्छा परिणाम प्राप्त कर सकता है। परमेश्वर के वचनों के प्रति हार्दिक समर्पण में मुख्यत: सत्य की खोज करना, परमेश्वर के वचनों में उसके इरादों की खोज करना, परमेश्वर की इच्छा को समझने पर ध्यान केन्द्रित करना, और परमेश्वर के वचनों से सत्य को समझना तथा और अधिक प्राप्त करना शामिल है। उसके वचनों को पढ़ते समय, पतरस ने सिद्धांतों को समझने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया था और धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने पर तो उसका ध्यान और भी केंद्रित नहीं था; इसके बजाय, उसने सत्य को समझने और परमेश्वर की इच्छा को समझने पर, साथ ही उसके स्वभाव और उसकी सुंदरता की समझ को प्राप्त करने पर ध्यान लगाया था। पतरस ने परमेश्वर के वचनों से मनुष्य की विभिन्न भ्रष्ट अवस्थाओं के साथ ही मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति को तथा मनुष्य की वास्तविक कमियों को समझने का भी प्रयास किया, और इस प्रकार परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, उसकी इंसान से अपेक्षाओं के सभी पहलुओं को प्राप्त किया। पतरस के पास ऐसे बहुत से अभ्यास थे जो परमेश्वर के वचनों के अनुरूप थे; यह परमेश्वर की इच्छा के सर्वाधिक अनुकूल था, और यह वो सर्वोत्त्म तरीका था जिससे कोई व्यक्ति परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए सहयोग कर सकता है। परमेश्वर से सैकड़ों परीक्षणों का अनुभव करते समय, पतरस ने मनुष्य के लिए परमेश्वर के न्याय के प्रत्येक वचन, मनुष्य के प्रकाशन के परमेश्वर के प्रत्येक वचन और मनुष्य की उसकी माँगों के प्रत्येक वचन के विरुद्ध सख्ती से स्वयं की जाँच की, और उन वचनों के अर्थ को जानने का पूरा प्रयास किया। उसने उस हर वचन पर विचार करने और याद करने की ईमानदार कोशिश की जो यीशु ने उससे कहे थे, और बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त किए। अभ्यास करने के इस तरीके के माध्यम से, वह परमेश्वर के वचनों से स्वयं की समझ प्राप्त करने में सक्षम हो गया था, और वह न केवल मनुष्य की विभिन्न भ्रष्ट स्थितियों को समझने लगा, बल्कि मनुष्य के सार, प्रकृति और विभिन्न कमियों को समझने लगा—स्वयं को वास्तव में समझने का यही अर्थ है। परमेश्वर के वचनों से, पतरस ने न केवल स्वयं की सच्ची समझ प्राप्त की, बल्कि परमेश्वर के वचनों में व्यक्त की गई बातों—परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव, उसके स्वरूप, परमेश्वर की अपने कार्य के लिए इच्छा, मनुष्यजाति से उसकी माँगें—से इन वचनों से उसे परमेश्वर के बारे में पूरी तरह से पता चला। उसे परमेश्वर का स्वभाव, और उसका सार पता चला; उसे परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान और समझ मिली, साथ ही परमेश्वर की प्रेममयता और मनुष्य से परमेश्वर की माँगें पता चलीं। भले ही परमेश्वर ने उस समय उतना नहीं बोला, जितना आज वह बोलता है, किन्तु पतरस में इन पहलुओं में परिणाम उत्पन्न हुआ था। यह एक दुर्लभ और बहुमूल्य चीज़ थी। पतरस सैकड़ों परीक्षाओं से गुज़रा लेकिन उसका कष्‍ट सहना व्‍यर्थ नहीं हुआ। न केवल उसने परमेश्‍वर के वचनों और कार्यों से स्‍वयं को समझ लिया बल्कि उसने परमेश्‍वर को भी जान लिया। इसके साथ ही, उसने परमेश्‍वर के वचनों में इंसानियत से उसकी सभी अपेक्षाओं पर विशेष ध्‍यान दिया। परमेश्‍वर की इच्‍छा के अनुरूप होने के लिए मनुष्‍य को जिस भी पहलू से परमेश्‍वर को संतुष्ट करना चाहिए, पतरस उन पहलुओं में पूरा प्रयास करने में और पूर्ण स्‍पष्‍टता प्राप्‍त करने में समर्थ रहा; ख़ुद उसके प्रवेश के लिए यह अत्‍यंत लाभकारी था। परमेश्‍वर ने चाहे जिस भी विषय में कहा, जब तक वे वचन जीवन बन सकते थे और सत्य हैं, तब तक उसने उन्‍हें अपने हृदय में रचा-बसा लिया ताकि अक्‍सर उन पर विचार कर सके और उनकी सराहना कर सके। यीशु के वचनों को सुनने के बाद, वह उन्‍हें अपने हृदय में उतार सका, जिससे पता चलता है कि उसका ध्‍यान विशेष रूप से परमेश्‍वर के वचनों पर था, और अंत में उसने वास्‍तव में परिणाम प्राप्‍त कर लिये। अर्थात्, वह परमेश्‍वर के वचनों पर खुलकर व्‍यवहार कर सका, सत्‍य पर सही ढंग से अमल कर सका और परमेश्‍वर की इच्‍छा के अनुरूप हो सका, पूरी तरह परमेश्‍वर की मर्ज़ी के अनुसार कार्य कर सका, और अपने निजी मतों और कल्‍पनाओं का त्‍याग कर सका। इस तरह, पतरस परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर सका।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें' से उद्धृत

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